SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -- i गिरि शिखिवायुमार्ग संख्ययोः लाबगगमिन्दीवत्तिषु स्तिरे । कालमुन्नतिय नन्दवत्सरोमुयुत्सवं विवशशिरद, भाद्रपदमा सलमद शुक्लपक्ष दल निरुयभप्यहस्तयुता कंवारदोल ॥ 1 अर्थात् शक संवत् १०३७ भाद्रपद शुक्लपक्ष में रविवार के दिन हस्त नक्षत्रके रहने पर इस ग्रन्थका निर्माण हुआ । इस शक संवत् में ७८ जोड़ने पर ११२५ ई० सन् आता है । किन्तु नन्दसंवत्सर ई० सन् १९२१ में आता है तथा हस्ताक भी भाद्रपद शुक्ल पक्ष में इसी संवत् में पड़ता है । अतः इनका समय १९२१ ई० मानना पड़ता है | यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि गिरिशब्दका प्रसिद्ध अर्थ सात त्याग कर चार क्यों ग्रहण किया गया है ? जैन परम्परामें गिरिशब्दका अर्थ चार ग्रहण किया गया प्रतीत होता है । यही कारण है कि ग्रन्थकर्त्ताने भी चारके अर्थ में गिरिशब्दका प्रयोग किया हो । रचनाएँ नयसेनके दो ग्रन्थोंका निर्देश उपलब्ध होता है। धर्मामृत और कन्नड़ व्याकरण | धर्मामृतमें १४ रोचक कथाएं हैं । इन कथाओं द्वारा धर्मतत्वोंका उपदेश दिया गया । पहली कथा चसुभूति और दयामित्र संठकी है। इस कथामें सम्यक्त्वकी महिमा बतलायी गयी है । वसुभूति ब्राह्मणने घन के लोभसे कृत्रिम जिनदीक्षा ली। उसे मुनिदीक्षा में नाना प्रकारके कष्टोंका अनुभव हुआ । परन्तु प्रलोभनोंके कारण आठ दिन तक मुनि बना रहा। इसी बीच घटनाचक्रके बदल जानेसे लुटेरों द्वारा वसुभूति घायल हो गया । दयामित्रने उसे आत्मधर्मका उपदेश दिया । फलतः वसुभूतिको सम्यक्दर्शन उत्पन्न हो गया। सांसारिक पदार्थोंसे उसका मोह हट गया और उसे जेनधर्मकी सत्यतापर विश्वास हो गया । मृत्युके पश्चात् वसुभूतिने स्वर्गलाभ किया। कथा में सम्यक्दर्शन और श्रावक का पर्याप्त उपदेश आया है । दुसरी कथा निशकित अंगकी महत्ता बताने वाली ललितांगदेवकी है । इस कथासे स्पष्ट है कि पापी से पापी मनुष्यकी भी जैनधर्म द्वारा सुधार हो सकता है । इस धर्म के सिद्धान्तों का पालन ऐश्वर्यं और विभूतिको हो नहीं देता, अपितु आत्मकल्याणका कारण होता है । अर्हन्त भगवान्की भक्ति कल्पवृक्षतुल्य है । जो व्यक्ति वीतरागी प्रभुकी शरण में पहुंच जाता है, उनके आदर्श द्वारा अपनी आत्माको उन जैसा ही बनानेका प्रयत्न करता है, वह व्यक्ति निश्चय ही उन जैसा भगवान् बन जाता है। जैनदर्शनमें व्यक्तिको होन या निःशक्ति नहीं प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २६५ १८
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy