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नहीं होते तब तक भगवानकी भक्ति प्राप्त होती रहे। इस भक्ति प्रसादसे ही रत्न - श्रय की प्राप्ति सम्भव है । रत्नत्रय मूलगुण और उत्तरगुणों के सम्बन्ध में जो अपराध हुआ है तथा मन, वचन, काय, वृत्त, कारित और अनुमोदनासे जो प्राणिहुआ है! तज्जन्य आस्रव आपके चरण कमलके स्मरणसे मिथ्या हो ।
चिन्ता दुष्परिणामसंततिवशादुन्मार्गगाथागिरः । कायात्संवृत्तिर्वाजितादनुचितं कर्माजितं यन्मया । तन्नाशं व्रजतु प्रभो जिनपते त्वत्पादपद्मस्मृते— रेषा मोक्षफलप्रदा किल कथं नास्मिन् रामर्था भवेत् ॥
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२२. एकत्वभावनादशक — इस प्रकरणमें ११ पद्म है। यह परमज्योतिस्वरूपसे प्रसिद्ध और एकत्वरूप अद्वितीय पदको प्राप्त आत्मतत्त्वका विवेचन करते हुए यह कहा गया है कि जो इस आत्मतत्त्वको जानता है वह दूसरोंके द्वारा पूजा जाता है, उसका आराध्य फिर अन्य कोई नहीं होता । उस एकत्वका ज्ञान दुर्लभ अवश्य हैं, पर मुक्तिको वही प्रदान करता है। मुक्तिसुख ही संसारमें सर्वश्रेष्ठ है ।
२३. परमार्थविशति इस प्रकरण में २० श्लोक हैं । इसमें भी शुद्ध चैतन्य निर्विकल्पक आत्माऩत्वको हो सर्वश्रेष्ठ माना है। निश्चयतः यह आत्मा ज्ञान, दर्शन, सुखस्वरूप है । न यह परवस्तुओंका भोक्ता है और न कर्ता ही । यह तो स्वयं अपने परिणामों का कर्त्ता और भोक्ता है। जब अन्तरंगमें रत्नत्रयका प्रकाश व्याप्त हो जाता है । तो संसारके सारे परपदार्थ निःसार प्रतीत होने लगते हैं । आत्मा कर्मफलरूप सुख-दुःखसे पृथक् है ।
२४. शरीराष्टक - इस प्रकरण में ८ पद्य हैं । शरीरकी स्वाभाविक अपवित्रता और अस्थिरताको दिखलाते हुए उसे नाड़ीब्रणके समान भयानक और कड़वी तुम्बीके समान उपयोगके अयोग्य बतलाया है । साथ ही यह भी कहा है कि एक ओर मनुष्य जहाँ अनेक पोषक तत्त्वों द्वारा उसका संरक्षण करके उसे स्थिर रखने का प्रयास करते हैं वहीं दुसरी ओर वृद्धत्व उन्हें क्रमशः जर्जरित करनेमें उद्यत रहता हैं और अन्तमें वही सफल होता है । इस प्रकार शरीरकी अशुचिता और अनित्यताका वर्णन आया है ।
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२५. स्नानाष्टक - इसमें ८ पद्य हैं। स्वभावतः अपवित्र मलमूत्र आदिसे परिपूर्ण यह शरीर स्नान करनेसे कभी पवित्र नहीं हो सकता। इसका यथार्थ स्थान तो विवेक है जो जीवके चिरसंचित मिथ्यात्व आदि रूप अन्तरंग मलको
१. पद्मनदिपञ्चविंशति, २१।१२ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परा पोषकाचार्य : १३९