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________________ टोक के रचयिता अन्य वसुनन्दि हैं । इन समस्त ग्रन्थों में इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण रचना उपासकाध्ययन या श्रावकाचार है | उपासकाध्ययन या श्रावकाचार श्रावकाचारमें कुल ५४६ गाथाएँ हैं, जो ६५० श्लोकप्रमाण है। मंगलाचरणके अनंतर देशविरति नामक पञ्चम गुणस्थान में दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याम, रात्रिभुक्कित्याम, ब्रा वाला जिमान बटुलतिलाग और उद्दिष्टत्याग ये ११ स्थान - (प्रतिमा) होते हैं। श्रावकको व्रती, उपासक, देशसंयमी और आगारी आदि नामोंसे अभिहित किया जाता है, जो अभीष्ट देव, गुरु, धर्मकी उपासना करता है, वह उपासक कहलाता है। गृहस्य वीतरागदेवकी नित्य पूजा-उपासना करता है, निग्रंथगुरुओं की सेवा वैयावृत्य में नित्य तत्पर रहता है और सत्यार्थधर्मकी आराधना करते हुए यथाशक्ति उसे वारण करता है । अतः बह्व् उपासक कहलाता है । वसुनन्दिने, १९ स्थान सम्यग्दृष्टिके होते हैं, अतः सर्वप्रथम सम्यक्त्वका वर्णन किया है । उन्होंने आप्त आगम और तत्त्वोंका शंकादि २५ दोषरहित अतिनिर्मल श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है । आप्त और आगमके लक्षण के पश्चात् जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यक्त्व बतलाया है । इसी सन्दर्भ में जीवतत्त्वका वर्णन करते हुए जोवोंके भेद-प्रभेद, उनके गुण, आयु, कुल, योनिका कथन किया है । अजीव तत्त्वके भेद बतलाकर छहों द्रव्योंके स्वरूपका वर्णन किया है। बताया है कि इन द्रव्योंमें जीव और पुद्गल ये दो परिणामी है, और ये दो ही क्रियाचान् है, क्योंकि इनमें गमन आगमन आदि क्रियाए पायो जरती हैं। शेष चार द्रव्य क्रियारहित हैं, क्योंकि उनमें हलन चलन क्रियाएं नहीं पायी जातीं । जोब और पुद्गल इन दो द्रव्यों को छोड़ शेष चारों द्रव्यों को परमागम में नित्य कहा गया है क्योंकि उनमें व्यजनपर्याय नहीं पायी जाती है। जीव और पुद्गल इन दोनों द्रव्योंमें व्यंजनपर्याय पायी जाती है । अतएव वे परिणामी और अनित्य है । पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांच द्रव्य जीवका उपकार करते हैं, अतएव वे कारणभूत हैं । जीव सत्तास्वरूप है, इसीलिये किसी भी द्रव्यका कारण नहीं होता। जीव शुभ और अशुभ कर्मोंका कर्त्ता है क्योंकि वही कर्मो फलको प्राप्त होता है । अतएव वह कर्मफलका भोक्ता भी है। शेष द्रव्य न कमोंके कर्त्ता हैं और न भोक्ता ही हैं। छहों द्रव्य एक दूसरेमें प्रवेश करके एक ही क्षेत्रमें रहते हैं। तो भी एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें प्रवेश नहीं होता, क्योंकि वे सब द्रव्य एक क्षेत्रावगाही होकर भी अपने-अपने स्वभावको नहीं छोड़ते । प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोवकाचार्य : २२७
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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