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तीत ध्यानोंका वर्णन किया है । पूजनके फलका कथन करते हुए प्रत्येक द्रव्यके चढ़ानेके फलका पृथक्-पृथक् निरूपण किया है। बताया है कि पूजनके समय नियमसे भगवानके आगे जलधारा छोड़नेसे पापरूपी मैलका शमन होता है। चन्दन रसके लेपसे सौभाग्यको प्राप्ति होती है। अक्षतोंसे पूजा करनेवाला व्यक्ति अक्षय नव निधि और चौदह रलोंका स्वामी चक्रवर्ती होता है और रोग शोकसे रहित हो अक्षीण ऋद्धिसे सम्पन्न होता है । पुष्पोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य कमलके समान सुन्दर मुखवाला और विभिन्न प्रकारके दिव्य भागोरो सम्पन्न कामदेव होता है । नैवेदाके चटानेसे मनष्य शक्ति गान, तेजस्वी और सुन्दर होता है। दीपोंसे पूजा करनेवाला व्यक्ति केवलज्ञानको प्राप्त करता है । धूपसे पूजा करनेवाला निर्मल यश, फलसे पूजा करनेवाला निर्वाणफल एवं अभिषेक करनेवाला व्यक्ति इष्ट सिद्धियोंको प्राप्त करता है। भगवानकी पूजा करनेसे संसारके सभी सुख प्राप्त होते हैं | धावक धर्मके पालन करनेके फलका विवेचन करते हुए लिखा है
अणुपालिऊण एवं सावयघम्म तओवसाणम्मि | सल्लेहणं च विहिणा काऊण समाहिणा कालं ॥ सोहम्माइसु जायइ कप्पविमाणेसु अच्युयंतेसु। उववादगिहे कोमलसुयंसिलसंपुडस्सते ।। अंतोमुत्तकालेण तो पज्जत्तिमओ समाणेइ । दिव्यामलदेहधरो पायइ णवजुयणो चेव ।। समचउरससंठाणो रसाइधाहिं यज्जियसरीरो ।
दिणायरसहस्सओणवकुवलयसुरहिणिस्सासो।' इस प्रकार श्रावकधर्मका परिपालनकर और उसके अन्तमें विधिपूर्वक सल्ले. खना करके समाधिसे मरणकर अपने पुण्यके अनुसार सौधर्मस्वर्गको आदि लेकर अच्युतस्वर्गपर्यन्त कल्पविमानोंमें उत्पन्न होता है। वहाँके उपपादगहोंके कोमल एवं सुगन्धयुक्त शिलासम्पुटके मध्यमें जन्म लेकर अन्तर्मुहर्तकाल द्वारा अपनी छहों पर्याप्तियोंको सम्पन्न कर लेता है तथा अन्तर्मुहूर्त के भीतर दिव्य निर्मल देहका धारक एवं नवयौवनसे युक्त्त हो जाता है । वह देव समचतुरस्त्र संस्थानका धारक, रसादि धातुओंसे रहित शरीरवाला, सहस्र सोंके समान तेजस्वी, नवीन कमल के समान सुगन्धित निःश्वासवाला होता है।
इस प्रकार श्रावकधर्मका पालन करनेका फल भोगभूमि, देवगति एवं मनुष्यगतिमें विविध भोगोंकी उपलब्धि होना बतलाया है। बुद्धि, तप, विक्रिया १. वसुनन्दि धावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, एलोक ४९४-४९७ । २३० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा