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________________ चक्रवर्ती, सेनापति, सामन्त और अन्य राजाओंने अपने-अपने योग्य निवासस्थानका चयन किया -षष्ठ सगं । चक्रवर्तीकी सेना ने नदोको पार किया और बारह योजन जानेपर चक्रवर्तीका रथ रुक गया । आकाशभाषित वाणी सुनकर उसने मागध व्यन्तरके पास बाण छोड़ दिया । उसे देख व्यन्तर क्रोधाविष्ट हो गया और उसकी सेना युद्धके लिए सन्नद्ध हो गयी । एक वृद्ध पुरुषने मागधको समझाया कि बलशाली पुण्यात्माओंसे विग्रह करना उचित नहीं है । उनसे सन्धि करनेपर ही लाभ होता है | अतः मागध देव बहुत-सी अमूल्य वस्तुएं लेकर चक्रवर्तीकी सेवामें उपस्थित हुआ ! बहाँसे चक्रवर्ती सिन्धु नदीके घाटीमें प्रविष्ट हुआ तथा वरतनु देबको अपने अधीन किया । अनन्तर चक्रवर्तीकी सेना विजयार्धपर पहुँची । इस पर्वतका शासन करनेवाले विजयार्धकुमारने नम्रीभूत हो चक्रवर्तीकी पूजा की और अनेक वस्तुएँ भेंट दीं। कृतमालदेवने चौदह आभूषण दिये और गुहाका द्वार खोलने की विधि बतलायी। गुहाके भीतर प्रविष्ट होकर सेनापतिने म्लेच्छोंको जीत लिया । बहाँसे चलकर वह वृषभाचल पर आया । विद्याधरोंको पराजित कर विद्याधरकुमारियोंका पाणिग्रहण किया । इस प्रकार षट्खण्डकी विजय कर वह अश्वपुर नगरमें वापस आया ! -- सप्तम सर्ग ! वचनाभको छयानबे हजार रानियाँ, चौरासी लाख हाथी, अठारह करोड़ घोड़े और इतने ही सवार थे। एक दिन वह राजा वनमालीसे प्रार्थित हो वसन्तकी शोभा देखने गया। इस प्रसंग में कविने वसन्तका बड़ा सुन्दर वर्णन किया है । जब चक्रवर्ती वनसे वापस लौटने लगा, तो वसन्तश्री समाप्त हो चुकी थी । सर्वत्र प्रकृतिमें उदासी छायी हुई थी। इस परिवर्तनको देखकर राजाको वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने राज्यभार अपने पुत्रको सौंप दिया। क्षेमंकर मुनिके पास जाकर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। कमठका जीव उसी वनमें कुरंग नामका किरात हुआ, जिस वनमें वञ्चनाभ तपस्या कर रहे थे। उस किरातने समाधिस्थ मुनिके ऊपर बाण चलाया, जिससे वे धराशायी हो गये । समाधिपूर्वक शरीर छोड़ने से चक्रवर्ती मुनिराजने मध्य ग्रैवेयकमें अहमिन्द्रका शरीर प्राप्त किया । मुनिराजका अन्त करनेवाले उस भीलने सप्तम नरकमें जन्म ग्रहण किया । चक्रवर्तीका जीव मध्य-ग्रेवेयकसे च्युत्त हो अयोध्या नगरीके वज्रबाहु राजाकी प्रभाकरी नामक रानीके गर्भ में आया ! जन्म लेनेसे समस्त प्रजाको आनन्द हुआ | अतएव राजाने उसका नाम आनन्द रखा । युवा होनेपर राजाने आनन्दet राज्याधिकार दे दिया । आनन्दते राज्यलक्ष्मीको समृद्ध बनाया - अष्टम सगं । आनन्दने समस्त मंगलोंका उत्पादक जिनयज्ञ आरम्भ किया । उसे देखनेके मुद्धाचा" एवं परम्परापोषकाचार्य : ९५
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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