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________________ किया हो । भैरवपद्मावतीकल्प में लिखा है सकलनयमुकुटधटितचरणयुगः श्रीमदजित्तसेन गणिः | जयतु दुरितापहारी, भव्योषभवार्णवोत्तारी ॥ जिनसमयागमवेदी गुरुतरसंसा रकाननोच्छेदी । कर्मेन्धनदहनपटुस्तच्छिष्यः कनकसेनगणिः T: 11 चारित्रभूषिताङ्गां निस्सङ्गो मथितदुर्जनानङ्गः । तच्छिष्यो जिनसेनो बभूव भव्याब्जधर्मांशुः ॥ तदीयशिष्यो मुनिमल्लिषेणः सरस्वती लब्धवरप्रसादः । तेनोदितो भैरवदेवतायाः कल्पः समासेन चतुःशतेन ॥ वादिराजके समान मल्लिषेण भी मठाधिपति प्रतीत होते हैं । यतः इनके द्वारा रचित मन्त्र-तन्त्रविषयक ग्रन्थोंमें स्तम्भन, मारण, मोहन, वशीकरण, अनंगाकर्षण वा मठाधिपट्टा सिद्ध करते हैं। उनके साहित्यसे ऐसा भी अनुमान होता है कि गृहस्थ शिष्योंके कल्याणके हेतु वे मन्त्र तन्त्र और रोगोपचार में प्रवृत्त रहे होंगे। परमविरक्त वनवासी मुनि इस प्रकारके प्रयोगोंका विधान नहीं कर सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि ये संस्कृतभाषा, साहित्य और मन्त्रवादके प्रसिद्ध आचार्य रहे हैं । स्थितिफाल आचार्य मल्लिषेणने अपने महापुराणको प्रशस्तिमें निम्नलिखित पद्य अंकित किया है वर्षेक त्रिशताहीने सहस्र शकभुभूजः । सर्वजिद्वत्सरे ज्येष्ठे सशुक्ल पञ्चमीदिने ३ ॥ अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमी शक सं० ९६९ ( ई० सन् १०४७ ) को महापुराण समाप्त किया गया है । महापुराण की रचना धारवाड़ जिलेके मूलगुन्द नामक स्थानमें की गयी है । यह स्थान उक्त जिलेकी गदग तहसीलसे १२ मील दक्षिण पश्चिमकी ओर है । इस स्थानपर आज भी चार जैन मन्दिर हैं, जिनमें शक सं० ८२४, ८२५, ९७५, ११९७ १२७५ और १५९७ के अभिलेख है। एक अभिलेखमें आचार्य द्वारा सेनवंशके कनकसेन मुनिको एक खेतके दान देनेका भी उल्लेख है । आदरणीय १. प्रशस्ति-संग्रह, प्रथम भाग, वीरसेवा मन्दिर, प्रस्तावना, पृ० ६१ २. भैरवपद्मावतो कल्प, सूरत संस्करण, प्रशस्ति, पद्म ५३-५६ । ३. महापुराण, पद्य २ । १७० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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