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जैनाचार्य परम्परा सेन नामके दो अन्य और भी हुए म विद्वान काष्ठासंघ लाडवागडगच्छके आचार्य थे । ये पोसेनके शिष्य और जयसेनके गुरु थे। जयसेनने सन् ९९९में शकलीकरहाटक नगरमें धर्मरत्नाकर नामक संस्कृतग्रन्थ लिखा था। अतः इन भावसेनका समय दशम शक्तीका उत्तराद्ध है। दूसरे भावसेन काष्ठासंघ माथुरगच्छके आचार्य हैं। ये धर्मसेन के शिष्य तथा सहस्त्रकीर्तिके गुरु थे । सहस्त्रकीर्तिके शिष्य गुष्णकीर्तिका उल्लेख ग्वालियर प्रदेशमें सन् १४१२ - १४१७तक प्राप्त होता है । अतः इन भावसेनका समय १४वीं शतीका उत्तरार्धं । प्रस्तुत भावसेन उक्त दोनों आचार्योंसे भिन्न हैं ।
समय- विचार
भावसेनने अपने किसी ग्रन्थ में समयका उल्लेख नहीं किया है । अतः उनके समय - निर्णय में अन्तरंग सामग्री और बाह्य सामग्री का उपयोग करना आवश्यक हैं। विश्वतत्त्वप्रकाशको एक प्राचीन प्रति शक संवत् १३६७ ई० सन् १४४५ ) की है । कातन्त्ररूपमालाकी हस्तलिखित प्रति शक संवत् १३०५ ( ई० सन् १३८३) की उपलब्ध है। इसी ग्रन्थकी एक अन्य प्रतिका उल्लेख कन्नड़ प्रांतीय ताड़पत्रीय ग्रन्थ-सूची में आया है । कातन्त्ररूपमालाको यह प्रति शक संवत् १२८९ ( ई० सन् १३६७) की है । अतएव इन हस्तलिखित प्रतियोंके आधारपर भावसेन विचका समय ई० सन् १३६७के पूर्व सुनिश्चित है । आचार्यने न्यायदर्शनको चर्चा में पूर्व पक्ष के रूपमें भासर्वज्ञकृत न्यायसारके कई पद्य उद्धृत किये हैं। यह ग्रन्थ १० वीं शताब्दी का है । वेदान्तदर्शन के विचार में लेखकने विमुक्तात्मकी इष्टसिद्धिका उल्लेख किया है। तथा आत्माके अणु आकारको चर्चामं रामातुजके विचार उपस्थित किये हैं। इन दोनोंका समय १२ वीं शती है ।
वेदप्रामाण्यको चर्चाके सन्दर्भमें लेखकने तुरुष्कशास्त्रको बहुजन सम्मत कहा है तथा वेदोंके हिंसा उपदेशकी तुलना तुरुष्कशास्त्रसे की है। तुरुष्कशास्त्र मुस्लिमशास्त्रका पर्यायवाची है और उत्तर भारत में मुस्लिमसत्ताका व्यापक प्रसार ई० सन् ११९२ से १२१० तक हुआ तथा सुलतान इल्तुमसके समय ई० सन् १२१० से १२३६ तक यह सत्ता दृढमूल हुई और दक्षिणभारत में भी मुस्लिम सत्ताका विस्तार हुआ । अतः तुरुष्कशास्त्रको बहुसम्मत कहना १३ वीं शताब्दी के मध्यसे पहले प्रतीत नहीं होता । इस तरह भावसेन के समयकी पूर्वावधि ई० सन् १२३६ और उत्तरावधि ई० सन् १३०० के लगभग मानी जा सकती है। मायसेनने १३ वीं सदीके अन्तिमचरण के नैयायिक विद्वान केशवमिश्रको तर्कभाषाका उपयोग नहीं किया है। अतः इन्हें
२५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी भाचार्य परम्परा