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________________ यही भाव अमितगति-श्रावकाचारमें निन्न पद्योंमें व्यक्त किया गया है संधे चतुविधे भक्त्या रत्नत्रयविराजिते । विधातव्यो यथायोग्यं विनयो नयकोविदः ॥ सम्यग्दर्शन-चारित्र-तपोज्ञानाभि देहिना। अपाप्यन्ते विनीतेन यशांसीव विपश्चिता ॥ पअनन्दिने अमितगति-श्रावकाचारके चतुर्थ परिच्छेदके कई पद्योंका अनूसरण किया है। अमिततिके 'द्वात्रिशतिका के निम्नलिखित पद्यका प्रभाव भी पद्मनन्दिपर प्रतीत होता है। एकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिनः प्रमादतः संचारता इतस्ततः । क्षता विभिन्ना मिलिता निपीडिता स्तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ॥ पद्मनन्दिने लिखा है- हे जिन ! प्रमाद या अभिमानसे जो मैंने मन, वचन एवं शरीर द्वारा प्राणियोंका पीडन स्वयं किया है, दुसरोंसे कराया है अथवा प्राणिपीडन करते हुए जीवको देखकर हर्ष प्रकट किया है, उसके आश्रयसे होनेवाला मेरा पाप मिथ्या हो। यथा-- मनोवोऽङ्ग कृतमङ्गिपीडनं प्रमादित कास्तिमत्र यन्मया। प्रमादतो दर्पत एतदाश्रयं तदस्तु मिथ्या जिन दुष्कृतं मम ।। अतएव अमितगतिसे उत्तरवर्ती होनेके कारण पद्मनन्दि द्वितीयका समय ई० सन्की ११ वीं भाती है, यतः अमितगतिने वि० सं० १०७३ में अपना पञ्चसंग्रह रचा है। रचनाका परिचय ‘पचनन्दिपञ्चविंशति' अत्यन्त लोकप्रिय रचना रही है। इसपर किसी अज्ञात विद्वान्की संस्कृत-टीका है । 'एकत्वसप्तति' प्रकरणपर कन्नड़-टीका भी प्राप्त होती है। कन्नड़-टीकाकारका नाम भी पचनन्दि है। इनके नामके साथ पण्डितदेव, व्रती एवं मुनि उपाधियाँ पायी जाती हैं । ये शुभचन्द्र राद्वान्तदेवके अशिष्य थे और इनके विद्यागरु कनकनन्दी पण्डित थे। इन्होंने अमतचन्द्रकी वचनचन्द्रिकासे आध्यात्मिक प्रकाश प्राप्त किया था और निम्बराज १, अमितगति-अवकाचार १३।४४, ४८ । २. भावनाद्वात्रिशतिका, पद्य ५। ३. पयनन्दि गश्चविंशति २१॥११ । प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषवाचार्य : १२९
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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