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इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि इनकी गुरु-परम्परामें सागरनन्दि, स्वर्णनन्दि, पानन्दि, पुष्पदन्त, कुवलयचन्द्र और गणधरकीर्तिके नाम आये हैं।
आचार्य सोमदेवने अध्यात्मतरंगिणी ग्रन्थकी रचना की है। इसी ग्रन्थपर गणधरकीतिने टीका लिखी है। सोमदेवका समय वि० सं० १०१६ है। अत: यह टीका उसके बाद ही लिखी गयी होगी। टीका गुजरातके चालुक्यवंशी राजा जयसिंह या सिद्धराज जयसिंह राज्यकालमें समाप्त की गयी है। टीकाके लिखे जानेका समय भी अंकित है
संवत्सरे शुभे योगे पुष्य नक्षत्रसंज्ञके । चैत्रमासे सिते पक्षेऽथ पंचम्यां रवौ दिने | सिद्धा सिद्धिप्रदा टीका गणभत्कोतिविपश्चितः । निस्त्रिांशतजितारातिविजयश्रीविराजनि।
जयसिंहदेवसौराज्ये सज्जनानन्ददायिनि ।।' अर्थात् वि० सं० ११८९ चैत्र शुक्ला मंचमी, रविवार पुष्य नक्षत्रमें इस टीकाकी रचना की गयी है। रचना-परिचय
श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने इसकी दो पाण्डुलिपियोंको चर्चा की है। एक पाण्डुलिपि ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वतो भवन झालरापाटनमें है। यह प्रति संवत् १५३३ आश्विन शुक्ला द्वितीयाके दिन 'हिसार' में लिखी गयी है। यह प्रति सुनामपुरके वासी खडेलवालवंशी संघाधिपति श्रावक कल्हके चार पुत्रोंमेंसे प्रथम पुत्र धोराकी पत्नो धनश्रीके द्वारा अपने सानावरणीय कर्मके क्षयार्थ लिखाकर तात्कालिक भट्टारक जिनचन्द्रके शिष्य पण्डित मेधा. गीको प्रदान की गयी है । दूसरी प्रति पाटनके स्वताम्बरी शास्त्रभण्डारमें है । ___ गणधरकोतिने अपनी इस टीकामें पद्यगत वाक्यों एवं शब्दोंके अर्थके साथसाथ कहीं-कहीं उसके विषयको भी स्पष्ट किया है। विषय स्पष्टीकरणमें कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्द, जिनसेन आदि आचार्योंके ग्रन्थोंका अनुसरण एवं उल्लेख किया गया है । विषय स्पष्टीकरणकी दृष्टिसे यह टीका महत्त्वपूर्ण है । टोकाका गद्य प्राढ़, समस्यन्त और सानुप्रास है। भाषा और साहित्यकी दृष्टि से भी टोका कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । यथा--
"निखिलसुरासुरसेवावसरमायातसुरसम्बोधनावधारितधर्मावसरण[f] अमरोरगनरेन्द्र श्रीकल्पानोकहारामोल्लासामृताम्भोवरायमाण[f] महापरम१. अध्यात्मप्तरंगिणी टोका, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य १७-१९ । २४४ : तीकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा