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में जानने की इच्छा, अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालचक्र, सुषम-सुषमा, सुषमा, सुषम दुःषमा, दुःषम- सुषमा, दुःषमा, दुःषम दुःषमा इन छह कालोंका वर्णन किया गया है। तृत्तीय कालके अन्तमें ऋषभदेवादि चतुर्विंशति तीर्थंकरोंकी उत्पत्ति, तीर्थंकरोंकी कायाका प्रमाण, उनके जन्मस्थान, वर्ण, आयु, तीर्थंकरोंके तीर्थ की अवधि द्वादश चक्रवर्ती, नव बलदेव, नव नारायण, नव प्रतिनारायण आदिका वर्णन आया है। रविकीर्ति भी तीर्थंकर पार्श्वनाथके उपदेशसे प्रभाचित होकर दीक्षित हो जाता है और पाश्वंभाथके समवशरण में शौरीपुर पहुँचता है।
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१८वीं सन्धिमें २२ कड़वक हैं। समवशरण में नरक जानेवाले मनुष्योंके कृत्योंके पश्चात् तिर्यञ्चगतिके जीवोंका विवरण आया है । मनुष्यगत्तिके जीवोंके दो भेद किये हैं- कर्मभूमिके मनुष्य और भोगभूमिके । भोगभूमि में उत्पन्न होने वालेोके सत्कार्यका वर्णन करते हुए ढ़ाई द्वीपकी १७० कर्मभूमियों का विवेचन किया है । देवगति में उत्पन्न करानेवाले सत्कृत्यों का चित्रण कर समवशरण में वामादेवी और हमसेनको उपदेश दिये जानेका कथन आया है | नागराजद्वारा पूर्वजन्मके वृत्तान्तके सम्बन्ध में पूछनेपर दशभवों की कथाका संक्षेप में चित्रण आया है । यसेन भी दीक्षित हो जाता है और अन्त में ग्रन्थ परिचय और ग्रन्थकारकी गुरुपरम्परा के साथ ग्रन्थ समाप्त हो जाता है ।
यह ग्रन्थ जैन सिद्धान्त और काव्यको दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है । इसमें सम्यक्त्व, श्रावकधर्म, सुनिधर्म, कर्मसिद्धान्त, विश्वका स्वरूप आदिका चित्रण आया है । सम्यक्त्वके स्वरूपका विवेचन निश्चय और व्यवहार दोनों ही दृष्टियोंसे किया गया है । इस ग्रन्थ में सम्यक्त्वके चार गुण - १. मुनियोंके दोषोंका गोपन, २. च्युतचारित्र व्यक्तियोंका पुनः सम्यक् चरित्र में स्थापन ३. वात्सल्य और ४ प्रभावना बतलाये हैं । पाँच दोषोंमें - १. शंका, २. आकांक्षा, ३ विचिकित्सा ४ मूढदृष्टि, और ५. परसमयप्रशंसाकी गणना की है। श्रावकधर्म के अन्तर्गत गुणव्रत, अणुव्रत, शिक्षाव्रतका कथन आया है। मुनिर्मके अन्तर्गत २८ मूलगुण -- पांच महाव्रतोंका पालन, पाँच समितियोंका धारण, पंचइन्द्रियोंका निग्रह, षड्आवश्यक, खड़े-खड़े भोजन, एक बार भोजन, बस्त्रत्याग, केशलुञ्च, अस्नान, भूमिशयन और अदन्त धावन मूलाचारके समान ही इस ग्रन्थमें आये हैं । तपके दो भेद किये हैं- बाह्य और आभ्यन्तर । अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशयनासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तपके भेद हैं । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सगं और ध्यान ये छह आभ्यन्तर तपके भेद हैं। इन मूलगुणोंके साथ २२ परीपह और उत्तरगुणोंका भी कथन
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २१७