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________________ लिये की गयी है। मोक्षप्राभूतके अन्त में पूर्व प्रशस्ति भी दी गयी है । इस प्रकार संक्षेपमें पद्माभृतको टीका कुन्दकुन्दके अन्यको स्पष्ट करती है। तत्त्वत्रयप्रकाशिका-यह ज्ञानावणंवके गद्यभागकी संस्कृत टोका है। यह टीका अभी तक अप्रकाशित है। शुभचन्द्राचार्यने योगविषयको लेकर ज्ञानार्णबको रचना की है। श्रुतसागरने केवल इसके गद्यांशपर ही संस्कृत टीका लिखी है । जिनसहस्रनामटोका-यह १० आशाधर कृत सहस्रनामकी विस्तृत टीका है। टीकाके अन्त में निकला है - श्रुतसागरकृतिवरवचनामृतपानमन येविहितम् । जन्मजरामरणहरं निरन्तरं तैः शिवं लब्धम् । अस्ति स्वात्ति समस्तसङ्कतिलक श्रीमलसङ्घोऽनघं वृत्तं यत्र मुमुक्षुवगंशिवदं संसेवितं साधुभिः । विद्यानन्दिगुरुस्विहास्ति गुणवद्गच्छे गिरः साम्प्रतं तच्छिष्यश्नुतसागरेण रचिता टीका चिर नन्दतु ॥ महाभिषेकटोका-पं० आशाधरके नित्यमहोद्योतकी यह टीका है । इसका प्रणयन उस समय हुआ था, जब श्रुतसागर देशव्रती या ब्रह्मचारी थे। औदार्यचिन्तामणि-प्राकृत भाषाका शब्दानुशासन है। दो अध्यायोंमें पर्ण हआ है। प्रथम अध्यायमें २४५ सूत्र और द्वितीय अध्यायमें २१३ सुत्र हैं। प्रथम अध्यायके अन्तमें लिखा है-- श्रीपूज्यपादसूरिविद्यानन्दी समन्तभद्रगुरुः । श्रीमदकलवदेवो जिनदेवो मङ्गलं दिशतु !! __ "इत्युभयभाषाकविचक्रवत्तिव्याकरणकमलमार्तण्डतार्किकबुधशिरोमणिप - रमागमप्रवीणसूरिश्रीदेवेन्द्रकीतिप्रशिष्य - मुमुक्षुश्रीविद्यानन्दिप्रियशिष्यश्रीमूल . सघपरमात्मविदुस्सुरिश्रीश्रुतसागविरचिते औदार्यचिन्तारत्ननाम्नि स्वोपज्ञवृत्तिनि प्राकृत्तव्याकरणे वर्णादेशनिरूपणो नाम प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।" द्वितीय अध्यायके अन्त में भी इसी प्रकारकी प्रशस्ति है। इस अध्यायका नाम संयुक्त अव्ययनिरूपण है। इसमें संयुक्त वर्णविकार और अव्ययोंके निपातका कथन आया है। प्रथम अध्यायमें स्वर और व्यञ्जनोंके विकारका निरूपण है । इस अध्यायका प्रथम सूत्र तदार्षञ्च बहुलम् ॥२॥ तत्प्राकृतमषिप्रणीतमार्षमनार्षच बहुमित्यधिकृतं वेदितव्यम् । तत्र ३९८ : तार्थंकर महावार और उनकी आचार्य-परम्परा
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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