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शक संवत् मानने में तीन दोष आते हैं। पहला दोष तो यह है कि शक संवत् में अमान्त माम गणना ली जाती है और यहाँ पर पूर्णिमान्त मास गणना की गयी है। दुसरा दोप यह है कि उत्तर भारत में वि० सं० का प्रचार था और दक्षिण भारतमें शक संवत् का। यदि झे शक संवत् मानते हैं तो ग्रन्थकार दक्षिणके निवासी सिद्ध होते हैं, पर जात ऐसी नहीं है। तीसरी बात यह है कि जहाँ-जहाँ शक संवत्का उल्लेख मिलता है, वहाँ संवत्त पूर्व शक विशेषण आता है। सामान्य संवत् शब्द वि० सं० के लिए ही प्रयुक्त होता है । 'रिष्टसमुच्चय' की रचना वि० सं० १०८९ श्रावण शुक्ला एकादशी शुक्रवारको मूर्योदयके १ घंटा १२ मिनटके पश्चात् किसी भी समयमें पूर्ण हुई है। ई० सन् के अनुसार गणना करनेपर २१ जुलाई शुक्रवार ई० सन् १०३२ आता है। अतः दुर्गदेव ई० सन् की ११वीं शतीके विद्वान हैं। रचनाएं दुर्गदेवकी निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं।
१. रिष्टसमुच्चय । २. अर्घकाण्ड । ३. मरणकण्डिका ।
४. मन्त्रमहोदधि । रिष्टसमुच्चय
इस ग्रन्थमें २६१ गाथाएँ हैं। आरम्भमें जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार करनेके पश्चात् मनुष्यजीवन और जैनधर्मकी उत्तमताका निरूपण कर विषयका कथन किया गया है। प्राक्कथनके रूपमें अनेक रोगां और उनके भेदोंफा वर्णन है। यह १६ गाथाओं तक गया है । विषयमें प्रवेश करनेके पश्चात् ग्रन्थकारने रिष्टोंके पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ये सीन भेद बतलाये हैं। प्रथम श्रेणी में शारीरिक अरिष्टोंका वर्णन करते हुए वाहा है कि जिसकी आँन्हें स्थिर हो जायें, पुतलियाँ इधर-उधर न चलें, शरीर कान्तिहीन काष्ठवत् हो जाये और ललाटमें पसीना आवे वह केवल ७ दिन जीवित रहता है। यदि बन्द भुख एकाएक खुल जाये, आंखोंकी पलकें न गिरें, इकटक दृष्टि हो जाये तथा नख-दाँत सड़ जायें या गिर जायें तो वह व्यक्ति सात दिन तक जीवित रहता है । भोजनके समय जिस व्यक्तिको कड़वे, तीखे, कषायले, खट्टे, मीठे और खारे रसोंका स्वाद न आवे उसकी आयु १ माहकी होती है। बिना किसी कारणके जिसके नख, ओठ काले पड़ जायें, गर्दन झुक जाये, तथा उष्ण बस्तु शीत और शीत वस्तु उष्ण प्रतीत हो, सुगन्धित वस्तु दुर्गन्धित और दुर्गन्धित वस्तु सुगन्धित
प्रबुवाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १९९