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स्पष्ट है कि कवि कलाका उद्देश्य मनोरञ्जनमात्र मानता है। वह छन्दोलंकार अथवा भाषासम्बन्धी किसी भी अनुबन्धको महत्त्व नहीं देता । वस्तुतः काव्यके लिए छन्द, अलकायदावश्यक है भी नहीं। उसकी सत्ता ही काव्यका प्राण है । चमत्कारके रहनेसे मनोरञ्जन और रसानुभूतिके होनेसे परमानन्दको प्राप्ति काव्यमें होती है ।
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मन्त्रका सम्बन्ध लोककल्याणके साथ है, आत्मकल्याणके साथ नहीं ! तान्त्रिक विधियों द्वारा भी लोकानुरञ्जन किया जाता है । अतएव मल्लिषेणने लोककल्याण और लोकरञ्जनके हेतु कामचाण्डालीकल्पकी रचना की है । इस कृतिकी पाण्डुलिपि बम्बई के सरस्वतीभवनमें है ।
प्रवचनसारटीका, पंचास्तिकायटीका, वज्रपंजरविधान, ब्रह्मविद्या आदि कई ग्रन्थ मल्लिषेणके नामसे उल्लिखित मिलते हैं। पर निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि ये ही मल्लिषेण इन ग्रन्थोंके भी रचयिता है। वज्रपंजरविधान और ब्रह्मविद्यामन्त्रग्रन्थ होनेके कारण इन मल्लिषेणके सम्भव हैं । वज्रपंजरविधानकी पाण्डुलिपि श्री जैन सिद्धान्त भवन आरामें है ।
इन्द्रनन्दि प्रथम
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इन्द्रनन्दि नामके कई आचार्यों के उल्लेख मिलते हैं । किन्तु यहाँ मन्त्रशास्त्रविज्ञ ज्वालमालिनीकल्पके रचयिता इन्द्रनन्दि अभिप्रेत हैं । एकसन्धिभट्टारक द्वारा विरचित जिनसंहिता में उनके पूर्ववर्ती आठ प्रतिष्ठाचार्योंका उल्लेख आया है । आर्यपने शक सं० १२४१ (वि०सं० १३७६ ) में 'जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय' नामक ग्रन्थ लिखा है । इसमें ९ प्रतिष्ठाचार्योंके उल्लेख आये हैं, जिनमें एक इन्द्रनन्दिका भी है । किन्तु इन्द्रनन्दिके नामकी जो संहिता मिलती है, उसके रचयिता प्रस्तुत इन्द्रनन्दिसे भिन्न इन्द्रनन्दि हैं। पद्य निम्न प्रकार है-बीराचार्यसुपूज्यपादजिनसेनाचार्य संभाषितो
यः पूर्वं गुणभद्रसूरिवसुनन्दीन्द्रादिनन्यज्जितः । यश्चाशावरस्तिमल्लकथितो यश्चैकसन्धिस्ततः । तेभ्यः स्वाहृत्सारमध्यरचितः स्याज्जैनपूजाक्रमः ॥ रायबहादुर डा० हीरालाल जीकी 'A Catlogue of Sanskrit and Prakrit Manscripts in the Central Provinces and Berar' नामक ग्रन्यसूची नागपुरसे ई० सन् १९२६ में प्रकाशित हुई थी। इस ग्रन्थकी प्रस्तावनायें इन्द्रनन्दिके सम्बन्ध में लिखा गया है
१. प्रशस्तिसंग्रह, आरा, १०६० ।
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प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १७७