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इदं चक्र शास्त्रं जिनसमय-सारार्थ-निवित
हितार्थं जंतूनां स्वमत्तिविभवाद्गर्व-विकलः ॥७॥ समय-निर्धारण
धर्मरत्नाकरमें जयमेन प्रथमने उसका रचनाकाल अंकिन किया है। सरस्वतीभवन ध्याचरकी प्रतिमें रचनाकालका निर्देश करनेवाला निम्नलिखित पद्य उपलब्ध होता है
वाणेन्द्रियव्योमसोम-मिते संवत्सरे शुभे ११०५५।
ग्रन्थोऽयं सिद्धता यातः सबलीकरहाटके ।। अर्थात् वि० सं० १०५५ में सबलीकरहाटक नामक स्थानमें धर्मरत्नाकरकी समाप्ति हई है। अत: जयसेन प्रथमके समयके सम्बन्ध में किसी भी प्रकारका विवाद नहीं है। __ जयसेनने घमरत्नाकारमें आचार्य अत्तपात पुरुषार्थहिनाय सथा सोमदेवमूरिके उपासकाध्ययनसे अनेक पद्य उद्धृत किये हैं। यशस्तिलकचम्पुको अन्तिम प्रशस्तिके आधारपर सोमदेवका समय वि सं० १०१६ है और अमृतचन्द्र आचार्यका विक्रमकी दशम शताब्दीका तृतीय चरण है। धर्मरत्नाकरमें तत्त्वानुशासनका भी एक पद्य उद्धृत है । अतएव जयसेनका समय रामसेनके समकालीन अथवा दो-चार वर्ष पश्चात् ही होना चाहिये । धर्मरत्नाकरके उल्लेखोंके आधार पर आचार्य अमृतचन्द्र और तत्त्वानुशासनका समय विक्रमकी ११वीं शतीका प्रथम चरण सम्भव है । अतएव धर्मरलाकरमें जो उसका रचनाकाल वि० सं० १०५५ दिया गया है उमकी पुष्टि अन्य प्रमाणोंसे भी होती है ।
रचना
___ आचार्य जयसेन प्रथमकी एक ही रचना प्राप्त है, धर्मरत्नाकर । इस ग्रन्थ का विषय नामानुसार आचार और तत्त्वज्ञानसे सम्बद्ध है। ग्रन्थ अवसरोंमें विभक्त है और समस्त विषयोंका समावेश बीम अवसरोंमें किया गया है। ग्रन्थके अन्तिम अबसरमें लिखा है
यस्या नैवोरमान किमपि हि सकलद्योतकेषु प्रतयं--- मंत्येनकेन नित्यं श्लथयति सकलं वस्ततत्त्वं विवक्ष्य । अन्येनान्त्येन नीति जिनपत्तिमहितां संविकर्षत्यजन,
गोपी मंधानवद्या जगति बिजयतां सा सम्ली मुक्तिलक्ष्म्याः ॥६६।। इतिथीसूरिश्रीजयसेनविरचिते धर्मरत्नाकरे उक्ताऽनुक्तशेषविशेषसूचको विशतितमोऽवसरः ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : १४१