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भट्टारक भुवनकीर्ति सकलकोतिके प्रधान शिष्यों में भट्टारक भुवनकीर्तिकी गणना की गयी है | सकलकीर्तिको मृत्यु के पश्चात् इन्हें भट्टारकपद किस संवत्में प्राप्त हुआ था, इसका कोई निश्चित उल्लेख नहीं मिलता है। श्री जोहरापुरकरने अपनी भट्टारकसम्प्रदाय नामक पुस्तक में इनका समय वि० सं० १५०८-५५२७ माना' है । पर अन्य भट्टारकपट्टालियांम सकलकोतिके पश्चात् धर्मवोति एवं विमलेन्द्रकीतिके भट्टारक होनेका निर्देश पाया जाता है। इन्हीं पटावलियोंके अनुसार धर्मकीर्ति २४ वर्ष और विमलेन्द्र कीति ९ वर्ष तक भट्टारक रहे । इस प्रकार सकलकोतिके ३३ वर्षके पश्चात् भुवनकीतिको वि० सं० १५३२ में भट्टारकपद मिला होगा, पर भुवनकीसिके पश्चात् होनेवाले सभी विद्वान् और आहारकोंने उक्त दोनों भट्टारकोंका कहीं भी निर्देश नहीं किया है। इससे पह निष्कर्ष निकलता है कि आचार्य सकल कीर्ति की परम्परामें भुवनकीति हो प्रथम शिष्य और भट्टारक हुए हैं। इन्हें वि० सं० १४९९ के पश्चात् किसी भी मामय पटपर अभिषिक्त कर दिया गया होगा तथा भट्टारकपट्टावली भट्टारकः यशःकोति-शास्त्रभण्डार (ऋषभदेव) में प्राप्त है।
आचार्य भुबन कीति विविध भाषाओं और शास्त्रों के ज्ञाता थे। इन्हें विभिन्न कलाओंका परिज्ञान भी था। ब्रह्मजिनदासने अपने रामचरितकाव्यमें इनकी कीतिका गुणानुवाद किया है तथा इन्हें यतिराज कहा है । यथा
पट्टे तदीयं गुणावान् मनीषी क्षमानिधाने भुवनादिकोतिः । जीयाच्चिरं भव्यसमूहबंद्या मानायतिनातनिपेवणीयः ।।
जगति भुवनकोतिर्भूतलख्यातकीतिः, श्रत जलनिधिवेत्ता अनंगमानप्रभेक्ता । विमल गुर्णानवासः छिन्नसंसारपाशः
स जयति यति राजः साधुराजिसमाजः ॥ भुवनकोतिक सम्बन्ध में ब्रह्मजिनदास, भट्टारक ज्ञान काति आदिन बताया है कि पहले य मुनि रहे हैं और सकलकार्तिको मृत्युके पश्चात् इन्हें भट्टारकपद प्रदान किया गया है । शुभचन्द्र-पटालिम भी इसका उल्लेख मिलता है ।
१. भट्टारकसम्प्रदाय, पु. १५८ । २. देखें, राजस्थानके जैन रास्त, पृ० १७५ के फुटनोट नं. ३ में । ३. रामचरित्र (७० जिनदास) श्लोक १८५-१८६ । ३३६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा