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गृहस्थ और मुनिधर्ममें अधिक श्रेष्ठ मुनिधर्म है, क्योंकि मोक्षमार्ग-रत्नत्रयके धारक साधु ही होते हैं । साधुकी स्थिति गृहस्थों द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये भोजनके आश्रित होती है, अतात्र गृहस्थधर्मकी भी आवश्यकता है। जो धर्मवत्सल गृहस्थ अपने षट् आवश्यकोंका पालन करता हुआ मुनिधर्मको स्थिर रखते हुए मुनियोंको निरन्तर आहारादि दिया करता है उसीका गृहस्थ-जीवन प्रशंसनीय है।
श्रावक्रधर्मकी दर्शन, व्रत आदि एकदश प्रतिमाओंका भी वर्णन किया गया है। श्रावकको यूतक्रीडा, मांसादिभक्षणरूप सप्तव्यसनका त्याग करना आवश्यक है। आचार्य ने धूतादि व्यसनोंका सेवन कर कष्ट उठाने वाले युधिष्ठिर आदिका उदाहरण भी दिया है। हिंसा, असत्य, स्तेय, मथुन और परिग्रहरूप पापोंका त्याग गृहस्थ एकादेश करता है और मुनि सर्वदेश, अतः मुनिका आचरण सकलचरित्र और गृहस्थका आचरण देशचरित्र' कहलाता है। सकलचारित्रको धारण करनेवाले मुनिको रत्नत्रय, मूलगुण, उत्तरगुण, पाँच आचार और दस धर्माको धारण करना चाहिए । मुनिके अट्ठाइस मूलगुणोम पाँच महाव्रत्त, पाँच समितियाँ, पाँच इन्द्रियोंका निरोध, समता आदि षडावश्यक, केशलुञ्च, वस्त्रपरित्याग, स्नानपरित्याग, भूमिशयन, दन्तघर्षणका त्याग, स्थितिभोजन और एकभक्तकी गणना की गयी है। इन २८ मूलगुणोंमें पद्मनन्दिने अचेलकत्व, लोच, स्थितिभोजन और समताका ही मुख्यत्तासे वर्णन किया है। दिगम्बरत्वकी सिद्धि अनेक प्रमाणों द्वारा की गयी है।
साधुजीवनके वर्णनके पश्चात् आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठियोंका स्वरूप प्रतिपादित किया है। व्यवहाररत्नत्रयका स्वरूप अंकित करने के साथ निश्चयरत्नत्रयका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-आत्मानामक निर्मल ज्योतिके निर्णयका नाम सम्यग्दर्शन, तद्विषयक बोधका नाम सम्यग्ज्ञान और उसीमें स्थित होनेका नाम सम्यक्चारित्र है।
यह निश्चयरलय ही कर्मबन्धको नष्ट करने वाला है। उत्तम क्षमा, मार्दव आदि दस धर्मोका सबन संवरका कारण है।
संसारके समस्त प्राणी दुःखसे भयभीत होकर सुख चाहते हैं और निरन्तर उसकी प्राप्तिके लिए प्रयत्नशील रहते हैं। पर सभीको सुखका लाभ हो नहीं पाता । इसका कारण उनका सुख-दुःखविषयक विवेक है। उन्हें सात्तावेदनीयके उदयसे क्षणिक सुखका आभास होता है, उसे वे यथार्थ सुख मान लेते हैं, जो वस्तुत: स्थायी यथार्थ सुख नहीं है, यतः जिस इष्ट सामग्री के संयोगमें सुखको कल्पना करते हैं, वह संयोग ही स्थायी नहीं है । अत: जब अभीष्ट सामग्रीका
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य - १३१