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आद्य मिताक्षर 'परम्परा' शब्द अपना विशेष महत्त्व रखता है और विश्त्रके कण-कणसे मम्बन्धित है । परम्पराका इतिहास लेखबद्ध करना वैसे ही कठिन कार्य है, फिर श्रमण-परम्पराका इतिहास तो सर्वथा ही दुरूह है। प्रसंग में जहाँ 'परम्परा' शब्द सब-आगम और सद्गरुका बोधक है, वहाँ यह प्रामाणिकताका द्योतक भी है। परम्परागत आगम और गुरुओंको सर्वत्र प्रथम स्थान है । इसीलिए 'आचार्यगुरुभ्यो नमः' के स्थान पर 'परम्परावार्यगुरुभ्यो नमः' का प्रचलन है। लोक में आज भी यह परागरा प्रचलित है । जैसे गृहस्यों के निदान आदि संस्कारोंमें परम्परा (गोत्रादि) का प्रश्न उठता है, वैसे ही मुनियोंके सबंध भी उनकी गुरु-परम्पराका ज्ञान आवश्यक है।
भारतमें मुनि-परम्परा और ऋषि-परम्परा ये दो परम्पराएं प्राचीनकालसे रही हैं। ऐतिहासिक दुष्टिसे प्रथम परम्पराका संबंध आत्मधर्मा श्रमणोंसे रहा है-श्रमणमुनि मोक्षमार्गके उपदेष्टा रहे हैं। द्वितीय परम्पराका संबंध लोक. धर्मसे रहा है-ऋषिगण गृहस्थोंके षोडश संस्कारादि सम्पन्न कराते रहे हैं। ऋषियोंको जब आत्मधर्मज्ञानकी बुभुक्षा जाग्रत हुई, वे धमगमुनियोंके समीप जिज्ञासाकी पूर्ति एवं मार्गदर्शन के लिए पहुंचते रहे।
स्व. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा रचित ग्रन्थ 'तीथंकर महावीर और उनकी परम्परा' में श्रमण-मुनि-परम्पराका तथ्यपूर्ण इतिहास है। वस्तुतः १. वातरशना ह वा ऋषयः श्रमणा कलमन्धिनो बभूवुस्तानृषयोऽयमायंस्तेऽनिलाय
मचरंस्तेऽनुप्रविशुः कूष्माण्डानि तास्तेष्वन्वविन्दन श्रद्धया व तपसा छ । तानुषयोछुवन कया निलायं चरथेति ते ऋषीनवन्नमोवोऽस्तु भगवन्तोऽस्मिन् पाम्नि केन वः रापर्यामेति तानृषयोऽमुवन-पवित्रं नो ब्रूत येनोरेपसः स्यामेति त एतनि सुक्तान्यपश्यन् ।'
-तैत्तिरीय आरण्यक २ प्रपाठक ७ अनुवाक, १-२ 'वातरशन-श्रमण-ऋषि ऊर्ध्वमन्थी (परमात्मपदकी ओर उत्क्रमण करनेवाले) हुए। उनके समीप इतर ऋषि प्रयोजनवश (याचनार्थ) उपस्थित हुए। उन्हें देखकर वातरशन कुष्माण्डनामक मन्त्रवाक्योंमें अन्तहित हो गए, तब उन्हें अन्य ऋषियोंने श्रद्धा और सपसे प्राप्त कर लिया। ऋषियोंने उन वासरशन मुनियोंसे प्रश्न कियाकिस विद्यासे आप अन्तहित हो जाते हैं ? वातरशन मुनियों ने उन्हें अपने अध्यात्म धामसे आए हुए अतिथि जानकर कहा-हे मुनिजनों ! आपको नमोऽस्तु है, हम आपकी सपर्या (सत्कार) किससे करें ? ऋषियोंने कहा-हमें पवित्र आत्मविद्याका उपदेश दीजिए, जिससे हम निष्पाप हो जाएँ।
आय मिसाक्षर : ७