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चतुर्थ प्रभाचन्द्र वे हैं, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके प्रथम शिलालेखमें पाया जाता है और जिनके सम्बन्धमें यह कहा जाता है कि वे भद्रबाह श्रतकेवलीके दीक्षित शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त थे। इनका समय वि० सं० से भी ३०० वर्ष पूर्व है।
प्रभाचन्द्रके तत्त्वार्थसूत्रका अध्ययन करनेसे कुछ ऐसे तथ्य उपस्थित होते हैं, जिनके आधारपर उनके समयका अनुमान किया जा सकता है । प्रभाचन्दने ५वें अध्यापन अन्यका १५ बसला रसिया है--
सत्त्वं द्रव्यलक्षणम् ॥६॥
उत्पादादियुक्तं सत् ॥७॥
सहक्रमभाविगुणपर्ययवद्व्यम् ॥८॥ द्रव्यके इन लक्षणोंपर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्रने जहाँ गृद्धपिच्छाचार्यके सूत्रोंका संक्षेपीकरण किया है, वहां अष्टमसूत्रमें वृद्धि की है। गुणोंको सहभावी और पर्यायोंको क्रमभावी बतलाया गया है । इस लक्षणपर स्पष्टत: अकलंकदेवका प्रभाव मालूम पड़ता है। अकलंकदेवने अपने न्याय विनिश्चयमें बतलाया है
'गुणपर्ययवद्व्यं ते सहक्रमवृत्तयः' अर्थात् गुण सहभावी और पर्याय क्रमभावी बतलायी गयी हैं । अतःप्रभाषन्द्रने अपना तत्त्वार्थसूत्र गद्धपिच्छाचार्य के अनुसरणपर लिखा और सुचोंमें जहां-तहां परिवर्द्धन और परिवर्तन पूज्यपाद, अकलंकदेव आदिके आधारपर किया है। अतएव इन प्रभाचन्द्रका समय अकलंकदेवके पश्चात् होना चाहिये। प्रभाचन्द्रके नाममें प्रयुक्त 'बृहद' विशेषण अन्य प्रभाचन्द्रोंसे उन्हें पृथक करता है । तत्त्वार्थसूत्रके प्रत्येक अध्यायकी पुष्पिकामें बृहद् विशेषण प्राप्त होता है । यथा
इति श्रीवृहत्प्रभाचन्द्र-विरचिते तत्त्वार्थसूत्र प्रथमोऽध्यायः ॥१॥ प्रभाचन्द्रके नामसे अहंद्प्रवचन नामका एक ग्रन्थ भी मिलता है। इस अर्हत्प्रवचनके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि अर्हत्प्रवचनके रचयिता प्रभाचन्द्रने बृहत्प्रभाचन्द्रके तत्वार्थसूत्रका अवलोकन किया है ! अकलंकदेवने अपने 'तत्त्वार्थवातिक' ५।३८ में 'उक्तव्च महत्प्रवचने' लिखकर एक अहस्त्रवचनका निर्देश किया है, जिससे यह अनुमान किया जा सकता है कि अपने इस अहप्रवचन नामक सूत्रग्रन्यको उसके कर्त्ताने प्राचीन अर्हप्रवचनके अनुसरणपर
३०० : तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परमरा