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अचेतन कभी आत्मा नहीं होता, न आत्मा कभी अचेतन । मैं ज्ञानस्वरूप हैं, मेरा कोई नहीं है और न में किसी दूसरेका हूँ।
इस संसारमें मेरा शरीरके साथ जो स्व-स्वामी सम्बन्ध हआ है. शरीर मेरा स्व और में उसका स्वामी बना हूँ तथा दोनोंमें जो एकत्यका भ्रम है, वह सब भी परके निमित्तसे है, स्वरूपसे नहीं।
इस प्रकार श्रीती भावनाका विश्लेषण किया गया है। अनन्तर मुक्तिके लिए नैरात्म्याद्वैतदर्शनकी उत्तिका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि अन्यके प्रतिभाससे रहितको आत्माका सम्यक् अवलोकन है, वही नैरात्म्याद्वैतदर्शन है। अन्यात्मरूपके अभावका नाम नैरात्म्य है और वह स्वात्माको सत्ताको लिए हुए होता है । अतः एकमात्र स्वात्मके दर्शनका नाम ही सम्यक् नैरात्म्यदर्शन है | आत्माको अन्यसे संयुक्त देखना द्वैत है और विभक्त देखना अद्वैत है । इस नेरात्म्याद तदर्शनको धर्म और शुक्ल इन दोनों ही ध्यानोंका ध्येय कहा है। इस प्रकार विस्तारपूर्वक द्वेत, अद्धत एवं आलम्बनरूप वस्तुका कपन आया है। ___इसके पश्चात् ध्यान द्वारा कार्य-सिद्धिके व्यापक सिद्धान्तका कथन आया है । जो जिस कर्मका स्वामी अथवा जिस कर्मके करने में समर्थ है, उसके घ्यानसे व्यासचित्त हा ध्याता उस देवत्तारूप होकर अपने वांछित कार्यको सिद्ध करता है। इसके बाद वैसे देवतामय कुछ ध्यानों और उनके फलोंका निर्देश किया गया है, जिसमें पार्श्वनाथ, इन्द्र, गरुड, कामदेव, वैश्वानर, अमृत और क्षीरोदधिरूप ध्यानों तथा उनके फलोंका विशेषरूपसे उल्लेख आया है ।
तदनन्तर ध्यानका अनुष्ठान करनेवालोंके लिए आकर्षण, वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, विद्रावण, निर्विषीकरण, शान्तिकरण, विद्वेषण, उच्चाटन, निगह आदि दष्टिगोचर होते हैं। ध्यानके परिवारका कथन करते हुए पूरण, कुम्भन, रेचन, दहन, प्लवन, सकलोकरण, मुद्रा, मंत्र, मंडल, धारणा, कर्मके अधिष्ठातादेवोंका संस्थान-लिंग-आसन-प्रमाण-वाहन-चीर्य-जाति-नाम-ज्योतिदिशा-मुखसंख्या-नेत्रसंख्या-भुजसंख्या-क्रूरभाव शान्तभाव-वर्ण-स्पर्श अवस्था, वस्त्र-श्राभूषण-आयुध आदि ध्यानके परिकर बतलाये गये हैं।
तत्पश्चात् लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकारको फलसिद्धियोंका कथन आया है। ध्यानको सिद्धिका मुख्य हेतु गुरु उपदेश, श्रद्धान, निरन्तर अम्बास और स्थिरमन बतलाये हैं। साथ ही यह निर्देश किया है कि लौकिक फल चाहनेवालोंके जो ध्यान होता है, वह या तो माप्तध्यान है अथवा रौद्र । मुमुक्षु इन दोनों ध्यानोंका त्यागकर धर्मध्यान और शुक्लध्यानकी उपासना करते
२४२ : तीथंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा