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जिद्दिट्ठधम्प सुरासीविसुद्ध । कयाणेयगंथो जयते पसिद्धो ॥ भवबोहिपोओ महाविस्सणंदी | खमाजुत्सु सिद्धतिओ विसहृणंदी || जिणिदागमाहासणे एयचित्तां । कायारणिट्टाए लाए हु || गरिदामरिदेहिं सो णंदबंदी । हुओ तस्स सीसो गणी रामणंदी || असेसाण गंथाण पारम्मि पत्तो । तवे अंगवी भव्वराईवमित्तो ॥ गुणावासभूओ सुतिल्लोक्कणंदी | महापंडिओ तस्स माणिक्कणंदी || धत्ता- पढमसीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मुणि णयदि अणिदिउ ।
चरिउ सुदंसणणाहो तेण अवाहद्दो विरइ बुहुअ हिनंदिउ ||९|| प्रशस्ति से स्पष्ट है कि सुनक्षत्र, पद्मनन्दि, विश्वनन्दि, नन्दनन्दि, विष्णुनन्दि, विशाखनन्दि, रामनन्दि, माणिक्यनन्दि और नयनन्दि नामक आचार्य हुए हैं । स्थिति-काल
'सुदंसणचरिउ' का रचनाकाल स्वयं ही ग्रन्थकर्त्ताने अंकित किया है । यह ग्रन्थ विक्रम संवत् ११०० में रचा गया है। आचार्यने बताया है कि अवन्ति देशकी धारा नगरीमें जब त्रिभुवननारायण श्रीनिकेतनरेश भोजदेवका राज्य था, उसी समय धारा नगरीके एक जैन मन्दिरके महाविहारमें बैठकर वि० सं० ११०० में सुदर्शनचरितकी रचना की। प्रशस्तिमें उल्लिखित मालवा के परमारवंश सुप्रसिद्ध नरेश भोजदेव हैं, जिनके राज्यकालके अभिलेख वि० सं० १०७७ से ११०४ तक पाये जाते हैं। भोजका राज्य राजस्थानके चित्तोड़से लेकर दक्षिण में कोंकण व गोदावरी तक विस्तीर्ण था । अतएव नयनन्दिका समय वि० [सं० की ११वीं शताब्दीका अन्तिम और १२वीं शतीका प्रारम्भिक भाग है ।
रचना
नयनन्दिकी 'सुदंसणचरित' और 'सयलविहिविहाणकव्व' नामक दो रचनाएँ उपलब्ध हैं । सुदंसणचरिउ अपन शका एक प्रबन्धकाव्य है, जो महाकाव्यकी कोटि में परिगणित किया जा सकता है। रोचक कथावस्तुके कारण आक
क होनेके साथ सालंकार काव्यकलाकी दृष्टिसे भी यह ग्रन्थ उच्चकोटिका है । पञ्चनमस्कार मन्त्रका फल प्राप्त करने वाले सेठ सुदर्शनके चरितका वर्णन किया गया है । चरितनायक धीरोदात्त नायकके गुणोंसे परिपूर्ण है । ग्रन्थ १२ सन्धियोंमें विभक्त है ।
१. सुदंसणचरिउ, सम्पादक डॉ० हीरालाल जैन, प्रकाशक जैन शास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली ( बिहार ) सन् १९६०, १२९ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २९१