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आगम आनमो नमो निम्
आगम आगम
पूज्य आनंद-क्षमा ललित-सुशील सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः शम्
सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि
आगम
४०
“आवश्यक” निर्युक्ति एवं चूर्णि: [२]
आगम
-
(1)
पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, पालडी, अमदावाद
भाग
आगम
आगम
आगम आगम के आगम आगम आगम आगम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आगम आगम अभिनव संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि
रागम
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
सच्चारित्र चूडामणि स्वर्गस्थ पूज्यपाद श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागर ।
वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठक्कर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद सूरीश्वरजी महाराज साहेब
करीब पचास साल पहेले परम पूज्य स्वर्गस्थ गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. ही है।
इस संघमें पूज्य साधू-भगवंत एवं साध्वी-महाराज के लिए उपाश्रय भी है, जहां हर-साल चातुर्मास करवा के श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है | इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है।
Health
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AAVAN
नमो नमो निम्मलदसणस्स
सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
MOwaywriAVAMIGARH
Tolerances
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी
M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
Hayee
प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/98253062751
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आजम आगार आजम आयाम आम
SISA
MINING
आगम
आजम
STA
Indie
A आजम
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3700H
SELMERE
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आगम
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आगम
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आश्रम
आगम
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आजम आजम
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आगम
वाचना शताब्दी वर्ष म
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आजस
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यस गा
679277
Burger
आजम
आगम आजम
MILIE
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भाग-4 [४०] श्री आवश्यक सूत्रम् (2)
आवश्यक नियुक्ति एवं चूर्णि: [२]
[आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ]
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि)
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं H मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: भाष्यं । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सत्रांक
ORED TORSCIETYPETVSNZAVI MATRANARTY2NDIRTYLLAVIATIOM/PROFER Owooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooorg श्रीमदणधरगौतमस्वामिसंहब्ध-श्रुतकेवलिश्रीमदुभद्रबाहस्वामिसूत्रितनियुक्तिचूर्णियुतं
श्रीमजिनदासगणिमहत्तरकृतयासूत्रा समेतश्रीमदावश्यकसूत्रं (पूर्वभागः)
प्रकाशिका-जामनगरवास्तव्य श्रेष्ठिधारशीभाइदेवराजस्य सद्गतसुपुत्रलक्ष्मीचन्द्रस्यस्मरणार्थ तत्सुपुत्र चुनीलालेत्यनेन कृतेनार्थसाहाय्येन
श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेतांबरसंस्था रतलाम मुद्रथिता-इन्दौर नगरे श्री जैनबन्धुम्मुद्रणालयाधिपः श्रेष्ठी जुहारमल मिश्रीलाल पालरेचा. प्रतयः २५० वीरसंवत् २४५४ विक्रमसंवत् १९८४ क्राइस्टसन् १९२८ ग्राहकाणां पायं ४-00 8 4 0000000000000000000woooooooooooooooooooooooc00000000RF
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दीप अनुक्रम
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...आवश्यक-चूर्णे: मूल "टाइटल पेज"
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सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
• जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक्-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतरतप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फिर भी गुरुभक्ति बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामूली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरणन्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए|
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े देवर्द्धिगणी : क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही 'जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ • तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्री को संशोधित कर के संपादित किया | फिर पालीताणामें आगम । मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और “आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अव चूरी, संस्कृत- छाया आदि का भी | संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की |
.ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को प्रतिबोध | : कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
• सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये। ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"...
.......मुनि दीपरत्नसागर... |
.
स
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संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फिर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हए पुन्य के साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्यपरिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवन में देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो गया“अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना |
... मुनि दीपरत्नसागर...
अनुदान दाता संस्था:- "श्री परम-आनंद श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ"
वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठककर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद करीब ५० साल पहेले परम पूज्य स्व. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेंद्रसागरसूरीजी म.सा. ही है | इस संघमें पूज्य साधू भगवंत एवं साध्वीजीओ का उपाश्रय भी है जहा हर-साल चातुर्मास करवाके श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है । इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग्-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है |
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-..
.. -.. -.. -..'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस "सचर्णिक-आगम-सत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ८ के संपूर्ण अनदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
००००००००००००००००००००००००० पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक | पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "स चर्णिक-आगम-सत्ताणि" के मद्रण के लिए संपूर्ण दव्यराशि प्राप्त हुई , उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे ।
समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त । लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले
को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है |
... मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रेजापूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ
.
-
.
.
.
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मूलाका: ५०+२१
आवश्यक मूल-सूत्रस्य विषयानुक्रम (भाग- 1 से 3)
mes
दीप-अनुक्रमा: ९२
मलांक:
अध्ययनं
पृष्ठांक
नियुक्ति
|
पीठिका
"
००d
भाष्य
भाग-11
--मंगलं
मलांक: अध्ययनं
| मलांक:
अध्ययनं पृष्ठांक: ०१-०२ १-सामायिकं 2/३००
आवश्यक सटीकं (संक्षिप्त) विषयानुक्रम नि./भा. | --उपोदघात-निर्यक्ति: | पृष्ठांक | नि./भा. | अध्ययनं-१- सामायिक | पृष्ठांकः | ०८१ --वीरआदिजिनवक्तव्यता
८९० नमस्कार-व्याख्या
२११ ३४३ --भरतचक्री-कथानक
९१९ अर्हत, सिद्धादेः नियुक्ति: ।
| २१८ भा.०३९ --बलदेव-वासुदेव कथानक
९६० | सिद्धशिला वर्णनं
२९२ भाग-21
९९३ | आचार्य-आदीनाम निक्षेपा: २९४ | --समवसरण वक्तव्यता ०३४ ५८८ --गणधर वक्तव्यता
०४३ १०१३ | सामायिक- व्याख्या, ६६६ --दशधा सामाचारी
०५०
उद्देश-वाचना-अनुज्ञा आदिः ७५४ --निक्षेप, नय, प्रमाणादि
सूत्र स्पर्श भगा: --निहनव वक्तव्यता १२३
सामायिक-उपसंहार: ७८९
| --सामायिकस्वरुपम् ८१२ --गति आदि दवाराणि १४९
-ज्ञानस्य पञ्चप्रकारा:
०१३ |-उपक्रम-आदिः
وایه
واما
-
१३९
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
(10)
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मूलाका: ५०+२१
आवश्यक मूल-सूत्रस्य विषयानुक्रम (भाग- 1 से 3)
दीप-अनुक्रमा: ९२
मलाक:
अध्ययनं
पृष्ठांक
पृष्ठांक:
अध्ययनं ३-वंदनकं ६-प्रत्याख्यानं
११-३६
४-प्रतिक्रमणं
मलाक:
अध्ययनं | पृष्ठांक | मुलांक: ०३-०९
२-चतुर्विंशतिस्तव: 3/ | ३७-६२ ५-कायोत्सर्ग
3/ ।। ६३-९२ आवश्यक सटीक (संक्षिप्त) विषयानुक्रम नि./भा. अध्ययनं पृष्ठांक: नि./भा.
3/
3/
नियुक्ति | भाष्य
अध्ययन
पृष्ठांक:
| पृष्ठांक:
भाग-3
अध्ययनं-२सूत्रपाठः, कीर्तन, प्रतिज्ञा, --अर्हत: विशेषणं, --ऋषभादि नामानि,
अध्ययन-५- कायोत्सर्ग: | सूत्रपाठः, कायोत्सर्गस्थापना श्रुतस्तव, सिद्धस्तवादि
अध्ययनं-४- प्रतिक्रमणं नमस्कार व सामायिक-सूत्रं | चत्वार: लोकोतम-मङ्गल
एवं -----------शरणभूत | संक्षिप्त व ईर्यापथ | शयन संबंधी प्रतिक्रमणं | भिक्षाचर्याया: प्रतिक्रमणं स्वाध्याय, असंयम आदि ३३सत्रोच्चारणे मिथ्यादष्कृतम् प्रवचनस्तृति, वंदना,
अध्ययन-३- वन्दनं --गुरुवन्दन सूत्रपाठ: -मितावग्रह प्रवेशयाचना --क्षमापना, प्रतिक्रमण
अध्ययन-६- प्रत्याख्यानं सम्यक्त्व एवं श्रावकव्रतप्रतिज्ञा विविध प्रत्याख्यानादिः
... आवश्यक-चूर्णि के इस विषयानुक्रम के पृष्ठांक हमने दुसरे भाग मे दिये है
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
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[आवश्यक-चूर्णि] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “आवश्यकसूत्र (पूर्वभाग)" के नामसे सन १९२८ (विक्रम संवत १९८४) में ऋषभदेवजी केशरमलजी श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
वृत्ति की तरह चूर्णी के भी दुसरे प्रकाशनों की बात सुनी है, जिसमे ऑफसेट-प्रिंट और स्वतंत्र प्रकाशन दोनों की बात सामने आयी है, मगर मैंने अभी तक कोई प्रत देखी नहीं है।
- हमारा ये प्रयास क्यों? -+ आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने उन सभी प्रतो को स्केन करवाई , उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया , जिसके बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी , ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम , फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए , ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है , उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है , इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-| ऐसी दो लाइन खींची है। इस आगमचर्णि के प्रकाशनोमें भी हमने उपरोक्त प्रकाशनवाली पद्धत्ति ही स्वीकार करने का विचार किया था परंतु चर्णि और वृत्ति की संकलन पद्धत्ति एक-समान नही है, चूर्णिमे मुख्यतया सूत्रों या गाथाओ के अपूर्ण अंश दे कर ही सूत्रो या गाथाओ को सूचित कर के पूरी चूर्णि तैयार हुई है, कई नियुक्तियां और भाष्य दिखाई नही देते , कोइ-कोइ नियुक्ति या भाष्य के शब्दो के उल्लेख है , उनकी चूर्णि भी है पर उस नियुक्ति या भाष्य स्पष्टरूप से अलग दिखाई नहि देते । इसीलिए हमें यहाँ सम्पादन पद्धत्ति बदलनी पड़ी है | हमने यहाँ उद्देशक आदि के सूत्रो या गाथाओ का क्रम, [१-१४, १५-२४] इस तरह साथमे दिया है, नियुक्ति तथा भाष्यो के क्रम भी इसी तरह साथमे दिये है और बायीं तरफ़ उपर आगम-क्रम और नीचे इस चूर्णि के सूत्रक्रम और दीप-अनुक्रम दिए है, जिससे आप हमारे आगम प्रकाशनोंमे प्रवेश कर शकते है।
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैनसंघ, पालडी, अमदावाद की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-४ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है।
......मुनि दीपरत्नसागर
(12)
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति: [५०२-५०४/५०२-५०४], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
संगमक
कता उपसगोः
प्रत
नियुक्ती
4 श्री जिनदासगणिमहत्तरकृता श्रीआवश्यकचूर्णि: भाग-२ ।
धूली १ पिवीलियाओ २ उइंसा ३ व तहय उपहोला । आवश्यकता चूर्णी
पिच्चुय ५ नउला ६ सप्पा ७ य मूसगा ८ चेष अङ्गमगा ॥४-४५।।५०२॥ उपोद्घात ती
हत्थी ९हत्थिणियाओ १० पिसायए ११ घोररूववग्धे य १२ । धेरो १३ थेरी १४ सूतो १५ आगच्छद पक्कणो य तथा १६॥४-४६||५०३ ॥
वरवात १७ कलंकलिया १८ कालचकं तहेव य १९। ॥३०॥
पाभाइयउबसग्गे २० बीसहमे तहय अणुलोमे ॥४-४७ ।। ५०४ ।। ताहे सामिस्स उवार वज्जधूलीवरिसं च वरिसेति जाव अच्छीणि कमा य सम्बसोचाणि पूरियाणि, निरुस्सासो जातो, | तेण सामी तिलतुसतिभागमेतपि झाणाओ ण चलितो । ताहे संतोतं साहरिता ताहे कीडियाओ विउव्वति, वज्जतुंडाओ समंततो विलग्गातो खायंति, अनाओ सोत्तेहिं अंतोसरीरंग अणुपविसिचा अण्णण सोचण अतिंति अमेण णिति, चालणी जारिसो कओ, तहवि भगवं न चलिओ । वाहे उईसे विउब्बति बज्जतुडे, जे लोहितं एमेण पहारेण गीणिति । जाहे तहवि ण सक्का ताहे उण्डेलाओ विउव्यति । उण्होला-तेल्लपातियाओ । तातो तिक्खेहिं तुडेहिं अतीव दसंति, जहा जहा उवसग्गं करेति तहा तहा सामी अतीव झाषण
अप्पार्ण भावेति, जहा-'तुमए चेव कतमिणं, ण सुद्धचारिस्स दिस्सए दंडों । जाहे ण सका ताहे विच्चुए विउब्बति, ते खायति । ति मातहवि ण सका, ताहे णउले विउव्यनि, ते तिक्खाहिं दाढाहिं दसति, खंडखंडाईच अपणेति, पच्छा सप्पे विसरोससंपुग्ने
दीप अनुक्रम
..
.
.
||३०४॥
आवश्यक-चूर्णे: प्रथम भागे उल्लिखित: संगमदेवकृता उपसर्गा: इत: आरभ्यते
(13)
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आगम
(४०)
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [५०२-५०४/५०२-५०५], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
उग्गविसे डाहजरकारए जहा कामदेवस्स, तेहिवि ण सका । पच्छा मूसए विउब्बइ, ते तिक्खाहि दाढाहिं दसति, खंडाणि यI
संगमक आवश्यक अवणेत्ता तत्थेव बोसिरति मुत्तपुरिस, तो अतुला वेयणा । जाहे ण सका ताहे हत्थिरूवं विउव्यति, जहा कामदेवे, तेज हस्थिरवेणस
M कृता पूणा सोडाए गहाय सत्तद्रुतले आगासे उब्बिहित्ता पच्छा दंतमुसलेहिं पडिच्छति, पुणोऽवि भूमीए ओविंधति, चलणतलेहिं मंदरगरुएहिं उपसर्माः
मलेति । जाहे ण सका ताहे हस्थिणियारूवं विउव्वति, ताहे हत्थिणिया सुंडएहिं दंतेहिं विधति फालेति य, पच्छा कातितेण सिंचति । तिमि य मुत्तचिखल्ले खारे पाडेता चलणेहिं मलेति । जाहे ण सका ताहे पिसायरूवं विउव्यात, जहा कामदेवस्स, तेण उपसग्ग ॥३०॥ करति । जाहे ण सका ताहे बग्घरूवं विउधति, सो दाढाहि य नक्खेहि य फालेति, खारकाइएण य सिंचति । जाहे ण सका ताहे
IN सिद्धत्थरायरूवं विउन्नति, सो कट्ठाणि कलुणाणि बिलवति-एहि पुत्तगा1, विमासा, मा उज्झाहि । ताहे तिसलाविभासा | जाहे मण सका ताहे मूतं, किह ?, सो ततो खंधाबारे विउन्नति, सो परिपेरंतेसु आवासितो, तत्थ सूतो पत्थरे अलभंतो दोण्हवि पादाण जामझ वज्जरिंग जालेत्ता पायाण उपरि उक्खलियं काउं पयइओ । जाहे एएणवि ण सका तओ पक्कणं विउन्वति, सो ताणि
पंजरगाणि बाहासु गलए य कमेनु य ओलएति, ते सउणा गातं तुंडहिं खायति विघंति य, सनं काइयं च चोसिरति । पच्छा।
खरवायं विउन्नति, जेण सको मंदरोवि चालेउ, न पुण सामी चलइ, तेणुविहिता २ पाडेति । पच्छा कलंकलितावार्य विउव्यति, | तेण जहा चकाइद्धओ तहा भमाडिज्जइ, णत्तिवेतं वा । एवंपि ण सका ताहे कालचकं विउव्वति, तं विउब्धिऊण उड्डे गगणग-18॥२०५।।
लं गतो एत्तादेणं मारेमित्ति मुयति वज्जासणिसनिमं, ज मंदरपि चुरेज्जा, तेण पहारेण भगवं वाव निन्चुडो जाव अग्गणहा हत्थाणं । जाहे तेणविण सको ताहे चिंतेति-न सको एस मारेउंति अणुलोमे करेमि । ताहे सामाणियदेविट्टि देवो दाएति, सोडा
दीप अनुक्रम
ॐ
(14)
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आगम
(४०)
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [५०२-५०४/५०२-५०५], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
श्री
विमाणगतो भणति य-चरेह महरिसि! निष्फत्ती सम्गमोक्खाणं । ताहे पभायं विउव्वति, लोगो सय्बो चकमितुं पयचो, भणति-181 | देवीकृता आवश्यकता देवज्जगा! अज्जवि अच्छसि?, भगवपि कालमाणेण जाणति जहा ण ताय पभायति जाव सभावपहायंति, एस बीसतिमो । अन्नेला उपसगोः चूर्णी ।
भणंति- जहा किर दिवं देविढि दिलं देवजुत्तिं दिव्यं देवपभाव उवदंसेति, मणोहरे य सद्दरूवगंधरसफरिसे सुसभिते छप्पिय उपोद्घात
| उङ्ग मणुने मणाणुकूलं च दप्पणं विहणं मुहारि विचित्चवरपुष्फबद्दलं सुगंधि रम्म, तह मेहबद्दल विचित्तं, दसति य इस्थिया सुरूवा, नियुक्ती
पेसेइ य अच्छरा सुरम्मा सोम्मा सबंगसुंदरीओ पहाणमहिलागुणेहिं जुत्ता अकंतविसप्पिमयसमालकुंमसंठितविसिट्टचलणा ॥३०६॥ उज्जुमयुयपीवरसुसाहतंगुलीओ अम्भुन्नतरयिततलिणतंबसुनिभरुविरणिद्धणक्खा रोमरहितबलट्ठसंठियअजहन्नपसत्थलक्खणअको
प्पजंघजुयला सुणिमियसुणिगूढजाणुमंडलपसत्थसुबद्धसंधी कदलीखंभातिरेगसंठिताणिवणसुकुमालमउयमंसलअविरलसमसहितसुजातवद्द्वपीवरनिरंतरोरू अट्ठावयवीतिपट्टसठितपसथविच्छिन्नपिहुलसोणी वयणायामप्पमाणदुगुणितविसालमसलसुबद्धजहणवरधारिणीओ वज्जविराइयपसस्थलक्खणनिरोदरी तिबलिवलिततणुणमितमज्झिताओ उज्जुयसमसहितजच्चतणुकसिणनिआएज्जलडहसुजातमउयमुविभतकंतसोभतभरुहररमणिज्जरोमराती गंगावचपयाहिणावचतरंगभंगरविकिरणतरुणयोहितायोसायंतपउमगारवियडणाभा अणुम्भडपसत्थसुजातपीणकुच्छी संनतपासा संगतपासा सुजातपासा मितमाइयपीणरइयपासा अकरडुयकणगभयगनि
॥३०६॥ म्मलसुजातनिरुबहतगातलठ्ठीओ कंचणकलसप्पमाणसमसहितलट्ठबुब्बुयामेलगजमगजुयलवट्टियअक्खुत्चयपीणरयितसंठितपीवरप-1
ओहराओ भुजगअणुपुल्वतणुगगोपुच्छवसमसहितणमितआदेज्जललितबाहा तंचमहा मैसलग्गहत्था पीवरकोमलवरंगुली निद| पाणिलेहा रविससिसंखबरचकसोत्थिय विभत्चमुविरतियपाणिलेहा पीणुभयकक्खवकत्थीपएसा पडिपुनगलकवोला चतुरंगुलसुपमाण
4
दीप अनुक्रम
RSSAX
अथ देवीकृत् उपसर्गस्य वर्णनं क्रियते
(15)
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [५०२-५०४/५०२-५०५], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सनाक
श्री आवश्यक
चूणौँ । उपोद्घात नियुक्ती | ॥३०७॥
दीप अनुक्रम
युवरसरिसगीवा मंसलसठितपसत्वहणुगा दाडिमपुष्फपगासपीवरपलबकुंचियवराहरा सुंदरुत्तरोडा दहिदगरयकुंदचंदवासंतिम- देवी | ओलअच्छिदविमलदसणा रत्तुप्पलपत्तमउपमुमालतालुजीहा कणवीरमुकुलअकुडिलअन्मुग्गतउज्जुतुंगणासा सारदणधकमलकुमुदकु-11 बलयविमलदलनियरसरिसलक्षणपसत्यजिम्मकंतणयणा पत्तधवलायतबलायणा आणामियचावरुइलकिण्हसराइसगयसुजाततणुकन सिणणिद्धभुमया अल्लाणपमाणजुत्तसवणा सुसवणा पीणमद्रमणिज्जगडलहा चउरंसपसस्थसमनिडाला कोमुतिरयणियरविमलपडिपुनसोम्मवयणा छत्तुनयउत्तिमंगा अकविलसिणिसुगंधदीहसिरया छत्तधयजूवधूभदामिणिकमंडलूकलसघंटवाचिसोस्थियपडागजवमच्छकुंभरहयरमगरज्झयमुक्कथालअंकुसाअट्ठावगप्पतिद्गमयूरसिरिआभिसेयतोरणमेदिणिउदधियरपवरभवणधरगिरिधरआईससलीलगजउसमसीहचामरअमरपतिपहरण उत्तमपसत्थवत्तीसलक्खणधरीओ हंससारित्थसुगतीओ कोइलमधुरगिरसूसराओ कंता सव्वस्स अणुमयाओ धवगतवलिपलियवंगदुव्बन्नवाहिदोहग्गसोगमुक्का उच्चत्तण य णराण थोवूणमूसियाओ । इच्छितनेवत्थरइतरमणिज्जगीहतवेसाओ कंतहारहारपदत्तरयणकुंडलवासुतगहेमजालमणिजालकणयजालयसुत्तयविउव्वितियकडयखडगएगावलिकंठसुत्तमगरयउरत्थगवेज्जसोणिसुत्तयचूलामणिकणयतिलयफुल्लयसिद्धस्थियकनवालिससिसरउसमचक्कयतलभंगयतुडिय-12 हत्थमालयहेरिसयकेयूरवलयपालंब अंगुलेज्जयवलक्खदीणारमालियाचंदसूरमालियाकंचिमेहलकलारपतरयपरिहस्यपादजालघंटियखिंखिणिरयणोरुजालछुद्दियवरनेउरचलणमालिया कणयणियलजालयमगरमुह बिरायमाणनउरपयलियसदालभूसणधरीओ दसद्धचत्रराग-॥३०॥ रइतरत्चमणहारमहग्षणासाणीसासबातबोझे चक्खुहरे बन्नफरिसजुत्ते आगासफालियसमप्पभे असुए नियत्थाओ आदरेण तुसार-12 गोक्खीरहारदगरयपंडरदुगुलसुओमालसुकतरमणिज्जउत्तरिज्जाणि पाउयाओ वराभरणभूसिताओ सब्बोउयसुरभिकुसुमसुरइत
(16)
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आगम
(४०)
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [५०२-५०४/५०२-५०५], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
आवश्यक
प्रत
HEIGE
श्री विचित्तमल्लधारिणीओ सुगंधचुणंगरागवरवासपुप्फुत्तरपपिराइआओ वरचंदणचीच्चताओ उत्तमवरवधूविताओ अघिअसस्सि-16 दवाकता
दारीआओ दब्बकुसुममल्लदामगम्भंजलिपुडाओ चंदाणणाओ चंदविलासिणीओ चंडसमणिडालाओ उक्का इब उज्जोवेमाचूर्णी
पीओ विज्जुघणमिरी यिमरदिपंततेयअधिकतरसंनिकासाओ सिंगारागारचारुबसाओ संगतगतहसितमणितचिद्वितविलाससललियउपोद्घाता नियुक्ती
18 लावनिपुणजुत्तवियारकुसलाओ सुंदरथणजहणवयणकरचरणणयणलायनवनवजोग्यणविलासकलियाओ सुरवरवधूओ सिरीसण
वणीतमउलसुकुमालतुल्लफासाओ ववगत कलिकलुसवातनिद्धतरयमउलाओ सोमाओ कंताओ पियदसणाओ सुसीलाओ सिंगाररसु॥३०८॥
तुहयाओवि पेच्छिऊणाप बहूणं मयणुम्मायजणणीओ, एगंतरतिपसन्ननिच्चं पमत्तविसयसुहमुच्छिताओ समतिकता य बालभावं ४ मज्झिमजरढवयविरहिताओ अतिवरसेामचारुरूवनिरुवहतसरसजोवणकक्कसतरुणवयभावमुवगताओ सभावसब्बंगसुंदरंगाओ।
तए पं ताओ सामि अप्पडिरूबरूवलायनजोव्वणसोहग्गअपरिमितगुणसयसहस्सकलितं बाहिं मउगाह अणुलोमेहिं सिंगारएहि कोलुणिरहिं उबसग्गेहिं उबसग्गेति । तप्पढमताए बहुसमरमाणज्ज भूमिभागं विउच्वति, तत्थ णं अणेगखभसयसंनिबद्धजाव सिरीए अतीव उवसोभेमाणं पेच्छाहरमंडवं, तत्थ पं दिव्यणगीतवादितविहिं उबदसति, जाव जुत्तोवचारकलिताओ होऊण लसामिस्स पुरतो समामेव समोसरगं करेंति, समामेव पंतीओ बंधति, समामेव ओणमंति, समामेव उनमंति, एवं सहिता २ संगता २ ॥३०८॥
थिमिता २ समामेव पसरंति २ समामेव आउज्जविहाणाई गेण्हंति, मेण्हेत्ता समामेव पवाईसु पगाईसु पच्चिसु पमुदितपक्कीललितगीतगंधवहरिसितमणा सिरेणं एगतारं उरेणं मंद कंठण तारं तिीवहं तिसमयरेषकरं तिगुंजायकं कुहरोवगूढं सुरतीअणअति-18
| वरचारुरूवं गज्ज पज्ज कत्थं गेयं पदबद्धं पायवद्धं उक्खित्तपयत्तमंदरोईदयावसाणं सत्तसरसमण्णागयं अट्ठरससंपउ एक्कार
दीप अनुक्रम
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आगम
(४०)
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [५०२-५०४/५०२-५०५], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चूर्णी
सत्राक
श्री 8 सालंकारं छद्दोसविप्पमुक्कं अवगुणोववेतं रत्तं नित्थाणकरणसुद्धं सक्कतिदीहरकुंजतवसततीतलताललबहगहसुसंपउत्तं मधुरं समं| आवश्यक | सललित मोहरं मउपरिभितपदसंचार दिलं गट्टे सज्ज गेय पीता यावि होत्था। उपोद्घा
किं तं उद्धमताणं संखाणं सेंगाणं संखियाणं खरमुहीण पेयाणं पिरिपिरियाण, आहम्म॑ताणं पणवाणं पडहाण, अफालिज्ज- 18 देवीकता लाताण भभाणं होरंभाण, तालिज्जताण भेरीणं झल्लरीणं दुंदुभीण, आलिप्पताणं मुरवार्ण मुर्तिगाणं, उत्तालिज्जताणं गंदीमुलिंगा
उपसगोः आलिंगगाणं पुत्तुयाणं गोमुहीण मद्दलार्ण, मुच्छिज्जंतीणं वीणाणं विवच्चीणं बलुक्कीणं, फंदिज्जंतीण भामरीण छम्भामरीणं, परि॥३०९|| यायाणीणं सारिज्जतीण पच्चीसगाणं सुघोसाण दिघोसाणं, कुट्टिज्जताणं महतीण कच्छभीणं चित्तवीणाणं, आमोडिज्जताण आमो
डगाणं झंकाणं णउलाणं, छिप्पंताणं तुमकाणं तुंबवीणाणं, अच्छिज्जताण मुकुदाण हुडुक्कीणं विखाणं, बाइज्जंताणं करडाणं डिंडिमकाणं किणिकाणं कडंयाणं, उत्नालिज्जताण दद्दरिकाणं कुदुम्बराणं कलासिकार्ण, आतालिज्जताण तालाणं तोलाणं कंसतालाणं, घट्टिज्जतीणं रिकिसिकाणं लत्तिकाणं मकरिकाण सुसुमारिताणं, फूभिज्जताणं बंसाणं बालाणं वेलूर्ण परिलीणं पच्चगाणं, एवमादियाणं एगूणपत्राणं आउज्जविहाणाणं पवाइज्जताणं । तएणं से दिब्बे गीते दिवे वादिते दिब्वे णडे एवं अन्भुते सिंगारे ओराले मणुने मणहरे ओम्मिज्जालामालाभूते कहक्कहभूते दिब्वे देवरमणे पवते यावि होत्था ।
॥३०९॥ तए ण ताओ देवीओ सामिस्स तप्पढमयाए सोत्थियसिरिवच्छणंदियावतवद्धमाणगभद्दासणकलसमच्छदप्पणमंगलपविभत्तिपणाम दिव्य गरविधि उवदंसेति, एवं दिव्यं देविष्टि जाव बत्तीसतिविहं पविहं उबदसति, सामीवि समदरिसी । जाहे ण सक्का
+
दीप अनुक्रम
ॐ
(18)
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [५०२-५०४/५०२-५०५], भाष्यं [११४...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
कता
चूणौं ।
प्रत सत्राक
नियुक्ती
ताहे अवितित्ता कामाण मेथुणसंपगिद्धा य मोहभरिया परिक्क काऊण पत्तेयं २ मधुरोहि य सिंगारणहि य कलुणेहि य उवस-18 संगमकआवश्यकटग्गेहिं उबसम्गउं यवत्ता यावि होत्था।
उपसगोः दिया उवरिं सामिस्स सललितं जाणाविहचुण्णवासमयं दिव्वं घाणमणणिम्युतिकरि सव्योउयकुमुमबुढि पमुंचमाणीओ णाणामणि-*
कणगरयणघटियणिधुरमेहलारवेण य दिसाओ पूरयंती मो वयणमिणं ति सासकलुसा-सामि होल वसुल गाल पाह दतित पिय कं
त रमण निग्षिण नित्थक्क च्छिन निक्किब अकतण्णुय सिढिलभाव लुक्ख देव सबजीवरक्खग ण जुञ्जसि अम्हे अणाहा अवय॥३१०॥
क्खित, तुज्झ चलणओवायकारिया गुणसंकर ! अम्हे तुम्हे विहणा ण समत्था जीवितुं खणपि, किंवा तुज्य इमेण गुणसमुदएण, एवंविहस्स इमं च विगतषणविमलससिमंडलोवम सारयणवकमलकुमुदविमकुलदलनिकरसरिसणयणवयणपिपासागता ण सद्धामो पेच्छिउँ जे, अबलोए ता इतो अम्हे णाह! जा ते पेच्छामो बयणकमलं णयणुस्सवसच्छहं जगस्स, एवं सप्पणयमधुराई पुणो कलुणगाणि क्यणाणि जंपमाणीओ सरभसउवगृहिताई बिब्बोयबिलसिताणि य विहसितसकडक्खदिट्ठणिस्ससितमणितउवललित| ललितधियगमणपणयखिज्जियपसादिताणि य परमाणीओवि जाहे न सक्का ताहे जामेव दिस पाउन्भूया जाव पडिगता। एवं अणेगाई अणुलोमाई देसेति । पच्छा भणति-तुट्ठोमि तुज्झ महरिसि! बरेहि, कि दमि, सम्म चा ससरीरं प्रेमि मोक्स वा पा-14 वेमि?, तिमिपि लोए तुज्झ पाएमु पाडेमि ! तिण्ह वा लोगाण तुम सामि करेमि . एवं.
-- 1 ॥३१०॥ उवहतमतिविधाणो ताहे वीरं बाई पसाउं। ओहीए निझायतिमायति छज्जीवहितमेव ॥४-४९।५०६।।
SIRSASRAcc
दीप अनुक्रम
(19)
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [५०७/५०७], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
संगम
HEIGE
उपोषात
उपसा
दीप अनुक्रम
जाद्दे ण तरति ताहे सुठ्ठतर पडिनिवेसं गतो कल्ले काहति । पुणोपि अणुकट्टति । आवश्यक
वालुयपंथें तेणा माउल पारणग तत्थ काणच्छी । तत्तो सुभोम अंजलि सुच्छेत्ताए य विडरूवं ॥४-५०/५०७॥ का
ताहे पभाते सामी बालुयानामग्गामो ते पहावितो , तत्थ अंतरा पंच चोरसता बिगुब्बति, बालुगं च जत्थ खुप्पति, पच्छा 11 नियुक्तौ तेहिं माउलोत्ति वाहितो पव्वयगुरुतरगेडिं, सागतं च पज्जसरीरा देंति, जेहिं पव्वतावि फुट्टिज्जा । ताहे बालुगं गतो, सामी भि-हूँ|
| क्खं हिंडति, तत्थाऽऽबरेतुं भगवतो रूब काणच्छि अविरनियाण देति, जाओ तत्थ तरुणीओ तत्थ हम्मति, ताहे निग्गतो भगवं| ॥३१॥
| सुभोम बच्चति, तस्थवि अतिगतो भिक्खायरियाए, तत्थवि आवरेत्ता महिलाणं अंजलिकम्मं करेति, पच्छा तेहिवि पिट्टिजति, ताहे भगवं णीति, पच्छा सुच्छता णाम गामो, तर्हि वचति, जाहे अनिगतो सामी भिक्खाए ताहे इमो आवरेचा बिडरूवं विउब्वति,
तत्थ हसति य अट्टहासे य मुंचति गायति य काणच्छिया य जहा विडो तहा करेति असिट्ठाणि य भणति, तत्थवि हम्मति, ६ ताहे ततोषि णीति ।
मलए पिसायरूवं सिवरूवं हथिसीसए चेव । ओहसणं पडिमाए समाण सक्को जवणषुच्छा ॥४-५११५०८॥
ततो मलयं गार्म गतो, तत्थ पिसायरूवं विउबति, उम्मत्तयं भगवतो रूब करता तत्थ अविरतियाओ अवतासेति गेण्हति | 3य, तत्थ पेडरूवेहिं छारक्कयारस्स भरिअति, लेटुएहि य हम्मति, ताणि य बीहावेति, ताणि छोडियपडियाणि णासंति, तत्थति
॥३११॥ हकहिते इम्मति । ततो विनिग्गतो हत्थिसीस णाम गामो तहिं गतो, तत्थवि भगवं भिक्खायरियाए अइगतो, तत्थवि भगवतो सिब
RECESSARKAR
BREASRAES
(20)
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [५०८/५०८], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
आवश्यक
चूर्णी | उपाघात
उपसगाः
नियुक्ती
॥३१२॥
सर्व विउव्वति, सागारियं च से कसाइययं करेति, जाहे अविरइयं पेच्छति ताहे उद्वेति, पच्छा हम्मति, ताहे भगवं चिंतति-एस8 संगमक निराय उगाह करेति अणेसणं च, तम्हा गाम चेव ण पबिसामि, वाहि अच्छामि, अये भणति-जहा पंचालदेवो तहा विगुण्यति, कता तदा किर पंचालो उप्पभो, ततो गामस्स बाहिं निग्गतो, जतो माहिलाजूहं ततो सागारिएणं कसाइतणं अच्छति, वाहे किर ढोढसिवा पबचा, जम्हा सक्कण पूतितो भगवं तहा ठिओ, ताहे सामी चिंतति-एस निरायं उडाई कति, तम्हा गामं चेवन अतिमि, एगते अच्छामि, वाहे संगमओ ओइसति-ण सक्कासि तुमं ठाणाओ चालेउंति, पेच्छामि ता गामं अतिहि, ताहे सक्को आगतो, | पुच्छति-भगवं ! जत्ता भे? जबणिशं च मे अव्वाचाहं फासुविहार , बंदित्ता पडिगतो । | ओसलि खडगरूवं संघिच्छेदो इमोत्ति वज्झो य । मोएइ इंदजालिय तत्थ महाभूतिलो नाम ॥४-५२१५०९॥ __ताहे सामी वोसलिं गतो, चाहिं पडिम ठितो, ताहे सो देवो चिंतेति-एस ण पविसति, तो एत्यवि से ठियस्स करेमि, ताहे| खुहगरूवं विउम्बित्ता संधि छिंदति, उबगरणेहिं गहिएहि, बत्तीए तत्थ गहितो, सो भणति-मा में हणह, अहं किं जाणामि?, आय-1* रितेण अहं पेसितो, कहिं सो', एस बाहिं असुगउज्जाणे, तत्थ इम्मति बज्झति य, मारिज्जतुत्ति बज्यो णीणिओ. तत्थ भतिलो13 नाम इंदजालितो, तेण सामी कुंडग्गामे दिहतो, ताहे सो मोएति, साइति य जहा-एस रायसिद्धस्थपुत्तो, मुको खामितो य, खुडओ मग्गिओ, ण दिट्ठो, णायं जहा देवो से उवसर्ग करेति ।।
|॥३१॥ मोसलि संधिसमागममागहओ रहितो पिनुवयंसो। तोसलि य सत्त रज्जू वावत: तोसली मोक्खो॥४-५३१५१०॥
दीप अनुक्रम
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [५१०/५१०], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
AREE
प्रत
कृता
HEIGE
स
ततो भगवं मोसलिं गतो, बाहिं पडिमं ठितो, इमी खुडगरूवं विउवित्ता खतं खणति, तत्थवि तहेब घेप्पति, पंधिऊणं
संगमकआवश्यक मारिज्जइत्ति, तत्थ सुमागधो णाम रडिओ सामिस्स पितुवयंसो, सो मोएति, कहितं च, खुडओ गहितो, तहेच गट्ठो । ततो भगवं चूर्णी तोसलि गतो, तत्थवि बाहिं पडिम ठितो, तत्थवि देवो खुारूवं विउम्बित्ता संधिमग्गं सोहेति, पडिलेहेति य, सामिस्स पासेx.उप उपोद्घाता सव्वाणि खत्तोवकरणाणि विगुब्बति, ताहे सो खुडओ गहितो, तुर्म कीस एत्थ सोहेसि , सो साहति-मम धम्मायरियो रचि मा. नियुक्ती
कंटए भज्जायहिति, सो रति खणओ णीहिति, सो कहि , कहितो, गता, दिट्ठो सामी, ताणि य परिपरंतेण पासति, गहितो, ३१॥ आणीतो, ताहे उकलंचितो, एकसिं रज्जू छिनो, एवं सत्त वारा छिनो, ताहे सिटुं तस्स तोसलियस्स खत्तियस्स, सो भति
| यह एस अचोरो, निदोसो, तं खुड्डयं मग्गह, जाच ण दीसति, ताहे णायं तं जहा देवोत्ति । सिद्धत्वपुरे तेणात्ति कोसिओ आसवाणिओ मोक्यो। बयगामहिंडणेसण थितियदिणे येति उवसंतो॥४-५४।५११॥
ततो सिद्धत्थपुरं नाम गामो, तत्थ भगवं गतो, तत्थवि तेण देवेण तहा कर्य जहा तेणोति गहितो, तत्थ कोसिओ नाम: आसवाणियओ, तेण सामी कुंडगामे दिवेल्लओ, तेण मोयावितो, केती भणंति-तत्थ कोसितो नाम आसवाणिओ सार्मि दर्छा | निग्गमए अमंगलंति असि कडिऊण आगतो, सकेण तस्सेव उवरि दिनो, स मतो य, ततो सामी वयग्गाम गोउलं पत्तो, तत्थ य ॥३१शा तदिवसं छणो, सब्बत्थ परम उपक्वडिय, चिरं कालं तस्स देवस्स ठितगस्स उपसग्गं फाउं, सामी चिंतेति-गता छम्मासा, मा गतो होज्जत्ति अतिगतो जाव असणातो करेति, जाव सामी उवउत्तो पासति, ताहे अद्धहिंडितो चेव नियचो, बाहिं पडिमं ठितो,
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [५११/५११], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
कुता
प्रत
श्री सो य सामी ओहिणा आमोएड-किं भग्गपरिणामो नवत्तिा, ताहे सामी तहेव विसुद्धपरिणामो छज्जीवहितं झायति, ताहे दटुं संगमक आवश्यक
आउट्टो, ण तीरेति चालेउति, जो एच्चिरेणवि कालेणं छम्मासहिं ण चलिओ एस दीहेणावि कालेणं ण सको चालेउ, ताहे पादेसुद्रा चूर्णी
उपसगा: उपोद्घातात
पडितो भणति-सच्चं सच्च जसको भणति, सवं खामेमि । भगवं अहं भग्गपइनो तुझे समत्तपहना । भणति यनियुक्ती
वचह हिंडहण करेमि किंचि इच्छा ण किंचि बत्तब्बो । तत्थेव वत्थवाली थेरी परमन्न बसुहारा ॥ ४-५५५१२ ॥
जहा एनाहे अतीह पारेह, ण करेमि उवसगं भगवं?, सामी भणति-भो संगमया ! णाई कस्सति य वत्तव्यो, इच्छाए अतीमि ॥३१॥
वाण वा, ता बीयदिवसे तत्थेव गामे भगवं हिंडमाणो बत्थवालथेरीए दोसीषण पायसेण पडिलाभितो, पंच दिब्बाणि, एगे भणंतितदिवसं ताए खीरं ण लद्धं, वितियदिवसे ओहारेऊण उबक्वीडतं, तेण पडिलाभितो, पंच दिव्वा ।
छम्मासे अणुषद्धं देवो कासी घ सो तु उवसंग्गं । दट्टण वयग्गामे बंदिय वीरं पडिनियत्तो ।। ४-५६।५१३ ।। देखो चु(ठि)तो महिड्डी सो मंदरचूलियाए सिहरंमि । परियरिओ सुरवहूहिं तस्स य अपरोवमं सेसं ॥४-५७१५१४॥ इतो य सोहम्मे सब्बे देवा तदिवसं उविग्गमणा अच्छति, संगमतो सोहम्मं गतो, तस्थ सक्को तं दट्टण परमहो भणति देवे-12
॥३१॥ भो सुणह ! एस दुरप्पो, ण एतेण अम्हं चित्तराखा कता अमेसि च देवाणं, पुणो य तित्थगरपडिणीओ, ण एतेण अम्हं कज्ज,81 असभासो निम्बिसओ य कीरतु, ताहे पाएण निच्छूढो, सो मंदरचूलियाए उबरिं जाणतणं विमाणेणं आगम्म ठितो, देवीहि विनवितो, ताओ विसज्जिताओ, सेसा देवा इंदण बारिया, तस्स सागरोवमं एक सेता ठिती।
दीप अनुक्रम
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [५१५-५१६/५१५-५१६], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
आवश्यक
KAGES
उपादधाता
दीप अनुक्रम
आलभिय हरि पियपुच्छ जितउवसग्गात धोवमवससं । हरिसह सेयवि सावधि खंदपतिमा यसको उ ॥ आलभि(आलभियाए हरि विज् जिणस्स भत्तीए वन्दओ गइ। भगवं पिअपुच्छा जियउत्सग्गत्ति थेवमयसंसं ॥५१५॥ 1 कादी
हरिसह सेयषिपाए सावधी बंधपडिम सको य । ओयरिङ पडिमाए लोगो आउदिओ चंदे ।। ५१६ ।। (इत्येवं श्री नियुको |गाथाद्वयं हारिभद्रीयवृत्तिगतं)
ततो आलभियं गतो, तत्थ हरिविज्जुकुमारिंदो एति, ताहे सो वंदित्ता भगवतो माहिम काऊण भणति-भगवं! पियं पुच्छामि, णिच्छिन्ना उबसग्गा, बहुं गतं थोषयं अवसेस, अचिरेण ते कालेण केवलणाणं उप्पज्जिहिति । ततो सेयावयं गतो, तत्थ हरिस्सहो पियं पुच्छओ एति, ततो सावरियं गतो, बाहिं पाडमं ठितो, तत्थ य लोगो खंदपडिमाए महिमं करति, सको ओहिं पउंजति, जाब पेच्छह खंदपडिमाए पूर्य, सामि गाढायंतित्ति, ओतिनो, सा य अलंकिता रहं बिलग्गिाहीतीत्ति, सक्को य आगतो, तं पडिम अणुपविट्ठो, ताहे पच्चकमिता, लोगो तुट्ठो देवो सयमेव रहे विलग्गतिति, जाव सामी गंतूणं वंदति, ताहे लोगो आउट्टो, एस | देवेदेवोत्ति महिमं करेंति जाब अच्छितो।
कोसंबी चंदसूरोतरणं वाणारसीय सक्को उ । रायगिहे ईसाणो महिला जणओ य धरणो य ॥ ४-६०५१७॥
ताहे सामी कोसंचिं गतो, तत्थ चंदबरा सविमाणा महिमं करेंति, पियं च पुच्छंति, चाणारसीय सक्को पियं च पुच्छति, 31॥३१५।। हरायगिद्दे ईसाणो पिर्य पुच्छति, महिलाए यासारत्तो एक्कारसमो, चाउम्मासखमणं करेति, तत्थ धरणो आगतो पियं पुच्छओ, |
CAC4
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [५१८/५१८], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
HEIGE
सज्जूरी।
॥३१६॥
श्री 8 जणओ य महिमं करति ।
विशाल्यादौ आवश्यकता
वेसालि भूपर्णदो चमरुप्पाओ य सुसुमारपुरे । भोगपुरसिदिकंग माहिदो यत्तिओ कुणति ।। ४-६०५१८॥ हा बिहार चूर्णी उपोद्घातात
ततो निग्गतो वेसालिं एति, तत्थ भृताणंदो पिय पुच्छति, णाण च वागरेति । पच्छा सुमुमारपुरं पति, तत्थ चमरो उप्पतति नियुक्ती 18| जहा पण्णत्तीए, पच्छा भोगपुरं एति, तन्ध माहिंदो णाम खत्तिो सामि दट्टण सिदिकंदपण आहणामिति पधाइतो, सिदि
वारण सणंकुमारो दिग्गामे य पिउसहा वंदे । मंदियगामे गोवो वित्तासणयं च देविंदो ॥४-६२ । ५१९॥
एत्थंतरा सणंकुमारो गति, तेण धाडितो तासितो य, पियं च पुच्छति, ततो गंदिग्गामं गतो, तन्य पदी नाम भगवतो पितुमिनो, सो महेति । ततो मेंढियं एति, ताथ गोवो जहा कंभारगामे, तत्थेव सक्केण तासिनो वालरज्जुएणं आहणेतो कोसंबीए मयाणिउ अभिग्गहो पोमबहुल पाडिवए। चाउम्मास मिगावति विजय सुगुत्तो य गंदा य||४-६३ । ५२०॥ तचावादी चंपा दधिवाहण वसुमती वितियणामा । धण धवण मूलालोयण संपुल दाण य पबज्जा ॥४-६४।५२१॥
ततो कोसंघि गतो। तत्थ य सयाणिओ गया, तस्स मिगावती देवी, तच्चारादी णाम धम्मपाओ, सुगुत्तो अमच्चो,५॥३१६।। गंदा में महिला, सा समणोवामिया, मा माडित्ति मिगावतीए बयंमिया, तन्थेब णगरे धणावही मेट्टी, तम्म मूला भारिया. जाएवं ने मकम्मसंपउत्ता अच्छति । सामी य इमं पता अभिग्गह अभिगण्डति, चउविहं-दव्यतो ४, दबतो-कमासे सुप्प
दीप अनुक्रम
भगवंत महावीरस्य विशिष्ट अभिग्रह एवं चंदनबालाया: वृतान्त कथयते
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आगम
(४०)
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [५२०-५२१/५२०-५२१], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्रांक
दीप अनुक्रम
श्री कोणेणं, खिचओ एलुगं चिक्खंभइत्ता, कालो नियत्तेसु भिक्खायरेसु, भावतो जदि रायधूया दासत्तर्ण पत्ता णियलबद्धा मुंडि- कुलमाषाआवश्यक यसिरा रोयमाणी अन्भचट्ठिया, एवं कप्पति, सेसं ण कप्पति, कालो य पोसबहुलपाडिवओ । एवं अभिग्गघत्तण कोचूणा
| संबीए अच्छति, दिवसे दिवसे य भिक्खायरियं फासेति, किं निमित्त !, बावीसं परिसहा भिक्खायरियाए उदिज्जात, एवं 14
वीर नियुक्ती
चचारि मासे कोसंबीए हिंडति, ताहे णदाए घरमणुपविट्ठो, नाते सामी जातो, ताए परेण आदरेण भिक्खा णीणिता, सा
मी विनिग्गतो, सा अधितिं पकता, ताहे दासीओ भणंति-एस देवज्जओ दिवे दिवे एत्थ एति, ताहे ताए णातं॥३१७॥
लणं भगवतो कोति अभिग्गहो, ताहे निरायं चेव अद्धिती जाया। सुगुत्तो अमच्चो आगतो, ताहे सो पुच्छति, भणति| किं अद्धिति करेसि?, ताए से कहित, भणति-कि अम्हं अमच्चत्तणेण, एरिचरं कालं सामी भिक्खं ण लभति, किं च
ते विनाणेण? जदि एतं अभिग्गहं ण जाणसि, तेण सा आसासिता, कल्ले समाणे दिवसे जहा लभति तहा करेमि । एताए BI कहाए बद्माणीए विजया णाम पडिहारी मिगावतीए सतिया, सा केणवि कारणेण आगता, सा तं उल्लावं सोऊण। मिगावतीए साहति, मिगावतीवितं सोउणं महता दुक्खेण अभिभृता, सा चेडगधूता, अतीय अद्धिति पकया, राया य आगतो पुच्छति, भणति किं तुज्या रज्जेण मए वा, एवं सामिस्स एवतियं काल हिंडतस्स अभिग्गहो ण णज्जति, ण वा जाणास एत्थ विहरत, तेण आसासिता, तहा करोमि जहा कल्ले लभति, ताहे सुगुचं अमच्चं सद्दावेति अंबाडति य, R ३१७॥ जहा तुम सामि आगतं ण जाणसि, अज्ज किर चउत्थो मासो हिंडंतस्स, ताहे तच्चावादी सदावितो, ताहे सो पुच्छति | सयाणिएणं-तुज्यं धम्मसत्थे सबपासंडाणं आयारा आमता, ते तुम साहह, इमोवि भणितो-तुम बुद्धिबलिओ साह, ते भणति
।
(26)
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [ ११४... ]
अध्ययनं [-]
मूलं [- /गाथा-], निर्युक्तिः [५२०-५२१/५२०-५२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
आवश्यक
चूण
उपोदूधात
नियुक्त
॥३१८ ॥
बहवे अभिग्गहा, ण णज्जति अभिष्याओ दव्वजुत्ते य खे० सत्त पिंडेसणाओ सत्त पाणेसणाओ, ताहे रमा सम्वत्थ संदिडा, | लोगेणवि परलोककंखिणा कता, सामी आगतो, ण य तेहिं पगारेहिं गिण्हति, एवं च ताव एवं। इओ य सयाणिओ पं पधाविओ दहिवाहणं गेण्डामिति, णावाकडएण गतो एगाए रत्तीए, अचिंतिया चेव णगरी बेडिया, तत्थ दहिवाहणो पलातो, रत्ना जग्गहो घोसित एवं जग्गहे दिने दहिवाहणस्स रनो धारणी देवी, तीसे धूया वसुमती, सा सह धूयाए एगेण ओडिएण गहिता, राया नियत्तो, सो उट्टितो चिंतेति, भणइ य-एस मे मज्जा, इमं च दारियं विक्केसं सा देवी तेण मणोमाणसिएण दुक्खएण अप्पणी धूयाए य एस ण णज्जति किं ममं पावेहिति, एवं चीड, एवं सा सा अंतरा कालगता, पच्छा तस्स उट्टियस्स चिंता जाता-दुई मए भणितं महिला हाहितिचि, एवं न भणामि, मा एसावि मरिहिति, तो मे मोल्लंपि ण होहिति, ताहे यसंवेण आणिीता, वीडीए ओडिया, घणवाहेण दिट्ठा अणलंकितलावचा, अवस्सं रन्नो ईसरस्स या एसा, मा आवई पावउत्ति जमि सो भणति तत्तिएण मोल्लेण गहिता, तेण समं ममं सुहं तत्थ नगरे आगमणं गमणं च होहितित्ति, तेण नियगं घरं जीता, पुच्छिता का सि तुर्मति, ण- साहति, पच्छा तेण धूतत्ति गहिता एवं सा हाणिता, मूलिगाव भणिता - जहा एस तुज्झ धूयति, एवं सा तत्थ जहा नियए घरे तह सुहंसुद्देण अच्छति, तापनि सो सपरिजणो लोगो सीलेण य विणण य सब्बो अप्पपिज्जओ कओ, ताहे ताणि भगति सव्वाणि अहो इमा सीलचंदणत्ति, ताहे से वितियंपिय णामं कयं चंदणचि एव य कालो बच्चति । ताए य परिणीए अवमाणो जायति मच्छरिज्जति य को जाणति कयाइ एस एवं पडिवज्जेज्जा ?, ताहे अहं घरस्स अस्सामिणी भविस्सामि, तीसे य वाला अतीव रमणिज्जाऽतिकिण्डा य, अनया कमाई सो सेट्टी मज्झण्डे जगविरहिते आग
-
(27)
चन्दन
बाला वृ
॥३१८॥
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आगम
(४०)
प्रत
सूचांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
अध्ययनं [-]
आयं [१९४...]
मूलं [- /गाथा ],
निर्युक्तिः [५२०-१२१/५२०-५२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री. आवश्यक
चूण उपो धात नियुक्ती
॥३१९॥
को जाव णत्थि कोमि जो पादे सोचेति, ताहे सा पाणितं गहात निग्गता, तेण वारिया, सा मह (डा) ए पधाता, ताए धोतीए ते वाला वडेललगा फिड्डा, मा चिक्खरले पडिहिंतित्ति तस् य हत्थे लीलाकट्टतं तेण ते घरिता बुद्धा य, मूला य ओलोयणवरगता पेच्छति, ताए पायं विणासितं कज्जं जदि किहइ परिणति तो अहं का?, सा सामिणी, वासो नगरेवि मे णत्थि, जाव तरुणओ वाघी ताव णं तिगिच्छामिति सेमि निग्गए ताहे य पहावितं वाहरावेत्ता वोडाविता णियलेहि य बद्धा पिडिया य परियणो य अणाए वारितो-जो वाणियगस्स साहूति सो मम णत्थि, ताए सो पिल्लितेल्लओ, घरे छोट्टण बाहिरि कुडंडिता, सो कमेण आगतो पुच्छति कहिं चंदणा ?, न कोतिवि साहति भएण, सो जाणति नूणं सा रमति उवरिं वा एवं रतिपि पुच्छिता, जा | गति सा सुत्ता णूणं, बितियदिवसेविण दिवा, ततिए दिवसे घणं पुच्छति, साहह, मा मे मारेह, ताहे थेरदासी एगा चिंतेति — किं मम जीवितेनं १, स जीवतु वराई, ताए कंहितं असुगघरे, तेण उग्घाडिया, छुहाहतं पेच्छिता, कूरं पमग्गितो जाम (समा) वसीए णत्थि, ताहे कुंमासा दिट्ठा, ते दाउं लोहारघरं गतो जा णियलाणि हिंदावेमि, ताहे सा हत्थी जथा कूलं संभरितुमारद्धा एलुगं विक्खंभवित्ता, तेहिं पुरतो कई ह्रिदय अंतरतो रोवति, सामी य अतिगतो, ताए चिवियं एतं सामिस्स देमि मम एतं अधम्मफलं, भणति भगवं । कप्पति, सामिणा पाणी पसारितो, चउच्चिहोवि पुनो, पंच दिव्वाणि, ते से वाला तदवत्था, ताहे चैव ताणि नियलाणि फुट्टाणि, सोबभिताणि कडगाणि जीउराणि य जाताणि, देवेहि य सव्वालंकारा कता, सको य देवराया आगतो, पंच दिव्वाणि, अद्धतेरस हिरण्णकोडीओ पडियाओ । इतो य कोसचीए सव्वतो उक्कुडकेण पुनर्मतेण अज्ज सामी पडिलाभितो, ताहे राया संतेपुरपरियणो आगतो तत्थ संपुलो णाम दहिवाहणस्स कंबुहज्जो, सो बंधिता आणियओ, तेण सा नाया, सो पादेसु
(28)
चन्दनबाला वृ
॥३१९॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [५२०-५२१/५२०-५२१], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
दीप अनुक्रम
IPा परित्ता परुनो-अहो इमा वसुमती, राया पुच्छति, ताहे तेण कहिय-देव रायाओ इमा, ताहे सब्वेण लोगेण नाय जहा दहिवाहणस्सामुमंगलादो आवश्यका ध्यात्ति, मिगावती भणति-मम भगिणियत्ति, अमच्चो य सपत्तीओ आगतो, सामि बंदति । पच्छा सामी निग्गओ । ताहे राया ||
चूणौं | उपोद्घात
J&ातं वसुहारं पगहिओ, सक्केण वारियं, जस्स एसा देह तस्स आमव्यंति, सा पुच्छिया, भणति-मम पिउणो, ताहे सेडिणा गहियं । नियुक्ती
सताहे सक्केण भणित-चरमसरीरा एसा, एवं संगोवाहि जाप सामिस्स नाणं उप्पज्जति, एसा पढमा सिस्सिणी सामिस्स, ताहे कर्णतपुरं|
| छुदा संवद्धति, छम्मासा तदा पंचहि दिवसेहिं ऊणगा जद्दिवसं सामिणा भिक्खा लद्धा, सावि मूला लोगेणं अंबाडिता हीलिया य।। ॥३२॥
| तत्तो सुमंगल सणकुमार सुच्छित्तएहि माहिंदो। पालय वाइल वणिए अमंगलं अघणो असिणा ॥४-६५।५२२।। PI ततो सामी निग्गता सुमंगला णाम गामो तहिं गतो, तत्थ सणकुमारो एति वंदति पियं च पुच्छति, तत्थ पढमं सिंदीक४ डगनिमित्तं आगतो, ततो सामी पालय नाम गार्म गतो, तत्थ बाइलो नाम वाणिययो जत्ताए पहावितो सामीं पेच्छति, सो अमंगललंति काऊण असिं गहाय पधातिओ, एतस्सेव फलानि तस्स सिद्धत्येण सहत्थेण सीसं छिन् ।
चंपा वासावासं जखिदो सातिदत्त पुच्छाय। वागरण दुह पएसण पच्चक्खाणे य दुविहे तु ॥४-६६।५२३।। ततो सामी चंप नगरिं गतो, तत्थ सातिदत्तमाहणस्स अग्निहोत्तवसहिं उवगतो, तत्थ चाउम्मासं खमति, तत्थ पुण्णभद्दमाणि
॥३२॥ भद्दा दुबे जक्खा रातिं पज्जुवासंति, चनारिवि मासे रत्ति रति पूर्व करेंति, ताहे सो माहणो चिंतेति-कि एस जागति तो णं देवा म-18 ति?, ताहे विनासणनिमित्तं पुच्छति-को यात्मा?, भगवानाह-योऽहमित्यभिमन्यते, स कीटक ?, सूक्ष्मोऽसौ, किं तत्सूक्ष्म , यन्न
(29)
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं - गाथा-], नियुक्ति: [५२३/-५२३], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
आवश्यक
चूणों उपोद्घात
पसर्गः
नियुक्ती
गृहीमः, ननु शब्दगंधानिलाः किम्, न, ते इंद्रियग्राबाः, तेन ग्रहणमात्मा, ननु ग्राहयिता हि सः। कतिविहे णं भंते ! पएसणए', कद-दी
गोपकता विहे णं पच्चक्खाणे, भगवानाह-सातिदचा! दुविहे पदेसणये धम्मियं अधाम्मयं च, पएसणयं नाम उवदेसो । पच्चक्खाणे
शलाकोदुविहे- मूलगुणपच्चक्खाणे व उत्तरगुणपच्चक्खाणे य । एतेहिं पदेहि सव्वं तस्स उवागतं जेभियगामे णाणस्स उप्पदा वागरेति देविंदो । मेढियगामे चमरो वंदण पियपुच्छणं कुणति ॥४-६७१५२४।।
ततो भगवं निग्गतो, जभियगाम गतो, तत्थ सक्को आगतो, पंदित्ता पूर्य करता णविहिं उवदसेना णं वागरेति जहा एत्तिएहि दिवसेहि केवलणाणं उप्पज्जिहिति । ततो मेंढियग्गामं बच्चति, तत्थ चमरो बंदयो पियपुच्छओ य आगच्छति, वंदितुं 81 | पुच्छति, वंदितुं पुच्छितुं च पडिगतो । छम्माण गोव कडसलपवेसणं मज्झिमाए पायाए । खरतो वेज्जो सिद्धस्थवाणिओ णहिरावेति ॥४-६८१५२५ ।
ततो सामी छमाणि णाम गामो तहिं गतो, तस्स चाहिं पडिमं ठितो, तत्थ सामिसमीचे गोवो गोणे छड्डेऊणं गामं पविट्ठो, दोहणादीणि काउं निम्गतो, ते य गोणा अडविं अणुपविट्ठा चरियव्ययस्स कज्जे, ताहे सो आगतो पुच्छति- देवज्जगा! कहिं बहल्ला ?, भगवं मोणेण अच्छति, ताहे सो परिकृवितो भगवतो कनेसु काससलागाओ छुभति, एगा इमेण कमेण एगा इमेण, IN||३२१।। ताहे पत्थरेण आहणति जाव दोवि मिलिताओ, ताहे मूलभग्गाओ करेति मा कोति उखाणहित्ति, केति भणंति- एगा चेव | | जाव इतरण करणं निग्गया, ताहे अ भग्गा, कन्चेसु त तत्तं गोवस्स कतै तिविणा रना । कन्नेसु बद्धमाणरस तेण छूढा कड-15
BIHAR
॥३२१
दीप अनुक्रम
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप अनुक्रम
H
भाग - 4 "आवश्यक" - मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 निर्मुक्तिः [५२५/२५]
भाष्यं [१९४...]]
अध्ययनं -L. मूलं [- गाथा-1, पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूण उपोद्घात
नियुक्ती
॥३२२॥
श्रीवीरस्य केवलोत्
पादः
सलागा ॥ १ ॥ भगवतो य तद्दारवेयणिज्जं कम्मं उदिनं । ततो मज्झिमं पात्रं गतो, तत्थ सिद्धत्थो नाम वाणियतो, तस्स घरं भगवं अतिगतो, तस्स मित्रो खरओ णाम बेज्जो, ते दोषि सिद्धत्थवरे अच्छंति, सामी य भिक्खस्स पविट्ठो वाणियते।। बंदति श्रुणति य, वेज्जो य तित्थगरं पासिऊण भणति अहो भगवं सब्बलक्खणसं पुन्नो, किं पुण ससल्लो १, ताहे सो वाणिओ संभतो भगति पलोएहि कहिं सहो ?, तेण पलाएंतेण दिट्ठो कन्नेसु तत्थ तेण वणिएण भन्नति नीणेद्दि एवं महातवसिस्स, सव्वस्संपि चयेमो, पुत्रं होहिति तयवि मज्झवि, भणति निष्पडिकंमो भगवं नेच्छिहिति, ताहे पडियरावितो जाव दिट्ठो उज्जाणे पडिमं ठितो, ते ओसहाणि गहाय गता, तत्थ भगवं तेलोणीए निवज्जावितो मद्दितो य, पच्छा बहवेहिं पुरिसेहिं जंतितओ अक्कंतो य, पच्छा संडासएण गहाय कड्डितो, तत्थ सरुहिराओ सलागाओ अंहिताओ, तासु य अछिज्जतीसु भगवता आरसितं, ते य मणूसे उप्पाडेचा उडतो, तत्थ महाभवं उज्जाणं जातं देवउलं च पच्छा संरोहणं ओसहं दिनं जेण ताहे चैव पउणो, ताहे वंदित्ता खामेना य गता । सब्बेसु किर उवसग्गेमु दुव्विसहा कतरे ?, कडपूषणासीयं कालचक्कं एतं चैव स कड्डिज्जत, अहवा जहन्नगाण उपरि कडपूयणासीतं मज्झिमाण कालचक्के, उक्कोसगाण उवरिं सल्छुद्धरणं ॥ एवं गोवेण आरद्धाउवसग्गा गोवेण चैव निडिता । गोवो सत्तमिं गतो, खरतो सिद्धत्थो य दियलोग तिब्वमवि उदीरसंतावि सुद्धभावा । जंभियहि उज्यालियतीरवितावत्तसामसालअहे । छट्टेण उक्क्यस्स उपपन्नं केवलं नाणं ॥ ४-६९ । ५२६ ।। वाहे सामी जांभयगामं नाम नगरं गतो, तस्स बहिया विद्यावत्तस्स चेतियस्स अदुरसामंते, वियावतं णाम अव्यक्तमित्यर्थः, अप्पागडं संनिपडित, उज्जुयालियाए नदीए तीरंभि उतारले कूले सामागस्स गादावतिस्स कट्टकरणंसि, कट्टकरणं नाम छेच,
| ॥ ३२२ ॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं - गाथा-], नियुक्ति: [५२६/-५२६], भाष्यं [११४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
आवश्यक चूर्णी
सत्राक
॥३२३॥
दीप अनुक्रम
सालपादवस अहो उक्कुडयणिसेज्जाए गोदोहियाए आतावणाए आतावेमाणस्स छद्रुण भषण अपाणएण अणुत्तरणं णाणणं * अणुत्तरेणं देसणणं अणुत्तरेणं चरित्रण अणुत्तरण आलएणं अणुत्तरेण विहारण, एवं अज्जवणं महवेणं लाघवेण खतीए मोतीएस
II तपः गुत्तीए तुट्ठीए अणुत्तरणं सच्चसंजमतवसुचरितसोवचझ्यफलपरिनिळ्याणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स दुवालसहि संवच्छरेहिं विति-IX|
संकलना क्कतेहिं तेरसमस संवच्छरस्स अंतरा बढमाणस्स वइसाहसुद्धदसमीए पादीणगामिणीए छायाए अभिनिबढाए पोरुसीए पमा-1 णपत्ताए सुब्बएणं दिवसेणं विजएणं महत्तणं हत्थुत्तराहिं नक्खणं जोगमुवागतेणं झाणतरियाए वहमाणस्स एकत्तवितक्कं बोली| गस्स सुहुमकिरिय अणियट्टिमपत्तस्स अर्णते अणुचरे निब्बाधाए निरावरणे कसिण पडिपुष्ण केबलवरनाणदसणे समुप्पन्ने । तए में से भगवं अरहा जिणे जाते केवली सन्नन्नू सब्बदारसी अरहस्सभागी. सनेरतियतिरियनरामरस्स लोगस्स पज्जवे जाणति पासति, तंजहा-आगति मई ठिति चयणं उववायं तक्कं मणोमाणासितं भुतं कडं पडिसेवितं आवीकम्मं रधोकम्म तं तं कालं मणवयणकायिते जोए, एवमादी जीवाणवि सव्वभावे मोक्खमग्गस्स य विमुद्धतरागे भावे जाणमाणे पासमाणे, एस खलु मोक्ख| मग्गे मम य असोसि च जीवाणं हितसुहनिस्सेसकरे सबदुक्खविमुक्खणे परमसुइसमाणणे भविस्सहाच । एवं च केवलणाणं तवेण | उप्पतिकाउणं जो छउमत्थकालियाए भगवता तवो कतो सो सम्बो वर्षयष्यो
जो य तथो०॥५-२१५२७।। णव किर चाउम्मासे०॥५-२॥५२८|| एग किर छम्मासं०॥५-३२॥ ५२९ ।। भई च&॥३२॥ महाभई०॥ ५४॥ ५३० ।। गोयर ॥५-५ ।। ५३१ ॥ दिवसे दिवसे भगवं भिक्खं हिंडेति एव छम्मासे । हिंडति | | पंचदिवसूण वत्थाणगरीए अव्यदिओ भगव ॥१॥ दस दो य० ।। ५-६॥ ५३२ ॥ दो चेव य ह ।। ५-७ ।।५३३-५३४॥
भगवंत वीर कृत् (बाह्य) तपस: वर्णनं क्रियते
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [५३५-५४२/५३५-५४२], भाष्यं [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
दीप अनुक्रम
एस ताव खमणकालो । इमो पारणगकालो
महासेने आवश्यक
आगमन चूर्णी तिन्नि सते दिवसाणं ॥ ५-८॥ ५३५ ।। पव्वज्जाते॥५९ ।। ५३६ ॥ पारस चेव य ।। ५-१० ॥ ५३७॥
समवसरण उपोद्घातला
एवं तवोगुणरओ अणुपुब्वेण मुणी विहरमाणो । घोरं परीसहच{ अहियासत्ता महावीरो ॥५-११॥५३८॥ द्वाराणि नियुक्ती
I उप्पन्नमि अणते नट्ठमि य छाउमथिए णाणे । रातीए संपत्तो महसेणवणं तु उज्जाणं ॥५-१२।।५३९।५४२॥११५भा. ॥३२४ाकिमिति । जाहे सामिस्स केवलनाणं उप्पचं ताहे इंदादीया देवा सचिड्डीए हडतुट्ठा णाणुप्पदामहिमं करेंति । तत्थ भगवं
दूजापति-पत्थि एस्थ पव्वयंततो, जत्थ नत्थि पव्ययंततो तत्थ ण पवत्तिज्जति, ततो य बारसेहिं जोयणेहिं मज्झिमा नाम नगरी,
तत्थ सोमालज्जो नाम माहणो, सो जन जयइ, तत्थ य एक्कारस अज्झावगा आगता भवियरासी य, ताहे सामी तत्थ मुहुत्तं
अच्छति जाव देवा पूर्व करेंति, एस केवलकप्पो किर जं उप्पने नाणे मुडुत्तमे अच्छियवं, ताहे सामी रत्तीय तं बच्चति, तत्थ हवच्चतो असंखज्जाहिं देवकोडीहिं परिवुडो देवुज्जोएण सव्वो पंथो उज्जोवितो जथा दिवसो, जत्थ भगवतो पादा तत्थ देवा
सत्त पउमाणि सहस्सपत्ताण णवणीतफासाणि विउब्वति, मग्गतो तिनि पुरओ तिनि एगं पायाणक्कमे, एगे भणंति- मग्गतो 3 सत्त पउमाणि दीसंति, जत्थ पाओ कीरति ताहे अन्नं दीसति, मग्गओ सत्त दीसति, मग्गओ सत्त दो पादेसु एवं णव । एवं 3॥३२४॥ द जाव मज्झिमाए णगरीए महसेगवणं उज्जाण संपत्तो । तत्थ देवा वितिय समोसरणं करेंति, माहमं च सूरुग्गमणे, एग जत्था
नाणं वितिय इमं चेव । अहवा एग छउमत्थकालियाए एग इमं चेव । एत्थं सामन्त्रेण समोसरणादिवत्तव्बया णेया गाहाहिं
MEX
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 निर्युक्ति: [५४३/५४३], भाष्यं [११५...]
अध्ययनं [-1, मूल [- /गाथा - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि - 2
श्री
आवश्यक चूर्णी उपोद्घातः निर्युक्तौ
॥ ३२५॥
समोसरणे केवतिया वपुच्छवागरण सोयपरिणामे । दाणं च देवमल्ले मल्लायणे उवरि तिथं ॥५- १८ || ५४३ ।।
इह पुण इमं णाण जाव सामी ण पावर ताव रतिं चैव देवेहिं तिथि पागारा कता, अंतो मज्छे बाहिति अन्यंवरं बेमाणिया सव्वरयणामयं णाणामणिपंचवन्नेहिं कविसीसएहिं मज्झिमं जोइसिया सोवनं रयणकविसीसगं, बाहिरं भवणवासी ता रयतं हेमजंबूणतकविससिगं, अवसेसं जं वातविउव्वणं वरिसणं पुप्फोबगारो य धूवदाणं च तं वंतरा करेंति, असोगवरपायवं जिथउच्चत्ताओ बारसगुणं सक्को बिउव्वति, ईसाणो उवरिं छत्ताइच्छत्तं चामरधरा य, बलिचमरा असोगहेडओ पेढं देवछंद सीहासणं सपायपीढं फालियामयं धम्मचकं च पउमपतिट्ठियं । ताहे सामी पयाहिणं करेमाणो पुव्वदारेण पविसित्ता 'नमो तित्थस्स' चि नमोक्कारं काऊण सीहासणे पुव्वाभिम्नुहो निसीयति । ताहे देवा अबसेसाहिं दिसाहिं सपरिकराणि मुहाणि विउब्वंति एवं सम्बो लोगो जाणति अम्हें कहेतित्ति । तत्थ समोसरणेति दारं समोसरणं नांम एत्थं वायोदगपुष्पवासपागारतयादिभिः भगवतो विभूती । तब
जत्थ० ।। ५- १९ ।। ५४४-५४८ ।। जत्थ अपुखं णगरे गामे वा जत्थ वा तहाविहो देवो महिड्डीओ बंदओ एवि तत्थ नियमेण भवति । ताहे जोयणपरिमंडल संवट्टयं वायं सुरभिगंधोदयं निहतरयं पुप्फबद्दलयं वा एवं अभियोगा देवा करेंति । पागारा तिन्नि, ते को करेति १, उच्यते
अनंतर० ।। ५-२४ ।। ५४९ || अभितरि पागारं बेमाणिया देवा करेंति, मज्झिमं जोतिसिया, बाहिरिल्लं भवणवासी करेंति । अतिरिलो रयणमयो मझिलो कणयमओ बाहिरिलो रयतमयो ।
अथ समवसरण वक्तव्यता प्रकाश्यते
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समयसरणं
॥३२५॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [५५०-५५२/५५०-५५२], भाष्यं [११५...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
पEAL
॥३२६॥
मणिरयण ॥५-२५ ।। ५५०-५५२ ।। अम्भितरस्स मणिमया कविसीसया, मज्झिमस्स रयणमया, बाहिरिल्लस्स हेममया,131 समवआवश्यका हेम-सुवर्ण । सव्यरयणमया दारा । तेसि पागाराणं तिण्हवि सव्वरयणमया चेव तोरणा, पडागाहिं सएहि य विभूसिया। अम्भि- सरणं
चूणा तरपागारस्स य बहुमज्झे चेतियरुक्खो, तस्स हेट्ठा रयणमयं पेढं, तस्स पेढस्स उवरिं चेतियरुक्खस्स हेड्डा देवच्छंदओ भवति, उपाधाता तस्सम्भतरे सीहासणं भवति, तस्सोवरि छत्तातिछसं, उभयो पासे य दो जक्खा चामरहत्था, चसदा पुरओ धम्मचक्कं च पउमनियुक्तो दिपइडितं । एताणि को करति ?, उच्यते
चेतियतुम० ।। ५.२८ ॥ ६५३ ॥ सिद्धा । जं चनंति बाउदयादि ।। आह- किं सम्वत्थ एवं!, उच्यते
साधारणओसरणे०॥५-२९ ॥ ५५४ ।। जत्थ बहवे तहाबिहा देवा एंति इंदा वा तत्थ एवं करेंति, जत्थ पुण कोति लावारिसओ महिड्डीओ देवो एति तत्थ सो चेव एगो एयाणि सव्वाणि करेति, 'भयणा उ सेसेसु इयरेसि' न्ति जइ इंदा ण एंति तो
भवणवासिमाइणो करेंति वा ण वा। II सूरुदयः ।।५-३० ।। ५५५:५५७ ।। तत्थ भगवं पढमपोरुसीए ओगाहतीए आगंतूर्ण पुच्चउचि-पुरस्थिमेणं दारेणं पविसित्ता
चेतियरुक्खं आदाहिणं करेता सीहासणे पुरस्थाभिमुहो निसीयति । जत्थ य भगवं एंतो पादे ठवेति तत्थ सहस्सपचाणि दो पउमाणि भवति, पिट्टओ य सत्त पउमाणि दीसंति, जतो य भगवओ मुहं न भवति ताहि तीहिं दिसाहिं देवा पडिरूबताई विउव्यति,
॥३२६॥ सीहासणाई समत्तसरीराई सचामराई सछत्ताई सधम्मचक्काई जहा सब्वो जणो जाणति मम सपडिहुचोचि । भगवतो य पादमूलं जहण एगेण गणहरेण अविरहियं अवस्स भवति, सो पुण जेहो वा अन्नो वा, पाएण जेट्टो भवति ।
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ॐॐॐॐॐ
SI
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [५५८-५५९/५५८-५५९], भाष्यं [११५...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
आवश्यक
सत्राक
चूर्णी उपोद्घात नियुक्ती ।।३२७॥
तित्थादिसेस०५.३३।५५८ ॥ केवलिणो०५-३४।५५९। जो तित्थं सो पुव्वदारेण पविसित्ता तित्थगरं तिक्खुत्तो बंदित्ता | दाहिणपुरस्थिमे दिसिभाए निसीयति, सेसा गणहरा एवं चेव काउंतित्थस्स मग्गतो पासेसु निसीयंति । जे केवलिणो वे पुरस्थि| मेण दारेण पविसिचा भगवं तिक्खुत्तो पयाहिणं काउं'नमो तित्थस्स'त्ति भणित्ता तित्थस्स गणहराण य पिट्ठतो निसीदंति । जे च
पनिवेशः | सेसा अतिसेसिता-मणपज्जवनाणी ओहिनाणी चोद्दसदसणवपुग्विणो खेलोसहिपत्तादी य ते पुरस्थिमेण दारेण पविसित्ता भगवतं पयाहिणीकरेत्ता वंदित्ता य 'नमो तित्थस्स नमो केवलीण ति मणिचा केवलीणं पिट्ठतो निसीदति । अवसेसा संजया निरतिसेसिया |पुरस्थिमेण चेव दारेण पविसित्ता भगवंतं पयाहिणं काउं वंदित्ता णमो तित्थस्स (नमो केवलीणं) नमो अतिससियाणति भणिचा ४ अतिसेसियाणं पिट्ठतो निसीदति । बेमाणियाणं देवीओ पुरथिमेण चेव दारेण पविसित्ता भगवंतं पयाहिणीकरेत्ता बंदिचा 'णमो तित्थस्स नमो साधूण य' भणित्ता निरतिसेसियाणं पिट्टतो ठायंति,ण णिसीदति । समणीओ पुरथिमेण चेव दारेणं पविसित्ता तित्थ-12 | गरं पयाहिणं करेत्ता वंदित्ता य 'नमो तित्थस्स नमो अतिसेसियाणं'ति भणिता वेमाणियदेवीणं पिट्ठतो ठायति, न निसीदति ।
भवणवासिणीओ वंतरीओ जोतिसिणीओ एताओ दाहिणणं दारेणं पविसित्ता तित्थगरं पयाहिणीकरेत्ता वंदिता य दाहिणपच्च| थिमेण ठायंति, भवणवासिणीणं पिट्टतो जोतिसिणीओ, तासि पिट्ठतो वंतरीओ॥
भवण०॥५-३५/५६०॥११६-११९ भा० । भवणवासी देवा जोतिसिया देवा वाणमंतरा देवा, एते अवरदारण पविसित्ता ॥२२॥ तं चेव विधि काउं उत्तरपचत्थिमेण ठायति यथासंख्य पिडओ, बेमाणिया देवा मणुस्सा माणुस्सीओ उत्तरेणं दारेण पविसित्ताल
दीप अनुक्रम
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 निर्युक्ति: [ ५६०/५५८-५६० ],
भाष्यं [११६-११९]
अध्ययनं [-] मूलं [- /गाथा -], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
आवश्यक
चूर्णी उपोमात नियुक्ती
।।३२८ ।।
***
उत्तरपुरत्थिमे ठायंति, जहासंखं पितो । 'जं च निस्साए' ति जो परिवारो जनिस्साए आगतो सो तस्सेव पासे निविसति, ण अनस्थ ।
एगे ०/५-४० ।। ५६१।। तित्थं असेससंजया एवं वैमाणिया देवीओ समणीओ, एतं तिगं भगवतो दाहिणपुरच्छिमेणं संनिविहं भवणवासिणीओ बंतरीओ जोइसिपीओ एतं तिग भगवतो दाहिणपच्चच्छिमेणं समिवि भवणवतिवाणमंतरजोतिसियपुरिसा एवं तिगं भगवतो उत्तरपस्थत्थिमेणं संनिविडं, वैमाणियदेवा मणुस्सा मणुस्सीओ एवं तिगं भगवतो उत्तरपुरत्थिमेणं संनिवि, आदिले यतिगे चरिमे य तिगे पुरिसा इत्थीओ य, मज्झिल्लेहि दोहिं तिएहिं इत्थीओ पुरिसा य अमिस्सा ॥ तत्थ सब्वेसि देवणराणं इमा मज्जाया
एतं महि०५-४१ ॥ ५६२ || जे अपिडिया भगवतो समोसरणे निसन्ना ते एवं महिडीयं पणिवयंति, अह महिड्डीया पढमं निसन्ना पच्छा जे अप्पिडिया एंति ते पुब्वट्ठिते महिडीए पणिवयंता वयंति सहाणं, सेस कंठं । आह-पागाराणं अंतरेसु को ठायति ?, उच्यते
पितियंमि० ।५-४२/५६३|| कंठा । सव्ववाहि पागाराणं तिरिया वा मणुया वा देवा वा होज्जा, एकया मीसया वा, एवं संनिविडे समोसरणे भगवं धर्म कहेति । जदि
सव्यं ० | ५-४३१५६४॥ कंठा । कहं पुण ण भविस्सति एस भावो जं न पडिवज्जिहिति चउन्हं सामाइयाणं अनवरं ?, उच्यते
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समवसरणे पर्षेभिवेशः
॥३२८॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [५६५/५६५], भाष्यं [११९...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
सत्राक
दीप अनुक्रम
मणुए०५-४४५६५॥ मणुयाण जो पडिवज्जति सो चउण्इं अनतरं पडिवज्जेज्जा, तिरियाणि तिनि-सम्मत्तसुत्तचरिचाचरिआवश्यक चूणों सिचाई, दोभि एग वा, एतेसि जदि णस्थि कोति पडिवज्जंतओ तो देवेसु अवस्स केणति सम्मत्तं पडिवज्जियव्वं ।। ताहे भगवं--
तीर्थनतिः उपोद्घात | तिस्थपणामं०५-४५/५६६।। 'नमो तित्थस्स' ति मणिचा पणामं च करेत्ता साहारणेण सद्देणं अद्धमागहाए भासाए, नियुक्ती साविय थे अद्धमागहा भासा मासिज्जमाणी सव्यसि तेसि आयरियमणायरियाणं अप्पप्पणो भासापरिणामेणं परिणमति । आह॥३२९ किं भगवं कतकिच्चे तित्थपणामं करोति ?, उच्यते---
सप्पुब्विया०५-४६।५६७।। तत्थ मुयणाणेणं भगवतो तित्थकरतं जातं, तित्थगरी य सुतवतिरित्तो होंततो सुयणाणेण वाय-131 दिजोगीहोऊण धम्म कहेति, लोगो य पूतियपूयओ, तो जदि अहं एवं पूएमि तो लोगो जाणिहिति-जदि तित्थगरस्स एस गुरू कओ
को जाणति किंपि एत्थ परिवसति ?, कि च-विणयमूलो धम्मो पनवेयच्चो, तो अहं चेच पढम विणयं पउंजामि, पच्छा लोगो सुठु| तरं सदहिस्सति, किं च-जहा कयकिच्चोपि होन्तओ तित्थगरी धम्म कहेति तहा तित्वमावि नमति । समोसरणत्ति दारं गतं । इयाणिं केवतिपत्ति दारं । केदूरातो आगंतव्यं समोसरणं केण वा आगंतव्यं ? कमि वा कज्जे आगंतव्वं अवस्सं १, उच्यतेजत्थ अपब्यो०५.४७॥५६८॥ कंठा । केवतियात्त गतं, इयार्णि रूवपुच्छत्ति दारं, केरिसय भगवतो रूबी, एस पुच्छा, उच्यते
सव्वसुरा०।५-४८.५६५।। गणहरआहार०५-४९॥५७०।। जं तित्थगरस्स रूवं ततो अणतगुणपरिहीणं गणहराणं, जे गणहराण रूवं ततो अणंतगुणपरिहीण आहारगसरीरस्स, ततो अणतगुणपरिहीणं अणुत्तरोववादियाण देवाणं, ततो अर्णतगुणपरिहीण
acteristicsAGA
॥३२९
तीर्थ-स्थापना एवं गणधराणां वर्णनं
(38)
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
निर्युक्ति: [५७०/५७०],
भाष्यं [ ११९...]
अध्ययनं [-1, मूल [- /गाथा - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
श्री आवश्यक
चूण उपोद्घात
नियुक्तौ
॥३३०॥
उवरिमगेवेज्जाणं, एवं जाव सोहम्मगाणं, ततो अनंतगुणपरिहीणं भवणवासीणं, ततो जोतिसियाणं, 'वण' त्ति ततो वाणमंतराणं, वाणमंतराहिंतो अनंतगुणपरिहीणं चकवट्टीणं, ततो वासुदेवाणं, ततो बलदेवाणं ततो मंडलियाणं, सेसरायाणो पिहुजणो य छट्टाणगतो ।
संघयणं० | ५-५० ||५७१ ॥ भगवतो अणुत्तरं संघयणं अणुत्तरं रूवं अणुत्तरं ठाणं, एवं वनो गती सतं सारो दुविहो। बाह्योऽभ्यन्तरथ, बाह्यो गुरुनं, अभंतरो णाणादी, अणुत्तरो उस्सासनिस्सासगंधो। आदिग्गहणेण गोखीरपंडरं मंससेोणितं ॥ आह— एवमादीयाणि अणुत्तराई कस्स कम्मस्स उदरण ?, उच्यते, एवमादीणि अणुतराई भवंति नामोदया तस्स || आहअसि पगडीणं णामस्स जे पसस्था उदया जहा इंदियाणि सरीरं अंगाणि इत्यादि अभेसि च खतिए भावे वद्यमाणस्स, खतोसमिए वा छउमत्थकालोचि भणितं होति, किन होंति अणुत्तरा उदया है, उच्यते
पगडी० | ५-५१।। ५७२ || जे एताए पुरिल्लगाहाए णामस्स पकारा ण गहिता तस्सेव नामस्स जे अने प्रकाश तेसिं अनेसिपि अणुत्तरा उदया सुभाणं, जओ जारियो तित्थगरस्स सो तारिसा ण अन्नस्स छउमत्थकालेऽवि एवं गंधो रसो फासो इत्यादि स्वयोवसमियं गुणसमुदयं, खाइके भावे यतस्स अधिक आहंसु, खओवसमियं प्रतीत्य अनंतगुणाभ्यधिकमित्यर्थः, अथवा क्षायिकगुणसमुदाय अविकल्पं एगलक्षण सम्युत्तम 'आहंसु तीर्थकरा उक्तवंतः । आह-जओ खतिए भावे वट्टंतस्स जहा अस्साता वेदणिज्जति, आदिग्गहणणं जातो य णामस्त अप्पसत्थाओ ताओ तस्स ण किह बाहाकरीओ भवंति ?, उच्चते
(39)
रूपादि
श्रेष्ठता
॥३३०॥
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आगम
(४०)
प्रत
सूचांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग - 4 "आवश्यक" - मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
मूलं [- / गाथा-1,
निर्युक्तिः [५७३/५७३] आयं [११९...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णां
उपोद्घात
निर्युक्तौ
॥३३१॥
अध्ययनं H
अस्साय० । ५-५२||५७३|| कंठा || आह-जदि तित्थकरो रूपये तो सुंदरं?, अह जदि विरूवो?, उच्यते, जदि रूपवं तो सुंदरं, कहं?, उच्चते
धम्मो० | ५ - ५३ ॥ २७४ ॥ कंठा । इयाणि बागरणेत्ति दारं, तत्थ भगवं सव्वेसि देवणरतिरियाणं एगवागरणेणं सव्वसंसए छिंदति । जदि पुण एक्केक्कस्स एक्केकं संसयं परिवाडीए छिंदेज्जा तो को दोसो होज्जा?, उच्चते
कालेण० | ५-५४ ।।५७५ || एगवागरणे पुण एते ण भवंति गुणा य के ते?, उच्चते
-
सव्वत्थ० । ५–५५।।५७६ || कंठा || आह-तेसिं तं एगवागरणं कह सब्वे संसए छिंदतिः, सभासाए य परिणमंतिः, एतेणाभिसंबंधेण सोयपरिणामेति दारं पचं उच्चते-
वासोदय । ६–५६।। ५७७ || जहा वरिसोदगस्स एगरसवन्नगंधफासस्सवि भायणविसेसे जत्थ पडति तत्थ पिहप्पिा बन्नादिणो परिणमंति, एवं तेर्सि सव्वेसि सोयाराणं अप्पणिच्चए २ सोर्तिदिएणप्पप्पणी सभासापरिणामेणं संसयवोच्छित्तिपरिणामियं परिणमति ॥ किं च
साधारण० । ५-५७/५७८ ।। सा भगवतो वाणी जम्हा साधारणा णरगादिदुक्खेहिंतो रक्खणाओ, जम्दा य असपनति - अणमसरिसा, अतस्तस्यामर्थोपयोगो भवति श्रोणां एतेहिं चैव गुणेहिं सा गिरा गाहगी भवति, जतो य एरिसगु णा सा अतो ण णिब्विज्जति सोता, दितो एगस्स वाणियगस्स एगा किडीदासी, किटी थेरी, सा गोसे कट्ठाणं गता, तण्हाछु
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व्याकर
णादीनि
॥३३१॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [१७३/५७३], भाष्यं [११९...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सुत्रांक
श्री हाकिलंता मज्झण्हे आगता, अतिथोवा कट्ठा आणियत्ति पिढ्दिना अजिमितपीता पुणो पट्ठविता, सा य वई कट्ठमार गहाय ओगा-13 श्रोतआवश्यकताहंतीए पोरुसीए आगच्छति, को य कालो , जेट्ठामलमासो, अह ताए थेरीए कट्ठभाराओ एग कई पडित. ताहे ताए थेरीएटापरिणाम: चू) ITओणमिना कट्ठ गहितं, तं समयं च भगवं तित्थगरो धम्म पकहितो जोयणणीहारिणा सरेणं, सा थेरी तं मुदं मुणेति तहेव भास्थाताओणता सोउमाढता, उण्हं तण्हं छुई परिस्सम च ण विदति जाच सरत्थमणे तित्थगरो धर्म कहेतुं उद्वितो, एस दिढतो । एवंनियुक्तीत
सव्वाउयपि सोता० ॥५-५८1५७९।। कंठा। सोयपरिणामोत्त गतं, इयाणि दाणं वत्ति तित्थगरो जत्थ समोसरतिल ॥३३॥ 1गामादिसु तत्थ जो निवेदेति रायादीणं किं तस्स विचिदाणं किं च पीतिदाण, उच्यते
वत्तीओ० ।। गाधान्यं ॥ ५.५९ ॥ ५-६० ॥ चक्कवडी वित्ति देति निउत्तस्स अट्टतेरस सुवण्णकोडीओ, केसवा || एतप्पमाणमेव रुप देंति, मंडलिया अडतेरसरुप्पसहस्साणि वित्ति दिति, पीतिदाणं पुण अडतेरसरुप्पसहस्साई देंति ॥
भत्तिविभवाणु०॥५-६१ ॥ ५८२ ।। कंठा। के पुण एवं दाणे गुणा ?, उच्यते
देवाणु ॥५-६२ ॥ ५८३ ।। एवं तीर्थकरभनयां क्रियमाणायां देवा अनुवर्तिता भवंति, कथं, जो तित्थगराण भत्ति || करेति स देवाणं प्रियो भवति, भक्तिश्चैवं कृता भवति, तित्थगरपूया चे थिरीकया भवति, सत्ते अणुकंप्पत्ति निवेदंतस्स अणुकंपा कता भवति, सातोदयं च वेयणिज्ज कम्मं उबचितं भवति, एते दाणगुणा भयंति । तित्थं च एवं पभावितं भवति । दाणं चित्ति दारं गतं । इयाणि 'देवमले मलाणय'ति दारं, तिस्थगरो पढमपोरसीए धम्म ताब कहेति जाव पढमपोरुसीउग्घाडवला, लि॥३३२॥ Pएस देवमाल्लो भन्नति । ताहे बली एति, मलंति चलीए. णाम, तं को करेति ? केरिमी वा सा, उच्यते--
दीप अनुक्रम
(41)
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [५८४-५८७/५८४-५८७], भाष्यं [११९...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
+
पलि.
प्रत
+
सत्राक
S
+
राया व०॥५-६३ ॥ ५८४.५८५ ।। ५८६.५८७ ।। गाधाद्वयं कंटे । तं आढकं तंदलाणं सिद्ध देवमल्ले राया व रायमच्चो वा पउरं वा गामो चा जाणवतो गहाय महता तुरियरेषेण देवपरिचुडो पुरस्थिमिल्लणं दारेणं पविसति, एवं आणयणं, जाहे सा
पषिट्ठा अन्भतरपागारतरं भवति ताहे तित्थयरी धम्म कहेंतो तुहिक्को भवति, ताहे सो रायादी चलिहत्थगतो देवपरिवुडो | नियतातित्थकरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिण काउंतित्थगरस्स पादमूले तं बलिं निसिराति, तस्सद्धं अपडितं देवा गण्हंति, सेसस्स&
अद्धं अहिवती गेहति, सेसं पागतजणो गेण्हति, ततो सित्थं जस्स मत्थप छुम्भति तस्स पुषुप्पन्नो वाही उवसमति, अणुप्पना य ॥३३शारोगातका छम्मासा ण उप्पज्जीत, ततो चलिए दिनाए तित्थगरो उद्विचा पढमपागारस्स उत्तरेण बारेण निर्गतुं पुबाए दिसाए।
हादेवच्छेदओ तत्थ जहा समाधीते अच्छति । देवमल्ले मल्लोणयणति दारं गतं । इयाणि 'उवरि तित्य'ति दारं, उरि पोरुसीए |
उट्टिते तित्थकरे गोयमसामी असो वा गणहरो पितियपोरुसीए धम्म कहेति, स्यान्मतिः- किं कारणं नित्थकर एवं द्वितीयायां पोरुभ्यां धर्म न कथयति', उच्यते--
खेदविणोदो० ॥५-६७ ॥ ५८८ ॥ तित्थगरस्स खेदविणोदो भवति, परिश्रमविश्राम इत्यर्थः, शिष्यगुणाश्च दीपिता:प्रभाविता भविष्यति । 'पच्चतो उभयतोविनि गिहत्थाण य पब्वइयाण य, जारिस तित्थकरो कहेति तारिस सिस्सोऽवि | कहेति, अहवा 'पच्चओ उभयतोवि'ति न शिष्याचार्ययोः परस्परविरुद्धं वचनं, 'सीसायरियकमोति आचार्यादुपाश्रुत्य | योग्यशिष्येण तदर्थान्याख्यानं कर्तव्यमिति ।। स्यान्मतिः कहिं उ बेटो कहेति ?, उच्यते--
दीप अनुक्रम
॥३३३॥
(42)
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [५८९/५८९], भाष्यं [११९...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
रायोवणीय० ॥ ५-६८ ॥ ५८९ ॥रायोवणीतसीहासणवेट्टो वा कहयति, तदभावे तित्धकरपादपीठोक्वेटो कहयति । स्पा- उपरि तीर्थ आवश्यकतान्मति:-किं सो कयाति :
." दद्वारं गणधर चूर्णी | सिंग्यातीते॥ ५-६९ ॥५९०।। उवरि तित्थंति दारं गतं । ताव तिस्थगरस्स निक्षमणं भणितं ।। इयाणि गणहराणं भणि-*
निष्क्रमणं उपोद्घातात नियुक्ती यव्यं, जहितं सामाइयं कहिज्जिहिति, भगवता अत्यो भणितो, गणहरेहिं गंधो कओ वाइओ य इति । तत्थ भगवतो समोसरणे
|निष्फन्ने एत्यंतरे देवजयजयसहसंमिस्सदेवहुँदाहसदायण्णणुप्फुल्लणयणगगणावलोयणावलद्धसग्गवधूसमेतसुरवरेंदाणं जनवाडसम-| ॥३३॥
ब्भागतजणाण परितोसो संजातो-अहो जथिए ! सुजट्ठ २, विग्गहवंतो किल देवा एत्थ आगता इति । तत्थ य वेदबी रुत्विज उभयविसालकुलवंसा एक्कारस जच्चमाहणा जनवाडमि समागता । जहा को
पढमेत्थ इंदभूती० ॥ ६-३ ॥ ५९१ ॥ ते य किह पवाझ्या इंदभृतिपमोक्खा, तंमि जन्मबारे आगता, तत्थ इमाओ | रगाहाओ घोसेयवाओ
एक्कारसवि गणहरा० ।। ६-३ ॥५९२॥ पढमेध इंदभूती० ॥ ६.३ ॥५९३।। मंडिय०॥ ६-४ ॥ ५९४ ॥ एक्कार18सनिकम्वमणं ।। ६.५ ॥ ५९५ ।। ५९६-५९७ ।। जह एक्कारस निक्खंता, आणुपुब्बी परिवाडी कमो एगट्ठा, जहा य तित्थं 8 ॥३३॥ दो मुहम्माओ पस्त, जहा य निरवच्चा अबसेसा परिनिव्वुता, एवं सर्व भणीहामि । तत्थ ताच पढम इंदभूतिस्स मणामि इदं
भूति नामो पंचखंडियसयपरिवारो सव्यपहाणो मगहाविसए, सोय जन्मदिक्खितो मक्खितो य मज्झिमाय अच्छति । इओ य
दीप अनुक्रम
अत्र गणधर-वक्तव्यता आरभ्यते
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [५९२-६५९/५९२-६५९], भाष्यं [११९...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
मणधर
प्रत
चूणों
नियुक्ती ॥३३५॥
श्री दि उज्जाणे देनुज्जोयं पासित्ता हरिसियमणो चितिऊण भासति तेसिं पुरओ- अहो मया मंतेहिं सुरा आया जे जमे समुवद्विता, एवं आवश्यकवोत्तूणं खंडिगेहि सह निग्गतो, उज्जाण अपासमाणो उत्तरपुरथिमे दिसिभाए देवसंनिवार्य पासति, भासति य- किमतंति ?,
अहिं से कहितं, जहा-एस सिद्धत्थरायपुत्तो महावीरवद्धमाणो तवं कातुं केवली जाओ किल सबन्नू सम्वभावदारसी, तं वयणं ४ उपोद्घाता
दि सोऊणं भासति अमरिसिओ को अन्नो ममाहिंतो अब्भहितो जत्थ देवा एंति ?, ता एह बच्चामो जा णं पराजिणामि, किं सो जाणति ?, एतेण पणिहाणेण पहावितो पंचखंडितसयपरिवारो । तत्थ इमा
दठ्ठण । ६-४ । ५९८॥ दट्टण कीरमागीं । पच्छा हत्तादीए व अतिसए भगवतो पासितुं चिंतेति-अहो सुप्पउत्तो डंमो,3 बाणति दूरे गंतु चिट्टितो, ताहे णायएण जगसब्वबंधुणा आभट्ठो० य । ६-४ ॥५९९।। ताहे अच्छर से जातं, णाममवि मम जाणति, ताहे पुणोवि अप्पाणं आसासेति-को वा मम सव्वसत्थविसारदस्स णाम वा गोतं या ण मुणतिी, एवं तेण अप्पा समासासितो, तस्स य संसता-कि मो जीयो अस्थि पत्थि', ण पुण अहंमाणेण कंचि पुच्छति, काणि य ते वेदपदाणि जेसि सो सम्म अत्थं न जाणति, पतेहि य कारणेहिं संसपः-उभयो-टू पचारात् १ अनुपलब्धेः२ विप्रतिपत्तिभ्यश्च ३, तत्थ उभयोपचारो यथा शरीरे च आत्मोपचारः, यथा कचित्पिपीलिकादिसत्त्वं दृष्ट्वा ब्रवीति लोका-यथेदं जीवं न हिंसि, शरीरव्यतिरिक्ते च यथा कंचित् मृतं दृष्ट्वा लोको ब्रवीति-गतःसजीवः यस्येदं शरीरामिति १, तथाऽनुपलब्धिार्दधा सतामसतां च, तत्र सतां मूलोदकपिसाचादीना, असा शविषाणादीनां २, विप्रतिपचिवाचार्याणां, एके
दीप अनुक्रम
॥३३५।।
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [५९२-६५९/५९२-६५९], भाष्यं [११९...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
गणधर दीक्षा
प्रत
सो
दीप अनुक्रम
श्री आहुः एतावानेव पुरुषो, यावानिद्रियगोचरः । भद्रे! वृकपदं पस्य, यददंत्यबहुश्रुताः ।। १।। पिच खाद च साधु सोभने, यदतीतं आवश्यक वरगात्रि! तम ते । नहि भीरु! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कडेवरम् ।। २॥ अन्ये त्याहुः-'वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, मानवानि गृहाति नरोऽपराणि । तथा शरीरान्यपरापराणि, जहाति गृहावि च पार्थ जीवः ॥ १॥ एतानि संशयानिमिचानि
तस्स, ततो सो चिंतेति-जदि मज्झ एतं संशयं जाणेज्ज छिंदेज्ज वा तो मे बिम्हओ होज्जा, एवं चिंतेतो पुणो सामिणा भणितो-13
गोयमा! किं जीवो अस्थि उदाहु पत्थिति एस तुह संसयो, संसपकारणाणि य भणिताणि, केसिविय वेदपदाणं सम्म अत्यो न ॥३३॥ णज्जातित्ति अस्थो समट्ठो?, हंता अस्थि, एवं गोयमा ! अस्थि जीवो, जो अहमिति पडिवज्जीत, उवओगलक्षणो, कता य |
करणसहितो-काया अनो, मुत्तो, निच्चो, कत्ता तहेव भोत्ता य । तणुमेत्तो गुणवन्तो, उद्गती वनितो जीवो ॥ १॥ सुद्धपदॐवाच्यत्वात्, भोक्तृयोगोपयोगसंसारमोक्खसद्भावात्, एते हेतवो वाच्याः , वेदपदाण य अत्थो भगवता से कहितो । एत्व संभंतो, | संबुद्धो य मणइ पंचखंडितसते-एस सवन्नू. अहं पव्वयामि तुम्भे जहिच्छियं करेह, ते भणंति-जदि तुम्भे एरिसगा होतगा पन्चयह तो अम्हं का अना गतिचि, एवं सो पंचसयपीरवारो पन्चतितो । एवं
६००-६०१॥ तं पब्वइतं सोउं०।६-१९।।६०२॥ उबिग्यो, तहेव समाभट्ठो, संसयो वागरितो । किं मन्ने अत्थि कम्मं । ६-२५॥६०४॥ वेयपयाण य अत्थो कहितो जाव,
छिन्नंमि संसपंमि ।६-२६१६०५पंचसयपरिवारो पब्बतितो । ततिओवि तद्देव आगतो, णवरि चितेति-चंदामि , जदि तेवि पत्तियाबिया, एवं जाव पंचसतपरिवारो पव्वतितो, गवरं संसओ तज्जीवतस्सरीरितार्न । एवं वियत्तोऽवि, संसतो पंच
॥३३६॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [५९२-६५९/५९२-६५९], भाष्यं [११९...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
आवश्यक
क्षत्रादि
प्रत
दीप अनुक्रम
भूता अस्थि णत्थिा, एवं सेसावि, इमाओ चिंताओ, इमो य परिवारो-जीये १ कम्मे २ तज्जीव ३ भूत ४ जारिसतो इहलोए गणधराणां
| तारिसतो परलोगेऽपि ५ बंधमोक्खे संसयो ६ देवा अस्थि णत्थि ७ एवं नेरतिया ८ पुनपावं अत्थि णत्थि ९ परलोगो अस्थि ण-स उपदिधाता स्थि? १०व्वाणं अस्थि नत्थि? ११ । आइल्लाणं पंच पंच सता, मंडिय मोरियपुत्ताणं अडुडुट्ठसता, सेसाणं चउण्हं तिथि नियुक्तौ तिमि मया । अपियअयलभातीणं एगो गणो, मेयज्जपभासाणं एगो गणो, एवं णव गणा होति । ॥३३॥
| जदा य गणहरा सव्वे पव्वजिता ताहे किर एगनिसज्जाए एगारस अंगाणि चोइसाह चोइस पुब्बाणि, एवं ता भगवता 18|अत्थो कहितो, ताहे भगवंतो एगपासे सुन करेति, तं अक्षरेहि पदेहि जणहिँ समं, पच्छा सामी जस्स जतिओ गणो तस्स | दातत्तियं अणुजाणति, आतीए सुहम्मं करेति, तस्स महल्लं आउयं, एतो तित्थं होहितित्ति । तत्थ सकादओ देवा सव्वदेवस-1
मोसरणं, सबढगावि देवा पणामं तत्थगया कुवंति, सयं सामी चुनाणि छुहति, जाहे य ते थालं करेंति ताहे अज्जमुहम्मस्स |निसिरंति गणं । एवं ता पन्चइता । इयाणि तेसिं गणहराणं उड्डाणपरियाणित इमाए गाथाए अणुगंतव्वं सव्वं- .
खेत्ते काले जम्मे०।६-६५।६४२।। तस्थ पढम खेचं, मगहा जणवए गोयमणामो (गोबरनामो) णाम गामो, तत्थ तिनि गोयमा जाता, कोल्लाए संनिवेसे वियत्तो सुहम्मो य, तमि चेव मगहाजणवते मोरियसंनिवेसे मंडिया मोरिया दो भायरो, अयलो य कोसलाए, कोसला नाम अयोज्झा, मिहिलाए अपितो जातो, तुंगियसंनिवेसे मेयज्जो वच्छभूमित जातो, पभासो राय
॥३३७॥ गिहे जातो । खेत्तदारं गतं ।। कालोत्ति दारं, मोयिमसामिस्स जेहाणखत्तं ।
(46)
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 निर्युक्तिः [५९२-६५९/५९२-६५२
आयं [११९...]
अध्ययनं H
मूलं [- /गाथा ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
आवश्यक
चूण उपोद्घात
निर्युक्तौ
॥३३८॥
*36*36*36
जेडा कत्तिय साती० ॥६-६९।। ६४६ ।। कालेत्ति दारं गतं । जम्मम्मि दारे को कातो पितामाताए जातो ?--ति वसुभूती गणधराण श्रेयदि पिता, धणमित्तो विमत्तस्स, धमिलो सुधम्मस्स, धणदेवो मंडियपिया, मोरियस्स मोरितो देव, अकंपियस्स देवो, अयलमायरस वसू, मेयज्जस्स दत्तो, पभासस्त वलो ॥ इमातो मातरो- तिन्हं पुहवि माता, वियचस्स वारुणी, महिला सुहम्मस्स, बीस्देवी मंडियमोरिमपुत्ताणं, जयंती अकंपितस्त, नंदा अयलभायस्स वरुणदेवा मेयज्जस्स, अतिभदा पभायस्स । जंमंति दारं गतं । इमाणिं गोपत्ति दारं
तिमि य गोयमगोता भारद्दा अग्गिवेस वासिठ्ठा कासव गोयम हारिय कोडिन्नदुर्ग व गोत्ताई ।।६-७२ ।।६४९ ।। गोतन्ति गतं । अगारपरियायो
पद्मा छत्तालीसा बापाला होति पनपना य । तेवन्न पंचसठ्ठी अडपालीसा व छायता ॥६-७३।६५० ॥ छत्तीसा सोलसगं अगारवासो भवे गणहराणं । छउमत्थयपरियागं अहकमं कित्तहस्सामि ॥६-७४॥६५१
इयाणिं छउमत्थपरियायो -
तीसा वारस दसगं वारसया चत्त चोदस दुगं च । णवर्ग बारस दस अट्ठगं च छउमत्थपरियायो । ३-७५ | यभ्रासंखं छडमत्थप्परयाग अगारवासं च वोसिरिताणं । सव्वाउयस्स सेसं जिणपरियागं वियाणाहि ||६|| ७६ ॥ ६५३ ।। बारस सोलस अट्ठारसेव अट्ठारसेव अद्वेव । सोलस सोलस एगवीस चोद सोल सोले य ॥६-७७।६५४
(47)
॥३३८||
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [ ११९...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- / गाथा-], निर्युक्ति: [५९२-६५९/५९२-६५९],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णी
उपोत्पात
नियुक्ती
॥३३९॥
94136
इयाणि सव्वाउयं
बाणउती चउसत्तरि सत्तरि ततो भये असीती य । एगं च सयं तत्तो तेसीती पंचणउती य ।।६-७८ ।। ६५५।। अठ्ठत्तरिं च वासा तत्तो यावन्तरिं च वासाई। बावट्ठी चत्ता खलु सव्वगणहराउयं एयं ॥ ६-७९ ।। ६५६ ।।
इयाणि आगति दारं, सो आगमो दुविहो- लोइतो लोड़सरिओ य लोइतो चोइस विज्जाठाणाणि, अंगानि चतुरो वेदा, मीमांसा न्यायविस्तरः । धर्मशास्त्रं पुराणं च विद्या बेताचतुर्दश ॥ १ ॥ तत्रांगानि पद् तद्यथा - सिक्षा कल्पो व्याकरणं छंदो निरुक्तं ज्योतिषं चेति, लोउत्तरो दुबालस अंगा चोद्दस पुव्वाणि । ते य-
1
सव्वे च माहणा जच्चा० १६-८०।।६५७।। एस दुविहोऽवि आगंमो तेसिं । इयाणिं परिनेव्वाणं सामिस्स जीवंते जव फालगता, जो य कालं करेति सो सुधम्मसामिस्स गणं देति इंदभूती सुधम्मो य सामिमि परिनिब्बुए परिनिष्वृता । को केण तवेण परिनिबुतो १-
मासं पातोयगता । ६-८२।६५९ ॥ सव्वातो आमोसहिमादियाओ लद्धीओ, संघयणं संठाणं च सव्वेसिं च पढमं चसहसूतमिति । एवं सामिस्स मासगस्स गाइगाण गणहराणं निग्गमो भणितो । निग्गमेति दारं गतं । इयाणिं तं कतरंमि खेत्ते निग्गयंति खेत्तदारं पत्तं तं ताव अच्छतु, कालदारं भणामि बहुवचन्वंतिकाउं, पच्छा खेतादणि संपद्वाणि । अने भणति - जेण काले बद्धं सवं, अथवा अभोभाणुगता दोऽवि भावा, अहवा कालो चैव पुष्यं, जेण कालाणुयोगो पुव्वं पच्छा दव्वाणुयोगो ।
(48)
गणधर
'वैषादि कालद्वार
॥३३९॥
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
आयं [११९...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- / गाथा-1, निर्युक्तिः [५९२-६५९/५९२-६५२
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णी उपोद्घातः
नियुक्ती
॥३४० ॥
अने भणति आगासत्थिकातो दव्वं, कालो गुणः, योगश्च पूर्व, तेण काल एव भवे य पूर्व अहवा कत्थई देसग्गहणं कत्थति भन्नति निरवसेसाई । उक्कमकमजुत्ताई कारणवसतो निरुताई || १ | अने भणेति-खेता कालो अंतरंग इति दरिसणत्थं कालहारं ताव बचिञ्जति, कालंतरंगद रिसणहेतुं विवज्जओति ओवाणाओ अंतरंगतं पुण कालो दव्वस्स चैव पज्जाओ, खतं पुण आहारमेत्तमिति । सो य कालो एकारसविहो, णामकालो वणकालो दोऽवि गता, सेसो
दच्चे अद्व०।६-८३ ।। ६६० || दव्वकालो अद्धाकालो आहाउयकालो उचकमकालो देसकालकालो कालकालो पमाणकालो वनकालो भावकालो, तत्थ दव्वकालो नाम जो जस्स जीवदव्वस्स अजीवदव्यस्स वा संचिडणाकालो सो दच्चकालो, जहा'नेरतिए णं भंते! नेरहए'ति, संचिडणा, अजीवाणं धम्मन्थिकायादीणं सच्चद्धा, परमाणुमादीणं च जा जस्स संचिडणा. एस दब्वकालो, जंमि वा काले दव्वं वर्ण्यते, अह नेरह य ४, गतिरागतिं पहुन्च सादिया सपज्जबसिया, सिद्धा संसारविगमं (पच) सादिया अपज्जवसिता, भविया संसारं पच्च अणादीया सपज्जयसिया, अभवसिद्धिया संसारं पड़च्च अणादीया अपज्जवसिया, अयणस्स अत्थर चउब्विहा ठिती इमा-पोग्गलपरमाणुत्तमादि पड़च्च सादीया सपज्जबसिया १ अणागतद्धा सादीया अपज्जबसिया २ अणागतद्धा णाम बट्टमाणसमयं पहुन्च जे एस्सा समया, तीतद्धा अणाइया सपज्जयसिआ ३, अतीतद्धा नाम बट्टमाणसमयं पच्च जे अतीता समया, तिनि काया दव्यपदेसट्टयं पड़च्च अणादीया अपज्जबसिया ४. तिनि काया नाम धम्मत्थिकायो अधम्मत्थिकायो आगासत्धिकायो अहवा दयितं तु तं चैव उक्तंच 'समयाति वा आवलियाति वा जीवाति या अजीवाति य
'काल' स्य एक्कारस-भेदानां वर्णनं
(49)
द्रव्य
कालादि
॥३४० ॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [६६४/६६४], भाष्यं [११९...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
इच्छा
प्रत
आवश्यक
चौँ उपोद्घात नियुक्ती
पवुच्चति' अथवा 'कालवेत्यके' (तचा०५-३८) एस दब्वकालो । अद्धाकाले अणेगविहे, से गं समयद्धयाए, आवलियद्धयाए जाव। ओसप्पिणिअद्वयाए, जुग पंचसंवच्छर जाप परिषट्टा भाणियन्या ।। अहाउकालो नाम
कारादि
सामाचाये नेरायः॥ ६-८७॥६६४ ॥ नेरतिय जाव देवाणं आहाउयं जं जेण निव्वत्तियमन्त्रभवे सेन पालेमाणे सो भवति अहाउ-11 | काले । उवक्कमकालो दुविहो- सामायारी उवक्कमकालो आउउवक्कमकालो य, उक्क्कमकालो नाम अपत्तावत्थापावणपत्थावो, | तत्थ जो सो सामायारीउवक्कमकालो सो तिविहो, तंजहा- ओहसामायारी पदविभागसामायारी दसविहसामायारी । तत्थ ओह-| | सामायारी ओहनिज्जुत्ती पदविभागसामायारी कप्पववहारा, ओहसामायारी णवमस्स पुश्वस्स ततियाओ आयारवत्धूतो वीसतिम पाहुडं, तत्थ ओहपयपाहुडं, ताओ निज्जूढा उपक्कामिता । कप्पव्यवहारा णवमाओ पुब्बाओ ततियाओ आयारवत्युओ वीसइम पाहुडं तओ, दसविहसामायारी उत्तरज्झयणहिंतो नीणिता, तत्थ कप्पववहारा सट्टाणे भन्निहिति । ओहसामायारी पुण' | भन्नति, तं बनेउकामो णिज्ज्हगो णिज्जुहितुं पत्तो मंगलत्थं अरहंतादीणं णमोकार करति
अरहंते वंदित्ता॥ओघानयुक्तिः ॥ एत्थंतरे ओहनिज्जुत्तिचुन्नी भाणियच्या जाव सम्मत्ता । एतं ओहनिज्जुत्तीए ठाणं, एथंतरे वक्खाणिज्जतित्ति, एवं ओहसामायारी गता । इयाणि दसविहसामायारी, सा इमाए गाहाए अणुगंतव्वा, तंजहाइच्छा मिच्छा तहकारो आवसिया य निसीहिया । आपुच्छणा य पडिपुच्छा छंदणा य निमंतणा ॥७॥१॥६६६॥
॥३४॥ | उवसंपया य काले सामायारी भवे दसविहाओ । एतेसिं तु पयाण पत्तेय परूवणं वोच्छं ।। ७ ।। २ ।। ६६७ ॥
दीप अनुक्रम
55
अत्र ईच्छाकार-आदि सामाचारी वर्णयते
(50)
Page #51
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________________
आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 निर्युक्तिः [ ६६६-६९३/६६६-६९३
आयं [११९...]
अध्ययनं H
मूलं [- /गाथा ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णी उपोद्घात नियुक्ती
||३४२ ॥
एत्थ कारसहो पयोगाभिघाती दट्ठव्वो, सो य सव्वदारेसु संबज्झति, इच्छग्गहणे य इच्छकारगहणं, सट्टाणे इच्छकारपयोगो, दसविध सामायारीए पढमभेदात्त वृत्तं भवति, एवं मिच्छादुक्कडपयोगी तहान पयोगो जाव उवसंपदाकारपोगो विमासियव्वो । तत्थ इच्छाकारपतोगो गाम जं इच्छया करणं, न पुण बलाभियोगादिणा, इच्चेयस्स अत्थस्स संपचवत्थं इच्छाकारसई प ंज॑ति । एसो य कंमि विसए केण कायव्योति, भन्नइ-जति अञ्भत्थेज्ज परं कारणजाते, ता अन्भत्थंतरण इच्छक्कारपयोगो कायव्वी, अहवा अणन्मतिथओऽवि कोई कारणजाते करेज्ज तत्थवि तेण करेंतेण इच्छक्कारपओगो कायव्वो, तस्स अणम्भस्थित करेंगा पविरलाति कोइग्गहणं, आह किमिति इच्छाकारपयोगो कीरति ?, उच्यते बलाभियोगकरणं मा भूदिति, जतो ण कप्पति बलाभितोगो तु, तुसद्दा कत्थति कप्पतिवि, एतीए गाहाए अवयवत्थो भन्नति-जदित्ति अन्वगमे, जं अन्भत्थणाए अन्धुवगर्म करेति आयरितो तं दरिसेति, जथा साधूर्ण अभत्थे ण वट्टति परो उ, किमिति १, अणिगृहितचलविरिएण ताव होययंति, बलं सामत्थं विरियं तु उच्छाहो । आह जदि साधणं परो अग्भत्थेउं ण वट्टति तो कि अन्वगमं करेति ?, भन्नति - जति अन्भत्थेज्ज परं कारणजाते, ण अन्ना, कारणजातं दंसेति-जदि तस्स सो अपलो असमत्थो ण याणती वा, जनं वा करेति, गिलाणादीहि वा वावडो होज्जा, ताहे तत्थ रातिणियं वज्जेता इच्छकारं करेति सेसाणं, ते य किह भांति ?, एतं ता मम कर्ज इच्छाकारेण करेहि, तुम कारेतुपि न वद्धति साधू, इच्छा भे जदि अस्थिति भणित होति, 'करेज्ज वा से कोति'ति तत्थ अहवा विधिणा से तं तं सर्व करेंत अनं वा अन्मत्थतं पासिता अन्नो निज्जरट्ठी भणेज्ज- अई तुर्भ एवं इच्छकारेण करेमि, तत्थषि जस्स किज्जिहिति सो भणति करेद्दि इच्छाकारेण णणु किमिति सोवि इच्छक्कारं करेति ?, मनति- मज्जादामूलियं, साधूर्ण
(51)
इच्छाकारादि सामाचार्यः
॥ ३४२ ॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [६६६-६९३/६६६-६९३], भाष्यं [११९...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
नियुक्ती
#एस मज्जादामले, अहवा एवहिं कारणेहिं परं अन्भत्थेज्ज- सयं करेति कोति किंचि लेवणादि, अन्नस्स वा करेंत उठण तरथवि आवश्यक कामणेज्ज-इच्छकारण ममवि एतं पकियो करेहि लेवादि संसहकप्पण, तत्थवि तेण भाणियब- करेमि इच्छाकारेण, अहे संणाडो
चूर्णी ट्र गिलाणादीण व कज्जे वावडो तो तं कारणं दीवेति, एतेण न करेमि, इतरहा नियमा काय साधूण अण्णश्रेण, अणुग्गहोति उपोषाव एवं ता अन आणवति । जति अब्भत्थेज्ज परोते साधुं तहेव नेयम् । अप्पणा परेण वा । अहवा एतेण जदि अम्मत्येज्ज परं किंचि सामाचायें:
करेमि व्यावच्चं कज्जहेतुं वा गाणादणिं निज्जराहेउं वा, तत्थपि से कोइ अणुग्गह करेज्जा, कोति णवि समत्थो जाए स विभ॥३४॥
वणा, तत्ववि तेसिं दोपहवि भवे इच्छकारपयोगे, जत्थवि राइणियं वा ओम वा सुत्तस्थाणि पुच्छति तत्थवि इच्छा कायख्वा, उचहिमादीण वा निमंतणे इति । सीसो आह. भगवं ! किमिति सम्बत्थ इच्छक्कारपयोगी रातिणियादीणंपि, आयरितो भणतिवच्छ ! जेण आणाबलामिपोगो निग्गंधाणं सेहेऽविण वद्दति, किमंग पुण राइणिए, तम्हा-इच्छा पउंजियवा सेहे राइणिए | वहा । किं सवस्थ आणाचलाभियोगेण वति', उच्यते-जो पुण खग्गूडो तमि आणावि बलाभिओगोवि कीरति, तमिविद पढ़म इच्छा पउञ्जति जदि करेति सुंदर, अहण करोति ताहे बलामोडीए कारिज्जति, तारिसा ण संवासेयव्या, अह ते भाया भागणेज्जादी वाण तरंति परिच्चतितुं ताहे आणावलिभितोगावि कीरति ॥ .
जह जबवाहलाणं० । ७१श६१०॥ जहा जदा किर जच्चबाहलो आसकिसोरो दमिज्जातीति ताहे बेयालियं अभिवासिऊण पहाए अग्पेत्तुण वाहियालि नीतो, खलिणं से ढोइत, सयमेव तेण गहित, विणियति राया सयमेवारूढो, सो हितइच्छितं बूढो, रमा आहारलपणादीहिं सम्म पडियरितो, पतिदिह च विणीयत्तणओ एवं वहति, ण तस्स बलाभियोगो पवत्तति । अवरी।
RRCHESEKS
दीप अनुक्रम
॥३३॥
(52)
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [६६६-६९३/६६६-६९३], भाष्यं [११९...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चूर्णी
HEIGE
॥३४४॥
दीप अनुक्रम
श्री पूण मगहादिजणवदजातो आसो, सोवि तहेवाभिवासितो किर मातं पुच्छति-कि एतं कज्जति !, सा भणति-तजा पुत्त ! अम-18 इच्छाआवश्यक
गलपडिघातो कीरति, कल्लं वाहिज्जिाहसि, तो तुज्झ कल्लं जवा य खलिणं य पणामिज्जिहिति, ता खलिणं लएज्जाहि, चिलग्गेला कारादि
Pाय तस्स मणीसितं बहेज्जासि, पदे पदे पदसतं करेज्जासि, एवं होउत्ति पडिस्सुतं, रितियदिवसे कयकोउओ सतमेव खलिणं सामाचारी वागण्हति, राया सहरिसो सयमेव विलग्गो, जहा मणितं तहा वृढे, पच्छा राया सयमेव वीसामेतुमारद्धो, तो अणेगा परिसा णिव-18
तिता, तेहिं उब्वलितो हवितो य, सब्बप्पहाणो य से आहारो दिनो, पच्छा णाणालंकारविभूसितो मायाए मूलं गतो, तुट्टो पुणरवि चितियदिवसे णिसि मातं पुच्छति, सा भणति-अज्ज वामं वामेण वसुत्ति, एवं करेमि, कल्लं तहेव कतो, ता सो णेच्छति || | खलिण वा किंचि कातुं, ताहे णिसट्ठापहते बला कवितं दाऊण वाहितो, पुणो जवसं णिरुद्धं, ताहे सो छुहातितो मातं भणति-11 | अज्ज ते मारावितो, सा भणति-दोऽवि ते मग्गा दिहा, जेण रुव्वति तेण बच्चसु, ततियदिवसे मणीसितं बूढो, पुणो सक्कारितो । एवमिहावि
पुरिसज्जाए॥७-१४१५१९ ॥ विपत्ती अविणीयस्स, संपची विणयस्स उ । किं च एगस्स साधुस्स लद्धी अस्थि, ण करेति बालवुङ्गाणं, आयरिएहिं पडिचोदितो-कीस अज्जो!ण करेसि', भणति–ण कोति मम अन्मत्थेति, ताहे आयरितो।
भणति-तुम अम्भस्थणं मग्गंतो चुक्किहिसि लामग, जहा सो मरुतो गाणमएण मनो, कत्तियपुण्णिमाए लोगो दाणं देति. राया य ॥३४॥ ला अभे धेज्जाहया गंत गंत आणेति, एगो नेच्छति, भज्जात भणितो-जाहि, सो भणति-एग ताव शूद्राणां प्रतिग्रहं ग्रहामि, द्वितीय
तेषां गृहं गच्छामि , यस्यासप्तमस्य कुलस्य कार्य सो मम आनयित्वा प्रयच्छतु, एवं सो जावज्जीवाए दरिदो जातो, एवं
964-
24
अन्य
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आगम
(४०)
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [६६६-६९३/६६६-६९३], भाष्यं [११९...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
आवश्यक
प्रत
सत्राक
उपोषागा वाणरमा णिरत
C#*#******
| तुर्मपि अन्भत्थणं मग्गतो चुकिहिसि, एतेसिं पुण बालगिलाणाणं अत्रे अस्थि करेंतगा, तुज्झवि एसा लद्धी एवं चेव विराहिति इच्छाका
| जहा तस्स मरुयस्स । एवं भणितो पढिभणति एवं सुंदरं जाणता अप्पणा कीस ण करेह', आयरिया भणति-अज्जो! सरिसोरादिसामाचूणों ।
JI तुम तस्स वाणरगस्स, जहा एगो वाणरगो रुक्खे अच्छति सीतवातेण इडिज्जतो, ताहे सुहरीए सउणियाए भणितो-वाणरगा! चारी नियुक्ती
|वाणरगा! णिरत्थर्य वहसि पाहुदंडाई । जो पायवस्स सिहरे ण करेसि कुडिं पडालिं वा ॥१॥ केती अपि भणति-बासेण शडिज्जत*
| रुक्खग्गे वाणरं थरथरतं । सुघराणाम सउणिया, भणति तयाणिं वएसंती ॥१॥ छेत्तूण मे तणाई आणेऊणं च रुक्खसिहरम्भि।।31 ॥३४५॥ दिवसही कया निवाता तत्थ बसामि निरुब्बिग्गा ॥२॥ एत्थ इसामि रमामि य वासारत्ते य णविय ओल्लामि । अंदोलमाणि वाणर
| वसंतमास विलंबेमि ॥ ३॥ हत्था तय माणुसगस्स जारिसा हिदयए य विआणं । हत्था विभाणं जीवितं च मोहफलं तुझं ॥४॥ 18| विसहसि धारप्पहरे ण य इच्छसि वसहिमप्पणो काउं । वाणर ! तुमे असुहिते अम्हेवि घिति ण विंदामो ॥ ५॥ सो तीए एवं 18|
वृत्ते तुण्डिको अच्छति, ताहे दोच्चपि भणति, सो रुट्ठो रुक्खं दुरुहितुमाढतो, सा गट्ठा, तेण तीसे य त घरं सुंचे २ विक्खिा अने भणति-जह पढमं तह वितिय तह नतिय तह चउत्वयं भणितं । पंचमियं रोसवितो संदडो वाणरो पावो ॥१॥ कुद्धो | | संदडोडो लंकाडाहे व जहय हणुमंतो । रोसेण धमधम॑तो उप्फिडितो तं गतो सालं ॥२॥ आकंपितमि तो पादमि फिरिडिति |णिग्गता सुघरा । अश्रमि दुर्ममि ठिता अडिज्जते सीतवातेणं ॥ ३ ॥ इतरोवि य तं नेई घेत्तूर्ण पादबस्स सिहराओ। कूलं एकेक्कं ॥३४५।।
अंछिऊण तो उजाती कुवितो ॥ ४ ॥ भूमिगतमि तो नियमि अह भणति वाणरो पावो । सुघरे अणुहितहिदए । सुण ताव | | जहा अविरियासि ॥५॥ णिवासि मम मयिहरिया, वसि मम सेट्ठिया व णिद्धा वा । सुघरे ! अच्छसु विघरा, जा वहसि
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [६६६-६९३/६६६-६९३], भाष्यं [११९...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
लोगतचीसु ॥ ६॥ भणति य इदाणिं मुह अच्छ, एवं तुमपि मम चेव उवरिएण जातो। किंच-मम अपि णिज्जरादारं अत्थि, इच्छाकाआवश्यक
ट्र तेण मम बहुतरिया णिज्जरा, तं लाभं चुस्कीहामि, जधा सो वाणियतो, दो वाणियगा बवहरंति, एगो पढमपाउसे मा मोलार चूर्णी
रादिसामादायव्वं होहितित्ति सयमेव आसाढपुभिमाए पर पत्थतितो, बीएण अमेर्सि अर्ड्स वा पादं वा छावित, सतं ववहरति, तेण तदिवस
चारी विगुणो तिगुणो लाभो लद्धो, इतरो फिटो, एवं चेव अज्जो ! जाद अप्पणा एत यावच्चं करेमि तो सुत्तस्थादीणि गच्छे अदेतो
दानुक्कीहामि, तेहि णडेहिं मम गच्छसारक्षणाए बहुतरिया निज्जरा णस्थि, एस्थ 'सुत्थेसु अचिंतण०'गाहा वन्यच्चा (आवश्यकहान ॥३४६।।रिभद्रीयशान्तिः पत्र २६३) इच्छत्ति पदं गतं । इयाणि मिच्छा, मिच्छति मिच्छादुक्कडपागो, मिच्छादुक्कडपतोगों नाम जकाह
मवि पावकम्मे आसेविते अकरणीतमेयंति अभिष्पारण अपुणकरणताए अन्भुट्टियं मिच्छादुक्कडंति पउंति, मिच्छत्ति वा वितईति हावा असञ्चति वा असट्ठियति वा अकरणीयति वा एगट्ठा. दुक्कडंति वा सापज्जमणुट्टितंति वा पावकम्ममासेवितंति वा बितट्ठमा- इति वा एगढ़ा, एसो य जत्थ जेण जहा कायचो तं भन्नति-- , संजमजोए अन्भुट्टिएण०७-२०॥६८२।। संजमजोगे किंचि वितहमायरियंति, एत्थ संजमजोगो नाम सावज्जजोग-IM परित्रावावारो, संजमोत्ति वा सामाइयंति वा एगट्ठा, वितहमायरिय नाम पडिसिद्धकरणादि आसेवितं, तत्थ अभुट्टितेणति-अपुणकरणादि अन्भुववद्वितो अब्भुद्वितो, तेण 'मिच्छा एतंति वियाऊण ति मिच्छा अकरणिज्ज एवं जं किंचि संजमजोगे वितह| मायरित इति, एवं वियाणिऊम-वितह जाणिऊण, परिमाय इत्यर्थः, एवं मिच्छत्ति कायव्य, मिच्छत्ति मिच्छादुकडपतोगी, अहवा सामण जहा मिच्छादुकडप्पयोगो कायब्बो तं भन्नति एताए गाहाए, तं-संजमजोगे पुख्यमणिते अम्भुवेच्च ठितेणं जे वितहमाय
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मा॥३५६
Ce
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [६६६-६९३/६६६-६९३], भाष्यं [११९...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
दीप अनुक्रम
रिय मिच्छा एत विवाणिऊण इति एवं मिच्छाति कायव्या इति । एस्थ सीसो आह-भगवं! जदि संजमजोगे जे वितहमातिइच्छाकातत्थ मिच्छत्ति सामायारी पठजति तो अम्हे पुणो पुणो वितहमायरिऊण मिच्छत्ति करेमो तो पडिकंतं भविस्सति, मिच्छकारो
रादिसामाआवश्यक
चारी चूर्णी ॥४॥ परिजितो, एवं च सोग्गती अदुलमा इति, आयरितो भणतिबच्छ! उपाधानाला यदि य०।७-२१ ॥ ६८३ ॥ जदि णाम पावकम्ममासेविऊण अवस्स मिच्छादुकडपयोगेण पडिकम्मियध्वं तो वरं त। नियुक्ती व ण कायध्वं । स्यान्मतिः-एवं पुण मिच्छादुकडवत्तिया गुणा ण भवंतित्ति, भन्नति -जदि तं चेव ण करेति तो होति पए ॥३४॥ पडिकतो, पएत्ति पढम सुतरामित्यर्थः । यस्तु मिच्छाकारो परिजितो सो, पत्तकालो इच्छिज्जइति, जो य ते अभिप्पातो जहा दाकिर वितह आयरिऊण मिच्छत्ति सामायारि करेमा तो मुचहामी, एत्थ भवति----
जे दुकडंतिका ७-२२॥ ६८४ ।। जं कारणं पहुच्च दुक्कडंति मिच्छत्ति मिच्छदुकडं पउँजडतं कारणं भुज्जो अपरेंतो8. असे+तो विविहेण पडिक्कतो, पुच्चासेवितं पडुच्च जो एवं मिच्छत्ति करेति तस्स खलु दुकर्ड मिच्छत्ति, सो मिच्छादुकडसामायातारीए बतित्ति भणितं होति । पुणो आह सीसा-सुठु एतं तं चेव ण कायन, ता होइ पए पटिक्कतो इच्चादि, किंतु अम्हे एवं न चएमो तो दोव करेमो को दोसो ?, भन्नतिजं दुकडंति०७-२३ ॥ ६८५ ॥ ज पडुच्च मिच्छदुकर्ड उप्पन तं चेव निसेवती पुणो पावं तत्थ पच्चक्समुसावादो
वादो ॥३४७॥ Fमायानियडीपसंगो य पुणो पुणो करंतस्स । इयाणि तहत्तिपओगो-तहत्ति पओगो नाम जं एवमेतं अपितहमेतं जहे तुम्भे व-18
REACHES
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं H, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [६६६-६९३/६६६-६९३], भाष्यं [११९...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
दशधा
प्रत
HARE
सत्रांक
उपोद्घात
नियक्ता
॥३४८॥
दीप अनुक्रम
3 दह श्वेतस्स अत्यस्स संपञ्चयत्वं सविसए तहचि सई पउंजति, सो य सविसयो इमोमावश्यक पद कप्पाकप्प०७-२६ ॥ ६८८ ॥ कप्पो-विहि अकप्पो अविहि पडिसेहो वितहमायरणा इति. अहवा कप्पो जिणधेरादीयाणं सामाचार चूर्णी |
अकप्पो विवरीत, तमि जाणियध्वयं पहुच्च निळे गतो परिनिहितो, पंच ठाणा महव्वयाणि पंच, संजमेण तवेण य अङ्गओ संजम-14
तबडएसि वा आउनत्ति वा अविधिपरिहारित्ति वा एगट्ठा, तुसद्दा एसोचि जदि उवउत्तो अप्पणा य अवधारित तो तस्स द्र अविकप्पेण तहकारी काययो, अबस्स पुण विभासाए। अह तस्स कत्थ कायव्यो , मनति---
वायणपरिसुणणाए। ७.२७।६८९ ॥ वायणा सुसप्पयाणं तीए पडिसुणणाए, जहा आयरितो सुन देंतो भणति एवं त पढिज्जति, तो तमि पडिसुते तहत्ति काऊण तहा पडिच्छति, एवं उबदेसे पडिमुणणाएवि, उबदेसो जहा 'जय चरे जयं चिढे'चादि, तहा 'सुत्तअत्थकहणाए' सुत्तकहणा जहा अन्नहा सुत्त कुटतो भन्नति-एवं एत, ण एवं, इच्चादि, अस्थकरणाए अस्थि कहिज्जते-18 अत्याहिगारस्समत्तीए पडिमुणिऊण तहकारो काययो, किमितिी, अवितहमेतं जडेवं तुम्भे बदहत्तिकटु तहक्कारी, तहा 'पडिसुणणाएति पडिसुणणाए जहा जं सो कारवेति, जहा असुर्य करेहि, तं पडिसुणिऊण तहत्तिकाऊण तहेच कीरइति । अमे पुण121 ४ किल एस इच्छाति सामायारीए विसओ इति, वायणपडिसुणणाएत्ति अभिनं पदं, उवरिल्लं पडिसुणणाए पदं उबदेसे सुत्तअथक-॥३४८॥ हणाए एतेहि सम संबंधेति, तहासई तु एतंसदेण सह, तेय तहमेतति भवति, ततः कोऽर्थः --बायणपडिमुणगाए उबदेसे पडिसुणणाए सुत्तकहणे पडिसुणणाए एवं अत्थे, एतेसु अवितहमेतं सब्ब तहमेतं तुम्मे बदहतिकटु तहकारो कायम्बोनि । अबे भणति
RRC
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [ ११९...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- /गाथा-], निर्युक्तिः [६६६-६९३/६६६-६९३],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णां
उपोद्घात
नियुक्ती
॥ ३४९ ॥
| पडिसुणणापत्ति प्रतिपृच्छोचरकालं आयरिए कथयति सति पडिसुणणाए, केती पुण विभासंति-तहक्कारो णाम वायणादिसु जं जहा तस्स भणणं तस्स तहा करणंति तहकारसामायारीति । एसा य दसविहचकवालसामायारी सङ्काणप्पजोगतो सुपरिजिता कातव्वा जे य गुणा एते काकूए दरिसेति
जस्स य इच्छाकारो० । ७-२८।। ६९० ।। चसद्दा सेससामायारी गहणं, एत्थ सोग्गती णाणदंसणचरणाणं भन्नति, अहवा सोग्गती सुदेवत्तादिका, एत्थ सीसो आइ-गणु उवरि मंनिही 'साधू खवेंति कम्मं अणेगभवसंचित' मिती, तो किं तेण सोग्गती ण भवति १, उच्यते, जाव सव्वकम्मक्खयो ण भवति ताव सुदेवत्तादिगं सुगतिं गंमतित्ति दरिसिज्जति, स्याद् बुद्धि:- किं पुण एवं सुगती कम्मक्खयो वा इति १, उच्यते जेण इच्छत्तिसामायारीए अज्झावणापरिहरणादि मिच्छसि दुकडगरहणादि तहति सुकतानुमोदणादि इति विभासियव्वं । पुणो आह एवं वरं उवरि भणितं होतं, सव्वं दसविहसामायारिं वभिऊण इति, उच्यते, एवं वा भवति, एवं वा' इति अणियतो एस वबहारोति ज्ञापितं, अहवा सिद्धतसेलीए कहिंचि अन्नत्थवि भन्नति, तेण इहवि भणितं तत्थ दट्ठव्वंति । अत्रे पुण इमं गाथासुतं उवरिं 'एवं सामायारि जुजैना' एतीए गाथाए पुण्यं भर्गति, केवी पुण चसहेल सेससामायारीगृहणं ण मणति, तिन्हं चैव पुब्बिलीणं महत्थतरियातोत्तिकाउं इति ।। इयाणिं आवसिया निसीहिया च भवति, एत्थ ताव सीसो आह
आवसिय च० /७-२९।६९१ ।। एवं च मणिए आयरियो एतस्स चैवामिप्यायमुवलक्खितुं अनूज्ज दंसेति, तब किलाय
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दशधा सामाचारी
॥३४९ ॥
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
आयं [११९...]
अध्ययनं [-1,
मूलं [- / गाथा-1, निर्युक्तिः [ ६६६-६९३/६६६-६९३
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूण उपोद्यात
निर्युको
॥३५०॥
मभिप्रायः, जहा आवसियं च गाथा, अत्था पुण होति सा चैवत्ति जो किर अत्थो निसीहियाए साध्यो सो आवस्सियादवि सिज्झति, जो वा आवस्सियाए साध्यो सो निसीहियाएवि, तो किमुभयोर्ग्रहणं १, न पुण अन्नतरीए एगाए चैवेति, तथाहि अतितेहि निसीहिया कीरति जहा पात्रकम्मनिसेहकिरिया मम इमा किरिया इति संपचयत्थं, एस तु आवस्सियाएवि सिज्झति, जतो पाचकम्मनिसेहकिरियावि आवस्सगं, आवस्सिया नाम अवस्सकायव्वजोगकिरिया इति, पात्रकम्मनिसेहकिरियाचे वा अवस्सकम् - तिवा अवस्सकिरियत्ति था एगट्ठा, एवं इतरत्थवि मात्रेतव्यमिति, एत्थ आयरितो भगति-जदि एवं तो अन्नाओवि एत्थ संपतन्ति, तत्थ किमिति न भन्नति, अह तत्थवि, एवं च ववहारो ण द्वाति, तम्हा कहंचिदभेदेवि किंचि विसेसे पडच भेदपरूवणा ण कज्जतित्ति त्याज्यं, सीसो आह-जति एवं तो साहह को विसेसो ?, उच्यते-णितस्स तहा आवस्सियापयोगे अयमर्थः अवस्सकायव्वकरपवतस्स णिग्गमकिरिया इमा इतियावत्, अर्तितस्स तहा निसीहियापयोगे पुण पडिसिद्ध निसेवणनियत्तस्स अतिसमणकिरिया इमा इतियावत् अनयोश्च महान्विशेष इति । एस एव अत्थो विसेसिततरो विसयविभागनिरूवणेण निज्जुतीए निदंसिज्जति ॥ तत्थ सीसो आह-किं जहा तहा गच्छतो आवस्सियाकरणं सामायारी ण भवति १, उच्यते-सोम्म ! जहा तहा गमपि ताव ण बद्धति, जतो अगच्छतो इमे गुणा
एगग्गस्स ०।७-३१।।६९३|| जहा जदा किर साधू पडिस्सए अच्छति तदा एगग्गो पसंतो, एवं च तस्स इरियादीया दोसा ण भवंति, दुविहा य विराहणा-आयविराहणा पडणादिणा संजमबिराहणा विक्खेवादिणा, स्वाध्याय ध्यानादयश्च गुणा भवन्ति,
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दशधा सामाचारी
॥ ३५० ॥
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
भाष्यं [१२०-१२३]
अध्ययनं [-]
मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [६९४-७२३/६९४-७२३],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
श्री आवश्यक
चूण उपोद्घात
नियुक्तौ
॥३५१ ॥
जदि एवं मा चैव गम्मउ, भंनति, गंतव्वमवस्सकारणमि, कातियउच्चारभतपाणगुरुनियोगादिविहाणमि, ताहे तत्थ आवस्सियाहिं विचिआ तं करोति, जदि पुण एतेसुवि पत्तेसु अवस्सगंतन्बएस ण णीति तो ते गुणा न भवन्ति, हाँता दोसा भषेति, अने य बहुदोसा इति ॥ किं च
आवस्सियाओ० । ७-३२।६९४|| कारणेऽवि अवस्स गच्छंतो जदि आवस्सतेहिं सब्बेहिं जुत्तजोगी अच्छति आवस्सगाणि इरियादिभणिताणि, तेहिं जुत्तजोगी, तहा मणवयणकायईदियगुत्तो, तो तस्स आवस्सियाओ आवस्सियाकरणं आवस्सिया होतित्ति, इमा सामायारी भवतीत्यर्थः । कत्थ पुण अर्तितो निसीहितं कुणति १, 'सेज्जं ठाणं च जहिं चेएति' सेज्जा-सयणीयं ठाणं- अच्छयचं, चसहा अपि तहाविहं, जत्थ चेतति करेति, किमिति तत्थ निसीहियें करेह, जम्हा तत्थ निषेधवानिषिद्धः नियचो तेणं तु निसीहिया होति, निसीहियं करेति । पाठतरं वा
सेज्जं ठाणं च जहा (या) चेति तदा निसिहिया होति । जम्हा तदा निसेहो निसेहमतिया य सा जेणं | ७ ।। ३४ ।। ३९५ ॥ इति
किंच- आवास्सियं च तो जं च अतितो निसीहियं कुणति । इत्थं इमं पयोयणं जनं सो गितो संनं निवेदेति, जहाऽहं सेज्जानिसीहियाए अभिमुहोति मम वट्टमाणि वट्टेज्जाह, गुरुनिवेदणं च विणयप्पयोगो य एवमादि, सेज्जानिसीहिया नाम वस हिनिसेहकिरिया, तीए अभिमुहोति अवस्सं गमणाभिमुोऽहमिति जं भणितं, तहा अतितोऽवि समं निवेदेति, जहा
अथ दशधा सामाचारी वर्णयते
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सामाचारी
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [६९४-७२३/६९४-७२३], भाष्यं [१२०-१२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
दशधा सामाचारी
प्रत
आवश्यक
चूर्णी IP उपोद्घात
HEIGE
नयुक्ती
दीप अनुक्रम
निसीहियाए पावनियत्तीए तुम्भ अभिमुहो, तुम्मे मा सागारिकादिभया वित्तसेज्जा, हत्थपाद वा णाउंरावेज्जा इच्चादि ।। |तहा तत्थवि---
जो होति निसिद्धप्पा०। ७-३५ ।। १२१ भाष्यं ।। कंठा । एवं च परूवित मा सीसस्स अच्चतभेदबुद्धीए परिणमिस्सति जहा किर आवस्सिगनिसीहियाणं सामिविसयसरूवअभिघाणपयोयणमादीणि मित्राणि तो एगाहिगरत्तमपि पत्थि, तहा जो आवस्सगजुत्तजोगी सो अबो चेवत्ति, ण णज्जति य को णिसिद्धपा को वा आवस्सगजुत्तजोगीति, उभयकपदवभिचारा-| | शंकाप्यत्र स्यादित्याह___ आवस्सयमि जुत्तो ।। ७-३६ ।। १२२ भाष्ये ॥ जो आवस्सयम जुत्तो सो नियमा निसिद्धो इति नायव्यो, जो वा निसिद्धप्या सो नियमा आवस्सए जुत्तोति । एवं च व्याख्या-जो आवस्सयंमि जुत्तो सो नियमा निसिद्धो, जो पुण निसिद्धप्पा सो आवस्सए जुत्तो वाण बा, जतो समितो नियमा गुत्तो, गुत्तो समियत्तणमि भयणिज्जोति । अहवावित्ति पक्षांतरेण परूवणा| मेदेण नयमतेणेत्यर्थः । अपि संभावने | एतदपि संभाव्यते, जहाजो निसिद्धप्पा सो नियमा आवस्सए जुत्तो इति, आवस्सग नाम | अवस्सकायव्वं करणं । जुत्तो पवतो । निसिद्धो नाम पडिसिद्धनिसेवणनियत्तो इति । इयाणि आपुच्छणाय योगोहै। आपुच्छणा उ कज्जे ॥ ७-३७ ॥ १९॥ जया किंचि साधु काउमणो भवति तदा आपुच्छतित्ति । इयाणि पडिपुच्छा
पयोगो। सोय पुन्वानसिद्धमि होइ पडिपुच्छत्ति, पढम संदेसओ दियो, त कहमविण ताव कीरति,तो काउमणो पच्छा पडिपुच्छति
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [६९४-७२३/६९४-७२३], भाष्यं [१२०-१२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
किं करेमि नवनिी, जहा रातीणं दो तिनि वारा पुच्छिज्जतित्ति । इयाणि रणादार । तं कहं छंदमा, पुनमहिनेणं भचेण वा पाणण वा पत्थेण वा पत्तेण वा, छंदणा णाम इमं अस्थि गेहह । निमंतणा णवि ताव गेहति, भणति-अच्छ तुर्म, अहं ते
दशधा आवश्यक दाहामि, जावाणेमित्ति । इयाणिं उवसंपदा । उवसंपदा तिविहा-णाणोवसंपदा (दसणोपसंपदा चरित्तोवसंपदा य, तत्थ)
सामाचारी उपोद्घातणाणोवसंपदा तिविहा-सुचनिमिन अत्यनिमित्तं तदुभयनिमित्त, सुत्ते तिविहा-बत्तमानिमित्त संधणानिमित्तं, गहणनिमि, बत्तणानियुक्तो नाम पुषगहियस्स अथिरस्स परियणं करेति, संघणा नाम उज्जुयारणा, गहणं नाम जं अभिनवगहणं करेति, एवं चऽत्थेवि,
एवं उभयेवि । दरिसणेवि दरिसणप्पभावगाणि सत्याणि जहा गोविंदजुत्तिमादीणि। एत्थ संदिट्ठो संदिहस्स . चत्तारि भंगा, ॥३५क्षा
एत्थ संदिट्ठो संदिगुस्स जदि तो सुद्धो, सेसेसु तिसु असामायारीए वति । चरित्तनिमित्त दुविहा उपसंपदा-वेयावच्चनिमित्तं वार खमणनिमित्त वा, यावच्चं दुबिह-इत्तिरियं आवकहितं च, वेयावच्चकरो पुण आयरियाण होज्जा वा ण वा, जति पत्थि ताहे घेप्पति, अह अस्थि सो दुविहो इतिरिओ आवकहितो य, आगंतुगो दुविहो-इत्तिरितो आवकहिओ य, जदि दोऽवि आवकहिता ताहे जो सलद्वितो, दोऽवि सल्लद्धिया जो चिराणओ सो करोत, पाहुणओ बुच्चति-उपज्झायाणं करेहि, धेरस्स पवत्तिस्स गिलाण. |स्स सेहस्स एवमादि, जदि नेच्छति तो चिराणओ एताणि कारिज्जति, इमो आयरियस्स, जति नेच्छति तो विसज्जिज्जति ।।
जब इत्तिरिया दोऽवि तो एको पडिक्खाविज्जदि, अन्नस्स वा कारिज्जति, नेच्छते विवेगो । इयाणि संजोगो-आवकहितो विस्सामिज्जति, आगंतुओ इत्तिरिओ कारिज्जति, एवं विभासा, तस्स अबस्स नेच्छइ विवेगो । एवं जहाविधीते विभासा । इयाणि
॥३५३॥ खमणे, सो य दुविहो-इचिरिओ आवकहितो य, आवकहितो भत्तपच्चक्खाणओ, इचिरिओ दुविहो-वियट्ठखमओ अवियट्टो य,
दीप अनुक्रम
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [६९४-७२३/६९४-७२३], भाष्यं [१२०-१२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
दशधा
प्रत
उपोद्घाता
श्री ४ ताहे सो पुच्छिज्जति-तुम अज्जो ! विकिट्ठतवेण केरिसो होसि', सो भणति-गिलाणोवमो, सो पडिसिज्झति, भन्नति-ण तुज्ज्ञ भावश्यकएत कम्म, मुत्ते अत्थे य आदरं करेहि विगिढवि तहेव पनविज्जति, अन्ने भणति-विगिट्टखममो पारणगकाले गिलाणोवमोवि- सामाचारी चूर्णी इच्छिज्जति, जो तु मासादिखमतो सो इच्छज्जति चेव, जो मासादिखमण करेति भन वा पञ्चक्खाति, तत्थ आयरितो जदि अणापु
आयुरु|च्छाए पडिबज्जति तो असमायारीए वरति, ते णेच्छतित्ति काउं, सो अप्पणा आढत्तो पडिलरणादि काउं, तेसि वा अनोवि
पक्रमा नियुक्ती
जखमओ अस्थि, ते तेण पाउला, ते भणंति एतस्स समचे करहामो, ताहे पडिच्छाविज्जति, अह पुण दोण्हवि समत्था पडिवज्जति ॥३५॥ Islय ताहे करति । एवं पडिच्छिते जे न करेंति तत्थ आयरितेण ते सारेयबा, जं वामयं जाणति, एतेण खमतो सीदतित्ति, किं च तहिस्स कायव्यं उन्नत्तण परित्तण मत्तगतिएण वा । एस संजतोबसंपदा । इयाणि गिहिणोवसंपदा, जत्थ साधू पंथे पहे देवकुलादिसु
वा अच्छिउकामो तत्थ अणुबवेत्ता ठातियवं, मा अदिनादाणवेरमणादियारदोसा होज्जा, जदिवा साधू मिक्खायरियाए पविट्ठो 3केणति बाघातेण अच्छियर्व भवति तत्थ अणुनवेयव्वं । इत्तिरियपि ण कप्पति अवियाणं खलु परोग्गहादीसु चिट्टितं निसी
तिचा, ततियब्बयरक्षणहाए ताहे कारणं दीवेत्ता अच्छति । ण य.ताण कुच्चविच्चाणि निझातियवाणि, जत्थ रुक्खे वी| समति तत्थ जति अस्थि पंथिओ सो अणुअविज्जति, नस्थि ताहे अणुयाणतु देवता जस्सोग्गही एसो, से दसविहा सामायारा।
इयाणि पदविभागसामायारी कप्पववहारा पदविभागः, तदुपरिष्टावक्ष्यति । सहाणे तेसिं पुण इमो अधिकारो-कप्पमिकप्पिया खलु ॥३५४॥ है मूलगुणा चेव उत्तरगुणाय। ववहारे ववहरिया पायच्छित्वाभवते य ॥१॥ से सामायारिउवक्कमकालो। (आउ)कालो सत्तविहो-द
अज्झवसाणनिमित्त ।।८-११७२४।। अज्झवसाणमेव निमिचं अज्झवसाणनिमित्तं, अहवा अचं अज्झवसाणं, अचं निमित्त च,
दीप अनुक्रम
अथ आयुष्य-काल वर्णयते
(63)
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग - 4 "आवश्यक" - मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H मूलं [- /गाथा -], निर्युक्तिः [७२४/२४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
आष्यं [१२३...]]]
श्री आवश्यक
चू उपोद्घात नियुक्ती
॥२५५॥
अज्झवसाणं तिविई-रागज्ावसाणं भय-स्नेहज्झवसाणं च रागज्झवसाणं जहा एगस्स गावीओ हिताओ, ताहे कुविताओ पच्छतो लग्गा तेहिं नियन्तियाओ, तत्थ एगो तरुणो कृप्पासं पविसिओ पट्टबद्धओ तिगंडकंडगसज्जो जहा विजाहरो परमरुवदरिसणिज्जो, सो तिसादितो एगं गामं पविडो, ताहे मग्गिए एगाए तरुणीए पाणियं णीषितं, सो पवीता सा ओयतेति तस्स सरीरे, ता सो धातो, जाहे ण हाति ताहे उता पधावितो, सावि तहेब ओयलेति, जाहे सो अद्देसो जातो वाहे सा तहेव ओयल्ली। गेहज्झवसाणं मायापुत्तादिवत्, जहा एगस्स वाणियगस्स तरुणि महिला, वाणि य परोप्परं अतीव अणुरताणि, ताहे सो वाणिज्जेण गतो, पडिणि'यत्तो, बसहीए एगाहेण पावतित्ति, ताहे से वयंसगा भगति पेच्छामो किं सच्चो अणुरागो णवा, ताहे एगेण आगंतूण भज्जा से भणिता सेो मतो. सा भगति सच्चे मत १, तं वर्क भणित्ता मता, ताहे इतरस्सवि अधाभावेण कहितं, सोवि मतो ।
भयावसाणेणं जहा गयवमालमारगस्स सोमिलस्स, तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवती णामं णयरी होत्था, पातीयपडीणायता उदीर्णदाहिणविच्छिष्णा नवजोयणविच्छिन्ना दुवालसजोयणायामा घणवतीमतिनिम्माया चामीकरपवरपागारा णाणामणिपंचवा कविसीसग सोहिया अलयापुरिसंकासा पमुदितपकीलिता पच्चखं देवलोगभूता, तीसेणं बहिता उत्तरपुरत्थि मे दिसीभागे रेवतेणामं पञ्चतो होत्था, तुंगे जाव निच्चच्छणए दसारखीरपुरिसरवरकचलवगाणं, तस्स णं पव्वयस्त अदुरसामंतेणं णंदणवणे णामे उज्जाणे होत्था, वनओ जहा दसन्ने, तस्सणं मज्झभागे सुरप्पिए णामं जक्वाययणे होत्था, बचाओ, तत्थ णं णगरीए कण्हे णाम वासुदेवे राया होत्था, महताहिमवंत एवं जहा दसन्नभद्दे जाव रज्जं पसाहेमाणे विहरति, से णं तत्थ समुदविजयपामोक्खाणं दसहं दसाराणं बलदेवपामोक्खाणं पंचण्डं महावीराणं उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसहं राईसहस्साणं पज्जुनपामोक्खाणं
| भव-अध्यवसाय निमित्त ( गजसुकुमाल - मारक) सोमिलस्य द्रष्टांत
(64)
भयाध्यवसा
सोमिलपूर्ण
।।३५५।।
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं H मूलं - /गाथा-, नियुक्ति: [७२४/७२४], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
R
प्रत
साने
दीप अनुक्रम
श्री 187 अवधाणं कुमारकोडीणं संबपामोक्खाणं सहीय दईतसाहस्साणं वीरसेणपामाक्खाणं एगवीसाए वीरसहस्साणं महसेणपामुक्खा-1Xभयाध्यवआवश्यकता छप्पनाए बलवगसाहस्सीण रुपिणिपामोक्खाणं बत्तीसाए महिलासाहस्सीणं अणंगसेणपामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणाला चूणा अनसिं च बहणं ईसरतलवर जाप सत्यवाहप्पमितीणं वेयगिरिसागरपेरंतस्स य दाहिणभरहस्स बारवतीए णगरीए आहेवचं सा
जाव पालेमाणे विहरति । तेणं कालेण तेण समएणं अरहा अरिहणेमी, वनओ, बारवतीए जाब विहरति । तेण कालेण तेणं समएणं
| अरहतो अरिडणेमिस्स अंतेवासी छम्भातरो अणगारा जाव उग्गतवा ओराला चोहसपुची चउमाणोवगता सरिसगा सरित्तया | ॥३५६॥ 1सरिव्यता णीलुप्पलगगवलपगासा सिरिवच्छेकियवच्छा पसत्थवत्तीसलक्षणघरा कुसुकलयमद्दलगा जलकुम्वरसामाणा ओयसी
तेयसी बच्चसी, जसंसी ते य पबज्जादिवसादो आरम्भ सामिणा अम्मणुनाता छटुंछद्वेणं अणिक्खितेणं विहरति । MI तए ण ते अन्नया पारणगंसि पढमाए सज्झायति वितियाए शाणं ततियाए तिहि सिंघाडपहिं बारवति अडंति । तत्थ ण एगे।
संघाडए उच्चणीयमज्झिमाई कुलाई अडते वासुदेवस्स देवतीए देवीए गिहमणुपविटे, सा य तं पासित्ता हट्ट जाव भद्दासणातो अन् द्वेत्ता पाउयाओ ओमुयति, ओमुयित्ता अंजलिमउलियहत्था सत्तट्ठ पदे गंता तिक्त्तो आयाहिण जाव णमंसित्ता सिंघकेस
रगमच्छंडिकामोदकथालेणं सतं चैव पडिलामेति, पडिलाभेत्ता वंदति, वंदित्ता पडिविसज्जेति, तया ण दोच्चे संघाडए, एवं है तच्चेवि, णवरं तच्च पडिलामेता एवं पयासी-किण भंते ! कण्हस्स वासुदेवस्स इमीसे चारवतीए जाच देवलोगम्भताए णिग्गंथा ॥३५६।।
अडमाणा भत्तपाणं ण लभंति, तोणं ताई चेव कुलाई भत्तपाणाए अज्जो भुज्जो अणुपविसंतिी, तत्थ ण देवजसे णाम अणगारेट Dil एवं व०-णो खलु देवाणुप्पिए । एवं एतं, किंतु अम्हे छन्भायरो सरिसगा जाव संघाडएणं अडमाणा तुज्झ गेहं अणुप्पविट्ठा, तर
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [७२४/७२४], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
श्री INणो चेव ण ते अम्हे, अब अम्हेनिकटटु जाव पडिगता । तए गं तीसे अम्मस्थिए समुप्प जित्था एवं खल हे पोलासपुरे णगरे । आवश्यक अतिमुत्तेण कुमारसमणेणं बालत्तणे वागरिता-तुमणं अट्ठ पुत्ते पयाइस्ससि सरिसए जाच णलकुम्बरसामाणे, णो चेव णं भरहे भयाध्यदचूर्णी ४ वासे केवतिकालाओ अन्नाओ अम्मयाओ तारिसएत्ति. तन मिच्छा, इमन्नं पञ्चवमेव दीसति, अनाओवि पयाताओ, तं गच्छा-18
सोमिलव उपायात मिणं सामि पुच्छामित्तिकटु सामिअंतिय उवगता जाच पज्जुवासेति । सामिणा तीसे अज्झस्थिर्य कहियं जाव अत्थे समडे, हता
अत्थि, एवं खलु देवाणु०! तेणं कालेणं तेणं समएणं भदिलपुरे णागस्स गाहावतिस्स सुलसा भारिया नेमित्तिएण निंदा ॥३५७||
वागरिता, तए ण सा वालप्पभिति चेव हरिणेगमेसि देवं भत्ता यावि होत्था, तं तीसे भत्तिपरमाणेण स देवे आराहिते यावि होत्था, तए णं तुमंपि सावि समामेव दारए सवह, सा ण विणिघातमावन्ने पेयाति, से देवे तीए अणुकंपणट्टा ते गेण्हेत्ता तव अंतियं । साहरति, जेविय गं ते तव पुत्ता तेवि य तीए साहरति,तं तव चेव णं ते पुत्ता, गो सुलसाए, तए थे सा सामि वंदति, वैदिचा जेणेव ते छ अणगारा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिचा ते वंदति, वंदित्ता आगतपण्हागा पप्पुतलोयणा कंचुकपरिक्खिनिया संव-| रितवलयबाहा ऊसवितरोमकूवा ते छप्पि अणगारे ताए इट्टाए दीहाए सोम्माए सप्पिवासाए निम्भराए अणिपिसाए दिड्डीए ४ देहमाणी २ सुचिरं निरिक्खा २ बंदर बंदिचा पुणो सामि वंदित्ता जामेव दिसि तामेव पडिगता जाव सयणिज्जंसि निसमा
चिंतेति-एवं खलु अहं सरिसंग जाव सत्त पुत्ते पयाता, णो चेवणं मए एगस्सावि बालत्तणए समणुभूते, एसपि यणं कण्हे वासुदेवे, पिच्चप्पमचे सयं पललिते कंदप्परती मोहणसीले छहं छह मासाणं ममं अंतियं पादवंदए आगच्छति, तं धनाओ पण ताओ
॥३५७॥ अम्मगाओ जासिं माऊणं णियगकृच्छिसंभूतगाई धणदुद्धलुद्धयाई मधुरसमुल्लावगाई मम्भणपजंपियाई घणमूला कक्खदेसमार्ग
दीप अनुक्रम
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [७२४/७२४], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चूणों
नियुक्ती
श्री 18 अतिसरमाणाई मुद्धगाई पुणो य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिहिऊण उच्छंगनिवेसिताई देंति समुल्लावगे सुमधुर, पुणो पुणो 31 भयाध्यवआवश्यक मंजुलप्पभाणिते, अहं णं अहण्णा ४ एतो एगतरमावि ण पत्ता, ओहत जाव झियाइ, इमं च ण कण्हे जाब विभूसिते पादवंदए
साने आगच्छति, तं पासति, पादग्गहण करेति, करेचा एवं व. अनया तुम्मे अम्माओ! ममं पासित्ता हट्ट जाय भवह, कि अज्ज ४ भावाला जाब झियाह?, तए सा तं सव्वं परिकहति, सेवि एवं व०-मा णं जाव झियाह, अहं णं तहा पचिस्सामि जहा णं ममं सहोदरे
| जाच भविस्सतितिकट्टु ताहि इहाहि जाव वग्गृहि समासासति २ अट्ठमं पगेहति, पगेण्हेत्ता जहा भरहे तहा हरिणेगमेसि आरा-18| ॥३५८॥ | हेति, सेऽवि एवं व०- होहिति तव देवलोगरचुते सहोदरगे, तिनि बार पडिमणिचा पडिगते, कण्हेवि तं सब देवतीए पडि
कहेता पडिगते, तए ण सा अन्नया कयाती गयं सुमिणे पासित्ता पडिबुद्धा जाव परिबुडा बहति, तए ण सा णवण्हं मासाण जाव & जासुमणाबचबंधुजीवसमप्पमं सवणयणकंतं सुकुमालं जाव सुरूवं गजतालुयसमाणं दारगं पयाता, जम्मणं जहा सामिस्स सिद्धत्यो | करेति जाव जम्हाणं अम्हें इमे दारगे गततालुयसमाणे तं होऊ गं एतस्स णामधिज्ज गयसुकुमाले २, सेस जहा मेहे जाव अलं | भोगसमत्थे जाते यावि होत्था। * तेणं कालेण तेणं समएणं वारवतीए सोमिले णाम माहणे परिवसति, अड्डे जाव सुपरिणिहिते यावि होत्था । तस्स सोम- ॥३५८॥
स्सिरी णाम माहणी होत्था, तेहिं सोमा णामं दारिया होत्था रामाला जाव सुरूवा, रूवेण य जोव्यणेण य लायनेण य जाव | उफिट्ठा उकिट्टसरीरा यावि होत्था । तएणं सा अभया फयादी पहाता जाब विभूसिता बर्हि खज्जाहि जाव परिक्वित्ता सयायो गिहातो पटिनिक्खमति २ रायमग्गसि कणगतिंदूसगेण कीलमाणी २ चिट्ठति ।
दीप अनुक्रम
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [७२४/७२४], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
आवश्यक
प्रत
तेणं कालेणं वेणं समएणं अरहा अरिडणेमी समोसढे, परिसा निग्गया, कण्हेवि यण इमीसे कहाए लढे सभाए मुहम्माए
भयाध्यबचूर्णी " कोमुदियं भेरि तालावेचा जहा सके घंटे जाव हाते विभूसिते गयसुकुमालेणं सद्धिं विजयखंघहत्थिखधवरगते जहा दसन्नभर
साने उपोषपातजाव पारवतीए मझमज्ज्ञण निग्गच्छति । तं च सोम्म दारित पासइ २ चा तीसे रूबे य ३ जाव विम्हिए पुच्छति-कस्सेसामिलव नियुक्ती | किं वा णामे, ते ण तएक कोडेबियपुरिसा साइति सब्ब, तएणं कण्हे एच ब-गच्छह गं भी तुम्हे सोमिलं जातित्ता सोमा
कण्णतेपुरंसि पक्खिवह, ते णं एसा गयसुकुमालस्स पढमपत्ती भविस्सह, तेवि जाव पक्खिवंति, कण्हेविय गं जाव सहसंबवणे ॥३५९॥
सामि पज्जुबासति, धम्मकहा, धम्मे, कण्हे, परिसा पडिगता, तए णं से गयसुकुमाले सामिस्स धम्म सोच्चा जा णवरं अम्मापितरो आपुच्छामि, अहासुह०, तए णं से सामि वंदिता जाव पडिगते अम्मापिऊण पादवडण करेति करेता एवं व.एवं खलु अम्मतातो! मए सामिस्स अंतिए धम्मो णिसतो. सेविय मे जाव अभिरुतिते, तएणं अम्मापियरो एवं बयासी-धनेसिणं तुम जाता! जाव कयकल्लाणे सि गं तुम जाता जयं तुमे जाव अभिरुतिते, तए णे सो दुच्चंषि तरुचंपि एवं भणति जहा जमाली जावतं इच्छामि णं पबत्तए, तए ण सा देवती ते अणिहूँ जाव फरुसं गिरं सोच्चा माणसिए महया दुक्खेण अभिभूता समाणी सेआगतरोमकूवा पगलंतचिलिणगाता सोयभरुपवेतितंगमंगी नित्तेया दीणक्मिणवयणा करतलमलितव्य कमलमाला तक्खणओलुग्गूदुम्बलसरीरा लायनसुभच्छायगतसिरीया पसिढिलभूसणपडतखुमितसंचुनितधवलबलयपन्भट्ठउत्तरिज्जा मुच्छावसणवचेतगरुई सुकुमाल विकिमकेसहत्था परमणिकित्तव्य चंपयलता णिवत्तमहब्ब इंदलट्ठी विमुकसंधिबंधणा कोहिमतलंसि धसत्ति सवंगे
४॥३५९॥ हिं संनिवतिता, तए णं सा संभमायत्तितंतरिता कंचणभिंगारमहविणिग्मतसीतलजलविमलधारपरिसिच्चमाणनिश्ववितगायलट्ठी
दीप अनुक्रम
SALAKAR
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [७२४/७२४], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
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प्रत
दीप अनुक्रम
उक्खेवगतालियटवीयणगजणितयातेण सफुसितेण अंतपुरपरिजणेण आसासिता समाणी मुत्तावलिसनिगासपवईतअंसुधाराहि भयाभ्यः आवश्यक सिंचमाणी पयोहरे कलुणविमणदीणा रोयमाणी कंदमाणी तप्प सोत. विलव० गजम्मालं एवं व-तुमंसिणं जाता! अम्हं एगे सामिलच चूणा
गजसुकुउपोद्घात
पुत्ते इवे कंते पिए मणुने मणामे थेज्जे वेसासिए संमए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूते जीवितुस्सविए हिदयप ठाणदिजणणे उबरपुप्फ च दुल्लहे सवणताए, किमंग पुण पासणताए ?, तं नो खलु जाया ! अम् इच्छामो तुझं खणमवि विप्पतोगमा
&| सहित्तए, तं अच्छाहि ताव जाता ! जाहि ताव जाता ! विपुले माणुस्सए कामभोगे जाव ताव वयं जियामो, ततो पच्छा १३६० अम्हीह कालगतेहि परिणतवए वहितकुलवंसतंतुकज्जाम गिरवयक्खे जाव पब्बाहिसि, तए णं से एवं व०-तहेब ण त अम्मताता!18
जहेव णं तुम्भे मम एवं वयह-तुम णं जाता! अम्हे ज़ाव पब्वइहिसि, किं पुण अम्मताता ! माणुस्सते भने अणेगजाति एवं जहा पुंडरीए जाव पुज्यं वा पच्छा वा अवस्सविप्पजहणिज्जे, से केस ण जाणति अम्मतातो! के पुम्बि गमणाए के पच्छा गमणाए?तं. इच्छामि जाच पबहत्तए । तए णं अम्मापियरो एवं व०-इमं च ते जाता ! सरीरगं पतिविसिहरूब लक्षणवंजणगुणोववेयं उत्तम-15 | बलविरियसचजुत्तं विमाणवियकखणं ससोहग्गगुणसमुइतं अभिजातमहकम विविवाहिरोगरहितं निरुवहउदत्तलद्धपंचेंदियपहाला पढमजोब्बणथं अणेगउत्तमगुणेहिं जुत्तं तं अणुहोहि ताव जाया ! नियता सरीररूवसोहग्गजोव्वणगुणेहि ततो पच्छा जाव पच्वइहिसि, तए ण सो एवं वयासी-तहेव णं ते जाव किं पुण अम्मतातो ! माणुस्सयं सरीरं दुक्खायतणं जहा पुंडरीए जाव अवस्सविप्पजहियवंति, सेस तं चेव । तए ण तं अम्मापितरो एवं व०- अम्हे गं तुज्झ जाता ! विउलकुलबालियाओ कलाकुसलसब्बकाललालितमुहोइताओ महवगुणजुत्तणिउणविणओवयारपंडितवियक्षणाओ मंजुलमितमधुरमणितविहसितषिप्पेक्खितगति
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं , मूलं - /गाथा-1, नियुक्ति: [७२४/७२४], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
1967
प्रत
सत्रांक
हा विलासचिद्वितविसारदाओ अविकलकुलसीलसालिपीओ विसुद्धकुलवंससंताणतंतुबद्धणपगम्भउब्भवपभाविणीओ सरिसताओ सरिश्व-।
TRIभयाध्य आवश्यक याओ सरिनयाओ सरिसलावन्नरूवजोव्वणगुणोववेताओ जाव सिंगारागारचारवेसातो मणोऽणुकूलहिदइच्छिताओ अट्ठ तु चूर्णी गुणवल्लभाओ उत्तमाओ निच्च मावाणुरत्तसव्वंगसुंदरीओ वरेमो, ते मुंजाहि ताव जा ताहिं सद्धि विउले माणुस्सए कामभोगे, ततोx
जसुकुमाउपोद्घाती पच्छा भुत्तभोगी विसयविगतवोच्छिनकोतुहल्ले अम्हहिं कालगतेहिं जाव पव्वइहिसि, तए गं से एवं व-तहेब णं तं जाव किं पुण नियुक्ती अम्मतातो ! माणुस्सगा कामभोगा तहेव जाव अवस्स विप्पजहियब्बत्ति, सेस तं चैव । तए णं तं अम्मापितरो एवं व०-इमे ते
जाता ! अजगपज्जगपितुपज्जतागते सुबह हिरने य सुवने य कैसे य दूसे य विउले धणकणग जाव सन्तसारसावतेज्जे अलाभि ॥३६॥
जाव आसत्तमतो कुलवंसाओ पगामं दातुं पगाम भोत्तुं परियाभाएतुं तं अणुढाहि ताव जाता ! विपुले माणुस्सते इडिसकारसमुदए, |४| ततो पच्छा अणुहूतकल्लाणे वडितकुलवंस जाव पबतिहिसि, तए णं से एवं व०-तहेवण तं जाव किं पुण अम्मतातो ! हिरण्णे य|४ दतहेब जाव विपजहितब्वेत्ति, सेस तं चेव । तए पतं अम्मापितरो जाहे जो संचाएंति बहूहि विसयाणुलोमा आषवणाहि य
पचवणाहि य जहा पुंडरीए जाव पच्चइहिसि, तए णं से एवं वयासी-तहेब ण त जाव किं पुण अम्मतातो निम्नथे पावयणे कीवाणं । एवं तहेव जाव पब्बतिचएत्ति ।। ___तए णं से कण्हे इमीसे कहाए लट्ठ समाणे जेणेव गयसमाले तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता गयसुकुमालं आलिंगति २ उच्छंगे निवसति, निवेसेता एवं वयासी-तुमन्नं ममं जाता ! सहोदरे कणीयसे भाता, तं मा णं तुमं जाता! इयाणि जाव पध्वयाहि,
॥३६॥ द अहं गं तुमे बारवतीए णगरीए महता २ रायाभिसेगेण अभिर्सिचिम्सामि, तए ण से गयखमाले कण्हेणं एवं बुने समाणे गो|
दीप अनुक्रम
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग - 4 "आवश्यक" - मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 निर्युक्तिः [७२४/२४]
आध्यं [१२३...]
अध्ययनं H मूलं [- / गाथा-1, पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णी उपोद्घात
नियुक्ती
॥३६२॥
आढाति णो परिजाणति, तप णं से कण्हे दोच्चपि तच्चपि तहेव भणति, तए णं से गयम्माले कन्हं अम्मापियरो य दोपि एवं व० एवं खलु देवा०! माणुस्सगा कामभोगा खेलासवा जाब विप्पजहियब्वा तं इच्छामि णं जाब पव्वतित्तएति । तए णं तं मयसमाले वाणि जाहे णो संचातंति बहूहिं आघवणाहिं ४ आघविचए वा ४ ताहे अकामगाई चैव एवं व० तं इच्छामो ते जाता ! एगदिवसमवि रज्जसिरिं पात्तिएति, तए णं से गयस्माले कण्हें अम्मापियरं च अणुयत्तमाणे तुसिणीए संचिद्वति, तए णं से कण्डे कोईबियपुरिसे सहावेति, सहावेत्ता एवं व० खियामेव भो गयसमालस्स महत्थं महरिहं जाव रायाभिसेयं उबडवेह एवं रायामिसेगो भरहाभिसेगाणुसारेण विभासियब्बो, निक्खमण सामिऽणुसारेण इंदादिवज्जं जाव कण्हे गयसमा पुरतो कट्ट जेणेव अरहा अरिट्ठणेमी तेणेव उवा० जाव णर्मसिता एवं ब० एवं खलु मंते ! गयस्माले खत्तियकुमारे अम्हें एगे पुजे इट्टे जाव किमंग पुणे पासणयाए ? से जहा णामए उप्पलेइ वा पउमेति वा जाव सहस्रसपत्ते वा पंके जाते जलसंवढे गोपलिप्पति पंकरपूर्ण नोवलिप्पर जलरपूर्ण, एवामेव गयस्मालेऽवि कामेसु जाते भोगेसु संवढे गोवलिप्पति कामरएणं णोवलिप्पति भोगरणं गोवलिप्पति मित्तनातिनियगसयण संबंधिपरियणेणं, एस णं भंते! संसारभउब्विग्गे भीते जम्मणमरणाणं इच्छति सामिण अतिए जाब पव्वल, तं अम्हे णं एवं सामीण सीसभिक्खं दलयामो, पढिच्छंतु णं सामी सीसभिक्खं, अहासुहं देवाशुप्पिया ! मा पडिअंधे, तणं से यमाले सामिस्स उत्तरपुरत्थिमं दिसि गंवा सयमेव आभरणादिता मुमति देवती पडिच्छति, अणुसईि दलयति जहा सामिस्स कुलमहतरिता, जाव पडिगता, तए णं से पंचमुट्टियं लोयं करेता सामि तिक्खुतो जान पामसिना पर्व ०आलिने गं भंते! लोए, पलिते णं भंते! लोए जराए मरणेण य, से जहाणामए केवी गाहावती अयारंसि झियायमाणांस जे से
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भयाध्य
सोमिलवृत्ते
गजसुकुमाचं
८ ॥३६२॥
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७२४/७२४], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
सत्राक
दीप अनुक्रम
आवश्यक
स्तित्व भंडे भवति अप्पसारे मोलगुरुगे तं गहाय आताए एगतमवक्कमति, एस मे नित्थारिते समाणे पच्छा तूराए हिताए भयाध्य चूर्णी
सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियनाए भविस्सति, एवामेव ममवि आता एगे भेटे हरे कते मणुणे महग्धे जाव भेडकरडग- सोमिलते उपोद्घात ४
समाणे माणं सीतं मा उमाण खुहा माणं पियामा मा णं चोरा माणं वाला जाबमाण परिस्सहोवसग्गा फुसंतत्ति-गजमुकुमानियुक्ती कटु एस मे णित्थारिते समाणे हिताए जाव संसारवोच्छेदणाए भविस्सति, तं इच्छामिण भंतेहिं सयमेव पव्वावित, एवं मुंडा
वितं सेहावितं सिक्खावितं सयमेव आयारगीयरविणयवेणइयचरणकरणजातामाताउानिय धम्ममाइक्खित, सामीवि तहेव करोत ॥३६३॥ हजाब धम्ममाइक्खति, एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं एवं चिट्ठियब्वं एवं निसातियव्यं तुयद्वियव्वं जियव्वं भासियचे, एवं उवायर
उहाय पाणेहि भूहि जीयेहि सचेहि संजयेणं संजमियब, अस्सि च अडगो पमादेयव्ब, तए णं से तहारूर्व धमिय उवदेस 181 सम्म संपडिच्छति २ जाव तमाणाए तहा संजमति, एसे जाते इरियासमिए जाब निम्मथं पाचवणं पुरओ काउँ विहरति ।
तए णे से जे व दिवसं पव्वइते तस्सेव दिवसस्स पच्छावरणहकालसमसि जेणेव अरहा अरिडणेमी तेणेय उवागच्छति २ तिखत्तो वंदति २एवं ब०-इच्छामिणं भंते! तुम्भेहिं अम्मणुनाए महाकालंसि सुसाणसि एगराइयं महापडिम उपसंपज्जिचाणं विहरिचए, अहासुहं, तए णं से हटे जाव सामि वंदिचा तमि मसाणे डिल पडिलेहेत्ता इसिं पम्भारगतेण कातण जाव दोषि पाद साहटु एगरातियं महापाडिम उपसंपज्जिताण विहरति । इमं च णं सोमिले माहणे सामिषेयस्स अट्ठाए पारवतीओ बहिया पुष्वनिग्गए, तं गद्देऊण पडिनियत्तमाणे संशाकालसमयंसि पचिरलमणसंसि गयखमालं तहा पासति, पासिचा तं वरं सरति २ आसु
४ ॥३६॥ दारुचे जाव एवं मनित्था-एस र्ण भी गयरमाले अपत्थिय जाय परिवज्जिते जेणं मम धूयं सोम्म दारियं बाल अपहष्पर्ण अकयवे
ASTROCEREMEMBERS
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [७२४/७२४], भाष्यं [१२३...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
नियुक्ती
दीप अनुक्रम
श्री मणस्सं विप्पजहिता मुंडे जाव पव्वतिते, ते सेयं खलु ममं एयस्स वेरनिज्जातर्ण करेत्तए, एवं संपेहेति २ दिसापडिलहण करेतिर भयाध्य आवश्यकताला
16| सरस मत्तिय गेण्हति २ तस्स मत्थए मतियापालिं बंधति बंधित्ता जलंतीओ चिगतायो पप्फुल्लकेमुयसामाणे खदिरंगाले कमल्लणं सामिलवृत्त चूर्णी उपोद्घातार
| गण्डति २ तस्स मस्थए पक्खिबह, भीते ६ ततो खिप्पामेव अवक्कमति अवक्कमित्ता जाव पडिगते । तए णं तस्स गयमूमा- जमुना
लस्स सरीरगंसि चेयणा पाउन्भूता उज्जला जाव दुरहियासा, ते सो सोमिलस्स मणसावि अप्पदुस्समाणे जाव सम्मं अधिया
है सेति, तए ण तस्स सुभेणं परिणामेण पसत्थेणं अज्झवसाणेण लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तदावरणिज्जाणं खएण कम्मरयविकिरण॥३६४॥12 कर अपुवकरणं अणुपविट्ठस्स अणते जाव केवलवरणाणदंसणे समुप्पने, ततो पच्छा सिद्धे जाव पहीण । तत्थ ण आहासनिहितहिनी
₹ देवेहि सम्म आराहितेत्तिकटु दिवे सुरभिगंधोदयवासे खुढे दसवने कुसुमे निवादिते चेलुक्खेवि कते दिखे य गीतगंधव-13 णिणादे कते यावि होत्था । तए णं से कण्हे कल्लं पाउ जाव चंदपरिक्खित्ते वारवई मज्झमाण सामितेण निग्गच्छति, तत्थ य
एग पुरिसं पासइ-जुनं जाव जराकिलंत महइमहालयाओ इदुगरासीओ एगमेग इट्टगं गहाय बहिया रस्थापहातो अंतो गिर्हसि दअणुप्पवेसमाण, तए णं कण्हे तस्स अणुकंपणदुयाए हत्थिखंधवरगते चेव एग इट्टगं गेहति महिना जाव गिर्हसि अणुप्पवेसेति, | तए ण अणेगेहिं परिससहस्सेहिं से इट्टगरासी खिप्पामेव अणुप्पवेसिते, तते ण से कण्हे जाव सामि चंदति बंदित्ता अवसेसे अणगारे वंदति बंदित्ता गयरमाल अपासमाणे सामितेण एवं वदासी- कहि गं भंते ! से मम सहोदरए ? जेण बंदामि, तए ण सामी ॥३६॥ एवं वयासी-साहिते ण कण्हा! गयसूमालेणं अणगारेणं अप्पणो अद्वे, कहं गं मैते !०१, एवं खलु कण्हा! गयम्माले कल्लं सव्वं | कहेति जाब विहरति । तए ण ते एगे पुरिसे पासति, पासित्ता आसुरुत्ते दिसालोयं करेचा सरसं मचियं गेहति सेस ते चेव जाव
+3
Ee
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [७२४/७२४], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
चूर्णी उपोद्घातनियुक्ती ॥३६५॥
Recist
दीप अनुक्रम
पहाणे । एवं खलु कण्हा ! जाव साहिते अप्पणो अढे । तए कण्हे एवं बयासी-केस ण भंते ! से पुरिसे अपस्थिय जाव परिव-I&ा भयाध्य ज्जिते जेणं ममं सहोदरस्स अणगारस्स एवं करेति ?, सामी आह-मा णं कण्हा ! तुम तस्स पयोसमावज्जाहि, एवं खलु कण्हा सोमिलवृत्ते | तेणं तस्स साहेज्जे दिन, कह ण भंते 10, से गूण कण्हा तुम ममं बंदए आगच्छमाणे एग परिसंत चेव जाव पवेसिते, जहाण गजसुकुमातुमे तस्स साहेज्जे दिने एवामेव गयमूमालस्सवि अणेगभवसयसहस्ससंचित कम्मं उदीरमाणेणं बहुकम्मनिज्जरत्थकारे दिले, से.
लवृत्त से भैते ! पुरिसे मए कहं जाणियव्वे .जेणे कण्हा तुम णगरं अणुपविसमाणं पासिता ठितए चेव हिदयभेदेण काल करिस्सइ तं नं जाणेज्जासि, एस मे, से णं अपविट्ठाणे नरए परइत्ताए उत्रबज्जिहि । तए ण से कण्हे सामि वंदित्ता जाच जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, सोमिलेवि य ण पभाते चितेति एवं खलु कण्हे अरहतो वंदति, निग्गते ण, णातमेतं अरहता, सिमेत भविस्सइ कण्हस्स, तं ण णज्जति कण्हे ममं केणइ कुमारेण वा मारेस्सतिचिकटु भीते ५ सगाओ गिहाओ पडिणिक्खमति २ चारवतीए इतो ततो आधावमाणे कण्हस्स पुरतो सपडिदिसि हव्यमागते, तए णं से कण्हं सहसा पासति पासित्ता भीते ५ जाव कालं करेति २ धरणि जाव संनिवतिते, कण्हेणं दिट्टे, पातो, तएणं कण्हे आसुरुत्ते जाव एवं बयासी-एस णं भो जाव परिवज्निते है जेण ममं सहोदरे अणगारे अकाले चेव जीविताओ ववरोविते, तं बारवतीए एतं घोसेचा पाणेहि एतं अछविछ कारेत्ता तं ठाणं पाणिएण अन्भुक्खेत्ता जाव पच्चप्पिणह, तेऽवि तहेव करेंति । तए णं कण्हे तस्स सबस्सहरणं करेति, करेत्ता पुत्तदारे य से है।
॥३६५॥ वस्से ठवेति, ठवेत्ता समुहविजयादीणतेण गंता सव्वं परिकहेति, तए णं तं दसारकुलं पवगवेगवित्तासित पिब णागभवणं वाउलीभूतं गतसमालस्स मणोरहचरिमनिवर्द्ध च, एवं कण्हसमासणं च गम्भं च जं बालभावं च जोवणं च पव्वजं च पडिमं च जाव।
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
आयं [१२३...]]]
अध्ययनं H
मूलं [- / गाथा-1, निर्युक्तिः [७२१-२६/७२५-७२६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णी उपोद्घात निर्युक्तौ
॥३६६ ॥
नेव्वाण चरिमनिबंधं च उक्तिमार्ग २ महता २ सरेण कुडकुडकुदस्स परुनं जाव कालंतरेण अप्पसोगं जावं यापि होत्था । एवं अंतगडदसासु ॥ निमित्तं --
दंडकससत्थरज्जू ||८ -२|७२५ || मुत्तपुरिसनिरोहे ० ॥८-३।७२६ ॥ दंडेहिं ताव पिट्टितो जाव मतो, एवं निमित्तं, एवं सन्वत्थ विभासा । एतेहिं निमित्तेहिं वाघातो आउयस्स भवति, आहारे जो अतिबहुचेण मरति, तत्थ मरुएण दितो सो अट्ठारस चारा भुचा पच्छा लेण मतो। अन्नो अणहारेण मतो विसेण वा संजुत जो आहार भुजति । वेयणा अच्छिवेयणादी सीतादी वा परघातो विज्जुए वा तडीए वा पेलियस्स फासे जहा तयाविसेणं सप्पेर्ण छितेणं विसं चढति, जहां वा यंभदत्तस्स इत्थरयणं तंमि मते पुषेण भणितं मए सद्धिं भोगे जाहि तीए भणितं तरसि ण पत्तियति, ताहे तीए घोडतो आणाविओ, पट्टीए आलिद्धो, कसओ कार्ड गीतो जाव सब्बो गलितो, ताहे सुकक्खणं मतो, तहवि ण पत्तियत्ति, ताहे लोहपुरिसो आणीतो वाहे उबसन्तो जाब विलीणो । आणापाणुनिरोहेणं जहा बगलगादी। एस सत्तविहो आयुउवघातो । एवमादीहिं जे सोवकमा तेसिं आयुवाघातो भवति, सेसाणं ण उनकामिज्जति । के पुण सोबकमा निरुवकमा वा १, नेरइया देवा असंखज्जवासाउमा तिरिया मणुया य उत्तमपुरिसा चरिमसरीरति, सेसा भतिया, देवा णारया असंखेज्जवासाउया य छम्माससे साउथा आउमाणि बंधति, परभविआआणि सेसा तिभागसेसाउया निरुवकमा, जे ते सोवकमा ते सिया विभागसेसाउआ परमविआयुअं पकरेंति सिय तिभामतिभाग वसेाउजा सिअ विभाग ३ सेसाउआ पकति कोऽनयोः प्रतिविशेषः १, इमाणं संनिचयो तिब्बो इमाणं सो सिढिलो, सोवकमस्स उचवसमेतस्स आरद्धं जत्थ रुब्वा (च ) ति तत्थ ओयट्टिज्जति, निरुवकमेण अवस्सं तं ठाणं पावियच्वं । विभागो
अथ आयु:भेदाः वर्णयते
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निमित्तैरायुर्वेदः
।। ३६६ ।।
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [७२५-७२६/७२५-७२६], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सुत्रांक
श्री लावीप्मार्थः, अणेगे विभागा होति जावतीएहिं आउयं विभागं देति । जो एगसि भाए वदृति तत्थ आलावतो, बे जीवे असंखज्जर आवश्यकामा पनि सम्बनिरुदो साउते सव्वमहतीए आउयधगद्वाए चरिमकालसमयसि बदमाणे जहनिय सो अपज्मचनिष्पति निषति. दशकाल - चूर्णी एसस्स भागस्स हेवा ण तरति आउयं मंघिउ, तेण य सवजीवाणं आउबंधो अणाभोगभिनिवित्तिओ, तेण सो अंतोमुहुत्तिओ का उपाघाताला आवलियाएबि अंतो । आह-जति आउयपंधो उवकामिज्जति तेण कयविपणासो अकयम्भागमो य होइ, कई ?, जेण वाससंघ नियुक्ती
| आउयं बद्धं, सो त सव्वं आउ न भुंजति जहा तेण कयविप्पणासो, तस्स य तत्थं मारिब्बए * आरओ मरति तेणं अकयम्भागमो ॥३६॥ भवति, एस यदि दोसो भवति तो णस्थि मोक्खो, मोक्षगयावि पडतु, उच्यते-नायमस्माकमुपालभः, एकोवि दोसो न
भवति, कई !, जेण तं सब वेदेति, कहं', पलालपट्टिदिद्रुतसाहणा, जहा पलालबट्टी हत्यसयदीहा अंते पलीविया चिरेण उम्झति, पाटिया तक्खणा व उज्नति, एसो से उवणतो, अहबा अग्गिकव्याधिनिदर्शनात फलपाचननिदर्शनाम्चेति । इयाणि देशकालकालः । देशकालो नाम प्रस्तावः । सो दुबिहा-पसस्थो अप्पसरथो
निम्मच्छियं महुं० ॥6--4/७२९॥ पसत्थो जहा मिक्खस्स कालो, सज्झायस्स तवस्स णाणादोणं वा । एवमादि ।। तत्थ
निघूमगं च गाम० ॥८-४७२८॥ महिलातित्थं णाम निवाणतडं । एस पसत्थो देसकालो । इयाणि कालकालो, कालकालो नाम मरणकालो, अने भणति-कालकस्य सत्त्वस्य कालधर्मणा संयोगो यः स कालकालो भवति । तत्थ कालकाले
कालेण कतो कालो ॥८-६७२९।। पमाणकालो दुविहो-दिवसप्पमाणकाले य रचिप्पमाणकाले य, चउपोरुसिये दिवसे चतुपोरुसिया राती भवति, उक्कोसिया अड्डपंचममुहुचा दिवसस्स वा रातीए वा पोरुसी भवति, जहनिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा
दीप अनुक्रम
४
॥३६७॥
अथ 'काल'द्वार वर्णनं आरभ्यते
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [७२९/७२९-७३३], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
नियुक्ती
दीप अनुक्रम
18| रातीए वा पोरुसी भवति, जदाणं भंते ! उक्कोसिया अपंचममुहुना दिवसस्स वा रातीए वा पोरुसी भवति तदा ण कतिभाग-18 कालद्वार
मुहुत्तभागेण परिहायमाणी य २ जहमिता तिमुहुत्ता दिवसस्स वा रातीए वा पोरुसी भवति?, जया वा जहनिया तिमहत्ता दिवचूणों
IPसस्स वा रातीए वा पोरुसी हवति तदा णं कतिभागमुहुत्तजोगणं परिवद्धमाणी य २ उपोसिया अड्डपंचममुहुचा दिवसस्स वा उपोद्घात
| रातीए वा पोरुसी भवति', सुदंसणा! जदाणं उक्कोसिया अपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा रातीए वा पोरुसी भवति तदा गं बा-18
वीससयभागमुत्तमागेणं परिहायमाणी २ जहथिया तिमुहुना दिवसस्स वा रातीए या पोरुसी भवति, जया वा जहनिया ॥३६८|| | तिरहुत्ता दिवसस्स वा रातीए या पोरुसी भवति तया णं बावीससतभागमुहत्तभागेण परिवड्डमाणी २ उकोसिया अपंचममुहुत्ता
दिवसस्स राईए वा पोरुसी भवइ । कया णं भंते ! उकोसिया अपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा रावीए वा पोरुसी भवति', कया वा जहष्णा तिमुहुत्ता दिवसस्स वा रातीए वा पोरुसी भवति', सुदसणा ! जया गं उकोसए अट्ठारसमुहुने दिवसे हवइ जहनिया दुवालसमुहत्ता राती हबइ तदा णं उकोसिया अडपंचममुहुत्ता दिवसस्म [पा रातीए वा ] पोरुसी भवति, जहनिया तिमहत्ता | रातीए पोरुसी भवति, जदा वा उकासिया अट्ठारसमुहुचा राती भवति जहण दुवालसमुहले दिवसे भवति तदा ण उकोसिता
अड्डपंचममुहुना रातीए पोरुसो भवति, जहनिया तिमुहुत्ता दिवसस्स पोरुसी भवति ।। कया णं भंते ! उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते 10 दिवसे भवति ? जहनिया दुवालसमुहता राती भपति, कदा वा उकासिया अहारसमुहुत्ता राती भवति ? जहन्नए दुवालसमुहले 151 दिदिवसे भवति १, सुदंसणा! आसाढपुनिमाए उकोसए अट्ठारसमुहुने दिवसे मवति, जहनिया दुवालसमुहत्ता रादी भवति, पोस-18॥३६८॥
पुचिमाए णं उफोसिया अट्ठारसमुहत्ता राती भवति, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति । अस्थि ण भंते ! दिवसा य रातीतो य |
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दीप अनुक्रम H
भाग - 4 "आवश्यक" - मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूलं [- /गाथा -1, निर्युक्तिः ७२९/२९-३३ आयं [१२३...]]
अध्ययनं H.
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णी उपोद्घात नियुक्ती
।।३६९ ।।
समा चैव भवति, हंता अस्थि, कया णं भंते! दिवसा य रातीतो यसमा नेव भवंति ?, सुदंसणा ! चत्तासोपुनिमासु णं एत्थ णं दिवसा य रातीओ यसमा चैव भवति, पन्नरसमुने दिवसे पश्नरसमुहुत्ता राती भवति चतुभागमुहुत्त भागुणा चउमुहुत्ता दिवसस्स वा राती वा पोरुसी भवति । सेत पमाणकाळे । एवं जहा महावले सवं ॥ कालो जो कालतो वमो, भावका छन् भावाणं जस्स जस्स जो कालो ठितिविसेसो पज्जवा सा, एसो वा एगगुणकालमादी, तत्थ ओदतितो अत्थेगतितो अणादीओ अपज्जवसितो, अत्थेगतितो अणादीतो सपज्जवसितो, अत्थेगतितो सादीओ सपज्जवसितो य, खतितो सादीओ अपज्जवसितो, णवरं दाणादिलद्विपणयं चरितं च सादीओ सपज्जबसिदो, खतोवसमिओ जहा उदयितो, पारिणामिओ दुविहो- सादीओ वा सपज्जवसिओ पुग्गलस्थिकावादी, अणादयो वा अपज्जवसितो आगासादी, एत्थ जा जस्स भावस्स संचिट्टणाठिती अंतरं वा सो भावकालो, अहवा णाणदंसणचरितणं जो कालो सो भावकालो, तत्थ उदयियो भावो अभवियाणं मिच्छादयो भावा अणादीया अपज्जवसिया, भवियाणं ते चैव मिच्छत्तादयो अणादीया सपज्जवसिया, बारगादी सादी सपज्जव०, उवसमिओ पुण उवसामगसेडिमादी पड़च्च सादी सपज्जवसितो, खइओ सम्मत्तणाणदंसणसिद्धत्चाई पटुच्च सादी अपज्जवसितो, खओवसमिओ णाणाई केवलबज्जा सादी सपज्जवसिता, मतिअन्नाण- सुयअन्नाणा भव्वाणं अणादी सपज्जवसिया, ताई चैव अभवाणं अणादी अपज्ज०, पारिणामिओ पोग्गलधम्मो सादी सपज्जय०, धम्माधम्मागासत्थिकाया पारिणामिएन भावेग अणादी अज्जप, एस भावकालो ।
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क्षेत्रद्वारे महासेन वने सूत्र
रचना
।।३६९।।
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [७२९/७२९-७३३], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
श्री
एत्थ कतरेण अधिकारो, एत्थ पमाणकालेण अधिकारी, तत्थवि दिवसपमाणकालेण, तत्थवि पढमपोरुसीए मासितं,15 चूर्णी
दिएस तुसहत्थो, भावकालेवि सति तेणं खतोवसमिएण य अधिकारो, सेसाण विकोवणडाए मणिताणिति ।। इयाणि खेरी, क्षितो त्राणं उपोद्घात
क्षेत्र, तं चउबिह- नामस्थापने पूर्ववत् । दव्वखेत महसेणवणुज्जाणे, भावखे गणधरा नियुक्ती ___वहसाहसुद्ध०॥८-११।७३४।। खइयम्मिः ॥८-१२||७३५।। तं कह गहित गोयमसामिणा ?, तिविह(तीहिं) निसज्जाहिर
द्रचोदस पुत्वाणि उप्पादिताणि । निसज्जा णाम पणिवतिऊण जा पुच्छा । किं च वागरेति भगवं? 'उप्पने विगते धुर्वे', एताओ II ॥३७०॥
तिमि निसज्जाओ, उप्पन्नेत्ति जे उप्पनिमा भावा ते उवागच्छंति, विगतेत्ति जे विगतिस्सभावा ते विगच्छंति, धुवा जे अविणासम्मिणो, सेसाण अणियता णिसज्जा, ते य ताणि पुच्छिऊण एगतमं ते सुत्तं करेति जारिसं जहा भणित । ततो भगवं अणु मणसी करेति, ताहे सको वारनामे थाले दिवगंधगंधिकाणि चुनाणि छोढण सामि उवगतो, ताहे सामी सीहासणाओ उड्डेचार पडिपुण्णमृद्धि केसराणं गेण्हति, ताहे गोयमसामीप्पमुहा एकारसाव गणहरा तीसी ओणता परिवाडीए ठायंति, ताहे देवा आउ- ३७०।। ज्जगीयसहं निरंभति, पुवं तित्थं गोयमसामिस्स दब्वेहिं पज्जबेहि अणुजाणामिति चुम्माणि सीसे छुभति, ततो देवताणिवि
चुन्नवास पुष्फवासं च वासंति, गणं च सुहम्मसामिस्स धुरे ठावेता ण अणुजाणति । एवं सामातियं गोयमसामिस्स अणंतरणिलागतं, सेस परंपराए । एवं सामातियं निग्गत, खेत्तत्तिदारं गतं । इयाणिं पुरिसेत्ति दारं । पुरै नाम सरीरं, पुरे शयनात् पुरुषा,
तस्स दसपिहो निक्खेवो । णामढवणाओ गताओ।
दीप अनुक्रम
ICC
ला
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [७३६/७३६-७४१], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चूणीं।
सुत्रांव
श्री
अर्थ पुरुष दब्वाभिलाव०॥८-१३।७३६॥ दवपुरिसो दुविहो- आगमतो नोआगमतो य, आगमतो तहेव, गोआगमतो तिविधोआवश्यका
मम्मण IPजाणगसरीर ३, पतिरित्तो तिविहो- एगभपिओ बद्धाउओ अभिमुहनामगोतो, अहवा दवपुरिसो दुविहो-मूलगुणनिव्वत्तपुरिसो| 2ी उपोद्घात य उत्तरगुणनिव्वत्तपुरिसो य, मूले सरीरं उत्तरे चित्रक, अभिलाव'रिसो घडो पडो रधो, किंव(चिंध)पुरिसो महिला पुरिसनेवत्येण
है नेवत्थिता, प्रजननसहितो वा नपुंसका, बेदपुरिसो पुरिसवेदं ना वेदेति, धम्मपुरितो साधू, अत्थपुरिसो मम्मणपणिओ, कोऽर्थः-*
सारक्खणपिंडणसमत्थो । ॥३७॥
तेणं कालेणं तेण समएणं रायगिहे सेणिओ चेल्लणा देवी, मम्मणो पंनिओ, अणेगा तस्स पनवाडा, अन्नदा महासरिसं पिडति, राया य ओलोयणे देवीय समं अच्छति, ण कोति लोगो संचरति । ताहे रायाणि पेच्छति मणूस गदीओ बुडित्ताण किंपि
गेण्हतं, ताहे भणति-"मासरष्टभिरहा च. पूर्वेण वयसाऽऽयुपा । तत् कर्तव्यं मनुष्येण, यस्यांते सुखमेधते ॥१॥" सो य अल्लग उकति, मा पणएण उच्छाइज्जिहितिीत्त । देवी रायाण भणति-जहा णदीओ तहा रायाणोऽवि, कहं , जहा णदीतो समुई पाणियमरितं पपिसंति, एवं तुम्भेऽपि ईसराणं देह, ण दमगदुग्गयाणं, सो भणति-कस्स देमि १, ताहे सा तं दरिसेति, ताहे
मणुस्सेहिं आणावितो, रमा पुच्छितो, सो भणति-पालो मि नितिज्जओ पत्थि, राया भणति--जाह गोमंडले, जो पहाणो पतिल्लो 18 तं से देह, तेहिं दरिसिता, सो भणति--ण एत्थ तस्स सरिसतो अत्थि, तो केरिसओ तुज्झ, मणसा गता, जाव रनो घराणुरूवं घरं ॥३७॥
भतिणीता, तेण जेमाविता, ताहे से तेण सिरिघरे सव्वरयणामो बहलो दरिसितो चितिओ य अद्धकतओ य, तेहिं रमो निवेदितं,
दीप अनुक्रम
XXर
अथ 'मम्मण श्रेष्ठिन: कथानक
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूलं [- / गाथा-], निर्युक्ति: [७३६/७३६-७४१,
भाष्यं [ १२३...]
अध्ययनं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
आवश्यक
चूर्णां उपोद्घात नियुक्ती
॥३७२॥
राया विम्हिओ भगति--अपि ता तं पेच्छामि, पनिओ भणति--सत्तमे दिवसे, ताहे जहा सालिभद्देण आयोतितं एवं तेणवि सकारेत्ता संतेपुरं रायाणं तोसिय घरं अतिणीओ मणिरयणपणासितधकारं, एगं च निम्मायं, बीयस्स व सिंगाणि कुकह पट्टी य अणिम्मविता, ताहे विहितो भणति सच्चे मम णत्थि एरिसो, धन्नोऽहं जस्स मे एरिसा मणूसा, ताहे उस्सुको कतो, राया तेण विपुलेहिं मणिरयणेहिं पूजिओ एस अत्थपुरिसो || भोगपुरियो चकवट्टी । भावपुरिसो जो जीवो अवगतवेदो पगतित्थो । एत्थं भावपुरिसेण बेयपुरिसेण य अधिकारो, सेसा विकोवणट्टाए । भावपुरिसो सामी वेदपुरिसो गोयमसामी । पुरिसेति दारं गतं ।। याणि कारणं तं चउब्विहं णामडवणाओ गताओ, दव्वकारणं दुविहं तदव्वकारणं अनदव्वकारणं च तद्द्द्रव्यकारणं घटस्य मृत्पिंडः, अन्यद्रव्यकारणं चक्रदंडसूत्रोदकपुरुषप्रयत्नादयः, अथवा द्रव्यकारणं द्विविधं समवायिकारणं असमवायिकारणं च, समवातिकारणं पटस्य तंतवः, तंतुसु पडो समवेत इति, असमवायिकारणं वेमनल का अंछनिकातुरिविलेखनादीनि अहवा निमित्तकारणं च नैमित्तिककारणं च कडस्स वीरणा निमित्तं, नैमित्तिकानि पुरुषप्रयत्नरज्जुकीलकादीनि, एवं घटपटादीनामपि । अथवा इदं षड्विधं द्रव्यकारणं, कारणति वा कारगंति वा साहति वा एगट्ठा, तंजहा कर्ता करणं कर्म संप्रदानमपादानं संनिधानमिति, तत्र निदर्शनं घटभावे कर्ता कुलालः, क्रियानिवर्तक इति, करणं दंडाद्युपकरणं, क्रियानिवर्तनमिति, कर्मणि निर्वत्यों घट एव, क्रियमाणक्रियया व्याप्यमान इति, संप्रदानं यदर्थं करणं, यानिमित्तमसौ क्रियते, क्रियया व्याप्यते यनिमित्तमिति, यत्प्रयोजनमंगीकृत्येत्यर्थः, अपादानं मृत्, पिण्डेऽवधिरिति, सन्निधानमधिकरणमाधार इति, स च देशदेशकालादि, यथा
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कारणद्वारं
॥३७२ ॥
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [७३६/७३६-७४१], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
XA5
सत्राक
नियुक्तौदा
दीप अनुक्रम
. चक्रमस्तकादौ स्वप्रस्तावे च निष्पद्यते घट इति, एवं पटादावपि भाव्यं । भावकारणं दुविहं-पसत्यं अपसत्थं च ।
प्रत्यय आवश्यक
लवणद्वारे... चूणौँ
___तत्थ जै अप्पसत्थं तं संसारस्स, तं एगविहं वा दुविहं वा तिविहं वा चउ०पंच० छव्विहं वा, एवमादि बहुप्पगारं वा, तत्पर उपोद्घातात असंजमो संसारस्स एगविहं कारण, पयत्तवतो पावकम्मेहितो नियत्ती संजमो, तविवरीतो असंजमो, दुविहे-अमाण अविरती य,
| तिविहं अनाणं मिच्छत्तं अविरती य, एवं विभासा । पसत्थं मोक्खकारण, एगो संजमो, दोन्नि विज्जा चरणं च, त्रीणि शानद
|शनचारित्राणि, एवं विपरीत विभासा । अहवा जत्तियाणि असंजमट्ठाणाणि ताणि संसारस्स, संजमट्ठाणाणि मोक्खस्सति, एत्था ॥३७३॥ द्र पसत्यभावकारणेण अहिगारो। कह:
तित्थगरो किं कारण भा०॥८-१९७४२॥ तं किह वेदेयवं, अगिलाए धम कहेंतेणं पव्वातेण सिक्खातेण पाठ तंच कहिं बर्द्ध-किह वा बर्द्ध, तित्थगरभवग्गणाओ ततिय भवग्गहणं ओसकातित्ताण, नियमा मणुयगतीए, नियमा सम्मदिड्डी तिण्डं अबतरो संजतो वा असंजतो वा मीसो वा, इत्थी वा पुरिसो वा पुरिसणघुसतो चा, सुकलेसो उत्तमसंघयणो अच्चंत विसु-४
झमाणपरिणामो, तत्थ बद्धं वेदेयव्यं, कहं बद्धं . वीसाए कारणेहि पद्धं । | नियमा०॥८-२११७४|| गोयममादा सामादियं ॥८-२२१७४५।। णाणनिमित्त, णाणं किं निमिर्च , सुंदरमंगलाण |
भावाणं उवलद्धिनिमिचं, सुंदरमंगुलभावा किं निमित्र उपलब्भते , तेहिं उवलद्धेहिं पविची निवित्ती य भवति, सुमेसु पविती ॥३७३॥ | असुभेसु निवित्ती, पवित्तिणिविचिओ य संजमतवनिमित्त, संजमतवा अणासवबोदाणनिमित्तं, अणासववोदाणा अकिरियानिमित,
अथ लक्षण-द्वारं कथयते
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [७४५/७४५-७४८], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
GE15
नियर
श्री 18 अकिरिया असरीरतानिमित्तं, असरीरता सिद्धिनिमित्त, सिद्धी अब्बाबाहकारण इत्यर्थ सामाइयं सुणंति । अहवा ताओ गाहाओ। आवश्यक कारणति दारं गतं । इयाणि पच्चओ, सो चउव्विहो---णामढवणाओ गताओ। दवपच्चओ जो कम्हिवि संकिजबि सोडू चूर्णी
तेसिं पच्चयं करेति, तेल्ल तत्तमासगं उक्कडुति, जति अकारी तो ण डझति, फलादिणा वा दव्वेण पच्चयं करेति, दव्वपच्चओ उपोद्घात
| एवमादि, भावपच्चतो तिविहो- ओहिमण केवलणाणं च, अहवा को पच्चओ अरहतो जेण मते जहत्थमिदं भणितं, को वास दिगणहराणं जेण एस जहत्थं भणति तो अम्हे णिसामेमो, एवमेतं न अन्नहा इति', भन्नति।।३७४॥
केवलणाणित्ति अहं० ॥८-२७॥७५०।। एतसिपि पच्चयो, 'वीतरागो हि सव्वन्नू , मिच्छा व पभासति । जम्हा सम्हा बती तस्स, तच्चा भूतत्थदरिसणी॥१॥ति । पच्चएत्ति दारं गतं । इयाणि लक्खणेत्ति दारं, लक्खिज्जति जेण तं लक्खणं, त| |च चोइसविहं, नामस्थापने पूर्ववत्, दव्वलक्षणं जहा अग्गिस्स उण्हता खंडस्स मधुरता एवमादि, अहवा आपो द्रवाः स्थैर्यवती वा पृथिवी [वृत्तं] सारिसलक्खणं यथा- अस्मिन् देशे घटा ऊर्ध्वग्रीवा अधस्तात्परिमण्डला विकुक्षिणः तथाऽन्येष्वपि देशेषु, सामा-* न्यलक्षणं अप्पितववहारिगं अणप्पितवहारिगं च, अप्पितववहारिंग जहा पढमसमयसिद्धो पढमसमयसिद्धस्स सिद्धत्तण अप्पि४/तववहारितो, अबतरसामण समाण इत्यर्थः, अमो अणप्पितववहारिको, तेण सामनेग ण समाणो, अनेण समान इत्यर्थः, एवं 15॥३७॥
घटपटरथसर्पपाया भावाः । अहवा इमो पगारो- गमित प्रदर्शित उपनीतं अर्पितमित्यर्थः, अर्पितववहारिगं जहा सिज्ममाणो |आदिडा एगसमयसिद्धस्स सिद्भतणेण समाणो, अणपितयवहारिगं जहा एगो सरिसयो तहा बहवे, जहा बहवे तहा एगो सरि
दीप अनुक्रम
CARE
SEASESSIS
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [७५०/७५०-७५५], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
दसवो, एस चितिओ पगारो सामणलक्समस्स । आगारलक्खणं अणेगविहं गंतुमागारं देति भोत्तुमागारं देति सोत्तुमागारं देति,
प लक्षणद्वार आवश्यक वक्तुं द्रष्टुमित्यादि, कई गंतुं -अवलोयणा दिसाण वियंभणं साडगस्स संठवणा । आसणसिदिलीकरणं पट्टितलिंगाणि चचारि चूणा ॥१॥ भो तुं-निज्झाति मायणविधि बदणं पस्संदते य से बहुसो । दिट्ठीय भमति तत्थेव परति छायस्स (बुभुक्षितस्य) लिंगाणि
पावडू ॥१॥ रसण वा विक्रियते तताहु वा पुलोएति । सोनु जहा 'ओहीरते य णिहाति तस्सविय सइयकामयंतस्स । दुहियस्स नियुक्ती
है ओमिलाइ मज्झत्य वीयरामस्स ॥१॥ द्रष्टुं जहा- आगारेहिं सुमो गाणावन्नेहिं चक्खुरागेहिं । जणमणुरत्तविरत्तं पहङ्कचित्तं च ॥३७५॥ दुटुं च ॥१॥ आकाररिंगतै वैः, क्रियाभिर्भाषितेन च । नेत्रवक्त्रविकारैश्व, गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः॥ २॥ अच्छीणि चेव जाणंति.
॥ ३ ॥ रुद्रुस्स खरा दिट्ठी उप्पलधवला पसन्नचित्तस्स । दुहियस्स ओमिलायति गंतुमणस्सुस्मुया होति ॥ ४॥ गंतुं पडिआमतलक्खणं चउबिह-पुरतो वाहतं पच्छतो वाहतं दुहतो वाहतं दुहतो अवाहतं, पुरतो बाहतं जहा- जीवे भंते ! नेरतिते ! नेरतिते |
जीवे?, गोयमा ! जीवे सिया नेरतिते सिय अनेरतिते नेरतिते पुण नियमा जीये। पच्छतो बाहयं जहा 'जीवति भंते ! जीवे ? जीये टू जीवति ?, गोपमा! जीवति ता नियमा जीवे, जीवे पुण सिय जीवति सिय नो जीवति', दुहओ वाहयं जहा 'भवसिद्धिए गं
भंते ! नेरतिते ? नेरइए भवसिद्धिए?, गोयमा ! भवसिद्धिए सिय नेरतिते सिय अनेरतिते, नेरतितेऽवि सिय भवासद्धिए सिम अभव 18 सिद्धिते, दुहतो अव्याहतं जहा-जीवे मंते ! जीवे?,जीचे जीवे', गोयमा !जीवे नियमा जीवे, किमुक्तं भवति-जीव उपयोगा, उपयो-18॥३७५५ दिगोऽपि जीवाणाणचीलक्षणं चउबिह, दब्बतो ४, दवणाणती दुबिहा-तइवणाणती अन्नदवणाणची य, तथ्वणाणची जहा
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [७५०/७५०-७५५], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
लक्षणद्वार
प्रत
दीप अनुक्रम
परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलस्स दवतो णाणा, अन्नदवणाणची परमाणुपोग्गले दुपदेसियादीण दव्वतो नाणा, एवं दुपदेसि- आवश्यक याणवि भावेयव्यं, एवं खेचओ एगपदेसोगाढादीणा, कालओ एगसमयहितीगादीणा, भावओ एगगुणकालगादीणा तन्माणत्ती
IWI अभदबजाणती य भावेयब्बाअग्ने भणंति-तब्बणाणती जहा परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलस्स, (अण्ण) दश्वतो अणाणची परमाणुनियक्तोपोग्गले परमाणुपोग्गलवतिरित्तस्स, दबतो गाणचीअणाणत्तिउभयादेसेणं अवत्तव्यं, एवं दुषएसियादि जाब दसपदेसितो तिधा
ह भाणियव्यो, एवं तुल्लअसंखेज्जपदसिओ, एवं तुल्लअणतपदेसिओ उ, खेसतो एगपदेसोगाढे पोग्गले एगपदेसोगाढवतिरित्तस्स
पोग्गलस्स खेत्तओ णाणशी एवं जाव तुल्लअसंखेज्जपएसोगादेत्ति, एवं कालतोपि भाणियवं, भावतो एगगुणकालगादी, जं से 8 णाण सा से णाणची, जं से अणाणत्तं सा से अनाणत्तीति ।
निमिचलक्षण अटुंगमहानिमित्त, जहा- भोमुप्पातं सुविणंतालक्खं अंग सरं लक्खणं बंजणं, उप्पादलक्षणं अप्पितववहारितं अणप्पियववहारियं, अप्पियवबहारियंति वा विसेसादिट्ठति वा एगट्ठा, तविवरीतमियर, तत्थ अप्पितं जहा पढमसमयसिद्धो सिद्धत्तणेण उप्पनो, अणप्पितो जो जेण भावेण उप्पभो। विगतिलक्खणं दुबिह-अप्पितवय० अणप्पि०, अप्पियं जहा ६ चरिमसमयभवसिद्धिओ भवसिद्धियत्तणेणं विगतो, अणप्पितं जो जेण भावेण विगतो। बीरियलक्षण, वैरियति वा सामत्थंति वा है सनीति वा एगट्ठा, जहा वायामलक्षणो जीवो, तेसु तेसु भावसु यस्मादुत्पद्यते, विरियंति बलं जीवस्स लक्खणं, जं च जस्स
सामत्थं दय्यस्स चित्तरूवं जहा विरियं महोसहादीणति । भावलक्षणं छविह-उदतितो उदयलक्खणो, उवसामितो उपसमलक्षणो,
॥३७६||
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [७५०/७५०-७५५], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
खतियो अणुप्पत्तिलक्षणो, खतोबसमितो मसिलक्खणो, परिणामितो परिणामलक्षणो, सनिवातितो संजोगलक्षणो, सामातिय -II पडच भावलक्षणं भनति, अहवापि भावलक्खणं चतुविहं सहहणमादीति, संजहा-सदहणलक्षणं जाणणालक्खणं विरतिल-II लक्षणचूणी खणं विरताविरतिलक्खणं, सद्दहानलक्षणं सम्मत्तसामाइयं जाणणालक्षणं सुतसामातियं विरतिलकखणं चरित्तसा०४ नयाश्च उपोद्घात विरताविरतिलक्षणं चरित्ताचरित्तसामाइयं, तित्थगरा एवं चउलक्षणसंजुतं सामाइयं परिकहति । तेऽवि गोयमसामिप्पभितयो। नियुक्ती जम्हा चतुलक्षणसंजत्तमेव तित्थकरो भासति तेण तहेव निसामेति । लक्खणं गतं ॥ ॥३७७॥181 इयाणि नए समोतारणा, नयंतीति नया, वत्थुतत्तं जहा अवचोहगोयरं पावयंतित्ति, अन्ने भणंति-नयंतीति नयाः कारगाः
दाव्यंजगाः प्रकाशका इत्यर्थः, ते य सत्त-णेगमो संगहो बवहारो उज्जुसुतो सो समभिरूढो एवंभूतो य । एतेसि लक्षणं विभासि
तब्ब, तत्थ णेगेहिं माणेहि मिणतिति गमो, ण एगगमो णिरुचविहाणेण, माणति वा परिच्छेदोत्ति वा गहणपगारोचि वा एगट्ठा, मिणतित्ति या परच्छिंदवित्ति वा गिण्हतित्ति वा एगट्ठा, सामन्त्रमणेगप्पगारं बिसेस वा अणेगप्पगार जेण गमेति एत्य पत्थयवसहिपएसदिङतेहिं तेण गमो, घटदिहतेण वा, जहा-घटो णामट्ठवणादब्वभावभेदभिन्नो वत्थुपरिणामो पृथुबुनोदराधा-ल
कारो सौवर्णः मार्तिकः पाटलिपुत्रीयः वासंतकः पीतः कृष्णश्चेत्येवमादि भाष्यं । 8 संगहितपिडितत्धं०॥ ८.३३ ।। ७५६ ॥ समस्तो गृहीता-उपात्तः संगहीतः, कथं, पिंडितः संमीलिता क्रोडीकता ॥२७॥
अभेदीकृतः सामान्यीकृत इत्यर्थः, कोऽसौ ?-अर्यत इत्यर्थः, संगहितो पिंडितो अत्यो जमेतं संगहितपिडितत्थं । किं तं -संग
दीप अनुक्रम
RECAUSESSALSA Rit
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [७५६/७५६-७५८], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
धिकार
प्रत सत्राक
उपोद्घाता नियुक्ती
स्वयण-संगहभणण, एवं समासतो ब्रुचते तद्विदा, किमुक्तं भवति -सामान्यार्थावधारणं विशेषार्थावधारणं वा, यदुक्तं तत्र || नयाआवश्यक | सामान्यविशेषयोरपृथक्त्यात् सामान्यस्यैवावधारणे विशेषस्य तदंतर्भूतस्यावधारणमेवेति सामान्यमेव संगृह्णाति संग्रहवचनं, यथा चूर्णी | पूर्वाभिहितः अनेकप्रकारोऽपि घटः मानादिभेदेवि पटसामान्यान्तर्भूत इत्यभिन्न इति ।
बच्चति विणिच्छियत्थं यवहारो सब्बदब्बसु । सामान्येन-घटत्वमात्रेण संव्यवहतुं न शक्यत इति विनिश्चयार्थ |
ब्रजति व्यवहारः, अधिकश्चयो निश्चयः-सामान्यं विगतो निश्चयः विनिश्रयः-निःसामान्यभावः तन्निमित्रं ब्रजति गच्छति सर्वद्र॥३७८॥1व्यविषये, विशेषमात्राबलंबी व्यवहार इत्यर्थः, यथा घटमानयेत्युक्ते न ज्ञायते कतमो घट इति निश्चयः क्रियते, सौवर्ण राजतं 12
वा इत्यादि भाव्य । एवं व्यवहारेणाक्ते सत्याह ऋजुमत्र:-यथा सामान्येन न शक्यते संव्यवहाँ तथाऽतीतेन भनेन अनागतेन | वा अनुत्पन्नेन इति । परचुप्पन्नग्गाही उज्जुसुतोत्ति वर्तमानमेव गृह्णातीत्यर्थः । एवं ऋजुसत्रण स्वमते ख्यापिते आह शब्द:यथाऽतीतानागताभ्यां न शक्यते संव्यवहतु तथा नामस्थापनाद्रध्यलिंगवचनभिन्नघटैन संव्यवहारः शक्यते कर्तुमिति, तत्र | लिंगभित्रो यथा तटस्तटी तटमिति, वचनभित्रो यथा आपो जलमिति, अतः इच्छति विससिततरं पच्चुप्पण्णं णपो सदो-४
ति, किमुक्तं भवति ? वर्तमानेनापि भावघटनेव लिंगवचनाभिन संव्यवहारः प्रवर्तत इत्येवभूतो भावघटः प्रमाणं, स तु घटना 13 कुंभो विति । एवं तेनाप्यभिहिते आह समभिरूढः यथा नामादिघटन शक्यते संव्यवहतुं तथा घट इत्युक्ते न फुटे संप्रत्यय
भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् , ततश्च यदा घटार्थे कुटादिशब्दः प्रयुज्यते तदा वस्तुनः कुटादस्तत्र संक्रांतिः कृता भवति, एवं च वत्थूओ संकमणं होति अवत्थू णये समभिरूढेत्ति, सर्वधर्माणां नियतस्वभावत्वादन्यत्र संक्रांत्योभयस्वभावापगमती
दीप अनुक्रम
SAXE
॥३७८
अत्र 'नय अधिकारः कथयते
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [७५६/७५६-७५८], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
नयाधिकारः
सत्राक
॥३७९॥
आवश्यक
अवस्तुतेत्यर्थः । एवमभिरूढेनामिहिते आहवंभूतः यथा घट इत्युक्त कुट इत्यवस्तु, एवं घट इत्युक्त यदा न चेष्टते तदान घटो, चोय दैवासी चेष्टते तदैव घटः, 'घट चेष्टाया' मितिकृत्या, एवं यदैव पुरै दारयति तदैव पुरंदरः, नान्यदा, मा भूत्सर्वपुरंदरप्रसंग उपोद्यात | इति । बंजणमत्थ तदुभयं एवंभूतो विसेसेतित्ति, इदमुक्तं भवति-व्यंजनं विशेषयति, एवं अर्थ, तदुभयं च । तत्र व्यंजन नियुक्ती | यथा-घटशब्दः तदैव व्यंजनं यदैव विशिष्टचेष्टावन्तमर्थ व्यनक्ति, अन्यदा त्वव्यंजनम् अवस्त्विति, अतिप्रसंगान , तथा अर्थ विशे
षयति, यथा-यदैव विशिष्टचेष्टायानर्थस्तदैव घटः, अन्यदा स्वघटो, अबस्त्वित्यातिप्रसंगादेव, तथा तदुभयं शब्दमर्थेन विशेषयत्यर्थ च शब्देन, यथा यदैव योपिन्मस्तकव्यवस्थितो जलाइरणादिचेष्टावानर्थों घटशब्देन व्यज्यते तदैवासौ घटः, तब्यंजकच
शब्दः, अन्यदा तु वस्त्वंतरस्येव चेष्टाऽयोगादघटत्वं, तवनेश्राव्यंजकत्वमवस्तुत्वमिति नयसमासार्थः । एवमेते सप्त नयाः, |किमर्थ मूलग्रहण इति चेत् ? उच्यते-भेदोपप्रदर्शनार्थ, को भेदः, भमति___एकेको य सयविहो० ॥८-३६ ।। ७५९ ।। एकेको शतभेद इति सप्त शतानीति, बितिओऽविय आदेसो पंच सया, नणु| किमिति?, तित्रिवि सद्दनया एगो चेव, तेण पंच सया, णेगमसंगहववहारउज्जुसुयसदा । एत्थ उदाहरण-एत्थ एक्केको उ सयभेद इति पंच सया। अपिचसद्दादबावि आदेसो, जहा छ मूलनया, णेगमो दुविहो-संगहितोय असंगहितो य, संगहितो असंगहं पविट्ठो, असंगहितो ववहारं पविट्ठो, एकेको य सयविहो, एवं छस्सया । अहवा चत्तारि मूलनया, नेगमा संगहितो संगहे पविड्डो, असंगहितो असंगह, तेण संगह ववहार उज्जुसुय सद्दा चत्तारि णया । तेवि भज्जमाणा एकेको सयविहो, एवं चत्वारि नयसया । अहवा दो मूलनया दव्याडिओ य पज्जवहितो य, एकेको सयविहो, एवं दो णयसया । अहया दो नया चावहारिओ गच्छतितो
दीप अनुक्रम
४
॥३७९॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [७५९/७५९], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
श्री 13/य, तो उदाहरणं-चावहारियण यस्स कालतो भमरो, णेच्छतियणयस्स पंचवो जाव अट्ठफासो । अहवा दो मूलणया-अप्पिय-13 नयाआवश्यक बवहारितो य अणप्पियववहारितो य, उदाहरणं जीवो नारकत्वेनार्पितः जीवत्वेनानप्पितः, एवं तिर्यग्मनुष्यदेवत्वेनापि भाव्यं ।
धिकारः अहवा दो नया तीयभावपन्नवतो य पडुप्पनभावपन्नवतो य, उदाहरणं-'नेरतियाण भैते ! किं एगिदियसरीराई?" आलावओ, एवं एते उल्लोयेण णया भणिता । एतेहिं किं पयोयण', मन्नति
एतेहिं दिहिवादे ॥८.३७ ।। ७६० ॥ एतेहिं सत्चहि णयसरहिं पंचहिं वा दिडिवाते परूवणा-पन्नवणा उवप्पदरिसणा, ॥३८०॥ किं दिहिवादे सबत्य एतेहिं परूवणा, उच्यते, कत्यह मुत्तट्ठमत्तकहणा य । इहई कालियसुत्ते अणम्भुवगमो सतेहि, मूलणयेहि
81 तु सचहि अधिकारी प्रायशः, ते पुण समासतो तिनि-एको दव्वट्टितो सुद्धो संगहो, पज्जवहितो सुद्धो एवंभूतो, मज्झिमा
दबडितपज्जवहिता, एतेहिं तिहि किं कारण अहिगारो, जेण भणितं_णस्थि णतेहिं विहणं०॥८-३८ ।। ७६१ ॥ को दृष्टान्तः -यथा वृक्ष इति प्रातिपादिके सर्वासां विभक्तीनां समवतारः, यथा वा सर्व वाङ्मयं धातुविभक्तिलिंगाप्तमिति, यदि एवं तो ओसनग्गहणं किं ?, सब्वस्थ किमिति ण भणति ?, भण्णतिआसज्ज तु सोतारं गए णयविसारदो बूया, पुरिसज्जातं पडुच्च व जाणयो सखे गये पनोज्जा । जतो__मूढणतियं सुतं कालिय० ॥८-३६|७६२।। मूढा-अविभागत्या गुप्ता नया जैमि अस्थि तं मढणतियं, तेण ण णया सन्बत्थ 18॥३८०॥ समोतरंति । इह कि कदादी समवतरिज्जियाइया', भन्नति-अपुहुत्ते समोतारो णत्थि पुहुत्ते समोतारी । अबे भणति-इहाला कालियाणुओगे अणुब्भवगम्मति सर्वे, किमर्थमिति चेत् व्यवहारविधिरिक्तत्वात् सूक्ष्म उपरिष्टत्वात् । जेण भन्नात-'तेसामेव विय
कसन
दीप अनुक्रम
ॐ
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [७६१/७६१], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चूणों
सूत्रांक
AAR
प्पा साइप्पसाहा सुदुममेदा, उक्तं च-ववहारेणऽत्थपची अणप्पितणये अ तुच्छमासाए । मूढणयअगमिएण य कालेण य कालिया
नयाआवश्यक नेयं ||१|| जत्थबि होज्ज तत्थवि तिहिं आदिल्लहिं नतेहिं, किं कारण तिहिं अहिगारो, किं नयविरहितं णो अरिथ', उच्यते
धिकार: णस्थि णतेहि विहणं॥ ८-३९ ।। ७६१ ॥ किन्न परूविज्जति ?, उच्यतेउपोद्घात
मूढणइयं सुतं ।। ८-३९ ॥ ७६२ ॥ जेण तताइयं दव्वं ण भवाति, कहं. , जेण णिच्चवादे अनियुक्तत्वप्रसंगः, अणि-II नियक्ती चबादे वैफल्यं भवति, तेण ते भन्नति य न भन्नति य, तेण मृढणतियं जेण य मुशति पन्नवतो एतेहिं सबेहि समोतारे, ताण3
| सकतित्ति भणित होति, जदा पूर आसि तदा एगमि अणुतोगे चत्तारिवि परूविज्जाईतया, पुहुत्ते कते समाणे पत्तेयं २ मासि॥३८॥
ज्जति ते अत्था, ततो तु बोच्छिन्ना, चरणे सेसा तित्रिविण भासिज्जंति, एवं सेसमुवि । कदा पुण पुहुत्तं जातं ? केच्चिरं वा
कालं अपहुचं आसि ? जाव अज्जवइरा ताव अपुहुतं आसि, तेसिं आरती पुहुनं जातं, जहा-इमं कालियं, इमो धम्मो, इमं| ८. गणित, इमं दवियं, को पुण अज्जवइरो जीम अपहत्तमासि जेण य कारणेण पुहुने कतमिति इच्छामि तेसिं अज्जवतिराणं उट्ठागणपारियाणियं सोतु, किह पुहुतं जातं ।। ट्र तुंचवणसंनिवेसा॥ ८-४१७६४ ॥ पुरवभवे सकस देवरमो येसमणस्स सामाणिो आसि, इतो य बद्धमाणसामी। तेणं कालेणं तेणे समएणं पिडिपाणाम णगरी, तत्थ सालो राया, महासालो जुवराया, सेसि सालमहासालार्ण भगिणी जसवती, II
॥३८१५ 15 तीसे पीढरो भत्तारो, जसवतीए अत्तओ पिढरपुत्तो गागली णाम कुमारी, सामी समोसढो सुभूमिभागे, सालो निग्गतो, धर्म
सोच्चा जं नवरं महासाल रज्जे ठायेमि, सो अतिगतो, तेण आपुच्छितो महासालोवि भणति- अहपि संसारभतुग्विग्गो जहाना
दीप अनुक्रम
ॐद्ध
अथ वज़स्वामि कथानक आरभ्यते
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [७६४/७६४], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
R
सत्राक
आवश्यक
चूर्णी उपोद्घात नियुक्ती ॥३८२॥
तुम्भे इह मेढी पमाणं तहा पव्वतियस्सवि, ताहे गागली कंपिल्लाओ सद्दावेऊण पट्टो बद्धो, अभिसिचो, राया जायो, तस्स माया वजस्वाम्य| कपिल्लपुरे णगरे दिमिया पिढरस्स, तेण ततो सहावितो, सो पुण तेसिं दो सिबियाओ कारेइ, जाव ते पब्बतिया, सा भगिणी धिकार: समणावासिया जाता । तए णं ते समणा होतगा एकारस अंगा अहिज्जिता, ततेणं समणे भगवे महावीरे यहिता जणवयविहारं विहरति । तेणं कालेणं २ रायगि गगरं, रायगिहे समोसढो, ताहे सामी पुणो निग्गओ चंप पधावितो, ताहे सालमहासाला सामि आपुच्छति-अम्हे पिट्टीचंपं बच्चामो, जति णाम ताण कोऽपि बुझेज्जा, सम्मच वा लभेज्जा', सामीवि जाणति जहा ताणि संयुज्झीहिंति, ताहे सामिणा गोयमसामी से बितिज्जओ दिनो, सामी चंपं गतो, तत्थ समोसरणं, गागली पिढरो जसवती य निग्गयाणि, भगवं धर्म कहेति, ताणि धम्म सोऊण संविग्गाणि, ताहे गागली भणति-जं णवरं अम्मापियरो आपुच्छामि जेडपुत्तं च रज्जे ठवेमि, ताणि आपुच्छिताणि भणंति-जदि तुम संसारभयुब्बिग्गो अम्हेवि, ताहे से पुत्तं रज्जे ठावेचा अम्मापितीहिं सह पब्बतितो, गोयमसामी ताणि घेत्तूर्ण चंप वच्चति, तेसि सालमहासालाणं पंथ वच्चताणं हरिसो जातो-जाहे (जहा) | संसारं उत्तारियाणि, एवं तेसि सुभेणं अज्झवसाणेणं केवलगाणं उप्पन, इतरेसिपि चिन्ता जाता जहा अम्हे एतेहिं रज्जे ठविताणि | संसारा मोइताणि, एवं चिंतेंताणं सुभेण अज्झवसाणेणं तिण्हवि केवलणाणं उप्पन्न, एवं ताणि उप्पननाणाणि चंप गयाणि, सामी पयाहिणं करेमाणाणि तित्थं णमिऊग केवलपरिसं पधाविताणि, गायमसामीवि भगवं वैदिऊण तिक्खुत्तो पादेसु पडितो उहितो
॥३८२॥ भणति-कहिं बच्चह ? एह वित्थकर बंदह, ताहे सामी भणति-मा गोयमा ! केवली आसाएहि, ताहे आउट्टो खामेति, संवेग च गतो, तत्थ गोयमसामिस्स संका जाता-माऽहं ण सिज्झिज्जामित्ति, एवं च गोयमसामी चिनति । इतो य देवाण संलाचो बट्टति
दीप अनुक्रम
SARSON
IPL
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आगम
(४०)
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [७६४-७७२/७६४-७७२], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
चूौँ
।
सत्राक
आवश्यक लैजो अट्ठावयं विलग्गति चेतियाणि य वंदति धरणिगोयरो सो तेणेव भवग्गहणेणं सिझति, ताहे सामी तस्स चित्तं जाणति ताव-|
साण य संबोहणयं, एयस्सवि थिरता मविस्सतित्ति दोवि कताणि, एयस्सवि पच्चतो, तेवि संयुजिास्सतित्ति, सोऽवि सामि आ-वज्रस्वाम्यउपोद्घात ४ पुच्छति अहावयं जामित्ति, तत्थ भगवता भीणतो-वच्च अट्ठावर्य चेतियाणं बंदओ, तएण भगवं हट्टतुट्ठो वंदित्ता गतो, तत्थ य&धिकारः नियुक्ती अट्ठापदे जणवाद सोऊण तिनि ताबसा पंचपंचसयपरिवारा पत्तेयं ते अट्ठावयं विलग्गामोत्ति तत्थ किलिस्संति, कोडिनो दियो ॥३८३॥
सेवालो, जो कोडिनो सो चउत्थं २ काऊण पच्छा मूलं कंदाणि आहारेति सचिचाणि, सो पढम मेहलं विलग्गो, दिनो छटुंछडेणं काऊण परिसडितपंडुपत्ताणि आहारेति, सो वितिय मेहलं विलग्गो, सेवालो अट्ठमं काऊण जो सेवालो सयंमतेल्लो तं आहा
रोति, सो ततियं मेहलं विलग्गो, एवं तेवि ताव किलिस्सति । भगवं च गोयमं ओरालसरीरं हुतवहतडिततडियतरुणरविकिरण3 सरिसतेयं एज्जत पेच्छंति, ते भणंति-एस किर एत्थ थुल्लो समणो विलग्गिहिति ?, जं अम्हे महातवस्सी मुक्खा भुक्खा ण: लतरामो विलग्गित, भगवं च गोयमे जंघाचारणलद्धीए संतुलूतापुडगंपि णीसाए उप्पयति, जाव ते पलोएंति, एस आगतोत्ति २16
एसो अईसणं गतोत्ति, ताहे ते विम्हिता जाता पसंसति, अच्छति य पलोएंता जदि ओतरति ता एयस्स वयं सीसा, एवं ते पडिच्छता अच्छति, सामीवि चेतियाई वंदित्ता उत्तरपुच्छिमे दिसीभागे पुढविसिलापट्टए तुयट्टो, असोगवरपादवस्स अहे तं ४ रयणि वासाए उवगतो।। इतो य सकस्स लोयपालो वेसमणो, सोवि अट्ठापदं चेतियवंदओ एति, सो चेतियाणि वंदिता गोयम-18 सामी वंदति, ताहे सो धम्म कहेति, भगवं अणगारगुणे परिकहेतुं पवतो, अंताहारा पंताहारा एवं बति जहा दसनभदकहाणगे|
४ ॥३८॥ अणगारखनगे, बेसमणो चितेति-एस भगवं एरिसे साधुगुणे वन्नति, अप्पणो य साइमा सरीरसुकुमारता, एरिसा देवाणवि
दीप अनुक्रम
RECORE
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
भाष्यं [ १२३...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- /गाथा-], निर्युक्ति: [७६४-७७२/७६४-७७२],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णो उपोद्घात नियुक्ती
।। ३८४ ।।
गत्थि, तत्थ भगवं तस्स आकृतं गाउं पोंडरीयं णामं अज्झयणं पनवेति, जहा
पोक्ख लावतीविजए पोंडरीगिणी नगरी णलिणिगुम्मं उज्जाणं, तत्थ णं महापउमे णाम राया होत्या, पउमावती देवी, ताणं दो पुत्ताणं पुंडरीए कंडरीए य सुकुमाला जाव पडिरूचा, पुंडरीए जुबराया यावि होत्था । तेणं कालेणं तेणं समतेणं श्रेरा भगवंसो जाव नलिणिवणे उज्जाणे समोसढा, महापउमे णिग्गते, धम्मं सौच्चा जं णवरं देवाणु० पौंडरीवं कुमारं रज्जे ठवेमि, अहासु०, एवं जाब पोंडरीए राया जाते जाव विहरति । तएणं से कंडराए कुमारे जुबराया जाते, तरणं से महापउमे राया पुंडरीय रायं आपुच्छति, तए णं से पुंडरीए एवं जहा ओदायणां, णवरं चोदस पुब्वाई अहिज्जति, बहूहिं चतुत्थछट्ट बहुई यासाई सामनं मासियाए सट्ठि भचा जाब सिद्धे । अन्नया ते थेरा पुण्यापुवि जाव पुंडरिगिणीए समोसढा, परिसा निग्गया, तए णं से पुंडरीए राया कंडरिएणं जुगरन्ना सद्धि इमीसे कहाए लट्ठे समाणे हड्डे जाव गते, धम्मकहा, जाव से पुंडरीए सावगधम्मं पडिवण्णे जाव पडिगते, सावए जाते। तए णं से कंडरीए जुवराया धराणं धम्मं सोच्चा हट्टे जाव जहेदं तुन्भे वदह ज णवरं देवाणु ० ! पुंडरीयं रायं आपुच्छामि, तरणं जाव पब्वयामि, अहासुहं०, तरणं से कंडरीए जाव थेरं णमंसति णमंसित्ता अंतियाओ पडिनिक्खमति २ तामेव चाउघंटं आसरहं दुरूहति २ जहा जमाली तहेब जाव पच्चोरुहति, जेणेव पुंडरीए राया तेणेव उवागच्छति, करतल जाव पुंडरीयं एवं वयासीएवं खलु मए देवाणु थेराणं जाव धम्मे णिसंते, सेवि य मे इच्छिते पडिच्छिते अभिरुतिते, तए णं अहं देवाणु०! संसारभउजग्गे भीते जम्मणमरणाणं, इच्छामि णं तुज्झेहिं अन्भणुष्णाते समाणे घेराणं जाव पव्वतित्तएत्ति, तरणं से पुंडरीए कंडरीयं एवं वयासी माणं तुमं देवाणु इयाणि थेराण जाव पव्वयाहि, अहं णं तुमं महता महता रायाभिसेगेणं अभिसिंचिस्सामि, तएवं से
वज्रस्वामी - कथानक मध्ये पुंडरिक कंडरिक कथानक वर्णयते
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वज्रस्वाम्य धिकारः
॥ ३८४ ॥
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [७६४-७७२/७६४-७७२], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
सत्राक
MIकंडरीए कुमार पुउरीयस्स रनो एयमर्दु यो आढाति णो परिजाणाति तुसिणीते संचिट्ठति, तए ण से कंडरीए पोंडरीय राय दोश्चपिवजस्वाआवश्यक
चौं तच्चपि एवं वयासी-इच्छामि ण देवाणुप्पिया! जाव पवइत्तएत्ति, तएणं से पुंडरीए राया कंडरीय कुमार जाहे णो संचाएति विस- म्यधिक उपोद्घात पाणुलोमाहिं बहुहिं आघवणाहि य सत्राणाहि य विनवणाहि य आघवेत्तए चा० ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभउब्वेगकारीहिकंडरीकनियुक्ती
| पनवणाहिं पनवेमाणे २ एवं बयासी एवं खलु जाता ! निग्गथे पावयणे सच्च अणुत्तरे केवलिए एवं जहा पडिक्कमणे जान।
सब्वदुक्खाणं अंत करेन्ति, किंतु अही वा एगंतदिट्ठाए खुरो इच एगंतधाराए लोहमया व जबा चव्वेषब्बा वालुयाकवले इ ॥३८५॥
स निरस्साए गंगा वा महाणदी पडिस्सोतं गमणताए महासमुद्दे इव भुयाहि दुत्तरे तिक्खं कमियव्वं गरुयं लंबेयवं असिघार व चरितव्यं, पो य खलु कप्पति जाता। समणाणं णिग्गंथाणं पाणातिवाए वा जाब मिच्छादसणसल्ले वा नो० जाता! से अहाकम्मिएइ
वा उद्देसिए वा मिस्सजाते इ वा उद्दरए पूतिते कीए पामिच्चे अच्छेज्जे अणिसटे अभिहडेति वा ठतिएइ वा रतितएति वा 8 दातारभचेइ वा दुभिक्खभत्तेइ वा गिलाणमने वा बदलियाभत्तेइ वा पाहुणगभने इवा सेज्जातरपिंडेति वा रायपिंडेति वा मूलमो-C
यणेति या कंदभो० फलभो० बीयभो० हरियभोयणेति वा भोत्तए वा पातए वा, तुमं च णं जाता! सुहसमुचिते, णो चेव णं दुह-17 ४ समुचिते, णालं सीतं णालं उण्हं णालं खुहा णालं पिवासा णालं चोरा गालं वाला णालं दंसा णालं मसगा णालं वातियपेत्तिय
सेभियसभिवाते विदिहे रोगातके उच्चावए वा गामकंटगे वा बावीस परोसहोयसग्गे उदिबे सम अहियासेत्तएत्ति, ते णो खलु
जाता ! अम्हे इच्छामो तुझ खणमवि विप्पओगं, तं अच्छाहि ता जाता अणुभत्राहि रज्जासिरिं, पच्छा पब्बडाहसि, तए णं से कंडरीए दिएवं वयासी- तहेव णं तं देवाणु० जहेतं तुम्भे वयह, किं पुण देवाणु निग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोग
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SHRESS RSS
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [७६४-७७२/७६४-७७२], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
वनस्वा
R
प्रत
सनाक
श्री पडिबद्धाण परलोगपरंमुहाणं विसयतिसियाण दुरणुचरे पागतजणस्स, वीरस्स निच्छियस्स ववसियस्स णो खलु एत्थं किंचिद्रा आवश्यक दुक्कर करणताए, तं इच्छामि ण देवाणु जाव पचतिचएत्ति, तए ण ते कंडरीय पुंडरीए राया जाहे नो संचातीत बहहिं आघचूणी नावणाहि य ४ आषवेत्तए वा ४, ताहे अकामए चेव निक्खमण अणुमनित्था । तएणं से पुंडरीते कोईबिए सहावेति, एवं जहा |
कंडरीकउपाद्धात
जमालिस्स निक्खमण तहेव पुंडरीओ करेति, पब्वइतो जाव सामाइयमादीयाई एक्कारस अंगाई अधिज्जेति २ बहहिं चउत्थनियुक्ती
च्छट्ठहमजाव विहरति । अत्रया तस्स कंडरीयस्स अन्तीह य पंतेहि य जहा सेलगस्स जाव दाहयक्तीए यावि विहरति ॥ ॥३८६॥ तते ण ते थेरा भगवंतो अनया कयादी पुवाणुपुचि चरमाणा जाव पुंडरिगिणिए नलिणिपणे समोसढा, तए णं से पुंडरीए
दराया इमीसे जाव पज्जुवासति, धम्मकहा. तएणं से पोंडरीए राया धम्म सोच्चा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छति २4
कंडरीयं वदति णमसति २ कंडरीयस्स सरीरगं सव्वाबाहं सरुये पासति २ जेणेव थेरा तेणेव उवागच्छति, थेरे बंदति बंदिचा ४) एवं वयासी-अईण भैते ! कंडरीयस्स अणगाररस अहापवत्तेहि तेगिच्छिएहिं फासुएसणिज्जेहिं अहापवत्तेहिं ओसहमेसज्जभत्तपाहोहिं तिगिच्छे आउंटामि, तुम्भे ण भंते! मम जाणसालासु समोसरह. तएणं थेरा पुंडरीयस्स रनो एयम पडिसुणेति २ जाव जा
सालासु विहरति । तते णं से पुंडरीए कंडरीयस्स तेगिच्छ आउद्देति, ततेणं तं मणुलं असणं४ आहरितस्स समाणस्स से रोगाके खिप्पामेव उवसंते हुढे जाते अरोगे बलियसरीरे जहा सेलओ तहा मुस्केवि समाणे तसि मणुसि असणे ४ समुच्छिते जाव अ
॥३८६॥ झोववश्नो, मज्जपाणगंसि य, णो संचाएति पहिता अन्भुज्जतेणं जाव विहरितएत्ति । तए णं से पुंडरीते इमीसे कहाए लद्धछे समाणे जेणेव कंडरीए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता कंडरीयं तिक्खुनो आयाहिणपयाहिणं करेति २ वंदति बंदिना एवं बयासी-घ
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [७६४-७७२/७६४-७७२], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
चौँ ।
भसि तुम देवाणुप्पिया, एवं सपुस ०कयत्थे कयलक्खणे सुलद्धे पं तव देवाणुप्पिया! माणुस्सए जम्मजीवितफले
ज वजस्वाआवश्यक ?
तुम रजच जाव अंतपुरै च विच्छतिता जाव पञ्चतिते, अहं पं अधने अकतपुबे ने माणुस्सते भये अणेगजातिजरामरणरी-18 म्यधिक
गसोगसारीरमाणसपकामदुक्यवेयणावसगसतोचद्दवाविभूते अधुवे अणितिए असासए संझन्भरागसरिसे जलघुम्बुयसमाणे कुसग्गज-1 केडरीकउपोद्घाताला लबिंदुसनिमे सुमिणगर्दसणोवमे विज्जुलयाचंचले अणिच्चे सडणपडणीबद्धसणधम्मे को पुबि पच्छा बा० अवस्सविप्पजहियव्बतेनियुक्ती चि । तथा माणुस्सगं सरीरगपि दुक्खाययर्ण विविधवाधिसतसंनिकेते अढेिसकडठ्ठाडयं छिराण्हारुजालओणसंपिणडु मडियमंडव
दुब्बलं असुइसंकिलिट्ठ अणिविर्य सम्यकालसंठप्पयं जराकुणिम जज्जरघरं व सडणपडणविद्धंसणधम्मय पुचि पच्छा वा अवस्स॥३८७॥ विष्पजहिय मविस्सतित्ति, कामभोगावि य ण माणुस्सगा अमुती असासया. वंतासवा एवं पित्ता खेला सुक्का० सोणितासया
उच्चारपासवणखेलसिंघाणगवंतपित्तमुत्तपूयमुक्कसोणितसमुम्भवा अमणुनदुरुयमुत्तिपूतियपुरीसपुमा मतगंधुस्सासा असुभसिस्सा सव्वियणगा बीभच्छा अप्पकालिया लहुसगा कलमला बिवासदुक्खं बहुजणसाधारणा परिकिलेसकिच्छदुक्खसझा अवुहजणनिसेविता सदा साधुजणगरहणिज्जा अर्णतसंसारबद्धणा कटुफलविवागा जुडुलिव्य अमुचमाणदुक्खाणुवंधिणो सिद्धिगमणविग्घा पुब्धि या पच्छा वा अवस्सविष्यजहियच्चा भविस्सतित्ति, जेविय ण रज्जे हिरने सुवने य जाव सावतेज्जे सेविय णं अग्गिसाहिते चोरसा-19 हिते रायसाहिते मच्चुसाहिते दातियसाधित अधुवे अणितिते असासए पुम्बि पच्छा बा अवस्सविष्पजहियब्वे भविस्सतिति । एवंविहम्मिकि रज्जे य जाव अंतेपुरे य माणुस्सएसु य कामभोगसु मुच्छिते ४ नो संचाएमि जाव पवतित्तए, तं धने सिणं तु
IX॥३८७॥ दम जाव सुलदेणं जं ने पव्यतिते । तते से कंडरीए पुंडरीएणं एवं वृत्ते तुसिणीए सचिट्ठति,ततेणं से पोंडरीए दोच्चपि तच्चपि एवं वता
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [७६४-७७२/७६४-७७२], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चूर्णी |
नियुक्ता
दीप अनुक्रम
181 सी-धसिणं तुम जाव अहं अधने, ततेणं से दोच्चंपि तरुचंपि एवं बुत्ते समाणे अकामए अयसंबसे लज्जाति य गारवेण य पुंडरी-1 वनस्वाआवश्यकता राय आपुच्छति २ थेरेहिं सद्धिं चहिया जणवयविहार विहरति ।
म्यधि०
कंडरीकउपोद्घात
ततेणं सेकंडरीए थेरेहिं सद्धि कंचि कालं उग्गंउग्गेणं विहरेत्ता ततो पच्छा समणत्तणपरितंते समणतणनिम्बिने सभणनि-II कामच्छिते समणगुणमुक्कजोगी थेराणं अंतियाउ सणितं २ पच्चोसक्कति २ जेणेव पुंडरिगिणी जेणेव पुंडरीयस्स रनो भवणे जेणेव | 2
| असोगवणिया जेणेव असोगवरपायवे जेणेच पुढविसिलापट्टगे तेणेव उवागच्छति उपागच्छेत्ता जाव सिलापट्टयं ओदयमण जाव ॥३८॥
झियाति । ततेणं पुंडरियस्स अम्मघाती तत्थ आगच्छति जाव तं तहा पासति पासित्ता पुंडरियस्स साहति, सेवि तण अंतपुर
e am | परयालसंपरिबुडे तत्थ गच्छति, गच्छित्ता तिक्युत्तो आयाहिणपयाहिण जाव धमे ण सव्यं जाव तुसिणीए ।
ततेणं पुंडरिए एवं वयासी-अड्डा भंते ! भोगहि १, हन्ता अट्ठो, तते ण कोटुंचियपुरिसे सद्दावेत्ता कलिकलुसेणेवाभिसित्तो रायाभिसेगेणं जाव रज्जं पसासेमाणे विहरति । तते ण से पुंडरिए सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेति, करेत्ता चाउजामं धम्म पडिवज्जति
पडिवज्जिता कंडरियस्स आयारभंडगं सबसुभसमुदयंपिव गेहति २ इमं अमिग्गहं गेहति २ कप्पति मम थेराणं अतए धम्म | P३८८॥ दापडिवज्जेचा पच्छा आहारित्तएत्तिकटु थेराभिमुहे निग्गतो। ही कंडरियस्स तु तं पणीत पाणभोयणमाहारिंतस्स नो सम परिणतं, बेतणा पाउन्भूया उज्जला विउला जाव दुरहितासा, सतेला
से रज्जे य जाव अंतपुरे य मुच्छिते जाव अज्झोववन्ने अट्टदुहवसट्टो अकामगे कालं किच्चा सत्तमपुढविए तेत्तीससागरहितीर जावो।
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प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
भाष्यं [ १२३...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- /गाथा-], निर्युक्ति: [७६४-७७२/७६४-७७२],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूण
उपोद्घात
नियुक्तौ
॥ ३८९ ॥
पुंडरिविणं थेरे पप्प तेसिमंत दोचीप चाउज्जामं धम्मं पडिवज्जति पडिवज्जेत्ता छट्ठक्खमणपारणगंसि अडित्ता जाव आहारिते, तेण य कालातिक्कंत सीतललुक्ख अरसविरसेण अपरिणतेण वेयणा दुरहियासा जाता, तते णं से अधारणिज्जमिविकट्टु करतलपरिग्गहितं जाब अंजलि कट्टु नमोत्थूणं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं णमोत्थु णं थेराणं भगवंताणं मम धम्मातरिताणं धम्मोवतेसगाणं, पुव्विपि त णं मते थेराणं अंतिए सच्चे पाणातिवाए पच्चकखाते जावज्जीबाते जाव सव्वे य मिच्छादंसणसले पच्चकखाते, इयाणिंपिणं तेसिं चैव भगवंताणमतिगे सव्यं पाणाइवातं जाव सव्वमकरणिज्जं जोगं पच्चक्खामि, जंपि य मे इमं सरीरगं जाव एतंपि चरिमेहिं उस्सास निस्सासे हि वोसिरामित्ति, एवमालोतितपडिक्कते समाहिप्यते काले किच्चा सव्वट्टसिद्धे तेचीससागरोवमाऊ देवे जाते । ततो पतिता महाविदेहे सिज्झिहिति । तं मा तुमं दुब्बलतं बलियतं वा गण्हेहि । जहा सो कंडरीतो | तेणं दुब्बलेणं अट्टदुहट्टवसको सत्तमाए उवबन्नी, पुंडरिओ पडिपुन्नगलकबोलो सब्बट्टसिद्धे उववन्नो । एवं देवाणुष्पिता ! बलिओ दुब्धलो वा अकारणं, एत्थ झाणनिग्गहो कातथ्यो, झाणनिग्गहो परमं पमाणं तत्थ बेसमणो अहो भगवता आकूतं णावंति एत्थ अतीव संवेगमावनो वंदित्ता पडगतो। तत्थ बेसमणस्स एगो सामाणितो देवो तेण तं पोंडरीयज्झयणं ओगाहितं पंच संतोष, संमत्तं च पडिवनो, केति भांति अ-जंभगो सो, ताहे भगवं कुलं चेतिताणि वंदित्ता पच्चोरुहति, ते तावसा भणति तुम्मे अम्हं आयरिया अम्हे तुमं सीसा, सामी भणति तुज्झ य अम्ह य तिलोगगुरू आयरिया, ते मणंति-तुम्भवि अन्नो आयरियो, ताई सामी भगवतो गुणसंथवं करेति, ते पव्चाविता, देवताए लिंगाणि उवणीताणि, ताहे ते भगवया सद्धिं वच्चंति, भिक्खा वेला य जाता, भगवं भणति - किं आणिज्जतु ?, ते भवंति - पायसो, भगवं च सव्वलद्धिसंपन्नो पडिग्गहं घयमधुसंजुत्तस्स भरचा आगतो, ताहे भणिता-परिवाडीए ठाह,
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वज्रस्वाम्यधि० कंडरीकवृत्तं
॥ ३८९ ॥
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GAR
आवश्यक
प्रत
सत्राक
॥३९॥
ते ठिता, भगवं च अक्खीणमहाणसिओ, ते धाता, ताहे सुद्धृतरं आउट्टा, ताहे सयं आहारेति । ताहे पुणरवि पट्ठितो, तेसि 3/वजस्वाम्यनाच सेवालभक्खाणं जेमिन्ताणं चेव नाणं उप्पन, दिनस्स बग्गे छत्तादिच्छत्तं पेच्छताणं, कोडिनस्स वग्गे सामी दणं उप्पन, लिाधिकारः
गोयमसामी पुरतो कद्धमाणो सामी पयाहिणीकरति, तेवि केवलिपरिसं पहाविता, गोयमसामी भणति- एह सामी वंदह, सामी भणति- गोयम! मा केवली आसाएहि, गोयमसामी आउट्टो मिच्छादुक्कड करेति। ततो गोयमसामिस्स सुठ्ठवरमधिती जाता, ताहे सामी गोतम भणति- किं देवाणं बयणं गेलं आउ जिणाणं ?, गोयमो भणति- जिणवराणं, तो कीस अद्धिति करेसि', ताहे
सामी चत्तारि कडे पनवेति तंजहा- सुबकडे विदल. चम्म कंबलकडे, एवं सीसावि, गोयमसामी य कंबलकडसामाणो, किंचदाचिरसंसट्ठसि गोयमा! जाव अविससमणाणता भविस्सामो, ताहे सामी दुमपत्तयं नाम अज्झयण पनवेति ।
देवोऽवि वेसमणसामाणिओ तओ चइत्ताणं तुंबवणसण्णिवेसे धणगिरि णाम गाहावती, सो य सड्ढो, सो य पव्वइतुकामो, तस्स य मातापितरो धरेंति, पच्छा सो जत्थ जत्थ वरेति तत्थ तत्थ विप्परिणामेति, जथा- अहं पब्वइउकामो, तस्स य तदाणुरूवस्स गाधावतिस्स धूया सुणंदा णाम, सा भणति- ममं देह, ताहे सा दिण्या, तीसे य माया अज्जसमिओ नाम पुव्वं पब्वइयओ, तीसे य सुणंदाए कुञ्छिसि सो देवो उवषण्णो, ताहे भणति धणगिरि- एस ते गम्भो वितिज्जओ होहिति, सो सीहगिरिस्स पासे पव्वइतो । इमावि णवण्हं मासाणं दारओ जातो, तत्थ य महिलाहिं आगताहिं भण्णति-जह से ण पिता पव्वइतो होन्तो तो लट्टू होतं, सो सण्णी जाणति-जहा मम पिता पब्बइओ, तओ तस्सेब अचिन्तेमाणस्स जातिस्सरणं उप्पणं, ताहे रवि दिवा य रोएति, वरं सा णिविज्जती तो सुहं पब्वइस्सन्ति । एवं छम्मासा वच्चंति । अन्नया आयरिया समोसढा, ताहे समिओ
दीप अनुक्रम
RECECARECRAA
ANTARBAS
॥३९०॥
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [७६४-७७२/७६४-७७२], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
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श्री धणगिरी य आपुच्छति जहा सण्णायगाणि पेच्छामोत्ति संदिसावेति, सउणेण वाहरितं, आयरिएहि भणित- महंतो लाभो अज्ज, वजस्वाम्यआवश्यक सचित्तं वा आचित्तं वा लभह सव्यं लएह, ते गता, उक्सग्गिज्जितुमारद्धा, अण्णाहिं महिलाहि भण्णति- एतेसि दारगं उक्वेहि सकार चूर्णों तो कहिं नेहिति ?, पच्छा ताए भणित-मए एचतियं कालं संगोवितो एचाहे तुम संगोवेहि, ताहे तेण भाणित-मा पच्छाणुत-| पाता पिहिसि, ताहे सक्खी काऊण गहितो छम्मासिओ, ताहे तेण चोलपट्टएण पत्ताबंधितो, न रोवति, जाणति सण्णी, ताहे तेसु अति
तेसु आयरिएहिं भाणं मरियंति हत्थो पसारितो, दिण्णो, हत्थो भूमि पत्तो, भणति- अज्जो ! णज्जति चहरंति, जाव मुक्कं पेच्छति ॥३९१॥ देवकुमारोवमं दारगं, भणति-सारक्खेह दारगं एतं, पवयणस्स आहारो एसत्ति, तत्थ से बहरोच्चेव णामं कतं । ताहे संजतीणं
दिण्णो, तासि सेज्जातरकुले सेज्जातराणि जाहे अप्पणगाणं चेडरूवाणं पीहगं वा पहाणं वा मद्दणं वा करेन्ति ताहे पुव्वं तस्स देंति, जाहे उच्चाराती आयरति ताहे आगार करेति, रुयति वा, एवं संवङ्गति, फासुपपडोयारो तेसि इडो, साधूवि बाहिं विहरति ।
ताहे सा गंदा पमग्गिता, ताओ निक्खेवोति ण देन्ति, सा आगता २ थर्ण देति, एवं तिवरिसो जातो, अण्णदासाधू विह-13 द्र रेन्ता आगता, तत्थ राउले ववहारी जातो, सो भणति-ममेताए दिण्णओ, णगरं नंदाए पक्खितं, ताहे बहाणि खेलणगाणि कताणि,
एवं रणो पासे यबहारच्छेदो, तत्थ पुब्बाहुत्तो राया, दक्खिणओ संघो, सयणपरिजणो वामगपासे गरबतिस्स, तत्थ राया 3 मणति- मम कतत्थे तुन्भे, जत्तो चेडो बयति तस्स भवतु, तेहिं पडिस्सुतं, को पढम वाहिरउ, पुरिसातीयो धम्मत्ति पुरिसो
बाहरतु, णगरजणी आइ- एतसि संचितओ, माता सदावेउ, अविय माता दुक्करकारिया, पुणो य पेलवसत्ता, तम्हा एसा चेवटू
SEARSA%ERESTHA
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं H, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७६४-७७२/७६४-७७२], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सुत्रांक
31 पढम बाहरतु, ताहे सा आसहत्थिरहउसभएहिं मणिकणगरतणचिचेहिं बाललोभणएहि य भणइ-अवलोएह ता बइरसामी., ताहे जस्वाम्यआवश्यक पद पलोएन्तो अच्छति, जाणति- जह संघ अवमण्णामि तो दीहो संसारो, अवि य-एसावि पच्यइस्सति, एवं तिण्णि वारे वाहरितो
धिकारः चूर्णी
Aण एति ताहे पिता भणति- जइ सि कतब्बवसाओ धम्मज्झयभूसियं इमं वइर। गेह लहुं रयहरण कम्मरयपमज्जणं धीर ! ॥॥ नियता ताहे तुरितं गतूणं गहितं, लोगो भणति-जयति धम्मो, उक्कुडिसीहणातो य कतो, ताहे माता चिंतेति- मम भत्ता पब्बइतो, भाता
द्रपुत्तो य, अहं किं अच्छामि ?, एवं सावि पवइता। ॥३९२॥
.ताहे साधणीण चेव पासे अच्छति, तेण तासिं पासिं एकारस अंगाणि कण्हाहाडेण गहिताणि, पदाणुसारी सो भगवं, ताहे | अट्ठवासओ संजतिपडिस्सताओ निकालिओ, ताहे उज्जेणिं गतो । तत्थ आयरियाणं पासे अच्छति, ताहे तत्थ य अहोधारं वासं पडति, ते य से जंभगा तेण अंतेण बोलेन्ता पेच्छंति, ताहे परिक्षानिमित्तं ओतिण्णा, वाणियगरूवेण अल्लद्देत्ता उवक्खडंति, सिद्धे निमंतेन्ति, ताहे पट्ठितो जाव कणगफुसितमत्थि ताहे पडिनियत्तेति, ताहे ठाति, पुणो सद्दावेंति, एवं(तिनि वारे) करंति, ताहे भगवं उवउत्तो-दब्बओ४, दबतो फुसफलादी खत्ततो उज्जेणी कालता पाउसो भावतो ओसकणातिसकणा हदुतुहा य, ताहे णेच्छ|ति, देवा तुट्ठा भणेति-तुम दठ्ठमागता, पच्छा वेउब्वियं वेज्जं देति । पुणरवि अण्णदा जेह्रमासे घतपुण्णेहि सण्णाणिग्गतं
IRT॥३९२॥ दतत्थवि निमंति, तत्थवि उवओगो-दबतो, तेहिं गभगामिणी बिज्जा दिण्णा, एवं सो विहरति । नाणि य पदाणुसारिणा
गहियाणि अंगाणि इह संजताण भूले घिरतराणि जावाणि, तत्थवि जो अज्झाति उवरिल्लं पुन्यगतं तंषि सव्वं पुथ्वगतं गेहति,
ॐ555545
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(४०)
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [७६४-७७२/७६४-७७२], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चूणा
नियुक्ता
दाहरणं
एवं तेण यहुयं गहित, जाहे बुच्चति पढाहि ताह एतगंपि तं घोसएहिं को तो अच्छति अण्णं सुणतो, अण्णदा आयरिया साहुसु भिक्खं गतेसु मज्झण्हे सण्णाभूमि गता, बहरसामीवि पडिस्सयवालो अच्छति, सो तेसिं साधणं वेंटियाओ मैडलीए रएता
पताकाअपृथक्त्वाआवश्यक 15 मज्झे अप्पणा ठाउं वायणा पदिण्णो, ताहे परिवाडीए एक्कारसबि अंगाई बाएति पुब्बगत च, जाव य आयरिया आगता, ते ४
नुयोगे चितति- लहुं साहू आगता, सदं सुणेति मेघोघरसितगंभीरं, बहिता सुणता अच्छति, णातं जहा वइरोत्ति, ताहे ओसरिता पुणो *
वज्रस्वाम्युउपायानात
| सद्दवडिय कातूण अल्लीणा, महल्लं च निसीहिं करेंति, मा से संका भवेज्जा, ताहे तेण तुरिय टियाओ सट्ठाणे ठवियाओ, ठवेत्ता निग्गंतूण दंडगं गेण्हति पादे य पमज्जति, ताहे आयरिया चितीत-मा एतं साधू परिभविस्संति तो जाणावेमि, ताहे रतिं आयरिया साधू आपुच्छंति, जथा-अमुगगामं वच्चामि, तत्थ दो व तिष्णि व दिवस अच्छिस्सामि, तत्थ जोगपडिवण्णगा भणंतिअम्ह को वायणायरिओ', आयरिएहि माणितं- वइरोति, तेहिं विणीतहि तहत्ति पडिस्सुतं, पूर्ण आयरिया जाणगा, तेवि साहुणो | पडिलहित्ता कालनिवेदणादि बहरसामिस्स अप्पेंति, ताहे सबम्मि कते पच्छा णिसेज्जा रहता, सोवि भगवं निविट्ठो, एवं ते
आगता, जहा आयरियस्स तहा सव्वं विणयं पयुजंति, जवि पुन्बतीता आलावगा तंपि ते विण्णासणनिमितं पुच्छंति, जेविय | मंदमहावी तेवि ठवेतुमारद्धा, तत्थ भगवं वालो अबालभावो, ताहे करकरस्स कति, एवं ते तुट्ठा भणंति जदि आयरिया | अच्छेज्ज कइवय दिवसे तो अम्ह एस सुतखंघो समपेज्जा, एवं तेसिं आयरियाणं पासे जे चिरस्स परिवाडीए गेहंति तं इमेण | एक्काए पोरिसीए सारित, एवं सो तेसिं बहुमओ जातो, आयरितावि णातूणं जाणाविता साधुत्ति ताहे तस्स अणुकंपणट्ठा आगता, अबसेस अझविज्जउत्ति, पुच्छति-विध सरति सज्झाओ ?, ताहे तुट्ठा साहनि जथा सरित, ताहे ते भणति- एसो चेव
ASA
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [७६४-७७२/७६४-७७२], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्रांक
| अम्हं वायणायरिओ भवतु, आयरिया भणति- होहिति, मा तुम्भे एवं परिमविहिहत्ति तो तुम जाणणाणिमित्तं अहं गतो, णवि अपृथक्याआवश्यक
है य एस कप्पो, एतेण कण्णाहाडियग, एतस्सवि उस्सारकप्पो कीरति, एवं सो उस्सारिज्जति, बीयाए से पोरिसीए अरथो कहि-8 नुबांगे चूर्णी
ज्जति, एस तदुभयकप्पजोग्गो, तस्थ जे अस्था आयरियस्स सैकिता देवि तेण उग्याडिया, जावतिय दिहिवाय ते जाणति ततिओजस्वाम्यू उपोद्घातात
दाहरणं गहिओ, ते विहरता दसपुरं गता, उज्जेणीए भयगुचा णाम आयरिया थेरकप्पट्टिता, तेसिं दिविवाओ अस्थि, संघाडओ से दिण्णो, नियुक्ती
ताहे गओ भद्दगुत्ताणं पासे, भागुत्ता य भेरा सुविणयं पासति पाभातिय, ताहे पभाते साहणं साहति, जहा मम पडिग्गहो खीर-& ॥३९४॥
| मरितो सो आगंतूण सीहपोतएणं पीतो लेहितोय, तस्स किं फलं होज्जत्ति, ते अण्णमण्णाणि बागरेंति अजाणता, गुरू मणतिण जाणह तुम्भ, अज्ज मम पाडिन्छो एहिति, सो सर्व सुच अत्वं च घेच्छिहिति, भगवपि पाहिरियाए वुत्थो, ताहे अतिगतो | पगते, दिडो, सुतपुथ्यो एस सो वहरो, तुडो उबवूहिको य, ताहे सो सम्बो पढिओ, ताहे अणुण्णाणिमित्तं जहिं उदिडो तहिं चेवर बच्चति, दिविवाओ जेण व उदिहो ते चैव अणुजाणंति, ताहे दसपुरं एति, ताहे तेहिं अणुण्णा समारद्धा, ताव गवरं देवेहि अणुण्णा उबढविता, दिब्बाणि पुष्पाणि चुण्णा य
जस्स अणुण्णा०॥८-४४७६७|| अण्णदा सीहगिरी मर्च पच्चक्खाति तस्स गर्ण दातुं, ताहे पंचहि अणगारसहि संपरितुडो विहरति, जत्थ जत्थ वच्चति तत्थ तत्थ ओराला कित्तिवण्णसदा परिभमति अहो भगवं । किंच
॥३९॥ जेणुरिया विज्जा०॥८-४६ ॥ ७६९॥ महापरिणाए विज्जा पम्हुड्डा आसी सा पदाणुसारिणा तेशुद्धरिताभणति य आहिंडेज्जा०॥ ८-४७ ॥ ११० ॥ भणति य धारेतब्बा० । ८-५८ ।। १११ ।। अई एव
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(४०)
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [७६४-७७२/७६४-७७२], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
आवश्यक
चूणों
सत्राका
उपोद्घात नियुक्ती ॥३९५॥
पवयणउवग्गहनिमिर पारेमि, एवं विहरतो भगर्न भवियजणविदोहण करेति । तेणं कालेणं तेणं समएणं पाडलिपुले नगरे पणो अपृथक्यासेड्डी, तस्स धूता अतीव दरिसणिज्जा, तस्स य सालासु साहूणीओ ठियाओ, सभावेण य एस लोगो कामितकामओ, ताओ या नुयोगे संजतीओ आराहाइओ बहरसामिस्स गुणकित्तणं करेंति, सेविता चितेति-जदि सो मम पती तो णवरि भोगा, इहरहा अलाहिजस्वाम्युवरगा एंति, पडिसेहिज्जंति, ताहे साहति, जहा सो पन्चाओ महात्मा नेच्छति, सा भणति-जदि णेच्छति सो पच्वहस्सामि । इतो य दाहरणं भगवं पाडलिपुत्ते आगतो, तत्थ राया सपुरजणजाणवतो णिग्गतो अम्मोगतियाए, ते य पव्वतिया फडगफहहिं एन्ति, तत्था अत्थि बहवे ओरालसरीरा, राया पुच्छति-दमो भगवं, ताहे सीसति-जहा ण भवति, जत्थ अपच्छिम बंदं तत्थ पविरल-पली पन्चइय सद्धि संपरिवुडो, एस आयरिओ, आयरिया ण तथा पडिरूवा, तस्थ पडिओ पादेसु, ताहे उज्जाणे ठिता, धम्मो कहितो, I खीरासवलद्धी भगवं, राया हतहिदो कतो, अंतेउरे साहति गर्नु, ताओ भणति-अम्हेबि बच्चामो, सव्यं अंतेपुरं निग्गत, सा या सेट्टिधूता लोगस्स सुणेत्ता किह पेच्छेज्जामित्ति अच्छति, वितियदिवसे ताए पिता विष्णवितो-तस्स मे देहि, ताहे सबालंकारविभूसिदा अणेगाहि धणकोडीहिं नीता, धम्मो कहितो, भगवं च खीरासबलबीओ, लोगो मणति-अहो मुस्सरो भगवं, सब्वगुण-|ी संपण्णो, णवरि रूवविहणो, जदि से रूबं होन्तं तो सव्वगुणसंपदा होती, भगवं तेसि मणोगतं णाऊण तत्व पउमं विउव्वति, तस्स उचरि निविडो, रूवं विउव्वति अतीवसोम्म जारिस पर देवाणं, लोगो आउदो भणति-एवं एतस्स सामावितं रूब, मा पत्थ-RI णिज्जो होहामिति तो विरूवेण अच्छति, साविसउचि राया भणति-अहो भगवओ एतमवि अथि, ताहे अणगारगुणे चण्णेति, 3॥१५॥ पहू असंखज्जे दीवसमुद्दे विउव्यिता आइण्णविप्पणे करेत्तएत्ति, तारे तेण रूवेण धर्म कहेति, ताहे सेहिणा णिमंतिओ भगवं
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [७६४-७७२/७६४-७७२], भाष्यं [१२३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
श्री_ विसए निदेति, भणइ-जदि ममं इच्छति तो पन्चयतु, ताहे पब्वइया । एवं विहरतो पुब्बदिसाउ उत्तरापहं गतो।
अपृथक्त्वा . आवश्यक चूर्णी
तत्थ दुभिक्खं जातं, पंथावि योच्छिण्णा, ताहे संघो उपढितो-भगवं । नित्थारेहिति, ताहे पडबिज्जाए संघो ठविओला नुयाग
| तत्थ य सेज्जातरो चारीए गतो, एति य, उप्पत्तिए पासति, चिंतेति-कोइ विणासो तो संघो जाति, ताहे असियएण सिहलि छिदिता उपोद्घात
वज्रस्वाम्यु
दाहरणं नियुक्ती
भणतिअहंपि भगवं! तुम्मं साहम्मिओ, ताहे सोऽवि विलइओ इमं सुतं सरंतेणं-साहम्मियवच्छल्लंमि उज्जता उज्जता य
सज्झाए । चरणकरणमि य तहा तित्थस्स पभावणाए य ॥ १ ॥ एवं पच्छा उप्पतिओ भगवं, पचो पुरियं नगरिं, तत्थ | ॥३९६॥2 मुभिक्खं, तत्थ सावगा बहुगा, एवं तत्थ उल्लाहा, तत्थ य राया तच्चनियसड्डा, तत्थ य अम्हच्चयाणं साणं तेसिं च वरुट्ठएण
मल्लारुमणाणि बट्टति, सब्बत्थ तच्चनियसट्टा पराजीयंती, ताहे तेहिं राया पुष्फाणि वाराबिओ, पज्जोसवणाए सड्डा अद्दण्णा, |
जतो पज्जोसवणाए पुष्पाणि णस्थित्ति, ताहे सबालबुड्डा बयरसामि उवट्ठिता, तुन्भे जाणह जदि तुम्मेहिं जाणएहिं पवयण ओहाPI मिज्जति, एवं बहुप्पगारं भणिए ताहे उप्पतितो माहेसरि गतो, तत्थ य हुतासणगिह नाम वाणमंतरं, तत्थ कुंभो पुष्फाण उट्ठति, द्र तत्थ भगवतो पितुमिचो तडितु, तत्थ गतो, सो संभन्तो भगति-किमागमणपयोयण, भगवता भणित- पुप्फेहिं पयोयणं, तेण
| अणुग्गही, ता तुम्भे गहेह जाव एमि, पच्छा सिरिसगास गतो, सिरीए चेतियअच्चणियानिमित्तं पउमं छिण्णग, ताहे वंदित्ता। || सिरीए निमंतिओ, तं गहाय अग्गिहरं पति, तत्थ कुंभं पुप्फाण छोहण अण्णाणि तु सारियाणि, एवं जंभगगणपीरखुडो दिब्वेण ॥३९६।।
गीतगंधव्वणिणादेन आगतो आगासणं, तस्स य पउमस्स बेटे वइरसामी, तत्थ तच्चाणिया भणीत-अम्ह एतं पाडिहेर, अग्धं गहाय निग्गता, तं विहारं बोलेत्ता अरहतघरं गता, तत्थ देवेहिं महिमा कता, तत्थ लोगस्स अतीव बहुमाणो जातो, राया
SARAS
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A5%
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाष्यं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
B
प्रत
श्री आउट्टावितो समणोवासओ जाओ । एवं सो भगवं विहरतो वतो आभीरविसयं गतो । एसो सो णयविसारतो एतातो अपुहुत्तं ।।। आवश्यकइदाणिं जेण पुहुत्तं कतं तस्स उप्पत्ति
* दशचूर्णी ट्र
देविंदवंदिहिं । ८-५१ ॥ ७७४ । इदाणि तेसि आउट्टाण पारियाणियं, तेणं कालेणं तेणं समएणं दसपुर नगरं, तत्थ रोत्पत्तिः उपायात सोमदेवो बमणो. अड्डो०, रोदसोम्मा भारिया समणोवासिया, तेर्सि पुत्ते रक्खिए णाम दारए, तस्स अणुमग्गजाते फग्गुरक्खिए। नियुक्तो ट्र
दसपुरं नगरंति, तं कह उप्पण्णं, । तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपानगरी, तत्थ कुमारनंदी सुवण्णकागे परिवसति, से गं ॥३९७॥दा इत्थीलोलए आवि होत्था, सेण जत्थ सुणइ वा पासइ वा इत्थिं रूविणि तत्थ पंच सुवण्णसते दातूर्ण तं परिणति, एवं तेण पंच सता II
पिंडिता, ताहे सो ईसालुओ एगवंभ पासादं करेत्ता ताहि समग ललति, एवं सो ताहि समं विहरति । तस्स पियवयसंए णाइले
नाम समणोवासए । 3 अण्णदा गदिस्सरवरे जत्ता आणचा, इतो य पंचसेलगवत्थव्वाओ वाणमंतरीओ गंदिस्सरं बच्चंति, ताणं च देवो चुपओ,
ताओ भणंति-कंचि एत्थ बुग्गाहेमो, एवं चिन्तेत्ता पट्ठियाओ, ताओ विनिवयंतीओ चमझेण गच्छंति, तं पेच्छति पंचहि माहि४ लासतेहिं सद्धिं ललंत, तासिं च विज्जुमाली अहिवती, सो चुतो ताहे भणंति-एस इत्थीलोलो, एस होहिति, ताहे ताओ तस्स उज्जाणगतस्स दिवाणि रूवाणि पदसिदाओ, ताहे सो भणति-काओ तुब्भेी, ताओ भणंति-देवताओ अम्हे, सो तासु मुच्छितो,
॥३९७॥ आढतो घेतु, ताहे भणितं-अदितं अम्हेहिं कजं तो पंचसेल एज्जाहि, सो मुच्छितो राउले सुवणं दाऊण पडहगं। नीति, कुमारनंदि जो पंचसेलगं णेति तस्स एत्तियो कोडीओ देति, एगेण थेरेण सुतं संजतिएण, पडहओ
दीप अनुक्रम
ॐ55655
| दशपुर-उत्पत्ति एवं आर्य रक्षितस्य कथानक कथयते
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 निर्युक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाष्यं [१२४]
अध्ययनं [],
मूलं [- /गाथा ],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक चूण उपोद्घात
नियुक्ती
॥३९८॥
खोडितो, वहणं कारितं पत्थयणस्स भरितं मुक्कं घेरेण तं दबे पुत्ताण दवावियं, जाहे दूरं समुदमतिगतो ताहे थेरेण भणितं किंचि पेच्छसि १, सो भणति - किंचि कालगं, एस बडो समुहले पव्वतपादे जातो, एतस्स हेडेण वहणं जाहिति तो तुमं अमूढो बडे लग्गेज्जासि, ताहे पंचसेलयाओ पक्खी एहिति तेसिं पादेसु अप्पा बंधाहि ते तर्हि तं णहिति, जदि किहइ ण लग्गसि तो वलयामुमि बुद्धसि एवं सो चिलग्गो नीतो य पक्खीहिं, ताहे ताहि वंतरीहि भ्रमंतीहिं दिडो, ताहि से * रिद्धी दाइता, सो पगहितो, ताहे ताहिं भणितो- एतेण सरीरकेण अम्हे भुज्जामो, ता किह ?, ताहि भणितं किंचि जलणपचेसादि करेहि जहा पंचसेलग उववज्जामिति, किह एत्ताहे जामि ?, ताहि करतलपुडसंपुडएण गीतो, ताहे आणीउं सए उज्जाणे | ठवितो, ताहे लोगो पुच्छओ एति, भणति 'दि सुतमणुभूतं जे वत्तं पंचसेलए दीवे'। ताहे इंगिणिणिवनो शाति, सङ्को य से मित्तो, तेण बारिओ-न सुंदरतरगा भोगा, पब्वयाहि, बहूहि पण्णवणाहिं न सक्किओ, सङ्घस्स विणिब्वेओ जातो, जहा एस अज्ञानी भोगाण कज्जे किलिस्aतिति अम्हे जाणता कीस अच्छामोति पव्वतो, कालं किच्चा अच्चुते उबवण्णो, इतरोऽवि मरित्ता पंचसलए जक्खो जातो, सो तं ओहिणा पेच्छति, अण्णदा दिस्सरजताए पलायतस्स पडहो गलए लग्गति, वाएति, तत्थ सव्वे देवा मेलीणा, सड्डो आगतो तं पेच्छति, सो तं दणं तेयं असईतो नस्सति, सो तेयं साहरिता भणति भो मर्म जाणसि ? सो भणति को सक्काइए इंदे ण जाणति ?, ताहे सो तं सावगरूवं दंसेति, ताहे जाणाविओ भणति संदिसह एचाहे किं करेमित्ति, देवेण भणित- वद्धमाणसामिस्स पडिमं करेहि, ततो ते समत्तवीर्य होहिति तदा य सामी जीवति, ताहे गोसीसमई पडिमं महाहिमवंतातो करेला कट्टसंपुढए छुमिता आगतो भरहवास, समुद्दे पत्रहणं पासति उप्पातिएण छम्मासे मर्मत,
ताह
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पृथक्वे
दश
| पुरोत्पतिः
॥ ३९८ ॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाष्यं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राका
दीप अनुक्रम
श्री साहे मंमितं, साय खोडी विण्या, भणितो य-देचाहिदेवस्स पडिमं करेज्जह, बीतिभयए उत्तारियाउ, उहायणो राया तावसमत्तो, ही आवश्यक तस्स पभावती देवी समणोचासिया, उद्दायणस्स बाणियएहिं कहितं देवाहिदेवस्स पडिमत्ति, ताहे दादीण कीरति, परसू ण
पृथक्वे घूर्णी ६ वहति, पभावतीए सुत, सा भणति बद्धमाणसामी देवाधिदेवो तस्स कीरतु, जं चेव आहतं जाव पुन्वणिम्माया पडिमा, अंतेपुरे उपोद्घात चेतियघरं कारित, पभावती पहाता तिसम्झ अच्चेति, अण्णदा देवी नच्चति राया.वाएति, सो सीस न पेच्छति देवीए, अद्दीती
पुरोत्पत्तिः नयुक्तासे जाता, देवी लक्खेता भणति- किं दुछु नच्चितं ?, निबंध सिई, सा भणति- मया सुचिरं सावगत्तर्ण परिपालियं, अण्णदा ॥३९॥
हाता चडि भणति-पोताई आणेहि, ताए से रत्तगाणि आणियाणि, रुढा अदाएण आहता चेतियपरं पविसतीए रत्तगाणि देसिचि, | आहता चेडी मता, ताहे चिंतेति-मए खंडित सील, तो किं मे जीविएणति रायाण आपुच्छति, भचं पच्चक्खामित्ति, निबन्धे राया है भणति-जदि परं संबोहेसि, पडिस्सुत, भत्तपच्चक्खाणेण मता देवलोकं गता, जियपडिमं देवदत्ता. दासचेडी खुज्जा सुस्सूसति ।
देवो संबोहेति, न संबुज्झति, सो य तावसभत्तो, देवो ताबसरुवं करेति, अमतफलाणि गहाय आगतो, रण्णा आसादियाणि, मुच्छिओ भणति-कहि?, तेण भणित नगरस्स अरे आसमो तहि, तेण समं गतो, तेहिं पारद्धा, णासंतो वणसंडे साहवो पेच्छति, ६ तेहिं धम्मो कहितो, संबुद्धी, देवो अत्ताणं दरिसेति, आधुच्छित्ता गतो, जाव अत्थाणीए चेव अचाणं पेच्छति, एवं सडो जातो।
इओ य गंधारओ सावओ, सो सम्बाओ जम्मभूमीओ बंदित्ता वेयड्डे कणगपडिमाओ सुणेचा उपवासण ठितो, जदि वा मओ
दिडाओ वा, देवताए दंसिताओ, तेण वंदियाओ, देवयाए से तुहाए सव्वकामियाओ गुलियाओ दिण्णाओ, ताण सतं परिमाणतो, ॥२९॥ तितो णिन्तो मुणेति वीतिभए जिणपडिमा गोसीसचंदणमती, वदओ एति, आगतो बंदति, तत्थ पडिभग्गो, देवदत्ताए पडियरिओट्र!
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाष्यं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
पृथक्वे
आवश्यक
दश
प्रत
॥४०॥
सम्म, तुडेण गुलिताण सतं दिणं, सो पव्वइतो ।
अण्णदा ताए चिंतिय- मम कणगसरिसो वण्णो भवतुति जाव रूवं जातं जथा देवकण्णगा, एताहे चिता जाता-भोगेद मुंजामि, इमो राया मम पिता, अण्णे य गोहा, ताहे पज्जोय रोएति, तं मणसीकाऊण गुलिया खड्या, तस्सबि देवताए कहितं
एरिसी रूववतित्ति, तेण सुवण्णगुलियाए दूतो पट्टवितो, ताए भण्णति- पेच्छामि तुमे, आगतो नलगिरिणा, सा भणति-जदि &ापडिम णेहि तो जामि, ताहे पडिमा पत्थित्ति रत्तिं वुडो, पडिगतो, अन्नं जिनपडिमरूवं कातुं आगतो, तत्थ ठामे ठवेत्ता जीय
स्सामी सुवण्णगुलिया य आणीया, ताहे तत्थ नलगिरिणा मुत्तिय लेंडं च मुक्कं जाव तेण गंधण हत्थी उम्मत्ता, तं च दिसं गंधो एति जाव पलोइज्जइ नलगिरिस्स पर्द, किं निमित्तमागतोति जाव चडी न दीसति, राया भणति- चेडी नीता नाम, पडिम पलोएह, णवरि अच्छतित्ति निवेदित, अच्चणवेलाए राया आगतो जाव पेच्छति पुष्पाणि मुकाणि, निव्वण्णेति, ताहे नातं पडि-IN | स्वगति, ताहे भणति पडिमा हरिता, दूतो विसज्जितो, नवि मम चडीए कज्ज, विसज्जेहि पडिम, सो न देति, ताहे पहावितो | जेट्टमासे दसहि रातीहि समं, मरु उत्तरताण खंधावारो तिसाए पमओ, रणो निवेदितं, रण्णा पभावती चिंतिता. आगता, तीए | तिण्णि पुक्खराणि कतानि, अग्गिमस्स मज्झिमस्स पच्छिमस्स, ताहे आसत्थो गती उज्जेणिं, भणितो य पज्जोतो-कि लोगण| | मारिएणी, अस्सरथहत्थिवादेहिं वा जेण रुञ्चति तेण जुज्झामो, ताहे पज्जोतो भणति-रहेहिं जुज्झामो, ताहे णलगिरिणा पडिकष्पितेण
आगतो, राया य रहेण, रण्णा भणितो-असच्चसंधोऽसिति, तथावि ते पत्थि मोक्खो, नाहे रण्णा रहो मंडलीए दिण्णो, हत्थी वेगेण पत्थितो, ओलग्गति, रहेण जीतो, ताहे जे जे पादं उक्खिवति तत्थ तत्थ राया सरे छुभति, जाव हत्थी पडितो, उत्तरंतो
*SCk
दीप अनुक्रम
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भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाष्यं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
दश
प्रत
चूणौँ
सत्राक
दीप अनुक्रम
है बद्धो, निडाले य से अंको कओ दासीयतिओत्ति उहायणस्स रमो, पच्छा णियगं नगरं पहावितो, पडिमा णेच्छतित्ति, अंतरा है। आवश्यक | वासेण ओबद्धो, ताहे उक्खंदभतण दसवि रायाणो ठिता धूलीपागारे करेता, जंच राया जेमेति तं च से दिज्जति, जोसवणा | 2ीपरोत्पत्तिः
|य जाता, ताहे सो पुच्छिज्जति-कि अज्ज जेमेसि, सो चिंतेति-मा मारेज्जेज्जामि, ताहे भणति- किं अज्ज पुच्छिज्जामि, म-18 आयेआधा णितो-अज्ज रणो अभत्तट्ठो, पज्जोसवणत्ति कहितं, ताहे सो सोचितुमारद्धो-मम मातापिता संजताणि, आहे न जाणामिल
जथा पज्जोसवणति, अहंपि सावओ, न जेममिति, रणो कहितं, भणति-जाणामि जहा सो धुत्तो, किं पुण मम एतमि बद्धेल्लए ॥४०॥
पिज्जोसवणा चेव न सुज्झति, ताहे मुक्को खामिओ य, पट्टो य से बद्धो सोवण्णो, मा एताणि अक्खराणि दीसिहिन्ति, सोय से विसओ
दिण्णो, तप्पमिति पट्टबद्धगा रायाणो आढत्ता, पुण्यं बद्धमउडा आसी, पत्ते वासारत्ते राया गतो, तत्थ जो वाणियवग्गो आग-2 MI तो सो तहिं चेव ठितो, ताहे तं दसपुर जातं । एवं दसपुर उप्पणं । & तमि दसपुरे सोमदेयो माहणो, रुद्दसोमा भज्जा सङ्की, तीसे जेट्टपुत्तो रक्खितो नितियो फग्गुरक्खियओ, तत्थ उप्पण्याभगा अज्जरक्खिता, सो य तत्थ जे अस्थि पिउणो तं अज्झाइओ, घरेण तीरति पढितुति ताहे गतो पाइलिपुत्तं, तत्थ चत्वारि | ४ वेदा संगोवंग अधीतो समत्तपारायणो साखापारओ जदा जातो, किं बहुणा?, चोद्दसवि विज्जाठाणाणि गहियाणि, ताहे आगतो दसपुरं, ते य रायकुले सेवगा, णज्जति रायकुले, तेण संविदितं रण्णो कतं, जहा एमित्ति, ताहे उब्भितपडाग सयमेव राया निग्गतो,
तं अणुगतियाए दिट्ठो सक्कारितो अग्गोयरो य दिण्णो, एवं सो णगरेण सम्वेण अभिणंदिज्जतो अप्पणो घरं पत्तो, तत्थवि चाट्रा हिरम्भतरिया परिसा आढाति, तंपि चंदणकलसादि सोयमि, सो तस्थ बाहिरियाए उपहाणसालाए ठिओ लोगस्स अग्ध पडिच्छ
उक55555
॥४०॥
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भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाष्यं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
X
प्रत
ति, ताहे वयंसगा य भित्ता य सब्बे पेच्छगा आगता, दिदुपरिचियस्स य लोगस्स अग्घेण पज्जेण व जाव से घर भरि दुपद
आयेआवश्यक चतुष्पदहिरण्णसुवण्णाण, ताहे चिंतेति-अम्मं न पेच्छामि, ताहे घरं अतिगतो, मातं पासति, मातं अभिवादेति, ताए भण्णति
रक्षिताः चूर्णी |3 सागततं पुत्तत्ति, पुणरवि मत्था .
चेव अच्छति, ताहे सो भणति-किं णं अम्मो तुम्भं न तुट्ठी (जेण मए एतेण णगरं विम्हिर्य उपाघात नियुक्ती
चउद्दसण्हं विज्जाठाणाणं आगमे कए, सा भणति-कह पुत्त मम तुट्ठी भविस्सति?, जेण तुर्म बहूर्ण सत्ताणं वह अहिज्जिउं आगओ,
जेण संसारो वड्डिज्जइ तेण कहं तुस्सामि, किं तुम दिठिवायं पठिउमागओ?, पच्छा सो चिंतेइ-कित्तओ वा सो होहिति जामि) ॥४०२॥ कहिं सो अम्मा', सा साहति-साधूणं दिहिवातो, ताहे सो नाम मंतेति, सोऽक्खरार्थं वीमसेतुमारद्धो, दृष्टीनां वादो दृष्टिवादो,
| ताहे भणति-नाम चेव सुंदर, जदि ताव सत्थं नज्जति तो अज्झायितच्वं, किं पुण जेण अम्मापि तुस्सति?, वच्चामि, कहिं ते दिहि-14 | वाउजाणंतगार, इहेव अम्हें उच्छुघरे उज्जाणे तोसलिपुत्ता नाम आयरिया, कल्लं अज्झामि, मा तुझे उस्सुगाओ भवह, ताहेर 81 सो रति चिंतितो न चेव सुचा, वियदिवसे य पभाते चैव पद्वितो, तस्स य ओवणगरगामे पितिमित्तो वसति, तेण सो न दिट्ट-11
ओ, अज्ज पेच्छामि कति उच्छुलट्ठीओ गहाय एति नव पडिपुण्णाउ एगं च खंडं, इतरो य नीति, इमो य पत्तो, को तुम?, अज्जरक्खितोत्ति, ताहे सो हो अर्णवदति, सागती, अहे तुम्भ दटुं आगतो, ताहे सो भणवि-अतीहि, अहं सरीरचिंताए निज्जामि,।
एताओ य उच्छुलडीओ अम्माए हत्थे देज्जाहि, भणेज्जमु य-दिहो मए अज्जरक्खिओ, अहमेव पढमं दिहो, ताहे सा तुहा, मम ॥४ ॥ दीपुत्तण सुदरं मंगलं दिई, नत्र पुन्या पतव्वा खंडं च, इतरांवित चेव चितइ-मए णव अंगाणि अज्झयणाणि वा घेत्तवाणि, दसम Vान सबे, ताहे गतो उच्छुघरं, तत्थ चितेति-किह एमेव अहमि जहा गोहो अजाणता, जा एतसि सावगी भविस्सति तण
दीप अनुक्रम
ACADASACARX
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भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं 1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाष्यं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
श्री 15 उपचारेण अतीहामि, एगपासे अच्छति पल्लीणो, तत्थ उड्डरसावओ, सो सरीरचितं काऊणं साधूण पडिस्सयं वच्चति, ताहे तेणk
I आर्यआवश्यक ठितेण तिण्यिा निसीहियाओ कताओ, एवं सो इरियादी ढडरेण सरेण करेति, सो पुण मेहावी ते उवधारेति, सोवि तेणेवा
रक्षिताः चणींद्र कमेणं उवागतो सम्बेसि साधूर्ण बंदणर्य कर्त, सो सावओ तेण न वंदिओ, ताए आयरिएहिं नातं नवगसङ्को, पच्छा पुच्छति-14 उपोद्घाताकतो धम्मागमो?, तेण भणित-एतस्स मूलाओ सङ्कस्स, साहूहिं कहितं-जहा सड्डीए भूणओ जो कल्लं हत्थिखंधएण नियुक्ती अतिणीओ, किहत्ति १, ताहे सव्वं साहति-अहं दिट्टिवातं अज्झाइतुं तुम पासं आगतो, आयरिएहि भणितं-अम्हं
दिक्ख अन्भुवगतार्ह अज्झाइज्जति, सोऽवि अम्भुषगता, एवं भवतु, परिवाडीए अमामि, ताहे सो भणति-ममं एस्थ न जाइला ॥४०॥
पथ्यइंउ, अण्णस्थ बच्चामो, एस राया अणुरत्तो अण्णोऽपि लोगो न ताव पेच्छति, बलाविएते ममं णेज्जा, तम्हा अन्नहिं वच्चामो,12 ताहे गता ते पचइता तं घेत्तर्ण, एसा पडमा सेहनिप्फेडिया, एवं तेण अचिरेण कालेण आयाराती जाव एस्कारस अंगाई अहिज्जिताई, जो य दिडिवाओ तोसलिपुत्ताणं आयरियाणं सोऽण गहितो, तत्थ य अज्जवइरा सुव्बंति जुगप्पहाणा, तेसि दिडिवा-18
ओ बहुओ अस्थि, ताहे सो वच्चति, उज्जेणिमज्झेणं, तत्थ य भद्दगुत्ता थेरा, तेसिं अंतियं अतिगतो, तेहिं अणुवृहितो-धण्णो-2 ऽसि कयत्थो य, अण्णं च-सलिहियसरीरो मम य निज्जावओ नत्थि तुम निज्जाचओ होहि, तेण पडिसुतं तहति, ठितो, ताहे| अच्छति, तेहिं कासं करतेहि भण्णति-मा बहरसामिणा समं अच्छेज्जासि, वीमुं पडिस्सए ठिओ पढिज्जासि, जो तेहिं सम एगम-14 वि दिवस संपसति सो ते अणुमरइ, पडिसुणति, कालगतेहिं वइरसामिस्स पासं गतो, बाहि ठिओ, तेऽवि सुविणगं पेच्छंति, वेसि पुण
॥४०३५ दथे सिर्दु जातं, तेहिचि तहेव परिणामितं, पभाते अतिगतो, तेहिं पुच्छितो कतो एसि', तेण भणितं-सोसलिपुत्ताण पासातो, ते भण
दीप अनुक्रम
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 निर्युक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाष्यं [१२४]
अध्ययनं [],
मूलं [- /गाथा - ],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
श्री आवश्यक
चूर्णां उपोद्घात नियुक्तौ
1180211
ति-तुभे अज्जरक्खिया, (आमं ) साधु सागयं, तो कहिं ठितो सि, बाहिं, ताहे आयरिया भणति – बाहिठियाण किं अझाड़उं जाई, तुमं किं न जाणसि, ताहे सो भगइ-खमासमणेहिं अहं भद्दगुत्तेहिं घेरेहिं भणितो चाहिँ ठाएज्जासि, ते उवउत्ता जा ति-सुंदरं, न निक्कारणे आयरिया भणति, अच्छह, ताहे अज्झाइउं पवतो, अचिरेण नव पुव्वाणि अधिताणि, दसममाडतो ४ वेत्तुं ताथे अज्जबहरा भणति — जवियाई करेहि, एयं परिकम्ममेयस्स, ताणि य सुहुमाणि, गाढं गणिते तं सुडुमं, चवीस जवि - या, सोवि ताव तं अज्झाइ ।
इतोय मायापियरं सोगेण गहियं, उज्जोयं करिस्सामित्ति अंधकारतरं कथं, ताहे वाणि अप्पाहिंति, फग्गुरक्खिओ य पट्टविओ, डहरओ माया, जइ चचह तो सव्वाणि पञ्चयंति, ताहे भणड़-जइ ताणि पव्वयंति तो तुमं चैव पव्वयाहि, सो पन्चइओ, अज्झातितो य, सो य जवितेसु अतीव घोलितो, ताथे पुच्छइ-दसमस्स पुव्वस्त किं गये? किं से है, तत्थ बिंदु समुहसरिसवमंदरेहिं दितं करेंति, बिंदुमेतं गतं समुदो अच्छति, ताहे सो विसायमा वनो- कत्तो मम (सती) एतस्स पारं गंतुं ?, ताहे सो आपुच्छतिअहं वच्चामि एस मम भाता आगतो, ताहे भगति -अज्झाहि ताब, एवं सो निच्चमेव आपुच्छति, तत्थ अजवइरा उवत्ता किं | ममातो चैत्र एवं वोच्छिज्जं गतं, ताहे नातं विसज्जितो पुणेो ण एस्सति एसो आउं च थोवमप्पणो णाऊण विसज्जितो । सोऽचि ताव दसपुरं गतो, पब्वावेति सिक्खावेति य सन्नायगा सब्बे माया पिता य, सोचि ताव विहरति ।
इतो य वरसामी दक्खिणावहे विहरति, दुभिक्खं च जायं वारसवरिसगं, सव्वतो समता छिना पंथा, निराधारं जातं, वाहे वइरसामी विज्जाए आहर्ड पिंडं तद्दिवसं आणेति, पच्छा तं सव्वेसिं पञ्चगाणं दापति, एतं वारसवरिसे मोतव्यं, अन्नं भिक्ख
(113)
आर्यरक्षिताः
॥४०४ ॥
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाज्यं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
HEIGE
दीप अनुक्रम
श्री स्थि, जदि जाणह उस्सरंति संजमगुणा तो भुज्जतु, अह जाणह नवि तो मत्वं पञ्चक्खामो, ताहे ते भणंति-किं एरिसण विज्जा- आर्यआवश्यक | पिंडेण भुत्तेण, एवं निच्छितववसाया, आयरिएहि य पुण्यामेव जाऊण एगो पन्चइयतो य पत्थवियो पेसवण वारसेणो णामेण |शक्षिताः
चूर्णी सो भणिततो-जाहे तुमं सतसहस्सनिष्फण्णं भिक्खं लभिहिसि ताहे जाणेजाहिसि जहा नई दुभिक्खंति, इमे य निच्छियवव-18 उपोद्घात साया, तत्थ य एगो खुडओ तं भणति-तुमं नियत्त, सोणेच्छति, ताहे सो गामे विभोलिज्जति ताव पव्वइयगात गिरि विलग्गा, नियुक्ता आयरिया जाणंति-जहा खुडओ आराहओ, चित्तरक्खणट्ठा लोगस्स, सो य सव्वं जाणति, ताहे सो ताणं गतमग्गेण आगंतूण मा 4 तेसिं असमाही होहितित्ति तस्सेव हेढे सिला तत्थ सुडओ पाओवगओ, सो तेण उण्हेण णवणीओ जहा विराओ, अचिरकालेण.
वि कालगतो, देवेहि य महिमा कता, ताहे आयरिया भणति–खुइएण अट्टो साहितो, तत्थ ते साधुणो दुगुणाणियसद्धासंवेगा ४ जाता, जदि ताव वालेण होन्तएणं एवं कतं ता अम्हे कीस प सुंदरं करेमो', तत्थ य देवता पडिणीया, सा ते साधुणो साविगाहै वेण भत्तपाणेण निमंतेति-अज्ज मे पारणयं करेह, ताहे आयरिएहिं नातं जहा अचितत्तोरगहोत्ति, तत्थ यम्भासे अण्णो गिरी, सतं गता, तत्थ ताहे देवताए काउस्सग्गो कतो, सावि अब्भुद्विता, अणुग्गहोत्ति अणुण्णातं, ताहे समाहीए विहिए कालगता, ताहे|
इंदण रहेण वंदिता पदाहिणीकरतेणं, तत्थ रहावत्तो सचेव सो य पव्वतो जातो, तमि य भगवंते अद्धणारायं दस य पुब्वा वोच्छि-18 INण्णा , बीओ आदेसो चइरसामीणं सिंभो जातो, पच्छा ताहे भणितं-जहा ममं सुठि आणेह, आणीता, तेहिं कण्णे ठविता, जे-IN
॥४०५॥ 18 मेत्ता खाइस्संति, तं च पम्हुई, ताहे बियाले आवस्सयं करेंतस्स मुहपोतियाए चालितं, पडितं, ता से उवयोगो जातो, अहो पमत्तो |
जातो, पमत्तस्स य णस्थि संजमो, त सेयं खलु मम भ पच्चक्खाइचए, एवं संपेहेत्ता पच्चक्खातं, कालगता ।
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भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाष्यं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
आय
प्रत
सत्राक
श्री
सोय साधू पेसणेणं पेसियल्लओ भमंतो पत्तो सोपारगं, तत्थ य साविया आगता, सा ईसरी, साय चिंतेति-किह जीचीहामो,31 आवश्यकापटिक्कओ णस्थि, ताए तदिवसं सतसहस्सेणं भत्तं निष्पादित पत्थि पडिक्कउत्तिकाऊणं, मा य अम्हे सध्वं कालं उज्जलं जीवि
रक्षिताः त्ता एचाहे एत्थ चेव देहबालिगाहिं वित्ति कप्पेमोत्ति, एत्थ सतसहस्सणिफण्णे विसं छोणं जेमामो तो सणमोक्काराणि कालं करे
हामो, ताए सज्जितं ता, णवि ता विसेण संजोइज्जइ, एवं च सा संपेहेचा अच्छति,सोय साधू हिंडतो तत्थ संपत्तो, ताहे सा हट्टतुष्ठा
नातं पडिलामेति, एवं च सव्वं परमत्थं साहति, ताहे सो साधू भणति-मा भत्तं पच्चक्खाह, महं बहरस्सामिणा सिद्-जया तुम सत॥४०६॥ सहस्सणिफण्णाओ भोयणाओ भिक्खं लभिहिसि ततो पाए चे सुभिक्खं भविस्सतित्ति, ताहे पब्बइस्सह, ताहे सा वारिता ।
४इओ य वहणेण तदिवस चेव तंदुला आणीया, ताहे. पडिक्कओ जातो, एवं सोऽवि ताव जीविओ, ताणि य तस्स साधुस्स अंति&ायं पब्बयियाण । ततो चइरसामिस्स पउप्पयं जातं बंसो य वढितो ।। इतो य अज्जरक्खिएहि आगंतूर्ण सन्यो सयणवग्गो पन्चाविकाओ, माता पिता भाता भगिणी, जो सो तस्स खतओ सोवि तेसिं अणुरागणं तेहिं चेव सम अच्छति, न पुण लिंगं गण्हति लज्जाए, दकिह समणओ पञ्चइस्सं?, एल्थ मम धूताओ मुण्हाओ पव्वावियाओ, तासिं पुरओ न तरति नग्मो अच्छितुं, एवं सो तत्थ अच्छ
ति, बहुसो आयरिया भणति, ताहे सो भणति-जदि ममं जुवलएणं कुडियाए छत्तएर्ण उवाहणाहिं जण्णोवइएण य समं तो प-IN १७ व्वयामि, पव्वइतो, सो पुण चरणकरणसज्झाय अणुयत्तेहिं गेण्हावितब्बो, ताहे ते भणंति--अच्छह तुम्भ कडिपट्टएणं, सोवि थे
रो भणंति-छत्तएण विणा पतरामि, वाहे भणति-अच्छउ छत्चयंपि, करगेण विणा दुक्खं उच्चारपासवणं बोसिरितुं, बंभसुत्तर्गपि अच्छउत्ति अवसेसे सर्व परिहरति । अण्णदा चेतियबंदणयाए गता, आयरिया चेडरूवाणि गाहेति, भणह--सब्वे बंदामो एतं
दीप अनुक्रम
४०६॥
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भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाष्यं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
उपोषात
दीप अनुक्रम
चाल्लं मोतुं, एवं भणिओ, ताहे सो जाणति-इमे मम पुत्ता णत्तुया य बंदिजंति, अहं कीस ण बंदिज्जामि, ताहे भणति-IRL.
धिक्यानुआवश्यक काकिंनाहं पब्बइउति, ताणि भणति-कओ पव्वइतगाण छत्तगाणि भवति', साहे सो जाणति-एताणिषि मर्म पडिचोएंति, दे छहेमि, PIN
ग्रेगे आर्यताहे पुत्ता भणति-अलाहि पुत्ता! छत्तगणं, ताहे ते भणति-अलाहि, जाहे उण्हं होहिति ताहे कप्पा उवरि कीरिहिति, एवं ताणि
रक्षिताः मोत्तुं करइल्लं, तत्थ से पुचो भणति-मचएण चेव सण्णाभूमि वा गंमति, एवं जष्णोवतियपि मुमति, ताहे आयरिया भणंतिनयुक्तको वा अम्हे ण जाणति जहा बंभणा', एवं तेण ताणि मुक्काणि, पच्छा ताणि पुणो मणति-सव्वे बंदामो मोतूण कडिपडलं, ॥४०॥लताहे सो रुट्ठो भणति-सह अज्जयपज्जयएहिं मा वंदह, अण्णे बंदेहिति मम, एतं कडिपट्टयं न छ।मि, तत्थ य साधू भत्तपच्च-8
क्खायओ, ताहे तस्स निमित्त कडिपट्टयवोसिरणडताए आयरिया वष्णेति एतं महाफलं भवति जो साहुं वहति, तत्थ य पढम | पव्वइया मणिएल्लया-उम्मे भणज्जह अम्हे एतं वहामो, एवं ते उडेति, तत्थ य आयरिया भणति--अम्हं सयणवग्गो मा णिज्जरं ५ | पावतु', तो तुम्भे व सधे भणह अम्हे चेष बहामो, ताहे सो थेरो भणति किं पुत्ता ! एत्थ बहुतरिया निज्जरा', आयरिया है भणति-बाद, किं एत्थ भाणितव्यं, ताहे सो भणति-तो खाइ अहंपि वहामि, आयरिया भणति-एत्थ उबसग्गा उप्पज्जति चेडरूवाणि णग्गेन्ति, जदि तरसि अहियासितुं तो वहाहि, अह णाहियासेसि ताहे अहं न सुंदरं भवति, एवं सो थिरो कतो, जाहे सो उक्खित्तो साधू मग्गतो पव्वइयाउ ठिताओ ताहे खुड्डगा भणिता-एत्ताहे कडिपट्टयं मुएह, ताहे सो मोतुं आरद्धो, ताहे अण्णेहिं है भणितो-मा सुचत्ति, तत्थ से अण्णेण कडिपडओ पुरतो कातूण दोरेण बरो, ताहे सो लज्जिओ तं वहति, मग्गओ मम पेच्छति |
४॥४७॥ | सुहाओ नत्तुईओ य, एवं तेणचि उत्सग्गो उष्टिओचिकातूण वढं, पच्छा आगतो तहेच, ताहे आयरिया भणति-कि अज्ज खंत।
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भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाष्यं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
SECRECENCE
18 इमं , ताहे सो भणति-साहसियज्जे (अहियासियब्वे) पुत्त ! उवसग्गो उडितो, आणेह साडयं, ताहे भणति-किं साडएणं पृथक्त्वानुआवश्यक है दट्टब्वं तं ददु, चोलपट्टओ चेव मे भवतु, एवं ता सो चोलपट्टयं गेहाविओ।
योगे आर्यचूर्णी
पच्छा भिक्खं न हिंडति, ताहे आयरिया चितेंति--जदि एस भिक्खं न हिंडति तो को जाणति कदाति किंचि भवति, रक्षिताः वा पच्छा एकल्लओ किं काहिति?, अविय-एसो निज्जरं पावेतब्बो, तम्हा (तहा) कीरतु जहा एसो हिंडति, एवं च आयवेयावच्चं से, पच्छा
परवेतावच्चपि काहिति, एवं चिंतेत्ता आयरिया ते सच्चे अप्पसारिय आमणितूण गता, जहा सव्ये आगता एकल्लया समुद्दिसह, I૪૦%ા पुरतो य खन्तस्स भणंति-खन्तस्स बडेज्जाह, अहं वच्चामि गाम, एवं गता आयरिया, तेऽवि आगता समाणा सव्वे एकल्लया
समुदिसंति, सो चितेंति-मम एस दाहिति, एसो दाहिति, एकोवि तस्स न देति, अण्णो दाहिति, एस चराओ किं लभति !,1||
अण्णो दाहिति, एवं तस्स न केणति किंचिपि दिण्णं, ताहे आसुरुत्तो न किंचि आलवति, चितेति-कल्लं ता एतु मे पुत्तो तो I | पावेमि जे केणति (ण) पाविता, ताहे वितियदिवसे आगता आयरिया, ताहे ते भणति- खंता! किह वड़ियं भे, ताहे सो भणति-10 जदि तुम पुचा! न होतो तो हं एकपि दिवसं न. जीवंतो, एते य जे अण्णे मम पुचा नत्तुगा य एतेवि न किंचि देति, ताहे | आयरिएण समक्खं ते खिसिता, तेवि य अन्वगता, आयरिया भणंति-आणेह, अहं अप्पणावि जामि, खतस्स पारणय आणेमिः। ताहे सो खंतो भणति-किह मम पुत्तो हिंडिहिती, प्रकृष्टो न कदाति हिंडियपुब्बो, अहं चेव हिंडामि, ताहे सो खतो अप्पणा ॥४०८॥ णिग्गतो, सो य पुण लद्धिसंपण्णो चिरावि गिहत्यत्तणे, सो य अहिंडतो न जानति कसो दारं ववदारं वा ?, ताहे सो एग धर अवहारेण अतिगतो, तत्थ य अण्णदिवसं पगतं वत्तेल्लयं, तत्थ घरसामिणा भणिता-'कचो पच्वइतओ अतिगतो, घरस्स किं
SEA5
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CMCALC
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाज्यं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
(
आविरक्षित
त्ति
प्रत
HEIGE
दीप अनुक्रम
श्री दारं नत्थि, कीस अवदारेण अतीसि , ताहे तेण तत्थुप्पण्णं चेव भणित--सिरीअ एतीए किं दारं अवदार वा, जतो अतीति & आवश्यक तो सुंदरा, ताहे. तेहिं भणितं-- देह से मिक्खं, तत्थ लड्डुगा बत्तीस लद्धा, सो ते घेत्तूण आगतो, आलोयियं ण, पच्छा को चूणा आपरिया मणंति-तुझं बत्तीस सीसा होहिंति परंपरएण आवलिया ठावया, ताहे आयरिया भणति जा तुम्मे पुवं राउला लगा कि II किंचियातिसेसं ताहे कस्स देह, तेण भणित-भणाणं, एवं चेव अम्ह साधुणो पूयणिज्जा, एतेसि एस पढमलाभों दिज्जङ,
एवं होतुति तं सच्वं साहूण दिण्णं, ताहे पुणो अपणो अट्ठाए उचिष्णो, पच्छाऽणेणं परमणं घतमहुसंजुत्तं आणित; पच्छा सर्य। ॥४०॥ समुदिहो, एवं सो अप्पणा चेव पद्वितो लद्धिसंपण्णो बहूर्ण बालदुब्बलाणं आधारो जातो । एवं तस्सण्णायगपबन्जा।
# तत्थ य गच्छे तिण्णि पूसमित्ता-एगो दुब्बलियपूसमित्तो एगो घयपूसमिचो एगो पोत्तपूसामिचो, जो दुबलिओ सो झरओ,
एगो घत उप्पायेति एगो पोचाणि, तस्स धतपूसमित्तस्स इमा लद्धी-दन्यतो घत उप्पाएतव्वं, खेत्तओ जहा उज्जेणीए, कालतो जेवासाढकाले, भावतो धिज्जातिणी तीसे भत्तुणा दिवसे २ छहिं मासेहिं पसविहिति पिंडिओ वारतु घतस्स वितायाए उवयुब्जिअतिचि, सा य काल वा परे वा वियाहितित्तिकाऊणं, तेण य जातितं, अपणं पत्थि, तहवि पिंडित सा हट्ठमाणसा देण्जा
परिमाणं तु जत्तियं गच्छस्स उपयुज्जति, सो यनितो चेव पुच्छति-कस्स कत्तिएण घएण कज्जी, पोत्तपूसमित्तस्स एमेव सत्ता, द-18 &ाव्यादि, दव्वओ वत्थं खेत्तओ वइबदेसे महुराए वा, कालओ वासासु सीतकाले वा, भावतो जहा काइ रंडा तीसे केणति उवाएणला
४०९॥
. वहहिं दुक्खेहि छुहाए य मरतीए कतिऊण एगा पोती वृणावेत्ता कल्लं नियंसेहामति, एत्यंतरा पोतिपूसमितण जातितं, सा हतुवा देज्जा, परिमाणओ सन्चस्स गच्छस्स उप्पाएज्जा।
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाष्यं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
एस दोपह जो दुब्बलियपूसमितो तेण णव पुव्वाणि गहितेल्लगाणि, सो ताणि रतिं च दिवस झरति, एवं सो झरणाए आर्यरक्षितविश्वका | दुब्बलो जातो, जदि सो न झरेज्जा ताहे तस्स सर्व चेव पम्हुसज्जा, तस्स पुण दसपुरे चेव नीयल्लगाणि, वाणि पुण रचवडो-दा वृत्चे चूर्णी |वासमा आयाया अल्लियति तण भति
IPI वासगाणि आयरियाणं पासे अल्लियंति, तत्थ ताणि भणति-अम्हं भिक्खुणो झाणपरा, तुझं झाणं णस्थि, आयरिया मणति-12 उपोद्घात अम्हं चेव झाण, तेसि कुतो झाणी, एस तुब्भं जो नियल्लओ दुबलियसमित्तो एस झाणेण चेव दुबलो, ताणि भणति-एस ६
GI हिता. नियुक्ती
|गिहत्थत्तणे निद्धाहारेहिं बलिओ, इदाणिं णत्थि, तेण दुव्बलो, आयरिया भणंति-एस नेहेण विणा न कदाति जेमेति, ताणि | ॥४१॥ भणति-कतो तुम्भ हो', पतपुस्समितो आणेति, ताणि न पत्तियंति, ताहे भणिताणि-एस तुम घरे किं आहारेताइओ,
वाणि भणति-निद्धपेसला आहारवाइओ, तेसि संबोधि णातुं ताण घरं विसज्जिओ, एताहे देह तं, ताणि तहेव दातुं पवत्ताणि, सोवि झरति, तपि णज्जति छारे छुम्मति, ताणि गाढतरं देंति, एवं निविण्णा, नाहे आवादियाणि, किही, सो भणितो-मा णि आहारहि, मा य चितेहि, ताहे सो पुणोऽवि पोराणसरीरो जातो,ताहे ताण उवगतं, ताहे तेसि धम्मो कहितो, सावगाणि जावाणि।
तस्थ य गच्छे इमे चचारि जणा-सो चेव दुम्बलोविझोरफग्गुरक्खितोक्गोवामाहिल्लोत्ति४। जो सो विशो सो अतीव मेहावी सुत्तत्थतदुभयाणं गहणधारणसमत्थो, सो पुण ताव महल्लाए मंडलीए विमरति, ताहे सो आयरिए मणति-अहं विसरामि, न सका। मंडली बोलेत्ता, तो मम संदिसह, आयरिया भणंति आम अज्जो,ताहे तस्स दुबलिओ दिण्णो वायणायरिओ, कतिवि दिणे उवडिवो ॥४१०॥ मम नासति, जंच सचायतघरे णाणुपेहितं तं च संकितं जातं, तोमम अलाहि, जदि अहं एतस्स वायण दाहामि तो मम नवमं पुव्वंदा | पम्हुसिहिति, ताहे आयरिया चिंतेति–जति ताव एतस्स परममेहाविस्स एवं झरंतस्स णासति अन्नस्स नहेल्लयं चेव, एवं ते उवओर्ग
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भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं 1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७३-७७७], भाष्यं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
बाव पूर्णी
सत्राक
॥४१॥
&iमता, ताहे तेहि गहणधारणाबुचलनणं णातूर्ण चचारि अणुयोगद्दारा कता सुहगहणधारणा भविस्संति, काणि पुण ताणि -
कालियसतं०॥८-५६॥ १२६ मु. भा. ॥ जं च महाकप्प०॥८-५५ १११ भा.॥ एकारस अंगा सबाहिरगा | वृचे महाकप्पसुतादि एतं चरणकरणे ठवितं, इसिभासिता उचरज्झयणा य धम्माणुयोगो जातो, चंदरपण्णसीओ एस कालाणयोगो, गोष्ठांमादिडिवाओ दविताणुओगो, अपहुचे एगम्मि सुते चत्वारिवि अणुयोगा आसि, अपुहुत्ते अत्थो चोच्छिण्णो एगेण एगो ठितो, एवं हितः जुगमासज्ज अणुयोगो कतो चउथा, एतमिमित्तं विंझस्स गहणं कतं । निमित्तं चत्तारि अणुयोगहारा कता जेण कयो सो भणितो। अण्णोऽविय आयरियाणं माता बहुस्सुतो फग्गुरक्खितो अण्णोऽविय आयरियाणं मामओ मोट्ठामाहिल्लो, एते उरि भणिहिति ।
देविंदरदिएहिं० ।। ८-५१ ॥ ११६ ।। किह देवेहि वैदिता', ते.प नाम विहरता महुरानगरिं गता, तत्थ भूतगुहाए ठिता वाणमंतरघरे, इतो यसको देवराया महाविदेहे सीमंधरसामि पुच्छति नियोदे, तत्थ से वागरिता, ताहे भणति-अस्थि पुण भरहे कोइ णिोते वागरेतो १, भगवता भणितं-अस्थि पुण, को, अज्जरक्खिओ, तत्थ आगतो सको माइणरूपेण, ती धेररूर्व कातूणं, पब्वइयगा य निग्गता भिक्खस्स, सो य अतिगतो, ताहे वंदित्ता पुच्छति-भगवं! मम सरीरे इमो महल्लष्बाही इमं च म पच्चक्खाएज्जामि, तो जाणह-मम केत्तियं आउं होज्जा, जविएहिय किर भणिता आयुसेडी, तत्थ उवउत्ता आय 181 रिया जाव आयु पेच्छति परिससतं दो तिण्णि, ताहे चिंतेंति-एस भारहओ तु मणूसो ण भवति, वाणमंतरो विज्जाहरो वा जाव है
दो सागरोवमट्टीती वाहे भूयाउ साहरिता मणति-सको भविज्जा, बादंति भणितं, पादेसु निवडितो, ताहे सव्वं साहति, जहा लामहाविदेहे सीमंधरसामी. पुच्छिता, तेहिं कहितो, इहं वामि आगतो, तं इच्छामि गं सोतुं निओते, वाहे कहिता, भणति-सणाई।
दीप अनुक्रम
RTERRIERRESS
॥४१
॥
...यत् अत्र 'चूर्णि' संपादने “जं च महाकप्प" गाथा, भाष्य-गाथा रूपेण निर्दिष्टा, सा गाथा: वृत्तिकारेण नियुक्ति-गाथा ७७७ रूपेणा निर्दिष्टा: ...निहनव (गोष्ठा माहिल) वृतांत आरभ्यते
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाष्यं [१२४]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 अध्ययनं [], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [७७४/७७३-७७७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
श्री
आवश्यक
चूण उपोद्घात नियुक्तौ
॥४१२ ॥
SACRE
भरहन्ति इदाणिं वच्चामि भांति आयरिया -अच्छह ताव मुहुत्तगं जाव संजता एन्ति, सो भणति वच्चामि, आयरिया भणति - एचाहे दुकहा संजाता, जा धिरा भवंतु जे चला जहा एत्तादेवि देविंदा एन्ति, ताहे सो भणति-जदि ते ममं पेच्छति ते चेवऽप्पसत्ततेण निदाणं वा काहिंति, तेण वच्चामि किंच चिंधं कातूणं चच्च, ताहे दिव्या गंघादी पकिष्णा, पडितयं च अण्णओमुहं कातूण गतो, ताहे आगता संजता, ते पुंच्छति - कहिं एतस्स दारं १, आयरिएहिं वाहिता इतो एहत्ति सिहं च जहा सको आमतो, ते भांति अहो अम्हेहिं न दिडो ?, कीस मुदुतं न धारिओ ?, तं चैव साहंति जहा अप्पिढिया मणुचा मा पियाणं कार्हिति, पाडिहरं कातूण गतोति । एवं ते देविंदवंदिया भण्णंति ।
ते अण्णा विहरंता दसपुरं गता, मथुराए य अकिरियवादी उडिओ, जथा-नत्थि माता नत्थि पिता एवमादिणाहीयवादी, तत्थ संघसमवाओ कओ, तत्थ पुण वादी णत्थि, ताहे इमेसि पयट्टियं इमे य जुगप्पधाणा, ताहे आगता, तेसिं साहति, ते य महछा, काहे तेहिं गोझमाहिलो पट्टितो, तस्स य बादलद्धी अत्थि, सो गतो, तेण सो वादे पराजिओ, सोवि ताव तत्थ सड्डेहिं रुद्रो वरिसारचे ठिओ अच्छति ।
इतोय आमरिया समिति को गणहरो भवेज्जा, ताहे दुब्बलियपुस्तमित्तो समिक्खितो, जो पुण तेसिं सयणवग्गो सो बहुओ, (तस्स) गोडामा हिलो फग्गुरक्खितो वा अणुमतो, गोट्ठामाहिलो आयरियाण मातुलओ, तत्थ आयरिया सच्चे सदावेचा दिस करति, जड़ा तिथि कुडा-निप्फावकुडे तेल घतकुडो, ते पुण सच्चे हेड्डाहुत्ता कता निष्फावा सब्बे णिति, तेलमवि गीति, तस्थः पुत्र अवयवा लग्गंति, घराकडेहिं बहु चैव लग्गति, एवमेव अहं अज्जो ! दुम्बलियपूसमित्तं प्रति सुचत्थतदुभयेसु निष्फाक्कुडसमाणों
(121)
जार्यरक्षितवृत्ते गोष्ठामा
हिल
।।१२।
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७८-७८६], भाष्यं [१२५-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
माहिलवर
श्री
जाओ, फग्गुरक्खितं प्रति तेल्लकुडसमाणो, गोडामाहिलं प्रति घयकुडसमाणो, एवं एस सुतेण य अत्थेण य उववेतो, एस तुम्भ
आयरिओ भवतु, तेहिं सव्वं पडिच्छितं, इतरोवि भणितो-जहाऽहं वडिओ फग्गुरक्खितस्स गोट्ठामाहिल्लस्स य तथा तुमे पट्टिचूणों तब्वं, ताणिवि भणिताणि-जहा तुम्भ मम वट्टिताई तहा एतस्सवि वडेज्जाह, अविय-अहं कते वा अकए वा ण रूसामि, एस उपोद्घातान खमिहिति, एवं दोऽवि वग्ग अप्पाहेचा भत्तं पचक्खात, कालगता, दियलोगं गता । इतरेणवि सुतं जहा आयरिया कालगता, नियुक्तोताहे आगतो पुच्छति गोट्ठामाहिल्लो-को गणहरो ठवितो, कुडगदिद्रुतो य सुतो, ताहे वीसुं पडिस्सए ठाइतूण पच्छा आगतो, ॥४१३॥ 18| ताहे तेहिं सम्वेहि अन्भुट्टितो, इह चेव ठायह, ताहे णेच्छति, सोऽवि वाहि ठितो अण्णाणि बुग्गाहेति, ताणि ण सति ।
___ इतो य आयरिया अत्थपोरिसिं करेंति, सो ण सुणति, भणति- तुब्भत्थ निष्क्षावकुडा कहेह, तहेब तेसु उद्वितेसु विंझो अणुभासति, अट्ठमे कम्मप्पवादपुच्चे कर्म वणिजति, किह कम्मं अच्छति?, जीवस्स कम्मस्स य कहं बंधो, तत्थ ते भणंतिबद्धं पुटुं निकातिय, बद्धं जहा सूतिकलावओ. पुढ जहा घणनिरंतराओ कताओ, निकाइत जथा तावेतूण पिट्टिताओ, एवं कम्म रागद्दोसेहिं जीवो पढमं बंधति, पच्छा तं परिणाम अमुचतो पुढे करेति, तेणेव सकिलिटुं परिणाम अमुचंतो किंचि निकाएति,
निकाइत निरुवक्कम उदए, गवरि अण्णहा तं नवि वेतिज्जति, ताहे सो गोट्ठामाहिलो वारेति, एत्तिए ण भवंति, अण्णदावि | 18 अम्हेहिं सुत, जदि एत्तिए कम्मं यद्धपुट्ठनिकातितं एवं भे मोक्खो न भविस्सति, कह खातिं बज्झति', भणति-गुणह
पुट्ठो जथा अबद्धो कंचु० ॥ ९-९ ॥ १४३ मू. भा। जथा सो कंचुओ त कंचुइणं पुरिस फुसति, ण पुण सो
दीप अनुक्रम
॥४१३॥
(122)
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७८-७८६], भाष्यं [१२५-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
श्री कंचुओ सरीरेण सम बद्धो, एवं चेव कम्मपि पुढ, ण पुण बद्धं जीवपदेसहि सम, जस्स य बद्धं तस्स कम्मस्स संसारपोच्छिती गोष्ठाआवश्यक न भविस्सति, ताहे सो भणति-अम्हं आयरिएहि एत्तियं भणित, एसो न याणति, वाहे सो संकितो समाणो पुच्छितुं गतो, मा मएमाहिलवृत्त
चूर्णी अण्णथा गहितं भवेजा, ताहे पुच्छिया आयरिवा, ते भणंति-अम्ह न होति एयंति, जस्स पुण अबद्धं कम्मं तस्स इमे उपोद्घातला
दोसातो-संसारो नत्थि, वेदणा वा, जहा आमासगता पल्लवा ते ण चाहिजति एवं तस्स कम्मंपि, जदि देवलोकं वञ्चति ताहे नियुक्ती
छहेतु वचति, उहंगामी जीवा अहोगामी पोग्गला इति तस्स संसारो चेव न होहिति, एवं जीवसरीराणवि अबाहेण भवितव्यं, ॥४१४|| जथा कंचुए छिअंते तस्स बाधा नस्थि, एवमाइया दोषाः, जे पुण अम्ह पक्खे मोक्खाभावेचि भणितं तं न भवति, जतो असंखज्ज
कालाओ उप्पि कम्मरस ठिती चेच णस्थि, तो ठित हक्खयातो मोक्खोऽवि भवति, जथा-परमाणुपोग्गलाणं जथा तहाखबत्तपरिताणं ठितिणेहक्खयानो वियोगो भवतित्ति, तेण गंतूण सिट्ठ, एसिए भणितं आयरिएहि, एवं पुणरवि सो संलीणो अच्छति, समप्यतु ता तो खोमेहामि ।
अण्णया नवमे पुच्चे पच्चक्खाणे साधूर्ण जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण पाणातिवार्य एवं पञ्चक्खाणं वणिज्जति, ताहे सो भणति-अवसिद्धंतो,न होति एवं, कई पुण कातब्बी, सवं पच्चक्खामि पाणातिवात अपरिमाणाए तिविई तिविहण एवं सब, आवकहितं किंनिमित्तं परिमाणं ण कीरति , जो सो आसंसादोसो निकचिओ भवति, जावज्जीवाए पुण भणतेण परेण अन्भुवगत भवति, जहा स्थामि पाणेचि, एतनिाम अपरिमाणाए कातवं, ताहे विंशो भणति-ण होति एत्तिए, च तस्स अक्सेसं नव- & ॥४१४॥ मस्स पुष्वस्स सम्म । ताहे सो भणति-अण्णहा आयरिएहिं भणितं, तुम अण्णहा पण्णवेसित्ति, ताहे सोभणति एत्तिए भाणित
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 । अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [७७४/७७८-७८६], भाज्यं [१२५-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
HEIGE
आयरिएहि, आसंसा पुष्प एवं भवति,जतो न मता आसेविस्सामोत्ति परिमाणं करेंति, किं तु मा जत्थ का तत्थ वा वयपरिच्चामबावश्यक
परिणामो भविस्सति, मताणं च देवभावादो अवस्संभावी पच्चक्खाणाभावो, अपरिमाणे एयकरणे तस्थासेपणे किं भवति । पूणा जावज्जीवाए भणवित्ति । ते य सब्बे भणंति-जहा एत्तिएण मणित आयरिएहिति, जेवि अण्णे थेरा बहुस्सुता अण्णगच्छेल्लया तेविालामालित उपोद्घात
* पुच्छिया एत्तिए चेव भणंति, ताहे भणति-तुम्मे किंजाणह, तित्थकरहिं एत्तिए भणित, तेहि भणितं-तुम न जाणासि, जाहेन ।
Bाठति, ताहे संप समाओ कओ, देववाए य काउस्सरमो कतो, जा भद्दिया सा आगता भणेति-संदिसहति, काहे भणिता-बच, SH ॥४१५॥
तित्थयरं पुच्छ-किं जं गोहामाहिलो भापति सच्ची जं दुबलियप्पमुहो संघो भणति तं सच्ची, ताहे सा भणति-अणुवलं देह, काउस्सग्गो दिषणो, ताहे सा गता, तित्थगरो पुच्छितो, केहिं वागरितं, जहा-संघो सम्मावादी, इतरो मिच्छावादी, निण्हओ एस
सचमा, ताहे आगताए भणितं, उस्मारे, संघो सम्मावादी, एस मिच्छावादी, निण्हओ य सत्तमो, ताहे सो भणइ-एस अप्पिडिया &वराई, का एताए सत्नी गंतूण', तीसेवि न सहइति, तारे पूसमिता गमेन्ति, जथा-अज्जो ! पडियज्ज, मा उम्पाडिज्जिहिसिला सणेच्छति, ताहे सो संघण बज्यो कतो पारसविहेण संभोएण, तंजहा-उपहि १ सुत २ भत्तपाणे ३, अंजलीपग्गहे इस ४ । दायणा ५य निकाए ६य, अन्भुट्ठाणेचि आयरे ७॥१ कितिकसमस्स य करणे ८ व्यावचकरणे इय ९ । समोसरण १० सष्णिसेज्जा ११, कहाए, य निमंतणे १२ ॥२॥ एस. बारसविहो सउचरभेदो जहा पंचकप्पे, सत्तमो निण्हउत्ति, एवं अणालोइयपारिकतो
कालगतो, एस सत्तमो निण्हओ । एतेण भणितेण अवसेसा सूइता ते पहमेल्लुगे, ण जाणामो ते, तेण मुणिउमिच्छामो, तत्थ दाइमे निण्हगा
दीप अनुक्रम
REPARA
RSSKARE
॥४१५॥
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
अध्ययनं [-]
मूलं [- /गाथा -],
निर्युक्तिः [७१८/७७८-७८६], भाष्यं [१२५-१४८]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूण
उपोद्घात निर्युक्तौ
॥ ४१६ ॥
बहुरयपदेस अन्वत्त० । ८-५६ ।। ७१८ ।। बहुरताणं किह उत्पत्ति ?, तेणं काले० कुंडपुरं नगरं, तस्स सामिस्स जेठ्ठा भगिणी सुदंसणा नाम, तीए पुतो जमाली, सो सामिस्स मूले पव्वइतो पंचहि सतेहिं समं, तस्स भज्जा सामिणो धृता अणोज्जंगी नाम, बीर्य नाम से पियदंसणा, सावि तमणुपव्वतिया ससहस्सपरिवारा, जहां पण्णत्तीए तहा भाणितव्यं, एकारम अंगा अधीता सामिणा अणणुष्णातो सावत्थि गतो पंचसतपरिवारो, तत्थ तेंदुगुज्जाणे कोडगे चेतिते समोसढो, तत्थ से अन्तपन्तेहिं रोगो उप्पण्णो, न तरीत विद्वेतुं अच्छितु, ताहे सो समणे भणति मम सेज्जासंधारगं करेह, ते कातुमारद्धा, पुणो अधरो भणति-कतो ? कज्जति १, ते भणति न कतो, अज्जावि कजति, ताहे तस्स चिंता जाता-जण्णं समणे भगवं० आइक्खति 'चलमाणे चलिते उदिरिजमाणे उदीरिए जाव निज्जरिमाणे निज्जिण्णे' तष्णं मिच्छा, इमं णं पञ्चक्खमेव दसति सेजासंधारए कमाणे अकडे संथारेजमाणे असंधारिए, तम्हा णं चलमाणेऽवि अचलिए जाब निज्जरिमाणेऽवि अणिज्जिण्णे, एवं संपेहेति २ निग्गंधे सदाविति सदावेत्ता एवं वयासी-जणं समणे • महावीरे एवमाइक्खति चलमाणे चलिते जाव तण्णं मिच्छा, इमं णं पञ्चक्खमेव दीसति जाव तम्हा णं अणिज्जिणे, तवेणं जमालिस्स एवं आइक्खमाणस्स जाव परुवेमाणस्स अत्थेगतिया णिग्गंथा एतमत्थं सदर्हति अत्थेगतिया णो सदहंति, जे ते सदहंति ते णं जमालि चेव अणगारं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति, जे ते णो सद्दति ते णं एवमाहंसु, जण्णं सामी आइक्खति तण्णं तह चैत्र, जं णं तुमं वयसि तं णं मिच्छा, कहं ?, 'चलमाणे चलिते ' इत्यत्र चलितमिति स्थितिचयाद् यदुदितं तचलितमित्युच्यते, उदितं तु विपाकाभिमुखीभूतं तथैवं चलत्कर्म उदयावलिकाले चलति, तस्य कालस्य असंख्येयसमयत्वात्, आदिमध्यान्तवच्च कर्मपुद्गलानामपि अनन्ताः स्कन्धाः अनंताः प्रदेशाः क्रमेण पइसमयमेव
अत्र 'जमाली' प्रथम-निह्नवस्य कथानकं आरभ्यते
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जमालिवृत्तं
॥४१६॥
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 । अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [७१८/७७८-७८६], भाज्यं [१२५-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
उत्पत्तिका
प्रत
चूणौँ
चलन्ति, तत्र योऽसावाद्यश्चलनसमयस्तस्मिस्तचलदेव चलितं, कथं पुनस्तद्वर्तमानं सदतीतं भवति ?, तत्र दृष्टांतः यथा पटः जमालिवृत्त्रं धावश्यक उत्पत्तिकाले प्रथमततुप्रवेशे उत्पद्यमान एवोत्पत्रो भवति, उत्पद्यमानत्वं तु यतस्तस्मात्कालात्प्रभृतिः,तस्यायं व्यपदेशो दृष्टा-उत्पथ
पट इति, तत्रोपपत्ति-उत्पतिक्रियादिकाल एव प्रथमतंतुप्रवेशे तदुत्पन्न, यदि हि तदा नोत्पत्र स्यात् अतस्तस्याः क्रियाया | उपाहाता वैयर्थ्य स्यान्निष्फलत्वात, उत्पाद्योत्पादनार्था हि यतः क्रिया भवति, यथा च तस्मिन् क्षणे तनोत्पन्न तथोत्तरेप्वपि क्षणेषु नैव नियुक्तौ ५
तस्योत्पत्तिः स्यात्, को हितासामुत्तरासां च क्रियाणामात्मनि रूपविशेषः येन प्रथमया नोत्पन्नं ताभिरुत्पद्यते , अतः सर्वदेवा-12 ॥४१७॥ नुत्पत्तिप्रसंगः, इष्टा चोत्पत्तिः,अंत्यतंतुप्रवेशे पटस्य दर्शनात्, अतः प्रथमविहरण एवांगुल्यादेः किंचिदुत्पन्न तदुत्तरक्रियया नो(चेदु)त्प
द्यते, ततस्तदेकदेशोत्पादन एव क्रियाणां कालानां च क्षयः स्यात् यदि तु नद्देशोत्पादननिरपेक्षान्या क्रिया भवति तदा उत्तरांशा
नामनुक्रमण युज्यते, अनेन न्यायेन यथा पर उत्पद्यमान एवोत्पन्नः तथा तेनैव न्यायेन असंख्यातसमयपरिमाणस्वादुदयावलिकालाया आदिसमयाव अतिसमयं चलदेव तत्कर्म चलितं,की,यतो यदि हि तत्कर्म चलनाभिमुखीभूत उदयावलिकायाःआदिसमय एवं ना | चलितं स्यात् , ततस्तस्याद्यसमयचलनस्य वैयध्यं स्यात्, तत्राचलितत्वात् , यथा च तस्मिन्समये न चलितं तथा द्वितीयादिसमयेपपि न चलेत, को हि तेपामात्मनि रूपविशेषः येन प्रथमसमये न चलित उत्तरेषु चलतीति ?, अतः सर्वदेवाचलनप्रसंगा, अस्ति चान्त्यसमये चलन, स्थितः परिमित्रत्वान, कर्माभावदर्शनात, अतः आवलिकाकालादिसमय एव किंचिचलितं, यञ्च तस्मिवलितं तमोत्तरेषु समयेषु चलति, यदि तु तेष्वपि तदेवाचं चलनं भवेत् ततस्तस्मिन्नेव चलने सर्वेषामुदयावलिकाचलनसमयानां यः
॥४१७|| स्यात्, यदि तु तत्समयचलननिरपेक्षानि अन्यसमयचलनानि स्वचलनरूपाणि भवन्ति तत उत्तरचलनानुक्रमणं युज्यते, अत एव ।
BREECE
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 । अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [७१८/७७८-७८६], भाज्यं [१२५-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सो
1562
13 वर्तमानमेव तचलनमतीतं भवति, एवं उदीरिज्जमाणादिसुवी भावेयव्वमिति, तम्हा कज्जमाणे कडे संथरिज्जमाणे संथरितेति ।।जमालिवृत्त आवश्यकतजाहेन ठाति बाहे निग्गथा जमालिस्स अंतिताओ जथा पण्णत्तीए जाव सामि उपसंपज्जिचाणं विहरति । साविय णं पियर्दसणाई चूर्णी
ढकस्स कुंभकारस्स घरे ठिता, सा आगता चेतियवंदिता, ताहे तंपि पण्णवेति, सावि विपडिवण्णा तस्स हाणुरागण, पच्छा | ४ गता अज्जाणं परिकहेति, तं च टंक भणति, सो जाणति जथा-विप्पडिवण्णा नाहच्चएण, ताहे सो भणति-अहं न याणामि एवं
है विसेसतरं, एवं तीसे अण्णदा कदापी समायपोरिसिं करतए तेण भाषणाणि उम्बत्तणं तचोहुचो इंगालो छुढो जथा तीसे ॥४१॥ संघाडी एगदेसमि दडा, सा मणति-इमा अज्ज! संघाडी दड्डा, ताहे सो भणति तुम्भे चेव पण्णवेह जथा-उज्झमाणे अदके, केण
४ा तुम्भ संघाडी दड्डा , एत्थ सा संयुद्धा, तहत्ति पडिसुणेति, इच्छामो अज्ज ! सम्म पडिचोदणा, ताहे सा गतूण अमालि पण्णMवेति, सो जाहे न गेण्हति ताहे गता सहस्सपरिवारा सामि उवसंपज्जित्ताणं विहरति । 1 इमो चिंतंतो लहुं चेव गतो पं नगर, सामिस्स अदरसामंते ठिच्चा सामि भणति-जथा ण देवाणुप्पियाणं बहवो अंतेवासी
समणा निग्गंथा छउमत्था भाविता छउमस्थावकमणेण अवकता, नो खलु अहं तथा छउमत्थो मविचा छउमत्थावकमर्णण अबINIकते,अहण उप्पण्णाणाणदसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवकमणेणं अवकते. ततेणं भगवं गोतमे जमालि एवं वदासी-10
ना खलु जमाली केवलिस्स गाणे वा दसणे वा खलसि वा थंभांस वा जाव कहंचि वाऽऽवरिज्जति वा, जदिक तुम जमाली उप्पप्राणणाणदंसणधरे तो इमाई दो वागरणाई बागरहि-सासते लोक? असासते १.सासते जीये? असासए ,तपणस जमाला मग
पता गातमण एवं उत्त समाणे संकिते लज्जिए जाच णो संचाएति भगवतो गौतमस्स किचिनि पमोक्खमक्खातिपणात तासणाए
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग - 4 "आवश्यक" मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2 निर्मुक्तिः ७१८/७७-७८६]
यं [१२५-१४८]
अध्ययनं [-]
मूलं [- / गाथा-1, पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णी उपोद्घात नियुक्ती
॥४१९॥
संचिट्ठति, जमालीति समणे मगर्व महावीरे जमालि एवं वयासी अस्थि णं जमालि! ममं वहने अंतेवासी छउमत्था जे गं पहु एवं वागरणं एवं वागरेचए जथा गं महं, नो चेव णं एतप्पारं भासं भासितए जथा णं तुमं सासए लोए जमाली, जंण कयायि प्यासी न कदापि न भवति न कदायि न भविस्सति, भुवि च भवति य भविस्सति य, धुषे जाव निचे, असासए लोए जमाली !, जणं उस्सप्पिण्णी भवित्ता ओसप्पिण्णी भवति, सासते जीवे जमाली !, जं णं ण कदायि णासी जाव णिच्चे, असासते जीवे, जणं नेरहए भवित्ता तिरिक्खजोपिए भवति तिरिक्खजोगिए भवित्ता मणुस्से भवद्दर भविता देवे भवति, तते णं से जमाली सामिस्स एवं आइक्खमाणस्स एतमहं नो सदहति असद्दहंते सामिस्स अंतियाओ अवकमति २ बहूह्नि असम्भावुभावणाराह मिच्छत्ताभिनिवेसेहिय अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गामाणे उप्पारमाणे महूई वासाई सामण्णपरियाय पाउणति, बहूहिं छट्टट्टमादीहिं अप्पाणं भावेति भावेता अद्धमासियाए संलेहणाए अप्पाणं सेति २ तीसं मत्ताई अणसणताए छेदेति, छेदेत्ता तस्त्र ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालमासे कालं किचा लंतर कप्पे तेरससागरोवमट्टितिकेसु देवेसु देवत्ताए उबवण्णे, एवं जथा पण्णत्तीए जाव अंतं काहितित्ति । एताए दिडीए बहुए जीवा रता तेण बहुरतति भण्णति, अहवा बहुसु समयसु कञ्जसिद्धिं पटुच्च रता-सक्ता बहुरता इति । चोदस वासाणि तदा सामिणा उप्पडितस्स णाणस्स ताहे सो पढमओ निण्हओ उप्पण्णोति ॥
चितिओ सामिणा सोलसवासाई उप्पाडितस्स णाणस्स तो उप्पण्णी । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे गुणसिलए चेतिए बच, नाम भगवंतो आयरिया चोदसपुथ्वी समोसढा, तस्स सीसो तीसगुत्तो नाम, सो आतप्पवादपुत्रे इमं आलावगं अज्झाति
'तिष्यगुप्त द्वितिय-निनवस्य कथानकं आरभ्यते
(128)
जमालि स्तिष्य गुप्तव
॥४१९॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [७१८/७७८-७८६], भाष्यं [१२५-१४८] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
HEIGE
नियुक्तो ।
"एगे भंते ! जीवप्पदेसे जीवेत्ति वत्तवं सिया ?, णो तिणत्थे, एवं दो जीवप्पदेसा तिष्णि संखेज्जा असंखज्जा जाव एगप्पदेसू-18| तिष्यगुप्त आवश्यकलावि य णं जीवे णो जीवेत्ति बत्तव्य सिया,जम्हा कसिण पडिपुण्णे लोगागासप्पदेसउल्लपदेसे तु जीवेति वत्तव" मित्यादि, एस्थता आषाढ़ा
चूणा सो विप्पडिवण्णो, जदि सब्वेवि जीवप्पदेसा एगप्पदेसहीणा जीवनवएसं न लभंति तो णं एसे चेव एगे जीवप्पदेसे जीवेत्ति, पायात तब्भावभाचित्वात् जीवव्ववदेसस्सत्ति, ताहे सो भणति-नो खलु एगप्पदेसमेत्तनिबंधणे जीवव्ववदसे, किंतु कसिणपडिपुण्ण-18
दशिष्याश्च लोगागासप्पदेसतुल्लपदेसनिबंधणेत्ति, तं नो खलु एगे जीवप्पदेसे जीयेति, जाहे न ठाति ताहे से काउस्सग्गो कओ एएहि, ॥४२०॥ सो बहहिं असम्भायुम्भावणाहिं मिच्छत्वानिवेसेहि य अप्पाणं च पर च बुग्गाहेमाणो गतो आमलकप्पि नगरि,तत्थ अंबसालवणे|
ठितो, तत्थ मित्तसिरी नाम सवणोवासओ तप्पमुहा य अण्णे, ते निग्गता आगता साहुणत्ति, सोऽवि जाणति जहा एते निण्हगत्ति, पच्छा सो पण्णवेति, सोवि जाणति तहाइ माइट्टाणेणं गतो धम्म सुणेति, सो ते ण विरोहेति, पण्णवहामि णं, एवं सो कर्म पडिल्छतो जाच तस्स संखडी विपुलविच्छिण्णा जाता, ताहे ते णिमंतिया-तुम्भे मम घरे पादाद्याकमण करेह, एवं ते आग
ता, ताहे तस्स निविट्ठस्स तं विपुलं खज्जयं नीणित, ताई सो ताओ एक्केकाओ खंड देति कूरस्स कुसणस्स बत्थरस, ते जाणं#ति-एस पच्छा पुणो दाहिति अम्हं, पच्छा पादेसु पडिओ सयणं च भणति-बंदह, साधू पडिलाभिता, अहोऽहं धष्णो सपु
|ग्णो जं तुम्भे ममं चेव घरे आगता, ताहे भणंति-किं धरिसिया अम्हे?, ताहे सो भणति-तुम्भ मतेणं सिद्धतेण पडिलाभिता, जMदि नवीर बद्धमापसामिस्स तणएण सिद्धतणं पडिलाभेमि, एत्थ संबुद्धा, इच्छामो अज्जो सम्म पडिचोयणा, ताहे पच्छा साव- ॥२०॥
एणं पडिलाभिता मिच्छादुक्कडं च ण कतं, एवं ते सधे संबोहिता, आलोइयपडिक्कता विहरति । वितिओ निण्हओ गतो ॥
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 । अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [७१८/७७८-७८६], भाज्यं [१२५-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
सत्राक
___इयाणिं ततियओ, तेणं कालेण० समणस्स भगवतो दो वाससताणि चोइसुत्तराणि सिद्धिं गतस्स तो उप्पण्णो । सेयविया आपाहाआवश्यक
नयरी, पोलास उज्जाण, तत्थ अज्जासाढा नाम आयरिया वायणाइरिया, तेसि च बहवे सीसा आगाढजोगपडिवण्णगा, अज्झा-181 चार्य
यति ते, तेसिं च रचिं विसइया जाता, निरुद्धवातेण न चेव कोइ उट्ठवितो जाव कालगता सोहम्मे नलिगिगुम्म विमाणे उववष्णा, IXI शिष्याः उपोद्घात ओहि पयुंजति जाव पेच्छति तं सरीरंग ते य साधुणो आगाढजोगपडिवण्णगा, एते न जाणंति, ताहे तं चेव सरीरगं अणुप्पचिड्डा, कोडिन्यश्च नियुक्ती 51 पच्छा उट्ठ-ति- वेरतिय पकरेह, एवं तण वेसि दिब्बप्पमावेण लहुं चेव समाणितं, पच्छा निष्फण्णेसु तेस भणति- खमह मंते 11
दाने मए असंजतेण वंदाविता,अई अमुगदिवस कालगतेल्लओ, एवं सो खामेत्ता गतो,तेवितं सरीरगं छईतूण इमे एयारूवे अस्थि॥४२१॥ 1ए सब्बो गच्छो विप्पडिवण्णो-एच्चिरकालं असंजतो बंदिउत्ति, ताहे ते अव्वत्तभावं भाति जथा- सव्वं अन्वत भणेज्जह,
| संजतोवि वा देवोवि वा,मा मुसाबादो भवेज्जा असंजतवंदणं च,जहा तुम ममं न पत्तियसि जहा संजतो न वा?,तुमपि एवं माणितच्यो। & एवं संजतेवि सावगेवि ता एवं विभासा, एवं ते असम्भावेण अप्पाणं३, तत्थ अणुसासिता ण ठिता, अणिच्छंता बारसविहेणं
| संभोएणं उग्धाडिता । ताहे विहरंता रायगिह नगरं गता, तत्थ मुरियवंसप्पभृतो बलभद्दो नाम राया, सो य समणोवासओ, द्रा तेण आगमिता जहा इहमागतत्ति, ताहे तेण गोहा आणचा-बच्चह गुणसिलए पथ्यइयगा ते इह आणेह, ताहे तेहिं आणीता, (भ) णिया य-लहु कडगमदेण मह, ताहे हत्थीहिं कडगएहि य आणीएहि भणति-अम्हे जाणामो जहा तुमं सावजी, सो म.
४२१॥ पति-कहिं थ सावओ?, तुम्भे केवि चारा णु चोरिया णु अभिमरा णु?, ते भणंति-अम्हे समणा णिग्गथा, सो भणइ-किह तुम्भे समणा', तुम्मे अन्वचा, तुम्भे समणा वा चारिगा वारी,अहंपि समणोवासओ वा ण वा,ते संयुद्धा लज्जिता पडिवण्णा नीसं
दीप अनुक्रम
आषाढाचार्य-शिष्या: तृतीय-निनवस्य कथानकं
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 । अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [७१८/७७८-७८६], भाज्यं [१२५-१४८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
श्री किया समणा निग्गंथावो (मो) ति, ताहे अंबाडिता, खरेहिं मउएहि य मए तुम्मे संबोहणट्ठाए , मुक्का खामिया य । एवं सामुच्छेआवश्यकततिओ गतो॥
दादिका चूर्णी IPL सामिस्स दो वाससताणि वीसुतराणि सिद्धिं गतस्स तो चउत्थो उप्पण्णो । महिला नगरी, लच्छीघरं चेतिय, महागिरी य 12 उपायात आयरिया, तत्थ तेसि सीसो कोडिण्णो, तस्सवि आसमित्तो सीसो, पुण अणुप्पवादे पुन्चे नेउणियावत्धु, तत्थ छिण्णच्छेदणयनियुक्ती
|वत्तव्यपाए आलायओ, जथा- सव्वे पडिषुण्णसमयनेरयिया वोच्छिज्जिस्संति, एवं जाव वेमाणियत्ति, एवं तस्स तम्मि बिगिच्छा ॥४२२॥
जाता, जथा- सव्वे संजता वोच्छिज्जिस्संति, एवं सन्वेसि समुच्छदो भविस्सति, ताहे तस्स थिरं चित्तं जातं, सो आयरिएहिं भष्णति-एय एगसमयवत्तब्वयं, मा एवं गण्हाहि सोच्छति, एवं सो णातूण निण्हउति उग्घाडिओ, सो समुच्छेदणय वागरेंतो | हिंडति, जथा उ मुण्णो लोगो मविस्सति, एवं असम्भाबुब्भावणाए भावेतो कंपेल्लपुर गतो। तत्थ खंडरक्खा णाम समणोबासगा,
ते य सुंकपाला, तेहिं ते आगमितेल्लता, तेहिं मारेउमारदा, ताहे ते भीता भणंति- अम्हे सुतं जहा तुम्भे सडा, तहावि एत्तिए & संजते मारेह, ते भणति-जे पवइयगा ते वोच्छिण्णा, इमे अण्णा चोरा वा०, तुम्भे कि अच्छह , तुम्भ चेव सिद्धंतो, सामिस्सा
पुण सिद्धतेण ण योच्छिज्जंति, जेण जथा वट्टमाणसमयनेरइया वोच्छिज्जंति एवं तत्थ अण्ण उववज्जिस्सति, तो कह सैताणाBा विच्छेदे सति योच्छेदं पण्णवेह, अण्णे भणीत-तत्थ इमो आलायो जहा सब्बे पढमसमयनेरइया बोच्छितित्ति, एवं पंचगतिछायाचि, एत्थ सो चितिगिच्छितो खणिगचवत्तणता अहेतुगविणासबादं पपणवेति, जथा- खणिमा पदस्था, पढमसमयिगाण
२२॥ अच्चंतभेदो, एवं वितिसमयगादीणपि, मोग्गरादिकारणानिरपेक्खो य विणासा, जतो भूती घेच विणासे हेतुत्ति, ताहे तहेव जाब
दीप अनुक्रम
| सामुच्छेदिक: चतुर्थ-निनवस्य कथानकं
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [७१८/७७८-७८६], भाष्यं [१२५-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चुपयो
वा .
सत्राक
नियुक्ती
श्री खंडरस्खेहिं सावगेहिं मारिउमारद्धा, भणंति- अम्हे ते संजता जे पुर्व तुमए अमुगस्थ दिट्ठा, तुम्हेवि किल पुष्वदिडगा ते चेव आवश्यक सङ्कगा, तथावि एत्तिए संजते विणासह, ते भणति-जे ते पब्वइयगा ते तदा चेव सत एव विणट्ठा, तुम्भे अण्ण चेव चोरा वा
चूणों चारिया वा जाव सत एव विणस्सह, को तुन्भे विणासेति ?, तुम्भ चव सिद्धंतो, जदि परं सामिस्स सिद्धतेण ते चेय तुमे तेहिं उपविधानव अम्हेहिं विणासिज्जह, जतो तं चैव वस्तु कालादिसामगि पप्प पढमसमयकत्तेण वोच्छिज्जति, दुसमयकत्तेण उप्पज्जति,
शाएवमादि,एत्य ते संयुद्धाभणंति-इच्छामो अज्जो! सम्म पडिचोदणा,एवमेतं तहत्ति,एवं तेहिं संबोहिता मुक्का खामिता पडिवण्णा य।। ॥४२॥रा.इदाणि पंचमो-सामिस्स अड्डाबीसाई दो वाससताई सिद्धिं गतस्स तो उप्पण्णो । उल्लुगानाम नदी,तीसे तीरे उल्लुगतीरं नगर,
बीए तीरे खडगथाम, तत्थ महागिरीणं आयरियाणं सीसो धणगुत्तो नाम, तस्सबि सीसो गंगयो नाम आयरिओ, सो पुब्विमे
तडे उल्लुगतीरे नगरे, आयरिया से अपरिमे तडे, ताहे सो सरदकाले आयरियं वंदओ उच्चलिओ, सो य खल्लीडो, तस्स उल्लुग लिनदी उत्तरंतस्स सा खल्ली उण्हेण उज्झति, हेट्ठा य सीतलेण, पाणीएण सीतं, ताहे सो चितति जथा-सुत्ने मणितं एगा किरिया
वेदिज्जति-सीता उसिणा चा, अहं च दो किरियाओ वेदेमि, अतो दोवि किरियाओ एगसमएण वेदिति, ताहे आयरियाण
साहति, तेहिं भणित-मा अज्जो ! एवं पण्णवेहि, नथि एगसमएण दोऽवि किरियाओ वेदिज्जतित्ति, जतो सीतफासस्स य है उसिणफासस्स य जुगर्व संफासा भवंति, न पुण जुगवं संवेदण, जीवतदुपयोगस्वाभाव्यात् , जथा-दीहसक्कलीभक्षणकाले पंचण्हं
अस्थाण पंचण्डं च इंदियाणं वावारो भवेज्जा, ण व जुगवं संवेदणमिति, पुण तहावि संवेदणकालभदो परिवबो नोवलक्खिजति ट्र अतिसुहुमो कालोचि, जथा-उप्पलपत्तसतबेहे, समयो सहुमोति न लक्खिज्जति । एवं सो असदहतो असम्भावणाए अप्पाणं ३
दीप अनुक्रम
॥४२३॥
| गांगेयाचार्य पंचम-निहलवस्य कथानक
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [७१८/७७८-७८६], भाष्यं [१२५-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
नियुक्ती
18 बुग्गाहेति, साहुणो पण्णवेति, परंपरेण मुत, वारितो, जाहे ण ठाति ताहे उग्घाडितो, सो हिंडतो रायगिह गतो महातपोतीरप्पमे | राशिआवश्यक चूर्णी |
पासवणे, तत्थ मणिनागो नाम नागो, तस्स चेतिते वेणति, सो तत्थ परिसामज्झे कहेति, जहा-एवं खलु जीवेण एगसमएण दोला | किरियाओ बेदिति, ताहे तेण नागेण तीसे चेव परिसाए मज्झे भणितो-मा एतं पण्णवणं पण्णवेहि, एसा पण्णवणा दुछु सेहा, | अहं एच्चिरं कालं बद्धमाणसामिस्स मूले सुणेमि जथा-एगा किरिया (एगममएण वेइज्जति ) तुम सि लट्ठतराए उ जातो, छड्डेहि
m एत वादं, मा ते दोसण नासेहामि, एतं ते ण मुंदरं, भगवता एत्थ ठितेण समोसरितेण वागरितं, एवं सो पण्णवितो अन्भुवगतो उव-1& ॥४२४॥ द्वितो भणति-मिच्छामि दुक्कडंति । एस पंचमा निण्हओ ५ ॥
इदाणि छट्ठओ, पंच सता चौताला सिद्धिं गतस्स वीरस्स तो तेरासियदिट्ठी उप्पण्णा । अंतरंजिया नाम नगरी, तत्थ भूतगुह नाम चेतिय, तत्थ सिरिगुत्ता नाम आयरिया ठिता, तत्थ बलसिरी नाम राया, तेर्सि पुण सिरिगुत्ताणं थेराणं सड्डियरो। रोहगुत्तो नाम, सो पुण अण्णगामे ठितेल्लो, पच्छा तत्तो एति, तत्थ य एगो परिवायगो पोट्ट लोहपट्टेणं बंधिऊण जबूं सालं च गहाय हिंडति, पुच्छितो भणति-नाणेण पोट्ट फुडति, तो लोहपट्टेण बर्दू, जंबूसाला य जहा जंयुदीचे नत्थि मम पडिवादी, ताहे II | तेण पडहओ णीणावितो जहा सुण्णा परप्पवाता, तस्स य लोगेण पोइसालो नाम कतं, पच्छा तेण रोहगुत्तेण वागरित-मा तालेहि ॥४२४॥
पडहर्ग, अहं से चाद देमि, एवं सो पडिसेहेत्ता गतो आयरियसगास आलोएति-एवं मए पडहगो खोडितो, आयरिया भणंतिहै| दुकतं, सो विज्जाबलितो वादे पराजितोऽवि विज्जाहिं उवट्ठाति, सो भणति-कि सका एत्ताहे निलुकिंतु , ताहे तस्स आय
रिया इमाओ विज्जाओ सिद्धेल्लियाओ देति तस्स परिवक्खा
दीप अनुक्रम
त्रैराशिक षष्ठम्-निह्नवस्य कथानक
(133)
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
अध्ययनं [-]
मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [७१८/७७८-७८६], भाष्यं [१२५-१४८]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
श्री आवश्यक
चूण उपोद्घात
नियुक्तौ
||४२५॥
मोरी तुलि० ।। ८-७५ | १३८ भा० ॥ रयहरणं च से अभिमंतेतूण दिष्णं, जदि अण्णंपि उट्ठेति तो रखहरणं भ्रमाडेज्जाहू, अजेज्जो जहा होसि, इंदेणावि ण सको जेतुं, ताहे ताओ विज्जाओ महाय गतो समं भणितं चरणेण-एस किं जायति, एतस्सेव पुव्वपक्खो होतु, परिवायओ चितेति एते निउणा तो एताण चैव सिद्धतं गण्हामि, जथा मम दो रासी-जीवरासी अजी वरासी य, ताहे इतरेण तिष्णि रासी कता, सो जाणति, जथा- एतेण अम्हं सिद्धंतो गहितो तेण तस्स बुद्धिं परिभूत तिष्णि रासी ठविता - जीवा अजीवा गोजीवा, जीवा संसारत्था अजीवा घडादी नोजीवा (घरकोइलाई ) छिन्नपुच्छा, दितो जथा-दंडस्स आदी मज्यो अग्गं च एवं सव्वभावावि तिविहा, एवं सो तेण निष्पट्टपसिणवागरणो कतो, ताहे सो परिव्वायगो रुट्ठो विए मुयति, ताहे सो तेसिं पडिपक्खे मोरे मुयति, तेहिं विंचुएहि हतेहिं पच्छा सप्पे म्रुयति, ताहे तेसिं पडिघाते णउले मुयति, ताहे उंदरे, तेसिं मज्जारे, मिगे तेर्सि बग्घे, ताहे सुयरे तेसिं सीहे, ताहे कागिं तेसि उलुगे, ताहे पोतागिं, पोतागी सकुलिया, तीसे संपाती, संपाती ओलावी, एवं जाहे न तरति ताद्दे गद्दभी मुका, तेण सा रयहरणेण आहता, ताहे सा तस्सेव परिव्वायगस्सेव उवरि छेरेचा गता, ताहे सो परिवायओ हीलिज्जतो निच्छूढो । एवं सो तेणं परिण्याओ पराजितो, ताहे आगतो आयरियसमासे आलोएति, ताहे आयरिएहिं भणितं कीस ते उट्ठिएण ण भणितं णत्थि तिष्णि रासी, एतस्स बुद्धिं परिभूत मए पण्णवितातो, इदाणिं पडिमंतुं भणाहि, सो च्छति, मा उन्भावणा होहितित्ति न पडिसुणेति, पुणो पुणो भणितो भणाति को व एत्थ दोसो?, किं च जातं जदि तिष्णि रासी भणिता, अस्थि चैव तिष्णि रासी, अज्जो ! असम्भावो तित्थमराणासायणा य, तथावि न पडिवज्जति, एवं सो आयरिहिं समं संपलग्गो, ताहे आयरिया राउलं गता भणति तेण मम सीसेण अवसिद्धतो भणितो, अम्हं दुवे चैव रासी, इदाणिं सो विप्पडिवण्णो,
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त्रैराशिकाथ
|||४२५||
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [७१८/७७८-७८६], भाष्यं [१२५-१४८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
HEIGE
तो तुम्भे अम्हं वादं सुणेह, पडिसुणति, तत्थ रायसमाए मज्झे रणो पुरतो आवडितं, एवं जहेगदिवसं एवं उठाए छम्मासा आवश्यकालगता, ताहे राया भणति-मम रज्जं सीदति, ताहे आयरिएहिं भणित-इच्छाए मए एचिरं कालं धरिओ, एचो एचाहे णं पासह कलर चूर्णी
दिवसे आगते समाणे निगिहामि, ताहे पभाए भणति-कुत्तियावणे परिक्खिज्जतु, तत्थ सब्बदबाणि अस्थि, आणह जीवे अज्जीवे मानोजीवे य, ताहे ताए देवताए जीवा अजीवा य दिण्णा, नौजीवे नत्थिति भणति, अजीव वा पुणो देति, एवमादिकाणां चोतालउपोद्घात नियुक्ती
&ासतेण पुच्छाणं निग्महितो, नगरे य घोसितं-जयति महतिमहावीरवद्धमाणसामीति, सो य निश्चिसओ कतो, पच्छा निण्हतुत्तिकातूर्ण ॥४२६॥
उग्घाडितो । छड तु एसो। तेण वतिसेसितसुचा कता छ, उलुगो य गोचणं, तेण छउलुउत्ति जातो । चोतालसतं पुण इम, तेण | छम्मूलपदस्था गहिता, तंजथा-दव्वं गुणा कम्म सामण्णं विशेषाः समवायः, तत्थ दर्व नवधा, तंजहा-पुढवी आउ तेउ बाउ आकास
कालो दिसा जीवो मणा | गुणा सत्तरस, तंजहारूवं रसो गंधो फासो संखा परिमाणं पुतं संयोगो विभागो पर अपरत्तं बुद्धी | सुहं दुक्खं इच्छा दोसो पयचो य । कम्मं पंचधा-उक्खेवणं अवक्खेवणं आउंचणं पसारणं गमणं च । सामण्ण तिविहं-महासामण्णं सत्तासामण्णं सामण्णविसेससामण्णं, अमे भणति-सत्तासामणं सामण्णसामण्णं विसेससामण, अंतविसेसे एगविहो, एवं समवादोऽवि, अण्णे पुण पभणति, सामण्णं दुविह-परमपरं च, विसेसो दुविहो-अन्तबिसेसो अणंतविसेसो य । एते छत्तीस । एकेकमि चत्तारि |
२ विकप्पा-पुढवि अपुढविणोपुढवि णोअपुढवि, एवमवादिप्यपि, तत्थ पुढवि देहित्ति मट्टिया देति, अपुढचं देहिचि महियलावतिरिते देति गोपर्वि देहित्ति णो किंचि देति, पुढविवतिरिया पुण देवि, बोअपुढदि दाहात न किाच देति. मत्तिय पाएमा
देति, एवं जथासंभवं विभासा ॥ ६ सत्तमो पुण पंचसता चुलसीता सिद्धि. गतस्स सामिस्स अबद्धिगदिट्ठी उप्पण्णा ।
दीप अनुक्रम
CAAKAL
RESS
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आगम
(४०)
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [७८८-७९०/७७८-७८६], भाष्यं [१२५-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चुणों
सत्राका
दसपुर नगरुच्यू०॥९८८-१४२ ॥ भा० पुट्टी० ।। ९८९-१४३ ॥ भा०। पच्चक्खाण सेपं०॥ ९९०-१४४ ॥ एतदिगम्बरोआवश्यकामापुल्यं चेव मणितं । एते निण्हगा अभिसंबंधे सत्त भणिता । एते य एगदेसविसंवादिणो, इमे अण्णे पभूततरविसंवादिणो बोडिया त्पतिः
भण्णति
छब्वास सयाई णवुत्तराई सिद्धिं गतस्स बीरस्स । तो बोडियाण विट्ठी रहवीरपुरे समुप्पण्णा ॥ १४५॥ भा. लातेणं कालणं० रहवीरपुरं नाम कम्बर्ड, तत्थ दीवगं उज्जाण, तत्थ अज्जकण्हा आयरिया समोसढा, तत्थ एगो सिवभूती नाम | &साहस्सिमालो, सो रायाण उवगतो, तुम ओलग्गामित्ति, जा परिक्खामित्ति, रायाए अण्णदा भणितो-बच्च मातिघरे सुसाणे |
कण्हपउदसीए बलि देहि, सुरा पसुओ य दिण्णो, अण्णे य पुरिसा भणिता-एवं बीभावज्जाह, सो गंतूण मातीर्ण वलिं दातुं छुहितो-IP मित्ति तरव सुसाणे तं पसु पउलेता खाति, ते य गोहा सिवावासितेहिं समता भेरवं करेंति, तस्स रोमुब्मेदोवि ण कज्जति, ताहे उपद्वितो गतो, तेहिं सिह, विची दिष्णा । अण्णदा सो राया दंडे आणवेति- वच्चह मधुरं गेहह, ते सबबलेणं निद्धातिया, ततो अदूरसामंते मंतृणं भणति-अम्हेहिं न पुच्छित-कतरं महुरं यच्चामो, राया य अविष्णवणिज्जो, ते मोगताए त अच्छति, सिवभूती य आगंतो भणति-किं भो अच्छह , तेहिं सिटुं, सो भणति-दोवि गेष्हामो समं चेव, ते भणति न सका दोविमागि
एहि, एकेकाय वह कालो होतिति, सो भणति-जं दुज्जयं तं मम देह, मणितो जा ज्जाहि, मणति- मरे त्यागिनि विदुषि च 15 वसति जनः स च जनाद् गुणीभवति । गुणवति धन धनाच्छीः श्रीमत्याज्ञा ततो राज्यम् ||१।। एवं भणिचा पहावितो पंडमहुरी, तेण II
पहावितोपंडमणा ॥४२७॥ ट्रिातत्थ पच्चन्ता तावयितुमारडा, दुग्गे ठितो, एवं ताव जाव नगरे सेस जातं, पन्छा नगरमपि गहितं, उबविचा ततो निवेदितं
दीप अनुक्रम
BRSHEREGAON
| 'बोटिक:' सप्तम-निह्नवस्य कथानकं
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आगम
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [७८८-७९०/७७८-७८६], भाष्यं [१२५-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चूर्णी
सत्राक
दीप अनुक्रम
18 अणेण रण्णो, तुडेण भणित-भण किं देमि, १, सो चिंतेतुं भणति- मए महितं ते सुगहित, जहिच्छितो भविस्सामि, एवं होतुति, दिगम्बरोआवश्यकतामो यात्रा
दि सो य बाहिं चेव हिंडतो अद्धरते आगच्छति वा न चा, तस्स य भज्जा ताव ण जेमेति सुवाति वा जाव न आगतो भवति, सादासाच
निविण्णा, अण्णदा मातरं से बड्डति-तुज्झ पुत्तो दिवसे दिवसे अद्धरते एति, अहं जग्गामि छुहातिया य अच्छामि, ताहे ताए । 8 भण्णति-मा दार देज्जाहि, अहं अज्ज जग्गामि, सो आगतो वारं मग्गति, इतरीए अम्बाडिओ, भणिओ य-जत्थ इमाए वेलाए
| उग्धाडिताणि दाराणि तत्थ वच्च, तस्स भवितव्वयाते ण मग्गतेण उग्याडिओ साधुपडिस्सओ दिट्ठो, तत्थ गतो वंदति, भणति॥४२॥ पवावह मम, ते णेच्छति, तेण सयं लोओ कतो, ताहे से लिंग दिण्णं, अण्णदा चीवरजायणिताए तेण कंबलरयणं ल , तं तस्स
पूअणापुच्छाए गुरूहि फालेत्ता साधण णिसेज्जाओ कताओ, अण्णे भणति- ते तस्स रण्णा दिण्णं, ताहे सो कसादितो चीवराणि है छत्ता गतो, अण्णे भणति-जिणकप्पे वणिज्जते भणति- किं एस एवं न कीरति !, तेहिं भणितं वोच्छिण्णो, मम न वोच्छिज्ज
तित्ति सो चेव परलोगस्थिणा कातवो, किं उवहिपरिगहेण, परिग्गहसम्भावे कसायमुच्छाभयादयो बहू दोसा, अपरिग्रहत्त्वं 51 ट्रच सुते भणितं, अचेला य जिणिंदा जिणकप्पियादयो य, तो अचेलता सुंदरचि, एवं सव्वं जथाय निग्गतो । तत्थुत्तरा भगिणी * उज्जाणे ठितस्स दिया गता, तं दट्टण ताए ऽवि छडित, ताहे भिक्ख पविट्ठा, गणिताए दिडा, मा विरज्जिहितित्ति उरे से पोती
४२८ाः काबद्धा, साणेच्छति, सो भणति-अच्छतु एतं तव देवताए दिणंति, अण्णे भणंति-सज्जातरीए दिणं बद्धं च, तेण य दो सीसा | पिबाविता-कोडिण्णो कोट्टिवीरोय, ततो सीसपसीसाण परंपर फासो जातो । वाणं दोसेणं मिच्छत्तं वट्टित। एवं बोडितज्जणा जाता ||
एवं एते भणिता० । ६-९५ ॥ १८६॥ मोतण अतो एकं० । ८-९६ ॥ १८५॥ गोट्ठामाहिलं एक मोचूर्ण सेसाणं |
निहनव-अधिकारस्य उपसंहार क्रियते
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आगम
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [७८८-७९०/७७८-७८६], भाष्यं [१२५-१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चूर्णी
IMजावज्जीवित पच्चक्खाण, दो दो दोसा, बहुरता जीवप्पदेसिए भणंति-तुम्भं दोहि कारणेहि मिच्छादिट्टी, जेण भणह-एगो जीवप निहवाआवश्यक
पष देसो जीवोत्ति १ च मे चलमाणं चलित२, इमेवि पडिभणति-तुम्भेऽबि ज भणह-चलमाणे अचलिते १ च जीवपदे से जीवेत्ति अधिकारापन -- उपोद्घात
ISIन मण्णेह २, एवं सेसावि परोप्पर दो दोसे छुभंति, गोट्ठामाहिलस्स विनि, मोत्तूर्ण गोडामाहिल्लं सेसाण संजयाण पच्चक्खाणं निर्यक्तीला जावज्जीवाए, एस एको बितिओ पुढे जथा अबदं कंचु०, च अम्हेच्चयं न सहहेसि, एस ततियओ, अण्णे भणति-एकेकस्स दो।
दोसा, एग अप्पण्णा विप्पडिवण्णा, वितियं परं बुग्गाहेंतित्ति ॥ आह-सव्वत्थ संपडिवण्णा जदि कहमवि एगत्थ विपडिवण्णा तो ॥४२९॥ किं जातं ?, भण्यति
सत्तेया विडीओ०। ८.९६ ॥ १८७ ॥ जदिवि एगस्थ विप्पडिवत्ती तथावि एताओ सत्तवि दिदीओ जातिजरामरण-12 * गम्भवसहिस्स संसारस्स मूल भणति । णणु किं ते समणसरूवा ण, भण्णति-निग्गंथा व पडिभासते, जतो इमं चेच लिंग,
काण पुण निग्गंथा चेव, किंतु निम्गंथरूवा इति ।। एत्थ सीसो आह-जदि तो एवं तो जं ते पडुच्च आहाकम्मादि जातं तं कह दिपरिहरणाएत्ति, आयरिया मणंति
पवयणनिज्जूढाण। ८-९८ ।। ७८७ ॥एतेसि पवयणनिज्जूढाणं कारितं आहाकम्ममादि सेज्जा वा पणुवीसाए दोसाण |MIRan एकतरं, कई पण्णवीसा, सोलस उग्गमदोसा णव एसणा दोसा, संकितं मोजूण, सो आतसमुत्थोत्ति तं भजितं परिहरणाए, किं निमिन', जदि सो जाणति जहा एते निण्हगति तेसिं मए भत्तं तं ताहे घेप्पंति, अह विसेस चेव ण जाणति ताहे ण घेप्पति,
दीप अनुक्रम
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [७८७/७८७-७८८], भाष्यं [१४८...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
|
प्रत
॥४३०॥
RSEX
18|मूलगुणे वा अविसोहिकोडीए उत्तरगुणे वा विसोहिकोडीउत्ति । पुण चांडियनिमिच कतं तं कप्पति, जेण ते विसरिसा मिच्छा- अनुमत आवश्यकता दिडिगा य ।। एवं णयसमोतारणावसरेणं भणिता जहा उप्पण्णा णिहगा, भणिता य णयविसारदा अज्जवतिरा अज्जरक्खिगा य ।।
घूर्णी इदाणिं अणुमतेत्ति दारंपायाध तवसंजमो०॥८-१०० ॥ ७८९ ॥ तवो दुविहो, संजमो सम्मै पाबोवरमो, सो य सत्तरसविहो, एतेण चरित्तसामा-18
इयं दुविहंपि गहितं, निग्गथं पब्वयण वा, अणेण सुतसामाइयं सम्मनसामाइयं च, ववहारगहणेण य णेगमसंगमववहारा ववहा| रिगत्ति गहिता, विमतिविपरिणामो य एत्थ दहब्बो । ततः कोऽर्थः, नेगमसंगहववहाराणं चारिवि सामाइया अणुमया, जेण एतेहिं मोक्खो साहिज्जति, उज्जुसुतादीण पुण चउण्डं सुद्धनयाणं संजमसामाइयं चेव अणुमत, जेण तेण वाणं सेज्झितित्ति । इदाणि 'किं कतिविहं कस्स' एसा गाथा घोसेतवा, तत्थ किन्तिदारं-किं सामाइयगं दबं गुणो उभयं वा, दबपि किं
जीवदव्वं अजीवदवं मीस वार, गुणोऽवि किं जीनगुणो अजीवगुणो वा हवेज्जा', एमादि आसंकासंभवे सति आह-किं सामाइयकी, है स्वरूपतोर्थतो नयतः सिद्धांततो बेति, भण्णति
आया खस्लु० ॥ ८-१०१ ॥ ७९ ॥ आता जीवो, खलु विसेसणे, सामाइगं 'साम समं च सम्म' इच्चादिणा सुचकासे 18| भणिहिति, पच्चक्वायतको पच्चक्खाण करतो,पच्चक्खाणं नाम पच्चखेवसावज्जजोगपरिणा, वट्टमाणनिदेसण परिणामिनी
मा४३॥ सेति, ततः कोऽर्थः, सावज्जजोगपरिणापरिणामपरिणतो जीवो सामाइक भवति स्वरूपतः, इतरस्तु विभाति विशेषणार्थः । अथ केनार्थेनैवमुच्यत इति, भण्णति -
SPIRISASIRANGA
दीप अनुक्रम
SAECEMAKA
'सामायिक' व्याख्या एवं स्वरुपं व्यक्तिक्रियते
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं H, मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [७९०/७९०], भाष्यं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सन
श्री
आया, आशारिति आयो-लाभस्तमाथित्य, किमुक्त, लम्भा ज सामादयो तेसिं लाभ पड्डच्च, सामस्स परपीडापरिणाए INRसरिने आवश्यक आयो तंमि जीवे अस्थि सो सामाइक भणतिति १ समस्स वा रागदोसमाध्यस्थ्यस्य रागदोसपरिणाए आयो तमि अस्थिति
द्रव्यपयाय सो सामारक भण्णातिर सम्मरस वा जाणादितिगस्स आया तम्मि अस्थिति सा सामाइक भण्णात, यावत् त पूण सावज्जजाग-1 उपोदेपातपरिण्णालक्षणं परुचक्याण 'आवाए सब्वव्याणं' आवाता-विसयो प्राप्तिः गोचरा एगट्ठा, कथं, जेण संमतं सव्वदव्येसुवि, नियुक्ती जदि एगमविण सदहति तो मिच्छत्त,सुतचरित्ताई सधदब्बेसु,नो सव्वपज्जवेसु सुतं, जदि सबपज्जचेसु तो सव्वष्णू होज्जा, परिने
| पुण एवं सम्बदम्वेसु, न सयपज्जवसु, जेण॥४३१॥
| पढमंमि सधजीवा० ॥ ८-१०३ ।। ७९१ ॥ पढमे महब्बते सबजीवा पच्चक्खाणविसतो, जतो भणित-दव्यतो ण पाणा-2 |तिपाते छसु जीवमिकाएसु. बीए मुसाबावेरमणे चरम य परिग्गहवेरमणे सबदबाई, भणितं च-दबतो गं मुसावादे सम्बदन्वेसु. 31 परिग्गहे-सचित्ताचिचमीसेसु सम्बदब्बेसु, जेण अविरती परिग्गहोत्ति, सेसा महब्बता-अदिण्णादाणवेरमणं महुणवेरमण, चखलुसदा वयमवि रातीभोयणवेरमण च,एते देसि चैव सय्यदवाणं एगदेसेणं, जेण दबतो गं अदिण्णादाणे गहणधारणिज्जेसु दम्बेस, 12 दब्बतो णं मेहुणे स्वेसु वा रूवसहगतेसु वा दब्बेसु, दब्बतो ण रातीभोयणे असणे बा ४, जया एताणि पंचवि रातीभोयणवेरम| पछवाणि हवंति तदा पडिपुण्णं भवति चारितं, सव्वपज्जवेसु पुण न भवति चरितं, जतो सम्वती पाणातिपाताओ सबहा बरमण नरिच, किंतु सावज्जजोगप्पगारेण वा, एवं मुसाबादवेरमणादिसुचि भावेतच्वं, उक्तं च-वितियचरिमब्बताई(सब्बदबाई)इति चारिचमिह
॥४३१॥ सव्वदन्वेसु, ण तु सध्यपज्जवसु, सब्बाणुवयोगमावतो चारित्ताचारित्तसामायियं नो सबदब्वेस, नो सवपज्जवेसु, एवं तं खलु
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AARAKAR
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं H, मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [७९१/७९१], भाष्यं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
विचार
HEIGE
नियुक्ती
दीप अनुक्रम
श्री 18| पञ्चपखाणं आवाए सम्वदवदव्याणति, एतस्स पुण विसयनिरूवणस्स उबरि केसुत्ति दार सत्थाणं, जेण तत्थ भणिहिति- 'सब-181 नयैः आवश्यकतगत सम्मत्तं सुते चरिते ण पज्जवा सब्वे । देसविरतिं पडल्चा दोहवि पडिसहणं कुज्जा ॥१॥ इह पुण पच्चक्खाणप्पसंगेणा- सामायिक चूणा 1गतंति तातो चेव दारातो एतं विसयनिरूवर्ण कतति । इदाणि विशेषणविशेष्यभाव पडच्च आता जथा सामाइयं भवति तथा| उपोद्घातडू नयतो विमासिज्जति
सावज्जजोगविरतो । ६-१०२ ॥ १४९ भा०। एत्थ पच्छाणुपुब्बी-संगहस्स यो तां गतिं गत्वा आता सामायिक, अतो, ॥४३२॥1 सामाइकस्स अडविशेषणानां विशेष्ये संग्रहात्, न त्वनात्मा इति, ताहे ववहारो भणति-णो एवं ववहरितं सक्का. जेण जदि आ-12
| ता चेव सामाइयं तो यो यो आता सो सो सामाइकमिति पत्तं तं मा भणह- आता सामाइक, भण-जतमाणो आता सामाइक, | जतमाणो नाम प्रयत्नपर इति, ताहे उज्जुसुतो भणति-जदि एवं तो तामलिमादिणाऽपि जतमाणा, तेऽवि सामायिक पत्ता, तं मा एवं भण, भण-उवउत्ते जतमाणो आता सामायिक, उबउत्तो नाम ज्ञेयप्रत्याख्येयपरिज्ञापर इत्यर्थः, ताहे सदो भणति-जदि एवं तो अविरतसम्मदिविदेसविरतादयोऽवि एवंग्रायास्तेवि सामाइकं पचा, तं मा एवं भण, भण-छसु संजतो उबउत्तो जयमाणो || आया सामाइयं, छसु संजतो नाम छसु जीवनिकाएसु संघहणपरितावणादिविरओ इति, ताहे समभिरूढो भणति-जदि एवं तो || पमचसंजतादयोऽवि एवंपाया तेऽवि सामाइयं पत्ता,तं मा एवं भणभणसु-तिगुत्तो छसु संजतो इच्चादि, तिगुत्तो नाम मणवयण-D॥४३२॥ कारहिं गुत्तो, अकुसलमणादिनिरोधि कुसलमणादिउदीरगो इत्यर्थः, तज्जातीयग्रहणात्पंचसमिओ य इति, ताहे एवंभूतो भण-ला ति-जदि एवं तो अप्पमत्तसंजतादओवि सामाइगं पत्ता, तं मा एवं भण, भण- सावज्जजोगविरतो इच्चादि, तत्थ सावज्जजो
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [७९१/७९१], भाष्यं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
गविरतो नाम परिष्णातसावज्जवावारो, परिष्यातो दुबिहाए परिप्णाए- ज्ञपरिणाए पच्चक्खाणपरिष्णाए य सावज्जो वावारी निवासामाआवश्यक का जेण सो परिणायसावज्जवावारो, सावज्जो नाम कम्मबंधो-अवज्ज सह तेण जो सो सावज्जो, जोगोत्ति वा वावारोति पा वीरि-1Aal
चूों प ति वा सामत्यति वा एगट्ठा इति, तदेवंभूतस्यायमभिप्रायो-यदुत यदेवतत्सविशेषणविशिष्ट आत्मा तदैव सामाइकं भवति, उपापाता नान्यदेति, नेगमस्स पुण सुद्धासुद्धभेदत्ता समस्तेतद्विशेषणविशिष्ट अण्णतरएगावीसिसणायसिट्ठो वा दगतिगचतुष्कपंचगसं-II
जोगविगप्पविसेसण विसिट्ठो वा आता सामाइयं भवतित्ति । अण्णे पुण भणंति-संगहस्स तहेव आता सामाइयं करतो, आता सा॥४३॥ माइयस्स अट्रेत्ति, बवहारो तहेव भणति- सावज्जजोगविरतो आता सामायियंति, उज्जुसुतो पुण संजमं चेव सामाइयं पुच्छति
एवं सम्मत्तसुत्ताईपि सामाइयं पावंति, तो भणति- परिष्णातसावज्जजोगोऽवि जदा पंचसमितो तिगुत्तो तदा सामाइयंति, सहो पुण देसविरातिसामाइयं णेच्छति, एवं च देसविरतोऽवि सामायियं पावति, जतो सोऽवि सामाइयं करेंतो सावज्जजोगविरतो तिगुत्तो य भवति, तो एवमवि जदा छसु संजमो तदा सामाइयंति, समभिरूढो पुण पमत्तसंजतो जाव सुहुमसरागो ताव सामाइयं / नेच्छति, एवं च एतेऽवि सामायियं पावेंति, तो एवमवि जदा उवउत्तो तदा सामायियंति, एवंभूतश्च उपशांतरागादय एव वई-12
तो अतस्त एव सामायिकमिति, एवंभृतो पुण अकेवलीसामायिकयं नेच्छति, केवलीवि सब्बो सामाइयंति णेच्छति, ते एवमवि ज-18 है दा जतमाणो तदा सामाइयंति भणति, नान्यदा । एतद्विशेषणविशिष्टश्च समुद्घातादिगतः केवली अजोगीकेवली वा तारतो, का अतः स एव सामायिकमित्येवंभूताभिप्राय इति ॥ नेगमस्स पुण तहेव सम्वविगप्पेहि आता सामाइयं, अन्यतरविशेषणसवावे-12
॥३३॥ वि विशेषणार्थाव्यभिचारात् इति भावनीर्य एत्थ ।
दीप अनुक्रम
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग - 4 "आवश्यक" - मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H मूलं [- /गाथा -], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
निर्मुक्ति: (७९२/४९२
भाष्यं [१४९...]
श्री आवश्यक
चूर्णं उपोद्घात
नियुक्तौ
॥४३४||
इदाणिं दव्वगुणनिरूवणं पडुच्च सामाइयं नयतस्यिते णणु पु पुच्छितं किं सामाइयं दध्वं गुणो उभयमिच्चादि, तत्थ य उत्तरं मणितं आता खलु सामाइयमिच्चादि, तत्किं पुनरेवं चित्यते, भण्णति, तत्र स्वरूपतः सावज्जजोगप्रत्याख्यानपरिणामपरिणत आत्मा सामायिकमित्याभिहितं एवं च द्रव्यगुणसमुदयः सामाइकमित्युक्तं भवति, अत्र तु नयतश्चिन्त्यते, यत्तो केइ नया दब्बं सामायियति पडिवन्ना, केह पुण गुणोत्ति, जदि एवं तो साहको नयो दव्वं गुणं वा सामाइयं इच्छतित्ति १, भण्णतिजीवो गुणपरिषण्णो० ( ८-१०४ ।। ७९२ ।। तत्थ दोहिं नयेहिं मग्गिज्जति दव्बतेण पज्जवट्टितेण य, जतो ते सत्त एतेसु चैव समोतरंति, आदितिगं णयाणं दव्वट्ठितो, उवरिल्ला चचारि पज्जवट्टितो, तत्थ दन्यद्वितस्स जीवो गुणपाडवण्णो सामाइयं, को गुणो णाणादितिगस्स आयो, तं पविष्णो तेण पडिवण्णो, जीवस्तु द्रव्यमतो द्रव्यमेव सामायिकं यत्तु गुणप्रतिपक्ष इत्युक्तं तद्विशेषणभावेन गुणीभूतमिति, जीव एव सामायिक, वाचकलावकपावकवदिति । पज्जवनयतिस्स पुण अयमभिप्रायोयदुत जं चैव गुणं पडिवष्णो आता सामाइयंति भणितो सो चैव गुणो सामायियं, समाय एवं सामायिकमितिकृत्वा, जं पुण 'आता खलु सामायिय' ति भणितं तं जीवस्स एस गुणोत्ति, अयमस्याभिप्रायः यो एस णाणादितिगस्स आयो गुणो एस जीवस्सा उबयारतो आता सामायियं भण्णति यथा शुक्लः पटः पीता हरिद्रा कृष्णो भ्रमरः, तत्त्वतस्तु स एव गुणः सामायिकमिति पज्जवज्जिडित एवाह, इतचैतदंगी कर्तव्यं यतः उत्पज्जेति वियंति य परिणमति य गुणा न दव्वाइंति ७९३ । अयमभिप्रायो यदुत सामायिकं उप्पज्जति विगच्छति परिणमति य, परिणमति नाम संखातीताई तारतम्माई अणुभवति, एसो म सभावो गुणाणं, जतो उप्पज्जेति वियंति य परिणमति य गुणा, ण दब्वाई, जेण दव्वं निचमवठितस्स भावं उक्तं च- "जीवे दब्बट्टताए
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सामायिकस्य 5 द्रव्यत्वादिविचार:
॥४३४॥
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग - 4 "आवश्यक" - मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूलं [- / गाथा-1, निर्युक्तिः [७९३-९४/७९३-७९५
आयं [१४९...]]
अध्ययनं H
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री - आवश्यक चूण उपोद्घात निर्युक्तौ
॥४३५॥
सासए, पज्जवद्रुताए असासए" अतो गुण एव सामायियमिति । एवं पज्जवट्टितेण भणिते दव्यट्टित आह-इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं यदुत द्रव्यमेव सामायिक, जती-दुष्वप्पभाषा य गुणा, ण गुणप्पभवाई दव्वाई ।। ८-१०५ ७९३ ।। इति, अयममिप्रायो-यदुत यो भवतो गुणो सामायियत्तणेणाभिमतो सो जीवप्यभवो, न तु तप्पभवी जीवः, यतो- दव्वप्यभवा गुणा, ण गुणप्पभवाई दव्वाई, दबे पभयो जेसिं ते दव्वप्यभवा, जतो य जीवे चैव उप्पायविगमपरिणामप्पगारेहिं तस्सप्पभवो अतो तग्गुणपडिवण्णो जीव एव उप्पज्जति विगच्छति परिणमति य, सामाइयं च भण्णति, जेथा तंतुप्पभवो आताणविताणादिभावो, न तु तप्यभवा तंतवः, आताणविताणादिं भावं पडिवण्णा य तंतन एवं उप्पज्जेति वयंति य परिणमंति य, पडो य भण्णति, जथा वा पोग्गलदव्वेसु चैत्र उप्पादविगमपरिणामप्पगारेहिं पुढची भावस्स पभवो अतो तब्भावपडिवण्णा पोग्गला चैव उप्पज्जेति विगच्छति परिणमति य, पुढबीदच्वं भण्णति । अतो दुव्यमेव सामाइयामिति स्थितं । एवं भणितं नयतो सामाइयं । । एवं च नयविगप्पजायपरूवणं सोतॄण बाउलितो सीसो आह-भगवं ! किमेत्थ तत्तं १, अतः सिद्धान्ततो भण्णति- जं जं जे जे भाषा० । ८- १०६ । ७६४ ॥ तत्थ गुरु भणति सोम्ममुह ! जं जिणो जाणति तं ततं, किं पुण जिणो जाणति १, भण्यति-जं जं किंचि वत्युं जे जे केद भावे, तं तं चत्युं ते ते सच्चे भावे व परिणमति, सव्वं वत्युं सव्वभावपरिणामिति जं भणितं, तथाहि"एको भावः सर्वभावस्वभावः सर्वे भावाः सर्वभावस्वभावाः । एको भावस्तस्वतो येन दृष्टः सर्वे भावास्तस्वतस्तेन दृष्टाः ॥ १ ॥ पयोगवीससत्ति के भावे पओगतो परिणमति केइ वीससा, तं परिणामि वत्युं तहा सव्वभावपरिणामिप्यगारेण जाणाति, जं पुण अपज्जवतं तत्थ जाणणा गरिथति, तरिकमुक्तं भवति ? सामाइयं सव्वनयाभिप्पाएहिं परिणमति, अतो जेण जेण जय
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सामायिकस्य
द्रव्यत्वादिविचार:
॥४३५॥
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [७९५/७९६], भाष्यं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चूणी
अभिप्पाएण परूविज्जति तेण तेण स्यात् , सब्बणयसमूहमतं जिणमयंति ॥ किन्ति दारं गतं ।। इदाणिं कतिविहंति दारं-- सामायिकआवश्यक सामाइयं च तिविहं०1८-१०७ ।। ७९५॥ तंजथा- सम्मत्तसामाइयपि तिविहं-खइयं उपसमियं खओवसमियं, अहवाइ भदा
तिचिह-सम्मत्तसामाइयं चरित्तसामाइयं सुतसामाइयं, चसद्दा सस्थाणे भेदं इच्छति, चरित्तसामाइयं दुविहं, तंजहा- अगारसाउपाइयाता माइयं अणगारसामाइयं च, सुतसामाइयं तिविहं-मुत्तं अत्थो तदुभयं च, सम्मत्तसामाइयं कारग रोचगं दीवगं, कारगं जथा181 नियुक्ती
साधणं, रोचर्ग सेणियादीणं, दीवगं अभवसिद्धियस्स, मिच्छदिहिस्स वा भवसिद्धियस्स, अभवसिद्धियस्स कह?, सो एक्कारस ॥४३॥
अंगाई पढति न य सद्दहति, धम्मं च कहेति, एयं दीवर्ग, अहवा निसग्गसम्मदंसणं च अधिगमसम्मदंसणं च, निसर्गः स्वभावः परिणाम इत्यनर्थान्तरं, उवदेसमंतरेणवि गेण्हति तं. निसग्गसम्मदसणं, अधिगमसम्मदंसणं च जीवादिनवपयत्थे उवलभितूण | गेण्हतित्ति । सामाझ्यस्स भेदनिरूवणं कतं, इदाणिं अज्झयणस्स भेदनिरूवर्ण कज्जति-- | अजायणपिय तिविहं ०८.१०८७९६।। सेससुवि अज्झयणेसु होति एसेव निज्जुत्ती, अण्णेसवि अजायणेसु।। | भेदनिरूवणा एसा चेव भेदकहनिज्जुत्ती, सव्वत्थ अज्झयणभेदचिन्तायां सुचअस्थतदुभयभेदेण तिविहं अज्झयणंति भाणियवं
जं भणितं, अण्णे भणति-मुतसामाइयस्स भेदो दरिसितो पुव्वद्धेण, उत्तर ण पुण सामण्णा उपघातनिज्जुत्ती सम्बअज्झयणेसुत्ति है 13अतिदेसो कतो, सेसेसुवि अज्झयणेसु होति एसेव निज्जुत्ती, जथा सामाइयं उद्देसादीहिं दारहिं मम्गित एवं चतुचीसस्थयादीणिवि ॥४३ - उईसादीहि मग्गितब्वाणि, मजो पुण अतिदेसो तुलादडणातेण मज्झग्गहणे आघतयांग्रहणमिति । अण्णे पुण इमा गाधा उवरि ।
चेव निरुतदारअवसाणे वक्खाणंति । इदाणिं कस्सत्ति मामाइयं दारं, तत्थ गाथा
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| सामायिक्स्य भेदानां वर्णनं क्रियते
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७९७/७९७], भाष्यं [१५०...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चों
उपोद्घातात
जस्स सामाणिओ अप्पा ०८-१०९।७२७।। संजमो सत्तरसविधो. नियमो इंदियनियमो नोइंदियनियमो, तबो सम्मित
सामायिकआवश्यक वाहिरो, एत्थ सामाणिओ, ण पत्थो, संनिहित इत्यर्थः, तस्स सामाइयं इति केवलिभासित, इतिशब्द समाप्तथै, एतेसु तिस स्थस्वामी
संपुण्ण सामाइयं भवतित्ति ॥ अधवा-जो समो०८-११०१७९८१ देससामाइयं पुण सावगस्स भवतित्ति, सामि पड्डुच्च जस्स नियुक्ती
* सामाइयं एतं निरूवितं । इदाणिं अस्थसंबधं पडुच्च निरूविज्जति, कस्स अत्थस्स साहगं सामाइयंति?, भण्णति--
___ सावज्जजोगप्परिवज्जण ॥ ८-११२ । ७९९ ।। सावज्जजोगपरिवज्जणनिमित्तं सामाइय, किं अविसेसेण सामाइयं ॥४३७॥ | सावज्जजोगपरिवज्जणनिमित्तं', उच्यते, केवलियं पसत्थं, केवलिय नाम संपुण्णं, सब्यसामाइयमित्यर्थः, तं पसत्थयं सावज्ज
जोगपरिवज्जणे अधिगमुबगारित्ति जं भणित, कस्स सगासाओ पसत्थं ?, गिहत्थधम्मा, देससामायिकादित्यर्थः, एवं परमं णच्चा
कुज्जा बुहो आतहितं परत्थं, परो- मोक्खो तदत्य, एत्थ सीसो आह-जदि केवलियं सामाइयं एवंभूतं तो वरं एवं चेव कीरतु, ४॥ किं देससामाइयस्स बहुसो करणेण, भण्णति-को वा किमाह , एवं ताव लद्धं चेव, किंतु जदा एतं कातुमसत्तो तदा देससामा-14 | इयंपि ताव बहुसो कुज्जा, यस्मादाह
- सामाइयांम तु कते० ॥ ८-११३ । ८०१ ॥ किं च-जीवो पमादबहुलो० ॥८-११४१८०२॥ बहुसो-अणेगसो, बहुविहेसु अत्येसु रागहोसादीहि अण्णमण्णं भावं णिज्जति तेण पमचो, सामाइयं करेन्तो अप्पमचो भवतित्ति । अहवा सामण्णेणार
18| ॥३७॥ कस्स सामाइयं भवतित्ति', भण्णति- मज्झत्थस्स, जतिभागगता मत्ता ममत्थस्स ततिभागगता सामाइयस्स, को य मज्झत्यो:
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [८०३/८०३], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
दीप अनुक्रम
जो नवि पद्दति राग०॥ ८-११५। ८.३ ॥ कस्सत्ति दारं गतं । इदाणि कहिन्ति दारं, कहि तं पुण सामाइयं सामायिकआवश्यकता होज्जा, तत्थ इमे दारा
प्राप्ती क्षेत्रचूर्णी
खत्तदिस०॥८-११६१८०४-५-६ ॥ याव चक्कर्मते य, किं कहिती- एतेसु पदेसु कहिं पडिवज्नमाणओ पृथ्वपटिवष्णोदकालादि निर्यक्ती माधानावा?, तत्थ ताप खत्तं तिविहं- उड्डुलोगो अहोलोगो तिरियलोगो, अहोलोगे संमत्तसुयाणं पडिबत्ती होज्जा, पुब्बपडिवण्णओचि,
दिदो सामाइयाणि सेसाणि नत्थि, एवं उडलोगवि, मेरु तिरियलोगोत्तिकाउं, तिरियलोए चउण्हचि पुचपडिवण्याओ पडिवज्जमा॥४३८॥ णओबि अस्थि । दिसत्ति दारं, सा सत्तविधा,नामढवणाओ गताओ, दवदिसा जहण्णेण तेरसपदेसियं दव्वं तं जहण्णयं दस
दिसाग, तेरसपदेसियंपि जहण्णय दन्वं भवति, दसपदेसियंपि, तस्थ पुण तेरसपदेसिए परिमंडलं संठाण भवति, दसपदेसिए| दी दिसाओ भवति, रुयओ य सो भण्णति, उक्कोसेणं अणतपदेसियं असंखेज्जपदेसोगाद, एस दव्यादिसा । खसदिसा इदग्गेयी जहा
भगवतीए जाच तमा, तावखेचदिसा जतो सरो उड्डेति सा पुब्बा, पदाहिणओ सेसियाओ, सव्येसि च भरहेरवतपुष्पविदेहअवरविदेहगाणं मणूसाण मंदरो उत्तरओ, लवणो दाहिणओ, एसा तावखेत्तदिसा । पण्णवगदिसा जतोहंतो पण्णवओ निबेहो पण्णवेति सा तस्स पुव्वा, सेसिया पदाहिणओ । वासस्सवि सच्चेव । भावदिसा(अट्ठारसहा तंजहा-पुढविकाइया आउठतेउवाउ अग्गवीया | मूलचीया पोरबीया खंधीया बेइंदिया तेइंदिया चउरिदिया पंदिया-तिरिक्खा नेरइया देवा समुच्छिममणुया कम्मभूमगा अक-IN 11४३८ः सम्मभूमगा अंतरदीवगा, एसा अट्ठारसविधा भावदिसा जतो संसारी एताहि दिस्सातत्ति । एत्थ पुण चउहिं दिसाहिं 'अहिगारो-18
खेत्तदिसताचखेत्तपण्ण रगभावदिसासु, नामादी तिणि परूवणनिमित्त, न एत्थ कोइ पडिवज्जति, खेतदिसामु पुनादियासु
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८०४-८०६/८०४-८२९], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
नियुक्ती
दीप अनुक्रम
श्री महादिसामु पडिवज्जमाणएवि पुवपडिवण्णएवि चत्वारिवि सामाइया, अण्णदिसासु चउण्हवि णावि पुग्यपडिवण्णओ नापि सामायिकआवश्यक पग्विज्जमाणओ, जतो तासु सुद्धासु जीवो नवगाहति, कुसणा पुण ताण भवेज्जा, तारखेतपण्णवगदिसामु पुण अद्वसुवि पुब्ब- प्राप्ती क्षेत्र
घूणी पडिवण्णएवि पडिवज्जमाणएवि चउण्डवि सामाइयाण होज्जा उडअहदिसिद्गे संमतसुताण एवं चेव, देसविरतिसव्वविरतीणदिकालादि उपोद्घाता
पुण पुचपडिवण्णाओ सिया, नो पडिवज्जमाणओ, भावदिसाए एगेंदिएसु चउण्हवि सामाइयाण न पडिबज्जमाणओ, ण वा पुब्व
पडिवण्णओ, विगलिदिएसु दोण्ह पुन्वपडिवण्णओ होज्जा, नेतरा, पंचिंदियतिरिएम सव्यविरतिवज्जा तिणि सामाइया, पुष्व॥४३९।। ट्रिा पडिवण्ण) नियमा, सिय पडिपज्जमाणोचि, भयणिज्जा,सिय नारगदेवअक्रमभूमजअंतरदीवनरेसु संमत्तसुताणं पुवपडिवण्णओ।
अत्थि, पडिवज्जमाणओ सिय, कम्मभूमजेसु चत्तारिवि सामाइया पुवपडिवण्णओ पडिवज्जमाणावि भणेज्जा, समुच्छिमनरेसु नस्थि एकपि ॥
कालेत्ति वारं-कालो तिविधो- ओसप्पिणिकालो उस्सप्पिणीकालो णोओसप्पिणीउस्सप्पिणीकालो प, तत्थ भरहेरवएस | ओसप्पिणीकालो उस्सपिणीकालोय एत्तियं छबिहो,जथा-ओसप्पिणीए मुसमसुसमा समा चउहिं सागरोवमकोडाकोडीहि पवाही गच्छति पढमाश्षीया सुसमा तीहिं गच्छतिरततिया सुसमादुस्समा दोहिं गच्छति३चउत्था दुस्समसमा सागरोवमकोडाकोडीए पातालीसबाससहस्त्रणाए गच्छति४पंचमा दसमा एकवीसाए वाससहस्सेडिंगच्छति ५ समसमावि एगवीसाए व बाससहस्सेहिट ॥४३९॥ गच्छति ६, एवं चेव पच्छाणपुष्पीए उस्सप्पिणीएति । एवं वीसाए सागरोवमकोडाकोडीहिं दोषि गच्छति, नासि-| | प्पिणीउस्सप्पिणीकालो पुण चउव्यिहो, तंजथा-सुसमसुसमाआदिपलिभागो सुसमादिपलिभागो सुसमदूसमाआदिपलिभागो दूसमसु
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [१५०...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [८०४-८०६/८०४-८२९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक चूर्णो उपोदुधात
नियुक्ती
॥४४० ॥
समाआदिपलिभागो, तत्थ पढमो देवकुरुउत्तरकुरासु, चीओ हरिवासरम्मगेसु, ततिओ हेमवतरण्णवएसु, चउत्थो विदेहेसुति । तत्थ ओसप्पिणिउस्सप्पिणि उच्चे अरामु नोओसप्पिणिउस्सप्पिणीए य चउन्विधारवि एतेसु संमत्तसुताई पडिवज्जेज्जा, पुत्रपडिवण्णएवि अस्थि, ते पुण सुसमसुसमादिसु पुव्त्रकोडिदेखणायुसेसा पडिवज्र्ज्जति, साहरणं पुण पडच्च अण्णतरंपि होज्जा, चरितं चरिताचरितं च ओसप्पिणि पट्टच्च ततियचउत्थपंचमासु समासु पडिवज्जमाणओवि पुन्वपडिवण्णओवि, उस्सप्पिणि पडुच्च ततियचउत्थासु समासु दोवि भणेज्जा, नोओसप्पिणिउस्सप्पिणि पडुच्च चउत्थे पलिभागे पुव्यपडिवण्णओ पडिवज्जमाओवि दोहवि भणेज्जा, अण्णे पुण भणंति-गोओसप्पिणिउस्सप्पिणिकालो एगविहो चैव चउत्थसमापीलभागो होज्जा, नो | सेसासु, तंमि काले चउब्विपि सामाइयपि पुव्यपडिवण्णओ पडिवज्जमाणओनि भणेज्जा, जं चरिताचरितसामाइयं सुतसामाइयं | सम्मतसामाइयं च एवं तितयंपि बाहिरएसुवि दीवसमुद्देसु जत्थवि नन्थि सुसमाइओ कालो तत्थवि भणेज्जा |
गतित्ति दारं सा चतुविधा, नेरइयदेवेसु संमत्तसुताणं पडिवज्जमाणोवि पुम्वपडिवण्णओवि, तिरिएसु तिन्हं दोणिवि मणुरसु चउण्डं दोण्णिचि, भवसिद्धिओ चउण्डं पडिवज्जमाणओ वा पुव्वपडिवण्णओ वा होज्जा, अभविए एगमवि नत्थि । सण्णी चत्तारिवि दोहिवि पगारहि, असण्णी दोन्हं पुरुवपडिवण्णओ होज्जा संमसुताणं, नोसण्णिणो असण्णि चरिताचरित सुतबज्जितार्ण दोहं पृथ्वपडिवण्णओ अस्थि, पडिवज्जमाणओ नत्थि । ऊसासओ चउण्डवि पुष्वपडिवण्णओ पडिवज्जमाणओ वा भणेज्जा, एवं नीसासओवि, नौऊसासगनीसासगो आणापाणुपज्जत्तिअपज्जतको सम्मतसुताणं पुव्वपडिवण्णओ होज्जा, सेसं नरिथ सवं, सेलेसिं गतो पुण संमत्तचरित्ताणं पुव्यपडिवण्णओ होज्जा, सेस नत्थि । दिट्ठी तिविधा सम्मद्दिकी मिच्छदिट्ठी सम्ममिच्छदिडी, एत्थ दो
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सामायिकप्राप्तौ क्षेत्रदिकालादि
॥४४०॥
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आगम
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८०४-८०६/८०४-८२९], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
हीनया- ववहारो निच्छ ओ य, ववहारस्स मिच्छदिट्टी होनओ पडिवज्जति, नेच्छइयस्त सम्मदिविरेव, जेण "नेरइए भंते ! नेरइएसुसामायिक
उववज्जति अनेरइए?'आलावओ,सम्मत्तसुता एवं पुव्वपडिवण्णओ, एतेसि संमदिट्ठी नो मिच्छादिट्ठी, दोवि सामाइया, केती पुण . प्राप्ती आवश्यक
पू सुतसामाइत मिच्छादिट्टीवि पुम्बपडिवण्णओ भणंति दो पुण सामाइया-चरितं चरित्ताचरितं च पुब्बपडिवण्णओ वा पटिवज्जमाण-II क्षेत्रदिकाउपोद्घात ओवा सम्मदिट्ठी,नो मिच्छादिड्डी,सम्मत्तसुतसुवि णत्थि,अण्णे पुण भणति-चरित्तं चरित्ताचरितं पुलपडिवण्णओ होज्जा,नो पडिव- लादि नियुक्तो ज्जमाणओ । आहारओ चउहिवि पुवपडिवण्णओ पडिवज्जमाणओ वा भणेज्जा, अणाहारओ चरित्ताचरिचवज्जेसु पुव्वपडिय
| ण्णओ होज्जा । पज्जत्तओ जथा आहारओ, अपज्जचओ दोण्णि पुब्बपडिवण्णओ होज्जा। किं सुत्तो पडिवज्जति ? जागरो पड़ि॥४४॥ वज्जति ?, सुत्तो दुविहो निदासुतो य भावसुत्तो य, भावसुत्तो अण्णाणी, 'जागरो दुविहो- निदाजागरी सम्मदिट्ठी, निद्दासुत्तो
४. चउहिवि पुष्वपडिवण्णओ अस्थि, पडिबज्जमाणओ नत्थि एगमवि, भावमुत्तो पडिवज्जमाणओ पुब्बपडिवण्णओ वा नत्थि एग-13
मचि, नयमतेण वा सिय दोहं पडिवज्जमाणओ, निद्दाजागरो चउपहवि पुन्चपडिवण्णओ पडिवज्जमाणओ होज्जा, भावजागरो पुचपडिवण्णओ सुतसंमेसु अत्थि, पडिवज्जमाणओ नत्थि, नयमतेण वा सिया, चरितं चरित्ताचरित्तं च पुब्बपडिवण्णओ पडिव-11 ब्जमाणगोवि भणेज्जा । जम्मं तिविह-अंडज पोतजं जरायुज, अंडजा चरितवज्जाई तिष्णि पुन्वपडिवण्णया पडिवज्जमाणगा य भणेज्जा, एवं पोतजावि, जरायुजा चउसुवि पुज्वपडिवण्णगा पडिवज्जमाणगा वा भणेज्जा, उपवाइयं सम्मसुताण पुथ्व. पडिव
॥४४१३ ज्जमाणगा य भणेज्जा । ठितिदारं उक्कोस गठिओ जस्स उकोसा ठिती कम्मपगडीणं आउयवज्जाणं, उकोसद्विती पुग्वपडिवण्णओ वा पडिवज्जमाणओ वा चत्वारि नत्थि, आउयस्स देवेहिं परं संमत्तसुताणि पुब्बपडियण्णओ होज्जा,पडिवज्जमाणओ नस्थि, अज
दीप अनुक्रम
RESS ESSAY
RAY
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [८०४-८०६/८०४-८२९], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
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सत्राक
उपविधान
एण्णुकोसद्वितीओ चउहिबि पडिवज्जमाणओ पुय्वपडिवण्णो वा होज्जा, जहण्णकम्मवितिमा पुग्यपडिवण्णगा चरिचाचरित्तव-13 सामायिकआवश्यक
18ज्जेसु तिसु होज्जा, पडिबज्जमाणगा चतुसुचि न होज्जा । पुरिसवदेगा चतुहिंवि पुष्वपडिवज्जमाणगा वा होज्जा, एवं इत्थिन-18|
JHधूसा अवेदगा चरित्ताचरित्तवज्जेसुबि होत्था पुण्यपडिवण्णगा,जेण गिहत्थी उपसमगादी नस्थि, पडिवज्जमाणगा चउहिंवि णस्थि। नियती संणत्ति दारं- चउसुचि सण्णासु उवउत्तो चउण्हपि एगतरपि न पडिवज्जति , पुवपडिवण्णमा चउण्हपि होज्जा, णोसण्णोवउत्ता
15 पडिवज्जमाणगावि होत्था चत्वारिवि,पुण्वपडिवण्णगावि, अण्णे भणंति-नोसण्णोवउत्ता चरित्ताचरित्तवज्जेसु तिमुबि पुथ्वपडिवण्णगा & ॥४४२॥
होज्जा, नो पडिवज्जमाणगा, अण्णे पुण भणंति-णोसमोवउत्ता संमचरिचाणं पुव्वपडिवण्णगा अस्थि, सेसं नन्थि । कसायेत्ति ठादार- सकसायी चउण्हवि पुन्ब०, पढिवज्जमाणओषि होज्जा, अकसायी चरिचाचरित्तबज्जाणं तिण्डं पुवपडिवमा हाज्जा, |पडिवज्जमाणओ नस्थि, अबसेसो पुण जहा हेवा 'पढमेल्लयाणं उदये (१०८) गाथाहि भणितो। अहवा कोहकसायी | पांडवज्जति पुब्बपडिवण्याओविचडहिंवि, एवं माणी आउात्त दारं-संखेज्जवासाऊ किंचि दुविहोषि भणज्जा, असखज्जना-|| | साउ दोसु समसुतेसु दुविहोवि भणज्जा । णाणित्ति दारं-किं णाणी पडिबज्जति अण्णाणी', एत्थ दो गया जथा दिट्टी, एवं ता|
आहणं । इदाणिं विभागेण पंचण्डं णाणाणं भाणितब्बं आभिणिवोहियसुतणाणी एते पटिवज्जमाणया संमत्तसामाइयं सुतसामाइय च जुग पडिवज्जति, पुब्बपडिवण्णओ नत्थि, अण्णे भणंति-पुण्यपडिवण्णओवि अस्थि, चरितं चरिचाचारत च पुचपाड-19 वण्णा पडिवज्जमाणऑवि भणेज्जा,ओहिण्णाणी संमत्तसुत्तसामाइए पडिबज्जमाणओ नस्थि, पुन्यपडिवण्णआ हाज्जा, चरित्ता-1 | चारत पडिवज्जमाणओ ओहिण्णाणी नत्थि,पुचपडिवण्णो होज्जा, चरितं पुब्बपडिवण्णओवा पडिवज्जमाणओ वा होज्जा, अण्णे
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CRICKAGARASIRSANA
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आगम
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [८०४-८०६/८०४-८२९], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
हाभणंति-चरिताचरितवज्जाणं तिण पुण्यपरियण्णाओ वा पडिवज्जमाणओ वा होज्जा, चरित्नाचरितं पडियज्जमाणओ ओहिनाणी सामायिकआवश्यक नस्थि, पुच्चपडियष्णो होज्जा। मणपज्जवणाणी संमं सुतं चरितं च तिणि पुच्चपडिवण्णओ होज्जा, पडिवज्जमाणओ (
विश
प्रापकाः -- चूर्णी | चरित्तसामाइयं मणपज्जवणाणं च समयं चेव होज्जा, जथा-सामिणो, सम्मचसुते पत्थि पडिवज्जमाणओ, चरिचाचरितं | उपोद्घात
पुवपडिवण्णओ वा पडिबज्जमाणओ वा णस्थि । केवलनाणी चरिचे पुवपडिवण्याओ होज्जा, सम्मत्ते य पडिवज्जमाणओ नियुक्ती
नत्थि,सेसेसु दोसुवि नथि दुविधोवि । सजोगी चतुहिवि दुविहोधि होज्जा, अजोगी जथा केवलणाणी, मणबहकाया ॥४४३
जथासंभवं विभासज्जा | सागारोउत्तो चतुहिंवि दुविहोवि होज्जा, अणागारोवउत्तो चतुर्हिवि पुवपडिवण्णओ होज्जा, पडिवज्जमाणओ नस्थि, जेण सव्वाओ लद्धीओ सागारोवयोगोवउत्तस्स भवंति, नो अपागारोवउत्तस्स । ओरालियसरीरी चउहिवि या दुबिहोयि होज्जा, घेउविओ व सरीरी सम्मत्तसुते पडिवज्जमाणओ होज्जा, सेसाण पत्थि, पुल्वपढिवण्णओ पुण चउसुवि ट्र होज्जा, आहारगसरीरी सम्मत्सुतचरिते पुष्यपडिवण्णओ होज्जा, नो पडिवज्जमाणओ, चरित्ताचरित्तं दोसुवि गत्थि, तेयग
कमगाणि तदंतग्मताणि चेय कृत्वा नोच्यन्ते, अयोच्यन्ते ततः सम्मत्तसुताणं पुब्बपडिवण्णओ होज्जा, सेस नत्थि । संठाणे 8 छबिहे संघयण य छबिहे पुचपडिवण्णओबि पढिवज्जमाणओवि चत्तारिवि सामाइया मज्जा । माणत्तिदारं, माणं नाम 6 सरीरोगाहणा, किं जहण्णोगाहणओ० पडिवज्जति उक्कोसोगाहणओ० अजहष्णुक्कोसोगाहणओ पडिवज्जति ?, नेरइयदेवा जहण्णो-8 गाहणा ण किंचि पडिवज्जति, पुन्बपडिवण्णया संमत्तसुतेसु होज्जा, सेसा णस्थि, उक्कोसोगाहणा पुण्यपडिवण्णमा पडिवज्ज
X॥४४३॥ माणगावि संमचसुतेसु होज्जा, एवं अजहण्णुक्कोसोगाहणावि, तिरिक्खजोणिया जहण्णोगाहणगाण किचि पडिवज्जति, पुष्वप
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८०४-८०६/८०४-८२९], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
दीप अनुक्रम
श्री
181 डिवण्णगावि णस्थि, एगिदिए पडुच्च, अह बेंदियादी तो अस्थि, उक्कोसोगाहणगो अजहण्णुक्कोसोगाहणगोवि तिस सामाइएसुसामायिकआवश्यक
|पडिबज्जमाणओ वा पुन्बपडिवण्णओ वा होज्जा, मणूसो जहण्णोगाहणओ पुत्बपडिवण्णओ वा पडिवज्जमाणओ वा चउण्हवि: चूर्णी उपोद्घात ट्र
सामाझ्याण एक्काप पत्थि, समुच्छिमे पड्डुच्च, उक्कोसोगाहणओ दोसु दुविहोवि भणेज्जा संमत्तमुते, अजहष्णुक्कोसोगाहणओ
चउसुवि दुविहोवि भणेज्जा । लेसत्ति दारं, दग्वलेसं पडुच्च छसु लेसासु चत्तारिवि सामाइया दुविहाचि होज्जा, भावलेसं नियुक्ती
पिडुच्च छहि लेसाहि चउहि सामाइएहिं पुवपडिवष्णओ होज्जा, पडिवज्जमाणयं पडच्च चत्तारिवि सुक्कलेसाए होज्जा, अहवाला ॥४४४|| पुच्वपडिवण्णगं पहुच्च सब्बासुबि लेसासु होज्जा चतुरोवि, पडिवज्जमाणयं पगुच्च संमत्तसुताई सव्वासु तेउपम्हसुक्कासु चरितं
चरित्ताचरितं च पडिवज्जति, किंबडमाणओ पडिवज्जति? पुच्छा, चत्तारिवि सामाझ्या वड्डमाणओ पडिवज्जति, नो हीयमाणओ, है पुवपडिवण्णो दोहिवि परिणामेहिं होज्जा, अवट्ठियपरिणामओ न किंचि पडिवज्जति, पुवपडिवण्णओ होज्जा । किं साता-ल | वेदओ पडिवज्जति? पुच्छा, दोण्णिवि पडिवजंति चत्तारिवि सामाइया, पुष्यपडिवण्णगावि चचारिवि सामाइए । किं समोहतो असंमोहतो पुच्छा, दोण्णिवि एते चत्तारिवि सामाइया पुथ्वपडिवण्णा पडिवज्जमाणगा बा होज्जा ।। समुद्घात एवं कर्म समुद्। घातकर्म,कि? निवेढिन्तो पडिवज्जति संवेढन्तो पडिवज्जति निब्बेडेन्तो पडिवज्जति,णो संवेडेन्तो,सा पुण निवेढणा चतुविधा-II दच्यनिब्बेढणा खेत्तनि कालनि० भावनिव्वेढणा, दब्बनिव्वेढणा नाम जे सम्मत्तसुतचरिचावरणपोग्गला ठिता ते निबढेमाणो | पडिवज्जति, खत्तनिव्वेढणा नाम जेसु खित्तपदेसेमु पुणो पुणो आजायन्तओ, जथा 'अयं णं भंते ! जीये एतसि महालयंसि II लोयंसि अयवाडगदिट्ठतणं इमीसे रतणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससतसहस्सेसु०' एवमादितं निवेढेमाणो पडिवज्जति,
४४४॥
(153)
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आगम
(४०)
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८०४-८०६/८०४-८२९], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
सामायिक
प्रापका:
प्रत
GE15
नियुक्ती
श्री
कालनिब्वेढणा अणंतो कालो ज व संमत्तं पडिवनं भवति ताहे निव्वेढितो भवति, भावनिव्वेढणा जं कोहादीणि निव्वेढेऊण
पडिवज्जति,एवं चउब्विहंपि सामाइयं निब्बढिता पडिवज्जति,नो अनिव्वेढित्ता, अहवा भावनिवेढणा उदइयादी, पुवपडिषणओ। आवश्यक
चित्तारिवि सामाइए निब्बेढंतओ वा होज्जा संवेढन्तओ वा।।उब्बट्टत्ति दारं, नेरइएस अणुब्बडो जीवो पुन्बपडिवण्णओ वा पडिवउपायात
ज्जमाणओ वा सम्मत्तसुतेसु दोसु होज्जा, उब्वट्टस्स दुर्ग तिगं वा चउक्कं वा होज्जा, तिरिएसु अणुब्बङ्माणस्स तिण्णिवि दोहिवि पगारेहि होज्जा, उबट्टस्स दुविह तिविहं चउविहं वा होज्जा दोसुवि पगारेसु, मणुएसे अणुब्बद्स्स चउहिवि पुच्चप
डिवण्णओ पडियज्जमाणओ वा होज्जा.उवहस्स दुगं तिगं वा होज्जा, देवेसु अचुतस्स दुर्ग,चुतस्स दुर्ग तिगं चउक्क वा दोहिवि ॥४४५॥
पगारेहिं होज्जा, सब्वत्थ उबदमाणओ न किंचि पडिवज्जति, पुवपडिवएणओ दुगो वा होज्जा । किं आसवओ पडिवज्जति
नीसवओ पडिवज्जति आसवनीसवओ पडिवज्जति ?, जं सामाइयं पडिवज्जति तस्स तदावरणिज्जाणं हिस्सवओ पडिबज्जति, जे दात तदावरणिज्जा पोग्गला वटुंति ते निस्सबमाणो, अण्णे पुण आसवन्ति चेव ते निस्सवमाणो पडिवज्जति, नो आसवओ पडिVवज्जति,अण्णे ण पुण भणति आसपओ वा निस्सवओ वा आसवनीसवओ वा पडिवज्जति, पुण्यपडिवण्णेऽओ आसवओ वा०तिण्णिवि
होज्जा, अण्णे पुण भणति--आसवओ न पडिवज्जति तदावरणाणं, अण्णेसि आसवओवि पडिवज्जति,एवं णीसवमाणेऽवि भजितो, नीसव० तदावरणाणं हिस्सवणे, अण्णेसिं आसवणे, चतुसु दोसु तदावरणमीसएवि पुब्बपडिवण्णओ । किं अलंकार आविद्धन्तो पडिवज्जति अलंकितोपडिमुंचतो पडि उम्मुक्को पडि०, चतुसुवि चत्वारि सामाइए पडिवज्जेज्जा, पुवपडिवण्णयापि चत्तारिवि चउसुवि होज्जा । किं आसणस्थो पडि०, सयणत्थी पडि०, दोवि चत्वारिवि सामाइए पडिवज्जति, पुज्वपडिवण्णगावि चउसुवि
दीप अनुक्रम
॥४४५३
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [८३०/८३०], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
हटान्ताः
सत्राक
होज्जा । किं ठाणत्यो पडिवज्जति चक्कंमतो पडिवज्जति, एमेव होति । कहिन्ति दारं गतं । इदाणि केसुत्तिदारं, केस
य मनुष्य दादब्वेसु पज्जवेसु वा सामाइयं ?
दुलमवा उपोद्घातला सव्वगयं संमत्तं०। ८-१४६ । ८३० ॥ पढमंमि सव्वजीवा (७९१) एताओ कितिदारे माणिताओ । केसुत्ति निर्यको दारं गतं । इदार्णि कहन्ति दारं, चउव्विहस्स सामाइकस्स कहं लभो भवति', जदा इमाणि ठाणाणि कदाणि भवति तदा ॥४४६॥ 18 चरित्तसामाइयं लब्भति, काणि पुण ताणि ठाणाणि -
माणुस्सखेत्त०। ८-१४७॥ ८३१ ।। तत्थ ताव माणुस्स इमेहिं दसहि दिढ़तेहि जहा दुल्लभ तहा परूवेति
चोल्लगपासग०1८-१४८ । ८३२ ॥ चोल्लगत्ति, जहा बंभदत्तस्स एगो कप्पडिओ ओलग्गओ, बहुसु आवतीमु अबकास्थासु य सम्वत्थ ससहाओ आसी, तेण पवनं रज्ज, तस्स पारससंवच्छरिओ अमिसेओ, सो कप्पडिओ तत्थ अल्लियावपि न
लमति, ततोऽणेण उबाओ चितितो-बाहणा धिणं धयो कतो, ततो धयवाहएहिं समं पहावितो, रण्णा दिण्णो(डो) ओतिण्णणं उव# गहितो, अण्णे उण भणति-ताहे तेण दारवाले सेवमाणेण चारसमे संवत्सरे राया दिडो, ताहे सो राया तं दतृणं संभंतो, इमो सो भवराओ जो मम दुक्खसहाओ, एत्ताहे से करेमि वित्ति, रण्णा भणितो-भण किं देमि विति?, सो भणति-देहि ममं चोल्लए घरे, जाव ४४६ ट्रा सव्वमि भरहे जाहे निद्वियं होज्जा ताहे पुणोवि तुम्भं घरे, राया मणति- किं ते एतेण, देस देमि, सुहं छत्तच्छायाए मायंगेहि IX
य(अच्छ),वाहे सो चितेति-किं ममं एदहेण अहदेण', एवं तेण भणिते ताहे तत्थेव पढर्म जिमितो, रण्णा से जुगलगं दाणारो य
दीप अनुक्रम
4SX
| मनुष्य-भव प्राप्ते: दुर्लभत्वं "दश-द्रष्टांता:"
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [८३२/८३२], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
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चूणों
दृष्टान्ताः
सत्राका
श्री | दिण्णो, एवं सो परिवादीए सच्चेसु राउलेसु बत्तीसाए रायवरसहस्सेसु तेसिपि जे भोइया तस्थ नगरे अणेगाओ कुलकोडीओ, सोSI मनुष्य नगरस्स चेव कया अंतं काहिति, ताहे पुणो गामे, ताहे पुणो भरहस्स, अवि सो वच्चेज्जा ण य माणुसचणाओ भट्ठो।
दुलेभता उपोद्घात पासयत्ति, चाणकस्स सुवणं नस्थि, ताहे केण उवादेण विढवेज्ज सुवण्णं, ताहे तपासगा कता, केई भणंति-वरदिण्णगा, नियुक्तीाएगो दक्खो पुरिसो सिक्खाविओ, दीणाराणं थाल भरियं, सो भणति-जइ ममं कोइ जिणति तो थालं गेहतु, अहं जति जिणामि || ॥४४७॥
है तो एग दीणारं जिणामि, तत्थ इच्छाए जैत पाडति, एवं न तीरति जेतुं, जहा सो जिप्पति एवं माणुसलंभो अवि णाम विभासा । का धण्णेत्ति जेनियाणि भरहे धण्णाणि ताणि सव्वाणि पिंडियाणि, तत्थ पत्थो सरिसवाणं छूढो, वाणि सव्वाणि अद्यालियाणि, तत्थ एगा जुण्णभेरी सुप्पं गहाय ते वियणज्जा, पुणोवि पत्थं पूरेज्जा, अवि सा देवप्पभावेण पूरेज्जा न य माणुसाओ | अहवा मणिता सम्बधण्णाणि विभत्ताणि करहि ।
जूए, जथा-एगोराया तस्स रणो सभा खमसतसंनिविद्या जत्थ अत्थाणियं देति, एकको य खमो अडसतं २ अंसियाण, तस्स द्रय पुत्तो रज्जकंखी, सो य राया थेरो, ताई चिंतेति कुमारो-अहं एतं मारेतुं रज्ज गेण्हामि, तं च अमच्चेण नातं, ताहे सो राया 8 * विदितत्थो ते पुत्तं भणति-अम्हे जो कम न सहति सो जूतं खेल्लति, जदि जिणति रज्ज से दिज्जति, किह पुण जिणियब?, तुज्मं* एगो आयो अवसेसा अम्ह, अदि तुम एतं एकिक्कं अंसित अट्ठसतं वारा जिणासि तो तुम्भ रज्ज, अवि सो देवतप्पभाषा विभासा ।।
रयणे । जथा एगो वाणियओ, तस्स पुत्ता, सोय महालो, रतणाणि से अत्थि, तत्थ महे अण्णे वाणियगा कोडिपडागाओ
दीप अनुक्रम
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [८३२/८३२], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
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चूर्णी
दीप अनुक्रम
श्री 12 उवट्ठति, सो न उढवेति, ताहे तस्स पुत्ता थेरे पउत्थे सब्वाणि विकिणति-पडागाओ काहामोत्ति, ते य वाणियगा समततो गता मनुष्य आवश्यक15 पारसदीवादीणि, सो य थेरो आगतो, सुतं जथा विकियाणि, ते अम्बाडेति-लडं आणेह, ताहे ते सव्यतो हिंडितुमारद्धा, कि ते
दृष्टान्ताः उपोद्घात
सव्वरतणाणि पिणेज्जा ?, अवि य देवप्पभावणं विभासा। नियुक्ती सुविणएत्ति, जथा-दोणि कप्पडिया, एगेण कप्पडिएण सुविणए चंदो पीतो, तेण कप्पडियाणं कहितं, तेहि भणितं चंदप्प
181माण पूयलियं लभिहिसि, लद्धा य घरच्छायणियाए, अण्णेणवि दिट्ठो, सो हातो, ताहे फलं वा किंचि वा गहाय सुविणपाढकस्स४ ॥४४८॥
। कहेति, तेण भणितं-राया भविस्सति, इतो य सत्तमे दिवसे तत्थ राया अपुत्तो मतो, सो य निवण्णो अच्छति जाव आसो अहियासितो
आगतो, तेण पढे विलइओ, एवं सो य राया जातो, तोहे कप्पडिओ तं सुणेति, जहा तेणवि दिडो एरिसओ सुविणओ, सो आदेसफलेण किर राया जातो, सो चिंतेति-वच्चामि जत्थ गोरसो, तं जेमेत्ता सुयामि, अस्थि पुण सो पेच्छेज्जा, अविय सो०, नय माणुसातो।
चक्केत्ति दारं-इंदपुरं नयर, इंददचो राया, तस्स इहाण वराण देवीणं धावीस पुत्वा, अण्णे भणंति-एकाए देवीए, ते सव्वे रज्जेसु रण्णो पाणसमा, अण्णा एगा अमरुचस्स धूता, सा जं परं परिणेतेण दिद्वेल्लिया, सा अण्णदा हाता समाणी अच्छति, ताहे सा रण्या दिडा, का एसत्ति, तेहिं-भणितो-तुन्भं देवी, ताहे सो ताए समं एक रति तुत्थो, सा य रितुण्हाया. तीसे गम्भो लग्गो, ४८॥ सा य अमच्चेण भणितेल्लिया-जया तुभ गम्भो लग्गति तदा ममं साहेज्जा, ताहे सो ताए सो दिवसो सिट्ठो वेला मुहुत्तो य,
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [८३२/८३२], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सुत्रांक
दीप अनुक्रम
श्री चरायाए उल्लावियं सातियकारो, तेण तं पत्तए लिहियं, सो सारवेति जार नवण्ई मासाणं दारो जाओ, तस्स य दासचेडाणि मनप्प आवश्यक सातदिवसजातगाण,०-अग्गियओ पब्बयओ बदुलिया सागरओ, ताणि सहजायगाणि, तेण सो कलायरियस्स उवणीओ, तेण लेहा- 1 दर्लभता
चूर्णी १ दिया गणियप्पहाणाओ कलाओ गहियाओ, जाहे तं चेडे गाहिंति आयरिया ताहे ताणि बद्दति य बीउल्लंति य पुब्बपरिसएणी दृष्टान्ताः उपोद्घात ताणेति राडति, तेण ताणि न चव गणियाणि, गहियाओ कलाओ, तेवि अण्णे गाहिज्जति बावीस कुमारा, जस्स ते आयरियस्स नियुक्ती अप्पिज्जति तं मत्थएहिं पितॄति, अह ते कोइ पिट्टेति ताहे साहिति अम्मामिस्सियाणं, ताहे ताओ भणंति-कि सुलभाणि पुनजमा॥४४९णि ?, ताहे ण सिक्खिता । इतो य मथुराए राया जितसत्तू, तस्स सुता सिद्धिका, अण्णे भणति-णेब्बुती, सा रणो अलंकिता
उवणीता, ताहे राया भणति-जो तुह भत्ता रोयति सोते, ताहे ताए णातं जो सूरो वीरो विकतो होज्जा सो मम, सो पुण रज्जं | देज्जा, ताहे सा तं बलवाहणं गहाय गता इंदपुरं नगरं, तस्थ इंददत्तरण्णो बहवे पुत्ता, अहवा दूतो पयट्टिओ, ताहे सब्वे द्विारायाणो आवाहिया, ताहे तेण रण्णा सुतं, जहा-सा एति, ताहे हद्वतुट्ठो उस्सितपडाग०, रंगो य कतो, तत्थेगंमि अक्खे अट्ठ चका
असमाणं संभमंति, तेसिं परतो धीतिगा ठविता, सा पुण अच्छिमि विधेतवा, राया संनदो सह पुनेहिं निग्गतो, ताहे सा कण्णा ४ सव्वालंकारविभूसिया एगमि पासे अच्छति, सो रंगो रायाणो य ते घरडंडभडभोइया जारिसो दोवतीए, एत्थ रण्णो जेट्टपुत्तो | सिरिसाली नाम कुमारो, सो भणितो-पुत्ता! एसा दारिया रज्जं च घेतवं एतं राधं विधेतूणं, ताहे सो तुट्ठो, अहं पूर्ण अण्णेहितो रायीहितो लहो, ताहे सो भणितो-बिंधत्ति, ताहे सो अकतकरणो तस्स समूहस्स मज्झे धणूतं घेत्तुं चेव ण चएति, कहवि ण
॥४४९॥ गहित, तेण जत्तो बच्चतु ततोकडं वच्चतुत्ति मुकं, तं भग्ग, एवं कासइ एग पोलीणं कासह दोष्णि कासइ तिणि अण्णेसि
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [८३२/८३२], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
दृष्टान्ताः
सत्राक
५
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५
श्री बाहिरेण व नीति, तेणवि अमच्चेण सो णतुओ पसाहिओ तदिवसं आणिओ तत्थ अच्छति, ताहे सो राया ओह-15 आवश्यकाल तमणसंकप्पो करतल. अहो अहं धरिसिओति, ताहे अमच्चो पुच्छति-किं तुज्झे देवा! ओहतमणा, ताहे सो भणति-एतेहिंददुलेभता
चूर्णी अहं निप्पहाणो कतो, ताहे अमच्चो भणति-अस्थि तुभ अण्णोऽवि पुत्तो सो कतकरणो सुरिंददचो नाम कुमारो, ते सोवि तावउपोद्घात विण्णासउ, ताहे राया पुच्छति-कतो मम पुत्तो?, ताहे ताणि से कारणाणि सिट्ठाणि, ताहे सो राया तुट्ठो, ताथे भणितो-सेयं तव नियुक्ती
एते अट्ट चक्के भेत्तूर्ण तव रज्जमुहं निबुतिदारियं च संपावित्तए, ताहे सो कुमारो ठाणं ठाति धणुं गेण्डति लक्खभिमुहं सर सज्जेति, I४५०|
मताणि य दासरूवाणि चत्तारिरवि सम्वतो रोडेंति, अण्णे य दोणि पुरिसा असिव्यग्रहस्तास्तिष्ठति, ते बावीसपि कुमारा एस विधि
स्सतित्ति ते विसेसउल्लुंठणाणि विग्याणि करेंति, ताहे सो पणाम उवज्झायस्स रण्णो रंगस्स य करेति, सोवि से उपज्झाओ भर्य दाएति एते दोणि पुरिमा जदि फिट्टसि ततो सीसं पाति, सो ते पुरिसे कुमारे य तेचि चत्तारिपि दासरूये अगणेतो ताणं
अट्टण्डं रहचकाणं छिद्दाणि जाणितूणं एक छिदं लक्खेति, तं अफिडियाए दिट्ठीए तेण अण्णमि मति अकुणमाणेण सा धीया हाअच्छिमि विद्धा, तत्थ उक्कुट्टिसीहणादसाधुकारी दिण्णा, सा यलद्धा, जथा तं दुक्खं मे एवं माणुसचणं ।
____ चमे, जहा-एगो दहो जायणसतसहस्सविच्छिण्णो चमोनद्धो, एग से छिदं कच्छभ मेत्तं तंबहुमज्झदेसभाए, तत्थ कच्छभेण कहबि गीवा उच्चुड्डाविता, तेण जोतिस दिई कोमुईए पुप्फफलाणि य, सो गतो सपणिज्जगाणं दाएमित्ति, आणेति, आणेता ४५०॥ सब्बतो घुलति, न पेच्छति, अविय सो०, न य माणुसातो।।
जुगे-पुचते होज्जः ॥ ८-१५७ ।। ८३३ ॥ एवं दुल्लभं । इदाणि परवाणू , जथा-एगो संभो महप्पमाणो, से देवेणं IN
दीप अनुक्रम
+
५
+
(159)
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
अध्ययनं [-]
मूलं [- / गाथा-], निर्युक्ति: [८३३/८३३-८४०], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि - 2
श्री आवश्यक
चूर्णी उपोद्घात निर्युक्तौ
॥४५१॥
चुष्णेतुं अविभाइमाणि कातणं नालियाए पक्खितो, पच्छा मंदरचूलियाठिएण फूमितो, ताणि नद्वाणि, अस्थि पुण कोइ जो तेहिं चैत्र पोग्गलेहिं तमेव खर्भ निम्बत्तेज्जा १, नो तिण्डे, एस अभावे, एवं नो माणुसाओ न पुणेो० अहवा सभा अणेगखंभसतनिविट्ठा, सा कालंतरेण शामिता पंडिता, अस्थि तं पुण कोइ जो तेहिं चैव पोग्गलेहिं पुणो करेज्जा १, नो तिनकु०, एवं माणुसंधि दुलर्भ ।
एतेहिं दसहिं पदेहिं जहा माणुस्तं दुलर्भ १ एवं एतेहिं चैव दितेहिं खेचं आयरियं२ जाति३ कुलं४ आरोग्गंद रूवंद आज बुद्धी८सवर्ण धम्मस्स ९ गहणं १० मि य सद्धा ११ संजमो १२ तंमि य असढकरण १३ लोगे दुखभाणि । एवं दुभाणि एताणि दसहि पदेहिं, एतेहिवि पदेहिं लद्धेहिं इमेहिं कारणेहिं दुल्लभं सामाइयं, जथा
आलस्समोहवण्णा० । ८-१५८ । ८४१ । आलस्सिण साहूणं पास नलियति १ अहवा निष्वप्यमत्तो मोहाभिभूतो इमं से कातव्यं नेच्छ सुतुं २ अहवा अवज्ञा किं एते जाणते ? नग्मा हिंडंति अथवा मेणं, किंचि जाणेज्जा, जहवा अट्ठविहस्स य तस्स अण्णतरेण थंभेणं ४ अहवा दद्द्द्दणं चैव पव्वश्यए कोहो उप्पज्जति ५ पमाएणं पंचविहस्स अण्णतरेणं ६ अहवा किविणताकिंचि दायव्वं होहिति तेण णलियति ७ भतेण वा एते णरगतिरियभयाई दाति, अलाई एतेहिं सुतेहिं ८ सोगेण | धणसयणादिवियोगेण अभिभूतो ण अलियइ ९ अण्णाणेण वा कुपहेहिं मोहितो इममि से ण चैव धम्मसण्णा उप्पज्जति १० अहवा वक्खेवेणं अप्पणो निच्चमेव वाउलो ११ कोउछे वा कुहेडगादिसिक्खणादिसु १२ अहवा रमणसीलो वट्टखेलियादिएहिं १३
मा
(160)
मानुषत्वदोलभ्ये
दृष्टान्तः
॥४५१॥
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [१५०...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [८४१-८४७/८४१८४७
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूणीं उपोद्घात नियुक्ती
॥४५२॥
1996
एतेहिं कारणेहिं जूण सु० १८-१५९१८४२ अहवा कम्मरिवुजयेण सामाइयं लब्भति, सोय जयो सामग्गीय विणा न ४ आलस्याद्या भवति, संजोगेण भवति, जथा - जोधस्स रिनुभयो, साय सामग्गी इमा—
विभाः
जाणावरण० १८-१६०।८४३| जाणं रहो आसो हत्थी वा जदि नत्थि तो किं करेतु पाक्को?, लद्धेमुवि आवरणं जदि कवयादि नरिथ तो एगप्पहारो कीरति सति आवरणे पहरणेण विणा किं सक्का हत्थेण जुज्झितुं १, सति बहरणे कुसलत्तं नत्थि, न जाणति किह जोहेतव्यं १, सति कोसले नीतीय विणा किं करेतु, समूहे मारिज्जति अवक्रमणं उक्कमण अयाणतो, जहा अगलुदत्तो दक्खत्तणेण फेडेति डेवेति वा जाब मुहं विडंबितं ताव सराण पूरियं । एतेसु सब्र्व्वसुवि लाइएस जदि वबसाओ नत्थि न चैव जुज्झति अणच्छतो, सति ववसाये सरीरेण असमत्था किं करेतु है, एतेण संपण्णो रिडं जिणति । एवमिहावि जाणं महब्वयाणि आवरणं खेती, झाणं पहरणं, कुसलत्तणं कतजोगिनं, नीती साहूणवि जहा इमं एतेण उवाएणं कातव्वं एतेण नवि, दक्खत्तं पडिलेहणवेयावच्चादीसु, वबसाओ सवसंजमकरणे उवसग्गसहणे वा दुग्गावतीए वा सरीरस्स जदि आरोग्गं, एतेहिं सामग्गीकारणेहिं सव्वेंहिं कम्मरि जिगति, ताहे सामाइयं लब्भति । अहवा इमेहिं कारणेहिं सामाइयं लब्भति
दिट्ठे सुतमणु० ।। ८-१६१ ।। ८४४ ॥ द बोधी, जहा सेज्जंसो उसभसामि, सर्वभूरमणमच्छो वा जहा पडिमा संठिते मच्छे पउने व दणं तित्थगर०, मच्छपउमाणं सव्वसंठाणाणि अस्थि, मोतुं वलयसंठाणं, सोसणं जहा आणंदकामदेवाण तत्थ तेथे काले तेर्ण समयणं वाणियगामियं नाम नगरे होत्था, दुतिवलासए चेतिए, जितस राया, तत्थ णं आणंदे नामं
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यानावरगायुपमा व्रतादीनां
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आगम
(४०)
प्रत
सूचांक
H
दीप अनुक्रम H
भाग-4 "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूलं [- / गाथा-1, निर्युक्तिः [८४१-८४७/८४१-८४७
आयं [१५०...]]]
अध्ययनं H
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूण उपोद्घात
नियुक्तौ
॥४५३॥
गाहाबती परिवसति, अड्ढे दिले वित्ते विच्छिष्णविपुलभवणसयणासणजाणवाहणा किष्णे बहुधणवधष्णजातरूवरयए आयोगपयो--- संपचे विच्छतिस्थमाणे बहुदासीदासगो मसिगलगप्पभूते बहुजणस्स अपरिभृते यानि होत्या, तस्स णं सिवणंदा नाम भारिया, aorओ, सेणं आणंदे सत्य बहूणं राईसर जात्र सत्यवाहम्पभितीणं अङ्कारसह सेणिप्पसेणीणं सगस्स कुबस्स कज्जेसु कोई बेसु य जान पडिपुच्छणिज्जे सव्वकज्जवद्वावए यानि होत्था जाव चक्सुभूतेचि तस्स णं णगरस्त बहिया अदरसामंते उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए कोल्छाए नाम सचिवेसे होत्था, तस्स णं आनंदस्स केह मित्तणाति जाव परिजणे वसति अड्डे जाव अपरि भूते ।। तणं काले तेयं समरणं समणे भगवं महावीरे जाव संपवितुकामे वाणियगानस्स दूतिपलासए चेतिए समोसढे जाव विहरति । परिसा निग्गता, जितसत्त निग्गतो जाब पज्जुवासति । तते में मे आनंदे बहुजण जाव एतम निसम्म हाति जाव पादचारवि हारेणं जाव पज्जुवासति । ततेणं सामी आणंदस्स तीसे य परिसाए धम्मं परिकहति, परिसा पडिगया, तते णं से आणंदे धम्मं | सोच्चा हड्ड जाव उट्ठेति उट्ठेचा सामिं बंदति नम॑सति नर्भसेवा एवं बयासी सहामि णं भंते! निग्ग्रंथं पावयणं, पत्तियामि णं अंत ! निम्गंध पावणं, किं तु जथा णं देवाणुष्पिवाणं अतियं राईसरादयो चइता हिरण्णं जाव पव्ययंति नो खलु अहं तहा संचारमि, अहंणं दुवालसविहं साबगधम्मं पडिवज्जिस्सामित्ति, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं तते णं तस्स सामी सावगधम्मविहिं उपदंसेति सेचि य णं पडिवज्जति, एवं जया उबासगदसासु, इच्छापरिमाणं पुग करेमाणे पण्णत्थ चउहिं हिरण्णकोडीहिं निहाणपउत्ताहि एवं वह्निपत्ताहि परिमलपवित्थरोवउत्ताहिं, अवसेसं हिरण्यविधि पच्चक्खाति जावज्जीत्राए, एवं नष्णत्थ चउहिं इलसोहं नियत्तणसतिएणं इलेणं, णण्णत्थ चउहिं दाससतेहिं, चउहिं दासीसतेहिं चउहिं वहिं वयपवरेहिं दस
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सामायिकलाभहेतवः
1184211
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
आनन्द
प्रत
E
सत्राक
|गोसाहस्सिएणं वएणं, चउहि भंडीसहिं दिसाजतिपहि, चउहिं भंडीसएहिं संवहणिएहि, चउहिं वहणसतेहिं दिसाजत्तिएहि आवश्यक सतसाहस्सिएणं यहणेणं, चउहि वहणसतेहिं संवहणिएहिं, एवमादि पंचअतियारपेयालविसुदं करेति जाब एवं अप्पाणं भावेमाणचूर्णी
स्स चोइस वासाई विहक्कंताई, पच्छा एकारस उवासगपडिमाफासणं एक्कारसपडिमं ठितस्स ओहिण्णाणुप्पत्ती- तिदिसिं लवण । उपोद्घात
| समुद्दे पंचजोयणसतियखेत्तपासणं उत्तरेणं चुल्लहिमयंत जाव उई जाव सोहम्मो कप्पो अहे जाव लोलयपत्थडंतरं चुलसीतिवासनियुक्ती
सहस्सट्ठितिगं जाणति पासति, एवं से आणंदे समणोवासए उत्तमेहिं सीलब्बएहिं जाव अप्पाणं भावेत्ता बीसं पासाई समणी||४५४||
वासयपरियागं पाउणित्ता एकारसोबासगपडिमाओ संमं कारण फासेचा मासियाए संलेहणाए आलोइयपडिकते समाधिपते काल पाकिच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसगस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरच्छिमेणं अरुणे विमाणे देवताए उबवण्णे चउपलियट्टितिके, ततो नुए महाविदेहे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति ।।
एवं कामदेवस्सवि, चंपा नगरी पुण्णभद्दे चेइए जितसत्तू राया कामदेवे गाहावती भद्दा भारिया सामिआगमणं । जहा आणंदे तेणेव कमेण सावगधर्म पडियज्जति, नवरं छ हिरण्णकोडोओ जाव छवहणसतचि तहेव जाब एक्कारसमं पडिम पडिवण्णस्स एगे देवे पिसायहत्थिपण्णगरूवेण उवसग्गेति, से य न खुभति जथा उबसगदसासु जाच सामी समणे आमंतेचा एवं बयासी-जदि ताव अज्जो! कामदेवेणं समणोवासगेणं उवसग्गा संम सहिता किमंग पुण अज्जो ! सवणेण वा समणीय वा| दुवालसंग गणिपिडर्ग अहिज्जमाणेणं, ततेणं ते समणा णिग्गंथा तं उबदेस सम विणएण पडिस्मुणेति, एवं जाव कामदेवे सामिणा उपवूहिते-धष्ण सिणं तुमं कामदेवा ! जाव जस्स णं णिग्गंथे पावणे तव इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा पत्ता जाव अभि
दीप अनुक्रम
॥४५४॥
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*
आवश्यक
1वल्कल
T
प्रत
उपोद्घाता
सुत्रांक
नियुक्ती
॥४५॥
समष्णागता, ततेणं से कामदेवे हढे जाव वंदित्ता पडिगते, एवं जथा आणंदे तहेब जाव सिज्झिहिति, नवरं अरुणाभे विमाणे, सेसं तं चेव । अणुभूते जथा-वकलचीरिस्स । को य बकलचीरी, तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपानगरीए सुधम्मगणहरो समोसढो, दि
चीरिवृत्तकोणिओ राया वंदितुं निग्गते कतप्पणामो य जंबुनामरूबदसणविम्हितो गणहरं पुच्छति-भगवं! इमीसे महईए परिसाए एम साहू पतसित्ताब वही दित्तो मणोहरसरोरा य, कि मण्णे एतेण सील सेवित ! यो वा चिण्णो दाणं वा दिणं जतो से एरिसी|8| तेयसंपची?, ततो भगवता भणितो मुणाहि राय जहा तब पितुणा सेशिएण रण्णा पुच्छितेण सामिणा कहितं-तेणं कालेणं तेणं समएणं गुणसिलए चेतिए सामी समोसरितो, सेणिओ राया तित्थगरदसणसमुस्सुओ बंदओ णिज्जाइ, तस्स य अम्गाणीए दुवे पुरिसा कुटुंबसंबई कह करेमाणा पस्तंति एर्ग साधु एगचलणपरिट्ठित समूसवियवाहुजुयलं आतावेत, तत्थेकेण भणितं-अहो एस महप्पा रिसी सूराभिमुहो तप्पति, एतस्स सग्गो मोक्खो वा हत्वगतोति, वितिएण पच्चभिण्णाओ, ततो भणति-किण याणसि | एस राया पसण्णचंदो ?, कतो एयरस धम्मो ?, पुत्तोऽणेण बालो ठवितो, सो य मंतीहिं रज्जाओ मोइज्जति, सोऽणेण बंसो विणासिओ, अंतेउरजणोषि ण णज्जति किं पाविहितित्ति, तं च से वयणं झाणवाघात करेमाण सुतिपहसुवगतं, ततो सो चिन्तेतुं पयचो-अहो ते अणज्जा अमच्चा मया समाणिया निच्चं पुत्तस्स मे विपडिवण्णा, जदि हं होंतो एवं च चेट्ठता तो णे सुसासिते ती करेंतोमि, एवं च से संकप्पयंतस्स तं कारणं बट्टमाणमिव जातं,तेहि य सम जुद्धजोणि मणसा चेव काउमारतो, पचो य सेणिओ | राया तं पदेस, वंदितोऽणेण विणएण, पेच्छति णं झाणनिच्चलत्थं, अहो अच्छरितं एरिसं तवस्तिसामत्थं रायरिसिणो पसनचंद-५
दीप अनुक्रम
RIPASABHASHA
२% AEIR
॥४५५॥
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प्रत
चूर्णी
सत्राक
सति चिन्तयन्तो पचो तित्थगरसमीव, वंदितूण विणएण पुच्छति-भगवं ! पसण्याचंदो अणगारो जीम समए मता बंदिओ वल्कलआवश्यक जदि तमि समए कालं करेज्ज का से गती भवेज्जा १, भगवता भणित- सत्समपुढविगमणजोग्गो, ततो चिंतेति-साहुणो कई चीरिवृर्च
नरकगमणति ?, पुणो पुच्छति-भगवं! पसनचंदो जइ इदाणि कालं करेज्ज के गति बच्चेज्जचि, भगवता भणित--सबट्टसिद्धिउपाधातागमणजोरगो इदाणिति, नतो भणति-कह इस दुविहं वागरणंति, नरगामरेसु तवस्सिणोत्ति, भगवता भणित-माणविससेण, नियुक्ती
वमि य इमंमि समए एंरिसी तस्स असातसातकम्मादाणता, सो भणति- कई १, भगवता भणित- तव अग्याणितपुरिसमुहनिग्गतं ५६॥ पुत्तपरिभववयणं सोतूण उज्झितपसत्यहाणे तुमे बंदिज्जमाणो मणसा जुज्झति तिव्वं पराणीएण सम, तओ सो तमि समए
- अहरगतिजोग्गो आसि, तुमंमि य उपगते जातकरणसत्ती सीसावरणेण पहरामि परति लोहते सीसे हत्थं निक्खिवतो पडियुद्धो,
अहो अकज्ज, कज्ज पाहतूण परस्थे जदिजणविरुद्धं मग्गमयतिषणोति चित्तूण निंदणगरहणं करेंतो म पणमित्य तत्थ गतो चेव आलोइयपरिकतो पसत्थशाणा संपतं तं चऽण कम्म खवितं सुभ अज्जितं, तेण पुण कालविभागेण दुविहगतिनिदेसो । । ततो कोणिओ पुच्छति- कहं वा भगवं ! बाल कुमार ठवेतूण पसष्णचंदो राया पबहतो , सोतुमिच्छं, ततो भणति-पोतणपुरेड़ा माणगरे सोमचंदो राया, तस्स धारिणी देची, सा कदाइ तस्स रण्णो ओलोयणगतस्स केस रएति, पलित दट्टण भणति- सामि १४ा दूतो आगतोत्ति, रण्णा दिट्ठी वितारिया, ण य पस्सति अपुब्बं जगं, ततो भणति-देवि! दिव्वं ते चक्खु, तीय पलिय दंसितं,
सित: ४५६॥ धम्मदूतो एसोति, तं च दट्टण दुम्मपस्सितो राया, तं नातूण देवी भणसि-लज्जह युद्धभावेण, निवारिज्जिही जणो, ततो भणति-दविन एवं, कुमरो पालो असमस्थो पयापालणे होज्जत्ति मे मण्णुं जातं, पुष्पपुरिसाणुचिण्णण मग्गण ण गताऽहति, न
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प्रत
सुत्रांक
दीप अनुक्रम
विचारो, तुम पसनचंद सारक्खमाणी अच्छसुचि, सा णिच्छिता गमणे, ततो पुत्तस्स रज्ज दातूण धातिदेविसहितो दिसापो- वल्कलचीआवश्यक क्खियतावसत्ताए पदिक्खितो चिरसुण्णे आसमपदे ठितो,देवीय पुव्बाहूतो गम्भो परिवद्धति,पसण्णचंदस्स य चारपुरिसेहिं निवेदितो रिवृत्तं
IF पुण्णसमए पसता, कुमारो बक्कलेसु ठवितोत्ति वकलचीरित्ति, देवी विसइयारोगेण मता, वणमहिसीदरेण य कुमारो बद्धाउपोद्घाता। विज्जति, धातीवि थोवेण कालेण कालगता, किढिणेण वहति रिसी वक्कलचीरि, परिवतितो य.लिहितूण दंसिओ चित्तकारहिं नियुक्ती
पसण्णचंदस्स, तेण सिणेहेण गणिकादारियाओ स्वस्सिणीओ खंडमयविविहफलेहिं णं लभेहित्ति पत्थविताओ, ताओ णं फलेहिं | मधुरेहि य वयणेहिं सुकुमालपीणुण्णतथणसंपीलणेहि य लोभीन्त, सो कतसमवातो गमणे जाव अतिगतो तावसमंडग घेत्तु ताव PIरुक्खारूदेहिं चारपुरिसेहिं तासि सण्णा दिण्णा रिसी आगतोचि, ताओ दुतमयकताओ, सो तासि वीधिमणुसज्जमाणो ताओ|*
अप्पस्समाणो अण्णतो गतो, सो अडवीय परिम्भमंतो रहगत पुरिस दट्टण तातं अभिवादयामिारी भणतो रहिणा पुच्छितो-181 है कुमार ! कत्थ गंतव्य ?, सो भणति-पोतणं नाम आसमपदं, तस्स य पुरिसस्स तत्थेव गंतव्वं, तेण समयं वच्चमाणो रथिणो
भारितं तातचि आलावति, तीय भणितो-को इमो उबयारो?, रथिणा भणित- सुंदरि ! इत्थिविरहिते णूण एस आसमपदे वडितो,
ण याणति विसेसं, न से कुप्पितव्वं, तुरये भणति-किं इमे मिगा वाहिज्जति तात?, रथिणा भणितो-कुमार ! एते एतमि चेव | * कज्जे उवकज्जति, न एत्थ दोसो, तेणवि से मोदगा दिण्णा, सो भणति-पोषणासमयासीहिं मे कुमारेहिं एतारिसाणि चेव फलाणि ||४५७||
दचपुब्बाणिति, वच्चंताण य से एक्कचोरेण सह जुद्धं जात, रथिणा गाढप्पहारो कतो, सिक्खागुणपरितोसिओ भणति-अस्थि द विउले धणं तं गेहसु सूरचि, तेहिं तीहिवि जणेहिं रहि भरितो, कमेण पत्चा पोतणं, मोल्लं गहाय विसज्जितो, उडयं मग्गामुत्ति
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प्रत
सत्राक
श्री 18सो भमन्तो गतो गणियाघरे-तात! अभिवादये,देह इमेण मुल्लेण उडयंति,गणियाए भणिओ-दिज्जति नि(नि)सति,तीय कासवओवल्कलचीश्यका सद्दाविओ, ततो अणिच्छतस्स कतं गहपरिकम, अवणीयवक्कलो य वत्थाभरणविभूसितो गणियादारियाय पाणि गाहितो, हवितो रित्र चूर्णी
य, मा मे रिसिवेस अवणेहित्ति जपमाणो ताहि भण्णति-जे उडगत्था इहमागच्छति नेसि एरिसा उवयारी कारात, ताआ व गाणउपोद्घातदा
स याओ उवगायमाणीयो वधूवरं चिट्ठति, जो य कुमारविलोभणनिमित्तं रिसिवेसो जणो पेसितो सो आगतो कहेति रणो- कुमारो। नियुक्तो
अडवि अतिगतो, अम्हेहि रिसिस्स भएण न तिष्णो सद्दाविउं, ततो राया विसण्णमानसो भणति-अहो अकज्ज, न य पितुसमीवेट ॥४५८||12 जातो न य इह, न णज्जति किं पत्तो होहिति', चिंतापरो अच्छति, सुणति य मुर्तिगसद, तं च से सुतिए वढमाण, भणति-मते
दुक्खिते को मण्णे मुहितो गंधण्येण रमतित्ति !, गणियाए अहितेण जणेण कहितं, सा आगता पादपडिता, रायं पसनचंद विनवेति-देव ! नेमित्तिसंदेसो मे-जो तावसरूबो तरुणो गिहमागच्छेज्जा तस्समेव दारियं देज्जासि, सो उत्तमपुरिसो, तं संसित्ता | विउलसोक्खभागिणी होहितिति, सो य जहा भणिआणमिचिणा अज्ज मे गिहमागतो,तं च संदेसं पमाणं करेंतीए दत्ता से मया
दारिया, तन्निमित्त उस्सवो, न याणं कुमारं पणटुं, एत्थ मे अवराह मरिसहत्ति, रण्णा संदिट्ठा मणुस्सा जेहिं आसमे दिट्ठपुव्वो IMकुमारो, तेहिं गतेहि पच्चभियाणिओ, निवेदितं च पियं रणो, परमपीतिमुवहतेण य वधूसहितो सगिहमुवीओ, सरिसकुलरूव
जोवणगुणाण य रायकण्णयाण य पाणिं गाहितो, कतरज्जसविभागो य जहासुहमभिरमइ, रहिओ य चोरदत्तं दबं विक्किणतो S an रायपुरिसेहिं चोरोत्ति गहितो, चीरिणा मोइतो पसण्णचंदविदित, सामचंदोवि आसमे कुमार अपस्समाणो सोगसागरविगाढीला सन्नचंदसंपसितेहिं पुरिसेहिं नगरगतबक्कलचीरिनिवेदतेहिं कहंचि संठवितो, पुत्तमणुसंभरंतो अंधो जातो, रिसीहिं साणुकंपेहि
दीप अनुक्रम
SARANG
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HEG5
दीप अनुक्रम
श्री दकलफलसंविभागो तत्थेव आसमे निवसति, गतेसु य बारसमु वासेसु कुमारो अङ्करले पडिविबुद्धो पितरं चिंतेतुमारद्धो-किह मण्णे |
वल्कलची-- आवश्यक तातो मता णिग्विणण विरहितो अच्छातीत्त पिउदंसणसमुस्सुगो पसष्णचंदसमीवं गंतूर्ण विण्णवेति-देव ! विसज्जेह में उक्कंठितोहं भ वन
चूर्णी तातस्स, तेण मणितो- समयं बच्चामो, गता य आसमपदं, निवेदितं च रिसिणो- पसण्णचंदो पणमतित्ति, चलणोवगतो य ण उपोद्घातपाणिणा परामुट्ठो, पुत्व ! निरामयोसित्ति, वक्कलचीरी पुणो अवदासिओ, चिरकालधरियं च से बाहं मुयंतस्स ओभिल्लाणि णयणाणि, नियुक्ती पस्सति ते दोवि जणा, परमतुट्ठो पुच्छति य सव्यं गतं कालं, क्क्कलचारीवि कुमागे अतिगतो उडयं, पस्सामि ताव तातस्स ताव
सभडयं अणुवेक्खिज्जमाणं केरिसं जातति, तं च उत्तरीयतण पडिलहउमारद्धा जतिविव पत्तै पायकेसरियाए, कत्थ मण्णे मया ॥४५९॥
एरिस करणं कतपुवंति विधिमणुसरंतस्स तदावरणस्बएण पुथ्वजातिस्सरणं जातं, सुमरती य देवमाणुस्समवे य, सामण्णं पुरा | कतं संभरितूण घेरग्गमग्गं समोतिष्यो, धम्मज्झाणविसतातीतोवि विसुज्झमाणपीरणामा य बितियमुक्कझाणभूमिमतीक्कतो, | नट्ठमोहावरणविग्पो केवली जातो य, परिकहिति धम्मो जिणप्पणीतो पितुणो पसन्नचंदस्स य रणो, ते दोऽवि लद्धसम्मना पणता सिरेहि केवलिणो सुठु मे दंसितो मग्गोत्त, बक्कलचारी पत्तेयबुद्धो गतो पितरं गहेतूण महावीरवद्धमाणसास्सि पासं, पसनचंदो नियकपुरं, जिणो य भगवं मगणो विहरमाणो पोतणपुरे मणोरमे उज्जाणे समोसरिओ, पसमचंदो वक्कलचीरिवयणजणितवेरग्मो परममणहरतित्थगरभासितामतवाड्डितुच्छाहो बालं पुतं रज्जे ठविऊण पव्वइतो, अधिगतसुत्तत्थो तवसंजमभावि-18/४५९।। तमती मगहपुरमागतो, तत्थ य सेणिएण सादरं वंदितो आताबेंतो, एवं निक्खंतो जाव भगवं नरगामरगासु उकोसहितिजोम्गतं झाणपच्चयं पसण्णचंदस्स वण्णेति ताव य देवा तमि पदेसे उपतिता, पुच्छितो य अरहा सेणिएण रण्णा- किणिमित्तो एस देव-12
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
दीप अनुक्रम
संपादोति, सामिणा भणित- पसण्णचंदस्स अणगारस्स णाणुप्पचीहरिसिता देवा उवागतत्ति । ततो पुच्छति-एवं महाणु-18/ वल्कलचीआवश्यक
भावं केवलनाणं कत्थ मण्ण वोच्छिज्जिहिति, तं समयं पंभिदसमाणो विज्जुमाली देवो चउहि देवीहिं सहितो वंदितुमुवगतो दा रिवृत्त
उज्जोवेन्तो दस दिसाओ, सो दंसिओ भगवता, एवमादि जहा वसुदेवहिंडीए, एत्थ पुण बकलचीरिणो अहिगारो । एवं अणुभूते | उपोद्घातात
अनुकंपालभो भवति । कम्माणं खए जथा चंडकोसितस्स, उवसमे जहा अंगििसस्स, मणवइकायजोगीह पसत्थेहि देवता वा अणुक-18
जायाः हेतवः नियुक्ती
|पति चतुसु ठाणेसु, एतेसि निगमण॥४६॥
माणुस्सः ॥ ८३१ ॥ आलस्सः ॥ ८४१ ।। जाण ॥ ८४३ ॥ दिढे सुतः॥८४४ ॥ एते चत्तारि ठाणा, अहवा || इमेहिं कारणेहिं चोही मुदुल्लहावि लम्भति-अणुकंपऽकाम०॥८-१६२ ।। ८४५ ।। तत्थ अणुकंपाए ताव जथा-सो द्र वाणरजूभवती० ॥ ८-१६४ ॥ ८४७ ॥
चारवती णगरी कण्हो वासुदेवो, तस्स दो वेज्जा-धनंतरी य वेतरणी य, धनंतरी अभविओ वेतरणी भविओ, वेतरणी साधण&। गिलाणाण पिएण साहति, जस्स कातन्वंतं तस्स सव्वं साहति, जहा साधूणं फासुतं तथा साहति, फासुतेण पडोयारेण साहति, जदिर
सो अप्पणो ओसहाणि अत्थि तो देति । सो पुण धनन्तरी जाणि सावज्जाणि ताणि साहति असाहुप्पायोग्गाणि जाहे भष्णति-अम्हं कतो? लताहे भणति-न मए समणाणं अड्डाए येज्जयसत्यं अज्झाइय, ते दोवि महारंभा महापरिग्गहा य सल्याए पारवतीए तिगिच्छ करेंति ।। ॥४६॥
अण्णदा कण्हो वासुदेवो तित्थगर पुच्छति- एते बहूर्ण ढंकाण य जाव बहकरणं कातूण कर्हि गच्छिहिति , ताहे सामी साहति-एस
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
सत्राक
धनंतरी अपतिडाण गरए उववज्जिहिति, एस पुण बेतरणी कालंजरवत्तणीए गंगाए महानदीए विंझयस्स अंतरा वाणरचाए पच्चाया-IMअनुकम्पा' आवश्यक साहिति, ताहे सो उम्मुक्कबालभावो सयमेव जूहपतित्तणं काहिति, तत्थष्णदा साहुणो सत्येण समं वीतिवयंति, तत्थ एगस्सयां वानर चूर्णी साहस्स सल्लो पादेसु भग्गो, ताहे ते भणति-अम्हे पहिच्छामो, सो भणति- मा सव्वे मरामो, बच्चह तुम्भ, अहंमत पच्चउपोद्घात क्खामि, ताहे निबंध णातूणं सोचि सल्लो न तीरति नीणेतुं पच्छा थंडिल्लं पावितो छाहि च, तेवि गता । ताहे सो बानरगनियुक्तीजवती तं पदेस एति जत्थ सो साधू जाब पुरिल्लेहि दटुं किलिकिलाइयं, ताहे सो किलकिलेते दण रुट्ठो जा दिडो सो ॥४६शाला तेण साधू, तस्स तं साधुं दट्टणं हेहावूहा, कहिं मए एरिसो दिट्ठो ?, ताहे तस्स सुभेणं परिणामेणं जातिस्सरण समुप्पण्णं, सव्वं
बारवति समरति, ताहे तं साई बंदति, तं च से सल्लं पेच्छति, ताहे सो तिगिच्छ सव्वं संभरति, ताहे गिरि बिलग्गो सल्लुद्धर-19 8 णाणि ओसहाणि रोहणि य उत्तारेति, ताहे सल्लुद्धरण(काउं)पाए अल्लियाति, ताहे सो सल्लो एगन्ते पाडितो, संरोहणीय पउणा-12 6ि1वितो, ताहे तस्स साहुस्स पुरतो अक्खराणि लिहति जहाऽहं वेतरणी नाम वेज्जो होसुं पुग्वभवे पारखतीए, एतेहिदि सो सुयओ, सताहे सो साधू से धम्म कहेति, ताहे सो भत्तं पच्चक्खाति, तिण्णि रातिदियाणि जाव सहस्सारं गतो, ताहे ओहि पउंजति जाव | पेच्छति तं सरीरगं तं च साहू, ताहे आगतो तं देविड दाएति, भणति-तुम्भं पभावेण, भणह किं करेमि, ताहे साहरिओ ||| जहिं ते अण्णे साहवो, ते पुच्छंति- किदसि आगतो, ताहे सर्व साहति, एनं तस्स सम्मत्तमामाइयसुतअभिगमो जातो, अणुक-ल॥४६॥ पाए मोइओ अप्पा, अंतरााणि रायपायोग्गाणि, ततो चुतस्स चरित्तसामाइयं भविस्सति सिद्धी य ॥
अकामनिज्जराए वसंतपुरं नगरं, तत्थेगा इब्भवधूगा नदीए हाति, अभ्यो य तरुणो संदण भणति-सुम्हातं ते पुच्छति
दीप अनुक्रम
SABAR
ARASHTRA
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
श्री एस नदी मत्तवारणकरोरु । एते य नदीरुक्का वयं च पाएमु ते पणता ॥१॥ ताहे सावि तं भणति-सुभगा होतु नदीओ चिर अकामानिआवश्यकच जीवंतु जे नदीरुक्खा । सुण्हायपुच्छगाणं घनीहामो पियं कातुं ॥२।। ताहे सो तीए णं घरं वा चार चा न जाणतिचि । अन्नपानचूर्णी शहरेद्वाला, यौवनस्थां विभूषया । वेश्याखीमुपचारेण, वृद्धा कर्कशसेवया ॥१॥ तीसे य पीतिज्जगाणि चेडरूवाणि रुक्खे पलो
मेंठ उपान्धाताएताणि अच्छंति, तेण तेसि पुष्पाणि फलाणि य दिण्णाणि, पुच्छिताणि य-का एसा? कस्स वा', तेहि भणित-अमुगस्स सुण्हा,181 नियुक्ती
है ता सो तीसे अतियारं णो लभेति, चिंतति, चरिगा भिक्खस्स एति, सा च- कुसुभसदृशप्रभं तनुमुखं पटप्रावृता, नवाI४३२॥ का गरुविलेपनेन शरदिंदुलेखा इव । यथा हसति भिक्खुणी सललितं विटेवदिता, ध्रुवं सुरतगोचरे चरति गोचरान्वेपिणी ॥ १ ॥
हतं ओलग्गति, सा तुहा भणति- किं करोमि ', अमुगस्स में भणाहि, सा गता, भणिता य-जहा अमुओ ते एवंगुणजाती पुच्छति
तीए रुट्ठाए पत्तुल्लगाणि धोवंतीए मसिलित्तेण हत्थेण पट्टीए आहता पंचगुलियं, पच्छादारेण य निन्छढा, सा गता साहति-नाम- मपि न सहति, तेण गातं जहा कालपंचमीए, ताहे पंचमदिवसे पुणरवि पत्थविता पवेसजाणणाणिमित्तं, ताए सलज्जाए आह
णितूर्ण असोगवणिताए छिडियाए निढा, सा गता साहात जथा नार्मपि न सहति आहणित्ता य अवरदारेण धाडितामि, तण|| णाओ पवेसो, तेण सो अवहारेण अतिगतो असोगवणिताए, सुत्ताणि जाब ससुरेण दिट्ठाणि, तेण जातं, जहा- न होति मम पु- ४६२॥ नोत्ति, ताहे से पादाओ णेउरं गहितं, चेतियं च ताए भणितो य सो- नास लहुं, सहायकिच्चं करेज्जासि, पच्छा इतरी गंतूण 5 भत्तारं भणति-धम्मो एत्थ असोगवणितं जामो, गताणि य सुत्ताणि य, जाहे सो सुत्तो ताहे उहवेति, उट्टवेचा भणति-तुम्भ एतं कुलाणुरूष जै ममं सुत्तियाए ससुरो पादातो नेउर गेहति', सो भणति-मुबाहि, पमाए लभिहिसि, थेरेण सिट्ठ, सो रुट्ठो भणति--
दीप अनुक्रम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
अनुकंपायां
मेंठ:
श्री आवश्यका
चूर्णी । उपोधात नियुक्ती
॥४६३॥
विवरीतोसि धेरा, सो भणति- मते अण्णो दिट्ठो, ताहे विवादे सा भणति अहं अप्पाणं सोहेमि, एवं करेहि, ताहे पहाता जक्खधर | गता, जो कारी सो लग्गति अंतरंडेण बोलेंतओ, अकारी मुच्चति, सा पहाविता, ताहे सो पिसायरूपं काऊणं साडएणं गेहति, ताहे सो तत्थ जक्ख भणति-जो मम मातापीतीहिं दिण्णल्लओ तं च पिसायं मोत्तूण जदि अणं जाणामि तो मे तुम जाणसित्ति, जक्खो विलक्खो पितेति- पेच्छह जारिसाणि मंतेति, अहयंपि वैचितो णाए, नत्थि सतित्तणं खु धुतीए, जाव चिंतेति ताव सा सरिडित्ति निष्फिडिता, ताहे थेरो सम्वेण लोगेण हीलितो, तस्स ताए अद्धितीए निहा नहा, ताहे रणो कणं गतं, ताहे रण्णा | अंतेपुरपालओ कतो, आभिसक्कं च हत्थिरयणं वासघरस्स हट्ठा वइ अच्छति, देवी हस्थिमेंठेण आसत्तिया,नवरि रति हस्थिणा हत्यो गवक्खेण पसारिओ, सा उतारिता, पुणरवि पभाते पडिविलइया, एवं बच्चति, अण्णता चिरं जातंति हत्थिमेंठेण हस्थिसंकलाए आहता, सा भणति-सो एरिसओ तारिसओ थेरो न सुयति, मा रूसह, तं थेये पेच्छति, सो चिंतेति-जदि एताओवि किन्नु ताओ अतिभदिकाओत्ति, एवं चिंततो मुत्तो, पभाते लोगो सन्वो उद्वितो, सो न उद्देति, रण्णो सिट्ठ, राया भणति-सुवतु, सत्तमे दिवसे उडितो, रष्णा पुच्छितो, कहित, जहा एगा देवी ण जाणामि कतराचि, एवं संबवहरति, ताहे रण्णा भिडमतो हत्थी कारितो, सन्याओ अंतेपुरियाओ मणिताओ- एतस्स अच्चणिय करेचा ओलंडेह, सब्वाहिं ओलंडीओ, सा णेच्छति, भणति-अहं बीहे. | मि, किं च शकट पञ्चहस्तेन, दशहस्तेन शृंगिणम् । इस्तिनं शतहस्तेन, देशत्यागेन दुर्जनम् ॥१॥ ताहे रण्णा उप्पलनालेन ।
आहता, मुच्छिता किल पडिता, वाहे से उवगतं जहा एसा कारित्ति, भणिता य-मत्तगयमारुभंतिया, भंडमयस्स गयस्स भायसी। दह मुच्छिय उप्पलाहता, तस्थ न मुच्छति संकलाहता ॥१॥ पुट्ठी से जोइया, जाव संकलप्पहारो दिहो, ताहे रण्णा हत्थी मेंठो
दीप अनुक्रम
सा॥४६३॥
(172)
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
आयं [१५०...]]]
अध्ययनं [-1,
मूलं [- / गाथा-1, निर्युक्तिः [८४१-८४७/८४१-८४७
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
आवश्यक
चूण उपोद्घात ४ नियुक्ती
||४६४||
साय तिष्णिवि छिण्णकडए विलइताणि, मेंठो भणितो-पाडेहि हत्थि, दोहिं पासेहिं वेलुयग्गाहा ठिता, जाव एगो पादो आगासे कतो, जणो भणति किं एस तिरिओ जाणति ?, एताणि मारेतव्वाणि, तहावि राया रोसं न म्रुयति, ततो दो पादा आगासे, ततियवाराए तिणि आगासे, एगेण ठितो, ताहे लोगेण अक्कंदो कतो, भणितो- किं एतं रतणं विणासेह १, ताहे रण्णो चित्तं ओगलितं, भणितो- तरसे हथि नियत्तेउं १, भणति - जदि अभयं देसि ?, दिण्णं, तेण अंकुसेण नियत्तिओ, जहा भमित्ता थकले ठितो, ताणि उत्तारिता णिविस्ताणि कताणि । एत्थ पच्चन्तगामे सुण्णघरे ठिताणि, तत्थ य रतिं गामेल्लयपरो चोरो तं सुण्णवरं अतिगतो, तेहिं भणितं वेढेउं अच्छामो, मा कोइ पविसतु, गोसे पेच्छामो, सोवि चोरो लोट्टेतो किहवि तीसे टुक्को, तीए फासो वेदिओ, सो ढुक्को पुच्छितो- को सि तुमं ?, चोरोऽहं तीए भणितो- तुमं मम पती होदि, एवं साहामो जहा चोरोति, तेहिं प्रभाते मिठो गहितो, एताए उग्रइट्ठोति । विचतो सले भिष्णो ।
तेण समं सा वच्चति जाव अंतरा नदी नाहे सा तेण भणिता- एत्थ सरत्थंचे अच्छ जाव अहं एताणि वत्याणि आभरणाणि य उत्तारेमि, सो गतो, उत्तिष्णो पधावितो, सा भणति पुष्णा नदी दीसति कायपेज्जा, सव्यं पियाभंडग तुज्झ हत्थे । जहा तुम पारमतीतुकामो, धुवं तुमं भंडग हंतुकामो ॥ १ ॥ सो भणति चिरसंधुओं वाऽलियसंधुतेणं, मेल्लेवि ताव ध्रुव अध्रुवेणं । जाणेप्पि तुज्क्षं प्रकृतिस्वभावं पण्णो नरो को तुह विस्ससेज्जा ? || १|| सा भणति कहिं जासि ?, सो भगति जहा सो मरावितो एवं ममंपि | कहिंदि मारावेहिसि । इतरो तत्थ विद्धो उदगं मग्गति, तत्थ एगो सङ्का भणति-जदि नमोक्कारं करोसि वा ते देमि, सो उद्गस्स अट्ठा गतो, जात्र तंमि एंते चैव नमोक्कारं करेन्तो कालगतो, वाणमन्तरो जातो, सो य सङ्को आरक्खियपुरिसेहिं गहितो, सो
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अनुकंपायां मठः
॥४६४॥
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
बालतपसि इन्द्रनागः
प्रत
सत्राक
उपोद्घात नियुक्ती
श्री ओहि पउंजति जाव पेच्छति तं सरीरंग तं सहूं वनं, ताहे सिलं विउव्बिना मोएति । तं च सरत्यवमज्झे पेच्छति, ताहे से पिणा आवश्यक उप्पण्णा, सियालरूवं विउविता मंसपेसीहत्थगता उदगतीरेण वोलेति जाव मच्छयं पेच्छति, तं मंसपेसि मोत्तुं तस्स मच्छस्स पधा- चूर्णी द्रवितो, तंपि सेणेण हरितं, मच्छोवि जलं अतिगतो, ताहे सियालो झायति, तीए भणितं-मंसपेसि परिचज्ज, मच्छ पत्थेसि जंबुका
|चुक्को मच्छे च मंसं च, कलुणं झायसि कोल्हुका ॥१॥ तेण भण्णति-पत्नपुडिपरिच्छण्णो, सरत्थंचे अपाउए । चुक्का पति च
जारं च, कलुणं झायसि बंधुकी ॥ १॥ एवं भणिता विलिता जाता, ताहे सो सयं रूवं दसति, पण्णाविता भणिता-पवताहित्ति, ४ादा तेण सो राया तज्जिओ, तेण पडिवा, सक्कारेण निक्खंता, दियलोगं गता । एवं अकामनिज्जराए मेंठस्स ।।
बालतवेणं जिण्णपुर नगर, सेहिषरं मारिए उच्छादितं, तत्थ इंदनागो दारओ, सो छुहिओ गिलाणो पाणिय मग्गति जाव | | सब्वाणि मताणि पेच्छति, बारंपि लोगेण कंटियाहिं घट्टितं, ताहे पुण छिद्दिण निग्गतो, ताहे नगरे कप्परेण मिक्खं हिंडइ, एवं | | लोगो देति सुतपुच्चोति, संवद्धति, लोगो से अणुकंपाए देति । अण्णदा रायगिहाओ वाणियओ एति, सो य वाणियओ रायगिह | | जातितुकामो नगरे घोसावेति, तेण तं घोसणतं सुतं, ताहे तेण सत्येण समं पत्थितो, तत्थ तेण सत्थे कूरो लद्धो, सो जिमितो, ४. वितिते दिवसे न जीरति, ताहे अच्छति, तं तं सेट्ठी पेच्छति, उपवास करेतिचि जाणिएल्लओ, सोय अश्वत्तलिंगी, वितियदिवसे है हिंडंतस्स सेट्टिणा पहुं निद्धं च दिनं, सो तेण दुवे दिवसा अजिण्णएण अच्छति, सेट्टी जाणति-एस छ?ण्णकालिओ, तस्स अत्था
जाता, ततियदिवसे हिंडतो सत्थवाहेण सद्दावितो-कीस मे कलं नागतो, तुण्णिको अच्छति, जाणति-छट्टै कतेल्लयं, ताहे से टू पहाणं निद्धं च दिणं, तेणवि अण्णे दो दिवसे अच्छावितो, पच्छा लोगोऽवि पणतो, अण्णस्स निर्मतन्तस्सविण गेण्हति, अण्णे
दीप अनुक्रम
॥४६५॥
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भाग-4 "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
आयं [१५०...]]]
अध्ययनं [-1,
मूलं [- / गाथा-1, निर्युक्तिः [८४१-८४७/८४१-८४७
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णी उपोद्घात
निर्युकौ
।।४६६।।
भति- एगपिंडओ सो, तेण य तं अड्डापयं लद्वेल्लयं, वाणियएण भण्णति मा अण्णस्स खगं गेण्हेज्जासि जाव नगरं गंमति, नगरं गता, तेण से नियघरे मढो कतो, ताहे सीसं मुंडेति कासायाणि य करेति, ताहे सो विक्खातो जातो, ताहे तस्सवि च्छति, ताहे जद्दिवसं पारणयं तदिवस लोगो नीति, सो पढिच्छति, ताहे अतिगर्तपि न जाणंति, ताहे लोगेण जाणणानिमित्तं मेरी कता, जो देति सो तालेति, ताहे लोगेऽतिपविसति, एवंकालो वच्चति । सामी य समोसढो, ताहे साहू संदिसावेन्ता भणिता-मुहूर्त्त अच्छह, अणेसणा, तंमि जिमिते भणिता उत्तरह, गोतमो य भणितो-ममं वयणेण भणिज्जासि भो अणेगपिंडिता ! एगपिडिओ तं दट्टुमिच्छति, ताहे गोतमेण भणितो, रुट्ठो भगति तुम्मे अगपिंडसताणि मुंजह, अहं च एत्थ मुंजामि, तो अहं चैव एगपिडिओ, मुडुतंतरे उवसंतो चिंतेति न एते मुसं वदंति, किह होज्जा १, जाब लद्धा सुती, होमि अणेगपिंडिओ, जदिवसं मम पारणगं तदिवस अणेगाणि पिंडसताणि कीरंति, एते पुण अकारितं एवं भुजंति तं सच्च भणेतित्ति चिन्तेन्तेण जाती सरिया, पतेयबुद्धी जातो, अज्झयणं भासह ! 'इंदनागेण अरहता वुइतं,' सिद्धो य, एवं तेण बालतवेण सामाइयं लद्धं ।
दाणेण लद्धं, जथा एगाए बच्छवालियाए पुचो, लोगेण उस्सने पायसो उक्खडितो, तत्थ आसण्णपुरे दारगरूवाणि, पायसं जेमिन्ताणि दारगरुवाणि पासतिं, ताहे मातरं वडति-ममवि पायसं देहि, ताहे नत्थिति सा अद्वितीय परुष्णा, ताओ सयज्जि - याओ पुच्छंति, निबंधे कहितं, ताहे अणुकंपाय अण्णारचि २ आणितं दुद्धं सालि तंदुला य, ताहे थेरीए पायसो रखो, सो य हवितो घालं च से घतमसंजुत्तस्स भरिवं, सो ताब उबडितो, साहू य मासक्खमणी आगतो, जाव थेरी अंतो बाउला ताव तेणवि धम्मोऽवि मे होतुति ताहे तिभागो दिण्णो, पुणोऽवि चिन्तितं-अवि थोवं, चितितु विभागो दिण्णा, पुणोवि चितेति एत्थं अण्णंपि
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दानेन सम्पत्वे कृतपुण्यः
१४६६॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
दानन
प्रत
आवश्यक नृणों
सम्यक्त्वे कृतपुण्यः
सूचन
ही पान जाति अम्बक्खलगमादि, ताहेततिओ विभागो दिण्णा, ताहे तेणं दव्यसुद्धेण आलावओ, ताहे माता से जाणति-जिमितो, पुण-|
रवि भणितं, ताहे तेण अतीव रंकतणण पोर्ट्स भरित, ताहे रर्ति विसतियाए मओ, देवलोग गतो, चुतो रायगिहे पहाणस्स धणाव-1
हनामस्स पुत्तो भद्दाए जातो, लोगो य गम्भगए भण्णति-कतपुण्णो जीवो जो एत्थं उबवण्णो, जातो कतनामतो चेव कतपुण्णउत्ति उपोद्घात नाम, संवद्धिओ, कलाओ गहिताओ, परिणीतं, माताए वयंसिएहि य गणियाघर नीतो, बारसहि वरिसहि निर्ण कुलं कर्त, सोवि नियुक्ती न निग्गच्छति, ताणि मताणि, भज्जा से आमरणगाणि सहस्सं च चरिमदिवसे पेसेति, गणियामाताए णात-णिस्सारो जातोत्ति,
ताहे ताणि य अण्णं च सहस्सं विसज्जित, गणियामाताए भण्णति-एस निच्छुन्मतु, सा निच्छति, ताहे तीसे चोरियाए नीणिओ ॥४६७॥
भणितो-जह घरं सज्जिजति ओसर, सो ओतिण्णो बाहिं अच्छति, ताहे दासीए भण्णति-निच्छुडोवि अच्छसि', ताहे नियगघरं गतो, भज्जा से ससंभमेण उद्विता, ताहे सव्यं कहितं, ताहे सोगेणं अप्फुण्णो भण्णह-अस्थि किंचि जा अण्णहि जातित्ता ववसामि, ताहे जाणि आभरणाणि गणियामातुए यजं सहस्सं कप्पासमुलं दिण्णेल्लयं तं से दरिसित, सत्था य तद्दिवसं उच्चलितासतो, सो तेण
सत्येण समं ताणि गहाय पस्थितो, पाहि देउलियाए खड्डू पाडेतूण वुत्थो । अण्णस्स वाणियस्स माताए सुतं, जहा तव पुत्तो वहणे ६ मिण्णे मओ, तं एतस्स दव्वं दिणं, भणितो-मा कासति कहेज्जासित्ति, ताए चितिय-मा अत्थो अपुताए राउलं पविसिहिति,४
ताहे रात्र्ति एत्थं एति-जा कंचि अणाहं पवेसेमि, ताहे तं पासति, पडिबोहेत्ता पवेसितो, ताहे घर नेतूण रोवति-चिरनदुगोति पुत्ता, मुण्डाणं च चतुण्डं ताणं कथेति-एस देवरओ मे चिरनहओ, ताओ तस्स लाइताओ, तत्थति य पारस परिसाणि, तत्थ एकेकाए चत्तारि पंच चेडरूवाणि जाताणि, थेरीए भणितं एचाहे निच्छुम्मतु, ताओ न तरंति उबरितुं, ताहि संपलं मोदगा कता,
दीप अनुक्रम
AAAAAX
55555
॥४६७||
(176)
Page #177
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
HEIG
श्री 18 अंतो अणग्घेताण रतणाण भरिता, वर से एतं होन्तं, ताहे वियर्ड पातेत्ता ताए चेव देउलिताए ओसीसए संबलं ठवेत्ता पडिगता, 181 दाने आवश्यक चूणीं पथकाद| सो सीतलएण वाएणं संबुद्धो, पभातं च, सोवि य सत्थो तद्दिवसं आगतो, एयाएवि गवेसओ पत्थविओ, ताहे उट्ठवेत्ता घरं आणितो, दारुतपुण्य
8 उपोद्घात
भज्जा से संभमेण उद्विता, संबलं गहितं, पविट्ठा अभंगादीण कीरति पुत्तो य से तदा गुब्धिणीए जातओ, सो एकारसवरिसोवि HAI8| लेहसालाए आगतो रोवति-देहि कूरं माऽहं हमीहामि, ताए से तत्तो मोदओ दिण्णो, सो तं खातंतो निग्गतो, तं रयणं पेच्छति,
दिलेहिच्चएहि दिट्ठ, तेहिं पूवितस्स दिण्ण दिवसं २ पूयलियाओ देहित्ति, इमोऽवि जिमितो, मोदए भिंदति, तेण दिवाणि, भणति॥४६॥ सुंकभएण छूढाणि, तेहिं रतणेहिं तहेव पवित्थरिओ ।। सेयणतो य गंधहत्थी णदीए तंतुएण गहिओ, राया अद्दण्णो, अभओ भणति-2
| जदि जलकंतो अत्थि तो नवरि मुच्चति, सो राउले अतिबहुगत्तेण रतणाणं चिरण लब्भतित्ति, ताहे पडहओ निष्फेडिओ-जो जलकतं देति तस्स राया अद्धं रज्जस्स धृतं च देति, ताहे पूविएण णीणिओ, उदगं पणासितं, तंतुओ जाणेति जहा अहं थल नीतो,
ताहे मुक्को, सो राया चिन्तेति-कतो पूवितस्स ?, ताहे पूविओ पुच्छितो-कतो एस तुझं ?, निबंध सिट्ठ-कतपुण्णगपुत्तेण दिण्णोत्ति, किराया तुडो भणति कत्तो अण्णस्स होहितित्ति , ताहे रणा से सद्दावेत्ता धूता दिण्णा, दिण्णो विसओ य, ताहे भोगे मुंजति,
पच्छा गणियावि आगता, सा उवाट्ठिता भणति-अहं एच्चिर कालं तुज्झच्चएण अच्छिता, एस वेणी मेवि बद्धेल्लिया, मए य सब्बवेतालीओ तुज्झन्चएण गवेसाविताओ, नवरि एत्थ सि दिट्ठो, ताहे अभयं भणति-एत्थ मम नगरे चत्तारि महिलाओ, तं च अहं 131 न जाणामि, ताहे चितियं घरं कतं, लेप्पगजक्खो य कतपुण्णगसरिसो कतो, तस्स अच्चणिता घोसाविता, दो य दाराणि कताणि-IST४६॥ एगेण पवेसो एगेण निफेडो, ताहे अभओ कतपुण्णाओ य एगस्थ दारब्भासे आसणवरगता अच्छति, ताहे कोमुती आणता, पडि
दीप अनुक्रम
(177)
Page #178
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [१५०...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- /गाथा-], निर्युक्तिः [८४१-८४७/८४१८४७
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूण उपोद्घात निर्युक्त
।।४६९।।
मापत्रेसा अच्चणित करेह, नगरे पोसितं सम्यमहिलाहिं सडिक्करूवाहिं एतव्वं, ताहे लोगो एति, ताओषि आगताओ, ताहे तापि चेडरुवाणि तस्स बप्पोति उच्छंगे निविसंति, एवं नाताओ, ताहे अभएण थेरी अंबाडिता, ताओवि आणीताओ, पच्छा जहासुई भोगे जति । एवं सो विपुलभोगसमण्णागतो, वद्धमाणसामी तत्थ आगतो, समोसरणं, ताहे कतपुण्णओ भङ्कारगं पुच्छति-मम | संपत्ती विपत्ती किं कारणं १, भगवता कहितं पायसदाणं, संवेगेण पव्वहतो। एवं दाणेणचि बोही होज्जा ।
विणएण जहा मगहाए गोब्बरगामो, तत्थ पुप्फसालो गाहावती, मद्दा भारिया, पुतो जातो, नामं च से पुप्फसालसुतोचि, सो मातापितरं पुच्छति को धम्मो १, तेहिं भणितं मातापितरं सुस्सूसितव्यं-दोच्चैव देवताणि माता व पिता य जीवलोगंमि । तत्थवि पिता विसिट्टा जस्स वसे बढ़ती माता ॥ १ ॥ ताहे सो ताण पदे मुहधोवणादि विभासा, देवताणि जहा सुस्सुसति । अण्णदा | तत्थ गामभोइओ आगतो, ताणि संभंताणि तस्स पाहुण्णं करेंति, ताहे सो चितेति एतानवि एस देवतं एतं पूजेमि तो धम्मो होहिति, तस्स सुस्सू पकतो, अण्णदा तस्स भोइतो, तस्सवि अण्णो जाव सेणियरायाणं ओलग्गिउमारद्धो, तत्थ सामी समोसढो, सेणिओ हड्डीए निम्मओ, सामिं वंदति, इतरो सामि भगति अहं तुझं ओलग्गामि, सामिणा भणितो- अहं खुरतहरण पडिग्गहमाताए ओलग्गिज्जामि, ताण सुणणाए संबुद्धो एवं विणएणं ॥
विभंगेण ॥ विभंगेण जहा - तेणं कालेणं तेर्ण समएणं हरिथणा पुरं नाम नगरं, तत्थ णं सिवे नाम राया महता वण्णओ, तस्स धारिणी नामं देवी, सिवभद्दे नामं पुत्ते होत्था, तते णं तस्स सिवस्स रण्णो अण्णदा कदाइ पुव्वरचावरतकालसमयसि रज्जधुरं
(178)
दाने कृत
पुण्यः विनये
पुण्यशालः
||४६९ ।।
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
श्री चितमाणस्स अयमेतारूचे जाव समुप्पज्जित्था अस्थि ता मे पुरापोराणाणं सुचिण्णाण सुप्परफताण सुभाण कल्लाणाणं कडाण 31 विभंगे आवश्यक
शिव| कम्माण कलाण फलविसेसे जण हिरण्णण वडामि मुवणेणं बढामि जाब संतसारसावतेज्जेणं अतीव अतीव अभिवट्टामि, तं किण चूर्णी ।
राजर्षिः अहं पुरापोराणाण मुचिण्णाण जाव कडाणं कम्माणं एगतसोक्खतं उबेहमाणे विहरामि , तं जाव ताव अहं हिरण वड्डामि तं उपायात नियुक्ती
व जाप अभिवढामि जावं च मे सामन्तरायाणोवि वसे वर्दति ताव ता मे सयं कल्लं पादु जाव जलते सुबहुलोहकडाहिकडच्छु
यं तपि य तावसभंडय घडावेत्ता सिवभई कुमारं रज्जे ठवेचा तं तावसभंडगं गहाय जे इमे गंगाकूला याणपत्था तावसा भवंति, ॥४७०11०-होतिया गोतिया जथा उववाइए जाव कसोल्लियंपिव अप्पाणं करेमाणा विहरंति, तत्थ णजे ते दिसापोक्खिया तावसा
तेसिं अंतिय मुंडे भवित्ता दिसापोक्खियतावसचाए पब्बइत्तए, पव्वतिएवि यण समाणे अयमेतारूवे अभिग्गहं अभिगिहिस्सामिकप्पति मे जावज्जीवाए छटुंछद्रेणं अनिक्षिणे दिसाचक्कवालएणं तबोकम्मेणं उड्डे बाहाओ पगिज्झिय २ सूराभिमुहस्स जाव विहरित्तएत्तिकटु एवं संपेहेति संपेहेत्ता कहं जाव घडावेचा सोभणसि तिहिकरणदिवसनक्खत्तमुहुत्तीस विपुलं असणं ४ उबक्खडावेति २ मित्तणाइ जाव खचिए य आमंतेति २ कतवलिकम्मे जाव सक्कारेति संमाणात जात्र आपुच्छित्ता भंडगं गहाय दिसापोक्खियतावसत्ताए पब्वइए जाब तं चेव अभिग्गहं गेण्हति २ पढमं छद्रुक्खमणउवसंपज्जित्ताणं विहरति, तते गं पारणगंसि आतावणभूमिओ पच्चोरुभति २ चा वाकलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छति, किढिणरांकाइयं गेण्हति गेहेत्ता पुरस्चिम दिसि पोक्खेति, पोक्खेत्ता पुरस्थिमाए दिसाए सोमो महाराया पत्याणपत्थितं अभिरक्षतु सिर्व रायरिसिं ट्र अभि० २, जाणि य सत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पचाणि य जाव हरिताणि य अणुजाणतुचिकटु पुरस्थिम दिस।
दीप अनुक्रम
॥४७॥
(179)
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
दीप अनुक्रम
श्री पसरति २ कंदादीणि गेण्डति २ किढिणसंकाइयं करेति, करेचा दन्भे य कुसे य समिहाओ व पत्तामोयं च गेण्हति, सयं विभंगे आवश्यक उडपयं उवागच्छति, उवागच्छेचा बलिं उद्वेति, उबलेवणसम्मज्जणं करेति, करेचा दम्भकलसहत्यगते गंगाए उवागच्छति,
शिवचूर्णी | जलमज्जणं करेति, आयते चोक्खे सुतिभूते देवतापतिकतकज्जे सदब्भकलसहत्थगते उडयं उवागच्छति, दम्भहि य कुसेहिट्री
राजर्षिः उपोद्घातसय बालुयाए यदि रएति, सरएणं अरणिं मथेति अग्गि पाडेति समिहाकट्ठाई पक्सिवति अग्गि उज्जालेति अग्गिस्स नियुक्ती दाहिणे पासे सगाई समादधे, तं०-सकहं बक्कलं ठाणं सध्झामंडं कमंडलु दंडदारं तवप्पाणं, अंह ताई समितो समाः मधूण य ॥४७ ॥
दघतेण य तंदुलेहि य अग्गि हुणति चर्स साहेति बलिं विस्सदेवं करोति अतिहिपूर्य करेति, ततो पच्छा अप्पणा आहारेति । ततोला
दोच्च छद्रुक्खमणं, एवं जथा पढम, नवरं दाहिणं दिसि पोषखति, जमे राया, सेस तं चेव । एवं तच्च, दिसा पच्छिमा राया,
वरुषो। चउत्थं उत्तरा दिसा बेसमणो महाराया । ततेण तस्स सिवस्स रायरिसिस्स छढुंछड्डेणं अणिक्षिणं दिसाचक्कवालएणं बीसयोर्कमेण जाव आयावेमाणस्स पगतिभद्दताए जाव विणीतताए अण्णया कदायी तदावरणिज्जाणं कम्माण खओवसमेणं ईहाका वहमग्गणगसणं करेमाणस्स विभंगे नानं अण्णाणे समुप्पण्णे, से णं तेणं पासति अस्सि लोए सत्त दी सच समुदे, तेण परं न जाणति, तते णं से रायरिसी इस्थिणापुरे णगरे सिंघाडगतिय जाब पहेसु अण्णमण्णस्स एवं आइक्खइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुदा, तेण परं दीवा य सागरा य चोच्छिष्णा, तते णं बहुजणो अण्णमण्णस्स एवं आतिक्सति- एवं /1॥४७१॥ खलु तं चेष जाय तेण परं बोच्छिण्णा , से कहमेतं मण्णे एवं ।। तेणे कालेण तेणं समएणं सामी समोसढो, जाव परिसा पडिगता, तेणं कालेण तेण समएणं गोतमो जाय अडमाणो बहुजगस्स
FARSAAS
(180)
Page #181
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [ १५०...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- /गाथा-], निर्युक्तिः [८४१-८४७/८४१८४७
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णां उपोद्घात नियुक्ती
॥४७२॥
सर्द निसामेति, तं चैव तते णं गोतमे जातसङ्के भगवंतमाह से कहमेतं मंते ? भगवानाह एवं खलु गोतमा ! तस्स सिवस्स स भाणितव्वं जाब तं मिच्छा, अहं पुण गोतमा । एवमाइक्खामि जंबुद्दीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा, संठाणतो एगविधे, वित्धारतो अणेगविधविहाणो दुगुणा दुगुणं पप्पाएमाणे २ एवं जहा जीवाभिगमे जाव सर्वभूरमणपज्जवसाणा अस्सि तिरिय| लोके असंखेज्जा दीवसमुद्दा समणाउसो !, तते णं से परिसा एयम सोच्चा हट्ठा भगवं वंदति जाव पडिगता । तते णं बहुजणो अष्णमण्णस्स एवं आइक्खति-जण्णं सव्वं भाणितव्वं जाव समणाउसो !, ततेणं से सिवे एतम निसामित्ता संकिते जाव कलुसमा चण्णे यावि होत्था, ततेणं विभंगे खिप्यामेव परिवडिते, ततेणं तस्स अम्मत्थिए समुप्पज्जित्था एवं खलु समणे भगवं जाव इह | सहसंचवणे उज्जाणे विहरति तं गच्छामि णं सामि वंदामि पज्जुवासामि, एतं णे इहभवे परभवे य जाव भविस्सतित्तिक जाव | सव्वं भंडोवगरणं गहाय जेणेव भगत्रं तेणेव उवागच्छति, तिक्खुत्तो वंदति, वंदित्ता नच्चासपणे जाव पंजलिकडे पज्जुवासति, ततेणं भगवता धम्मे कहिते ततेणं सिवे धम्मं सोच्चा जहा खंदओ उत्तरपुरत्थिमं जाव तं सव्वं एडेति, सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, एवं जहा उसभदत्तो तहेव पव्वतिओ, तहेव एकारस अंगाई अधिज्जति, तहेब जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। एवं विभंगण सब्वस्स लाभो । संजोगेणं वियोगेण लंभो होज्जा । जथा दो महुराओ, तत्थ उत्तराओ वाणियओ दक्खिणं गओ, तत्थवि तत्प्रतिमो वाणियओ, तेण से पाहुणयं कतं, ताहे ते निरंतरमित्ता जाता, अहं थिरतरा पीती होहित्ति जदि अम्हे पुतो धृता य जाति तो संजोगं करेस्सामो, ताहे दक्खिणेणं उत्तरस्स धृता वरिता, तेण दिष्णा, बालाणि, एत्थंतरे दक्खिणमहरओ वाणियओ मतो, पुत्तो से तंमि ठाणे ठितो, अण्णदा सो हाति चउद्दिसिं सोवण्णिता कलसा, ताण चाहिं रुप्पमता ताण चाहिं तंविता ताण
(181)
विभंगे
शिव
राजर्षिः
॥४७२||
Page #182
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [१५०...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- /गाथा-], निर्युक्ति: [८४१-८४७/८४१-८४७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूण उपोद्घात
नियुक्तौ
॥४७३॥
बाहिं मडियामया, अण्णदा ण्हाणविधी रयिता, तस्स पुत्र्याए दिसाए सोवणिओ कलसो आगासेण नडो, एवं चउदिसिंपि, एवं सव्वे गट्टाओ, उडितस्स हाणपीढमवि गहूं, तस्स अद्धिती जाता, नाडइज्जाओ वारिताओ जाव घरं पविट्टो, ताहे उडवितो मोयणविधी, ताहे सोवष्णियरुप्पमताणि रइयाणि, एकेके भायणं नासितुमार, ताहे सो ते णासंतए पेच्छति, जावि से मूलपाती सावि से णासितुमारद्धा, ताहे तेण गहिता, तं हत्थेण गहितं तत्तियं लग्गं, सेसं नई, ताहे सिरिघरं गतो जोएति जाव सोवि रीफओ, जंपि निधाणपत्तं तंपि नई पि आभरणं तंपि नत्थि, जंपि वढिपत्तं तेवि भणंति- तुमं न जाणामो, जोचि सो दासीदासवग्गो सोवि से गड्डो, ताहे चिंतेड़- पव्बइयामि, धम्मघोसाणं अंत पव्वइतो, सामाइयमादीणि एका रस अंगाणि अधीयाणि, तेण खंडेण इत्थगएणं कोतुहलणं जदि पेच्छिज्जामि विहरंतो उत्तरमद्दुरं गओ, ताणिवि तस्स रयणाणि ससुरकुलं गयाणि, ते य कलसा, ताहे सो माधुरी उबगिज्जतो मज्जति जाव ते आगता कलसा, तांहे सो तेहिं चैव पमज्जितो, ताहे भोषणवेलाए तं भोयणमंडगं उचgवितं, जहापरिवाडीय ठितं. सोवि साधू तं घरं पविट्ठो, तस्स सत्थाहस्स धूता पढमजोव्वणे वट्टमाणी वीयणगं गहाय अच्छति, ताहे सो साध्वी भोयणभंडग पेच्छति, सत्थवाहेण से भिक्खं नीणावितं, गहितेवि अच्छति, ताहे सत्थाहो भणति किं भगवं एतं चीड पलोएह १, ताहे सो भणति नत्थि ममं चेडीय पयोयणं, मंडगं पलोएमि, ताहे पुच्छति कतो एतस्स तुज्झ आगमो 2, सो भणति अज्जगपज्जगागतं, तेण भणितं सम्भावं साहह, तेण भणितं ममं व्हातंतस्स एवं चैव पहातविधी बर्द्विता, एवं सव्वाणिवि, जेमणवेलाए मोयणविधी जान सिरिषराणि भरिताणि, निक्खेवाणिचि दिट्ठाणि, अदिपृथ्वाय धारणया आणेचा देति, ताहे सो भणति एतं सव्वं मम आसी, कित्थ १, ताहे कहेति सो व्हाणादी, जदि न पत्तियसि तो इमं पादीखंड
(182)
संयोगवियोगयोः माधुरी
1180211
Page #183
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
व्यसने
प्रत
चूर्णी
श्री अपेच्छ जाव ढोइत, चडत्ति लग्ग, पितुणो य नाम साहति, ताहे नातं- एस सो जामातुओ, ताहे सो उद्वेत्ता अवतासंतूर्ण परुण्णो,
पच्छा भणति-एवं सव्वं तदवत्थं अच्छति, अच्छह, एसा तब पुव्वादिण्णा चेडी, सो भणति-पुरिसो वा पुर्व काममोगे विप्पज
हति, कामभोगा वा पुलं पुरिस विपजहति, ताहे सोवि संवेगमावण्णो, ममंपि एमेव विप्पजहिस्सति ?, ताहे सो विप्पजहितो, उपाद्वाताएवं ते संजोगविप्पयोगण । नियुक्तो
वसणेणवि होज्जा, दो भाउगा सगडेण बच्चति, एगा य यमलुंटी सगडवज्जए लोलति, महल्लेण भणित-उव्वत्तेहि भंडी, ॥४७॥ इतरेण वाहिया मंडी, सा सण्णी मुणति, ताहे चक्केण छिण्णा मता इत्धी जाता हत्थिणापुरे नगरे, सो महत्तरओ पुन्विं मरिचा
तीस पोट्टे आयादो, पुच जातो, हट्ठो, इतरोवि मता, तीए चेव पोट्टे आताओ, जे चव उववष्णो ते चेव सा चितेति-सिल व हाविज्जामि, गम्भपाडणेऽविण पडति, एवं सो जानो, ताहे ताते दासीहत्ये दिण्णो जहा छडेह, उच्छाइओ, पद्वितो, एसो सेट्ठिणा IN | णीणिज्जतो दिहो, ताए से सिट्ठ, तत्थ तेण अण्णाए दासीए दिण्णो, सो तत्थ संवङ्गति, तत्थ महल्लस्स नामं रायललितोत्ति, इतरस्स गंगदत्तो, सो महालो जे किंचि लभति तनो तस्सविदेति, तसे पुण अणिट्ठो, जहिणं पेच्छति तर्हि कडेण वा पत्थरेणी
वा आणति, पच्छा अण्णदा इंदमहो जातो वाहे पिता से भणति-आणेह ते अप्पसारित झुंजिहिति, ताहे सो आणिओ, वेणं * BIआसंदगस्स हट्ठा कतो, ओहाडियओ जेमाविज्जति, ताहे किहवि दिहो, ताहे गहाय कटिऊणं पाहिं दणियाए पषिट्ठो, ताहे
सो त ण्हाणे रोवयति य । एत्थंतरा साधू समुदाणस्स अतिगतो, ताहे सो पुच्छति--भगवं अत्थि पुत्तो मातुयाए अणिडो भवति', हन्ता भवति, किह पुण', ताहे भणति-यं दृष्ट्वा वर्धते क्रोधः, स्नहब परिहीयते । स विज्ञेयो मनुष्येण, एष मे पूर्ववैरिका ॥२॥
दीप अनुक्रम
४७४॥
(183)
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [ १५०...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [८४१-८४७/८४१८४७
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक चूर्णी
उपोद्घात
नियुक्ती
॥४७५॥
यं दृष्ट्वा वर्धते स्नेहः, कोष परिहीयते । स विज्ञेयो मनुष्येण, एप मे पूर्वबांधवः ।। २ ।। ताहे सो मणति-भगवं ! एतं पब्वावेध, वाढति विसज्जितो, ताहे सो पब्वावितो, तेसि आयरियाण य पासे भायावि से गेहेण पव्वतो, ते साधू ईरियासमिता अमिस्सितं तवं करेंति, वाहे सो तत्थ निदाणं करेति-जदि अस्थि इमस्स फलं तो आगमेस्साणं जणनयणानंदणो भवामि, निदाणं करेति, घोरं च तवं करेति, तादे कालगता देवलोकं गतो, चुतो वसुदेवपुत्तो वासुदेवो जातो, इतरोऽचि बलदेवो, एवं तेण वसणेणं सामाइयं लद्धं ॥
उत्सवे जहा पच्चतियाणि आभीराणि, ताणि साहूण पासे धम्मं सुर्णेति, ताहे देवलोगे वण्णेति, एवं तेर्सि अस्थि संमि धंमे बुद्धि:, अण्णदा कदाई इंदमहे वा अण्णम्मि वा उस्सवे ताणि नगरिं गताणिं, जारिसा वारवती, तत्थ लोगं पेच्छति मंडियपसाहियं सुगंधविचितवत्थं ताणि तं ददृण भणति एवं एस देवलोगो जो सो तदा साहूहिं वण्णितो, एचाहे जदि बच्चामो तो सुंदरतरं करेमो जा अम्देवि देवलोगे उवबज्जामो ताहे ताणि गताणि साहंति तेसिं साधूणं जो तुम्भेहिं अहं कहितो देवलोको अम्देहिं पच्चक्ख दिट्ठो, ताई ते मणति-न तारिसो देवलोगो, अण्णारिसो, ततो अनंतगुणो, ताहे ताणि अम्भहियजतिहरिसाणि पव्वइताणि, एवं उस्सवेण सामाइयलंभो ॥
इड्डित्ति, ते काले तेणं समएणं दसष्णपुरं नाम नगरं होत्था रिद्धत्थिभियसमिद्धं मुदितजणुज्जाणजाणवदं आइण्णजणमणूसं द्दलसतसहस्ससकङ्कविकट्ठलट्टपण्णत्त सेतुसीमं कुक्कुडसंडेययगामगोडल इक्खु जवसालिमालिणीयं गोमहिसगवेलकप्पभूतं आयारवन्त
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व्यसनेन सामायिक लाभे
गंगदत्तः उत्सवेनाभीराः
॥४७५॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चूणों
सत्राक
दीप अनुक्रम
18 चेतियजुवतीसंनिविट्ठबहुलं उक्कोडितपावगंठिभदयभडतकरखंडरक्खरहितं खमं निरुबदुतं सुभिक्खं वसित्थसुहावासं अणेगकोडी- ऋडया आवश्यकता कुटुंबियाइण्णं निबुतसुहं गंदणवणसण्णिभपकासं उब्बिद्धचिरलगंभरिखाइयफलिहं चक्कगयामुसलमुसुंढिओरोहसतग्घिजमलक-बाशा
वाडघणदुप्पवेसं धणुकुडिलवंकपागारपरिक्खितं कविसीसयवट्टरइतसंठितचिरायमाणअट्टालयचरियदारगोपुरतोरणउण्णतसुविभचरानियुक्ती
यमगं छेयायरियरयितदढफलिहइंदकीले विवणिवणिछेयसिप्पियाइण्णनिबुतसुई सिंघाडयतियचउकचच्चरपणियावणविविखे
सपरिमंडियं सुरम्म नरबतिपविइण्णमहापहं अणेकनरतुरयमत्तकुंजररहपहकरसीयसंदमाणियाइण्णाजाणजुग्गं विमउलनवनलिोण-16 ॥४७६॥ सोभितजलं पंडरवरभवणसंणिवहितं उत्ताणयनयणपेच्छणिज्जं पासादीयं दरिसणज्ज अभिरूचं पडिरूव ॥ तस्स ण दसण्ण
हा पुरस्स नगरस्स पहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाग दसण्णकूडे नाम पब्बते होत्या, तुंगे गगणतलमणुलिहतसिहरे नाणाविहरुक्ख
गुच्छगुम्मलतावल्लियपरिगते हंसभिगमयूरकोंचसारसचक्कागमयणसालकोइलकुलोवगीते अणेकतडकडगविसमउज्झरपवातपन्भार18| सिहरपउर अच्छरगणदेवसंघविज्जाहरामेहुणसंविभिण्णे निच्चुण्णए दसण्णवरवीरपुरिसतेलोकबलवगस्सासमे सुभगे पियदंसणे
सुरुवे पासादीये ।। तस्स ण पब्बतस्स अदूरसामते गंदणवणे णाम बणसंडे होत्था, से णं किण्हे किण्होभासे एवं नीले हरिते सीतेल
निद्ध जाव तिव्वे तिव्वोभासे किण्हे किण्ह च्छाते घणकडितकंकडच्छाए रम्मे महामेहणिउरुंचभूते सब्बोउयपुष्फफलसमिद्धे रम्मे II पणदणप्पगासे पासादीए । तत्थ णं पादवा मूलवंतो एवं कंद. खंद० तया० सालप्पवालपत्चपुष्फफलबीयवंतो- मूले कंदे खंधे
तया य साले तथा पवाले य । पत्ते पुप्फे य फले बीये दसमे तु नातब्दे ॥१॥ अणुपुव्वसुजातरुइलबट्टभावपरिणता एकखंधी ॥४७६।। अणेगसाला अणेगसाहप्पसाहविढिमा अणेगनरवाममुप्पसारितभुजागेज्झघणविउलबद्खंधी पादीणपडिणायतसाला उदीणदाहिण-12
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [१५०...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [८४१-८४७/८४१८४७
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णां उपोद्घात नियुक्ती
॥४७७॥
दशाणभद्रः
विच्छिण्णा ओणतणतणतविष्वधाइत ओलं माणसाहप्पसाहविडिमा अवायीणपचा अणुदीणपत्ता अच्छिदपत्ता अविरलपत्ता ऋदयानिद्भूतजरढपंडुपत्ता नवहरितभिसंतपत्ता, भारंधकारसस्सिरिया उवणिग्गततरुणिपचपल्लव कोमल किसलत चलंत उज्जल सुकुमालपवाले सोभितवरंकुरम्गसिहरा निच्च कुसुमिता निच्च मोरिया निच्चं लवइता निच्च थवइता निच्च गोच्छिता निव्वं नमलिता निच्च जुवलिया निच्वं विणमिया निच्चं पणमिता निच्चं कुसुमितमाइवलचइयथव इयतगुलुइतगोच्छितजमलितजुवलितचिणामतपणमितसुविभत्तपिंडमंजरिवडंसयधरा सुकवरहिणमदणसाल कोइलमणोहरा रहतमचछप्पयकोरंटयभिंगारगकोणालजीवं जीवकनंदिमुहकविलपिंगलक्खयकारंडकचक्कवा य कलहंससारस अणे गसउणगणमिहुण वितरितसदुष्णइतमधुरसरनादिता सुरंमा संपिडितद| रितभमरमधुकरिपयरिपरिलेन्तमच छप्पदकुसुमासवलोल मधुकरिगणगु मुगुमेन्तगुंजतदे सभागा अन्नंतर पुष्पफला बाहिरप तोच्छ | ष्णा निरोदया सादुफला अकंटया णाणाविहगुच्छगुममंडवयरंम सोभितविचित्तसुहसेतुकेतुचहुला बाबीपोक्खरिणीदीहियासु य सुनिवे - | सितरंमजालघरया पिंडिमणीहारिमं सुगंधिं सुहसुरभिमणहरं च महता गंधद्धणिं मुयंता अणेगसगडरहजाणजुग्नगेल्लिवेल्लियसीय| संमाणियहरिसोदणा सुरंमा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूचा पडिरूवा || तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्प्रदेसभाए एत्थ णं मह एगे असोगवरपादपे होत्था, दूरोगतमूलकंदवठ्ठलसंठित सिलिङषणमसिणनिद्धनिव्वणसुजातनिरुवहओविद्धपवरखंधी अणेकमर पक्र भुयगज्झे कुसुम्भरसमोन मंतप चलचिसालसाले मडुकरिभमरगणगुमगुमाइतनिलेंत उडूंत सस्सिरीए णाणासउणगण मिट्टणमधुरकण्णसुहपलॅतसद्दपउरे कुसविकुसविशुद्धरुक्खमूले पासादीये दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे से णं असोगवरपादवे अहि बहूहिं तिलएहिं उसेहिं छत्तोदएहिं सिरीसेहिं सत्तिवण्णेहिं दहिवण्णेहिं लोवेहिं घएहिं चंदणेहिं अज्जुणेहिं निव्वेहिं कुडएहिं कलंबेहिं भच्चे हिं
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॥४७७॥
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आगम
(४०)
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
या शाणमद्रा
प्रत
सत्राक
18. पणसेहिं दालिमहि सालेहि वालेहिं तमालेहिं पियएहि पियंगूहिं पारेवएहिं रायरुक्खेहि दिरुक्खेहिं सव्यतो समंता संपरिक्खिते, आवश्यकटतेणं तिलता जाव पंदिरुक्खा कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला मूलबंतो जाव बीयवंतो अणुपुथ्वमुजातायलबट्टभावपरिणता सोभित-
चूणा बरंकुरग्गहिरा निच्च कुसुमिता जाव बढेसयग्गधरा सुतंबरहिणमदणसालकोहल एवमादि जथा वणसंडपादवा जाव अभिरूवा । ते उपस्थित रणतिलया जाच नंदिरुक्खा अण्णाहिं बहूहि पउमलत्महिं नागलताहि असोगलताहिं चंपयलताहि चूतलयाहिं वणलताहिं वासं-| नियुक्ती
तियलताहिं अतिमुत्तयलताहिं कुंदलताहि सोमलताहिं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ता, ताओ णे पउमलताओ जाव सम० लताओ ॥४७॥ निच्च कुसुमिताओ जाव बढिसयधरीओ संपिडितदरितभमरमधुकरीपहकरपरिलेंतमत्तछप्पदकुसुमासवलोलमहुकरिगणगुमगुमेन्तगु
जतदेसभागाओ संपिडियनिहारिमं जाव मुयंतीओं पासातीयाओ जाब पडिरूवाओतस्स णं असोगबरपादवस्स उरि अडट्ठमंगलगा पण्णत्ता, तंजथा-सोत्थिय सिरिवच्छ नंदियावत्त बद्धमाणय भदासण कलस मच्छ दप्पण सवरतणामया पासादीया जाब पडिरूवा। तस्स णं असोगवरपादवस्स उवरि बहवे किण्हचामरज्झया, एवं नीललोहितहालिहसुकिल्लचामरज्झया अच्छा सण्हा रुष्पवट्टवइरामयदंडा जलयामलगंधिया सुरूवा। तस्स पी असोगवरपादयस्स उरि बहवे छत्तादिछत्ता पडागातिपढागाओ घंटाजुयला
चामरजुयला उप्पलहत्थया पउमहत्थया एवं कुमुयणलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयहत्थया सतपत्तसहस्सपत्तहत्थया सब्बरयणामया 18 अच्छा जाब सउज्जोया पासादीया । तस्स णं असोगवरपादवस्स हेड्डा एत्थ णं महेगे पुढविसिलापट्टए पण्णत्ते, ईसीखंघसमल्लीणे
विक्संभुस्सेहसुप्पमाणे कण्हे अंजणयषणकुचलयहलधरकोसेज्जसरिसआकासकेसकज्जलकक्केतणइंदनीलरिडगअसिकुसुमष्पगासे भिंग- जणभंगभेदरिद्वयनीलगुलियगवलातिरेगभमरनिकुरंबभूते चुप्फलअसणकसणधणनीलुप्पलपत्तनिगरमरगतसासगगणहितरासिवण्णे |
दीप अनुक्रम
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
आवश्यक चूणों 18
दिशार्णभद्रः
सत्राक
निद्घोप्पण्णे अझुसिरे स्वयपडिरूबदरिसणिज्जे आयसतलोवमे सुरम्मे सीहासणसंठिते सुरूवे मुत्ताजालखइयंतकणे आयीणकरुय-* रणवणीततूलतुल्लफासे सच्चरतणामए अच्छे सण्हे लण्हे घड्ढे मढे नीलाए निम्मले निष्पके निकंकडच्छाए सप्पभे समीरिईए सउ- ऋद्धया
ज्जोवे जाव पडिरूवे । तत्थ णं दसण्णपुरे नगरे दसण्णभदे नामं राया होत्था, महताहिमवंतमहन्तमलयमंदरमहिंदसारे अच्चतवि
MI उपोद्घाता
सुद्धरायकुलवंससमपसूते निरंतरं रायलक्खणबिराइतंगमंगे बहुजणबहुमाणपूजिते सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुदिते मुद्धामिसित्ते माउनियुक्ती पितुसुजाते दयामते सीमंकरे सीमंधरे मणुस्सिदे जणवदपिता जणवदपुरोहिते सेउकरे केउकरे णरवरे पुरिसवरे पुरिससीहे पुरिसबग्घे पुरि-31
सासीविस पुरिसवरपुंडरीए पुरिसवरगंधहस्थी अड्डे दिवे विचे विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बहुधणबहुजातरूबरयते | आयोगफ्योगसंपउत्ते विच्छडितपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलयप्पभूते पडिपुण्णजंतकोसकोट्ठागारायुधधरे बलबदुचल-| पच्चामि ओहयकंटय निहतकंटयं मलियकटयं उद्धियकंटयं अप्पडिकंटयं अकंटयं ओहयसत्तुं उद्धितसत्तुं निज्जितसत्तुं पराजितसत्तुं है ववगतदुरिभक्खचोरमारिभयविप्पमुक्कं खमं सिर्व सुभिक्ख पसंतडिंबडबरं फीतं पुरो जाणवदं रज पसासमाण विहरति। तस्तण
दसण्णभद्दस्स रण्णा मंगलावती नाम देवी होत्था सुकुमालपाणिपादा अधीणपडिपृण्णपंचेंदियसरीरा लक्षणवंजणगुणोववेता
माणुम्माणप्पमाणपडितुज्झा(पुण्णा)सुजातसव्वंगसुंदरंगी ससिमोम्माकारकतपियदसणा सुरूवा करतलपरिमितपसत्थतिवलीयवलिहै तमझा कुंडलुल्लिहियपीणगडलहा कोमुदिरयणिगरविमलपडिपुण्णसोम्मबदणा सिंगाराकारचारुवेसा संगतगतहसितमणिताचद्वित-18 विलाससललितसंल्लावणिपुणजुत्तोवयारकुसला सुंदरथणजहणवदणकरचरणणयणलायण्णरूयजोव्वणविलासकलिता दसण्णभदेण रण्णा सद्धि अणुरत्ता अविरत्ता इहे सद्दष्फरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरति । तस्स दसष्ण
दीप अनुक्रम
%
%
(188)
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [१५०...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- /गाथा-], निर्युक्तिः [८४१-८४७/८४१८४७
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णां उपोद्घात
नियुक्तौ
||४८० ॥
| भद्दस्स रण्णो एगे पुरिसे विउलकयवित्ची भगवतो पउत्तिवाउए तद्देवसियं पतिं निवेदेति, तस्सणं पुरिसस्स बहवे अण्णे पुरिसा दिण्णभतिभत्तवेतणा भगवतो पउत्तिवाउया भगवतो तद्देवासेयं पउचि निवेदिति । तेणं कालेणं तेणं समपूणं दसण्णमहो राया बाहिरियाए उबद्वाणसालाए अणेगगणणा यगदंडणाय गराई सर तलबरमा उत्रियको इंबिय मंति महामंतिगणकदोवारियअमच्चचेढपीढमदनगरनियमसेद्विसेणावति सत्थवाहदूतसंधिपाल सद्धिं संपरिवुडे विहरति ।
वेणं काले तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आदिकरे तित्थकरे सहसंबुद्धे, पुरिमुत्तमे पुरिससीहे पुरिसवरपुंडरीए पुरिसवरगंधहस्थी, लोगुत्तमे लोगणाहे लोगप्पदीवे लोगप्पज्जोतकरे, अभयदए चक्खुद मग्गदए जीवदए सरणदए (चो हिदर), धम्मदए धम्मदेसर धम्मनायगे धम्मसारही धम्मवरचाउरंतचक्कवही, दीवो ताणं सरणं गती पट्ठा अप्पडितवरनाणदंसणधरे वियङ्कछदुमे अरहा जिणे केवली सवष्णू सव्वदरिसी सत्तुस्सेहे एवं जथा निक्खमणे जाव तरुणरविकिरण सरिसातिये अणासवे अममे अकिंचणे छिण्णगंथे निरुवलेवे वगतपेम्मरागदोसमोहे निम्गंथस्स पवयणस्स देखए णायए पतिडावर समणगणपती समणगणवंद परिवट्टए चोचीसबुद्धातीसेसपत्ते पणतीससच्चवयणातिसे सपने आगासगएणं छत्तेणं आगासफलियामरणं सपादपीठेणं सीहासणेणं सेतवरचामराहि उदूधुथ्वमाणीहिं२ पुरतो धम्मज्झएणं पकढिज्जमाणेणं अमेगाहिं समण अज्जियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे पुण्यापुच्चि चरमाणे गामाणुगामं दृइज्जमाणे सुहंसुहेण विहरमाणे दसष्णपुरस्स नगरस्स वहिता उवणगरग्गामं उवगते नगरं समोसरि तुकामे । तते गं से पउनि साहिं कणममिरिसंसिताहिं उप्पक्तितुरियचवलमणपवमजम सिग्घ वेगाहिं विणीताहिं हंसबहुगाहिं चैव कलितो णाणामणिकणगरतण महरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तदंडाहिं वत्तीयाहिं नरपतिसरिससमुदय प्पमासणगरीहिं महग्घवरपट्टणुग्ग
(189)
दिशाणे भद्रः
॥४८० ॥
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [१५०...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- /गाथा-], निर्युक्तिः [८४१-८४७/८४१८४७
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
ताहि समिद्धरायकुलसेविताहिं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कध्वज्यंत सुरभिमघमषेंत गंधुद्धताहिरामाहिं सललिताहिं उमओ पासिंपि ऋद्धा चामराहिं उक्खिप्पमाणाहि सुहसीतलवातवीजितंगे मंगलजयसद्दकतालोए अणगगणणा यगजावसंपरिवुडे धवलमहामेहनिम्गते विव २ दशार्णभद्रः गहगण दिप्पंत रिक्खतारागणाण मज्झे ससिव्व पियदंसणे णरवती मज्जणघराओ पडिणिक्खमति, २ जेणेव बाहिरिया उवडाणसाला उपोद्घात जेणेव आभिसेके हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छति, अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवर्ति नरवति दुरूढे । तते णं तंमि तस्स दूरूडस्स समानियुक्तीस पढमता इमे अड्ड मंगलगा पुरतो अधाणु०, एवं महिंदजायदेवादिवज्जं जथा सामिस्स निक्खमणे जाव पुरिसबगुरा
चूर्णी
1182211
परिक्खिता दसण्णभहस्स रण्णो पुरतो य मग्गतो य पासतो व अहाणुपुब्बीए संपट्टिता, तते णं तस्स पुरतो महं आसा आसवारा जाब रहसंगल्ली अथा, ततेणं दसण्णभद्दे राया हारोत्थयसुकतरइतवच्छे कुंडलउज्जोतिताणणे मउडदित सिरए णरसीहे णरवती गरिंदे णरवसमे मरुयरायवसभरायकप्पे अम्महितं रायतयलच्छीए दीप्पमाणे इरिथखंधवरगते जाब से कोरंटमलदामेणं छणं धरिज्जमाणेणं सेतवरचामराहिं उदुब्खमाणीहिं सब्बिडीए जाव सब्बारोहेणं सव्वपुप्फ जाव णिग्घोसणाइतरवेणं दसष्णपुरं नगरं मज्झमज्येणं जाव दसण्णकूडे पव्वते जणेव सामी तेणेव पहारेत्थ गमणाए । ततेणं तस्स तथा निग्गच्छमाणस्स सिंघाडगजाब पहेसु बहवे अत्थस्थिता कामत्थिता जाव घंटियगणा ताहिं इट्ठाहिं कंताहि पियाहिं मणुष्णाहिं मणामाहिं मणाभिरामहि ओरालाहिं कलाणाहि सिवाहिं घण्णाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं हिययगमणिज्जाहिं हिययपल्हादणिज्जाहिं अट्ठसवियाहि अपुणरुत्ताहि मितमहुरगंभीराहिं गाहियाहिं वग्गूहिं अभिगदता य अभित्थूर्णता य एवं वयासी जय जय णंदा! जय जय भद्दा ! अजितं जिणाहि जितं पालयाहि जितमज्यंमि त बसाहि तं देवः सयणमज्झे, इंदो चित्र देवाणं चंदो चिव ताराणं चमरो विव असुराणं धरणो
(190)
||४८१॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चूर्णी ।
सत्राक
13अविव नागाणं भरहो विव मणुयाणं अणहसमग्गो हद्वतुट्ठो परमाउ पालयाहि इट्ठजणसपरिवुडो बहूई वासाई बहूद पाससयाई पहरामा वश्वका वाससहस्साई दसण्णपुरस्स णगरस्स अण्णसिं च पण गामागर जाव सण्णिवेसाणं राईसरसत्थवाहपभितीणं च आहेवच्च जावदिशामा
आणाईसरसेणापच्चं कारेमाणे पालेमाण चिहराहिचिकटु जयजयसई पयुंजति । तते ण से दसण्णभदे राया वयणमालासहस्सेहि मान्धाताअभिथुबमाणे २ जाब दसण्णपुर नगर मझमझेणं जेणेव दसण्णकूडे पब्बत जाब तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता छत्तादीए नियुक्ती
हातित्धगरातिसए पासत्ति, पासित्ता हस्थिरतणं विट्ठभेति २ ततो पच्चोरुभति, पच्चोरुभित्ता अवहटु पंच रायककुधाई, तं॥४८२॥ खरंग जाव बीयणीय, एगसाडिय उत्तरासंग करेति, करेचा आयते चोक्खे परमसुइभूते अंजलिमउलियहत्थे सामि पंचविहण
अभिगमेणं अभिगच्छति, तं- हस्थिविक्ख० जाब एगत्तीभावकरणणं, जेणेव सामी तेणेव उवागच्छति, सार्मि तिक्खुत्तो *आदाहिण जाव करेति जाव तिबिहाए पज्जुवासणाए पज्जुबासह ।।
तते ण ताओ मंगलाबतिपामोक्खाओ देवीओ अंतपुरवरगताओ सतपागसहस्सपागेदि तेल्लाह अब्भंगिताओ समाणीओ सुकुमालपाणिपादाहिं हस्थियाहि चउबिहाए मुहपरिकम्मणाए संवाहणाए संवाधिया समाणा बाहुगसुभगसोवत्थियबद्धमाणगपूसमाणगजयविजयमंगलसतेहिं अभिथुब्बमाणी २ चउहि उदएहिं मज्जाविया समाणा अंगपरालहितांगीओ महरिहभदासणे निविट्ठाओ
कप्पितच्छेदायरियरहतगताओ महरिहगोसीससरसरत्तचंदणाउपरिवण्णागातसरीराओ महरिहपटसाडपरिहिताओ कुंडलउज्जो- ४८२|| &ाविताणणाओ हारोत्थयमुकतरइयवच्छाओ मुद्दियापियलंगुलीओ आविद्धमणिसुवष्णसुत्ताओ पालंबपर्कबमाणसुकतपडउत्तरिज्जाओं
कप्पितच्छेदायरियरपिअऽम्मातमल्लदामाओ गाणाविहकुसुमसुरभिमघमर्षितीओ महता गंधद्धणि मुयंतीओ भोगलच्छिउपगूढसब-12
दीप अनुक्रम
65
+
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
प्रत
उपोधात
| देहाओ बहूहि खुज्जाहिं चिलायाहि वडाभिताहिं वामणियाहि पप्परीहिं बउसियाहिं जोणियाहिं पण्डवियाहिं ईसिणियाहिं घर-1 कथा आवश्यकामा
णियाहिं लासियाहिं देविलीहिं सिंहलीहिं आरबीहिं पुलिंदीहिं पक्कणीयाहिं बहलीहि मुरुंडीहिं सबरीहिं पारसीहिं णाणादे- दशाणभद्रः चूणौँ
सिवेसपरिमंडिताहि इच्छितचिंतितपत्धियवियाणियाहिं सदेसणेवत्थगहितसाहिं विणीताहि चेडियाचक्कबालवरिसघरकंचुइज्जमनियुक्ती
हयरगवदगपकिनाओ अंतेउराओ निग्गच्छति २ जेणेव ताई जाणाई तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता जाव पाडिएक्कं २ जुग्गाई।
जाणाई दुरूहति २ नियतपरियाल साद्धं संपरिखुडाओ नगरं मज्झमझेणं जाप सामेंतेणेव उवागच्छंति, छत्तादीए जाव पासित्ता ॥४८३।। जाणादीणि चिट्ठभंति, तेहिं पच्चोरुभिचा पुष्फतंयोलमादीयं पाहाणाउ पविसज्जेंति २ आयंता जाव पंचविहेणं अभिगच्छंति, त०
सच्चित्ताणं दवाणं विउसरणताए एवं जहा पुबि जाच एगत्तीभावेणं जेणेव से भगवं तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता समणं भ० म. तिक्खुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेंति करेत्ता बंदति णमसति २ दसष्णभद्दराय पुरतो काउंठिताओ चेव सपरिवाराओ सुस्पसमाणीओ शर्मसमाणीओ अभिमुहाओ य विणएण पंजलियडाओ तिपिहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति ॥
तेणं कालेणं तेण समएणं सके देविंदे जाच विहरति ततेण दसण्णस्स रण्णो इमं एयावं अणुट्टितं जाणित्ता एरावणं हस्थिरायं सद्दावेतिरएवं वयासि-गच्छाहि णं भो तुम देवाणुप्पिया! चोवढि दंतिसहस्साणि विउबाहि,एगएमाए बोंदीए चोवढि अड दन्ताणि अट्टा सिराणि विउमाहि,एगमेगे दंते अहट्ट पुस्खरिणीओ,एममेगाए पुक्खरिणीए अट्ठ पउमाणि सलसहस्सपचाणि, एगमेगे पउमपचे ॥४८३।। दिव्वं देविति दिव्वं देवज्जुत्ती दिव देवाणुमागं दिव्वं बत्तीसतिविहं नविहिं उबदसेहि, पुस्खरकण्णिायाए य पासादवडेंसर्ग, तत्था सक्के अद्भुहि अग्गमहिसीहिं सद्धिं जाय उग्गिज्जमाणे उवनच्चिज्जमाणे जाच पच्चप्पिणाह, सेवि जाव तहेच करेति । तते ण से |
दीप अनुक्रम
545455ERS
(192)
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८४१-८४७/८४१-८४७], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चूर्णी
सूत्रांक
18| सक्के हरिणेगमसि सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं व०- खिप्पामेव भी सभाए सुहम्माए जोयणपरिमंडलं जथा उसभसामिस्स आभ-18 सेगे जाव सामितेण उवागतो । ताहे एरावणविलग्गे चेव तिक्खुत्तो आदाहिणपदाहिणं करेति, ताहे सो हत्थी अग्गपादेहिं भूमीए
दशाणभद्र ठितो, ताहे तस्स हथिस्स दसण्णकूडे पब्बते पदाणि देवतप्पभावण उद्विताणि, ताहे से णामं जातं गयत्थपतउचि। उपोद्घात है नियुक्ती
तते णं से दसण्णभदे राया पुच्वं निग्मते पासति सकस्स देविंदस्स दिब्वं देबिड्डि जाब एगमेगेसु गड्ढविधि, सक्कं च देविंदं | है एरावणहस्थिवरगतं सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाण पासति २ विम्हिते समाणे अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणे चिट्ठति, ततेणं ॥४८४||
तस्स रण्णो राइड्डी सकस्स देवरण्णो दिव्वेणं पभावेणं हतप्पभा जाव लुप्पप्पभा जाता यावि होत्था, तते णं सके देविंदे दसण्णभदरायं एवं बयासी-हं भो दसण्णभदराया ! किष्णं तुम न याणसि जथा-देविंदअसुरिंदनागिंदवंदिता अरहता भगवंतो, तथावि णं तव इमे अज्झथिए-गच्छामिण भैते भगवं महावीरं बंदए जथा ण अण्णण केणइ, गच्छतित्ति, ततेण से राया लज्जिते विलिए बेड़े तुसिणीए संचिट्ठति, चितेति य-कतो एरिसी अम्हारिसाण इडित्ति , अहो कएल्लो गेण धम्मो, अहमवि करेमि, भणति-( पदण्णा) पालणं च कत होहितित्ति सव्वं पयहिऊण पब्वइतो । एवं सामाइयं इड्डीए लम्भतित्ति ।
सकारण, एको धिज्जाइओ तथारूवाण थेराणं अंतिके सोच्चा पब्बइओ समहिलो उग्गं उग्गं पम्बज करेति, नवरमवरोप्पर पीतिते ओसरति, महिला मणागं धिज्जाइणिचि गव्बमुवहति, मरिऊण देवलोग गवाणि, जहाउग भुतं, इतो य इलावद्धनगर, SIncarn तस्थ इला देवता, ते एगा सत्यवाही पुत्तमलभमाणी उदाणति, सो चइऊण पुत्तो से जातो, इलापुत्तो नाम कर्त, कलाओ अधि-है। ज्जितो, इतरावि लखगकुले जाता, दोवि जोव्वर्ण पत्ताणि, अण्णदा सो तीए रूवे अझोवषण्णे, सां मग्गिज्जतीवि ण लब्भति, ता
REASE
दीप अनुक्रम
सरल्या
(193)
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [१५०...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- / गाथा-], निर्युक्ति: [८४१-८४७/८४१-८४७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक चूर्णी
भणेति--जतियं तुलति तत्तियं देयो, ताणि भणति- एसा अम्हे अक्खयणिधी, जा तदि परं सिप्पं अम्हेहि य समं हिंडति तो देमो, सो तेहिं समं हिंडात सिखिकतो य, ताहे विवाहनिमित्तं रण्णो पेच्छणयं करेहित्ति भणितो वेण्णातडं गताणि तत्थ राया। पेच्छति संतेपुरो, सो दरिसेति, रायादिट्ठी दारियाए उबरिं, राया ण देति, साधुक्काररावं वट्टति, भणितो- लेख ! पडणं करेहि, उपोद्घात तं च किर बंससिहरे अहं कहूं, तत्थ य दो खीलगा, सो पाउआओ आविधति, तत्थ य मूले विगिडगाओ, ततो असिखेडगहत्थगनियुक्ती ४ तो आगासं उपपतित्ता खीलगा पओगणालियाए पएसेतव्या सत्त अग्गिमोम्बिद्धे काऊ, जदि फिड्ड तो पडितो स तथा खंडिज्जति, तेण तं कतं, रायावि दारियं पलोएति, लोएण कलकलो कतो ण य देति राया न देतिति, राया चिंतेति-जदि एस मरति तो णं अहं लएहामि, भणति--न दिई, पुणो करेहि, पुणोऽवि कतं, तत्थवि न दिकं ततिर्यपि कर्त, चउत्थिवाए भणितं, रंगो विरतो, ताहे सो इलापुतो सम्गलए ठितो चिंतेति-धिरत्थु भोगाणं, एस राया एत्तियाहिं महिलाहिं न तित्तो, एताए रंगोवजीवियाए लग्गितुं मग्गति, एताए कारणा ममं मारेतुमिच्छति, सो य उबडिओ, एगत्थ सेट्ठिघरे साहुणो पडिलाभिज्जमाणे पासति सव्वालंकारविभूसिताहिं, साधू य पसन्तचित्तेण पलोएमाणे पासति, ताहे भणति--अहो घण्णा निःस्पृहा बिसएसु, अहं सिट्टिसुतो सयणं परिचइत्ता आगतो, एत्थवि एसा अवस्था, तत्थेव विरागं गतस्स केवलणाणं उप्पण्णं, ताएवि चेडीए विरागो विमासा, अग्गमहिसीएवि, रण्णोवि पुणरावती, चत्तारिवि केवली जाया सिद्धा य । एवं सकारेण । अहवा तित्थगरादीर्ण देवासुरेहिं सकारं दणं जथा मरिइस्स । अहवा इमेहिं कारणेहि लंभो
॥४८५॥
अमुट्ठाणे विणए० । ८-१६५।। ८४८।। अम्भुङ्काणं आसणपरिच्चाओ, आसणत्थं वंदित्ता विणण पुच्छति, ताहे विणीउत्ति
(194)
सत्कारेण सामायिके इलापुत्रः
||४८५ ||
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [८४८/८४८], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
HEG5
श्री 13 साधू कहेति, विणओ नाम अजलिपग्रहप्रणिपातादिः, परकमो परा (मा) क्रमतीति पराक्रमः, के च परे ?, कपायादयः, अथपा विनयाआवश्यक साधुसमीचं चक्रमणेन, गमनेनेत्यर्थः, साहुसेवणा जत्थ ठिता तत्थ खणविखणं सेवति, एवं लभो सम्मदसणस्स परितए मीसगस्सट्र
दीनि माय । सीसो चोदेति एवं पाठोऽस्तु 'सम्मत्तस्स तु लंभो मुतचरणे देसविरतीए' अत्रोच्यते, मुतसामाइयं मिथ्यारष्टेः सम्यग्दृष्टेच चूणौं र
कारणानि का
सामायिकनियुक्ती पक्षाला | भवति, चरित्राचरित्राणि तु नियमात् सम्पन्दष्टेः, अतः श्रुतसामायिकषिध्याय सद्ग्रहणं म कृतं, अथवा (य) ग्रहणात्प्रत्येतच्या
स्थितिव अथवा सम्यगदर्शन यत्र तत्र नियमात श्रतसामायिक, कथं, उच्यते. जत्थामिणिपोहियणाणं तत्थ सतनाणं, अथवा आमिाणि-1 veII बोहियनाणग्रहणे नियमा सुतग्गहण कर्य, एवं जिणपण्णचे सहहमाणस्स भावतो भावे । पुरिसस्साभिणियोहे दंसणसदो हवति || जुतो ॥१॥ कहंति गतं । इदाथि केच्चिरंति दारं, तस्सेब लद्धस्स केच्चिरं अपट्ठाण-
सम्मत्तस्स सुतस्स य०८-१६६३८४९। सम्मत्तस्स य सुतस्स य जहण्णेणं अंतोमुहुरी उफ्कोसण छावद्विसामरोवमा अहिता, जेण अणुत्तरेसु उक्कोसट्ठितिगो दो बारे होज्जा, इह य मणुस्साउगेण अधियाई, तं च तिष्णि पुष्यकोडीओ वासपुहुत्ताणि वा, चरित्तसामाइयस्स जहष्णेण समओ, उक्कोसेणं पुल्चकोडी देखणा, विरताविरतीओ जहणणं अंतोमुहुर्त, उक्कोसेणं देखणा # पुच्चकोडी, जेण एताणि एगभवग्गणे, पढमचितिया णाणाभवग्गणाणि, अण 'इहभविए भंते ! गाणे' आलावओ, इदाणि नागाणाजीवाण भण्णति, तत्थ चचारिवि सम्बद्धं । इदाणिं कतित्ति दारं--
कतित्ति संखा, एत्थ तिण्णि बिसेसा पुष्वपडिषणमा पडिवज्जमाणगा पडिपडितित्ति वा, पडिवत्तिओ य पुष्वपडिवण्णया पडिपडिता य हाँति तेण पडिबत्ती ताव भण्णति-संमत्तस्स देसविरतीए पढिवज्जमाणगा सिय अस्थि सिय गरिथ, जदि अस्थि
दीप अनुक्रम
R8
(195)
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
अध्ययनं H.
मूलं [- /गाथा -1, निर्युक्तिः [ ८४९१/८४९-८५८
आयं [१५]...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णां उपोद्घात
नियुक्ती
॥४८७॥
जोग एगो वा दो वा विष्णि वा उक्कोसेण खेतपलि ओवमस्स असंखेज्जतिभागे जाघतिया आगासपदेसा एवतिया एसमएणं पडिवज्जेज्जा, परिसाचरिया सम्मदिट्ठी असंखेज्जगुणा, सुतस्स सिय अत्थि सिय मत्थि, जदि अस्थि जहणणं एगो वा दो का तिष्णि वा उक्कोसेण लोगसेढीए असंखेज्जतिमागे जावतिया आगासपदेसा एधतिया एगसमएणं पडिवज्जेज्जा, किं कारणं ?, उच्यते, सुबहृतरा सुतं मिच्छादिडिस्स, चरिते सिय अस्थि सिय नत्थि, जदि अत्थि एगो वा दो वा तिष्ण वा उक्कोसेणं सहस्सपुडुच परिवज्जेज्जा । इदाणि पुव्यपडिवण्णमा समते चरिसाचरिते य, ते युग पडिबज्ज माणएहिंतो नियमा असंखेज्जगुणा तेण असंखेज्जा भण्णंति, ते अण्णपदेवि असंखेज्मा उक्कोसपदेवि असंखेज्जा, जहण्णपदाओ उनकोसपदे बिसेसाधिया, ते पुण जावतिया एगसमएणं पडिचज्जति ततो असे ज्यगुणा, सुए जहण्णपदेवि उक्कोसपदेवि जावतिया दगस्स लोगागासपतरस्त असंखेज्जतिभागे लोगागासपदेसा एवतिया होज्जा, अहष्णपदाती उक्कोसपदे विसेसाधिका, ते पुण पडिवज्जमाणएहिंतो नियमा संखेज्जगुणा, पडिपडिता संमतचरितस्स मीसगस्स व जे पंडिता से नियमा अनंतगुणा, जे संसारी ते सव्ये सुतपडिपडिता, कहं ?, बे मिच्छदिडी अभावगावा तेवि एक्कारसंगाणि पद्धति, उडचंगमादि वा, जे पुण जहष्णपदातो उकोसयदे अधिया ते चउत्थि सम्म पहुच, तदा बहवे मणुया अजितसामियकाले । कतिति दारं गतं ।
इदाणि अंतरं सम्मत चरिचस्स मीसगस्स एवं जीवं पहुच जहणणं अंतोहुतं उकोसेगं अपङ्कं परियडूं देखणं, सुतस्सूवि सम्मपरिगहितस्स एचिरं, मिच्छत्तपरिगहितस्स जहोणं अतोमुहु उकोसणं वणस्सतिकालो, णाणाजीवाणं णत्थि अंतरं महाविदेहं पटुन्न । इदार्णि अविरहितंति दारं, केच्चिरं विरहितो पडिवचिकालो अविरहितकालो य १, तत्थ अविरहितकालो पडिव
(196)
सामायिकतां संख्या
॥४८७॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति : [८४९/८४९-८५८], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
18|ज्जिन्ताणं सुतसामाइयस्स जहणणं दो समया उक्कोसेण असंखज्जसमए निरंतरं पडिवज्जेंति, ते पुण णाणाजीवे प्रति भण्णति, सामायिकआवश्यक ते पुण समया आवलियसमयाणं असंखेज्जतिभागे, एवं चेव संमत्तदेसविरतावि, अविरहितकाले चरिते जहण्णोणं दोण्णि समया, स्थान चूर्णी
उकोसेण अट्ठ समया निरंतरं पडिबत्ती । इदाणिं विरहितकालो संमत्तसुताणं-जहण्णेण एर्ग समयं उक्कासणं सत्त अहोरत्ता, एतमि समए न लब्मति अवरो विधी, जंमि समए एगो वा अणेगा वा पडिवण्णा संमत्तसुत तातो जहण्णेणं ततिए समए एगस्स वा
अणेगस्स चा अणेगाण वा पडिवची, अजहण्णेण चउत्थे वा पंचमे वा, उक्कोसेणं जाच सत्तमस्स अहोरचस्स चरिमो समओ, अतो ॥४८॥ परं नियमा अण्णण पडिवज्जितब्ब, विरताविरतीए जहणेणं ततिए समए, उक्कोसेणं बारसण्हं अहोरत्ताणं, चारते जहण्णेणं ततिए
समए उक्कोसेण पण्णरस अहोरते, एवं विरहितकालो ।
इदाणिं कस्स कइ भवाणि लंमो भवेज्जा, सम्मत्तस्स जहण्णणं एग भवं, उक्कोसेण खेत्तपलितोवमस्स असंखज्जतिभागे | जावतिया आगासपदेसा एवतियाणि भवाणि लमो भवेज्जा, एवं देसविरतीएचि जहण्णुक्कोसा लंभो, चरिचे जहण्णेण एक्कं ॥ है भवं उक्कोसेण अट्ठ भवग्गहणाणि अविराधेन्तो, सुते जहण्णणं उक्कोसेणं अणंताई, एक्कं जथा मरुदेवाए, सेसाणि जहाल |चित्ततरगंडियाए।
||४८८॥ इदाणिं आगरिसा, आकर्षणमाकर्षः, ग्रहणमोचनमित्यर्थः, ते दुविहा-एगभवग्गहणिया नाणाभवग्गहणिया य, सुतसामाइयं | एगभवे जहण्णेण एक्कसि आगरिसेति, उक्कोसेण सहस्सपुहुत्तवाराए, एवं सम्मचस्सपि, देसविरतीए विरईए य जहण्णण एक्कसि | उक्कोसेण सतपुडुत्तं वारा, णाणाभवग्गहणिता सुतस्स जहणणं दोणि उक्कासेणं तं चेव सहस्सपहुतं असंखेज्जएण गुणिअति,
दीप अनुक्रम
KHRESCORRCC
(197)
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [८४९/८४९-८५८], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
चूर्णी
सत्राक
जम्हा पलितस्स असंखज्जतिभागमेत भवा सम्मत्तपरिग्महितस्स सामायिकस्स लंभोतिकाउं, जैपि सम्मदिद्विस्स सुतसामायिक सामायिकआवश्यक तस्सवि एसेच कालो, ते पुण कह , एत्थ आलावओ-अस्थि णं भंते ! समणा निग्गंथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेदेति', हंता अस्थि, 12
कास्थाकपा कह णं भंते !०, गोयमा! तेसु तेसु पाणंतरेसु चरित्तरेसु लिंगतरेसु पबयणतरेसु पावयणतरेसु कप्पतरेसु मग्गंतरेसु मंगतरेसु णयनियुक्तोला पावान्तरेसु वादतरेसु पमाणंतरेसु संकिता कंखिता जाव कलुसमावण्णा वेदेति' एवं पुचकोडायू मणूसा पुणो २ पडिवज्जति । जोवि
असंखज्जवासाउओ सोवि पुब्बकोडिसेसाउओ पडिवज्जति, तस्स नत्थि आगरिसा जो खइएण उववज्जति, एवं चरिचाचरित्चवि, ॥४८॥ चरित्ते णाणाभव० जहण्णेणं दोणि उक्कोसेणं सहस्सपुतं वारा, सुते णाणाभवरगहणिता अणंता आगरिसा एवं।
इवाणिं फासणा-।। ८-१७६ ।। ८५९ ॥ स्पर्शना प्राप्तिरवगाहो लभ इत्यर्थः, संमत्तसामाइयपडिवण्णो उ जीवो लोगस्स कतिभागं फसेज्जा ?, किं संखेज्जतिभाग० असंखज्जतिभागं फुसति संखिज्जे मागे० असंखिज्जे भागे सर्व लोग०१, एग जीवं |पहुच्च णो संखेज्जहभाग फुसति, असंखेज्जइभागं फुसति, णो संखेज्जभागे फुसति, सम्बओ लोग वा फुसति, णाणाजीवेवि एमेव भयणाए सबलोगं फुसति, तं पुण केवलिसमुग्घातं प्रति, एवं चरित्तसामाइयस्सवि, छाउमत्थियसमुग्घायं प्रति एगजीवो वा सब्यजीवा वा नियमा असंखेज्जतिभाए लोगस्स फुसेज्जा, सेसेसु चउसुवि नस्थि, सुतं चरित्ताचरित्तसामाइयं च नियमा KIलोगस्स असंखज्जतिभागे भोज्जा, अण्णे पुण भणति-एगं जीवं पहुच्च संखेज्जतिभागं वा फुसति असंखज्जतिभागं वा संखेज्जे | ॥४८९॥ कावा भागे असंखज्जे वा० सबलोग वा, णाणाजीवे सव्यस्स लोगं फुसति, तं पुण केवालसमुग्धातं पढमविइयततियचउत्था मामा,
वेयणादिमारणंतियसमुग्धायं प्रति पंचमभागो, केवलिसमुग्घायं प्रति अण्णतरो, एगो जीवो समोहण्णति वा ण वा, नाणाजीवाणं
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ॐ
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग - 4 "आवश्यक" - मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
मूलं [- /गाथा -],
निर्युक्तिः [ ८५९/८५१] आयं [१५०...]]]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णी उपोद्घात नियुक्ती
॥४९० ॥
अध्ययनं H
3
पुण अवस्ससमोहतका अत्थित्तिकाउं, एवं चैव देसविरतिएवि णवरं सव्वलोगो गत्थि एवं सुतेऽवि सव्वलोके नान्थे, चरितं जथा सम्मतं, केवलिस्स दो सामाइयगाणि संमत्तचरिताणि, तेण लोको सब्बो मंगति, अहवा इमा अण्णा फासणविधी-लोको सचचोदसभागे कीरति हेड्डा, उबरिं च सत्त चैव, कहं १, रतणप्पभा जाब से उदासंतरं, एवं सव्वं पढमो भागो एवं सेसासुवि एते सच भागा, उचरिं इमा बिही-रतणप्पभाए उपरिमतलाओ आरम्भ जाव सोहम्मो एस पढमो भागो, सोहम्मगाणं चिमाणानं | उवरिं जाव सूर्णकुमारमाहिंदा बितिओ, एवं तितीओ बंभलोगलंतओ, चउत्थो महासुकसहस्सारो, पंचमो आणतादी, चउरो कप्पा छट्टो, गेवेज्जा सेसो जान लोगंतो सतमो एसा विधी अहवा रतणप्पभादीपुढची सत्त पतराणि कता उबरुवरि ठविता जथा चकतिरिविडी, सत्तमा किर लोगंत फुसति, एवं हेडाबि अहवा रज्जुविहाणेण सत्त भागा कीरंति, सयंभूरमणसमुहसुयीवक्षमाणार्थ रज्जुए सत्त अहोलोगो अधियाओ, उड्डलोगो ऊणओ होति रगणातो, तत्थ संमचरित्रापटिपण्णओ चोदसवि फुसति केवलिसमुग्धातं पच्च, देसविरतो पंच उचरिं संमचचरितसहियसुतपडिवण्णओ सतवि फुसति, उवरिमो छउमत्थो जो सुतपडिवण्णओ इह समोहतो इलिकादिहतेण सव्वट्टसिद्धे उबवज्जति सो सत्त, सचमाए वा, ऊणा सत्त केवलसुतपडिवण्णओ, उवरिमगेविज्जे वा सम्मतसुतपडिवण्णओ उचरिं हेट्ठा य पंच, देसविरओ हेड्डा ण उववज्जति तेणं पंच उपरि अच्चुतं जा इति, एवं वेत्तजा फुसणा भणिता ।
इदाणिं एतेसिं चउन्हें सामाइयाणं कर्तारं सामाइयं केवइएहिं जीवेहिं पुढं १, पत्तपुष्वंति भणितं होतित्ति, भण्णतिसब्वजीवेहिं० ॥ ८-१७७ ।। ८६० ।। सुतं भिच्छादिट्ठीवि लब्मति तेण सव्वजीवेहिं सुतं फासितं संमतं चरितं च सब्ब
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सामायिकबता स्पर्शना
||४९० ॥
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2
अध्ययनं मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [८६०/८६०], भाष्यं [१५०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
उपोद्घात नियुक्ती
ति सिद्धेहि फासिताई, जेण तेहि विरहितस्स च्वाणं णत्थि, जे पुण सिद्धा देसविरति फासेता सिद्धिगतिं गता ते कित्तिया , सबआयसिद्धा बुद्धिच्छेदेणं असंखज्जा भागा कता, ताण असंखज्जाणि ठाणाणि, तत्थ असंखेज्जेहि चेव ठाणेहि देसविरतिं काउं ठाते-1श निरुक्ती चूणों ल्या होज्जा, तेवि य पच्छा चरिच पडिवज्जिता गता, जे पुण सुद्धाई चेव संमत्तचरिचाई फासेतूण गता ते देसविरतिसिद्धार्थ
असंखेजतिभागो । फोसणा गता।
इदाणिं निरुत्ती-निविता उक्तिः निरुक्ति, निरुत्वाणि किंनिमित्तं , उच्यते, असंमोहत्थं, यथा चन्द्रः शशी निशाकरः ॥४९॥ उपतिः रजनिकर इत्येवमादि।, आदित्यस्य सविता भास्करः दिनकर इत्येवमादीनि, एवं सर्वत्र योज्यते । यो हि शशिपर्याया-13
भिज्ञो भवति तस्य एकस्मिन् शशिपर्याये आकारिते सर्वेष्वेव प्रत्ययो भवति, न मुघति, एवं चतुण्णां सामायिकानां पर्यायाभित्रः एकस्मिन् पर्याये आकारिते न मुखति, यथा सत्यपि प्रकाशकस्वे आदित्य इत्युक्ते नोक्तं भवति चन्द्रमा, चन्द्रमा इति वा नादित्य इत्युक्तं भवति, एवं श्रुतसामायिकमित्युक्त नोक्तं भवति चरित्रसामायिक, चरित्रे वा श्रुतं सत्यपि सामाइकसामान्ये, एवमस-3 मोहार्थ निरुक्तावतारः । तत्र सम्यक्त्वसामायिकपर्यायाः-.
सम्मविट्ठी अमोह ॥८-१७८ ॥ ८६१ ॥ सुतसा ॥ ८-१७९ ॥ ८६२ ।। अक्खरसपणी ॥८-१८० ॥८६३॥ ॥४९॥ चरित्ते सामाइक समइयं०॥८-१८१ ॥ ८६४ ॥ आदिल्लाणं तिण्हवि जथाविधार विभासा कातवा, ततो चरिने तत्थ ताव | सामाइके उदाहरणं, जथा केण समभावो कतो?
दीप अनुक्रम
RAKARXXकर
...सामायिक शब्दस्य पर्याया: कथानकं सहितेन कथयते ...चूर्णि-संकलित नियुक्ति-क्रमांक (यहां चूर्णिमे जो नियुक्ति-क्रम दिये है वे वृत्तिमे दिये नियुक्ति क्रमांकन से आगे-पीछे है ।
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८६१-८६४/८६१-८७६], भाष्यं [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
HEIGE
नियुक्तो
दीप अनुक्रम
श्री तेणं कालेणं तेण समएणं हत्थीसीसयं नगरं, दमदन्ता राया विकतो, हथिणपुरे पांडवा, तेसि च तत्थ य वेर, तेहिं दमद-18 समभावे आवश्यकतान्तस्स रायगिहं गतस्स जरासंघमल सो विसओ दडो लडिओ य, अण्णदा दमदन्तो आगतो, तेण हस्थिणपुर रोहितं, ते भएणIAT चूर्णी
ण णिन्ति, भणति-सियाला! ममे सुण्णयं विसर्य लूडेह, इदाणिं णीह, ते ण णिन्ति, ताहे सविसयं गतो । अण्णदा निविण्ण- 18दाहरणं पायाला कामभोगो पच्वइतो, अण्णदा एगल्लविहारं पडिवण्णो, विहरतो हथिणपुरमागतो, बाहिं च पडिम ठितो, जुधिहिलेणं अणुजत्तानि
ग्गतेणं वंदितो, पच्छा सेसएहिं चडाह बंदितो पंडवेहि, जाहे दुज्जोहणो आगतो तस्स मणुस्सेहिं कहितं, जथा-एस दम॥४९॥ दन्ती, तेण मातुलिंगेण आहतो, पच्छा खंधावारेण एतेण पत्थरं पत्थरं खिवंतेणं पत्थररासीकतो, जुधिहिलो नियत्तो पुच्छेति-एत्थ
साधू दिवो आसि, कहित से जहा एसो सो पत्थररासीकतो दुज्जोहणणं, ताहे अंगाडिओ सो, ते य अवणीया पत्थरा, | तेल्लेणं अन्भंगितो खामितो य । तस्स दिट्ठो किर भगवतो दमदन्तस्स दुज्जोहणे पंडवेसु वा समो भावो आसि, एवं कातन्वं । का समइए-साकेते नगरे चंदवडेंसओ राया, तस्स धारिणी महादेवी, से दुवे पुत्चा-गुणचंदो मुणिचंदो य, गुणचंदो जुवराया, लि मुणिचंदस्स उज्जेणी दिण्णा कुमारभोतीए, अण्णे य दो पुत्ला अण्णाए देवीए, सो राया माहमासे पडिम ठितो सागारं करेति
जाव दीवओ जलति, दासी चिंतेति-सामी पडिमं ठिओ, अंधकारे मा अभिमरो पविसेज्जा, पुणरवि तेल्लं दिण, वितियं जाम जलति, ततिएवि दिण्णं, चउत्थे य दिणं, राया सुकुमारो निरामीभूतो मतो यं । पच्छा गुणचंदो राया जातो महताहिमवन्त, सो ताणं डहरगाणं मात भणति-रज्जं गेहह अहं पञ्चतामि, सा णेच्छति एतेण रज्जं आतत्तन्ति, सो राया अतिजाणनिज्जासु रायलच्छीए अतीव दिप्पति, सा तं रायसिरिं पासित्ता चिंतेति मते पुत्ताणं रज्ज दिज्जतं न इच्छितं, तेवि एवं सोभन्ता, इदाणिपि
X ॥४९॥
Ast
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [८६१-८६४/८६१-८७६], भाष्यं [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
समतायां
प्रत
चूणौं
नियुक्ती
8 मारेमि, छिद्दाणि मग्गति, सो य राया छुहालू, तेण सूतस्स संदेसओ दिण्णो एनो सचेच पुन्वण्हितं पत्थवेज्जासि, जह विरामि, &| मेतार्योआवश्यक तेण अप्पितं चेडीय हत्थे, ताहे सा तं निजंत पेच्छति तं चेडिं भणति-दे पेच्छामि केरिसो, तीए उवणीतो, अहो सुरभी दाहरणं
मोयगो विसलित्तेहिं हत्थेहिं मनखेइचि, चेडी य णिफडति, राया य अतीति, सा णियत्ता रायाए समं चेतियघर जाति, सा बारे अच्छति, निष्फिडतस्स निवेदितं एत्तोत्ति, ते य दो कुमारा छायाव पासे ओलग्गति, चिंतेति-अण्ण अहं खाइस्स, एआणं यच्छामि,
पच्छा तेसि कुमाराणं भागे कातूण देति, ते हथिखंधवरगता खाइउमारद्धा बालतणेणं जाव विसवेगा आरद्धा, संभंतेण वेज्जा ॥४९३॥ सद्दाविता, सुवणं पाइता, सज्जा, पच्छा य दासी सद्दाविता. पुच्छिता भणति-न कोति पेच्छति, नवरं एताणं माताए परामुट्ठो,
कसा सहाविता, णाता जहा एसा कारित्ति, ताहे अंबाडिता, भाणिता य, जथा-पावे! तदा नेच्छसि, मा णामऽकतसंपलो संसारे छूढो'|
होन्तो, तेसिं रज्जं दातूणं पव्वइतो सागरचंदाण समीवे। अण्णदा संघाडओ साधूर्ण उज्जेणीओ आगतो, सो पुच्छितो तत्थ निरुलवसम्ग, भणति-णवरं रायपुरोहियपुत्तो य बाहेति पासंडत्थे साहुणो य, सो गतो, अमरिसेण विस्सामितो, ते य संभोइया साधू,
भिक्खवेलाए भणितो-आणिज्जउ, भणति-अत्तलाभितो मि, णवरं ठवणपडिकुट्ठाणि दावेह, कोइ चेल्लओ दिण्णो, सो तं पुरोहितघरं दसत्ता आगतो, इमोवि तत्थ पविट्ठो पड़ेण सद्देणं धम्मलाभोचि, अंतेपुरियाओ निग्गताओ हाहाकारं करेंतीओ, सो वडवडेणं | सद्देणं भणति-कि एतं साविएत्ति, निग्गता बार बाहिं बंधति-दमोवि अन्भंतरे, ते भणंति-जच्चसु, परिग्गाहगं ठवेत्ता पणच्चितो, IM४९३॥ काते ण जाणंति वाएउं, मणंति-जुज्झामो, दोवि एकसराए आगता, मम्मेहिं आहता, जहा जैताण तथा खलाविया, निसर्दु हणिलातूणं दाराणि उग्घाडेचा गतो, उज्जाणे अच्छति, रायाए कहितं, तेण मग्मावितो, साधु भणंति-पाहुणओ, न याणामो, तेहिं गवे
दीप अनुक्रम
RS
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 अध्ययनं [-] मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [८६१-८६४/८६१-८७६], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
भाष्यं [ १५१]
थी
आवश्यक
चूर्णां उपोद्घात नियुक्ती
॥४९४ ॥
संतहि उज्जाणे ठितो ( दिट्ठो), राया गतो, खामिता य, नेच्छति मोतुं, जदि पव्वयंति ततो यामि, ताहे पुच्छति, पडिस्सुर्य, एगत्थू गहाय चालिया जहा सट्टाणे पडियाणि, लोओ कओ, पव्वइया, रायपुत्तो सम्मं करेति ममं पितियएत्ति, पुरोहितसुतो दुउंछति अम्दे एतेण कवडेण पथ्याविता, दोषि मता, गता देवलोग, संगार करेंति-जो चयति पढमं सो संबोधितव्यो, पुरोहितसुतो तीए दुर्गुछाए रायगिद्दे मेतीपोट्टे आगतो, तीसे एगा सेट्टिणी वयंसिया, किह जाता ?, सा भैंस विकिणति, ताए भण्णति-मा अण्णत्थ हिंडाहि, अहं सव्यं किणामि, दिये दिवे आणति, एवं वासि पीती घृणा जाता, तेसिं चैव घरस्स समोसिताणि ठिताणि, साय सजीव तेण से नामं कर्त मेतिज्जोति, संबद्धितो, कलाओ गाडितो दे संबोहितो न सं णिंद, वाहे मेतीए रहस्सियं पवावती, पुतो दिण्णो, इतरीएचि धूता मतिया दिष्णा, पच्छा सहिणीए पास जीवंती
| पाडिओ भावेण
ता अहं गेण्हाविओो, देवो मेतं तीसेवि अज्ज विवाहो कओ होन्तो, भत्तं च नातगाणं दिष्णं होतं, ताहे ताए मेताए सिहं, ताहे रुट्ठो देवाणुभावणं गंत सिविताए पाडतो, तो असरसीओ परिणेसित्ति खट्टाए छूढो, ताहे देवो भणति किह १, सो भणति अवष्णोति, तत्थ संबुद्धो भणति एतो में मोएहि, किंचि य काल अच्छामि, वारस वरिसाणि, तो भण-किं करोमि ?, भणति रष्णो धृतं दयावेहि, तो सच्चा अकिरिया ओहाडिया भविस्सतिति, ताहे छगलओ दिण्णो, सो रतणाणि वोसिरति, तेण रतणाणं बालं भरितुं पितु कहिओ - रण्णो धूतं वरेति, सो रतणाण थाल गहाय गतो, भणितो- किं मग्गसि, तेण भणितं धूतं, ताहे निच्छूढो, एवं दिवसे लं गण्डति ण य देति, अभएण भणितं कतो तुज्झ रतणाणि ?, तेण भणितं छगलओ हगति, भणति अम्हवि दिज्जतु, दिष्णो
(203)
समतायां मेवायदाहरणं
॥४९४॥
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
अध्ययनं [-]
आय [१११]
मूलं [- / गाथा-1,
निर्युक्तिः [ ८६१-८६४ / ८६१-८७६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री
आवश्यक
चूण उपोद्घात
नियुक्तौ
॥४९५॥
जाव मडगगंधाणे बोसिरति, अभयो भणति देवाणुभावो, किं पुर्णा, परिक्खिज्जउ, किह, ताहे भणितो-राया दुक्खं बेहारं सामीवंदओ जाति, रहमग्गं करेहि, सो कतो, अज्जवि दीसति, भक्ति-पागारं सोवण्णं करेहि, कतो, पुणोवि भणितो- देमो जदि समुद्द आणेसि, तत्थ पहातो सुद्धो होहिसि तो देहामो, आणतो, वेलाए हातानं विवाहो, सिबिगाए हिंडंताणं ताओवि अण्णाओ आणियाओं, एवं भोगे भुंजति बारसवरिसाणि, पच्छा बोहितो महिलाहिं बारसवरिसा मग्गिता य, उन्चीसाए वासेहिं सव्वाणि पव्वइयाणि, नवविओ जाव एमल्लविहारं पडिवण्णो, तत्थेव रायगिहे हिंडति, एगं सुवष्णगारसिंहं भिक्खस्स अतिगतो, सो य सेणियस्त असतं सोबणियाण जवाण करेति चेतियअच्चणितानिमित्तं तं परिवाडीए सेणी करेति तिसंझं, तस्स गिहं साधू अतिगतो, ताणि तस्स एमाए वायाए भिक्खं ण णीर्णेति सो अतिगतो, ते य जवा कोंचएण खड़ता, ण य पेच्छति, रण्णो य बेला ढुक्क्त, भणति अज्ज अहं अट्ठखंडाणि कीरामि, सो साहुं संकति, पुच्छति, साधूचि तुहिको अच्छति, ताहे तेण रुट्ठेण तस्स सीसावेढो बद्धो, साह केण सहिता ?, तहवि तुण्डिको अच्छति, ताहे तेण तथा आढवितो जथा अच्छीणि भूमिए पडिताणि, कोंचओ य दारुगं खोडेंवाणं सलिकाए गलगे आहतो, तेण वंता, लोगो भगति पात्रा ! एते ते जवा, सोऽवि भगवं तं वेदणं अधियासेंतो कालगतो, सिद्धो य, लोगो आगतो, दिडो मेतज्जो, रण्णो कहितं वज्झाणि आणत्ताणि, घरं ठत्ता पव्वताणि, ताहे मणतिधम्मलाभो साबुगा, मुक्काणि, भणिताणि य-जदि उप्पय्वयह तो मे कवलीए कडेमि । एवं सामाइयं अप्पए य कतं परे म कतं । सम्यग्वादो संमावादो तुरुविणी नगरी, जितसत्तू राया, तस्स भज्जा विज्जातिगिणी, पुत्तो सो य दत्तो नामओ, अज्जकालओ माइलओ तस्स दचस्स, सो य पथ्वइओ, सो य दत्तो जूयपसंगी ओलग्गिउमारो, पधाणदंडो जातो, कुलपुत्तए
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समतायां मेतार्यः
॥४९५॥
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [८६१-८६४/८६१-८७६], भाष्यं [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
HEIG
श्री नापभिंदिचा राया धाडितो, सो राया जातो, जण्णा णेण बद्दू जट्ठा । अण्णदा तं मामयं पेच्छतितुं रुडो भणति-धम्म सुणेमित्ति, सम्यग्वादे आवश्यक जण्णाण किं फलं?, सो भणति- किं धम्म पुच्छसि, धम्मं कहेति, पुणोवि पुच्छति, नरगाण पंथं पुच्छसि , अधम्मफलं सा- कालका चूर्णी |
हति, पुणोवि पुच्छति, भणति- असुभाणं कम्माणं उदयं पुच्छसि?, तं परिकहेति, पुणोषि पुच्छति, ताहे रुहो भणति-निरया पायाला फलं जण्णस्स, सो रुट्ठो भणति-को पच्चतो, जथा तुम सचमे दिवसे मुणगकुंभीपाके परिचहिसि, को पच्चतो, जथा तुम्भ नियुक्ती
सत्तमे दिवसे सणा मुहमि आतिगच्छिहिति, ताहे रुढो भणति- तुझं का मच्चू!, सो भणति-अहं सुचिरं कालं पञ्चज कातुं ॥४९॥ दियलोगं गच्छामि, वाहे रुहो भणति- संभह, ते दंडा तस्स निविण्णा, तेहिं सोच्चेव राया आवाहितो- एहि जा ते एतं बंधि
त्तिा अप्पमो, सो य पच्छण्णे अच्छति, तस्स दिवसा विस्सरिता, सो सत्तमदिवसे ते रायपहे सोधाविय मणुस्सेहि य रकखावेति, IXI IMI एगो य देउलिओ पुष्फकरडगहत्थगतो परचूसे पविसति, सो सण्णाइओ वोसिरिता पुप्फेहि ओहाडेति, रायावि सत्तमे दिवसे पएR
का आसचडगरेण जाति तं समणगं मारेमि, बोल्लितो जाति जाव अण्णेण आसकिसोरेण सह पुफेहि उक्खिवित्ता खुरेणं पादो लाभूमीए आहतो, सण्णा तस्स मुह अतिगता, तेण णातं जथा सच्चं मारिज्जामिात्ति, ताहे दंडाणं अणापुच्छाए णियचिउमारतो, ते दंडा
जाणति- पूर्ण रहस्सं भिन्न जाच घरं न जाति ताव णं गेण्हामो, तेहिं गहितो, इतरो राया जातो, ताए कुंभीए सुणए छुभित्ता वारं बद्धं, हेट्ठा अग्गी जालितो, ते ताविजंता खंडखंडेहिं छिदति, एस समाचादो कालगज्जस्स ॥ समासो-एगो चिज्जाइओ पंडितमाणी सासणं खिसति, सो वादे पतिण्णाए उग्गाहेतूण पराइणिचा पथ्यापितो, पच्छा देवता
॥४९६॥ देतस्स उवगतं, दुगुंछ न सुचति, सण्णायगा से उवसंता, अगारी से णेहं ण छड्डेति, कमणं दिण्णं, किह मे बसे होज्जा ?, मतो,
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [८६१-८६४/८६१-८७६], भाष्यं [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
तनयः
सत्राक
श्री |
देवलोगे उबवणो, सावि तंनिब्वेदं पञ्चइता, अणालोइया चव काल कातूण देवलोगे उबवण्णा, ततो रायगिहे धणो सस्थवाहो, आवश्यक पंच से पुत्ता, सुसमा त, चिलातिया दासी, तीसे पुत्तो चिलायगो मुंसमाए बालगाहो, सो अणाडियाओ करेति, ताहे बिल्दो,
चिलाति" " सीहगुहं चोरपल्लि गतो, तत्थ अग्गप्पहारी य नेसंसो य जातो, सो य चोरसेणावती मतो, सो सेणापती जातो। अण्णदा चारे | उपोदयात भणति-रायगिहे धणसत्यवाहस्स घरं हणामो, तुभं घणं मम सुंसुमा, एवं ते ओसोवर्णि दातुं अतिगता, नाम सावेत्ता गंसह पुत्तेहिंk नियुक्तीओससित्ता तेवि घरं पविसिचा चेडिं च गहाय पधाविता, धणेण गगरउत्तिया सहाविता, मम धूतं नियत्तेह, तुम्भं वर्ण, तेहि
चोरा भग्या, लोगो धर्ण गहाय नियत्तो, इतरोवि पुत्तेहि समं चिलाइतगं नासंतं सुसुमं गहाय पिटुओ लग्गति, एत्य इहंवि॥४९॥ (दूरपि)जाहे चिलाओ न तरति सुसम वहितुं इमेवि आसण्णा ताहे सुसमाए छिदित्ता तं सीसं महाय पडितो, इतरवि धाता निय
चा, छुहाए य परिताविति, ताहे धणो पुत्ते भणति ममं मारेत्ता साह ताहे णगरं वच्चह, ते णेच्छंति, जट्ठो भणति-ममं खाइ, ला एवं जाब डहरओ, ताहे पिता से भपति- मा अण्णमण्णं मारेमो, एवं चिलायएणं ववरोवितं सुसुमं खामो, एवं ते आहारिता पुची-13
मंस एवं साधूस्सवि आहारो पुत्तमंसोवमो काणिओ, तेणं आहारेण गता नगर, पुणरवि भोगाणं आभागी जाता, एवं सावि | नेव्याणसुहस्स सोवि चिलातओ तेणं सीसेणं इत्थकतेणं दिसीमूढो जातो जाव एगं साधु आतावेंतं पेच्छति, तं भमति-मर्म संखवेणं धम्मं कहेहि, मा एवं सीसं पाडिस्सामि, साधुणा भणितो- उबसमो क्वेिगो संवरो, सो एताणि पदाणि गहाय एगतं गतो, ॥४९७।। तत्थ चिंतेतुमारो-उवसमो कातब्बो कोधादीण, अहं च कुद्धओ, विवेगो धणसयणस्स, ताहे तं सीसं असि च एडेति, संवरो । इंदिओ नोईदिओ य, एवं झायति जाव तं लोहितगंधण कीडियाओ खाइतुमारद्धाओ, सो ताहि जथा चालणी तथा कतो पादसिराहिं
दीप
अनुक्रम
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(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं F /गाथा-], नियुक्ति: [८६१-८६४/८६१-८७६], भाष्यं [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सत्राक
श्री बजाय सीसकरोडी ताव गताओ अट्ठाइज्नेहिं राईदिएहिं काल किच्चा सहस्सारे उपवण्णो ।
18 संक्षेपानआवश्यक
__ संखेबो-चत्तारि चालतवस्सी सतसहस्से गथे काउं जियसत्तुस्स उद्विता, अम्ह सत्याणि सुणेहि, तुम पंचमो लोगपालो, तेण वाया चूणा भणित केत्तियं, ते भणति-पत्तारि संधिताओ सतसहस्साओ, सो भणति-एच्चिरेणं मर्म रज्जं सीदति, एवं अबद्ध उसरंत जाव |
18] तपस्वि--
धर्मरुचय: पवाद एकेको उ सिलोगो, तंपि णत्थि, ताहे चतुण्हंवि एगो सिलोगो-जिण्णे भोयणमचेओ, कविलो पाणिणं दया। विहस्सतीरविस्सासो,
" पंचालो स्थीसु मद्दवं ॥१॥ एवं चेव इमं सामाइयं चोदसी पुवाणं संखेयो। ॥४९८॥ | अणवज्जे-वसंतपुर नगरं, जितसत्तू राया, धारिणी देवी, तेसिं पुत्तो धम्मरुयी, सो राया थेरो जातो, अण्णदा ताच सोश दिपवइनुकामो धम्मरुहस्स रज्जं दातुमिच्छति, सो मातर पुच्छति-कीस रज्ज पजहति , सा भणति-एतं संसारवंधणं, सो भणति-18
ममवि न कज्ज, ताहे सह तेण पिता तायसो जातो, तत्थ अवमासाए गडओ उग्पोसेति आसमे-कालं अमावसातो पुष्फफलाणं है। । संगई करेह, काई छिदितुं न बट्टति, सो चिंतेति जदि सबकालं न छिदेज्जा तो सुंदरं होज्जा, अण्णदा साधू अमावासाए तावसासमस्स अरेण वोलेंति, ते धम्मरुती पेच्छति, ताहे भणति-भगवं! तुम्भ अणाउद्दी णस्थि तो अडवि जाही, तेहिं भणित-अम्हं जावज्जीचमणाउट्टी, सो संभंतो चिंतउमारो, साधुवि गता, जाति संभरिता, पत्तेगबुद्धी जातो।
- सोऊण अणाउट्टीं०1८-१९६ ॥ ८७७ ।। अणंत-कम तस्स भीतो अणवज्ज-अगरहितं धंममुवगतो धम्मरुई । परिण्याए । पता इलापुत्तो, सो जथा हेडा, परिजाणितूण जीवे०१८-१९७।। ८७८॥ जाणणापरिणाए पाता पच्चक्खाणपरिणाए पच्चक्खाता
सावज्जजोगकरणं परिजाणति से इलापुत्तो।
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आगम
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - /गाथा-], नियुक्ति : [८७७-८७८/८७७-८७९], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
श्री आवश्यक चूर्णी उपोद्घात
सुत्रांक
नियुक्ती
१४९९
इदाण परचक्खाणे-तेतलिपुरै नगर, कणगरहो राया, पउमावती देवी, राया भोगलाभो पुचे जाते २ वियंगेति, तेतलि अमच्चो, कलारो मसियारे सेट्ठी, तस्स धूता पोट्टिला, आगासतलए दिट्ठा, मम्गिता लद्धा य, अमच्छ पउमावती य भणति-ए- ख्याने कुमार किहषि सारक्ख, तो तब मम भिक्खामायणं भविस्सति, मम उदरे पुचो, एतं रहिस्सग सारवेमो, संपत्तीय पोटिला य देवीतेतलीपुत्रः य समं चेव पस्ता, पोडिलाए दारिया देवीए दिण्णा, कुमारो पोटिलाए, संवडति, कलाओ य गेण्हति । अण्णदा पोडिला तेतलिस्स अणिट्ठा जाता, नामवि ण गेहति, अण्णदा पव्वइयाओ पुच्छति-अस्थ किंचि जाणह जेण अहे पिता होज्जा, ताओ भणंति-अम्हं एतारसं न वति, ताहे से धम्मो कहितो, सा य संवेगमावण्णा, आपुच्छति-पष्चयामिति, सो भणति-संगोहेज्जासि, ताए पडिस्सुतं, सा सामण्ण कातूणं दियलोगं गता । सो राया मतो, ताहे तं कुमारं पउरस्स दंसेति रहस्स च भिंदति, ताहे सो अभिसित्तो,। कुमारमाता भणति-सेतलिस्स सुट्ठ वट्टेज्जा, एतस्स पभावेण संसि जातो, तस्स णाम कणगाओ, ताहे सो सव्वगतो जातो, देवो तं संबोहेति, न संयुज्झति, साहे रायाणगं विप्परिणामेति, सो त णो आढाति, वीधीएविन कोइ आढाति, बाहिरियावि परिसा दासपेसादिगा जाव अभंतरिगावि पुत्तसुण्हादिगा, एवं चेव विपि न लभति, ताहे विसण्णो तालपुडगं विस खाति, न मरइ, कंको असि खंघे नस्सति, सोवि न छिंदति, वेहासं करेंतस्स रज्जु छिण्णो, पच्छा पाहाणं गलए बंधित्ता अस्थाहं पाणियं पविट्ठो, तस्थवि थाही जातो, ताहे तणकूड़े अग्गि दातुं पविट्ठो, तत्थवि न उज्झति, ताहे अडविं पविसति, तत्थ पुरतो छिण्णगिरिसिहर-1 | ॥४९९॥ कंदरप्पवाते पिडतो कंपेमाणेष्व मेदिणितलं आकङ्गंतव्य पादवगणे विफोडेमाणेच अंबरतलं सव्वतमोरासिव्व पिडिते पच्चक्खमिव सर्व कर्तते भीमे भीमारवं करेंते महाबारणे समुट्टिते, दोसु चवखुनिवातेसु पयंडधणुजुत्तविप्पमुको मुखमेचवसेसा धरणितलपवेसाणि
दीप अनुक्रम
SARKES
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आगम
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भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं , मूलं - गाथा-], नियुक्ति : [८७७-८७८/८७७-८७९], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
नियुक्ती
श्री सराणि पतति, हुतवहजालासहस्ससंकुल समततो पलित्व धगधगेति सव्वारण्णं, अइरुग्गतबालसूरगुंजडपुजनिगरप्पगासं शियातिर आवश्यकता इंगालभृतं गिह, ताहे चिंतति-पोडिला जदि मे नित्थारेज्जचि, एवं बयासी-आउसो पोटिला! आहता आयणाहि, ततेणं सा पोट्टिलाला
ख्याने चूर्णी
पंचवण्णाई सखिखिणीयाई जाव एवं वयासी-आउसो तेतलिपुत्ता! एहि ता आदाणाहि, पुरतो छिण्णगिरिसिहरकंदरप्पवात तंतितलापुत्रः उपोद्घात.दा
चेव जाव इंगालभूतं गिहं तं आउसो तेतलिपुत्ता ! कहिं वयामो, ततेणं से तेतली एवं वयासी-सद्धेत खलु भो समणा वयंति, सद्धेयं
दाखलु भो माहणा वयंति, अहमेगो असद्धेयं वदिस्सामि, एवं खलु अहं सह पुत्तेहिं अपुत्तो को मे तं सद्दहिस्सति,एवं सह मित्तेहिं० ॥५०॥ सह दारेहिं० सह वित्तेण, सह परिग्गहेण सह दासेहिं जावदाणमाणसकारोवयारसंगहिते तेतलिपुत्तस्स सयणपरियणेवि तLM
१ गते को मे तं स०१, एवं खलु तेतलिपुत्चे कणगज्झतेणं अवज्झातके को मे तं स० कालकमणीतिसत्थविसारदे तेतलिपुत्ते विसाद
गतेति को मे तं सं०१, ततेणं तेतलिपुत्तेणं तालपुडे विसे खइते सेवि य पडिहतेत्ति को मे तं स०१, एवं असी बेहासे जले अग्गी | जाव रण्णेवि पुरतो पवाते एमादि को मे तं सद्दहि०१,जातिकुलरूबविणओवयारसालिणी पोट्टिला मुसिकारधूता मिच्छं विप्पडिवण्णा को मे तं सद्दहिस्सति !, ताहे पोट्टिला भणति-एहि ता आदाणाहि, भीतस्स खलु भो पव्वज्जा ताणं, आतुरस्स भेसज्ज किच्चं अभिउत्तस्स पच्चयकरणं संतस्स बाहणीकच्चं महाजले वाहणकिच्चं माइस्स रहस्सकिच्चं उकंठितस्स देसगमणकिच्चं छुहि| तस्स भोयणकिच्चं पिवासितस्स पाणकिच्च सोहातुरस्स जुवतिकिच्चं परं अभियुजितुकामस्स सहायकिच्चं खंतस्स दंतस्स गुत्तस्स
॥५०॥ | जितेंदियस्स एतो एगमवि न भवति । मुट्ठ सु? नण्णं तुम तेतलिपुत्ता! एवमहूँ आदाणाहित्तिकटु दोच्चपि तच्चपि एवं वयति, वयेत्ता जामेव तामेव पडिगता । ततेणं तस्स अण्णं चितमाणस्स सुहेण परिणामेणं जाव जातिस्सरणे समुप्पण्णे-एवं खलु अहं
दीप अनुक्रम
(209)
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
H
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [-]
मूलं [- /गाथा-], निर्युक्तिः [८७७-८७८/८७७-८७९],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
श्री आवश्यक
चूर्णी उपोद्घात
निर्युक्तौ
॥५०१ ॥
जंबुद्दीवे दीवे महाविदेदे पुक्खलावतिमि पुडरीगिणीए महापउमे णाम राया होत्था, थेराणं अंतिके पव्यतिते सामाइयमादीयाई चोदस पुब्वाई अहिज्जित्ता बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउाणित्ता मासियाए संलेहणाए आलोइयसमाहिपत्त कालं किच्चा महासुके कप्पे देवत्ताए उबवण्णे, ततेणं ताओ चहत्ता इहेब जंबुद्दीवे भरहे तेतलिपुरे तेतलिस्स अमचस्स दारके जाते, तं सेतं खलु पुचि दिट्ठाई सतमेव उवसंप्पज्जित्ताणं विहरित्तएचिकट्टु तहेव करेति करेचा जेणेष पमदवणे तेणेव उ० २ असोगपादवस्स अहे | सुहनिसन्ने, तत्थ अणुचिन्तेमाणस्स पुव्याधीताई चोद्दस पुव्बाई सतमेव अभिसमण्णागताई, ततेणं से सुहेणं जाव केवली जाते, अथासाणिहितेहिं देवेहिं महिमा कता, इमीसे कहाए लद्धड्डे कणगज्झए माताए समं निग्गते सब्बिड्डीए, खामेति, धम्मे कहते सावगे जाते जाव पंडितागते, भगवंपि तेतली अज्झयणं भासति जथा को कं ठावेति णण्णत्थ सगाई कम्माई, एवमादि जहा रिसिभासितेसु, पच्छा सिद्धे, एवं तेण पच्चक्खाणेण समता कता सावज्जजोगा परिण्णाता । निरुत्तिदारं गतं । एवं च दारविही गतो । गता य उवरघातनिज्जत्ती ॥
इयाणिं सुत्तफासियनिज्जुती इच्छावेति, जा सुतं फुसति निज्जुती सा सुत्तफासियनिज्जुत्ती भन्नवि, असति य सुते सा किं फुसतु १, तेणं सुतं उच्चारयव्वं पच्छा फुसिस्सति तेण सुत, तं चैव भवति । तत्थ य सुत्ताणुगमस्स अवतारो, एत्थ य सुत्ताणुगमो सुत्तालावगानिष्कन्नो निक्खवो सुत्तफासितनिज्जुत्ती य समयं गच्छति, कह ?, जदा संथिता सव्वा उच्चारिता भवति तत्थ सो सुत्ताणगमो, जो पदे छिंदिऊण अत्थो मन्नति, जो पदं पदेण णामादीहिं निक्खिप्पति सो सुसालावगनिष्फष्णो निक्खेवो, सो चैव जदा निज्जुतीए वित्थारिज्जति तदा सुत्तफासियनिज्जुत्ती, सुत्ते य अणुगते सुत्तालाबगनिष्फलो निक्खवो सुत्तफासिय
अत्र उपोद्घात-निर्युक्तिः समाप्ताः, अथ सूत्रफ़ास-निर्युक्ति: आरभ्यते
(210)
तेतलिसुतोदाहरणं सूत्रस्पर्शि
कायाः
।।५०१ ॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 "अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [८८७/८८०-९०८], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार उत्पत्रद्वार
प्रत सूत्रांक
नमस्कार. निज्जुत्ती य भवति, तम्हा सुत्तं अणुगंतव्वं । तं च पंचनमोक्कारपुवं भणति पुब्बगा इति सो चेव ताव भनइ, सो य इमेहिं व्याख्यायां हाएफारसदारेहि अणुगतब्बो, तंजहा॥५०श उप्पत्ती निक्खेवो०।९-११८८७ तत्थ पढम दारं उप्पत्ती, उत्पाद उप्पत्ती, उत्पादनमुद्धतिरित्यर्थः, तत्थ नमोकारो किं
| उप्पनोऽणुप्पमोचि, एस्थ नयेहिं मग्गणा, केड उप्पन्नं इच्छंति केह अणुप्पा, नया य पुखभणिता सत्त गमादी मूलणया, तस्थ &ाणेगमो अणेगविही, तत्थ आदिणेगमस्स अणुप्पनो नो उप्पलो. कह ,जहा-पंचस्थिकायाणि वा, एवं नमोकारोविन कया
इनासी ३ ण एस ताव केणइ उप्पाइएतिकटु, जदावि भरहेरवएहिं वोच्छिज्जति तदावि महाविदेहे अवोच्छित्ती, तम्हा अणुप्पन्नो, | ससाणं णेगमाण छण्डं च नयाणं विसुद्धाण उप्पो कीरति, अविसुद्धाणं पुण आदिणेगमे चेव अवयारो, को, पारसमुवि कम्मभूमीसु पुरिसादिभावं पडुच्च, जदि उप्पनो कह उप्पन्नोत्ति ?, तिविहेण सामित्तण-समुत्थाणसामित्तेण वायणासामितेण लाद्धसामित्तण, एत्थ को गयो के उप्पत्ति इच्छति ?, तत्थ जो पढमवज्जा णेगमा संगहो ववहारो य ते तिविहंपि उप्पत्ति इच्छति, समुट्ठाणं नाम संमं आयरियादीण उपस्थापनमित्यर्थः तेन, वायणाए वायणायरियणीसाए, जहा भगवता गोयमणसामी वायितो, लद्धी जहा भविकस्स, अभविकस्स गत्थि, उवदेसमंतरेणावि भविकस्स किंचि निमित्तं लण णमोकारावरणिज्जाणं कम्माणं खयोवसमेणं नमोकारलद्धी समुप्पज्जति, जहा सयंभुरमणसमुद्दे पडिमासीठया साहुसंठिया य मच्छा, पउमपत्तावि, सव्वाणिवि |किर संठाणाणि अस्थि, मोत्तूण वलयं संठाणं, एरिस णस्थि जीवस्सेति, ताणि सैठाणाणि दट्टण कस्सति णमोकारलद्धी भवति, उज्जुमुतो पढम समुत्थाणं णेच्छात, किं कारण, जतो से समुट्ठाणेवि सति वायणालद्धिमतरेण ण उप्पज्जति, तेण दुविह- वायणा
दीप
अनुक्रम
G
||५०२॥
मू. (१) नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं
एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम हवइ मंगलं • मूलसूत्र -(१) "नमस्कार सूत्र" हमने पूज्यपाद आचार्य सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित “आगममंजुषा" पृष्ठ-१२०५ के आधार से यहां लिखा है। ... अत्र नमस्कार-नियुक्ति आरब्ध:
(211)
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आगम
(४०)
प्रत सूत्रांक
[-]
दीप अनुक्रम
[1]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 निर्युक्तिः [८८७/८८० - ९०८),
आयं [१११...]]]
अध्ययनं [-]
मूलं [१] / [गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार व्याख्यायां
॥५०३॥
सामिचं लद्धिसामितं च तिष्णि सद्दणया लद्धिमिच्छति, जेण समुद्राणे वायणाए य विज्जमाणे अभविगस्स ण उप्पज्जति, लद्धिअभावात् । एवं उप्पण्णस्स वा अणुप्पण्णस्स वा दारं । णिक्स्वेवो स्थापना न्यास इत्यनर्थान्तरं सो णिक्खेवो चतुविधो- णामणमोकारो, णामयणा गताओ, दव्वणमोकारो जाणगसरीर० भविय० वतिरित्तो, दव्बणमुकारो दव्वणिमित्तं दव्यभूतो वा अणुबउसो वा जं करेति, अहवा णिण्हगादीणं, उग्घट्टओ वा दव्वणमोकारो, णिण्हगआदिग्गहणेणं बोडिगा आजीविगा य सूयिता । तत्थ दब्बणमोकारे इमं उदाहरणं
बसंतपुर नगर, जियसत्तू राया, धारिणी देवी, तस्सहितो ओलोयणं०, दमगपासणं, अणुकंपा दिसरिसति रायाणो भणति देवी, रण्णा आणावितो, कतालंकारे दिण्णवत्थतेहिं उवणीतो, सो य कच्छप गहितेलओ तेल्लं लग्नाविज्जति, कालंतरेण रायाए से रज्जं दिष्णं, पेच्छति दंडभडभोइए देवयायतणपूयाओ करेमाणे, सो चिंतेति अहं कस्स करेमि ?, रण्णो करेमि, आयतणं करेति, तस्स देवीए पडिमा कता, पडिमापचेसे आणिताणि, पुच्छंति, साहति य्, तुड्डो सकारेति, तिसंझं अच्चेति, पडियरणं, तुद्वेण सच्चडाणगाणि दिष्णाणि । अण्णदा राया दंडजतं गतो, सव्यंतेपुरट्ठाणेसु ठवेऊणं, तत्थ य अंतेउरियाओ गिरोहं असहमाणीओ तं चैत्र उवचरति, सो णेच्छति, भत्तं गुत्ताओ ण गेण्डंति, पच्छा समयं पविट्टो, विदाओ य, राया आगतो, सिडे विणासितो । रायत्थाणीओ तित्थकरो, अंतेपुरत्थाणीता छ काया अधवा संकादयो पदा, मा सेणियादीणवि दव्वणमोकारो भविस्सति, दमगत्थाणीया साधू, कच्छ्रुत्थाणीयं मिच्छतं, भासुरर्थाणीयं सम्मतं, विणिबाओ दंडो संसारो, एतस्स दूव्वणमोकारो। भावणमोकारो जं उवजुत्तो सम्मदिट्टी करेति, तत्थ दितो तं चैव पसत्थं, तस्स सम्मदिट्ठिस्स उवजुत्तस्स भावणमोक्कारो || एत्थ णयेहिं मग्गणा-णेगमो
द्रव्य - नमस्कारस्य व्याख्यान (द्रष्टांत सहितं)
(212)
उत्पन्नद्वारे निक्षेपाः
द्रव्यनमस्कारे द्रमकः
।।५०३॥
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 "अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [८८७/८८०-९०८], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
दीप
नमस्कार दम्बादि चउब्विहंपि इच्छति णिक्खेव, संगहववहारा ठवणावज्ज इच्छंति, उज्जुसुत्तो ठवणदग्ववज्जं इच्छति, तिणि सद्दणया | निक्षप. द्र भावाणक्खेवं इच्छंति, सेसे तिण्णि णिक्खेवे णेच्छति, तत्थ इमा णयगाथा चउरोऽपि णेगमनया ववहारो संगहो ठवणवजा
नयाः ॥५०४॥ उज्जसत पढमचरिमे इच्छति भावं च सद्दणया।।९।।५।। (न हारि०वृत्तौ) पदर्मिदाणिं, पज्जवत इति पदं पाति या तमर्थ पदं,
तं पंचविध पद-णामिकादि, जथा अणुयोगद्दारे, एत्थ कतरं पदी, णामिकमाख्यातिकमौपसर्गिकं नैपातिकं मिश्र चेति णमोक्कारो, दणिवाइयपदं नम इति, अहवा अरहंताइसु पंचसुणम इति, सो पुण णमोक्कारो कति पदाणि?, छ वा दस वा, तत्थ छप्पदाणि णमो
अरहताणं सिद्धाण आयरियाणं उवज्झायाणं सब्बसाधूणं, एते छप्पदा, इमाणि दस पदाणि-णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं एवं ४ दस । दारं । इदार्णि पदार्थ, णम इति कोऽर्थः १, नमः पूजायां नम प्रहत्वे, योऽस्य नमस्कारस्य प्रभुः कर्ता तस्य नमस्करणमिदत्युक्तं भवति, तस्य पुनः द्रव्यभावसंकोचने, एत्थ चतुर्भगो-दव्वं णाम एगे संकोचेति णो भावं, पढमे भंगे पालओ, बीए भंगे। अणुत्तरा, ततिए संबो, चउत्थो सुण्णो, अहवा केवलं णम इति भासति । दार।
इदाणि परूवणा-साधु प्रकृष्टा प्रधाना प्रगता प्ररूपणा वर्णानां प्ररूपणा, सा य णमोकारस्स छहि य णवहि य पदेहि कातब्बा, 18 तित्थ छबि दारेहिं परूवणा इमा-किं णमोकारो? कस्स णमोकारो? केण वा णमोकारो कहिं वा णमोकारो? केवचिर णमोकारो ५०४॥
कतिविहो णमोकारो, तत्थ किंशब्दः क्षेपप्रश्ननपुंसकव्यापारणेषु तत्रेह प्रश्ने, किं णमोकारो, जीवो तप्परिणओ, जथा सामाइयं | ४ वहा सणयं सोदाहरणं विभासेज्जा, अण्णे भणति-किं णमोकारो? किं दव्वं णमोकारो खंधो गामो?, दबं णमोकारो, णोखधोर INणोगामी, दव्वं जीवो, खंधो पंच अस्थिकाया णमोकारेण भवंति, ण य तेसि खंघाणं अत्यंतरभूतो तेण णोखंघोत्ति देस पडिसेहयति,
अनुक्रम
म
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(४०)
प्रत सूत्रांक
[-]
दीप अनुक्रम
[3]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
अध्ययनं [-]
मूलं [१] / [गाथा-], निर्युक्तिः [८८७/८८०-९०८], भाष्यं [ १५१...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार व्याख्यायां
||५०५॥
केनेतिद्वारे
चोइसविहो भृतग्गामो, ण य णमोकारो चोदसमुवि, णय तेसिं अत्यंतर भूतो तेण गोगामी णमोकारो। एत्थ गयमग्गणा तेहि चेत्र सतर्हि, तत्थ गमो संगहितो असंगहितो य, संगहिओ संग पचिट्ठी, असंगहितो ववहारे, तेण छहिं णएहिं मग्गिज्जति, संगहस्स एगस्स एगो णमोकारो, बहूपि एगो णमोक्कारो, जेण संगहितपिंडियत्थं संगहवयणं, जथा- एगोबि साली साली ५ नयाः कस्य है बहुगावि साली साली चैव, एवमादि, ववहारस्स एगस्स एगो णमोक्कारो बहुगाणं बहुगा णमोकारा, उज्जुसुत्तस्स पत्तेयं जीवाणं णमोकारो, जथा- चौदस पुव्वाणि एगस्सवि बहुगाणंपि, तिन्हं सदणयाणं णमोकारपरिणतो जीवी णमोकारो, सेसाण अणुवयुतोवि होज्ज आगमतो | दारं । कस्स णमोकारो ?, कस्सेति षष्ठी विभक्तिः, सा च तत् उभयत्वेऽन्यत्वे, यथा- तैलस्य धारा शिलापुत्रकस्य सशरीरिणमित्येवमादि, अन्यस्वे यथा भिक्षोः पात्रं भिक्षोः वमित्येवमादि, उभयतो यथा देवदत्तस्य सकुंडलं शिर: एवमादि, एवं नमस्कारः किमेकत्वे उभयत्वेऽन्यत्वे, एत्थ गया, तत्थ गमस्स बाहिरबत्थुमधिकिच्च असु भंगेसुस्याज्जीवस्य १ स्यादजीवस्य २ स्याज्जीवानां ३ स्यादजीवानां ४ स्याज्जीवस्य चाजीवस्य च ५ स्याज्जीवस्य चाजीवानां च ६ स्यादजीवस्य च जीवानां ७ स्याज्जीवानां स्यादजीवानां च ८, जीवस्य यथा-एकस्य साधोः, अजीवस्य यथा एकस्याः प्रतिमायाः, जीवाणं बहूणं साधूणं, अजीवाणं बहूणं पडिमाणं, जीवस्य अजीवस्य सपडिमस्स साधूस्स, जीवस्य अजीवानां एकस्य तीर्थकरस्य चक्रध्वजादीनां जीवानां चाजीवस्य साधूर्ण पडिमाय, जीवाणं अजीवाणं च बहूणं सपडिमाणं साधूणं, संगहस्य तदेव संगहरवणं, बहारस्स एगस्स एगो बहूणं बहुगा, उज्जुसुत्तस्स पत्तेयं पत्तेयं, तिन्हं सदणयाणं आत्मभावो, पडिवज्जमाणगं पडुच्च जीवस्स च जीवाण वा, पुव्यपडिवण्णगं पढच्च णियमा जीवाणं दारं ।। केन नमस्कार इति तृतीया विभक्तिः यथा गिरिकेण काणामेषेण
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नमस्कारप्ररूपणायां
॥५०५॥
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [८८७/८८०-९०८], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
नमस्कार 18 उग्घाडि नभः, केण णमोकारो लन्भति?, णाणावरणिज्जस्स देसणमोहणिज्जस्स य खयोवसमेणं लब्भति, तेसिं दुविहाणि फह
केन व्याख्यायांदगाणि- देसघातीणि य देस घातयति सव्वघातीणि सव्वं घातयति, तेहिं उदिण्णेहि पच्छा अण्णाणि होति मिच्छादिही य, कदाकस्मिन्
पुण लम्मति '. सब्बघातीहिं निरवसेसहि उग्घाडितेहिं देसघातीहि अणंतेहि भागेहि उग्घाडितेहिं समये २ अर्णतगुणचिसोधीए कियच्चिर ॥५०६॥ | विमुज्झमाणस्स २ पढम णकारलंभो भवति, एवं णमोक्कारस्सवि एवं सेसाणवि अक्खराणं । दारं ।। कस्मिन्नमस्कार इति सप्तमी
मितिविभक्तिर्भवति. सा च एकत्वे अन्यत्वे उभयत्व, एकत्वे जीवे ज्ञान जीवे दर्शनं, अन्यत्वे कुंडे बदराणि, उभयत्वे गृहे स्थणा आत्म-II
द्वाराणि भावे प, एवं नमस्कार किमकत्व अन्यत्वे उभयरवे, अत्र णया- णगमा बाहिरवत्थुमाभकिच्चा अट्ठवि भंग इच्छति स्याज्जीवे । ६ स्यादजीवे एवं सण्णिहाणेण अट्ठवि, संगहस्स जीवे णमोकारो जीवेसुवि णमोकारो, तहेव संगहवयणं सालिदिईता, यवहारस्सविर
तहेव-एगजीचे एगो णमोकारो बहुसु जीवेसु बहये, 'उज्जुसुतस्स सब्बेमुवि णमोकारेसु पत्तेगं णमोकारो, तिण्हं सदणयाणं पुन
एगो णमोकारो, बहवेमु जीवेमु पडिबज्जमाणगे पडुच्च जीवे वा जीवेसु वा उवउत्तेमु, सेसाण अणुवउत्तेऽवि होज्जा।।दारा। इवाणि द्र केचिरं कालं णमोकारोत्ति,, एगस्स जीवस्स उवओगं पडुच्च जहण्णुकोसहि अंतोमुहुर्स, उक्कोसणं छावविसागरोयमाहिया,विजयादिसु दोबारा उबवज्जतित्ति, णाणाजीवाण उवओगं पडच्च जहष्णुक्कोसं अंतोमुहुतं, लद्धिं पडुच्च सब्बद्धा, एत्थ णया-अप्पितश्चानर्षितच, मनुष्ये नमस्कार इति अर्पितः, अनित्यः, अनर्पितो नित्यः, यथा सुवर्ण अंगुलेयकत्वेन अर्पितमनित्यं सुवर्णत्वेनानपिते 8 नित्यमेवमादि । इदाणिं कतिविहो णमुकारो', अरहतादि पंचविधो, छप्पदा परूवणा गता । इदाणिं णवपदा ॥५०६।। परूवणा-संतपयपरूषणा दबप्पमाणं खेच फसणा कालो अंतरं भाग भावे अप्पबहुगंति, सादात सदूभृतं, संतस्स पदस्स परू
दीप
अनुक्रम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [८८७/८८०-९०८], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
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नमस्कारवणा संतपदपरूवणा. संतपदपरूवणाए कि णमोकारो अस्थि णस्थि, कुतः संदह, इह द्विविधमाभिधानं भवति- सा, यथा- नवषट्पंचव्याख्या
जीवादीना, असता, यथा-शश्चविषाणादीनां, अतो नः संशयः, भण्णत्ति-णियमा अस्थि, जदि अस्थि तो कह होज्जा, तत्थ सोचतुष्पदा . ॥५०७॥ इमेसु ठाणेसु मग्गिज्जति, गतिमादी
प्ररूपणा गति इंदिए य काए॥९-१०॥ १४ ॥ जाव चरिमोत्ति, जहा णदीए आभिणियोधितणाणे तथा इहपि । दव्यप्पमाणलामिदाणि-जमोकारपरिवष्णया जीवा केचिया होज्जा, जावतिया सहमस्स खेत्तपलिओवमस्स असंखेज्जतिभागे आकासपदेसा
एवतिया णमोक्कारपडिवष्णया जीवा, २ दारं । खेत्तओ हेट्ठा लोगस्स सत्तभागो, उवारीप सत्तभागा, जेसु ओगाढा ३। जथा खेत्त्रं तथा फुसणावि, णाणचं चरिमतेसुवि जे पदेसा तेवि पुट्ठा, जथा एगो धम्मपदेसो आगासपदेसेहिं णियमा सतहिं । कालतो जथा
छप्पदपरूवणताए ५/ अंतर एग जीवं पडुच्च जहणेणं अंतोमुहुत्वं उक्कोसेण देसूर्ण अद्धपोग्गल परियई, णाणाजीवे पडुच्च णत्थि द अंतरं, दारं ६। कस्मिन् भावे नमस्कारो', खयोबसमिए भावे णमोकारो, जम्हा सबसुतं खयोवसमियति, अण्ण पुण भणति
उबसभिए वा खइए वा खयोवसमिए पा, खइए जथा- सेणियादणिं, उवसमिए जथा अणागाराण, खयोवसमिए जथा अस्मदादी18 नामिति दारं ७ णमोक्कारपडिवण्णमा जीवा सेसगजीवाणं कतिमागे होज्जा ?, अणंतभागे, दारं दा अप्पावई, एतसि पडिवण्णगाणं जीवाणं अपडिवण्णगाण य कतरे०, सव्वत्थोया णमोक्कारपडिवष्णगा अपडिवण्णमा अर्णतगुणा, एसा णवपदा सम्मत्ता । ५०७॥
अहवा चसहराइया पंचविधा परूवणा, जथा- आरोवणा भयणा पुच्छणा दावणा णिज्जवणा य, तत्थ आरावणा- कि जीबो णमोक्कारो' णमोक्कारो जीपो', आरोवणा गता, भयणा- जीवः स्यान्नमस्कारो स्थादनमस्कारो, नमस्कारो नियमा
दीप
अनुक्रम
KAISE
नमस्कारस्य विविध प्ररुपणा
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भाग-4 “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [८८७/८८०-९०८], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सूत्रांक
15
नमस्कार छाजीवो, खतिवनस्पतिवत् । पुच्छणा दावणा णिज्जवणा य एगट्ठा वच्चंति, पुच्छणा कतरे खाइ मि जीवे णमोक्कारे, एस नमस्कार व्याख्यायो पुच्छा, दावणा णमोक्कारपरिणते जीवे णमोक्कारे, एस दावणा, णिज्जावणा एस खाई से णमोकारपरिणते जीवे णमोकारे। पच ||५०८॥
अहवा चउबिधा मग्गणा, तीए इमो दिढतो ताव भण्णति, चउव्विहं पुण मम्गणं भणिहिति, तत्थ दिद्रुतो-घडो णोघडो। अघडो णोअघडो, संपुण्णो घडो, तस्सेव देसो णोघडो, घडयतिरित्तं दव्वं अघडो, णोअघडो घडदेसो, तद्व्यतिरिक्तं च अण्णं दव्वं, एवं णमोकारस्सवि चतुविधा मग्गणा, णमोकारो णोणमोकारे अणमोकारे णोअणमोकारो, णमोकारोति णमोकारपरिणतो जीवोठ घेप्पति, णोणमोकारोत्ति तस्स देसपदेसा, अणमोकारेत्ति णमोकारपरिणतजीववतिरित्त अण्णदवं, णोअणमोकारोति णमोकार-IM परिणतस्स देसपदेसा तवतिरित्तं च अण्ण दवं दन्याणि च । एत्थ गएहि मग्गणा-णेगमो तहेव, संगहस्स एते चत्तारिवि मंगा| संगहवयणेणं, ववहारस्स णमोकारपरिणतो जीवो णमोकारो, जीवो वा णमोकारो, बीतीभंगे एगस्स देसपदेसा बहुगाणं च देसप-| देसा कोणमोकारो,[णोअणमोकारो], ततिए अणमोकारो अणमोकारपरिणतो जीवो अणमोकारपरिणता वा जीवा तव्वतिीरत्तं वा | दवाणि विभासेज्जा, चउत्थे णमोकारपरिणतस्स जीवस्स देसपदेसा णोअणमोकारो जीवाणं वा देसपदेसा णोअणमोकारो तब-1x तिरिच दवं च दबाणि य घेप्पति, उज्जुसुत्तस्स णमोकारोचि णमोकारपरिणताणं जीवाणं पत्तेयं एगेगं णमोकार इच्छिज्जति, | णोणमोकारोत्ति तेसि देसपदेसा, अणमोकारेत्ति अण्णे जीवा दवा य, णोअणमोकारेति णमोकारप० जविस्स जे देसपदेसा अण्णं च
५०८॥ &ादचं दग्वाणि वा, तिर्द सदणयाणं सम्मदिट्ठी जीवो भावतो णमोकारे उपउत्ते, तेहिं चेव चउहि भगेहि णमोकारो णोणमोकारो
अणमोकारो णोअणमोकारो, अहवा एते दोवि णवपदा भवति । परूवणत्ति गतं ।
दीप
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [८८७/८८०-९०८], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
अढव्यां देशकत्वं -
प्रत सूत्रांक
नमस्कार एवं परूवितस्स णमोक्कारस्स बत्थ, तत्थ बत्थू आरिहो भायणं जोग्गो गत्तति वा एगई उच्यते, वत्थू अरहतादी, कहं ते व्याख्यायां
भवत्यू, जेणं तेसु कारणमायन, हेतुनिमित्तं कारणमेकोऽर्थः, किं च तेसु कारण?, मग्मोपदेसका अरहता, सिद्धा एतमग्न अवि- ॥५०९ ग्ण संपत्ता, ज णस्थि अण्णेसिं तेण गुणेण अधिगत्ति अरिहा, आयारं उवदिसति पंचविह,उवमाया विणयंति, पंचविहो आया-1
रो, साधुणो संजमाद्वितस्स सहायकिच्चं करेंति, इहलोकिकेण परलोकिकेण य, एतेण कारणेण अरिहा, एते सामासिया गुणा ।। 18 इदाणि पत्तेयं पचेयं वित्थारेण गुणा उवदसिज्जति । अरहताण ता वित्थरेण गुणकित्तर्ण कीरति, तत्थ दारगाथादिअडवीए देसियत्तं तहेव णिज्जामकं समुदंमि । छक्कायरक्खणट्टा महगोवा तेण चुच्चंति ॥ ९ ॥ २३ ॥ ९०४॥
तत्थ कई अडवीए देसियत्तं कर्त, तत्थ अडवी दुविहा- दवाडवी भावअडवी य, तत्थ दबओ अडवीए उदाहरणं-व18 संतपुरे धण्णो सत्थवाहो, णेबुतिनगरं गंतुकामो घोसग जथा शंदिफलणांते, सो तेसि मिलियाण पंथगुणे कहेति- एगो पंथो
उज्जुओ एगो पंथो को, जो सो वंको तेण पुण सुहंसुहेण गंमति खतेहि य पियंतेही य, तत्थवि कति रुक्खा अण्णाणि य का-& रणाणि परिहरितव्याई, चिरण पुण पाविज्जति, अवसाणे य सो चेव ओतरितव्यो, जो पुण उज्जुओ तेण लई गम्मति, दुक्खं2 च सहितब्ब, जतो तत्थ बहवे गंदिफला णाम रुक्खा किण्हा किण्होभासा जाब णिकुरुम्बभूता पत्तिया पुफिया फलिता हरिता जाब सिरीए अतीव २ उवसोभेमाणा २ चिट्ठति, त जे गं देवाणुप्पिया तेसिं रुक्खाणं मूलाणि वा कंदाणि वा जाव चीयाणि आहारेति तासु वा विसमति तस्स णं आवाते भदए भवति, ततो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे अवसङ्के अकाले चेव जीविताओ ववरोविज्जति, अण्णे य रक्खे जो तेसि बातेणवि छित्तो सोवि मरति, अण्णे परिसडित पण्णता, तेसिं छाहीए अच्छितब्ब,
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५०९।।
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 "अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [८८७/८८०-९०८], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
BASIRSA
प्रत
सूत्रांक
नमस्कार फलाणि य विवण्णाणि आवातविरसाणि विवायसुहावयाणि पाणियाणि य महिता कुहिता विणट्ठा गिद्धखारकड्यअंबराणि, भूमी-18 अढव्या व्याख्यायांत ओ य णिपणुण्णतविसमाओ तासु सुवितव्ब, सत्थिया खणपि ण मोत्तव्वा, कालतो दिवस गम्मति, रत्तीएवि ततिए यामे णिद्दा
मोक्खं कासूण पुणोवि बहितव्वं, जतो छिण्णावाता दूरदाणा बहुपच्चवाया य अडवी, भावतो सीयाणि य उसिणाणि य छुहा मारा 18 सावयभयाणि य अबरोप्परो य संणिरोहो सहितव्यो, जो सो को तेणवि वच्चताणं केति रुक्खा परिहरितव्या अण्णाणि य | है। जाणि पब्वाणि चिरण पाविज्जति, अवसाणे सो चेव ओतरितब्बो, मणोहररूवधारिणो मधुरवयणा य एत्थ मग्गतद्विता बहवे
पुरिसा हक्कारेंति तेसि ण सोतव्यं, दुरंतो य पावो दवग्गी अप्पमहिं उन्हबेयच्यो, अणोल्हविज्जतो य णियमेण डहति, पुणो य | द्र दुग्गुच्चपब्बओ उबउत्तेहि चेष लंघेतव्यो, अलंघणे णियमा मरिज्जति, पुणो महतिअतिगुविलगब्बरा वंसकुडंगी सिग्घ लंघेतब्वा, | हैतीम ठिताणं बहुदोसा, ततो य बहुगो खड्डा, तस्समी मणोरहो णाम बंभणो णिच्च सण्णिहितो अच्छति, सो भणति-मणागं |
पूरेह एतन्ति, तस्स ण सोतव्यं, सो ण पूरेतय्यो, सो हु पूरिज्जमाणो महल्लतरो भवति, पंधातो य भज्जिज्जति, फलाणि य एत्थ | दिव्याणि पंचपगाराणि णेत्तादिमुहकारगाणि मणागंपि नो पेक्खितव्याणि ण मोत्तवाणि, बावीसं च एत्थ घोरा महाकराला पिसाया खणं खणमभिवंति तेवि णं ण गणेतव्वा, भत्तपाणं च णत्थि, विभागतो विरसं दुल्लमंति, अपदाणगं च ण कातब्ब,
अणवरतं च गंतव्य, (रचीएवि दोणि जामा सुवियव्वं, सेसदुगं च गंतब्वमेव) एवं च गच्छंतेहिं देवाणुप्पिया! खिप्पामेव अडवी हालंघिजति, लषित्ता य तमेगवदोगच्चवज्जितं तं पसत्थं सिवपुरं पाविज्जति, तत्थ य पुणो ण होति कोति किलसचि, ततो तत्थ
केइ तेणं समं पयट्टा जे उज्जुग पधाविता, अण्णे पुण इतरेण, ततो सो पसस्थि दिवसे उच्चलितो, पुरतो वच्चंतो मम्गं आहणति,
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R OKEN SHASTRA
PR५१०॥
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भाग-4 "आवश्यक" - मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूलं [१] / [गाथा-1 निर्युक्तिः [८८७/८८० - ९०८),
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार व्याख्याया ॥५११॥
सिलासु रुक्खेसु य अक्खराणि लिहति, पंथस्स दोसगुणे, एत्तियं गतं एचियं ससीत विभासा, एवं जे तस्स जिसे वट्टिता ते तेण समं अचिरेण तं पुरं गला, जेवि लिहितानुसारेण सम्भं गच्छति तेवि पार्श्वेति, जेण बुट्टिया ण वा वर्हति छायादिपडिसेविणो तेण पत्ता ण वा पार्श्वेति । गतो य एस दन्नमग्गोवदेसगो, एस दिईतो, एवं भावमग्गोवदेसगा, सत्थवाहत्थाणीया अरहंता उग्घोसणस्थाणीया धम्मका पिंडियत्थाणिया जीवा अडवित्याणिओ संसारो उज्जुग्गो साधुमग्गो को सावगमग्गो पप्पपुरत्थाणीओ मोक्खो. मनोहररुखच्छायात्थाणीओ श्रीगाइसेंस तवसहीओ पडिसडियादिथाणीयाओ अणवज्जवसहीओ अण्णरुक्खच्छायाथाणीयाओवि अंगणाओ विष्णअरसविरसफलथाणी या फागुएसणिज्जा आहारा कुहियथाणीयाणि फागुएसपिज्जाणि पाणियाणि पिन्नुष्णयादिभूमियाथाणीयाओ वसहिभूमीओ सत्थियस्थाणीया साधु वहियथ्यथाणीयं दिवसं सव्वं पठितवं भिक्खाणीहारप डिलेहवज्जं ततिए जामे णिदामोक्खो सीतोसिणादिसहणथाणीयो पव्वज्जाकिलेसो मगतडत्यहक्कारणपुरिसत्याणीया पासत्थकुतित्थियादी अकल्लाणभित्ता देवरगादित्थाणीया कोहादयो कसाया फलथाणीया विसया पिसायथाणीया बाबीसं परिसहा भत्तपाणिएसपिज्जा अपयाणगत्थाणीओ णिच्चुज्जमो पत्ताणं मोक्खसुर्हति । तत्थ य तं पुरं गंतुकामो जणो उपदेसदाणादिणा परमेोबगारी सत्यवाहेति परमविणणं तस्स विदेसे वति बहु मण्णति य एवमादिविभासा । एवं मोक्खत्थीहिं भगवं विभासा । एत्थ गाथाओ
संसाराडवीए० ।। ९-२३ ।। ९०९ ।। सम्मण ।। ९-२४ ॥ ९९० ॥ सम्मण दिडो णाणेण णाओ अक्खरत्थाणीयाणि चोदस पुण्याणि चरणकरण पहतो महापहो जातो सो व्वाणपथो चरणकरणाणि पुण वयसमणधम्मसंजमवेयावच्च च भगुसीओ। पाणादितियं तवकोहणिग्गहादी चरणमेतं ||१|| पिंडविसोधी समिती भाषण पडिमा य इंदियगिरोहो । पडिले
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पदानियीमकत्वं
।।५११॥
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९०९-९१०/९०९-९१२], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
नमस्कार
ठहण गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ॥ २ ॥ तेण कारणेण तित्थकरा महासत्थवाहा जेण पहवे जीवा संसाराडवीए खज्जमाणे यामहागोपत्वं व्याख्यायां
विलुप्पमाणे य सुहसुहेण णेव्वाणपट्टणं पावति । ॥५१२॥ इदार्णि निजामगा, ते य दुबिहा-दवणिज्जाममा भावणिज्जाममा य, तत्थ दव्वणिज्जामए उदाहरणं तहेब घोसणयं
विमासा, तहेव भावणिज्जामएणं उपसंहारोधि ।
मिच्छत्तकालियाचात०९-७१९१३॥ एत्थ वाता अडवण्णेतब्बा, जहा-पादीणवाते दाहिणवाते पदीणवाते उचरवाते.४ है जो उत्तरपुरच्छिमेणं सो सत्तासुतो, दाहिणपुग्वेणं तुंगारो, दाहिणवरेग चीतायो, अवरुत्तरेण गज्जहो, एवं एते अट्ठ पाता । अण्णे वि
दिसासु अट्ठ नेव, तत्थ उत्तरपुग्वेण दोण्णि, तंजथा-उत्तरसत्तासुओ पुरत्धिमसत्तासुओ य, इयरीएवि दोणि-पुरस्थिमतगारो दाहिण-12 दूतुंगारो य, अवरदाहिणे दाहिणवितायो अवरवीतावो य, अवरुत्तरे अबरगज्जभो उत्तरगज्जभो य, एते सोलस पाता।। तत्थ जहा IMI जलहिमि कालियावातरहिते, कालियो नाम णणुकूलो, गज्जभाणुकूलवाते णिउणणिज्जामगसहितो णिच्छिद्दपोतो जदिच्छितं पट्टणं है।
पावेति, एवं मिच्छत्तकालियावातविरहिते सम्मत्तगज्जमपवाते णिज्जामगरयणअमूढमणमतिकण्णधारासहितो जीवो पोतो एगसमएण टू सिद्धिवसहिपट्टण पावतित्ति । एत्थ-णिज्जामगरयणाणं०।९-२८-९१४। तेण कारणेण अरहंता महाणिज्जाममा तहेब विभासा ।। है। दार्णि महागोवत्ति बुच्चंति, तत्थ दव्यगोवा गावीण जाणति, जहिं गुणा इवंति तहिं गति, एवं भावगोवा जाणति, छज्जीय-18॥५१२॥
णिकाया जथ रक्खिजति तथा उवदिसंति, जेण सारक्खति संगोवेति ल्याणवाडगं च पावेति तेण महागोवा । एत्थ गाथा
ॐॐ
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भाग-4 “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९१५-९१६/९१५-९१६], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
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म
नमस्कार
पालेंति जथा०॥९-२९ ।। ९१५ ॥ जीवणिकाया० ॥९-३० ।। ९१६ ।। अहबा जया उवासगदसासु सद्दालपुत्त- महागापत्व पागोसालाण, तंजथा- भगवं महामाहणे जणं उप्पण्णणाणदंसणधरे जणं तीतपच्चुप्पण्णमणागतभावजाणगे जण सदेवमणुका॥५१॥1 सुरस्स लोगस्स अच्चणिज्जे जण्णं तच्चकम्मर्सपयासंपउत्ते तं ण एवं उच्चति-भगवं महामाहणे, तहा सामी महागोचो, जणं XI
* संसाराडवीए मिच्छचनाणमोहितपहाए वहवे जीवे णस्समाणे विणस्समाणे खेज्जमाणे लुप्पमाणे धम्मितं डंडं गहाय सारक्खमाणे
संगोवेमाणे अणुपालेमाणे अणुकंपमाणे जेव्वाणमहावाडं पावेति तं णं महागोवेत्ति । तथा भगवं धम्मकही, जण्ण महतिमहालयंसि |
संसारंसि बहवे जीया णस्समाणे खेज्जमाणे पिज्जमाणे उम्मग्गपडिवण्णे सप्पहविणढे मिच्छत्तमलाभिभूते अट्ठविहकम्मतमपडलपडोमच्छण्णे बहूहिं अद्वेहिं वा हेतूहि य कारणेहि य वागरणेहि य चतुरंतातो संसारकंतारातो साहत्थु णित्यारेति तं गं भगवं महाधम्म
कही। तहा भगवं महासत्थवाहे, जंण भगवं महतिमहालयंसि संसारकतारंसि बहवे जीचे जस्समाणे जाव लुप्पमाणे जाब विलुप्पमाणे धम्ममएण वाहणेणं घम्मिय पत्थाणं देच्चा सारक्खमाणे संगोवेमाणे णिब्याणमहापट्टणं साहत्थि पायेति तणं महासत्थ- 13 वाहे । तहा भगर्व महासंजत्तिए, ज णं महतिमहालयंसि संसारसागरंसि बहवे जीवे मस्समाणे जाव विलुप्पमाणे णिवज्जमाणे
उप्पियमाणे परिप्पवमाणे उम्मग्गपडिवण्णे धम्ममइयाए णावाए सारक्खमाणे सुहंसुहेणं णेबाणमहातीरं साहत्यि पावेति तं महासंलं जत्तए इच्चादि
|५१३॥ ता उबगारित्तणतो० ।। ९-३१॥ ९१७ ।। णिगमणं । अहवा इमाणि कारणाणि जेहिं तेहिं अरिहा णमोक्कारस्सरागद्दोसकसाए० ॥९-३२ ॥ ९१८ ॥ तत्थ रागो ताव 'रंज रागे' रज्जते तेन तस्मिन् वेति रागः, स य दुविहो- दव्य
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भाग-4 “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९१७-९१८/९१७-९२०], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
राग
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नमस्कार रामो य भावरागो य, दपरागो दुविहो-कम्मदव्यरागो य णोकम्मदब्बरागो य, कम्मदव्वरागो रागवेदणीय कंमं वध ताव 31 व्याख्यायादा उदिज्जति, णोकम्मदवरागो दविहो- पयोगरागो वीससारागो य, तंजहा- दस्थ प्रयोग उपाय इत्यनर्थान्तरं, सो यसुभरागोद
निक्षेपाः ॥५१४॥
लक्खारागो हालिद्दरागो एवमादि विभासा, चिससारागो संझाअब्भरुक्खादि विभासा, भावरामो रागवेदणीय कर्म उदिणं | जाए वेलाए वेदेति, सो तिविहो-दिद्विरागो विसयरागो सिणेहरागो, दिद्विरागो-असियसयं किरियाणं अकिरियवादीणमाहु चुल
सीती । अण्णाणिय सत्तट्ठी वेणइयाण च बत्तीस ॥ १॥ स्वकीयायां दृष्टौ रक्ता घेते, यतो-जिणवयणवाहिरमतिमूढा णियरिस-6 vणागुरागेण । सवण्णुकहितमेते मोक्खपहं ण प्यवति ॥१॥ बिसयरागो णाम यो यस्मिन् शब्दाचे विषये रक्तः २ सिणह-12
रागो नाम यो यस्मिन् भावे मूञ्छितो, तत्थ सिणेहरागे उदाहरण| खितिपतिद्वयं णगरं, तत्थ दो भाउगा. अरहण्णओ अरहमित्तो य, महन्तस्स भारिया खुलए रत्ता, अन्भत्थेति, सा बहुसो| 3/उवसग्गेति, भणति- किं ण पेच्छसि भाउतं मे, ताहे विसेण मारेत्ता भणति इत्थं- संपर्य इच्छ, सो तेण णिब्वेदेण पब्बइतो, साधू द जातो, सा अट्टयसट्टा मरिचा सुणगी जाता, साधुणो य तं गामं गता, सुणियाए दिट्ठो, ताहे तस्स मग्गामग्गि सा उवसग्गेति, | रतिं गट्टो, तत्थ मया मक्कडी जाता अडवीए, तेवि कम्मधम्मसंजोगणं तीए अडवीए मझेण बच्चति, तीए दिट्ठो, ताहे कंठे
लग्गा, तत्थवि किलेसेण पलातो, तत्थ मता जक्खिणी जाता, तं ओधिणा पेच्छति सा, तत्थ छिदाणि मग्गति, सो अप्पमत्तो, ॥५१॥ दो सा छिदं ण लभति, सा सव्वादरेण तस्स छिदं मग्गति, एवं च जाति कालो, तस्स य जे सरिसब्यया समणा ते हसितूणं तरुणा
भणति- धण्णोसि अरहमित्ता! जैसि पिओ सुणयमक्कडाणं च । सोभग्गस्स पढागो तुमे हितो जीवलोगस्स ।। १ ।। अण्णदा सो
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भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
आयं (१११...]
अध्ययनं H मूल [१] / [गाथा-], निर्मुक्तिः ९१७-११८/११७- २२०.
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार व्याख्यायां ॥५१५॥
साधू विवरयं उचरति, तत्थ य पादविक्खंभं पाणियं, तेण पादो पसारितो गतिभेदेणं, तत्थ य देवयाए छिदं लभिङगं उरू छिण्णो, सो भणति मिच्छादुक्कर्ड मा आउक्काए पडितो भोज्जत्ति, अण्णाए सम्मदिट्टियाए दिट्ठा, सा धाडिता, तहेव सप्पदेसों लइतो, रूढो य देवतापभावेणं, अण्णे भांति - भिक्खाए गतस्स अण्णं गामं गतस्स ताए वंतरीए तस्स रूवं छाएत्ता तस्स रूवेणं पंथे तलाए ण्हाति, अण्णेर्हि दिट्ठो, तेहिं गुरूणं सिई, आवस्सए आलोएहि अज्जोति भणितो, सो उवउत्तो मुहणंतगादि, भणतिन संभरति खमासमणो!, तेहिं पडिभणिओ भणति णत्थित्ति, आयरिया अणुवह्नितस्स पायाच्छत्तं ण देति, सो चिंतेति किं किं वेत्ति, सा उवसंता, साहति य-मए कर्तति, साबिगा जाता, आदितो आरम्भ परिकहेति ।। एस तिविहोवि अप्पसत्थो, तस्स अप्पसत्थस्स इमा णिरुती रज्जति असुतिकलिमलकुणिमाणिट्ठेसु पाणिणो जेणं । रागोति तेण भण्णति जं रज्जति तत्थ रागत्थो || १ || पसत्थो रागो-अरहंतेसु आयरिसु सुस्सुतबहुस्सुते या पवयणे एवमादि, अह रागो कि बट्टति १, आयरिया आह-कहिवि बति, उक्तं चपुणस्सासव हेतू अणुकंपासुद्धए बहिययोगो । विवरीतो पावस्सति आसवहेतू वियाणाहि ॥ १ ॥ दितो अगडखणएणं, जदिवि अजुत्तं किंचि पत्थरागणिमित्तं पुष्णं बंधति तंपि अगडखणणदितेणं सधं विसोहेति, जथा लित्ते (चित्तं) तत्थेव धावेति, अरइंतेसु य रागो रागो साधूसु बंभयारीसु । एस पसत्यो रागो अज्ज सरागाण साहूणं ॥ १ ॥ जेहिं एवंविहो संसारपकडओ रागो णामितो ते अरिहा । इदाणिं द्वेषः, 'दुप वैकृत्ये' 'द्विष अप्रीती वा' सो दुविधो-दब्बदोसो भावदोसो य, दम्बदोसो दुविधो, कम्मूदव्यदोसो णोकम्मदच्वदोसो य, कम्मदव्वदोसो दोसवेदणिज्जं कम्मं बद्धं ण ताव उदयं देति सो कम्मदब्बदोसो, गोकम्मदव्वदोसो दुई बिलं दुट्ठा रुगा दुट्टा छुधा एवमादि, भावदोसो दोसवेदणिज्जं उदिष्णगं, तस्स इमाणि णिरुचाणि हितकज्जसुगरमग्गं दुसओ
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स्नेहरागे अरहस्रकदृष्टान्तः
।।५१५॥
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९१७-९१८/९१७-९२०], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
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नमस्कार 18 णाणाइअधम्मस्स । दोसो सो णादग्यो सम्बासुभमूलकम्मं तो ॥१॥ जो सो असंतिकरणो अणवसमो घातओ असंपत्ती ।। द्विषनिक्षेपाः व्याख्यायां दादोसो सो णायचो, कोधो माणो य से भेदा ॥२॥ दूसेती दसयती जम्हि य दुसज्जितित्ति पुण दोसो। अहवा संसारसुहस्स XI दूसओ भण्णती दोसो ॥३॥ एसो अपसत्थो दोसो, पसत्थो दोसो अण्णाण अविरती मिच्छत्तं च दूसेति, संसार विसए य जं
दृष्टान्त: ४. द्विषति । तत्थ अपसत्थदोसे उदाहरणंहै। दो णाविओ, गंगाए लोग उत्तारेति, तत्थ य धम्मरुयी णाम अणगारो एति, सोवि णावाए उत्तिण्णो, जणो मोल्लं दातूण
गतो, साधू रूद्धो, फिडिया भिक्खावेला, तथावि ण विसज्जेति, सो बालुयाए उण्हे छुहाइओ तिसाइओ य रुट्ठो, तेण रु?ण जोइओ, | ४. सोवि दिट्ठीविसलद्धिओ, रुद्रुण जोइओ मतो एमाए - सभाए घरकोइलो जातो, सोवि किर एवं केणवि कहिंचि रोसियओ, सो | ₹ साधू विहरंतो तं गामं गतो, भिक्खं समुद्दाणेचा तं सभं गतो, भोत्तुमारद्धो, तेण दिट्ठो, सो त पेच्छंतो चव आसुरुत्तो, साधू &
भोत्तुमारद्धो, सो तस्स उवरिं कयार पाडेति, साधू अण्णपासं गतो, तत्थवि एवं चेव करेति, सो साधू कहिचिवि ओबास ण | लभति, सो तं रुट्ठो पलोएति-कोरे एस णाविगणंदमंगुलोत्ति दड्डो, जत्थ समुद्दे गंगा पविसति तत्थ बच्छरे २ अण्णण मग्गेण | बहति, चिराणगा जा सा सा मतगंगा भण्णति, तत्थ हंसो जातो, सोवि माहमासे सत्थेण समं पाभातियं जाति, तेण दिट्ठो, S पाणियस्स पक्खे भरितण सिंचति, तस्थवि उद्दविओ, पच्छा सीहो अंजणपब्बते जातो, सोवि सत्येण समं तं पदेस वितीवयति,131 सीहो तं साधु दह्ण उद्वितो, सस्थो भिज्जति, सोवि साधु ण मुंचति, तत्थचि दद्धा सतो वणारसीए बडओ जातो, तत्थवि तंI
I ||५१६॥ साधु भिक्खं हिंडतं अण्णेहिं चेडरूवेहि सम भणति, धूलि च छुभति, रुद्वेण दड्वो, तत्थेव राया जातो, जाति सरति, सब्बाओ
SEARSAॐ ॐॐ
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भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९१७-९१८/९१७-९२०],
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्यायां
॥५१७॥
तिरियजातीओ असुभाओ संभरति, ताहे चितेति-जदि संपदं मारेहिति तो बहुगं फिट्टो भवामित्ति, ताहे तस्स जाणणाणिमित्तं समस्से लंबेति, जो एवं पूरेति तस्स रज्जस्स अद्धं देमि, तत्थ इमो अत्थो 'गंगाए णाविओ दो, सभाए घरकोइलो । हंसो मतंगतीराए, सीहो अंजणपव्वते ।। १ ।। वाणारसीय बहुओ राया वत्थेव आहतो' एवं गोधा पति, अण्णदा सो साधू विहरंतो आगतो, उज्जाणे ठितो, आराधिओ य, पढति, साधुणा पुच्छितो सो साहति, साधुणा भणितं अहं पूरेमि, 'एतेसिं मारओ जो सो, भवओ देसमागतो' सो आरामितो तं पाढं घेतु रण्णो पासे आगतो पढति, राया तं सुणेचा मुच्छितो, सो हम्मति, सो भणति हम्ममाणो कव्वं का अहं ण याणामि। लोगस्स कलिकरंडो एसो समणेण मे दिष्णो || १ || राया आसत्थो वारेति पुच्छिओकेण कओत्ति ?, साहति- समणेणंति, राया तत्थेव मणूसे विसज्जति, जदि अणुजाजह तो वंदतो एमि, अह भणति - जथासु, सो आगतो, सङ्को जातो, साधूवि आलोइयपडिकंतो सिद्धो । एवं संसारवद्धणो दोसो जेहिं णामितो ते अरिहा । एत्थ रागदोसा णयेहिं मग्गितच्या गमो संगहे बवहारे य पविट्टो, संगहस्स कोघो माणो य दोसो, माया लोभो य रागो, बबहारस्स तिष्णिवि आदिमा दोसो, लोभो रागो, उज्जुसुतस्स कोधो दोसो, माणो माया लोभो य णवि रागो ण य दोसो, भयितव्या, तिन्हं सदणयाणं कोधो य दोसो माणो दोसो माया दोसो, लोभो सिय रागो सिय दोसो ।
कसाया इदाणिं, कसंवित्ति कसाया, 'कष गतौ' या अप्रशस्ता गतिः तां नयंतीति तेन कपायाः, अथवा शुद्धमात्मानं कलुषीकरोतीति कषायः, तेसिं अट्ठविधो गिक्खेवो णामकसायाठवणदव्वसमुपतिपच्चयादेसे। रसभावकसाए या णयेहिं छहिं मग्गणा तेसिं ॥ १ ॥ हवति उदिष्णुवसंतए बज्न उदिरिज्जमाणए भावे । पाणियरातीमादी कालो य गती चतुण्डंपि ॥ २ ॥ एत्थ णयेहिं
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धर्मरुचिदृष्टान्तः
।।५१७॥
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप अनुक्रम
[१]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
अध्ययनं H मूल [१] / [गाथा-],
निर्मुक्तिः ९१७-११८/११७- २२०. आयं [१११...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार व्याख्यायां ॥५९८॥
मम्गणा-गमो सथ्येवि इच्छति, संगहवबद्वारा आदेसं उप्पत्तिं च गच्छति, उज्जुसुतो आदेसं समुप्पत्तिं च ठवणं च णेच्छति, तिण्डं सद्दणयाण णामकसायो भावकसायो एते वत्थू, सेसा अवत्थू णामदुषणाओ गताओ, द्व्यकसायो दुद्विहो-कम्मदव्यकसाओ णोकम्मदव्यकसायो य, कम्मदव्यकसायो कसायवेदणिज्जं बद्धअणुदिण्णं, णोकम्मदब्वकसायो सज्जकसायो लिकसायो य एवमादी, समुप्पती जण्णिमित्तं कसाओ उप्पज्जति, जथा-कडे अफिडितो कट्टो कसायो, एवं जत्थ जत्थ किं एत्तो कट्टतरं जम्मूढो खाणुमि आवडतो । खाणुस्स तस्स रूसति ण अप्पणो दुप्पमादस्स || १ || पञ्चयकसायो नाम जदि पुचबद्धो पच्चया ण होज्जा ता ते णोदेज्जा, यथा- इह इंधने असति अग्नेः प्रज्वलनाभावः, आदेसकसाया णाम जथा केतवेण सदट्टो मिउडी कसायमंतरेणावि तथा आदिश्यते एवंविध इति, रसकंसायो कविडादी भावकसाया चचारिवि उदिण्णा कोधादी तस्स कोधस्स णिक्लेवो चउब्विधो, दोण्णिवि गता, णोकम्मदव्यकोधो चम्मारकोधादी, कम्मदव्वकोधो चउब्विहो- अणुदिष्णो उसंतो वज्स्माणो उदीरिज्जमाणो अणुदिष्णो जो ण वेदिज्जति, उवसंतो जो य उबसामिओ, बज्झमाणो तप्पढमताए, उदीरिज्जमाणो उदीरणावलियापविट्टो ण ताव वेदिज्जति, भावकोहो उदिष्णो, तस्स चत्तारि विभागा-उदगरातिसमाणो वालुय० पुढचिरातिसमाणो पव्वयरायसमाणो, उदगे कविता अनंतरं, वालुयाएं दिवसेहिं केहिवि, पुढवी केहि छहिं मासेहिं, पव्वतो जावज्जीबाए, जो ताए बेलाए उवसमति सो उदगरातिसमाणो, पक्खिए बालुया, चाउम्मासियाए पुढवी, संवत्सरिए बोलीणे जो ण उवसमति सो पव्वतराति देवगतिमणुयतिरियनरपसु गच्छति यथासंख्य कोबोदरणं, कोवेति तत्थ उदाहरणं
"
वसंतपुरे उच्छिण्णवंसो एगो दारओ देसतरं संकममाणो सत्थेणं उज्झितो तावसपल्लि गतो, तस्स णामं अग्गियओति, तान
(227)
कषाय
निक्षेपाः
॥५९८॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९१७-९१८/९१७-९२०], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
नमस्कार & सेणं संवड़ितो, जमो णाम तावसो, जमस्स पुत्तोशि जम्मदग्गितो, सो घोरागारं तवच्चरणं करेति, विक्खातो जातो। इतो य
क्रोधेजमव्याख्यायो देवा वेसाणरो सड़ो धनतरी तावसभचो, ते दोचि अवरोप्परं पण्णवति, सो तावसमचो भणति-परिक्खामो, सड़ो भणति-121
दादग्न्यादिः ॥५१॥ जो अम्हं सव्वंतिमो जो य तुम्भ सम्वप्पधाणोचि परिस्खामो। इतो य मिहिलाए णगरीए तरुणधम्मो पउमरहो राया, सो य पव
चति वासुपुज्जसामिस्स मूले पव्वयामित्ति, तेहिं सो परिखिज्जति भत्तण पाणेण य, पंथे य विसमे,सुकुमालओ दुक्खाविज्जति, 31 अणलोमे य ते उबसग्गे करेंति, सो धणिततरागं थिरो जावो, सो तेहिं ण खोभितो, अण्ण भणति-सावओ भनपच्चक्खाइओति द्रसिद्धपुत्तरूपेण गता अतिसए साहंति, भणंति जथा- चिरं जीवियचति, सो भणति- बहुओ धम्मो होहिति, ण सक्कितो । गतो|
जमदग्गिस्स मूलं, सउणरूवाणि कताणि, कुच्चे से घरओ कओ, सउणो भणति-भद्रे! अहं हिमवंतं जामि, तुम अच्छ, सा ण देति, ४ मा ण एहिसित्ति, सो सवहा करेति गोघातकादि जथा एमिति, सा भणति ग एतेहिं पत्तियामि, जदि एतस्स रिसिस्स दुक्कयं पियसि ता विसज्जेमि, सो रुट्ठो, तेहिं दोहिवि हत्थेहिं गहिताणि, पुच्छिताणि भणति- महारिसि! अणवच्चोसित्ति, सो भणति
सच्चर्य,खोभिओ,देवो सावओ जातो। इमोवि ताओ आतावणाओ उत्तिण्णो मिगकोटुगंणगरं गतो,तत्थ जियसत्तू राया, तस्स सगासं ४ गतो, राया उद्वितो किं देमित्ति, तेण मणितं- धृतं वि(मे)देहित्ति, तस्स धूतासतं, रण्णा भणितो-जा तुन्भे इच्छति सा तुम्भंति, सो
कष्णतेपुरं गतो, ताहिं दट्टण णिच्छूट, किंण लजिसित्ति य मणितो, तेण रुद्रुण ताओ कुज्जिताओ कताओ, तत्थेगा रेणूएल ५१९॥ | रमति तस्स धूता, तीसेऽणेण फलं पणामित, इच्छसित्ति य भणिता, ताए हत्थो पसारितो,सो भणति-एसा मर्म इच्छतित्ति गहिता, खुज्जाओ उपद्धिताओ सल्लीरुवओ दायब्वोत्ति, सो भणति-ममं णत्थि, ताहिवि मणिओ-विखुज्जीकरेहि, विखुज्जीकताओ, इतरी
दीप
अनुक्रम
ॐBE
(228)
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[3]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९१७-९१८/९१७-९२०],
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्यायां
1142011
वि आसमं नीया, रण्णा सगो परिजनो दिण्णो, संघडिता, जाहे सा जोव्वणपत्ता जाता ताहे विवाहो कतो, अण्णदा उर्दुमि जमदग्गिणा भणिता अहं ते चरुं साहेमि जेण ते पुत्तो वंभणो पधाणो होति, तीए भणितं एवं कज्जतुति, मज्झ य भगिनी हरिथणापुरे नगरे अणंतवीरियस्स भज्जा, तीसेवि साहेहि खत्तियचरुंति, तेण साहितो, सा चिंतेति अहं ताव अडवीमिगी जाता, मा मे पुत्तोवि एवं णासतुति तीए खत्तियचरुओ जिमितो, इतरीएवि बंभणचरू पेसितो, दोन्हवि पुचा जाता, ताए रेणुगाए रामो इतरीए कत्तवीरिओ, सो य राम्रो संवद्धृति, अण्णदा दो विज्जाहरा तत्थ समोसढा, तत्थ एगो पडिभग्गो तंमि आसमे, सो रामेण पडिचरितो, तेण से तुट्टेण परसुविज्जा दिण्णा, सरवणे छूढो अच्छति, तत्थ सरवणे साधिता, अण्णे भणति जमदग्गिस्स परं परागता परसुबिज्जा, सो रामो तेण पाढितोति, सा रेणुका भगिणीवरं गता, तेण रण्णा सद्धि संपलग्गा ससुता जमदग्गिणा आणिता, रुट्ठो, सा रामेण सपुत्तिया मारिता, सो य किर तत्थेव ईसत्थं सिक्खति, तीए भगिणीए सुतं रण कहितं, सो आगतो, आसमं विणासेत्ता गावीओ घेण पधाविओ, रामस्त कहितं तेण धावितूण परसुणा मारितो, अनंतवी रियपुतो कन्तविरितो राया जातो, तस्स देवी तारा, अण्णदा से पितुमरणं कहियं, तेण आगंतुं जमदग्गी मारिओ, रामस्त कहितं, तेणागतेणं जलतेनं परसुणा कसविरितो मारितो, सयं चैव रज्जं पडिवण्णो । इतोवि सा तारादेवी तेण संभमेण पलायंती तावसासमं गता, पडितो य से मुहेण गन्भो, तेहिं से णामं कर्त सुभोमोति, अण्णे भणति भूमिघरे संबद्धितो जातो यति सुभूमो जातो, रामस्त य परसू जहिं जहिं खतियं पेच्छति तस्थ तत्थ जलति, अण्णदा तासासमस्स पासेणं वीतिवयति जाव परसू उज्जलितो, सो ताबसासमं गतो, ताबसा भणति अम्हे च्चिय खत्तिया, तेण रामेण सत्तवारा णिकूखत्तिया पुढवी कता, दाढाणं च थाले भरितं एवं
(229)
क्रोधे जम
दग्न्यादिः
॥५२०॥
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९१७-९१८/९१७-९२०], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
साकिर रामेण कोवेणं खत्तिया पहिता, परिसो कोधो दुरंतो जेहिं णामितो ते अरिहा ।
माने व्याख्यायां है माणो चउबिधो- कम्मदव्य तहेब णोकम्मे जाणि दुण्णामाणि दव्वाणि, भावओ उदिण्णो, तत्थ माणस्स चत्वारि विभागा
सुभूमा ॥५२२॥
तिणिसलतासमाणो दारुर्थभसामाणो अट्ठियंमसामाणो सेलथंभसामाणो, तहेव उवबातोपि, तत्थ उदाहरणं-मुभोमो तत्थ संवडति, इतरोवि, विज्जाहरसेढीए मेहरहो नाम विज्जाहरो, तस्स धूता पउमसिरी, ताए धृताए कृष्णाकालो, संभिण्यसोतं णाम णेमिचियं पुच्छति- को पउमसिरीए वरो भविस्सति ?, सो भणति- सुभोमणामचकिस्स भज्जा भविस्सात, सो कहिं ?, तावसासमे भूमिघरे संवड्वति, एवं सुणेत्ता विज्जाहरो आगतो, तदप्पभिति मेहरहो सुभोमं ओलग्गति सव्वत्थ रक्खति अष्णपाणादीणि य से देति । एवं सो विज्जाहरपरिग्गहितो संबड्डति, अण्णदा विसादादीहिं परिखिज्जति । इतो य रामो मित्तियं पुच्छति-कतो मम विणासो होहितित्ति , तेण भणितो- जो एत्थ सीहासणे णिवेसिहिति एयाओ य दाढाओ पावसीभूता
ओ जो खाहिति ततो ते भयं णिच्छयं कतं, तत्थ सीहासणं धुरे ठवितं, दाढाओ य से अग्गओ ठविताओ, एवं कालो बच्चति । | इतो य सुभोमो मातं पुच्छति- किं एचिलओ चेव लोगो ? अण्णोवि अथिति, ताए सवं कहितं, ता मा णीसरिहिसि, मा मारािज्जाहिसि, सो अण्णदा रममाणो हथिणपुरं गतो तं समं, तत्थ सीहासणे उवविट्ठो, देवता रडिऊण गड्डा, ताओ दांढाओ IM॥२२॥ परमनं जातं, तो तेवि माहणा कट्ठादीहिं पड़ता, तेहिं विज्जाहरेहिं ताणि कट्ठाणि तेसिं चेव उवरिं पाडिज्जंति, सो वीसत्थो भुंजति, रामस्स कहितं, रामो सण्णद्धो आगतो, परसु मुपति, विज्झाइओ, इमो तं चेव थालं गहाय उद्वितो, चक्करपणं जातं,
दीप अनुक्रम
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९१७-९१८/९१७-९२०], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
नमस्कार | तेण रामस्स सीसं छिण्णं, पच्छा तेण सुभोमेण माणेणं एक्कवीसं वारा णिव्यंभणा पुहबी कता, गम्भा य फालिया, एरिसो व्याख्यायां हादरतो माणो जहि णामितो ते अरिहा णमोक्कारस्स ।
माया चउबिधा- कम्म० तहेव णोकम्मे जाणि णिधाणपउत्ताणि दव्वाणि, भावमाताए इमे विभागा- अवलेहणिया गोमु॥५२२॥
तिया मेंढविसाणं वसीमूलं, गतीओ तहेव, मायाए उदाहरणं पंडरज्जा, जथा तीए भत्तपच्चक्खाइताए पूयानिमित्तं लोगो आचा1 हितो, आयरिएहि य णाए आलोयाविया, ततियं च वारं णालोयितं, भगति य-एस पुन्वब्भासेण आगच्छति, सा य मायासल्लदोसेण किबिसिणी जाता, एरिसी दुरंता मायति। अहवा सुयगो-एगस्स खतस्स पुत्तो खुडओ,सो मुहलालियए जाव अविरतियत्ति खंतेण धाडिओ, सो लोगस्स पेसणं करेंतो हिंडितूण अवसट्टो मतो रुक्खकोटरे सुतओ जातो, सो य अक्खाणगाणि धम्म-| कहाओ य जाणति जाइसरतणेणं, पढ़ति, वणयरएण गहिओ, तेण पादो कुंठिओ अच्छिं च काणं कतं, बीधीए उडवितो, ण| कोई इच्छति, सो तं सावगस्स आवणे ठविचा मुल्लस्स गतो, तेण तस्स अंतिए अप्पओ जाणाविओ, तेण कीतो, पंजरए छढो, ।
सयणो से मिच्छदिडिओ, तो तेसि धम्म कहेति, ताणि उवसंताणि, अण्णदा तस्स सङ्घस्स पुत्तो माहेसरधूतं दळूण उम्मत्तो जातो, | तेण सब्वे तदिवसं धम्म ण सुणेति,णेव पच्चक्वायति तेण पुच्छियं, तेहिं सिह,सो भणति-सुत्थाणि अच्छह,तेण सो दारओ सिक्ख-IN सावितो - सररक्खाणं दुक्काहि ठिकिरियं च अच्चेहि, ममं च पच्छतो इट्टं उक्खणितूण णिहणाहि, तेण तहा कत,
सो य सरक्खसट्टो पायपडियो विष्णवेति, जथा-धीयाए मे वरं देहि, मुअतो भणति- जिणदासमाहेसरस्स देहेति, तेण दिण्णा. सा गवं वहति, जथाऽहं देवदिण्णा, अण्णदा तेण हसितं, णिबंधे कहित, सा तस्स अमरिसं यहति, संखडीए बक्खित्ताणि, हरति,
दीप
अनुक्रम
५२२॥
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
[१]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
अध्ययनं H
आयं [१११...]
मूल [१] / [गाथा-],
निर्मुक्तिः ९१७-११८/११७- २२०.
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार व्याख्यायां
॥५२३॥
भणति तुमंसि पंडियओत्ति पिच्छं उप्पाडितं पुणवि आढतो, सो चितेति कालं हरामि भगति णादं पंडितओ, सा महाविती पंडितिया । एगा महाविती, कुरं छतं ति, चोरहिं महिता, सा भणति अहंपि एरिसे मग्गामि रति एह तो रूबते लता जाईहामो, ते यागया, ताए वातकाणरण णक्काणि छिण्णाणि, अण्णे मणंति खत्तमुद्दे सुरेण छिण्णाणि वितियदिवसे पुणो गहिया सा, सीसं कोती भणति केण तुम्मेति, तेहिं समं पधाइया, एगंमि गामे भत्तं आणमित्ति कलालकुले विकीया सा, ते रूपए बेतण पलाता, विं रुक्खं विलग्गा, तेवि पलाता ओलग्गंति, ते गावीओ हरितूण तत्थेषं आवासिता रुक्खडे वीसमति मंसं च खावीत, एको मंसं घेत्तृण विलग्गो रुक्खं दिसाओ पलोएति, तेण दिट्ठा, सा से रूपए दाएति, सो दुको, तीए जिम्माए दंतेहिं गहितो, तेण पडतेण एसति भणिए इतरे आसत्ति काऊण गट्ठा, इतरा मोस घे घरं गता सा पहाविती पंडितिता, नाहं पंडितओ । ताए पुणोऽचि लोमं उक्तं पंडियओसित्ति, भणति णाहं पंडियओ पहाविती पंडिता, पुणरवि वितिया व्हाचिता भणिता । तहा लोक्खणणेण तुमं पंडितो, सो भणति णाहं पंडितो सा वाणियदारिया पंडितिया कई ?, वसंतपुरे एगो बाणियओ, तेण अण्णवाfree समं पणिययं छष्णं माघमासे जो रतिं पाणिए अच्छति तस्स सहस्सं देमि, सो दरिद्दवाणियओ अच्छितो, इतरो विवेतिकि एरिसे एसो सीते अच्छितो १ ण य मतोति, सो तं पुच्छति, भणह-- एत्थ नगरे एगत्थ दीवओ जलति तं अहं णिहालितो अच्छितो, देहि तं सहस्संति, इतरो ण ठितोति भणति ण देखि, किं कारणंति, तुमं दीवकप्पभावेण अच्छितो, इतरो न लद्धति अद्धितिं पत्तो घरं गतो, तस्स य घीया कुमारी, ताए भण्णति तात ! किं अद्धिति करेह १, सो भणति णिरत्वयं अहं पाणिमज्झे अच्छितोति सा भणति मा अद्धिति करेह, उण्हकालए आगते भत्तं कीरतु णिमंतिज्जतु य अण्णेहिं वाणियएहिं समंति, जेमेंताण
(232)
मायायां शुकवृतं
॥५२३॥
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप अनुक्रम
[3]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९१७ - ९१८/९१७-९२० ],
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्यायां
॥५२४॥
य चक्खुपहे पाणियं ठचिज्जतु जदा तिसिओ पाणियं मग्गति ताहे भणिज्जह एतं पाणितंति, तेण कर्त भत्तं, णिमंतिया य जिमिता, ताहे तेण पाणियं मग्गितं, सो भणति - एतं पाणियं पेच्छिज्जतो ते तिसा णस्सतु, सो भणति - किह पेच्छं तस्स तिसा णस्सति ?, इतरो भणति जदि तुज्झ पाणियं पेच्छंतस्स तिसा ण णस्सति तो ममं दीवगं पासंतस्स किह सीतं णत्थिति भणति, जितो दवावितो य दीणारसहस्सं । सो चिंतेति-एसो णिब्वित्राणो केण एतस्स बुद्धी दिण्णा १, कहियं से जथा घीयाएत्ति, सो तीसे पदोसमावन्नो, सो तं रोसेण दारियं वरेति, पिता से ण देति-मा मस्सातियाए दुक्खियं काहेतित्ति, इतरीए पिता भणितो- देहि मम एतस्स, किं मारेज्जत्ति?, दिण्णे इतरे घरे कूर्व खणावेंति, दारियाए भणियं गवेसह किं मज्झ घरे वडति १, गविद्धं सिद्धं जहा कृवं खणंति, ताहे ताएवि सगिहाओ आढता सुरंगा ताय खणाविता जाव से कृबो, ताव से परिणीया, तेण परिणेत्ता कुबे छूढा, कप्पासस्स सयभारो दिण्णो, भणति य-तुमं किर पंडितिया किह ते सांप्रतं?, पच्छा भणतिअहं दिसाजताए जामि, तो तेण कप्पासेणं कचिएणं तिहि य पुत्तेहिं ममं जातएहि जह एमि तह करेज्जासि, घरे यणेण संदिट्ठेजहा एताए कोदवसेतियाए क्रूरं कंजितं दिवसे २ देज्जहति गतो, सात्रि सुरंगाए पितुघरं गता भणति एतं सुतं करेह भत्तगसेतियं च पडिच्छह, अहमवि गच्छामिति गणियावेसेणं गता पुरतो एगत्थ नगरे, तत्थ भाडएणं घरं गहियं, सोवि तीए उवचितो, णियघरं णीतो, सो तं पुच्छति तुमं का कष्णगा ? सा भणति अहं पुरिसद्वेषिणी, तुमं मम भावितो, सो तीए आराहितो, बहाणे य वरिसाणि ताए समं अच्छति, पुत्ता य तिभि जाता, दवं चणाए सव्वं आकड्डितं, अण्णदा वाणियओ पडिएति, सावि तेणेव सत्थेण पडियागया, अग्गतरागं पितिघरं गता, सुत्तं गहाय पुत्ते य सुरंगाए तमेव कूर्व गता ठिता, वाणियओवि सगिहं
(233)
मायायां शुकवृत्तं
॥५२४॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९१७-९१८/९१७-९२०], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
+
प्रत
सूत्रांक
नमस्कारगतो, सा यऽणेण संभरिया, किरा य से जाता, ताहे पुच्छति-तं भत्तग कोपि एत्थ पडिच्छति ?, तेहिं कहितं-जहा पडिच्छति, ताहेमायायां व्याख्यायो रज्जए आसंदतो उत्तारिओ, पढम सुत्तं उत्तारियं, पच्छा पुनो, पुणो वितियओ, ततियएण सहप्पणा ओतिष्णा, ताहे सो तुट्ठो, 11
दागिहसामिणी कता । एवं सा पंडिया, णाई, लोमं तहेब जाव कोलमिणि पंडितिता, किह - एगा कोलिगिणी कुमारी, तीसे माता॥५२५॥
पितरो गाम गताणि, सा एकलिया अच्छति, चोरो य गिह पविट्ठो, सा अप्पणो परिपदणयं करेति-अहं मातुलपुत्तस्स दिज्जि17 हामि, तो मम पुत्तो जाहिति, तस्स चंदआत्ति णाम कज्जिहिति, तो अहं सदावेंस्सामि-एह चंद्रा, तं सुणेचा सएज्झगचंदो द सदं करेंता आगतो, चोरी गट्ठो, सा पंडिया पाहं । पुणो भणति-सा कुलपुत्तगदारिया पंडिता, कहं १, वसंतपुरं णगर जियसत्तू सराया, तस्स कुलपुत्तओ, तस्स कूलधूता, राया मणति, जथा- जो ममं असंतेण पचियावेति तस्स भोग देमि, सो कुलपुत्तो ४. अण्णदा ओमूरे घरं गतो, धूता पुच्छति- किं ओसूरे आगतत्ति, तेण सिहूं, राया भणति- जो असंतेण पत्तियावेति तस्स भोग दादेमि, तेण ओमरो जातोत्ति, सा मणति- अहं पत्तियावेमि, तेण रनो मुलं नीता, सा रबो अक्खति- अहं बडकुमारी, अण्णदा
मातुलपुत्तस्स दिण्णा, मम य माता पिता पबसिता, सो पाहुणओ आगतो, हिदएण ममंति किण्ण करेमि', ताहे पाहुणं कर्त, सो| दय रतिं सप्पेण खइतो, मतो, णीतो मए सुसाणं, तत्थ सिवादीणि भीमाणि उहिताणि, राया भणति- कई ण भीता, सा8
भणति जति सच्चं होतं, जितो राया, वाणियदारिया णेपुरइतिया सा पंडितिया विलक्खाइया य, एवमादीणि पंचअक्खाणगस- | ॥५२॥ ताणि अक्खाति, रची विगता णिप्पिच्छितो मुक्को, सेणेण गहितो, दोण्हं सेणाण भंडताण असोगवणियाए पडितो पेसिल्लियपुत्तेण दिडो, तेण भणितो- संगोवाहि अहं ते कर्ज काहामि, वेण संगोवितो, अण्णस्स रज्जे दिज्जमाणे भिंडमए मयूरे विलग्गऊणं रत्रिं
दीप
अनुक्रम
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९१७-९१८/९१७-९२०], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक [-]
S TERBASICS
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार राया मणितो-पेसिल्लियपुत्तस्स रज्ज देहित्ति, रण्णा दिण्णं, सूतएण सत्त दिवसाणि भग्गिय रज्ज, ते दोवि कुलाणि पव्वाविताणि-18 मायायां व्याख्यायांत बाद सडकुलं माहेसरकुलं च, तेण सूयएण भत्त पच्चक्खाय, सहस्सारे उचवष्णो ।
सागअहबा सव्वंगसुंदरित्ति, वसंतपुरं णगरं, जियसत्तू राया, जियवत्ति धणावहा भातरो सट्ठी, धणसिरी य तेसि भगिणी, ||५२६॥
सुंदरी 18 सा य बालरंडा परलोगरता य, पच्छा कप्पागयधम्मघोसायरियसगासे पडिबुद्धा, भातरोवि सिणेहेण सह पव्वतितुमिच्छंति, ८ ते संसारणेहेण ण देति, सा य धम्मवयं खद्धं खद्धं करोति, भातुजाताओ य कुरकुरायंति, तीए चितिय- पेच्छामि ताव भातुगाण
चित्त, कि मे एताहिति?, पच्छा णियडीए आलोइडण सोवणगपवेसकाले वीसत्यं बहुं धम्मगयं पितूण ततो णडतुडेण जहा से भापता सुणेति तहेगा भाओज्जातिया भणिता- किं बहुप्पा ? साडियं रक्खज्जासि, तेण चिंतिय- Yणमेसा दुच्चाणित्ति, वारियं च
भगवता असतीपोसणंति, ततो ण परिहवेमिति पल्लंके उबविसंती निवारिया, सा चितेति- हा किमेतंति , पच्छा तेण भणियंजाघरातो मे णीहि, सा चितेति-
किंमए दुक्कडं कतति ?, प किंचि पासति, ततो तत्थेव भूमीगयाए किच्छेण णीता रतणी, पभाते ओलुग्गंगी णिग्गता, धणसिरिए भणिया-कीस ओलग्गंगित्ति सा रुयती भणति-ण याणामो अबराहं गेहाओ य | धाडिया, तीए भण्णति- बीसत्था अच्छाहि, अहं ते भलिस्सामि, भाता भणितो- किमेयमेवंति ?, तेण भणियं- अलं मे दुसीला-11 |ए, तीए भणितं-कह जाणासि ?, तेण भणिय-तुम्भ चेव सगासाओ, सुता मे देसणा णिवारणं च, तीए भणियं- अहो ते पंडिय-151 लात्तणं बियारक्खमयं धम्मयापरिणामो, मए सामण्णेण बहदोसमेतं भगवया माणत तास उवादहूँ वारिया य. किमेतावतेवा
दुच्चारिणी होति, ततो सो लज्जितो भिच्छादकार्ड से दवाविओ, चिंतिय पणाए-एस वाव मे कसिणधवलपडिवज्जगो। वितिओ
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९१७-९१८/९१७-९२०], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक -
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार पि एवं च चेव विष्णासितो. वर सा भणिता- किं पहुणा, हत्थं रक्खेज्जसित्ति, सेसविभासा तहेब जाव एसोवि मे कसिण- माया व्याख्यायां या
धवलपडिबज्जगोति । एत्थ पुण इमाए णियडिअब्भक्खाणदोसतो तिव्वं कम्ममुवणिबद्ध, पच्छा एतस्स अपडिकमितभावतो सर्वांग॥५२७|| पवइया, भातरोवि से सह जाताहि पवहया, अहायुगं पालित्ता सुरलोगं गयाणि । तत्थरि ता अहातुर्ग पालिचा भातरो से पढ- सुंदरी
में चुता साकेते गरे असोगदत्तस्स इम्भस्स समुहदत्तसागरदत्ताभिधाणा पुत्ता जाता, इतरीवि चातूण गयपुरे णगरे संखस्स |
इभसावगस्स धूता आयाता, अतीव सुंदरित्ति सव्वंगसुंदरिति से णाम कत, इतरीओवि भातुज्जायाओ चविऊग कोसलाउरे णंदट्राणाभिधाणस्स इन्भस्स सिरिमतिकांतिमतिधूताओ आआताओ, जोब्वर्ण पत्ताणि, सव्वंगसुंदरी कहंचि साकेयाओ गतपुरमागतेणं । असोगदत्तसेडिणा दिडा, कस्सेसा कण्णगति?, संखस्सत्ति सिढे सबहुमाणं समुददत्तस्स मागिता, लद्धा विवाहो य कतो, कालंतकारेण सो विसज्जायगो आयओ, उपयारा से कतो, वासहर सज्जिय, एत्थंतरम्मि य सम्बंगसुंदरीए उदिलं तं णियडिवचणं पढम
कम्म, तयो भत्तारेण से वासगिहडिएण बोलेंती देवगी पुरिसच्छाया दिट्ठा, ततो गेण चिंतितं-दुइसीला मे महिला, कोवि अवलोएतूण गतोति, पच्छा सा आगता, ण तेण बोल्लाविया, ततो अदुहट्टहियाए धरणीए चेव रतणी गमिता, पमाते से मचारो अणापुष्ट्रिय सयणवम्गं एगस्स पिज्जातियस्स कहेता गतो साकेयं णगरं, परिणीता यऽणेण कोसलाउरे अंदस्स धूता सिरिम-18 तित्ति, भातुणा य भगिणी कतिमती, सुतं च णेहि, ततो गाढवममद्भिती जाता, विसेसतो तीसे, पच्छा ताणं गमागमसंवक्हारो ॥५२७॥ | वोच्छिण्णो, सा धम्मपरा जाता, पच्छा पब्वइया । कालेण विहरती पवित्तिणीए समं साकेतं गया, पुष्क्भाउज्जाओ से उवसंताओ, भचारा य तासि ण सुव, एस्वंतरम्भि य तीसे उदितं णियडिणिबंधणं वितियकम्म, पारणगे मिक्सट्ठ पविट्ठा, सिरिम-18
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भाग-4 “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९१७-९१८/९१७-९२०], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक -
॥५२८॥
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कारतीय वासघरं गता हार पोयति, तीए अन्भुट्ठिता, सा हारं मोत्तूण मिक्खमुट्ठिया, एत्थंतरम्मि चित्तकम्मोइण्णणं मयूरेणं सो हारो व्याख्यायो टओइलिओ, तीए चिंतिय-अच्छरीतामयं, पच्छा साडगद्धण ठइय, भिक्खा पडिग्गहिता, णिग्गया य, इतरीए जोइयं जाव पत्थिना
हारोत्ति, तीए विचितियं-किमेयं वदखेडं, परियणो पुच्छितो, सो भणति-ण कोति एत्थ अज्जं मोत्तूणागओ, तीए अम्बाडिओ, | पच्छा फुई, इतरीएवि पवत्तिणीए सिटुं, तीए भणियं-विचिचो कम्मपरिणामो, पच्छा उग्गतरतवरता जाता, तेसिं चाणत्यभीयाण तं नेई न उग्गाहेति, सिरिमतिकंतिमईओ भत्तारेहिं हसिज्जंति, ण य विपरिणमंति, तीए उग्गतरतवरयाए कम्मससं कयं, एत्य
तरंमि सिरिमती भत्तारसहाया वासहरे चिट्ठति जाव मोरेणं चित्ता ओयरिऊण णिगिलिओ हारो, ताणि संवेगमावण्णाणि, अहो से ६ भगवतीए महत्थता जंण सिट्ठमिदंति खामितुं पयट्टाणि, एत्थंतरंमि से केवलमुप्पणंति देवेहिं महिमा कता, तेहिं पुच्छिय, ४
तीएवि साहितो परभववुत्वंतो, ताणि पब्बइयाणि । एरिसा दुहावहा मायत्ति । | कम्मदचे तहेव, णोकम्मे आकरलोई, एचमादी, अण्णे भणति-णोकम्मे अकरमोती एवमादि, अकरमोत्ति चिकणिका, 15 हमारे उदिनो, तस्स चचारि विभागा-हलिद्दारागो खंजण कद्दम० किामरागो, गतीओ तहेव, तत्थ उदाहरणं लुणदो-पाडलिपुत्ते
दो वाणियओ, जिणदासो सावओं, राया जियसत्तू, तलागं खणेति, फाला दिडा, सुरामोल्लंति दो गहाय गता वीथीए, सावग18 स्स उवणीया, तेण णेच्छिता, ताहे गंदस्स उपणीया, तेण गहिता, णाता य, ते य भणिता-जदि अण्णेवि अस्थि तो आणज्जाह,
अहं चेव गेहामि, एवं से दिवसे २ ते काला गेहति, अण्णदा अब्भरहिते सयाणज्जामंतणए बलामोडीय णीतो, पुत्ता भणिया- फलं गेण्हहचि, सो आगतो, तेहिं फाला ण गहिया, आकुट्ठा य गता पूवियसालं, तेहिं ऊणगं मोल्लंति एगते एडिता, किट्ट पडिय, |
५२८॥
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९१७-९१८/९१७-९२०], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
॥५२९॥
A
-1
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार
दिडा, रायपुरिसहिं गहिया, जहावत्तं कहितं रनो से, गंदो आगतो, सो भणति-गहिता वित्ति, तेहि भण्णति-कि अम्हवि श्रोत्रन्द्रिये व्याख्यायाम
गहेण गहिया, तेणं अतिलोलताए एतस्स लाभस्स फिट्टो दो पादाण दोसेणंति, एकाए कुसीए पादा मम्मा दोचि, सयणोपुष्पशाल: विलवति । इतो रायपुरिसेहि सो सावओ गंदो य राउलं णीया, पुच्छिया, सावओ भणति-मज्म इच्छाप्पमाणातिरितं, अविय कूड-५ 6 माणति ते ण गहिया, सो णदो शूले भिण्णो सकुलो उच्छाइओ, सावओ सिरिघरिओ कतो, एरिसो लोभो जेहि णामितो ते
अरिहा णमोकारस्स। | इदाणि इंदियाणि, इन्द्रस्येदं इन्द्रियं, इन्द्रो जीवः, तेन इन्द्रो इयति अनेनेति इंद्रियं, इगतो, इन्द्रियाणि दुविहाणि-दधिदियाणि भावदियाणि य, दविदियं दुविहं-णिवत्तणाए उवकरणे य, णिव्यत्तणांए जहा लोहकारो भणितो एतेण लोहेण परसुवासि थोभणयं सूई च णिवत्तेहित्ति, तेण तं गहात तेहिं पमाणेहिं खडियाणि जाव कम्मस्स समस्थाणि सा णिब्वचणा, कज्जसमत्थाणि | जायाणि उवगरणाई, भादिय दुविह-लद्धीए उवयोगतो य, जाणि जेण जीवेण लद्धाइं इंदियाणि सा लद्धी, एगिदियाणं एगा
फासिंदियलद्धी, बेइंदियाण तेइंदियाणं चउरेंदियाण पंचेंदियाण,पंचविहो उपयोगो, जाहे जेण इंदिएण उवजुज्जति, सब्बजीवा 3य किर उवयोगं पहुच्च एगिदिया, ताणि य इंदियाणि पंच-सोईदियाईणि, श्रूयते अनेनेति श्रोत्रेन्द्रियं, तत्थ सोइदिए उदाहरणं
पुप्फसालो नाम गायणो, सो अतीव सुस्सरो विरूवो य, तेण वसंतपुरे णगरे जणो हतहिदतो कतो, तत्थ य णगरे एगो सत्य- ॥५२२॥ वाहो दिसाज गतेल्लओ, भद्दा य से भारिया, तीए केणवि कारणेण दासीओ पयडियाओ, ताओ सुणेतीओ अच्छंति कालं ण याणंति, चिरेण पटिगताओ, ताओ अंबाडिताओ भणति-मा य मट्टिणी रूसह, जं अज्ज अम्हाहि सुतं पत्रणयि लोमणिज्जं, किमंग ४
ॐॐ
(238)
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आगम
(४०)
प्रत
सूनाक
H
दीप
अनुक्रम
[3]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
आयं [१११...]
अध्ययनं H
मूल [१] / [गाथा-], निर्मुक्तिः ९१७-११८/२१७-२२०,
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार व्याख्यायां
॥५३०॥
पुण सकष्णविष्णाणाणं ?, कहंति ?, ताहिं से कहियं सा हिदएण चिंतेति किह पेच्छेज्जाामीत्ते । अष्णदा य तत्थ जत्ता कस्सति जागा, सच्वं नगरं गतं, सावि गता, लोको य पणिवतिऊणं वच्चति, प्रभायदेसकालो य वट्टति, सोवि गाइऊण परिसंतो परिसरे सुत्तो, सा य सत्थवाही दासीहिं समं आगया पणिवतित्ता पदाहिणं करेति चेडीहिं दाइओ एस सोत्ति, सा संभंता, ततो गया पेच्छति विरूपं दंतुरं तं पेच्छिऊण भणति दिहं से सरूवेण चैव यति तीए निच्छूढं तं च तेण चेतियं कुसीलएहि य से कहियं, तस्स अमरिसो जातो, तीसे घरस्स मूले पच्चूसकालसमए गातुमारद्धी पउत्थपतियाणिबद्धं जहा आपुच्छति जहा तत्थ चिंतेति जहा लेहं विसज्जति जहा आगतो घरं पविसति, सा चिंतति-सच्चयं वट्टतित्ति ताहे अनुमति आगासतलगाओ अप्पा सुको, सा मया एवं सोविंदियं दुद्दमं, तीसे पतिणा सुतं जहा एतेण मारियत्ति, तेण सो सद्दावितो, विसिठ्ठे जमणं जेमावितो जाव कंठोत्ति, तेण भणितो- गायंतो उवार चडाहित्ति, सो रंतो गायति विलग्गति, उड्डणं सासेणं सिरं फुडियं मतो । चक्ष्यतेऽनेनेति चक्षुरिन्द्रियं चक्खिदिए उदाहरणं- मथुरा णगरी, भंीडरवडेसिय चेतियं, जगो जत्ताए जाति, तत्थ य एगंमि वाहणे एगाए इत्थियाए सणेपूरो सालत्तओ पादो निम्गतो, तत्थ य एगो वाणियपुत्तो तं पेच्छति, सो चिंतति-जीसे एस अवयवा सा सच्च देवीणवि अतिरेगरूवा होज्जति तेण गविट्ठा, जाता य, तत्थ समासियगं आवणं गण्डति, तीसे दासचेंडीणं दुगुणं देति, ताओ तेण हतहितताओ कताओ, तीसेवि साहंति एरिसरूवो वाणियओ, अण्णदा सो भणति को एताओ पुडियाओ उग्वाडेति १, ताहि भणियं अम्हं सामीणित्ति, तेणं एक्काए पुडियात लेहो भुज्जपत्ते लिहित्ण छूढो इमेण अर्येण काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, मेघांघकारासु च शर्वरीषु । मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे !, ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु ॥ १ ॥ पादे पादे च पादे च पादे च
(239)
चक्षुरिन्द्रिये उदाहरण
॥५३०॥
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
[3]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
अध्ययनं H मूल [१] / [गाथा-], निर्मुक्तिः ९१७-११८/११७- २२०. आयं [१११...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार व्याख्यायां
॥५३१॥
प्रथमाक्षरे। तvai] विज्ञापयिष्यन्ति यन्मे मनसि वर्तते ॥ १ ॥ कालोऽयमानन्दकरः शिखीनां, मेघांधकारथ दिशि प्रवृत्तः । मिथ्या न वक्ष्यामि विशालनेत्रे !, ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु ॥ ३॥ ताहे से पडिलहितो न शक्यं त्वरमाणेण प्राप्तुमर्थान् सुदुर्लभान् । भार्या च रूपसंपन्नां शत्रूणां च पराजयम् ॥ १ ॥ नेहलोके सुखं किंचिच्छादितस्यांहसा भृशम्। मृतं च जीवितं नृणां तेन धर्मे मति कुरु ॥२॥ चेडीहि पुडिआओ अप्पिताओ, इतरस्स चित्तं सा गच्छतित्ति बिसष्णो, पोचाणि फालतूणं णिग्गतो, अण्णं रज्जं गतो । सिद्धपुत्ताणं वक्खाणे तुक्को, तत्थ गीतीए एस 'सिलोगो न शक्यं त्वरमा०' वणिज्जति, जहा वसतपुरे णगरे जिणदत्तो णाम सत्थवाहपुत्तो, सो य समणसङ्को, इतो चंपाए परममाहेसरो घणो णाम सत्थवाहो, तस्स य दुवे अच्छेरगाणि चउसमुहसारभूता मुत्तावली धूता य कण्णा हारष्पभति, जिणदत्तेण सुताणि, बहुष्पगारं मग्गितो ण देति, ततो गेण वंठवेसो कतो, एमागी सयं चैव चप गतो, अंचितं च बद्धति, तत्थेको उवज्झायगो तस्स उबट्टितो पढामित्ति, सो भणति भत्तं मे णत्थि, जदि णवरं कर्हिपि लभिसित्ति, धणो य सरक्खाणं देति, तस्स उबाडतो- मतं मे देहि ता विज्जं गण्हामि, जं किं ( १२०००) चि देमित्ति पडिसुतं धृता संदिट्ठा, तेण चिंतियं- सोभणं संबुचं, वल्लूरेण दामितो बिरालोति, सो तं फलादिगेहिं उवचरति सा ण गिण्हति उबगार, सो य | अतुरितो णीयडिग्गाही थक्के धक्के उपचरति, सरक्खा य णं खरंटेंति, तेण सा कालेण आवज्जिया, अज्झोववण्णा भणतिपलायम्ह, तेण भणितं अजुत्तमेयं, अतो बीसत्था होहि, न शक्यं त्वरमाणेन० श्लोकः, किं तु तुमं उम्मतिया होहि बिज्जेहिं मा पउणिज्जिहिसि, तहा कयं, वेज्जेहिं पडिसिद्धा, पिता से अद्धिति गतो, चट्टेण भणितं मम परंपरागता विज्जा अस्थि, दुक्करो य से उपयारो, तेण भणिय- अहं करेमि, सो भणति पयुंजामो, किं तु बंभयारीहिं कज्जं तेण भणियं जदि कवि अर्थ
(240)
चक्षुरिन्द्रिये उदाहरणं
॥ ५३१ ॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९१७-९१८/९१७-९२०], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार का भचारिणो भवंति दो कजंण सिज्झति, ते य परियाविज्जंति, जे सुंदरा ते आणमि, कतिहिं कजं?, चतुर्हि, आणिता, सह- चक्षुरिन्द्रिय व्याख्यायाम
दावहिणो य दिसावाला, मंडलं कर्य, दिसापाला भणिया-जत्तो सिवासहो तं मणागं विधेज्जह, सरक्खा य भणिया-हूँ फड्डातिदादाहरण ॥५३२॥ है कते सिवारुतं करेज्जह, डिक्करिका भणिया- तुम तह चेव अच्छेज्ज, तहा कत, विद्धा सरक्खा, ण पउणा चंडी, चिपरिणओ
|धणो, चट्टेण वुत्त-भणिय मए जदि कहपि अबभचारिणो भवंति तो कज्जन सिज्झति इत्यादि, धणेण भणियं-को उवाओ?, चट्टेण8 | भणिय-एरिसा वैभचारिणो भवति, गुत्तीओ कहेति, दगसोयरातिसु गबेसिया, णत्थि, साहूण दुक्को, तेहिं सिट्टाओ-चसहिकहणि-I& सजिदिय कुटुंतरपुब्बकीलितपणीते । अतिमाताहारविभूसणाई णव बंभगुत्तीओ ॥१॥ एतासु बढमाणो सुद्धमणो जो य बंभयारी सो | जम्हा तु संभचेरं मणोणिरोहो जिणाभिहितं ।। २॥ उवगते भणिता-बंभचारीहिं मे कज्ज, साहू भणंति-ण कप्पइ णिग्ग-18 | थाणमेत, चट्टस्स कहितं लद्धा बंभचारी, ण पुण इच्छति, तेण भाणिय- एरिसा चेव परिचचलोगवावारा मुणयो भवति, किंतु
पूइतेहिपि तेहिं सकज्जसिद्धी होति, तण्णामाणि लिखंति, ण ताई खुद्दवंतरी अक्कमति, पूपिया, मंडलं कर्त, साहूणामाणि लिहि- ४ ताणि, सा वाला ठविया, ण कुवितं सिवाए, पउषा चेडी, धणो साहूणमल्लियतो सड्ढो जातो, धम्मोवगारी इमोचि चेडी मुचाहै बली य दिण्णा, एवं अतुरंतेणं सा तेणं बोधितत्ति सिलोगत्थो । किं च- अडवीए सूतो कप्पडिएण आराहितो, एसो मोररूवेण | शणच्चितुं सोवणं पिच्छ पाडेति दिने २, तस्स चित्तं जातं-केचिरं अच्छिहामित्ति सम्वाणि पिच्छाणि गेण्डामित्ति पडिजग्गितो. ॥५३२॥ | तेण कलावो गहितो, काको जातो, ण किंचि देतित्ति, अतः-अत्वरा सर्वकार्येषु, त्वरा कायविनाशिनी । त्वरमाणेन मूर्खेण, मयूरो वायसीकृतः ॥१॥इति । सो एस सुणितूण परिणामति, अपि सदेस गंतुमतुरंतो तत्थेय किंचि उवायं चिन्तिस्सा-1
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भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९१७-९१८/९१७-९२०],
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार
व्याख्याया
॥५३३॥
मिति गतो सदेसं, तत्थ विज्जासिद्धा पाणा दंडरक्खा, तेण ते ओलग्गिया, भणति किं ते अम्हेहिं कज्जं १, सिहं, अम्हं तं | घडेह, तेहिं मारी बिउब्विया, लोगो मरितुमारद्धो, रत्ना पाणा समादिट्ठा, तेण भणिय- जाणामो ताव किं आदेशा वत्थब्वात्त उदावणिया, तेणं साहिस्सामो, तेहिं (पदम) रतिं एसा सा बाहिरियं पविट्ठा, बितियाए रतियाए नगरं पविडा एसा सा ततीयाए रत्तीए घरं एसा सा, चउत्थीए रत्तीय माणुसहत्थसीसपादा य सयणिज्जे दीसंति, ते हत्थपादादीण साहरणं करेंति, रण्णो कथित भणति सविधीए विवाडेह, तो खाई मंडले मज्झरतम्मि अप्पसागारिके बाबाएंज्जा, तहनि पडिस्सुतं, जीता सहि, रतिं मंडलं, सो य तत्थ पुष्पालोचितकतकवडो गतो, सा खलियारेउमारद्धा, तेण भणिय- किं एताए कयंति ?, तेहिं भणितं मारि एसति मारिज्जति, सो भणति - किमेताए आगितीए मारी हवइति ?, केणवि अवसदो वा से दिष्णो, ता मा मारेह, मुयह एतं, ते च्छंति, गाढतरं लग्गो, अहं में कोडिमुलं अलंकारं देमि, सुप्पह मे तं बलामोडीए अलंकारो उबणीतो, तीएवि तस्स निक्कारणवच्छलोत्ति पडिबंधो जातो, पाणेहिं भणियं-जदि ते गिब्बंधो तो प मारेमो, किंतु णिध्विसयाए गंतव्वं, पडिसुर्य, सुका, सो तं गहाय पलातो, पाणप्पदो वच्छलगोत्ति दढतरं पडिबद्धा, आलावादीहिं घडिया, देसतरंभि भोगे झुंजते अच्छेति, अण्णदा सो पेच्छणगे पयट्टो, सा पेहेण गंतु ण देति, तेण इसियं, तीए पुच्छियं किमतं १, णिबंधणे सिहं, निब्बिन्ना, तारुवाणं अजाण अन्तिए धम्मं सोच्चा पव्वइया, इतरोऽवि अट्टदुहट्टो मरिऊण तहोसा चैव गरगे उवउत्तो । एवं दुक्खाय चक्खिदियन्ति ।
घाणिदिए उदाहरणं कुमारो गंधप्पितो, सो अणवरयं णावाकडरण खेल्छति, मातिसम्बत्तीए य मंजूसाए विसं छोडून नदीए पाहियं, तेण एगंतेण दिडा, उत्तारिया, उग्घाडिऊण पलोएतुं पवत्तो पडिमंजूसादि एगगठिओ समुग्गाको दिट्ठो, सो णेण
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चक्षुरिन्द्रिये उदाहरणं
॥५३३॥
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अनुक्रम
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भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [], मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९१७-९१८/९१७-९२०],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्याया
||५३४||
उग्घाडितून जिंघितो, मतोय, एवं दुक्खाय घाणेंदियं ।
जिभिदिए उदाहरणं-सोदासो राया मंसपितो, अमाघातो, सुयस्स मंसं बिरालेण गहितं, साकरिएस मग्गियं, ण लद्धं, पच्छा डिंभरुवं मारिय सुसंभितं, जिमितो, पुच्छति -कहिते पुरिसा दिण्णा मारेहिति, णगरेण णातो भिच्चेहि य, रक्खसोचि मधुं पाएता अडवीए पविडा, चच्चरे ठितो गयं गहाय दिणे २ माणुस मारेति, केइ भणति विविधजणं मारेति, तणतण सत्थो जाति, तेण सुत्तेण न थेइओ, साधू य आवस्वयं करेंता फिडिया, ते दद्द्द्वे ओलम्गति, तवतेण ण सकति अहितुं, चिंतेति, धम्मकणं, पवज्जा, अन्न भणति सो भणति वच्चते- ठाह, साहू भगति अम्हे ठिया, तुमं ठाहि, चिंतीत, संबुद्धो, सातिशया आयरिया ते ओहिपाणी, केत्तियाणमेवं होतिति । एवं दुक्खाय जिभिदियीत ।
फार्सिदिए उदाहरण- वसंतपुरे नगरे जियस राया, सुमालिया से भज्जा, अतीव सुकुमाली फासो, राया रज्जं ण चिंतेति, सो ताण णिच्चमेव परिभुजमाणो संवाहिज्जमाणो य तीसे फासे मुच्छितो अच्छति, रायकज्जीिण ण चिंतेति, एवं कालो वच्चति, मिच्चेहिं स मंततूण तीए सह निच्छूढो, पुत्तो से रज्जे ठवितो, ते अडवीए बच्चेति सा तिसाइया, जलं मग्गियं, अच्छीणि से बद्धाणि मा बिमेहिनि, सिरारुधिरं पज्जिया, रुधिरे मूलिया छूढा जेण ण थिज्जति, छुधाइयाए ऊरुमंसं दिष्णं, अरुगं संरोहणीए रोहियं, जणवयं पत्ताणि, आभरणगाणि सारवियाणि, एगत्थ वाणिततं करेति, पंगू य से बीधीसोधगो घडितो, सा भणति ण सक्कुणोमि एगागिणी गिहे चिह्नितुं वितिज्जयं लभाहि, चिंतियं चणेण णिरवातो पंगू सोभणो, ततो णेण णेडपालो 'णिउतो, तेण गीतच्छलितकथादीहिं आवज्जिया, पच्छा तस्सेव लग्गा भत्तारस्स छिद्राणि मग्गति, जाहे ण लभति वाहे उज्जा
(243)
घ्राणेन्द्रि
यादिषु
उदाहरजानि
॥५३४॥
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९१७-९१८/९१७-९२०], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सुत्रांक
I-1
दीप अनुक्रम
नमस्कार & णियाए गतो सुविसत्थो बहुमज्जं पाएत्ता गंगाए पक्खित्तो, सावि य दयं खातितूर्ण वहति गायति य घरे २, पुग्छिता भणति- स्पर्शनेव्याख्यायां अम्मापितीहि एरिसो दिण्णो, किं करेमि', सोऽवि राया एगस्थ णगरे उच्छलिओ, रुक्खच्छायाए सुत्तो, ण परावत्तति छाता, राया|न्द्रियं परि
8 तत्थ मयओ अपुत्तो, आसो अहिवासितो तत्थ गतो, जयजयसद्देण पडिबोहिओ, राया जातो, ताणि तत्थ गताणि, रत्रो कहिय, बहोप॥५३५11 आणाषिताणि, पुच्छिया साहति-अम्मापितीहिं दिनो, राया भणति-बाहुभ्यां शोणितं पीतं, ऊरुमांस च भक्षितम् । गंगायां वाहितो
सगोत्र भर्ता, साधु साधु पतिव्रते । ॥१॥ णिबिसियाणि आणताणि, एवं दोण्हवि से सओ सुकुमालियाए दुक्खाय फासेंदियं, जेहिं एते दुज्जता दुरंता संसारवद्धणा ईदिया जिता णामिता ते अरिहा नमोक्कारस्स।
इवाणिं परिसहा, परिस्समंता 'सह मर्षणे' मार्गाच्यवननिर्जराथं च परिषोढव्याः परीसहाः, मार्गाच्यवनाथ दर्शनपरीसह पण्णापरीसहो य, 'त्थि पूर्ण परलोगे' सेसा निर्जरार्थ, एते बावीस प० तजथा-दिगिंछापरीसहे १ पिवासापरीसहे २ सीत. ३ उण्ह० ४ दसमसग० ५अचेल० ६अरति० इत्थी०८चरिया० ९णिसीहिया० १० सेज्जा०११ अक्कोस० १२ वह १३ जायण १४ लाभ०१५ रोग. १६ तृणस्पर्श०१७ मल०१८ सक्कारपुरस्कार १९प्रज्ञा० २०अण्णाण०२१ दंसणपरीसहे२२ । दब्बपरीसहा इहलोगनिमित्तं जो सहति परब्यसो वा बहबंधणादीणि, तत्थ उदाहरणं, जहा-चक्के सामाइए इंददत्तपुत्ता, भावपरीसहा जो संसारचोच्छेदनिमितं अणाइलो सहइति, तेण चेव उवणतो पसत्थो, जहा वा उत्तरायणे सुतघोसणयं सोदाहरणं विभासिज्जा । ॥५३५॥
. इदार्णि उवसग्गा, उप सामीप्पे 'मृज विसर्गे' उपसरतीति उक्सग्गा, उवसृजति वा अनेन उवसाः , तेवि परीसहेहिं चेन | हा समोतरति अक्कोसादी, णवरं किंचि विसेसा उपसग्गत्ति भण्णति, ते चतुर्विधा- दिव्या माणुसा तिरिया आरमसंवेदनीया, दिग्बा
[१]
RECORAKAR
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९१७-९१८/९१७-९२०], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार चउविधा-हासा पओसा वामसा पुढोवेमाता । हासा-खुद्दगा अण्णं गाम मिक्खाचरियाए बच्चीत, वाणमंतर ओवायंति-ज-15 उपसगाथ व्याख्यायांदादि फव्वामो तो चिन्भडडंडरगकण्हवण्हएण य अच्चणिय देहामो, लद्ध, सा मग्गति, ते ण देंति, अण्णमण्णस्स कहणं, मग्गितूण || ॥५३६॥
दिण, एतं ते तंति, ताहे सयं चैव तं पक्खाइया, कंदप्पिया देवया तेसिं रूवं आवरेत्ता रमति, वियाला जातो, तेहि मग्गिया ण 8. दिट्ठा, देवताए आयरियाण कहिये । पदोसे संगमओ वीसा, एगत्थ देउलियाए साहू वासावासं वसित्ता गता, तेसि च एगो
पुब्बपेसितो ततो चेव परिसार आगतो, ताए देवताए आवासितो, सा देवता चिंतेति-कि दढधम्मो पबत्ति सड्डीरूवेण उवसग्गेति, | सो णेच्छति, तुट्ठा बंदति । पुढोवेमाता हासेण कातुं पदोसेण करेज्जा, एवं संयोगो । माणुसा चउबिहा-हासा पदोसा बीमंसा | कुशीलपडिसेवणा, हासे-गणियाधुता खुङग भिक्खस्स गयं उवसग्गेति, तेण हया, रबो कहिय, खुडओ सदावितो, सो सिरिघरादिद्रुतं कहेति । पदोसे गयसुकुमाला सोमभूतिणा बबरोविओ, अहवा एगो धिज्जातीओ एगाए अविरतियाए सद्धिं अकिच्च सेवमाणो साधुणा दिट्ठा, पदोसमावबो साधु मारेमित्ति पधावितो, साधु पुच्छति-किं तुमे अज्ज दिट्ठति, साधू भणति- 'बहुं सुणेति कनेहि सो भणति किं निमित्तं एतं, एस अम्ह उवदेसो वित्थकराण, उबसंतमहओ जाओ । | वीमंसाए चंदउत्तो राया चाणकेण भणितो-पारत्तिय करेज्जसि, मुसीसो य किर आसि, अंतपुर धम्मकहण, उपसग्गिज्जति..
॥५३६॥ अण्णतिस्थिया विणट्ठा णिच्छुढा य, साधू सहाविया भणंति-जदि राया अच्छति तो कहेमो, अतिगयो, राया उस्सरितो, अंतेपुरि-| याओ उवसग्गेति, हयातो, सिरिघरदित कहेति । कुसीलपडिसेवणाए ईसालुगमज्जाओ चत्तारि, रायसण्णात तेण घोसावित-सत्तपतिपरिक्खित्तं घरं ण लभति कोई पवेस, अयाणतो साहू वियाले क्सहिनिमित्तं अतिगतो, सो य पविसिमल्लओ, तत्थ पढमे |
IOR
k-RSS
सऊहस्य
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भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९१७-९१८/९१७-९२०],
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्याया ॥५३७॥
जामे पढमा आगया भणति पडिच्छ, साधू कच्छं बंधेतूणं आसणं कुंमबंधं कातूणं अहोमुहो ठितो चीरवेदेणं, ण सक्कियं, कीसित्ता गता, पुच्छंति केरिसो ?, सा भइ- अण्णो मणूसो नत्थि, एवं चत्तारि जामे कीसितूणं गयाओ, पच्छा एगतो मिलियाओ साहंति, उवसंताओ सीओ जाताओ ॥ तेरिच्छा चउन्विहा भएण सुणगादी दसेज्जा, पदोसा चंडकोसिओ मक्कडादि वा आहारहेड सीहादी, अवच्चलेणसारक्खणहरं काकिमादी ।। आत्मना क्रियन्त इति आत्मसंवेदनीया, जहा उद्देसिए चेतिए पाहुडियाए य, ते चउब्विहा घट्टणया पवडणया थंभणया लेसणया, घट्टणया अच्छिमि रओ पविट्ठो, चमढियं, दुखितुमार, अहवा सर्व चेव अच्छिम्मि गलए वा किंचि सालुगादि उट्ठितं घट्टति, पवडणया ण पयत्तेण चंक्रमति, तत्थ दुक्खाविज्जति, थंभणया णाम ताव बइट्ठो अच्छितो जाव मुक्खिविट्ठो जातो, अहवा हणुगार्जतमादी, लेसणया पादं आउंटावेचा अच्छिते जाव तत्थ वायेण लइओ, | अहवा गठ्ठे सिक्खामित्ति अवणामितं किंचि अंग तत्थेव लग्गं || अहवा आयसंवेतनीया वातियपित्तियसिंभियसंनिवातिया, एते दब्बोवसग्गा, भावतो उबजुत्तस्स एते चैव । अहवा इंदियाणि कसाया य ते जेहिं०, अहवा अणेण कारणेणं अरिहा नमस्कारस्यइंदियविसया कसाया परीसहा वेदणा ३ सरीरगादि अहवा सीता ३ उवसग्गा ते चेव, एवमादी अरयः ते हंता इतिकातूणं अरिहा णमोकारस्य, अर्हन्तीति वा अर्हन्ताः, ते दुविधा- दब्वारिधा भावारिहा य, दब्बारिहा दुविहा- पसत्था अपसत्था य, दुव्वारिहा पसत्था हिरण्णअस्समादीणि, अपसत्था वधबंधतालणाइयं, भावेवि अप्पसत्था अकोसादीर्ण, पसत्था बंदणणमंसणादीणं । तत्थ गाहा—
अरिहंत बंदणणमं सणाणि० ।। ९-३५ ।। ९२१ ।। वंदणं सिरसा, णमंसणं वयसा, पूया वत्थादीहिं, सकारो अट्ठा
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उपसर्गाव
॥५३७||
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 "अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९२१/९२१-९२२], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
मस्कार
नमस्कार दीहि, केहिं कीरंतस्स बंदणादिस्स ते अरिहा, उच्यते, देवासुरमणुयाण, अरिहंति पूर्य, जहा सुरुत्तमा, मणुयाण रायाणो उत्तमा, ताणं 3 व्याख्यायाँ टा देवा, देवाणं रिसतो, रिसीणं परमरिसी, ते अरिहंता चेव, अरी च पूर्वोक्ता हता, रज हन्ता, रजः कर्म, रतस्स हंता तेणवि अरि-14 ॥५३८॥
हंता, अरिहंतिवि इमे य शारीरा अतिशया, तथा ते य उप्यण्णा जहा-चारुमुजायमाण सिरिवच्छंकितविसालबच्छाणं । तेलो
कसकयाणं णमोरथु देवाहिदेवाणं ॥ १॥ तस्स णमोकारस्स किं फलं , जं तस्स फलं ते उवरिं सट्ठाणे मणिहिति सउदाहरणं, दापंचण्हषिय सामण्णं पयोयणफलं णमोकारो, इमं पत्तेयफलं पणिज्जति
अरिहंतनमोकारो जीवं मोएड०॥ ९-३७॥ ९२३ ।। भवाणं सहस्सा भवसहस्सा, सोय संसारो, अणतेसु किं भवसहस्सका गहण कत', उच्यते, पसत्थाणि एवं, इतरााण अणताणि, किं सब्वेवि मोयति', ऐति, भावेण जो कीरति सो फलदो जीचं मोतति, द्र अह णवि मोएति तो इमं अचं फलं होति, पुणरवि बोधिलामाए, बोधी णाम संमत्ताहिगमो ।। किं चान्यत्
अरिहंतनमोकारो धण्णाण ॥ ९-३८ ॥ ९२४ ॥ धणेण धण्णो, णाणदसणचरिचाणि घण एतेण धणेण धण्णो, भवखपर्ण करेंताणं, भवक्खयो संसारक्खयो, जदा हिदयं ण मुंचति तदा किं करेति ', विसोत्तियं णिरुमति, दयविसोतिया णिकाकट्ठ, तेण संकरेण पाणिय रुद्ध अण्णतो बच्चति, ते रोवगा सुकीत, एवं भावविसोचिवाचि संसयादी कहत्याणीया पच्छा अपसत्यपाव-1 रुक्खा सुक्खंति, एवं विसोतिय वारेति अरहंतणमोकारो इति । एचमादीहिं गुणेहि महत्थोत्ति वण्णितो, अहवा इमणीय कारणेणं, जहा संमामेमाणो पुरिसो आतुरे कज्जे जाते अजेज्ज अपडिहतं आयुह तेण कज्ज करेति, एवं इमेणवि चोदस पुल्वाणि गहियाणि,
45कर
दीप अनुक्रम [१]
SHOESCANCERICA
॥५३८॥
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९२४/९२४-९३९], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
सिद्ध
प्रत सूत्रांक -
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार ग य मरणकाले तेहि कर्ज कीरति, उक्तं पण य तम्मि देसकाले सको बाहरविहो सुतबंधो । सको अणुचिंतेतु धन्तपि समत्थ-I& व्याख्यायाचित्रेण ॥१॥जेण णमोकारो तम्मि देसकाले कीरति तेण सो महत्थो, एवं सो अरहंतणमोकारो सम्बपावाणि पणासेति, जाणि |
नमस्कारे ॥५३९॥ दण्वभावमंगलाणि लोगे लोउत्तरे य एतेसिं पढम मंगलं अरहंतनमोक्कारो।
कर्मसिद्ध इवाणि सिद्धाण णमोकारो, 'राध साध संसिद्धौ' सिद्धः प्राप्तणिष्ठ इत्यनान्तरेण, जो जस्स पार गतो सो सिद्धो भवति, तस्स सिद्धस्स इमो णिक्खेवो चोइसघाणामसिद्धो ठवण. दब्ब० कम्म• सिप्प विज्जा० मंत. जोग. आगम० अर्थ० जना० 3 अभिष्पाए तवे कम्मखयेति य । णामट्ठवणाओं गताओ, दवसिद्धो उस्सेइम संसेइमं उचक्खडं वत्थसिद्धोत्ति, तत्थ उस्सेइमं जथा द्र मिरोलगादि, संसइम जहा तिलादी, उवक्खई जहा पदाणादी, वत्थसिद्धं जं रुक्ने चेव पच्चति, एताणि दब्बाणि णि? पत्ताणि ।
कम्मसिद्धो जो कम्मस्स णि8 गतो, अनाचार्यकं कर्म, तत्थ उदाहरणं--- 3 कोंकणा एगम्मि दुनो समस्स मंड भति विलयति य, ताणं च किर यदि रायावि एति तेण पंथो दातव्यो, तत्थ एगो टू सेंधवओ पुराणो, सो परिभजतो चितेति-तहिं जामि जहिं कम्मेण एस जीवो भज्जति, सुहं ण विंदति, सो तेसिं मिलितो, सोXI
भणति-गंतुकामो कुंदुरुक्खपडिबोहिल्लओ, सिद्धओ भणति-सिद्धियं देहि मम, जे सिद्धयं सिद्धया गता समय, सो य तेसिं भास्व-14 ॥५३९।।
हाणं महत्चरओ सञ्चबई भारं पहति, तेण अण्णदा साधूण मग्गो दिनो, ते रुठ्ठा, राउले कहंति, ते भणंति-अम्हं रायावि मग्गी द्रादेति भारेण दुःखाविज्जन्ताणं, तुम पुण समणगस्स रिकविरिकस्स मग्गं देसि, रण्णा भणिय-दुख मे कतं, तेण भणित-देव! तुमेट्र
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 "अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९२४/९२४-९३९], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक -
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार गुरुभारवाहित्ति काऊपमेतमाणत्त, रण्णा आमंति पडिसुतं, तेण भणिय-जदि एवं ता ते गुरुतरभारवाही, कई ?, जे सो अवी-131 शिल्पव्याख्यायाः समन्तो अट्ठारससीलंगसहस्साणि भार वहति जो मएवि बोढुं ण पारितोत्ति, धम्मकहा, मो महाराय बुझंति नाम भारा ते पुण
सिद्धा प वु झंति बीसमंतेहिं । सीलभरो वोढ़व्वो जावज्जीवं अविस्सामो ॥ १॥ राया पडिबुद्धो, सो य संवेगं गतो अब्भुट्टितोति । एमो|
कम्मसिद्धोत्ति ॥ शिल्पमाचार्यकं तस्य निष्ठां प्राप्तः २, शिल्पसिद्ध प्रति उदाहरणं, कोकासो सोप्पारए रहकारो, तस्स दासीए लाभणाण जातो दासचेडो, सो पगूढभावेण अच्छति, सो ण जीहामित्ति सो अप्पणो पुत्ते सिक्खावेति, ते मंदबुद्धी ण लएंति,
दासेण सव्वं गहित, सो रहकारो मतो, रायाए दासस्स तं घरं सव्वं दिणं, सो सामी जातो । इतो य पाडलिपुते राया जियस-12 हात्तृत्ति, इतो य उज्जेणीए राया सावगो, तस्स चत्तारि सावगा-एगो महाणसिओ, सो रंधेति, जदि रुव्वति जिमितमत्तं जीरति,
जामेण २-३-४ वा, जदि रुच्चति ण चेव जीरति १ वितियओ अब्भंगेति, सो तेल्लस्स कुलब छुभति, तं चेव पुणो णीणेति २,
ततियओ सेज्जं रयेति, जहा पढमे वा २-३-४ जामे बुज्झति, अहवा सुवती चेव ३, चउत्यो य सिरिघरो कतो, जो तं अतिगतो दकिंचि ण पेच्छति, एते गुणा तेसिं, सो पाडलिपुत्तओ तस्स णगरं रोहति, सावओ चिंतति-किं मम जणक्खएणं कतेगति भत्त
पच्चस्खायं देवलोग गतो, णागरेहिं से णगरं दिण्णं, ते सावगा सदाविता, पुति-कि कम्म, सूतेण अक्खायं, भंडारिएण ४ पवेसिओ, किंचिवि ण णेच्छति, अण्णेण दारेण दंसितं, सेज्जापालेण कहियं, अभंगतेण एकातो पदातो तेल्लं णीणियं, एकातो ण 8 ॥५४॥ | णीणितं, जो मम सरिसो सो णीउत्ति, चत्तारिवि पवतिया । सो तेण तेल्लेण डझंतो कालगो जाओ, काकवण्णो से णाम जायं, पढर्म से जियसत्तुत्ति णामं आसि पश्चात्काकवणे इति ।
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 "अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९२४/९२४-९३९], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार इतो य सोपारए दुम्भिक्खं जातं, कोकासो उज्जणि गतो, किह राय जाणावेमित्ति कबोतेहि गंधसालिं अवहरेति, कोट्ठाकाव्याख्यायरिएणं कहिय, मग्गंतेणं दिट्ठो, आणितो, रण्णा जातो, वित्ती दिण्णा, गरुडो कतो, सो राया तेण कोक्कासेण देवीए य समं हिंडति,
हा शिल्प
M सिद्धा ॥५४॥
पूजा स ण णमांत ते भणति-अहं आगासेण आगतो मारेमि, सब्वे बसमाणिया, ते देवि सेसिगाओ पुच्छति जतो हिंडात, एगाए IXI *बच्चंतस्स एसा णियत्तणखीलिया गहिया, गतो, णियत्तणवेलाए जातं, कलिंगे इस तला पक्खो भग्गो, तस्थ पडितो, णगरं |
गतो, तस्स रहकारो रहं णिम्मवेति, एग चकं णिम्मवियं, एगस्स सव्वं घडिएल्लियं, किंचि किंचि णवि, ततो सो उवगरणाणि | मग्गति, तेणं भणियं जाच घरातो आणे मि, इमाणि राउलाओ ण लम्भंति निकालिऊण, सो गतो, इमेण तावेवं संघातियं उर्द्ध | |कतं जाति, अफिडियं पडिणियत्तति, पच्छामुहयपि ण पडति, इतरस्स सब्वयं जाति अफिडियं पडति, सो आगतो जाव तं णिम्मात पेच्छति, अवक्खेवणं गतो, रणो कहियं जहा कोकासो आगतो, तस्स पलणं सब्बरायाणगा तेणं बसमाणीया, सो | गहितो, तेण हम्मंतण अक्खायं, ताहे सह देवीय राया गहितो, भत्तं राधीयं, णागरेहि अयसभीतेहिं कागपिंडिया पवत्तिया, |कोकासो भणिओ-मम पुत्तस्स सत्तभूमिग पासाद करेहि, मम य मज्झे, तो सवरायाणए आणावेस्सामि, तेण णिम्मवितो, कागवण्णपुत्तस्स सउणगजंत कातूंण लेहो विसज्जितो, एहि जाव अहं एते मारेमि. तो इमं पियं च ममं च मोएहिसित्ति दिवसो दिनो, पासार्य सपुतओ राया विलहतो, खीलिया आहता, संपुडो जातो, सपुत्ततो मतो, कागवण्णपुत्तेणवितं णगरं गहितं, पिता INT५४१| य कोकासो पमोइया, अण्णे भणति-कोकासेण णिबिण्णएणं अप्पा तत्थेव मारितो । एस सिप्पसिद्धो।
विज्जासिद्धो अज्जखउडो, तेसिं पासादेण विज्जा कण्णाहाडिया, विज्जासिद्धस्स णमोकारेणवि किर विज्जा उपटृति, सो
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 "अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९२४/९२४-९३९], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
व्याख्याया
COMSAK
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार
|| विज्जातित्थयरो, सो त भाइणेज्जं ठवेत्ता पडिव्यायओवादे पराजितो,(सा परि०)अद्धीइए कालगतो, गुडसत्थे गगरे बडकरओ वाणम-18/ विद्यासिद्धः
दतरो जातो, तेण तत्थ सच्चे साहुणो परद्धा, तं सुणेत्ता अज्जखउडा तहिं गता, तेण जातितुं तस्स को उवाहणाओ ओलतियाओ, ५४२॥ देवकुलिओ आगतो पेच्छति, गती लोग पेतूण आगतो, ते जतो जतो उग्धाति तओ २ अधिद्वाण, णगरे कहितं, तेहिवि तहेब
दिई, कट्ठलट्ठीहिं पहता, ते य रायकुले संकति, मुक्का, पविट्ठो बट्टकरओ, अण्णाणि य वाणमंतराणि पच्छतो सपडिमाणि | गच्छंति, लोगो पायचडितो विष्णवेति-मुबाहिति, सो य अण्णतो विप्परिणामेति, सो चिताति-आयरिओ ण सकति मोयावेतुति, तस्स देवकुले महाविस्सदा दो दोणीओ महतिमहालियाओ पाहाणमतीओ, सो य वाणमंतराणि खडखडावेंताणि, पच्छओर सपडिमाणि हिंडंति, जणेण विण्णवितो, ताणि मुक्काणि, दोणीवि आरतो आणेत्ता छड्डिया, मम सरिसो णेहितित्ति, मुक्को ।। इतो य जत्थ भाइणेज्जो ठवितो सो आहारगिध्धो भरुअच्छे तच्चण्णिओ जातो, अयःपात्राणि आगासणं उवासगाण घरेसु भरियाणि एंति, लोगो तंमुहो बहुगो जातो, संघेणं अज्जखतुडाणं पेसितं, आगतो, अक्वायं-एरिसी अकिरियत्ति उहिता, तेसिंग कप्पराणं अग्गतो मत्तओ सेतण बत्येण अच्छाइओ जाति, टोप्परिया गता सव्वपधाणिया, आसणे ठिया, अण्णस्थ कया, कयाइ पुणो पुणो पंति भरिया आगता, आयरिएहिं अंतरा पाहाणो ठवितो सवाणि भिण्णाणि, सोवि चेल्लओ भीतो गट्ठो, आयरिया
तत्थ गता, तच्चणिया भणंति-एहि बुद्धस्स पादेहि पडाहित्ति, आयरिएहिं भणित-एहि पुत्ता ! सुद्धोदणसुता बंद मर्म, बुद्धो दणिग्गतो, पादेसु पडितो, तत्थ धूभो बारे, सोवि भणतितो-एहि पाएहिं पडाहिचि, सोवि पडितो, उद्वेहित्ति भणितो अद्धोणओ
|ठितो, एवं अच्छहत्ति भणितो ठितो, पासल्लिगो ठितो, सो णियंठणामितो णामेण संजातो।। मंतसिद्धी एगंमि नगरे रायाणएण
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 "अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९२४/९२४-९३९], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सुत्रांक
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दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार सजती गहिया, संघसमवाए कए एगेण मंतसिद्धेण रायंगाणि थंभा अच्छंति ते अभिमंतिता खडखडेंति, पासखंभावि य चलिया, लायागागमाव्याख्यायां ५ तेण भीएण मुक्का, संघो य खामितो ॥ ..
भिप्रा
यसिद्धाः ॥५४३॥
31 जोगसिद्धो आभीरविसए कण्हाए बेण्णाए य अंतरदीवए तावसा, एगो पायलेवेणं पाणिए चकमति एति जाति य द लोगो आउट्टो, सङ्का हीलिजंति, अज्जसमिता बहरसामिस्स मातुलगा विहरंता आगता, सड्ढा उबडिता अकिरियत्ति, आयरिया मेच्छंति, भणति- किं अज्जो! ण ठाह , एस जोगण केणवि मक्खेति, तेहिं अट्ठपद लद्धं, आणितो अम्हे दाणं देमोत्ति, अह सो सावओ भणति- भगवं ! पादा धोव्वंतु, अम्हे अणुग्गहिया होमो, तस्स अणिच्छंतस्स पादा पाउयाओ य सोइयाओ, गतो, पाणिते बुडो, उकढिकलकलो कतो, एवं डंभएहि लोगो खज्जतिनि, आयरिया णिग्गता, णदी भणिता- अहं पुत्ता ! पुरिम कूलं जामि, दोवि तडा मिलिता, गता आयरिया, ते तावसा पब्बइता, बंमदीवगवत्थव्वत्ती बंभदीवगा जाता ॥
आगमो चोदस पुल्या पिट्ठ पत्ता जाव सयंभुरमणेविज मच्छओ करेति तपि जाणति।
अत्यसिद्धो ममणवणिओ, जचाए जो बारसवारे समुई जाति, अहबा जहा तुंडिएणं जले गहुँ जले मग्गिज्जतिचि सतसाहस्सीओ वाराओ भिष्णाओ, परिहीणो, सयणिज्जेहिं दिज्जमाणेवि णेच्छति, पेडएणं लोग उचारेति, देवता उपसंता, सव्वं । | दिणं, भणितो- अण्णपि देमि, सो भणति-जो मम णामेण मुयति सो अविग्घेणं एतु ।
इदाणि अभिप्पायसिद्धो, अमिप्पाओ णाम बुद्धीए पज्जाओ, अभिप्यायोचि वा बुद्धिति वा एगहुँ, स च अभिप्रायश्चतुर्विधः
WERACK RECRACTREAES
SESSIOSEKAISE
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[8]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [], मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९४० - ९४२ / ९४०-९४३],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्यायां
॥५४४॥
उप्पत्तिया वैनयिकी कर्मजा पारिणामिकी, एसा चतुव्विधा बुद्धी, पंचमा नास्ति । योऽथों येन भावेन उत्पत्तुकामः तमर्थ तद्देव अनुगच्छति, अवबुध्यतीत्यर्थः सोऽर्थोऽपूर्व अदृष्टः अश्रुतः अविदितः अविचालितः तस्मिन्नेव समये तमर्थ गृह्णाति तस्य फलं अव्याहतं ण यण्णधा भवति, एवंविधा उप्पत्तिया, सा जहा उप्पज्जति तथा इमाणि उदाहरणाणि भण्णंति
भरहसिलपण० ।। ९-५४ ।। ९४० ।। उज्जेणी नगरी जणवए अवंतीए, तत्थ गडाणं गामो, तत्थ एगस्स णडस्स भज्जा मता, तस्स य पुसो डहरओ, ते अन्ना आणिता, सा तस्स दारगस्स ण बद्धति, तेण दारएण भणियं ममं लठ्ठे न वट्टसि, तहा ते करेमि जहा मम पादेसु पडिसित्ति, तेण रतिं पिता सहसा भणितो- एस गोहोति, तेण णायं महिला विणइति सिढिलो रागो जातो, सा भणति मा पुत्त ! एवं करेहि, तेण भणितं न लठ्ठे बट्टसि, भणति-बट्टेहामि, अहंपि लठ्ठे करहामि, सा वट्टितुमारद्धा, अण्णदा छाहा चैव एस गोहेति २ भाणचा कहेति, पुड्डो छाहिं दरिसेति, ततो पिया से लज्जितो सोषि एवंविधोत्ति, तीसे घणं रागो जातो, सोचि अविसंभितो पिताए समं जेमेति । अण्णदा पिताए समं उज्जेणि गतो, दिट्ठा णगरि, णिग्गता पिता पुत्तो, पिता पुणोवि अतिगतो किंपि ठावितगं विस्सरियंति, सो सिप्पाए नदीए पुलिणे नगरं सच्च आलिहति, तेण णगरी सचच्चरा लिहिया, ततो राया एति, तेण राया वारितो, भणितो-मा राउलमज्झेणं एहिति, रण्णा कोतुहल्लेणं पुच्छितो, सचच्चरा सब्वा कहिया, रण्णा भणितो कहिं वससित्ति ?, तेण भणितं अमुगगामे, पिया से आगतो, ते गता, रायाए व एगुणगाणि पंच मंतिसताणि, एगं मग्गति, जो य सव्यप्पहाणो होज्जति, चितियं-एस होज्जत्ति, तस्स परिक्खणणिमित्तं इमाणि सतिसिलमिंदकुक्कुडतिलयालुयहत्थि अगडवणसंडे । परमन्नपत्तलैंडगखाइला पंथ पियरो य ।। ९४१ ।।
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औत्पाचि की बुद्धिः
॥५४४॥
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९४०-९४२/९४०-९४३], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
नमस्कार व्याख्यायां
॥५४५|
दीप अनुक्रम [१]
लेह विसज्जेति, जथा- तुज्य गामस्स बहिं माहिल्ली मिला, नीए मंडवं करेह, ते आदष्णा, मो दारतो रोहनो छुहातितो, औत्पाति पिता से गामेण समं अच्छति, उस्सूरे आगतो, सो रोविति-अम्हे छुहाइया अच्छामो, सो भणनि-तुम मुहितोसि, किह , तेण 2 की स कहिय, भणति-वीसत्था अच्छह, हेट्ठा खणह खंभे ठवेना थोवथोवतेण भूमी कया, उबलेवणकतावनार रणो निवेदितं, केणI बुद्धिः कतं, रोहएणं भरहगदारएण १। ततो मेंढतो पेसितो, एम पक्खेण एतिओ चेव पच्चप्पिणेतव्चो, तेहिं भरही पुच्छितो, तेणविस विरूवेण समं बंधावितो, जवसं दिण, तं चरंतस्स ण हायति बलं, विस्वं च पेच्छंतस्स भएण ण वडतित्ति २ । एवं कुक्कुडो अदाएण समं जुज्झावितो ३ । तिलसम तेलं दातव्यंति तिल्लमदाएण पणामियं ४ । बालुयाए बरहए पडिहत्थं देह ५ । हस्थिम्मि जुण्णहत्थी गाम छूढो, हत्थी अप्पाउओ मरिहितित्ति अप्पितो, मतोत्ति पाणिवेदितव्ब, इत्थी मतो, तहिं णिवेइयं जथा ण चरति ण णीहारेति ण ऊससति ण णीससति, रण्णा भणित-मतो?, तेहिं भणितं-तुब्भे भणहत्ति ६ । अगडे आरण्णओ ण तीरति एकल्लतो णागरं अगडं देह७ | वणसंडे पुवावासे गतो गामो ८। परमणं कारिसउम्हाए पलालुम्हाए यत्ति ९। एवं परिक्खिऊणं समादिई-रोहगेण आगंतव्यं, तं पुण ण सुकपक्खे ण कण्हपक्खे णोराति ण दिवा ण छायाए ण उण्हेणं ण छत्तेण ण आगासेणं ण पादेहि ण जाणेणं ण पंथेण ण उपहेणं ण ण्हाएणं ण मलिणणं, पच्छा अघोलि कातूण चकमज्झभूमीए पडिकमेणं एगं पादं कातूण चालणीणिम्मितुत्तिमंगो, अन्ने भणति--समदुलट्टणीपदेसबद्धओ छाइयपडगेण संझासमयसि अमावासाए आगतो, रण्णा ५४५॥ पूजितो, आसण य से ठितो, यामविउद्धेण रण्णा सहाविओ-सुत्तो? जग्गसि ?, भणति-जग्गामि, सो सुत्तो विबुद्धो उडितो, रण्णा भणितो-जग्गसित्ति, जह आणचेह-किं तुहिको अच्छसि ?, तेण भणिय-नितीम, किं चिंतेसि ?, भणइ-असोत्थपत्ताण किं विटो
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९४०-९४२/९४०-९४३], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
की
प्रत सूत्रांक I-1
बाद्ध
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार महल्लो उदाहु छिहा १, किह ते चिंतियं, भणइ--दोवि समाणि, पीए जामे छालियालिडियाओ, बातेण, ततीए खाडइला/त्पाति व्याख्यायादि जत्तीया पंडरगा तत्तिया कालगा, जत्तिय पुच्छं तत्तीय सरीरपि आयामेण, चउत्थजामे सदाविओ वार्य ण देति, तेण कंटियाए ॥५४६॥ पच्छिन्नो उडितो, भणति- किं जग्गसि सुयसि ?, भणति-जग्गामि, किं करेसि , चिंतेमि, किं चिन्तेसि ?, कतिहिं सि जातो 1,10
तो कतिहि, तेण भणिय-पंचहि, केण केण ?, रण्णा वेसमणेण चंडालेणं रयएणं विछिएण, तेण माया पुच्छिता, णिबंधे 8 है कहितं, सो पुच्छति-किह ते णायति, सो भणति-येन यथान्यायेन राज्ज पालयसि तेण णज्जसि रायपुत्तोत्ति, बेसमणो दाणेणं,*
रोसेण चंडाले णं, सव्वस्स हरणेण रययो पुण, जेण ममं उच्छुपसे तेण विछितोति, तुट्ठो राया, सम्वेसि उरि ठवितो भोगा दय से दिण्णा ॥
पणितए दोहि पणिय बद्धं, एगो भणति- जो एताए लोमसियाए खाति तस्स तुम किं देसित्ति, इयरो भणति- जो |जिव्वति तेण जो जगरदारे मोदओ ण णीति सो दातव्बो, एगो जीतो, इतरो मग्गति, सो से रूवर्ग देति, इतरो णेच्छति, ताहे हैदोण्णिा, जाहे ण तेहिं तूसति ताहे तेण जयकारा ओलग्गिता, बुद्धी दिण्णा, ताहे पूवियावणाओ एगं मोदगं गहाय इंदखीले ठवेति, I भणितो- णीहि मोदगा !, ण णीति, जीतो ।। रुक्खे फलाणि, मक्कडा ण देंति, पाहाणेहिं हया, तेहिं फला खिचा।।
॥५४६॥ .131. खड्डए पसेणती राया, पुत्तो से सेणिओ, रायलक्षणसंपण्णो, तस्स किचि ण देति-मा मारिज्जिहित्ति, सो दिए णिग्गतो, लावण्णातडं आगतो, पणियसालयाए ठितो, तस्स लाभो तप्पभावेण, सो मच देति, धूताए संपक्को, दिण्णा रायाए लहा विस |
ज्जितो, सो आपुच्छति, सा मणति- तुमहिं कहि , सो भणति- अम्हे पंडरकुंडगा रायगिहे गोवाळा पसिद्धा, गतो य, आवष्ण
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अनुक्रम
[8]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९४० - ९४२ / ९४०-९४३],
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्यायां ॥५४७॥
सत्ताए दोहलो देवलोगचुयस्स अभयं सुणेज्जामि, वाणितो दव्यं गहाय उबडितो रण्णो, रण्णा गहियं, उग्धोसावियं पुत्तो जातो, अभयोति णामं कर्त, पुच्छति मम पिता कर्हिति १, ताए कहितं भणति वच्चामोति, सत्थेण समं बच्चति, रायगिहस्स बहिया ठिता, णगरगवेसतो गतो, राया मंती भग्गति, सुक्ककूवे खुट्टगं पाडियं, जो गेण्हति हत्थेणं तडे ठितो तस्स राया बिचि देवि, अभएण दिडं, आहतं छाणेणं, सुक्के पाणियं मुक्कं, तडे संतरण गहियं, रण्णो समीवं णीतो, पृच्छति तुमं को, भगति तुम्ह पुत्तोति, किह वा किंवा १, सव्वं पडिकहिये, तुट्टो उच्छंगे कतो, माता पवेसिज्जती मंडति, तेण वारिया, अमच्यो जातो ।
पडे, दो जणा व्हायंति, एगस्स दढो पडो, एगस्स जुण्णो, जुण्णइतो दढं गहाय पट्टिओ, इतरो मग्गति, सो ण देति, ववहारो, महिलाओवि कंताविताओ, दिण्णो अस्स जो, अण्णे भणति सीसाणि ओलिहिताणि, एगस्स उष्णपडओ पीयस्स सोत्तिओ ।
सरडो, सण्णं वोसिरंतस्स सरडा मंडती, एगो तस्स अधिङ्काणस्स हेट्ठा बिलं पविडो, पुच्छिण छिक्को, घरं गतो, अद्धितीए दुब्बलो जातो, बेज्जो पुच्छितो भणति जदि सतं देह, दिण्णं, तेण घडए सरडो छूढो लक्खाए विलेपित्ता, विरेषणं दिण्णं, बोसिरियं, सरडो कप्परे दिट्ठो, लड्डीहूतो ॥ वितिओ सरडो, भिक्खुणा खुट्टओ पुच्छितो (भणति) एस सरडो किं सीसं चालेह, तेण भणित- तुमं जोएति किं भिक्खु भिक्खुणिति ।।
कागे, तच्चणिएण खुट्टओ पुच्छितो अरहंताः सर्वज्ञाः १, बाढं, तो कित्तिया इहं कागा? सहि कागसहस्साई इहयं विष्णात डे परिवर्तति । जदि ऊणमा पवसिता अन्मधिता तत्थ पाहुणगा ॥ १ ॥ वितिओ मिहिम्मि दिट्ठे महिलं परिक्खति- रहस्
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९४०-९४२/९४०-९४३], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
की
प्रत सूत्रांक -1
PI बुदिः
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार | धरेति णवित्ति , सो भणति- मम पंडरओ कागो अहिट्ठाण पविट्ठो, ताए सुहिज्जिताण कहित जाव रणा सुर्य, पुच्छितो, कहिये । औत्पात्ति व्यायामालारणा से सुकं मुक्क, मंती य निउत्तो । ततिओ विट्ठविक्खरणे भागवतो सुहग पुच्छति, खुट्टगो भणति- एस चिंतेति- एत्था ॥५४८||
विण्हू अस्थि णस्थिति।
उच्चारे, धिज्जातियस्स मज्जा तरुणी, गामंतरं णिज्जमाणी धुत्तेण समं लग्गा, गामे बबहारो, विभत्ताणि पुच्छिताणि, आहारविरेयणं दिण्णं, तिल्लमोदगा, इयरो धाडिओ। ____ गये, हत्थी महतिमहालओ जो तोलति तस्स सतसहस्सं देमि, णावाए तोलति, लछित्ता णावाए उत्तारितूण पाहाणाणं | भरिया, जाव से लेहा, पाहाणा तोलिया, एत्तिय तुलति, जितो। ___घतणो भंडो सव्वरहस्सितो, राया देवीय गुणे कहेति-णिरामयं, सो मणति-ण भवति, किह ?, जया पुप्फाणि केसवाते ढोएति, तहत्ति विण्णासियं, शाए हसिय, णिबंधे कहियं, णिव्विसओ, सुणति, उवाहणाण भारेण उवद्वितो, उडाहभीताए रुद्धो।
गोलओ णक पविट्ठो जतुमतो,सलागाए तावत्ता कड्डितो। खंभो तलागमज्झे, जो तडे संतओ बंधति तस्स सयसहस्सयं दिज्जति, तमेव खोलग बंधितूण पडिबंधितूण बद्धो, जितो | 8५४८॥
खुट्टए, पारिन्बाइया भणति-जो जे करेति तं मए कायब्वं कुसलकम्म, खडओ गतो भिक्खस्स, पडहओ वारितो, गओ शराउलं, दिट्ठा, सा भणति- कतो गिले, तेण सागारियं दातिय, जिया, काइएण य पउमं लिहिय, सा न वरति, जिता ।
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प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
[8]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९४० - ९४२ / ९४०-९४३],
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्यायां
॥५४९॥
मग्गेत्ति एगो भज्जं गहाय पवहणेण गामंतरं वच्चति सा सरीरचिताए ओतिष्णा, तीए रूवेण वाणमंतरी विलग्गा, इतरी रडति, वबहारो, दूरं हत्थो पसारितो, गातं ।
इत्थिन्ति मूलदेवो अप्पवितिज्जितो वच्चति, इतो य एगो पुरिसो समहिलो आगच्छति, दिडो, तीए रूबे मुच्छितो, एगंते | उच्चचिऊण अच्छति, तेण वितियएण भष्णति महिला- इत्तो मम महिला वितातुकामा एवं विसज्जिहित्ति, तेण विसज्जिया, सा | तेण समं अच्छति, इतरीवि मूलदेवेण समं रमितूण आगता, णिग्गंतूण य तत्तो पडयं घेतूण कंडरियस्स धुत्ती भणति हसंतीपियं खु णे दारओ जातो ।
पतित्ति, दोन्हं भागाणं एगा भज्जा, लोगे फुडं दोण्हवि समा, रण्णा सुतं परं विस्सयं गतो, अमच्चो भगति कतो एवं होहिचिई, अवस्सं विसेसो, तेणं लेहो दिण्णो जहा गामं गंतव्वं, एगो पुव्वेणं एगो अवरेण, भज्जाए अल्लीविओ, तीए जो पिओ सो अवरेणं पेसिओ, जो बेसो सो पुच्वं पेसितो, वेसस्स गच्छंतस्स आगच्छंतस्सवि निडाले सूरो, असदहंतेसु पुणोवि पट्टचितूण समगं पुरिसा पेसिता, ते भांति ते दढं अपड़गा एसो मंदसंघयणोति भणितुं तं चैव पवण्णा, एवं णायं ।
पुत्ते जाए एगो वाणियओ भज्जाहिं समं अण्णं रज्जं गतो, तत्थ मतो, ताओ दोवि भणति मम पुत्तोत्ति, पुतणिमित्तं ववहारो, णेच्छति, अमच्चो भणति दन्त्रं विरिचित्तु दारगं दो भागे करेह करकचएणं, एगा भणति एवं होतु, माता भणति एतस्स पुत्तो, मा मारिज्जतु, तीसे विदिष्णो ।
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बुद्धिः
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९४०-९४२/९४०-९४३], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
औत्पाति
प्रत सूत्रांक
-1
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार मधुसित्थो काई कोलिगिणी उम्भामहला य, तेणेव विहाणेण दरिसित, नाता उन्भामइलत्ति । व्याख्यायां
मुदियाए पुरोहिते णिक्खेवए घेणं अण्णेसि ण देति, अण्णदा दमएण ठवियं, पडियागतस्स ण देति, सो पिसायो जातो, ॥५५०॥ अमच्चो बीधीए जाति, भणति दावह पुरोहिता ममयं सहस्सं, तस्स किया जाता, रणो कहितं, रण्णा भणित-देहि, ण|
| गेण्हामिति, मग्गेति, अण्णदा रायाए सम जूतं रमति, णाममुद्दागहण, रायाए अलक्खगं गहाय मणूसस्स हत्थे दिण्णा, अमृग & कालं साहसो णउलओ दमएण ठवितो तं देहि, इमं अभिण्णाण, दिष्णो, आणितो, अण्णाण णउलाण मज्झे कतो, सो सहावितो, | पच्चभिण्णातो, पुरोहितस्स जिम्मा छिन्ना ।
अंको तहेव एगेण णिक्खित्तं लंछेतूणं, इतरेण हेवा गहिया, ओसिबित्ता कूडरूवगाणं भरितो, पच्छा तहेच सीवितं, आगतस्स अल्लिवितो, सा मुद्दा उग्याडिया जाव कूडगरूवगा, वबहारो, पुच्छितो केत्तिया रूवगा, सहस्स, गणिऊण भरिए ऊणगं
जातं, तथा तडिनेउं ण तीरति सच्चे तु, एवं जातं । भी णाणए तहेच णिक्खेवओ, पणा छुढा, आगतस्स दिण्णो,अण्णो णउलतो, पणे पुच्छा, राउले ववहारो,कालो को आसि',अट्र मुगो, अहुणचणगा पणा, से चिराणओ कालो, दंडिओ। हा भिक्खू तहेव णिक्खेवर्ग न देवि, जूतकरा ओलग्गिया, तेहिं पुच्छिएणं सब्भावो कहितो, ते रत्चपडगवेसेणं गता सुवष्णस्स
खोडियाओ गहाय, अम्हे बच्चामो, चेइयं वंदामो, इम अच्छउ, मो य पुब्बभणितो,एतमि अंतरे आगतेण मग्गितं तए, लेभ
REASABBE
॥५५०॥
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९४०-९४२/९४०-९४३], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सुत्रांक
औस्पाति
-
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार Jल्लताए दिण्णं, अण्णेवि भिक्यू एंतगा तो एगाए मंजूसाए चेव कज्जिहिति णिग्गता। व्याख्यायांका
चेहगणिधाणे, दो मित्ताणि, तेहि णिधाणगं दिई, कल्ले सुनक्खत्ते लेहामोत्ति, एगण रति उक्खणिऊण इंगाला छूढा, चिति॥५५॥ यदिवसे गता, इंगाल पेच्छति सो धुत्तो भणति- अहो अम्हं मंदपुण्णया, इंगाला जाता, तेग णात, हिययं न दरिसेति, तस्स |
पडिमं करेति, दो मक्कडए गेहति, तस्स उवरि भन देति, ते छुहाइया तं पडिमं चडंति,, अण्णदा भोयणग सज्जितं, दार
गा तस्सच्चया आणिता, संगोविता, ण देति, भणति-- मक्कडगा जाता, आगतो, तत्थ लेप्पगट्टाणे आवेसावितो, मक्कडगा 8 मुक्का, किलकिलंता तस्स उवरिं विलग्गा, णात, दिण्णो भागो।।
सिक्खा,अस्थि धणुव्वेओ एगो राजपुत्तो, जथा सेणिओ तथा हिंडतो एगध उ ईसरपुत्तए सिक्खवेति,दवं विढत, तेसिट पिती, मिसगा चिंतति-बहुतं दबं एतस्स दिणं, जदया जाहिति ततिया मारिज्जिाहिति, तेण णातं, संचारितं णातगाणं-जहाई |
रात छाणपिंडए णदीए छुभीहामि ते लएज्जह, तेण लोलगा वालिता, एसा अम्ह विधित्ति तिहिपव्वणीसु दारएहि समं णदी-18 लाय छुभति, एवं णिच्चाहेतूण गट्ठो।
अत्थसत्थे एगेण पुषण दो सवित्तीओ, ववहारो ण छिज्जइ, इतो य देवी गुब्बिणी उज्जाणियं गता, ताओ उवाहिताओ, कसा भणति- मम पुत्तो जो होहिति सो अस्थसत्थं सिक्खिहिति, एतस्स असोगस्स हेट्ठा णिविडो ववहारं छिदिहिति ताव दोवि & अबिसेसेणं खाह पिवहात्ति, जीसे ण पुचो सा चिंतेति- एचितो ताव कालो लद्धोत्ति पडिसुतं, णाता, ण एसी ।
।।५५१॥
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९४०-९४२/९४०-९४३], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार
बुद्धिः
प्रत सूत्रांक -
पवादा पुजा कता,
इच्छाए, एगाए भचारो मओ, वद्भिपउत्तं तं ण उग्गमति, पतिमित्तो भणितो- उग्गमेहि, तेण भणित-मजा तिभागं देहितावनायका व्याख्यायाम
ताए भणित-जं तुम इच्छसि तं ममं देज्जासि, तेण उम्मग्गित, सतं दिणं, सा णेच्छति, ववहारो, आणावितं, दो पुजा कता, ॥५५२॥ कतरं तुम इच्छसि', भणति- बहुं, ताए भणितो- एतं चेव ममं देहित्ति, दवावितो।
सतसहस्सति, एगो परिभट्ठतो, तस्स सतसाहस्सं खोरं,सो भणति- जो मम अपुवं सुणावेति तस्स एतं देमि,अण्णदा एगं| णगरं गतो, तत्थ उग्योसेति, सिद्धत्थपुत्रेण सुतं, भणति- मज्ज्ञ पितुं तुज्झ पिता धारेति अणूणगं सतसहस्सं । जादि सुतपुव्वं दिज्जतु अह ण सुतं खोरयं देहि ॥१॥ जिओ । उप्पत्तिया गता ।
इदानीं बैनयिकी, विनयात् निष्पन्ना वैनयिकी,को विनयः?, गुरुशुश्रूषाविनयादिः,पच्छा सो गुरू तस्य बुद्धिं तस्मिन् शास्त्रे ४. विनयति गमयति प्रापयतीत्यर्थः सा विनयिकी, सा य केवंविहा भवति', उच्यते-भरस्य निस्तरणसमर्था, भरोणाम अतिगुरुकं कज, तस्या धारणी, त्रिवों नाम धर्मार्थकामा, अहया लोगो वेदो समयो, सूर्य अर्थः तदुभयं, एतेसिं पेयालना, पेयालनाला परिज्ञानं अभिगमनमित्यर्थः, उभयोलोगफलवती इमो परो वा, कोई इहलोइओ तीसे फलवतीओ, कोई परे, तत्थिहलोगो सक्कारा दज देति, परलोगे स्वर्गमोक्षी च, कह?, निमित्तं जाणति, अमुगस्थ विहरितव्बंति एवमादि परलोइय, विनयात्समुत्थान | ५५२॥ | यस्याः सा भवति विनयसमुत्था, बुध अवगमे, सा य युद्धी, कई फलवती भवति ।, तत्थ उदाहरणाणि, न शक्यं दृष्टान्तिकोऽर्थों | सदृष्टान्तमन्तरेणोपपादायितुं तेन तीसे इमाण उदाहरणाणि
SANSAR
दीप अनुक्रम [१]
RADIOS
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सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
[8]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूलं [१] / [गाथा-], निर्युक्तिः [९४४/९४४ - ९४७ ],
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार
व्याख्याया ॥५५३॥
मत्ते अत् ॥ ९५८ ॥ ९४४ ॥ निमित्ते, एगस्स सिद्धपुत्तस्स दो सीसगा णिमित्तं सिक्खति, अण्णदा तणकट्ठस्स बच्चेति, तेहिं हत्थियपदा दिट्ठा, एगो भणति हत्थिणियाए पादा, कहं ?, कायएण, सा हत्थिणी काणी, कहं ?, एगपासेण तणाई खइताई, तेण काइएण गावं जथा- इत्थी पुरिसो य विलग्गाणि सोवि जातो, सो य जुन्त्राणत्ति णावो, इत्थणि रुंभित्ता उद्विता, दारओ से भविस्सति जेण दक्खिणपादो गुरु, पोतरता दसि रुक्खे लग्गा नदीतीरे एगए थेरीए पुत्तो पवसितओ, तस्स आगमणं पुच्छिया, तत्थ घडओ भिण्णो, तत्थ य एगो भणति तज्जातेण य तज्जातं, संणिमेण य तण्णिमं । तारूवेण य तारूवं, सरिसं सरिसेण णिदिसे || १ || मतओत्ति परिणामेति चितिओ भणति जाहि बुड्ढे ! सो घरं आगतेलओ, सा गता, दिट्ठो, तुट्ठा, तओ सा जुवलगं रूपए य गहाय आगता, सक्कारिओ, वितिओ भणति मम सम्भावं ण कथेति तेण पुच्छियं, तेहि जथाभूतं कहितं, एगो भणति भूमिजो भूमिं चैव मिलितो, एवं सोवि दारतो, भणितं च- 'तज्जाएण य तज्जातं ० ' सिलोगो । अत्थसत्थे कप्पओ दधिकुंडगउच्छुकलावग एवमादि। लेहे जथा अट्ठारसलिविजाणओ । एवं गणिएवि । अण्ण भणति वट्टेहिं रमंतेण अक्खराणि सिक्खावियाणि गणियाइ य । कूवे खायजाणएणं पमाणं भणितं, जथा एदूरे पाणियंति, तेहिवि खतं, तो वोलीण, तस्स कहिये, पासे आणहद्दत्ति भणिता, धव्वसगसद्देण जलमुट्ठाहियं । आसे, आसवाणियगा बारवतिं गया, सच्चे कुमारा थुल्ला वडे य गण्डंति, वासुदेवेण जो दुब्बलङ्गो लक्खणजुतो सो गहितो । गद्दभे राया तरुणपितो, अण्णत्थ उद्धाहता सिणपछि जारिसे, तिसाए पीडिया, थेरं पुच्छंति, घोसावितं, एगेण पियपुत्त्रेण आणितओ, तेण कहिये, थेरो भणति सुयह गद्दमे, जत्थ गदभा उस्सिति जहिं लुठिंति य तत्थ पाणितं खयं, पीता य । अण्णे भणति उस्सिंघणाएं चैव जलासतं गता ।। लक्खणे पारसविसए
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वैनयिकी बुद्धिः
॥५५३॥
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
[3]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
अध्ययनं [-]
मूलं [१] / [गाथा-1
निर्युक्तिः ९४४९४४-१९४७). आयं [१११...]]]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार व्याख्याया
॥ ५५४॥
आसरक्खओ, धीताए वस्स समं संपत्ति, ताए भणितो बीसत्थाणं घोलचम्मं पाहाणाणं भरेतूर्ण रुक्खाओ मुयाहि, तत्थ जो ण उत्तसति तं लएहि, पडहं च वालेहि, बुझावेह य खक्खरएणं जो ण उत्तसति तं लएहि, सो वेतणगकाले भणति मम दो देहि, अमुगं २ वा तेण भणितं सच्चे गिण्हाहि किं ते एतहि १, च्छति, भज्जाए कहणं, धीता से दिज्जतु सा पेच्छति, सो तीसे वति, दारकं कहेति, लक्खणजुत्तेणं कुटुंबं परिवड्डतिति । एगस्स मातुलणं घृया दिष्णा, कम्मं ण कररीत, भज्जाए चोइतो दिवे दिवे अडवीओ रित्तओ एति, छडे मासे लद्धं कुलबो, सतसहस्सेणं सेट्टिणा लइओ अक्खयणिहित्ति ।। गंधम्मि, पाडलिपुत्ते नगरे पालित्तगा आयरिया अच्छंति, इतो व जोणिएहिं इमाणि बिसज्जियाणि पाडलिपुतं सुतं मोहित लड्डी समा मुद्दिओ समुग्गओति, केण ण णाता, पालितंयआयरिया सदाविता-तुम्मेहिं जाणह भगवंति, पाढं जाणामि, सुतं उन्होदए छूटं मयणं विरायं दिट्ठाणि अग्गिमाणि, दंडओ पाणिए छूटो, मूलं गरुयं समुम्मतो जतुणा घोलितो उन्होदए, कढितो उग्धाडितो य। तेणविय लाउयं राइलेऊण रयणाणि छूढाणि, तेण य सिव्विणीए सिब्बैऊण विसज्जितं, अभिदंता फेडह ण सविकतं ॥ अगदे, परवलं जगरं रोहेतुं एतित्ति रायाए पाणियाणि विणासितव्याणि विसकरो पाडितो, पुंजा कता, वेज्जो जवमेत गहाय आगतो, राया रुडो, वेज्जो भगति सतसहस्सवेधी, कहं ?, खीणाऊ हत्थी आणितो, पुच्छवालो उप्पाडिओ, तेणं चैव वालग्गेण तत्थ विसं दिणं, विवरणं करतं दीसति, एस सच्चो बिस, जोवि खाएति सोपि बिसं एवं सतसहस्रसवेधी, अस्थि निवारणविधी ?, बाढं तत्थेव अगदो दिष्णो समंतो जाति ॥ रहिय गणिया एकं चैव, पाउलिपुत्ते दो गणियाओ-कोसा उनकोसा य, कोसाए समं धूल भूद्दसामी अच्छितओ आसि, पच्छा पव्वतो, ताहे वरिसारतो तत्थ गतो, साविका जाया, अवभस्स पञ्चकखाइ, पण्णत्थ रामाभि
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वैनयिकी बुद्धि
॥५५४॥
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सूत्रांक
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अनुक्रम
[3]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
अध्ययनं [-]
मूलं [१] / [गाथा-1
निर्युक्तिः ९४४९४४-१९४७). आयं [१११...]]]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार व्याख्यायां ।।५५५।।
योगेणं, रधिएण राया आराहितो, दिण्णा, सा धूलमदसामिस्स अभिक्खणं २ गुणे गेण्हति तं ण तथा उपचरति, सो ताए अप्पणी विष्णाण सेतुकामो असेोगवणियभूभीगतेण अंबपिडि च्छोडिता, कण्डपुक्त्रं अण्णोष्णं लाएंतेगे हत्थन्मासं आणेत्ता अडचंदेण छिष्णे गहिया, तं तथावि ण तूसति, भणति किं सिक्खियस्स दुक्करं १, सा भणति पेन्छ ममंति, सिद्धत्थगरासिंमि गच्चिता, सूचीण अग्गयंमि य, कणियारपुप्फपोइयासु, सो आउट्टो, सा भगति ण दुक्करं तोडिय अंबपिंडी, ण दुक्करं णचितु सिक्खियाए। तं दुक्करं तं च महाणुभागं, जं सो मुणी पमयवणं निविडो ॥ १ ॥ सीया साडी दीहं चतणं अवसम्वर्गच कचस्स एक्कं चेच, रायपुता आयरिएणं सिक्खाबिया, दव्बलोभी य सो राया, तं मारेतुं इच्छति, ते दारगा चिंतीत एते अम्हं विज्जा दिण्णा, उवारण णित्थारेमो, जाहे से जेमओ एति ताहे ण्हाणसाडियं मग्गति, ते सुक्खयं भणति अहो सीया साडी, बारमुहं तणं देति, भणति अहो दीहं तणं, पुष्वं कोंचतेणं पदाहिणीकरेंति, तद्दिवसं अपदाहिणी कतो, परिगतं जघा विरताणि, पंथो दीहो सीताणं तं मम कातुं मग्गतिति, पट्ठो ॥ णिव्वोदए, वणियभज्जा चिरपडत्थे पतिम्मि दासीए सम्भावं कहेति - पाहुणगं आणेहित्ति भणिता, ताए पाहुणओ आणियओ, आयसंच से कारियं, रतिं पबेसितो, तिसाइओ णिव्योदगं दिण्णं, मओ, देउलियाए उज्झितो, अहुणा कयकम्मोति ण्हाविया पुच्छिता - केण आउसे कारिणं, तेण भणितं दासीए, सा पहता, ताए कहियं, वाणिगणी पुच्छिया, साहति सम्भावं, तयाविसो गोणसोत, दिट्ठो य ॥ गोणे घोडगरुक्खपडणं च एवं चेव, एगो अकतपुण्णो जं कम्म करेति तं विवज्जति मित्तस्स जाइएहिं बतिछेहिं हलं बाहेति विगाले आणिया, वाडे छूढा, सो य मित्तो से जेमिति, सो लज्जाए ण टुको, तेचि दिडा, णिम्फिडिता वाडाओ, हरिया, गहितो देहिति, राउलं णिज्जति, पढिपणं घोडपूर्ण पुरिसो एति, सो तेण
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वैनयिकी बुद्धिः
॥५५५॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 "अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९४४/९४४-९४७], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार पाडितो आसण, सो पलाओ, तेण मणितो- आणानि, तेण मम्मे आहतो, मतो, तेणवि लतितो, विगालोति णगरस्स बाहिरियाए31 कर्मजाव्याख्यायां
| बुत्था, तत्थ लोमंधिया सुत्ता, इमेवि तहि चेव, सो चितेति-जावज्जीवं बंधणे करिस्सामि, वर मे अप्पा उब्बद्धो, तेसु सुत्तेसु डण्डि- बुद्धिः ॥५५६॥ खंडेण तम्मि बडरुक्खे अप्पाणं उक्कलबेति, तं दुबलं, तुट्टतेण पडतेण लोमथितमहत्चरी मारितो, तेहिवि गहितो, पभाते
६ करणं णीतो, तेहिवि कहितं जथावत्तं, सो पुच्छितो भणति आमंति, कुमारामन्चो भणेति- तुम बलिदे देहि, एतस्स अच्छीणि
उक्कमंतु, वितिओ भणितो- एतस्स आसं देतु, तुज्झ जीहा उक्झमतु, इतरे भणिया-स हेट्ठा होतु तुब्भं एगो उबंधतु, णिपडिभोगोत्ति मंतणा कातुं मुक्को । घेणतिया गता।
कम्मया णाम कर्माज्जाता कर्मजा, सा 'उवयोगदिवसारा' उवयुज्जत इत्युपयोगो, उवयोगन यासां दृष्टो सारा सा भवVाति उपयागदृष्टसारा, सारो नाम सद्भावा, निष्ठेत्यर्थः, कर्मप्रसंगो नाम अभिक्खयोगा, परिघोलणा णाम सहावपरिमग्गण,त.
ण विसाला फलवती हवति बुद्धी, ताए फलं साहुक्कारो, साधु सोभणं कतति । एगेणं चोरेण खत्तं पउमागारेण छिण्णं, सो जणचातं णिसामेति, करिसओ भणति- कि सिक्सितस्स दुक्कर, चोरेण सुतं, पुच्छितो, गंतूण छुरियं अंछितूण भणति-मारेमि, तेण षडयं पत्थरेत्ता वीहियाणं मुट्ठी भरितो, भणति- किं परंमुहा वडंतु ? आरंमुहा ?, पासिल्लया, तहेब कतं, तुट्ठो। कोलितो । 1५५६॥ | मट्ठीणा गहाय तंतू जाणति-एत्तियाएहिं कण्डएहिं बुणिहितित्ति । डोए बहुति जाणति-एत्तियं माहिति । मोत्तियं आयणितो आगासे ओक्खिवित्ता तथा णिक्विवति जथा कालवाले पडति । घते सगडे संतओ जदि रुग्चति कुण्डिताए णालए छुभति धारं । पवओ आगासे ताणि करणाणि करति । तुंणाओ पुब्बं थुल्लाणि पच्छा जहा ण णज्जति मूबीए, तत्तियं गेण्हति जत्तिएण समप्पत्ति, जथा
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 "अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९४४/९४४-९४७], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सूत्रांक
॥५५७
-1
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार साभिस्स तं दूसं धीयारेणं कारितं । वई अमवेतूण देवकुलरथाण पमाणं जाणति । घडगारो पमाणेण मट्टितं गण्दति भाणस्सवि,
परिणामिव्याख्यायामाणं अमविचा करेति । चित्तकारी पच्छा अमवेतूणं पमाणजुनं करेति, तत्तिय या वणयं करेति जत्तिएणं समप्पति ।। कम्मया ।
का समत्ता॥
इदाणि परिणामिता, परिणामनिष्पन्ना पारिणामिता, मनसो परिणामात्. वयसश्च, सा य एवंविधा
अणुमाणहेतु।९-६२ ।। ९४८ ॥ अणुमाणहेतुदिट्ठतेहिं साध्यमर्थ साधितीति अणुमाणहेतुदिद्वंतसाधिगा, तत्थ अणुमाणं 51 अविणाभावणिच्छियातो लिंगातो लिंगिणाणं, हेतू कारणं उवाओ, दिदुतो साधम्मेण वैधम्मेण य, एतेहिं जो जेण साध्यो अत्यातली | तेण साधेति या सा तथा. वयविपाकेण य परिणामो जीए सा तथा, जथा जथा वयो विपच्चति तथा तथा विपरिणमितित्ति जं भणि|तं, फलं णिदंसेति 'उभयोलोगफलवती' पुथ्वं वणितं, अहवा हियणिस्सेयसफलवती, कायहिता भवति, ण सुखा आवाते हैं जहा कटुकरोहिणी चेवमायोज्जामिति ॥ तसे इमाणि णिदरिसणाई
___अभए॥९-६३ ।। ९४९।। खमए ।। ९-६४ ॥९५०॥ चलणाहण० ॥९-६५॥ ९५१ ।। अभयस्स कहं पारि-12 दणामिया बुद्धी, जदा पज्जोतो गतो, रायगिह रोहितं, तदा अभएणं खंधावारणिवेसजाणएणं पुव्वं णिक्खंता कूडरूवगा है। धूमिया, कहियं च से जथा भेदिता खंधारा, दावितेसु नट्ठो, एस वा, अहवा जाहे गणियाहि कपडेण णीयो बद्धो ताव तोसिओ ||५५७॥ | चत्तारि बरा, चितियं चाणेणं- मायावेमि अप्पाणं, बरो मग्गिओ- अग्गी अतीमित्ति मुक्को, ताहे मणति- अहं तुर्म छलेण आ-A |णितो, अहं पुण दिवसतो पज्जोतो हरतिचि कंदतं नगरमोण नेमि, गतो.रायुगिहुं, दामो उम्मत्तओ कतो, गणियाओ दारि-४
करलSECRECleso
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९४९-९५१/९४९-९५१], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
नमस्कार
भ्याख्याया
सूत्रांक
॥५५८॥
-1
दीप अनुक्रम [१]
याओ गहियाओ, वाणियओ गओ, रडतओ हितो, एवमादिगाओ बहुगाओ अभयम्मि पारिणामियाओ बुद्धीओ। सेहित्ति कट्ठो 8 परिणामिणाम सेट्ठी एगत्थ णगरे वसति, तस्स ण वज्जा णाम भज्जा, तस्स णेब्बइल्लो देवसम्मो बंभणो, सेट्ठी दिसाजचाए गतो, मज्जा से तेण समं संपलग्गा, तस्स य घरे तिष्णि य पक्खी-सूयओ मयणसालिया कुक्कुडओ, सो ताणि अप्पाहेत्ता गतो, सो धिज्जा-12 तिओ रति अतीति, मयणसालिया भणति-को ताया ण बीहेति, सूयओ वारेति- जो अतियाए दयितो अम्हंपि पियल्लओ होति, सा मयणसलाइया अणथितासिता धिज्जातित परिस्सवति, तीए मारिया, सूयओ ण मारिओ, तीसे पुत्तो लेहसालाए पढति, अण्णदा तस्स (घर) साधुणो भिखस्स अतिगता, तं कुक्कुडगं पेच्छितूण एगो भणति-जो एयरस सीसं खाइ सो राया हातिांत, तं तेण धिज्जातिएणं किहवि अंतरिएणं सुत, अविरतियं मणति-मारेहि जाय खामि, सा भणति. अण्णं आणिज्जतु मा पुत्तभंडं व संवहितं, णिबंधे मारिओ जाब ण्हाउं गतो, ताव सो दारओ लेहसालाओ आगतो, तं च मंस सिज्झति, सो रोवति, तस्स सीसं दिणे, इतरो आगतो, भाणए. छुढं, सीसं मग्गति, भणति- चेडस्स दिणं, सो रुट्ठो भणति- मए एतस्स कब्जे मारावितो, पच्छा भणति- जति पर एतस्स दारगस्स सोस खातज्जा तो कृतं होज्ज, णिबंधे वासिता, दासीए सुतं, सा तं दारगं ततो चेव घेतृण पलाया, अण्णं णगरं गताणि, तत्थ राया मरति, आसेण परिक्खितो, सो तत्थ राया जातो। इयरोवि सेट्ठी | आगतो जाव सडितपडितं पासति, सा पुच्छिता- ण कहेति, सुएण पंजरमुक्केण कहितो भणाइसंबंधो, सो तहेव चिंतेति, अहं एतीसे कतेण, एसा पुण एवंति पव्यतितो, इतराणिवि तं चेव णगर आगताणि सव्वं गहाय, अण्णदा विहरतो सो साधू तत्थ गतो, तीए पच्चभिण्णातो, भिक्खेण समं मासगा दिण्णा, पच्छा कवित, गहितो, रायाए मूलं नीतो, धातीए णातो, इतरााणि
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९४९-९५१/९४९-९५१], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
नमस्कार | व्याख्यायो
*****
परिणामि
बुद्धि
॥५५९॥
**
दीप अनुक्रम [१]
णिब्बिसताणि आणचाणि, पिया भौगाह णिमंतितो, गच्छति, राया सट्टो कतो, बरिसारने पुणे यच्चतस्स अकिरियाणिमित्त धिज्जातिएहिं उवरवरियाए परिभट्ठियारूवकतगुब्बिणी य तथा अणुब्रजति, तीए गहितो, सो पवयणस्स उहाहो होहित्ति भणतिजदि मए तओ जोणीए णीतु, अहण होति मर्म तो पोट्टं भिंदित्ता णीउ, एवं भणितो पोर्दू मिश्र, मया, वणो य जातो। कुमारो। खुड्गकुमारो जहा जोगसंगहेहिं । देवी, पुष्फभद्दे णगरे पुष्फसेणो राया, अग्गमहिसी य पुफाती देवी, तोसे दो चेडरूवाणिपुष्फचूलो पुष्कचूला य, ताणि अणुरत्ताणि भोगे अंति, देवी पवझ्या, देवलोगे उवण्णा, देवो जातो, सो देवो एवं चिंतेतिजदि एताणि एवं मरांति तो नरगतिरिएसु उववज्जिहंति, मुविणए सो देवो परए देवलोए य उचदंसेति, सा भीता जाता, पुच्छति | पासडिते, ण जाणति, अण्णियपुत्ता तत्थ आयरिया, ते सहाविता, तहेव सु कडेति,सा भणति-किं तुम्भेहिवि सिविणओ दिहो। सो भणति- अम्हं एरिसं सुत्ति दिट्ट, पब्वइया । देवस्स पारिणामिता ॥ पुरिमतालं नगर, उदितोदितो राया, सिरिकता देवी, दोण्णिवि सावगाणि, परिष्वाइगा जिता, दासीहि य मुहमक्कडिताहि वेलबिता, णिच्छूढा, पदोसमावण्णा, वाराणसीते धम्मरुई राया, तत्थ गया, फलयपट्टियाए रूवं सिरिकताए लिहितूण दाएति धम्मरुइस्स रण्णो, सो अझोववण्णो दूतं विसज्जेति, पडिहतो निच्छूढो, ताहे सव्ववलेण आगतो, णगरं गहेति, सो सावओ चिंतेति उदिओदिओ राया- किं एवडेणं जणक्खएण?, | उपवासं ठिओ, बेसमणेणं देवेणं सणगर साधिओ, उदितोदयस्स पारिणामिया। साधूणंदिसेणेत्ति, सेणियपुत्तो दिसेणो, सीसो | य तस्स ओधाणुप्पेधी तस्स चिंता-भगवं जदि (रायगिह) एज्जा तो देवीओ अण्णाणि य अतिसए पेच्छितूण जदि थिरो होज्जत्ति, भट्टारओ आगतो, सेणीओ सअंतेपुरो णीति, अण्णे य कुमारा संतेपुरा, पदिसेणस्स अंतेपुरं सेतं वरवसणं, पउमिणिमझे हंसीओ
%25E5ॐॐॐॐॐॐ
॥९५९||
१९%
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[8]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९४९ - ९५१ / ९४९-९५१],
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्यायां
॥५६०॥
वा ओमुक्कआभरणाओ सव्वासिं छायं हरंति से ताओ दणं चिंतेति-जदि भट्टारएणं ममायरिएण एरिसियाओ मुक्काओ किमंग पुण मज्झ मंदभरगस्स असंताणं परिच्चइयव्ययाणंति णिव्वेगमावण्णो, आलोइय पडिक्कतो थिरो जातो । धणदत्तो सुसुमाए परिणामेति जदि एतं ण खामो तो अंतरा मरामोति ॥ सावओ सावयवयंसियाए मुच्छितो, तीसे परिणामो जातोमा अट्टवसट्टो मरिहिति, तो गरएसु वा उबवज्जिहिति, संसारं हिंडिडिवि तीसे आभरणेहिं विणीतो, संवेगो. कहणं च ॥ | अमच्चोत्ति वरघणुगपिया जतुघरे कते चिंतति-एस कुमारो मारितो होहिति, कहिंपि रक्खिज्जतित्ति सुरंगाए गीणिओ, पलातो, अण्णे भगति एगो राया देवी से अतिपिया कालगता. सो य मुद्धो, सो तीए वियोगदुखितो न सरीर डिति करेति, |मंतीहिं भणितो-देव ! एरिसी संसारडितित्ति, किं कीरतु ?, सो भणति नाहं देवीए ठिति अकरतीए करेमि, मंतीहिं परिचितियं ण अण्णो उवाओति, पच्छा भणितं देव ! सग्गं गता, तं तत्थ ठिताए चेव से सव्वं पेसिज्जतु, लद्धकयदेवीडितिए पच्छा करेज्जसुति, रण्णा पडिसुतं, मातिट्ठाणेण एगो पेसितो, रण्णो आगंतूण साहेति कता सरीरद्विती देवीए | पच्छा राया करेति, एवं पतिदिण करताण कालो वच्चति, देवीपेसणववदेसेण वत्थं कडिसुत्तगादि खज्जति, एगेण चिंतियं-अपि खति करेमि, पच्छा राया दिडो, तेण भणितं कुतो तुमंति?, सो भणति देव ! सग्गातो, रण्णा भणितं देवी दिट्ठति ?, सो भणति तीए चैव पेसितो कडिसुतयादिनिमित्तंति, दावित से जहिच्छितं, किंपि न संपद्धति, रष्णा भणितं कदा गमिस्सति ?, तेण भणित- कलं, रण्णा भणिय-कलं ते संपाडिस्सं, मंती आदिट्ठो- सिग्धं संपाडेह, तेहि चिंतियं विष कर्ज, को एत्थ उवाओ तिथ ?, विसष्णा, एगेण भणिय- धीरा होह, अहं भलिस्सामि, तेणं तं संपाडेतूण राया भणितो
(269)
परिणामिकी
बुद्धिः
1148011
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९४९-९५१/९४९-९५१], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
की
[-]
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार देव ! एस कह जाहिति', रण्णा भणित- अण्णे कह जंतगा?, तेण भणित- अम्हे जं पट्ठवेता तं जलणप्पवेसेणं, ण अण्णहा परिणामिव्याख्यायांसग गम्मतिति, रणा भणिय- तहेब पसेह, तहेव आढत्तो, सो विसण्यो, अण्णो य धुत्तो वायालो, रणो समक्खं बहुना
बुद्धिः ॥५६॥
उवहसति, जथा देवि ! भणिज्जासि सिणेहवतो ते राया, पुणोवि जै कजं तं संदिसेन्जासि, अण्णं च इमं च बहुविहं भणेज्जासि, तेण भणित- देव! णाहमेतिगमविगलं भणितु जाणामि, एसो चेव लट्ठो पेसिज्जतु, रण्णा पडिसुतं, सो तहेव णिज्जितुं आढतो,
इतरो मुक्को, इतरस्स माणुसाणि विसण्णाणि बिलति- हा देव ! अम्हे किं करेज्जामो?, तेग भाणितं -नियतुंडं रक्खेज्जह, पच्छा हामंतीहिं खरंटिय मुक्को, मडग दई, मंतिस्त परिणामिया || खनर खमओ चे एणं समं मिक्खं हिंडति, तेग मंडक्कलिया
मारिया, आलोयणवेलाए णो आलोएति, खुड्डएण भणितो- आलोएहित्ति, मो रुट्ठो आहणामेति पधावितो, (मे अभिडिओ) एगत्थ विराहितसामण्णाणं सप्पाणं कुलं, तत्थ उपवण्णो, दिट्ठीविसो सप्पो जातो, अपरोपरेण जाणंति, रत्तिं चरति मा जीवे मारेहामोति, फासुगमाहारेन्ति । अण्णदा रणो पुत्त। अहिगा खाइतो, मतो य, राया सपाणं पोसमावणो भगति- जो सप्पं मारेति तस्स दीणारं देमि, अण्णदा आहिडिएण ताणं रेहाओ दिट्ठाओ, त बिले सधीहि धम्मति, सीसाणि जिग्गछताण | छिंदति, सो अभिमुहो ण णीति-मा कंचि मारहामोरी जातिस्सरतणेण, तं णिग्गय छिदति, पच्छा तेण रणो उवणीताणि, से राया णागदेवताए बोधिज्जति, मा मारेहि, णागदिगो ते कुमारो होहित्ति, सो खमगसप्पो मतो समाणो तत्थ रायाणियाए पुत्तो | ॥५६॥
जातो, उम्मुक्कबालभावो साधु दह्र जाति संभरिता पच्छा पब्बइओ य, सो छुधालुओ अभिग्गहं गेहति- मए रुसितव्यंति, दादोसीणस्स पहिंडति, तत्थ आयरियस्स गच्छे चनारि खमगा- मासिओ २३४ ति, रनि देवता आगता, ते अण्णे खमए अति
RRENRITER
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[8]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९४९ - ९५१ / ९४९-९५१],
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्यायां
॥५६२॥
| कमेचा तं वंदति, खमएण णिग्गच्छंती हत्थे गहिया, भणिया य- कडपूयणे ! एवं तिकालभोई बंदसि, इमे महातवस्सी ण बंदसि?, सा भणति - अहं भावखमयं वंदामि, ण दव्यखमएत्ति, गवा, पभाते दोसीणस्स गतो, णिमंतेति, एगेण पायें गहाय खेलो छूढो, सो भणति मिच्छामि दुक्कड, जं मए खेलमल्लवं तुम्म पोवणीय, एवं सेसेहिवि, सो जिमेतुमारद्धो, तेहिं वारितो, वेगमावण्णो । | पंचवि सिद्धा । विभासा ॥ अनच्चपुत्तो वरधओ, तस्स तेसु २ प्रयोजनेषु पारिणामिया, जथा माता मोताविता, सो पलाविओ, एयमादी सब्धं विभासियां । अष्ण भगति एगो मंतिपुत्तो कप्पडियरायकुमारेण समं हिंडति, अण्णदा फेमित्तिओ घडितो, रचि | देसकुडिठियाणं सिवा रडति, कुमारेण णेमित्तिओ पुच्छितो- किं सा भगतित्ति ?, तेग भणितं इमं भणति इमंमि नदितित्थाम कलेवरं चितिति, एयरस कडीए सर्व पर्यकाणं, कुमार ! तुमं गण्हाहि तुज्झ पायका मम य कलेवरंति, मुद्दियं पुण् ण पुराणी
पुच्छितो, सो भणति चफिल इयं कहति, एस भगति कुमार ! तुज्यवि पायका संजाता मज्झवि कलेवरंति, कुमारी तुसिणी ओ | जाओ, अमच्चपुचेण चिंतियं पेच्छा से सतं किं किविणतणे गतो आउ सोंडीरताए १, जदि किविणतणेण कर्त ण तस्स रज्जेति णियतामि, पच्चूसे भगति- बच्चह तुम्मे, मम पुग सूलं रुजति, ण सक्कुणोमि गंतुं कुमारेण भणियं ण जुतं तुमं मोसूण गंतु, किंतु मा एगत्थ कोइ जाणिहित्ति तेण वच्चामो, पच्छा कुलपुत्तधरं पीतो, समप्पिओ, तं च सव्वं पेज्जामु दिण्णं, मंतिपुत्तस्स अवगतं जया सोंडीरतापीच, भणितं चणेण- अस्थि मे विसेस अतो गच्छामि, पच्छा गतो, कुमारेण रज्जं पत्तं, भोगावि दिण्णा । एतस्स पारिणामिगी ।
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परिणामिकी
बुद्धिः
॥५६२॥
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९४९-९५१/९४९-९५१], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सूत्रांक -
नमस्कार व्याख्या ॥५६३॥
दीप अनुक्रम [१]
चाणके गोल्लविसए चणियग्गामो, तत्थ चगिओ माहगो, सो य सापओ, तस्स घरे साधू ठिता, पुत्तो से जादो सह दाढाहिं
परिणामितेण साधूण पाएसु पाडिओ, तेहि भणित-राया होहितित्ति, तेण चितिय-मा दोग्गतिं जाइस्सइत्ति दंता घडा, पुणोचि आयरियाण| ट्र कहितं, तेहिं भणितं-किं कन्जतु, एताहेवि बिंबंतरितो भविस्सतित्ति, उम्मुकबालभावेण चोइस बिज्जाठाणाणि आगमियाणि,
सोवि सावओ संतुडो, एगाओ भद्दमाहणाओ आणिया भज्जा से, अण्णदा कम्ही कोतुए भज्जा से मातिघरं गता, केति भगति| भातिविवाहे गता, तीसे य भइणी अण्णेसि खद्धादागियाणं दिल्लिगाओ, ता अलंकितभूसिताओ आगताओ, सबो परिजगो ताहिं समं लपति, सा एगते अच्छति, तीसे अद्धिती जाता, घरं आगता, अद्धितिलद्धा अच्छति, णिबंधे सिदू, तेण चिंतिय-णदो पाडलिपुत्ते देति तत्थ बच्चामि, गतो, कत्तियपुष्णिमाए पुधमत्थे आसणे पढमे णिविट्ठो, तं च तस्स सालियातस्स राउठस्स | सता ठविज्जति, सिद्धपुत्तो य णंदेण सम तत्व आगतो भगति-एस बंभगों दवंसस्स छायं अकमिऊग ठितो, दासीए भणितो| भगवं! विविए आसणे णिवसाहित्ति, अस्विति विविए आसणे कुंडिय ठोति, एवं ततिए दंडग, चउत्थे मत्तियं, पंचमे जण्यो
वइयं, धिट्टोत्ति निच्छूढो, पादो पढमा उक्खित्तो, भणति य-कोशन भृत्यैव निबदमूल, पुत्रैध मिष विवृद्धशाखम् । उत्पाव्य | नंदं परिवर्तयामि, हठो दुर्म वायुरियोग्रवेगः ॥१॥णिग्गतो, पुरिसं मग्गति, सुतं च णेणं वितरितो राया होहामित्ति, नंदस्स II मोरपोसगा, तेसि गामं गतो परिवायलिगणं, तेसि महतरस्स धीताए चंदपीयने डोहलो जातो, सो समुदाणेतो गतो, ताणितं ॥५३३॥
पुच्छंति, जदि ममं दारगं देह तो णं पाएमि चंद, पडिसुणेति, पडमंडयो कतो, तदिवसं पुणिमा, मज्ले छिद्द, मज्झण्हं गते हा चंदे सब्बरसालूहिं दब्वेहिं संजोएत्ता आसण थाले भरित कर्त, सद्दाविता, पेक्षति पिपति य, उपरि पुरिसो उच्छाडेति, अब
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
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दीप अनुक्रम
[8]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९४९ - ९५१ / ९४९-९५१],
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्यायां
।।५६४||
पीते पुतो जातो, संबद्धति, इमोऽवि धातुविला मग्गति, सो य दारयहिं समं रमति, रायगीती विभासा, चाणको य पडिएड, पेच्छति, तेग त्रिमरितो, अम्हवि दिज्जनु, भगति -गावीओ लहेहि, मा मारेज्ज कोति, भगति - वीरभोज्जा पुहवी, जातं जथा विष्णाण से अस्थि, तो करसति दारएहिं कहि पनि एस अहं परिवाओ, जानु जा ते रायाणं करोमि, चलिया, लोगो मिलितो, पाडलिने रोहित गंगे भयो परिव्वायगो हि पुडित लगो, चंदवा य पमसरे गिबुडो, इमो उपस्पृशति, सण्णाए भगति--बोलियति, उत्चिण्णा णासंति, अग्गे भगति चंद उभिणीसंडे छुमिचा रखओ जातो, पच्छा एगेग जच्चकिसेोरगगतेण आसवारेग पुच्छितो भगति -एस पउनसरे पचिट्ठो, ततो ते दिडो, ततो घोडगो चाणकस्स अलिचिओ, तत्थेव खग्गे मुर्क, जले पसगवाए कंचु मुवति तच खमोण दुहाकतो, चंद्रगुतो वाहिता चडावितो, पछाषा, पुच्छितो कि तुमे चिंतितंति ?, भगति धुवं एवं चैव सोभर्ग, अज्जो चैव जागतित्ति, जातो जागो, ण एवं विपरिगमतित्ति, पच्छा छुट्टाइओ चागको तं वेत्ता अतिगतो, वीमतिमा एत्थं ज्जेज्जामोति माह बाद निश्वस्त पोई फालिने, दधिकरं गाय गतो, जिमितो, अगत्थगामे रति समुदाणंति, थेरिय पुत्त मंडाणं बिलेवितं देति उहे एकेग मझे हत्थो छूडो, दड्डी रोवति, ताएय भण्गतिचाणक मंगलोस, पुच्छि भगति पासाण पढने घेवंति, गजा हिमत, पचओ राय, ते समं मितया जाता, भगति सभ समेग विभयामो रज्जे, ओतप्रेन्वानं एगस्थ नगरं पण पडत, पवितिदंडी, वत्थूणि जोएति, इंदकुमारियाओ, तासि तगरगण पडति, माताएं जीवविताओ, पडित नगरं पाडलिपुतं रोहित, मंदो धम्मवारे मग्गति, एंगेण रहेग जं तरसि तं गीणेहि, दो भज्जातो एगा कण्णा दव्वं च गीणेति कण्णा चंदनं पलोएति, मणिता जाहिति, ताए विलमंत्री चंद्रगुप्तस्स रहे णत्र अरगा
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परिणामि की बुद्धिः
॥५६४॥
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९४९-९५१/९४९-९५१], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक [-]
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार में भग्गा, तिदंडी भणति-मा वारेहि णव पुरिसजुगाणि तुझं बसो होहितित्ति, अतिगता. दो भागा कता । एगा कन्नगा विसभाविया, व्याख्याया। तत्थ पश्चतगस्स इच्छा, सा तस्स दिण्णा, अग्गिपरियंचणे विसपरिगतो मरितुमारद्धो, भणति-वयंसग ! मरिज्जति, चंदगुत्तो 6-12
भामित्ति बवसितो, चाणक्केण भिगुडी कता, णियत्तो, दो रज्जाणि तस्स जाताणि । णंदमणूसा य चोरिगाए जीवंति, सो चोरग्गाह ॥५६५
मग्गति, तिदंडी बाहिरियाए णलदामं मुइंगमारगं दटुं आगतो, रण्णा सद्दावितो, दिण्णं आरक्खं, बीसत्था कता, भत्तदाणे सकुटुंबा |मारिया। आणाए-वसिहि अम्बमा परिक्खित्ता, विपरीते कते रहो, पलीवितो सब्बगामो, तेहि य गामेल्लतेहिं तस्स कप्पडियत्तणे दीमत्तं ण दिण्णति काउं। । कोसनिमित्तं परिणामिता बुद्धी, जूतं रमति कूडपासरहिं, सोवणं थाले दीणारभरितं, जो जिणति तस्स, अहं जिणामि एको। | दायब्बो, अतिचिरति अण्ण उवायं चिंतेति, नागराणं भत्त्रं देति, मज्जपाणं च दिण्ण, मत्तेसु पणच्चितो भगति गायतो-दो मज्झ | | धातुरत्ताओ कंचणकुंडिया तिदंडं च, राया मे वसवत्ती, एत्थवि ता मे होलं वाएहि ॥१।। अण्णो असहमाणो भणति-गयपोयगस्स । (भदस्स मन्थरगइए उ) जोयणसहस्स। पदे पदे सतसहस्सा एत्थविता मे होल पाएहि ॥११॥ अण्णो असहमाणो भणति-तिलआढगस्स टू बुत्तस्स णिफण्णस्स बहुसइतस्स | तिले तिले सतसहस्सं एत्थवि ता मे होलं बाएहि ॥१॥ अण्णो भण्णति-णवपाउसंमि पुण्णाए है| गिरिनइयाए य सिग्धवेगाए । एगाहमहितमेचेणं णवणीतेण पालिं बंधामि ॥१॥ जच्चाण बरकिसोराणं तदिवसं तु जायमेचाणं ।
केसेहिं णभं छाएमि एत्थवि ता मे होलं बाएहि ॥१॥ दो मज्झ अस्थि रतणाणि सालिपसई य गद्दभिया य । छिण्णा छिण्णावि दहति एत्थवि ता मे होलं वाएहि ॥१॥ सेतसुकिल्लो णिच्चसुगंधो, भज्ज अणुव्वय णत्थि पवासो। णिरिणो य दुपंचसतो य,
॥५६५॥
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९४९-९५१/९४९-९५१], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
[-]
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार एत्थवि ता मे होलं वाएहि ॥१।। एवं णाऊणं रयणाई मग्गिऊणं गोट्ठागाराणि सालीणं मरियाणि रयणाई गद्दमियादीणि पुच्छितो परिणामि
है की व्याख्यायां | छिण्णाणि २ जायंति, आसा एगदिवसजाता मग्गिता, एगदिवासियं णवणीतं मग्गितं । एस परिणामिता चाणकस्स बुद्धी ।। ॥५६६॥ &
___थूलभहस्स सामिस्स परिणामिता, पितुमि मरिते कुमारो भष्णति-अमच्चो होहिति, सो असोगवणियाए चिंतेति-केरिसा | भोगा वाउलाणंति?, ताहे पब्वइतो, राया भणति-पेच्छह, मा कवडेणं गणियाघरं जाएज्जा, जिंतस्स सुणगमडगो बावण्णो, णास | न विकूणेति, पडिलेहेता रण्णा भणित-विरत्तभोगोत्ति, सिरिओ ठाविओ।
णासिकणगर, दो वाणियओ, सुंदरी से भज्जा, सुंदरीणंदो से नामं जातं, तस्स भाता पुवपब्वइतो, सो सुणेति-जथा RI डातीए अझोवपनो, पाहुणओ आगतो, पडिलामितो; भाण तेण गाहित, एहि एत्थ विसज्जेहितित्ति उज्जाणे णीतो, सो भोगगिद्धो सणगरं जाहितित्ति अधिगतरेणं उवप्पलोभेमि, सो य चेउब्धियलद्धी, मकडिं दरिसेत्ता पुच्छति-का सुंदरिचि?, सुंदरी, पच्छा विज्जा
धरीए, तुल्ला, पच्छा देवीए, देवी अतिसुंदरत्ति, पुच्छितो मणति-कहं एसा लब्मतित्तिा, धम्मणचि पम्पहतो । साधुस्स पारिणामिका।* का बहरसामिस्स परिणामिया, माता णाणुबचिया, मा संघो अवमाणिहितित्ति, पुणो देवेहिं उज्जेणीए वेउब्वियलद्धी दिना, IF पाइलिपुते मा परिभविहित्ति बेउब्वियं कयं, पुरियाए पवयणओभावणा मा होहितित्ति सथ्य कहियव्वं ।।। IMI चलणाहणणे, राया तरुणेहिं घुग्गाहिज्जति, जथा थेरा कुमारा य अवणिज्जतुत्ति, सो तेसि मतिपरिक्खणणिमित्तं भणति
जो रायं सीसे पाएण आहणति तस्स को दंडो, तरुणा भणीत-तिलतिल छिदियचओ, थेरा पुच्छिया, चितमोत्ति ओसरिया,
BAEREGACASSESSAGES
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९४९-९५१/९४९-९५१], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक -
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार चिंतति-णूण देवीए को अण्णयरो आहणतित्ति, आगता भणति-सक्कारेयवओ, रण्णो तेसिं च पारिणामिया बुद्धी । आमलगं परिणामिव्याख्यायां का कित्तिम, एगेण णातं, अकालो, वियो होहिति ॥ मणिम्मि सप्पो पक्षीणं अंडगाणि खाति रुक्खं विलम्गिता, तत्थ गिद्धण आलयंका की ॥५६७||
बिलग्यो, मारिओ, तत्थ मणी पडितो, हेट्ठा कूबो, तं पाणितं रचीभूतं, कूवातो गीणितं साभावितं, दारएणं थेरस्स कहितं, तेण & विलग्गिऊण गहितं ।। सप्पो चंडकोसिओ चितेति-एरिसो महप्पा || खग्गो सावगपुत्तो जोव्यणबलुम्मत्तो धम्मं गच्छति, मतो
खग्गीसु उववो, पट्ठस्स दोहिनि पासेहिं जथा पक्खरा तथा चम्माणि लंबंति, अंडबीते चउमुहप्पहे जणं मारेति, साहुणो य तेणेव ॐ ट्र पहेण अइक्कमंति, बेगेण आगतो, तेएण ण तरति अल्लवितुं, चिंतेति, जाती संभरिया, पच्चक्खाणं देवलोगगमण ॥ धूभे वेसा
लीए णगरीए णगरणाभीए मुणिसुब्बयसामिस्स धूभो, तस्स गुणेण कूणियस्स ण पडति, देवता आगता आगासे, कूणियं मणति-समणे जइ कूलवारए, मागहिया गणिय रमेहिती। राया त असोगचंदए, वेसालि नगरि गहेस्सती ॥१॥ सोमग्गिज्जति, का तस्स उप्पत्ती-एगस्स आयरियस्स चेल्लओ अविणाओ, आयरिओ अंबाडेति, बेरं बहति, अण्णदा आयरिया सिद्धसिलं तेण समं बंदगा | विलग्गा, ओयरंताणं पवाए सिला मुका, दिट्ठा, आयरिएणं पादा ओसारिया, इहरा मारितो होतो, साबो दिण्णो-दुरात्मा इत्थीहितो ये विणस्सिहिसिचि, मिच्छावादी भवतुतिकातुं तापसासमे अच्छति, णदीए कूलए आतावेति, पंथन्मासे जो सत्थो एति ततो टू आहारो होति, गदीकूलए आयावेमाणस्स णदी अण्णतो पवुढा, तेण कूलवालओ जातो, तत्थ अच्छतओ आगमितो, गणियाओIKI ॥५६७॥ सद्दाबियाओ, एगा भणति-अहं आणमि, कवडसाविगा जाया, सत्येण गता, वंदति, उद्दाणे भोतिगमि चेहयाई बंदामि, तुम्भे य सुता, आगया मि, पारणए मोदगा संजोइया, अतिसारो जातो, पयोगेण ठवियो, उन्वतणादीहिं संभिणं चित्तं, आणितो,
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९४९-९५१/९४९-९५१], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार भणितो-रण्णो वयणं करेहि, किं ?, जथा वेसाली घेप्पतु, थूमो णीणावितो, गहिता । इंदमातुगाओ चाणकण पुब्बभणियाओ। तपः सिद्धः व्याख्याय पद एसा पारिणामिया । अभिप्रायसिद्धाः परिसमाप्ताः ॥
कर्मक्षय॥५६८॥
सिद्धश्च | इदाणिं तवसिद्धो, जो य तवेण ण किलम्मति सो तवासिद्धो, जहा एगो दढप्पहारी चोरसेणावती सेणाए समं गाम हेतु
दाणि नवमी गतो, तत्थ एगो दरिदो, तेण पुत्तभंडाणं पायस मग्गताण दुई जाएत्ता पायसो सिद्धो, सो य हातुं गतो, चोरा य तत्थ पडिया, ६ एगेण तत्थ सो पायसो दिट्ठो, छुधितति तं गहाय पधावितो, ताणि चेडरूवाणि रोवंताणि णिग्गताणि, पायसो हितोत्ति चोरेण, * मारेमित्ति पहाविओ, महिला अवतालेतुं अच्छति तथावि जाति, सो चोरसेणावई गाममज्झे अच्छति, तेण गंतूण महासंगामो
कओ, सेणाबइणा चितिय-एतेण मम पुरतो चोरा परिभाविज्जंतित्ति सह महिलाए असिणा छिण्णो, गम्भोवि दो भागे कतो | द्र फुरुफुरति, तस्स किया जाता, मते अधम्मो कतोत्ति, ताहे पब्बइतो, तत्थेव विहरति, हीलिज्जति हम्मति घोराकारं च तवकिलेस केरति, सिद्धो ॥ कम्मक्खयसिहो जो अट्ठण्डं कम्मपगडीणं खरण सिद्धो, तत्थ गाथा
दीहकालरयं जे तु० ॥९॥६७ ॥ ९५३ । एत्थ दीहकालं- अतीतकालितं, रज वट्टमाणकालियं, कम्मं आत्मना आलिं-IP५६८॥ | गितं सब्बायपदेसेहिं पुटुंति भणित, न केवलं ससितं, तथा अहवा सितं 'सित वर्णबंधनयोः' अट्ठहा बद्धं-अट्ठा परिणामितं 31 टेलियदुक्खं, तुशब्दानिधत्तनिकाचितादिवि घेप्पंति, तं तथाभूतं कम्मं धंता, धंता णाम झाणाणलेण दहिता, अकम्मीकातूणे-18
त्यर्थः, इंति- एवं सिद्धस्स सतो योग्यतामंगीकृत्य सिद्धत्तमुवजायती, निष्पनार्थत्वं संपज्जते ।। कहं पुण अट्टविहं कर्म खबेति,
CODAESARGAMESCAR
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९५३/९५३], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सूत्रांक
ASA
[-]
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार भण्णति- जदा केवल णाण उप्पाडेति तदा चत्तारि घातिकमे खवेति, तं च जथा खवगसेडीए तत एवं पोढाप्रकल्पद्रव्यगणं
18 कर्मक्षय
... व्याख्यायामा यथास्वं द्वितयपर्यायकलापविभतिवशीकृतं प्रतिस्वं शेषविधिना लोकालोकं प्रकाश्य भगवंतोऽचिन्त्यभृतिविशेषाः जघन्येनान्त-II
मुहूर्तमुत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटी केवलिपोयमनुभूय समवाप्नुवंति सिद्धिमजागरामिति । अथ सिध्यतां को विपिरिति प्रश्ने सि-५ ध्यविधिप्रक्रियादर्शनार्थ पश्चिमस्कंधनिरूपणा क्रियते, अथ किमिदं पश्चिमस्कंध इति प्रश्ने व्याख्यायते-औदारिवैक्रियाहारकतैज-* सकार्मणानि शरीराणि स्कन्ध इत्याचक्ष्महे, पश्चिमशरीरं पश्चिमभव इति यापवुक्तं स्यात् ताबदिदै पश्चिमस्कन्ध इति, कथम् , इह यस्मादयमनादौ संसारे परिभ्रमन् स्कंधान्तराणि भूयांसि गृह्णाति मुंचति च, तस्माद्यमवाप्य स्कन्धमाविर्भूतासाधारणज्ञानदशेनचारित्रबलः भूयः स्कन्धान्तरमन्यदात्मा नोपादत्ते स पश्चिमस्कन्ध इति शब्द्यते, खोपात्तमनुष्यायुषोऽन्तः प्रक्षयवशाद् भुक्त
स्यान्तर्मुहुर्तशेपे सिध्यत्पर्यायाभिमुखा अवश्यकरणं कुर्वतीति । कथमिदमवश्यकरणमिति प्रश्ने प्रदश्यते, अन्वर्थत्वावश्यकरणसंज्ञा-18 लायाः, भास्करवत् , अवश्यकरणीयत्वादवश्यकरणं, कथामियमन्यर्थेति दयते, अर्थमनुगता या संज्ञा साऽन्वर्थी, अर्थमंगीकृत्य प्रव-18 Pातेत इत्यर्थः, कथम् ?, इह यथा भास्करसंज्ञा अन्वर्था, कथमन्वर्था ?, भासं करोतीति भास्कर इति यो भासनार्थः तमंगीकृत्य | 2
प्रवर्तत इत्यन्वर्था, तथाऽवश्यकरणमिति इयं संज्ञा अन्वर्था, कथमिति चेत्, महे, अवश्यं क्रियत इत्यवश्यकरणं इति योऽवश्य-18 करणार्थोऽवश्यकर्तव्यता तमंगीकृत्य प्रवतेते यस्मात् तस्मात्सर्वकेवलिभिः सिध्यहिरवश्यं क्रियमाणत्वादवश्यकरणमित्यन्वर्थसंज्ञा- ५६९॥ सिद्धिः, अथवा अवश्यंभाव आवश्यक द्वंद्वमनोज्ञादिभ्यश्चेति मनोज्ञादेरधिकृतत्वात् बुजि सत्यावश्यकसिद्धि, आवश्यकं करणं आवश्यककरणं, कुतः, लोके दृष्टत्वात् मल्लस्य कक्षाबन्धकरणवत् , यथा मल्लो युयुत्सु वध्वा साटकं युध्यते, स
%864
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९५३/९५३], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार
कमेक्षयसिद्ध
प्रत सूत्रांक -1
॥५७०॥
दीप अनुक्रम [१]
हि प्रथममेव साटकेन कक्षो अध्ध्वा अतः परं कृतावश्यककक्षाबन्धकरणः योद्धमारभते, तथाऽन्तर्महायुशेषेण केवलिना सिध्यता |3|| प्रथममेवेदं करणं अवश्यं कर्तव्यमित्यावश्यककरणमिति । केचिदावर्जितकरणमिति वर्णयंति, तेषामप्यावर्जितशब्दस्याभिमुखपर्यायवाचित त्वात् आवर्जितकरणसिद्धिः, कथम्?, आवर्जितमनुष्यवत् , यथा लोके दृष्टमेतद् आवर्जितःमनुष्यः,अभिमुखः कृत इति, तथा च सिध्यतः | सिध्यवपर्यायपरिणामाभिमुखीकरणं यचदावर्जितकरणं, येन कारणेन परिणत आत्मा नियमात् सिध्यत्पर्यायपरिणामाभिमुखो भवतीहै त्यर्थः, सर्वे च भगवंतः सिध्यन्तः केवलिनस्तीर्थकराश्च नियमादावश्यककरणं कुर्वन्ति, समुद्घातं तु केचित्कुर्वन्ति केचिन्नेति ॥ तत |आवश्यककरणे कृते ये केवलिनः समुद्घातं कुर्वन्ति तत्प्रक्रियाऽऽविष्करणार्थमिदं प्रयते- येऽन्तमुहूतेमादिकत्वोत्कर्षण आ मासभ्यः पड्भ्यः आयुषोऽवशिष्टेभ्यः अभ्यन्तर आविर्भूतकेवलज्ञानपर्यायाः ते नियमात्समुद्घातं कुर्वन्ति, ये तु षण्मासेभ्य उपरिष्टादाविभूतकेवलज्ञानाः शेषास्त समुद्घातकाद् बाद्याः, ते समुद्घातं न कुर्वन्तीत्यर्थः, शेषाः समुद्घातं प्रति भाज्या, कस्माद्?, यस्मात् पाण्मासिकावशिष्टे आयुषि आविर्भूतकेवलज्ञानपर्यायेभ्यः सकाशात् पड्भ्यो मासेभ्यूः ये उपरि समयोत्तरवृद्ध्यावशिष्टे आयुषि शष आविभूतज्ञानाः केवलिनः ते शेपाः समुद्घातं प्रति भाज्या, केचित्समुद्घातं कुर्वन्ति केचिबेति, अतः केचित्समुद्घातं कृत्वा केचिदकत्वैव समवाप्नुवन्ति सिद्धि, अथवा येषां बहु संवेद्यमस्ति आयुश्चाल्पमवतिष्ठते ते नियमात्समुद्घात कुर्वति, नेतर इति ।। अथ ये समुद्घातं कुर्वन्ति तेषां को विधिरिति प्रश्ने तदाविष्करणार्थमाचक्ष्महे-ते दंडकादिक्रमेण कुर्वन्ति, तत्र प्रथमसमये औदारिककाययोगस्थाः दंडकं कुर्वन्ति, अथ दंडक इति कोऽर्थः?, दंडक इव दंडका, क उपमार्थः, यथा मूलमध्याग्रे ऊोधः समप्रदेशः परिवृत्तपर्यायः स दंडकः, तथा समुद्घातकरणवशानिर्गतानामात्मप्रदेशानां दंडकसंस्थानेनावस्थानाइंडकत्व
५७०॥
CANC
(279)
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
[3]
नमस्कार व्याख्यायां
॥५७१॥
1969
भाग - 4 "आवश्यक" - मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि ) 2 निर्मुक्तिः [९५३/९५३ ],
मूलं [१] / [गाथा-1
अध्ययनं [-]
शायं [१११...]
सिद्धिः अथ दंडककरणे को विधिरिति प्रश्ने घूमहे वह व्यावहारिकनयवशात् ये असंख्येया जीवप्रदेशाः ते सर्वेऽपि बुध्या असंख्येया भागा निर्गच्छन्ति, असंख्येयभागोऽवतिष्ठते, ततस्तैरेव असंख्य जीवप्रदेशभागैः स्वशरीराभिर्गतैर्हि दंडकमभिनिर्वर्तयतः अष्टौ जीवमध्यप्रदेशान् सतितिकपरस्परावियोगिनो रुचकसंस्थितान् चक्रीवपटलयोरुभयो रत्नाद्यवस्थायिषु रुचकसंस्थितलोक मध्यप्रविष्टाष्टाकाशप्रदेशेषु संस्थाप्य चतुर्दशरज्ज्वायतं दंडकं कुर्वतीति । ततो द्वितीयसमये कपाटं कुर्वन्ति तत्समय एव चौदारिकमिश्रकाययोगो भवति, कृपाटकमिति कोऽर्थः १, कपाटभित्र कपाटकं, कउपमार्थः १ यथोभयोः प्राक्प्रत्यगृदिशोस्तिर्यग्विस्तीर्य अपागुदग्दिशयोईस्वमूर्ध्वाचोदिशयोरुच्छ्रितं कपाटमिति शच्यते, तथा समुद्घातकरणवशान्निर्गतानामात्मप्रदेशानां पूर्वापरदक्षिणोत्तरासु दिक्षु कपाटसंस्थानेनावस्थानात्कपाट कत्वसिद्धिः अथ कपाटकरणे को विधिरिति प्रश्ने ब्रूमहे, अतः प्रथमसमय निर्गतात्मप्रदेशसकाशात् योऽसंख्येयभागेोऽवशिष्टोऽवतिष्ठत इत्युक्तं स बुद्धया पुनरपि असंख्येयान् भागान् गतः, ततो द्वितीयसमये कपाटकारकाणां असंख्येया भागा निष्क्रामति, असंख्येयभागोऽवतिष्ठते, नैकरसंख्येयेर्भागैर्निर्गतरेतैः कपाटकं कुर्वन्ति, तत्र ये निर्गतास्ते प्रथमसमयनिर्गतात्मप्रदेशसकाशात् असंख्येयगुणहीनाः, असंख्येयभाग इत्यर्थः अथ तृतीयसमये प्रतरं कुर्यान्त तत्सामयिकश्च कार्मणकाययोगो भवति, अथ प्रतरमिति कोऽर्थः १, प्रतरमित्र प्रतरं क उपमानार्थः, यथा घननिचितनिरन्तरप्रचितावयवसंस्थितापरिवृत्तं स्थालकं स्फलकं वा लोके प्रतरमित्युच्यते तथाऽऽकारमपरमपि परस्परप्रदेशसंसर्गविच्छेदपरिवृत्तपर्यायेणावस्थितं प्रतरमिति प्रसिद्धं, अथ तृतीयसमये प्रतरपूरकाणां को विधिरिति प्रश्ने प्रतिश्रमहे, ततो द्वितीयसमये निर्गतारमप्रदेशसकाशात् योऽसंरूयेय भागोऽवशिष्टोऽवतिष्ठते इत्युकं असावपि बुद्ध्या पुनरसंख्येयभागाः कृताः, ततस्तृतीयसमये शतरकारकाणाम
(280)
समुद्घातः
।।५७१ ॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९५३/९५३], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
-
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार 21 संख्येयभागा निष्कामंति, असंख्येयभागोऽवतिष्ठते, तैरसंख्येयैर्भागनिगतरेतैः प्रतर पूरयति, तत्र ये निष्क्रान्तास्ते द्वितीयस- समुद्घातः व्याख्यानमयनिष्कान्तात्मप्रदेशसकाशादसंख्येयगुणहीनाः, ततश्चतुर्थसमये कार्मणकाययोगस्थान एव आकाशप्रदेशान् निष्कुटसंस्थानसंस्थितान् ॥५७२॥
लोकव्यपदेशभाजोपूरितान् पूरयंतीति लोकपूरकाः, तथा तेषों को विधिरिति प्रश्नेऽभिदध्महे-ततस्तृतीयसमयनिर्गतात्मप्रदेशसकाशात् । योऽसंख्येयभागोऽवतिष्ठत इत्युक्तं, असावपि युद्ध्या पुनरप्यसंख्येया भागाः क्रियन्ते, ततश्चतुर्थसमये लोकपूरकानामसंख्येयमागा | निष्कामन्ति, असंख्येयभागोऽवतिष्ठते, ततस्तैरसंख्येयभागनिष्क्रान्तरेते लोकनिष्कुटान पूरयंति, तत्र ये निष्क्रान्तास्ते तृतीयसमयनिष्क्रान्तात्मप्रदेशसकाशादसंख्येयगुणहीनाः, यश्चाधुना असंख्येयभागोऽवतिष्ठतेऽसौ स्वशरीरावगाथावकाशप्रमाण इति।
तस्येदानी मनुष्यावस्थायां या पल्योषमासंख्येयभागमात्रा कमत्रयसत्कर्मस्थितिरवतिष्ठते सा बुद्ध्या असंख्येयभागाः क्रियन्ते, ततः प्रथयसमये दंडककारकसत्कर्मस्थितेरसंख्येयान् भागान् हन्ति, असंख्येयभागोऽवतिष्ठते, यश्चामुष्यामवस्थायां कर्मत्रयानुभवः स बुद्ध्या अनन्तभागाः क्रियन्ते, ततोऽस्यासद्वेधन्यग्रोधसातिकुब्जबामनहूंडसंस्थानवज्रनाराचाधनाराचकीलिकासंप्राप्तसृपाटिकासंहननाप्रशस्तवर्णगंधरसस्पॉपघाताप्रशस्तविहायोगत्यपर्याप्तकास्थिरामुभदुर्भगदुःस्वरानादेयायश कीर्तिनीचाँत्रसंज्ञिकानां(?) पंचविंशतेर-४ | प्रशस्तानां प्रक्रीडनसमये दंडककारकानुभवस्यानन्तान् भागान् हन्ति, अनन्तभागोऽवतिष्ठते, तत्समीयकमव सद्वेधमनुष्यदेवगतिपंचेन्द्रियजात्यौदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणशरीरसमचतुरस्रसंस्थानादारिकवक्रियकाहारकशरीरांगोपांगववर्षभसंहननप्रशस्तवर्ण-18५७२॥ गन्धरसस्पर्शमनुष्यदेवगतिप्रायोग्यानुपर्म्यगुरुलघुपराघातातपाद्योतोच्छ्वासप्रशस्तविहायोगतित्रसवादरपर्याप्तप्रत्येकशरीरस्थिरशुभसुभगमुस्वरादेययश-कीर्तिनिर्माणतीर्थकरोधगोत्रसंज्ञिकानामेकचत्वारिंशतः(१)प्रशस्तानामपि प्रकृतीनां योऽनुभवः तस्याप्रशस्तप्रकृत्यनुभ
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९५३/९५३], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक -
CA4
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार घातनानुप्रवेशेनैव घातनं ज्ञेयं । अथ द्वितीयसमये कपाटकारकस्य स्थित्यनुभावघातने को विधिरिति प्रश्नेऽभिदध्महे प्रथमसमयघातित- समुद्घात व्याख्यायां | सत्कर्मस्थितेः सकाशात् योऽसंख्ययभागोऽवतिष्ठते इत्युक्तं असावपि बुद्ध्या पुनरसंख्येयभागाः क्रियन्ते, तस्य कपाटकारकोऽप्य-| ।।५७३॥
संख्येयान् भागान् हन्ति, असंख्येयभागोऽवतिष्ठते, ततोऽनुभवस्यापि प्रथमसमयघातनानुभवसकाशात् योऽवशिष्टोऽनंतोऽनुभवोहै ऽवतिष्ठत इत्युक्तं असावपि बुद्धया पुनरनन्तभागाः क्रियन्ते, तस्य कपाटककारानंतान् भागान् हन्ति, अनन्तभागोऽवतिष्ठते,*
अयमपि चाप्रशस्तप्रकृत्यनुभयघातनानुप्रवेशनेनैव प्रशस्तप्रकृत्यनुभवघातनं करोतीति ज्ञेयं, अथ तृतीयसमये प्रतरपूरकस्य स्थित्यनुद भवघातने को विधिरिति प्रश्नभिसंवादीयते, ततो द्वितीयसमयघातितसत्कर्मस्थितेः सकाशात् योऽसंख्येयभागोऽवशिष्टोऽवतिष्ठत
इत्युक्तं असावपि युद्धया पुनरसंख्ययभागाः क्रियते, तस्य प्रतरपूरकोऽसंख्येयान् भागान हन्ति, असंख्येयभागोऽवतिष्ठते, ततो8नुभवस्यापि तृतीयसमयघातितानुभवसकाशात् योऽवशिष्टोऽनन्तोऽनुभवोऽवतिष्ठते इत्युक्तं असावपि बुद्धया पुनरनन्तभागाः क्रियते,
तस्य लोकपूरकोऽनन्तान् भागान् हन्ति, अनन्तभागोऽवतिष्ठते, अयमपि च अप्रशस्तप्रकृत्यनुभवघातनानुप्रवेशनेनैव प्रशस्तप्रक-ट। त्यनुभवधातनं करोतीति ज्ञेय, एवं पूर्णलोकस्य कर्मत्रयसत्कर्म आयुषः सकाशात् संख्येयगुणं जातं, अनुभवोऽनन्तः॥ एवं चत्वारः | समया भवन्ति, अतः परं प्रतिनिवृत्तः पंचमे समये प्रतरे तिष्ठति कार्मणकाययोगस्थः, अथास्यामपस्थायां स्थित्यनुभवघातने को विधिरिति प्रश्ने निगद्यते- अतश्चतुर्थसमयघातितस्थितिसत्कर्मणः सकाशाद या असंख्येयभागप्रमाणावशिष्टा स्थितिरवतिष्ठत 8 ॥५७३|| इत्युक्तं सा बुद्धया संख्येया भागाः क्रियन्ते, पंचमसमये प्रतरस्थः संख्येयान् भागान् हन्ति, संख्येयभागोऽवतिष्ठते, यश्चतुर्थ-12 समयघातितानुभवसकाशात् अनन्तोऽवशिष्टोऽनुभवोऽवतिष्ठते इत्युक्तं असावपि बुद्धस्था अनन्ता भागाः क्रियन्ते, तस्य पंचमसमये।
5555
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९५३/९५३], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
समुद्घातः
प्रत सूत्रांक -
TRESCRESCRe%
&ातावत्समये दलमुपति याव
नमस्कार प्रतरस्थोऽनन्तान् भागान् हन्ति, अनन्तभागोऽवतिष्ठते, एषु दंडकादिषु पंचसु समयेषु सामयिक कण्डकमुत्तीर्णमितिकृत्वा समये व्याख्यायानसमये स्थित्यनुभवकंडकघातको ज्ञेयः । अथ किमिदं कण्डकमिति प्रश्ने महे-कण्डकमिव कण्डकं, क उपमार्थः,यथा लोके तरोः
खण्डभागः अंशः कंडकमित्यभिधीयते तथा कर्मतरोरपि खण्डं कण्डकमिति सिद्ध, अतः परं षष्ठसमयादारभ्य स्थितिकण्डकमनुभा॥५७४॥
कण्डकं वा आन्तमुहर्तिकमुत्किरति, कण्टकं यतः किरति खिपति विनाशयतीत्यर्थः, एवं षष्ठे कपाटसमये औदारिकमिश्रकाययोगस्थः सप्तमे औदारिकमिश्रकाययोगस्थः अष्टमे च स्वशरीरप्रवेशसमये स्थितिकण्डकमनुभावकण्डकं च नाशार्थ स्पृष्ट सत् । अनन्तरसमय एच नष्टुमारब्धं न तावत्कात्स्येन नश्यति, किंतु षष्ठादिषु समयषु कर्मतरुकण्डकस्य स्पृष्टस्य सकलसमयेष्विति, एवं तावत्समये दलमुपैति यावदन्तमुहूतेः पूर्ण इति । तदनेन विधिनाज्तर्मुहूर्तपूरणचरमसमयानन्तरमेव कृत्स्नं कण्डकं उत्कीर्णमित्यव-1 सेय, उत्कीर्ण नष्टमित्यर्थः । एवं प्रतिसमयमन्तर्मुहूर्तिकः स्थित्यनुभवकण्डकयातको ज्ञेयः तावद्यावत्सयोगिनोऽन्त्यसमय इति । एवमेतानि सर्वाण्यपि संख्येयानि स्थित्यनुभवकण्डकानि ज्ञेयानि, ततः स्वशरीरं प्रविष्टोऽन्तर्मुहूर्तमास्ते, तत उपर्यनन्तरसमय एव | बादरवाग्योगान् रोद्धमारब्धः, ततोऽन्तर्मुहूर्तपूरणसमय एव बादरकाययोगबलाधानाद्वादरवाग्योगो निरुध्यमानो निरुद्धः, ततो
बादरवाग्योग निरुध्यान्तर्मुहूर्तमास्त, न बादरयोगनिरोधः प्रवर्तत इत्यर्थः, तत उपर्यनन्तरं बादरमनोयोग निरोद्धमारब्धः, ततोऽ18न्तर्मुहूर्तस्यान्त्ये समये पादरकाययोगापष्टभात बादरमनोयोगो निरुध्यमानो निरुद्धः, ततोऽन्तमहत स्थित्वोपर्यनन्तरसमय एव
| उच्छ्वासनिश्वासी निरोधुमारब्धः, ततोऽन्तर्महतस्यान्त्य समये बादरकाययोगोपष्टंभात् उच्छवासनिश्वासी निरुध्यमानी निरुध्धी,ततोIPउन्तमहतं स्थित्वोपर्यनन्तरसमय एव चादरकाययोग निरोदुमारब्धः ततोऽन्तसंहर्तस्यान्त्ये समये वादरकाययोगी निरुध्यमानो निरुद्धा,
दीप अनुक्रम [१]
न्त महर्तिकः स्थित्यनुभवक
प्रविष्टोऽन्तर्मुहूर्तमास्ते, तत उप
ततो
॥५७४॥
H
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
[3]
भाग - 4 "आवश्यक" मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
अध्ययनं [-1,
निर्मुक्तिः [९५३/१५३]. भाष्यं [१११...]]
मूलं [१] / [गाथा-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार व्याख्यायां
॥५७५॥
तत्स्थः तमेव क्षपयतीति अयुक्तमिति चेत् न दृष्टत्वात् तद्यथा- कारपत्रिकः क्रकचेन स्तंभे छिदिक्रियां प्रारभमाणः तत्स्थस्तमेव छिनति, तथा काययोगोपष्टमात्काये गतिरोधोऽप्यवसेयः । अत्र काययोगं निरंधन पूर्वस्पर्धकानामधस्तादपूर्वस्पर्द्धकानि करोति, अथ किमिदं स्पर्द्धकमिति प्रश्ने व्याचक्ष्महे स्पर्धकमिव स्पर्द्धके, क उपमार्थः १, यथा लोके शालिफलककाणशानां समुदायात् सृष्टिर्भवति या स्पर्द्धकमिति शब्द्यते कथमिति तद्विवृण्महे 'स्पर्द्ध संहर्षे' इति शब्दाद् भवति स्पर्द्धकं संहर्षः समुदायः पिण्ड इत्यनर्थान्तरं, अथ केपां संघर्षः इति प्रश्ने व्याचक्ष्महे, इह यथा बहूनां समुदायः क्षणे (कंडकं) संभवति, बहूनां च काण्डकस्थककाणशानां समु दायात् मुष्टिरिति भवति, तथा शालिफलकण तुल्याणामसंख्येयानां लोकानां ये प्रदेशास्तत्प्रमाणप्रमितानामविभागपरिच्छेदानां भावप रमाणुसज्जितानां समुदायात् काणतुल्या वर्गणा भवति, एवमसंख्येया वर्गणा श्रेण्या असंख्येयमागप्रमाणा एकजीवे भवति, तासां च बहुकाण्डस्थकणकाणशसमुदायोत्पत्रमुष्टितुल्यानां असंख्येयानां वर्गणानां श्रेण्याः असंख्येय भागमात्राणां समुदायादेकं स्पर्द्धकं भवति, एवमसंख्येयानि स्पर्द्धकानि श्रेण्या असंख्येय भागमात्राण्येकजीवे सन्ति अथ किमिदं पूर्वपूर्वकं स्पर्द्धकानि अपूर्वस्पर्द्धकानीति च प्र ब्याचक्ष्महे यानि पर्याप्तिपर्यायेण परिणमिवात्मना पूर्वमेव योग निर्वर्तनार्थमुपात्तानि यानि चानादौ संसारे पुनः पुनर्योगनिर्वृत्यर्थं पूर्वमुपात्तान्यात्मना तानि पूर्वस्पर्द्धकानि इत्यभिधीयते तानि च स्थूलानि यान्यधुना क्रियन्ते तानि सूक्ष्माणि न च तथा लक्षणानि अनादी संसारे परिभ्रमता आत्मना कदाचिदप्युपात्तानि इत्यतोऽपूर्वस्पर्धकानि व्याख्यायन्ते, अथापूर्वस्पर्द्धककरणे को विधिरिति प्रश्नऽभिदध्महे अधस्तात्पूर्वस्पर्द्धकानामादिवर्गणा यास्तासां अविभागपरिच्छेदा ये तेषामयं योगजधर्मानुग्रहादसंख्येयान् भागानाकर्षति, असंख्येयभागं स्थापयति, जीवप्रदेशानामपि च असंख्येयभागमाकर्षयति, असंख्येयान् भागान् स्थापयति, एवं प्रथमसमये, द्विती
(284)
समुद्घात
1140411
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[8]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 निर्युक्ति: [ ९५३ / ९५३],
भाष्यं [ १५९...]
अध्ययनं [-]
मूल [१] / [गाथा-],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
नमस्कार
व्याख्यायां
॥५७६।।
|यसमये प्रथमसमयाकृष्ट। विभागपरिच्छेदानां असंख्येयेभ्यो भागेभ्यः सकाशादसंख्येयगुणहीनं भागमाकर्षयति, असंख्येयभागमाकर्षयतीत्यर्थः, जीवप्रदेशानामपि च प्रथमसमग्राकुष्टजीव प्रदेशा संख्येयभागसकाशादसंख्येयगुणभागमाकर्षयति, असंख्येय भागानाकर्षयतीत्यर्थः, एतेन विधिनाऽऽकृष्य योगजधर्म्मानुग्रहाद पूर्वस्पर्धकानि करोति, एवं समये समये मागं करोति यावत्पूर्णोऽन्तर्मुहूर्त इति, कियन्ति पुनः स्पर्द्धकानि करोतीति प्रश्ने ब्रूमहे श्रेण्या असंख्येयभागमात्राणि, श्रेणिवर्गमूलस्वाप्यसंख्येयभागमात्राणि, पूर्वस्पर्धकानामप्यसंख्येयभागमात्राणि, एवमपूर्वस्पर्द्धककरणे समाप्ते अत ऊर्ध्वमुपर्यनन्तरसमयमेव कृष्टीः कर्तुमारब्धोऽन्तर्मुहूर्तेन सर्वाः करोति । अथ किमिदं कृष्टिरिति प्रश्नेऽभिधीयते कर्मणः कर्शनं कृष्टिः, अल्पीकरणमित्यर्थः अथ कृष्टेः करणे को विधिरिति प्रश्न व्याचक्ष्महे, पूर्वस्पर्द्धकानामपूर्वस्पकानां चाधस्तात् या आदिवर्गणाः तासामविभागपरिच्छेदा ये तेषामयं योगजधर्मानुग्रहात् असंख्येयान् भागान् कर्षति, असंख्येयभागं स्थापयति, जीवप्रदेशानामप्यसंख्येयान् भागान् कर्षति, असंख्येयं भागं स्थापयति, एवमादिकृष्ट्या प्रथमसमये कृष्टीः करोति, अथ द्वितीयसमये प्रथमसमयाकृष्टानामविभागपरिच्छेदानामसंख्येयेभ्यो भागेभ्यः सकाशात्संख्येयगुणहीनं भागमाकर्षयति, असंख्येयभागमाकर्षयतीत्यर्थः, जीवप्रदेशानामपि प्रथमसमयाकृष्टजीव प्रदेशासंख्येय भागसकाशादसंख्येयगुणं भागमाकर्षयति, असंख्येयान् भागानाकर्षयतीत्यर्थः एवमनेन विधिनाऽऽकृष्याकृष्य कृष्टीः करोति एवं समये २ कृष्टयः क्रियमाणाः क्रियन्ते तावद्यावच्चरमसमयष्टिरिति तत्र प्रथमसमयाः कृष्टयः कृता असंख्येयगुणास्ततो द्वितीयसमये असंख्येयगुणहीनाः, एवं समये समये असंख्येयगुणहीनया श्रेण्या कृतास्तावद्यावदन्तर्मुहूर्त्त इति तत्र याः कृष्टयः प्रथमसमयकृतास्ता असंख्येयगुणाः कृताः द्वितीयसमयकृताभ्यः सकाशाद्, अथ याः द्वितीयसमयकृतास्ताः प्रथमसमयकृत कृष्टिप्रमाणाः कथं भवतीति प्रश्नेऽभिधीयते
(285)
समुद्घात
॥५७६ ॥
Page #286
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[3]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 निर्युक्ति: [ ९५३ / ९५३ ].
अध्ययनं [-]
भाष्यं [ १५१...]
मूल [१] / [गाथा-],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्यायां
॥५७७||
| पल्योपमस्य संख्येयभागेन गुणिताः, प्रथमसमयकृताः कृष्टयः श्रेण्या असंख्येयभागप्रमाणाः, एवं द्वितीयादिष्वपि समयेषु श्रेण्या असंख्येय भागप्रमाणाः तावद्यावत्क्रष्टिकरणस्यांतश्चाशेषो युगपनष्टः । अधुनाऽऽयुपा समाणि कर्माणि जातानि अधुना सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिष्यानादिसप्तप्रकारार्थोच्छित्यनन्तरसमय एवं योगिनः अयोगिनः, अयोगिगुणस्थानपर्यायमास्कन्दन्तः अयोगिपर्यायेण विनाशस्तेनैव चोत्पादः केवलिपर्यायेणावस्थानं, अयोगिपर्यायेत्यनन्तरमेव सैलेस्यपर्यायमवाप्नोति व्युपरतक्रियानिवृत्तिं च ध्यानं ध्यायति, चिन्ताव्यापाराभावात् ध्यानाभाव इति चेत् न, कर्मक्षपणसामान्याद् ध्यानमिव ध्यानमिति तत्सिद्धेः, कथम् ?, इह यथा पृथक्त्वैकत्ववितर्कपूर्व शुक्लध्यानद्वयपरिणत आत्मार्थान् चिन्तयन् सांपरायिकं दहति यथा वा धर्मस्य ध्याने परिणतः कर्मपर्वतं क्षपयति तथा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवृत्तिध्यानद्वयपरिणतोऽप्यांत्मा असत्यामपि चिन्तायां कर्म क्षपयतीत्यतः कर्मक्षपणसामान्यात् ध्यानमिव ध्यानमिति सिद्धं, अथवा दृष्टत्वादुपयोगवत् ध्यानमित्र ध्यानं, इहासर्वज्ञस्य उपलिप्सोराभोगकरणम्पयोगः न च ज्ञानावरणातीतत्वाद्भगवानृपलिप्सुः, कथंः, सर्वार्थप्रत्यक्षत्वाद्, अथ च पदार्थावगमसामान्यमनु भक्ति, उपयोग इवोपयोगः, क उपमार्थः १, इह यथा क्षायोपशमिकोपयोगपरिणत आत्मार्थानेकदेशेन संगच्छमान उपयुक्त इति शब्यते तथा केवलज्ञानपरिणतोऽप्यात्माऽर्थान् साकल्येन संगच्छमानोऽसत्यामप्युपलिप्सायां अर्थावगमसामान्यादुपयुक्त इति शब्द्यते, न चोपलिप्सापूर्वक उपयोगो भगवति नास्तीत्यत उपयोगाभावः प्रतिज्ञायते, साकाराष्ट्रतयोपयोगप्रतिज्ञानात, न चोपयोगं कृत्वा क्षायोपशमिकोपयोगतुल्यताऽस्य प्रतिज्ञायते, न वा क्षायोपशमिकातुल्यतया अस्योपयोगाप्रच्युतिर्यथा भवति तथा चिन्ताव्यापार निरुत्सुकस्यापि भगवतो ध्यानमिति युक्तं, कर्मदहनसामान्यात्, कथम् ?, इह यथा पूर्वशुक्लध्यानद्वयपर्यायपरिणत आत्मा कर्म दहति
(286)
अयोगगुणस्थानं
॥५७७॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९५३/९५३], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
[-]
SSSSS
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार तथोत्तराभ्यां कर्म दहतीत्यतः कर्मदहनसामान्याद् ध्यानमिव ध्यानं, न च कर्मदहनसामान्याद् ध्यान एते इतिकृत्वा 31 व्याख्यायो पूर्वध्यानींच्चताकृतो व्यापारोऽप्यनयोरावश्यकः प्रतिज्ञायते, न च चिन्ताच्यापाररहिते एते इतिकृत्वा पूर्वयोरपि चिन्ता-दिगुणस्थान ।।५७८॥
व्यापाररहितताभ्यनुज्ञायते, न च पूर्वयोश्चिन्ताकृतो व्यापार इतिकृत्वा तयोरपि चिन्तातो व्यापारो भवितुमहतीत्यतो४ वशीयते, तदेवमेतेन न्यायेन चिन्ताच्यापाराभावेऽपि कर्मदहनसामान्यमिव युक्तं ध्यान, अथवा पूर्वप्रयोगात् ध्यानमिव ध्यानमिति सिद्ध, कथं ?, कुलालचक्रमान्तिवत् , यथा बाह्याभ्यन्तरभ्रमणकारणपरिणामसानिध्ये स्वयमपि तथापरिणामात् बाधपौ. रूपप्रयत्नद्रव्यदंडादिभ्रमणकारणसंबंधापादितभ्रान्तिपर्यायं कुलालचक्रं विनिवृत्तेऽपि द्वितये भ्रमणकारणे भ्राम्यते च, तथैवात्र चिन्तानिरोधो यो ध्यानविशेषांपादकस्तदभावेऽपि पूर्वप्रयोगात् ध्यानमिव ध्यानमिति सिद्धं । एवमयं असांपरायिकसद्भवस्थकेवली अलेक्यं पर्यायमवामोति, अथ किमिदमलेश्यपर्याय इति, नास्मिन् लेश्याऽस्ति भवस्थकेवल्ययोगिपर्याय इति सोऽलेश्यः, तम-* वाप्यान्तर्मुहूर्तमवतिष्ठते, तस्य सद्धेयेन सिध्यतश्चरमसमये सद्वेद्य नश्यति, द्विचरमसमये असद्वेद्यं, तथा यद्यसद्वेयेन सिध्यति ततोऽस्यासद्वयं चरमसमये द्विचरमसमये सद्वेचं,असद्वेद्यस्य वेदयितत्वाद् दुःखजमिति चेत् न तत्कृतं दुःख,तेनास्य सम्बन्धेऽपि दुःखाभावात् , कथं , क्षीरपूर्णे घटे यवमात्रनिम्बदलंप्रक्षेपेऽपि सति कटुकत्वाभावात् , तथा च सर्वप्राणिभ्योऽप्यनन्तगुणं सूक्ष्मसंपरायप्रविष्टक्षपकचरमसमयार्पितसद्धेय वेदयतोऽस्य योऽसद्वद्योदयः असद्धेद्यसत्कर्मसानिध्यादापतति ततोऽन्यस्य दुःखं प्रपद्यत इति | | सिद्धं, तदेवमस्यायोगिनः असद्वेधदेवगत्यौदारिकवैक्रियकाहारकतैजसकार्मणशरीरसमचतुरस्रन्यग्रोधसातिकुब्जवामनहुंडसंस्थानौदारिकवैक्रियाहारकशरीरांगोपांगनिर्माणदेवगतिप्रायोग्यानुपूज्यों बजर्षभनाराचअर्द्धनाराचकीलिकासंप्राप्तस्पाटिकासंहननवर्णगन्धर
॥५७८॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९५३/९५३], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार, सस्पर्शागुरुलपपातपराघातोच्छ्वासप्रशस्तविहायोगत्यपर्याप्तप्रत्येकशरीरस्थिरास्थिरशुभाशुभदुर्भगसुस्वरानादेयायश-कीर्तिनीचैर्गोत्री योगव्याख्यायाम संज्ञाः चत्वारिंशत् प्रकृतयो द्विचरमसमये व्युपरतक्रियानिवर्तिध्यानं ध्यायतोऽशेषतः संक्षीणाः, अथ सद्देवमनुष्यायुर्मनुष्यग- निरोधः ॥५७९||
तिपश्चेन्द्रियजातिमनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीत्रसचादरपर्याप्तसुभगादेययश कीर्तितीर्थकरोच्चैर्गोत्रसंज्ञास्त्रयोदश प्रकृतयः चरमसमये संक्षीणाः, परिमितत्वादन्तर्मुहूर्तस्य भेदाभाव इति चेत् न, एकस्यान्तमहूर्तस्यासंख्येयभेदप्रतिज्ञानात् , अतः केवलिन्यन्त
महूर्तायुष्यपि यथोक्तभूयसामन्तर्मुहुर्तानां प्रसिद्धिरिति । ततो भावलेश्यापर्यायाद्वायां संक्षीणायां सर्वकर्मविप्रमुक्तः जलधरधनपटलFIनिरोधविनिर्मुक्त इव चंद्रमा नीरुजो निरुपम एकसमयेन भवसमुद्रमुचीर्य सिध्यतीति । एत्थ गाथाआ णातण वेदाणिज्जं.॥९-६८ ॥ ९५४॥ दंडकवाडे०॥२-६९।। ९५५ ॥ जह उल्ला० ॥९-७० ।। ९५६॥
लाउय०॥९-७१ ॥ ९५७ ॥ अण्णे पुण एत्थ पत्थाचे एतं सामण्णेणं भणति-जहाणेष्वाणं गंतुकामो जीवो कोपि समुद्घातं कहै रेति कोति णवि, समुत्पातेति को अत्यो , समो आयुषो कर्मणां उत्पातः समुद्घातः, सब्वे जीवपदेसे विसारेति, एवं सिग्धं
कम खविज्जति तो समुग्घाओ, तं च कम्हि काले करेति?, मुहुत्तावसेसाउओ, अण्णे भणति- जहण्णणं अन्तोमुहु उक्कोसेण
छम्मासावसेसाउओ, एयं सुत्ते ण होति दिट्टेल्लयं ।। आउज्जति उवयोग मच्छति पढभमेव अंतोमुहुत्तियमुदीरणापलिकायां क|म्मपक्खेवाहरू परिस्पन्दनं गच्छतीत्यर्थः समुद्घातकरणकातुकामो। तरथ गाथा
॥५७९॥ .णातूण बेदाणज्जं विसमं च समं करेति बंधणठितीहि य विसमं वेदणीज्ज अब्भाहियं समं करेति आउगेणं, केण ?, बंधणेहि ठितीहि य, ठितीयाउपबंधाडितिकम्मस्स जावतियं आउत सेस ज, तमि समये तत्तीयाओ आवलियाओ करेति जावतियं २
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९५४-९५७/९५४-९५७], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
योग
प्रत सूत्रांक
-
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार समएणं कम खवेति,सेसं समुग्धाते छुमति, एतानिमित्तं समुग्धायकरणं ॥कोति समुग्धातं कातूण सिज्झति, कोऽपि ण चेव समुग्धा-1 व्याख्यायावत करेति, जम्हा अगंतूण॥ समुग्घातो अडसमयितो, तत्थ दारगाथा-दंड कबाडे मंथंतरे या पढमसमये सरीरपमाणं हेट्ठा-15
निरोधः ॥५८॥
हुतं उवरिहत्तं च जाब लोगतो ताव दंडं करेति, पितिए कवाडं एगओ वा, एगओ वा दिसं, पुव्वावरं वा उत्तरदाहिणं च, ततिए मंथं, चउत्थे य ओवासंतराणि पूरेति, एवं तं वेदणिज्जं वेदिज्जति, जं आउगनामगोतेहितो अब्भतितं तं सडति, जथ-उल्ला साडी-15 या०॥ एत्थ सम्बो समुग्धातो विभासितब्बो, तत्थ समुग्घातस्स मणवइजोगे णस्थि, ततियचउत्थपंचमेसु अगाहारो भवति,
तत्थ समुग्घातगतेणं जं अतिरित्तं कर्म तं सव्वं खपितं, सेसगपिहऽसारं कर्त, जथा अग्गिस्स परिपेरंतेहिं जे तणा, एवं तेणं तं च कम्म 8 सेसं जत्तिया आउस्स समया एत्तियाओ सेसकम्माणं आवलियाओ करेति, ततो समये समये एक्केकं वेदेति, ततो पडियागतो ति-18
विहंपि जोगं जुजति, बइजोगस्स सच्चाइ जोगं जुजति, चउत्थं आमंतणमादी, मणेवि एते चेव जोगे दोष्णि, ते पुण किह होज्जा | मणसा पुच्छेज्ज कोइ,तेसि मणसा वागरेति,अणुत्तरो अण्णो वा देवमणुयो, कायजोगं गच्छेज्ज वा चिट्ठणडाणणिसीयणतुपट्टणाणि,
गच्छणे उक्खेवणसंखेवणउल्लंघणपल्लंघणतिरियणिक्खेवणादीणि, पाडिहारियं वा पीठकादि पच्चप्पिणेज्जा,सो य सजोगी ण सिज्झति ४ तितो भगवं अचिन्त्येण ऐश्वर्येण योगनिरोधं करोति,सो पुषि संणिस्स पढमसमयपज्जत्तगस्स हेट्ठा जाणि मणपायोग्गाणि दच्वाणी | ol | यं वा मण्णेति तेसिं ता संखेज्जाणि ठाणाणि पुचि अविसुद्धाणि धूलाणि य पच्छा बिसुज्झमाणस्स सहतरगाणि विसुद्धतरगाणि |
X॥५८०॥ य, ततो सेढी आवलिगाओ ओसरंति, जहा विसपरिगयस्स पदेसपदेसेण विस ओसरइ एवं सोवि रुंभमाणाणि २ ताव ओसरति जाव एगाए आवलियाए ठितो,जथा तलाए पढम बिंदु ठितं, बड्डमाणे भरियं,एवं सो ओसरणाओ ताव आणेति जाव जो से पढम-|
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[8]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९५४-९५७/९५४-९५७],
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्यायां
॥५८१ ॥
समए पज्जत्तगस्स मणो आसी, ततोबि ओसरति पच्छा अमणो भवति, एवं वेदियस्सवि पज्जतगस्स वइजो गड्डाणेसु णिरुभित्ता जा वहयजोगी भवति, पच्छा सुहुमस्स पणगजीवस्स पढसम्योचवण्णगस्स जावतिया सरीरोगाहणा तावतियाए अप्पणगं कायजोगं हासेंते २ निरंभंति, अण्णे पुण भणति तस्स पढमसमये चैव पगगस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणं कायजोगं णिरुभंतो गिरुभए, तस्स किल वीरियावरणादएवं मंदो जोगपरिष्कंदो तेण अप्पो कायजोगो भवइ, केवलिस पुग अंतराइयपरिक्खरणं अणुत्तरं निरावरणं जोगवीरियं, ४ तेण अर्चितेण जोगसामत्थेणं जा सा केवलिस्स वीरियसदव्ययाए अणुवरतं पदेसपरिफुरणा तं एगिंदियजोगपप्फंदा ओसरेऊण गिरंतरं णिरंभति, जाईच से सरीरे कम्मणिव्वत्तियाई मुहसवणसिरोदरादिछिद्दाई ताणि वियोएमाणो २ विभागूण पदेसोगाहणं करोति, ताहे आणपाणुणिरोहं काउं अजोगी भवति । एवं सो योगत्रयनिरोहा सुक्कज्झाणस्स ततियमेयं सुदुमकिरियं अणिय अणुविट्ठो करेति, पच्छा समुच्छिन्नकिरियं झाणं अणुप्पविट्ठो जावतिएण कालेगं अतुरियं अविलंबित ईसी पंचरहस्सक्खरा कखगघ ङ एते उच्चारिज्जति एवतिकालं सेलेसिं पडिवज्जति, शैलेशी नाम 'शील समाधी' 'ईस ऐश्वर्ये' शीले ईशस्तद्भावः शैलेशी, तस्सि काले परं शीलं भवति, अथवा शैलेश इव तस्मिन् काले निष्प्रकम्पः, नान्यत्र, परप्रयोगात्, सेब अलेसी सेलेसी, लेश्या णाम परि णामो २ परि समंता नामो, परिणाम लेस्सा, सा दुविहादन्यतो भावतो य, तत्थ वण्णादिगुणपरिणामो लेस्सा, ते वण्णादिणो द्रव्ये संश्लेषं परिणता तेणं सा दव्वलेसा, ते चैव द्रव्या जीवेनात्मसंश्लेषभावपरिणामतः शुभाशुभेण शुभाशुभा य लेश्या भवति, द्रव्यात्मगुणसं श्लेपपरिणामो भावलेश्या, ण तु दव्यपरिणामबिरहिया भावलेस्सा भवति, सो य जहा पुव्वनिव्वत्तिएण हत्थेण पद गहाय अंधार णयणविस फुडीकरेति, एवं सजोगी जीवो पुब्वणिवत्तिएण दव्वसंगेण अण्णेसिं दब्वाणं गहणं कार्तुं भावलेस्सा
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योगनिरोधः
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप अनुक्रम
[8]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९५४-९५७/९५४-९५७],
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्यायां ||५८२ |
परिणामो, एत्थ पुण जं एजति उट्ठति णहति एस जोगस्स विसओ भाणितब्बो, लेसासंजुत्तस्स पुण यो परिणामो एस अनादीओ वा अपज्जवसितो लेसा परिणामो, भणितं च-जोगेण पदेसग्गं कम्मस्स कसायओ य परिणामं जाणाहि बज्झमाणं लेसं च ठितीविसेसं वा ।। १ ।। केवलिस्स पुण बाहिरदव्यग्गहणं भवणाए परपच्चयणिमितं वा होज्जा, सो णिच्च सुद्धसुक्कलेसो अविदितअहकखायचरणो होति, अजोगि पुण जोगनिरोहाणंतरं जो सो पंचक्खरुच्चारणकालो तं कालं बाहिरदव्यगहण - विरहितं पुण्वोपचितं दधिण सावसेसजीवप्पदेसपरिणामगतं परमसलेस्सपरिणतो अजोगी सलेस्से भवति, ततो पच्छा करणवीरियणिरोहलद्धीचीरियसहितो अल्लेसी अंतोमुहुतं दब्वसंश्लेषविरहितजीवप्पदेस निरुद्धं समुच्छिष्णकिरियं परममुक्कं सुकस्स चउत्थं अंतिम झाणभेदं ज्ञाति, तबज्ज्ञाणकम्मवक्खरण पुव्यप्पयोगेण कुलालचक्रवेगवद्भवति नाप्रेरणवत्, तंमि काले पुब्वरयित आवलियगुणसेढियं च णे कंम तीसे सेलेसिमा असंखज्जर्कमंसे खवयंते वेदणिज्जाउयणामगोताई चत्तारि कम्मंसे एगसमएणं जुगवं खवेति, असो पच्छिमो भाओ एगेगस्स कम्मणो, ओरालितेयगकम्मगाणि सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहति, जो देव कम्मजहणासमयो स एव सरीराणं, सव्वविष्पजहणा नाम अंगोवंगबंधणसंघातसंठाणवण्णगंधरसफासा गहिया, पृथ्धं मोचूण पुणोवि गेहति, संपइ अपुणागमा पमुक्काणि, णवणीवोदाहरणवद्, द्रव्यं सुवण्णधातू वा जथा उज्जुसेढिपत्ता जत्तिए जीवो अवगाहे तावतियाए अवगाहणाए उड़ढं उज्जुगं गच्छति, ण बँक, अफुसमाणगती वितियं समयं ण फुसति, अहवा जेसु अवगाढो जे य फुसति उमवि गच्छमाणो ततिए चैव आगासूपदेसे फुसेमाणो गच्छति शरीरेऽपि ण ततोऽधिके परिपेरंतेण बर्हि, एगसम्एणं अशरीरेणं अकुडिलेण वा उड्डुं गंता, न तिर्यग् अधो वा, भ्रमति वा, सागारोचउने सिज्झति । तत्थ सिद्धे भवति सादीए, सब्बे
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योगनिरोधः
॥५८२॥
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं १, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९५४-९५७/९५४-९५७], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक -
दीप अनुक्रम
नमस्कार आलावगा माणितच्वा । वितियदिढतो य । आह-कई अकमस्स गती पण्णायति', तत्थ गाथा
सिद्धानामव्याख्याय
लाउयएरंडफले०।९-७१ ॥ ९५७ ।। जहा पण्णत्तीए तहा विभासितव्वं, पूर्वप्रयोगा कुलालबद् युवते, असंगत्वा-1 बगाह ॥५८३॥ 1४/ दलाबुकवत् , बन्धच्छेदात् बजिवत्, तथागतिपरिणामात् , नाधः गुरुत्वाभावात् , न ऊध्वं, यावद्धर्मास्तिकायः गतिसद्भावात् , न पर-18
तस्तदभावात् । आह__कहिं पडिहता सिद्धा१०॥९-७२ ॥ ९५८ ॥ उच्यते-अलोए पडिहया० ॥२-७३ ।। ९५९ ।। ईसी पम्भारा |विभासितब्बा जथा पण्णवणाए। इंसीपभाराए. ॥९-७४॥ ९६० ।। णिम्मलदलरय० । ९-७५ ।। ९६१॥ हैएगा जोयण । ९-७६ ॥ ९६२ ॥ यहुमज्झदेस०॥ ९-७७ ॥ ९६३ ।। गंतूण। ९-७६ ॥ ९६४ ॥ ईसीपब्भा
राए॥९-७९ ॥ ९६५॥ उत्ताणओ व०।९-८१ ॥ ९६७॥ दीई वा हस्सं वा०1९-८४ ॥ ९७० ॥ जे किर णिण्णा ही अम्भितरपबिट्ठायपदेसा पदेसा पविशति, तेण अंगस्स वा उबंगस्स वा जे संठाणविसेसा आसी ते सव्वे विभागरहिता होंति, समणिचयपदेसओ णिगुणेणं ।
तिणि सता तेत्तीसा ॥ ९-८५ ॥ ९७१ ।। मरुदेविमादीण । चत्तारि य रपणीओ०॥ ९-८६ ॥ ९७२ ॥ सत्तरत- ५८३॥ णियाण । एगा य होति रयणी ए.॥९-८७ ।। ९७३ ॥ वामणकुम्मगसुयमादीयाण | ओगाहणाए सिद्धा भवत्तिभागेण० ॥९.८६ ।। ९७४ ।। जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ य णता उ०॥९.८९ ॥ ९७२ ॥ अवरोप्परं जह- धम्माधम्मागासा ।।
[१]
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्राक
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दीप
अनुक्रम
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भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूल [१] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ ९५८- ९८१ / ९५८-९८४],
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार ४ फुसति अणन्ते ॥ ९-९० ।। ९७६ ।। सरिसाए ओगाहणाए सरिसोगाहणओ अनंते, जे तेण देसपदेसेण पुट्ठा ते असंखेज्जगुणा, व्याख्याया एगस्स सिद्धस्स एगेणं जविपदेसेणं अनंता पुट्ठा, सो य सिद्धो असंखेज्जपदेसो तेण तावइया असंखज्जा रासी तेणं आदिलएणं सव्यपदेसपुट्ठे एतेण भिज्जमाणा ॥
॥५८४॥
असरीरा० ।। ९-९१ ।। ९७७ ॥ केवलंमि लक्खणं भणितं सागारा अणगारं । इदाणिं सुहं भणति ---
वि अस्थि मागु० ।। ९-९२ ।। ९८० ।। सुरगण० ॥ ९ ९५ ।। ९८१ ।। तीयवट्टमाणाणायगाणं देवाणं विसयसुहं असम्भावपट्टणा घेतूण रासी कतो, सो अनंतगुणिते सिद्धस्स य एगस्स असरीरं सुहं गहियं तं अणंताणंतभागीकयं, तस्स एगभागे गवि तु चैव सुहरासीसुहमिति, वितियं वा माणं सुरगणसुद्धं समस्तं सव्वद्धापिंडितं एगम्मि आगासपदे से छूढं तेणप्पमाणेणं सिद्धस्स सुहं मिज्जमाणं लोगालोगागासेवि ण माति एगस्स, णणु यदि णाम तं केवली विंदति तो किण्ण ओवम्मेणं दरिसंति ?, भण्णति, णत्थि तस्स उवमाण, किह णत्थि ?, जहा एगो महारण्णवासी मेच्छो रणे चिट्ठति, इओ य एगो य राया आसेण अवहरितो तं अडविं पवेसितो, तेण दिट्ठो, सक्कारेऊणं बंदिओ, रण्णावेसो नगरं (णीओ) पच्छा उबगारिति गाढमुवचरितो, जहा राया तह चिडति धवलपरादिभोगेणं, विभासा, कालेणं रणं सरितुमारो, रण्णा विसज्जितो, ततो रण्णिगा पुच्छन्ति केरिसं णगरंति है, सो बियाणंतेवि तत्थोवमाभावात् ण सक्कति गगरगुणे परिकहेतुं, एस दितो, अयमेत्थोवणओ, एवं सिद्धाणवि सोक्खस्स विसयसुद्दे ण उपमा, नत्थि सरीरावयवैरुदाहरणं, सो य मेच्छो जहा किंचिमेत्तेण डुंगरादीणि दावेता पत्तियावेति, एवं इहईपि किंचिमेत्तण उदाहरणं क्रियते -
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सिद्धानामवगाइः
सुखं च
॥५८४ ॥
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[8]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [-1,
मूलं [१] / [गाथा-], निर्युक्तिः [९८५-१०२४/९८५-१०१५],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्यायां
॥५८५॥
जह सव्वकामगुणये ॥ ९९९ ॥ ९८५ ॥ सव्वकामगुणितं णाम सव्वाभिलासणिव्वत्तगं, भोयणं णाम भुज्जत इति भोयण- विसयं संसारोति, तण्हाछुहाविमुक्को णाम णिरभिलासो णिरुओ य, जहा सो परमाणंदितो अमयतितोच्व ।
वकालता ॥ ९-१०० ।। ९८६ ।। सिद्धति० ॥ ९-१०१ ॥ ९८७ ॥ फलमिदाणिं, जहा अरहंतेसु पुब्वं । आयरियाणं संखेषेण भणितं, जहा ते णमोक्कारारिहा, इदाणि वित्थरेण भण्णति, आङ् मर्यादाभिविध्योः 'चरिर्गत्यर्थः ' मर्यादया चर न्तीति आचार्याः, आचारेण वा चरंतीति आचार्याः, ते चतुव्विहा, णामट्ठवणाओ गताओ, द्रव्यभूतो वा द्रव्यनिमित्तं वा द्रव्यमेव वा दव्वं, आयारवंतं भनति अनायारवंतं च नामनं प्रति तिणिसलया य एरंडो य, धावणं प्रति हारिधारागो क्रिमिरागो य वासणं प्रति कबेल्लुगा वरं च, सिक्खावणं प्रति मदणसलागा वायसादी य; करणं प्रति सुवर्ण घंटालाई च, अविरोधं प्रति खीरं सक्करा य, विरोधं प्रति तेल्लं दधि य, एवमादि, एत्थ गाथा णामणघावणवासणसिक्खावणसुकरणाविरोधीणि । दव्वाणि जाणि लोए दबायारं वियाहि ॥ १ ॥ अहवा दव्वायरिओ तिविहो- एगभविओ बद्धाउओ अभिमुहणामगोतो. एगभविओ जो एगेणं भवेणं उववज्जिहि, बिद्धाउओ उ जेण आउयं बद्धं, अभिमुहणामगोचो जेण पदेसा उच्छूढा, अहवा मूलगुणणिव्वत्तितो उत्तरगुणनिव्वत्तिओ य, सरीरं मूलगुणो चित्तकम्मादि उत्तरगुणो, अहवा जाणओ भविओ वतिरित्तो, मंगुवायेगाणं समुदवायगाणं नागहत्थिवायगाणं जथासंखं आदेसो, भावायरिओ दुविहो- आगमतो गोआगमतो य, आगमतो तहेव, गोआगमतो दुविहोलोइओ लोउत्तरो य, लोइतो सिप्पाणि चित्तकम्मादिसत्थाणि वइसेसियादि जो उपदिशति, उत्तरिओ जो पंचविधं णाणादियं आयारं आयरति पभासति य अण्णेसिं, आयरियाण आचरितव्यानि दर्शयति एवं गंतव्वं एवमादि, तेण ते भावायरिया, तेसिं फलं तहेव ॥
(294)
आचार्यनमस्कारः
।।५८५ ॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९८५-१०२४/९८५-१०१५], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
नमस्कार
स्कारः
सूत्रांक -
AtI
दीप अनुक्रम [१]
इदाणिं उवज्झाओ जथा अरिहो तहा, वित्थरेणं भण्णति-तमुपेत्य शिष्टा अधीयन्त इत्युपाध्यायः, सो चउब्विहो, नामट्ठ-13/उपाध्याय व्याख्याया।वणाओ गताओ, दव्वउवज्झाओ दव्वभूतो जहा लोइया अण्णतित्थिया य उवज्झाया, पिण्हगादी वा, भावे वा वारसंगो
साधुनम॥५८६॥ ॥९-११५ ॥।॥ १०.१ ॥ बारसंगो- आयारादि जिणक्खातो- तित्थकरभासितो सज्झातो- सुतं कहितो बुधैः, बुधा-गणघरादी,
दूत उवदिशति समीवत्थं, ते उबज्झायत्ति जम्हा तेण उवज्झाया बुञ्चति । उत्ति उवओगकरणे० ॥९-११६ ॥१००२॥ | उवत्ति उपयोगकरण झायत्ति झाणस्स णिसे, उवउत्तो झायतित्ति, एतेण कारणेण उवज्झातो उ एसो अष्णोऽवि पज्जाओ।
अहवा एतं निरु उत्ति उपयोगकरणे वत्तिय पावपरिवज्जणे होति । झत्ति य झाणस्स कते ओत्ति य ओसक्कणा कम्मा ॥ १ ॥१००३ ॥ उचओगपुबगं पावपरिवज्जणतो झाणाराहणेणं कर्म ओसरेतिति उवज्झाओ, एवमादिपर्यायाः | उपाध्यायस्य, सेस तहेच !
इदाणि वित्थरेण साहुणमोकारो भण्णति- 'राध साध संसिद्धा' साधयतीति साधुः, सो चतुविहो,णामढवणाओ गताओ, | दव्वसाहू घटद्रव्यं साधयतीति, एवं पटरहमादीणि, अहवा जो दव्वभूतो बोडिगणिण्हगादी वा दब्बसाहू, भावो- मोक्खो तं
साधयतीति भावसाहू। तत्थ निरुत्तीगाहा-णिब्वाणसाहए.॥९-१२४ ॥१०१०॥ आह-अरहंता सिद्धा आयरिया उवज्झाया ४ाय गुणाधिया ततो णमोक्कारकरणे अरिहा, समाणे गुणतवे संजमे अधिगयरे वा, कि साधूण पणमसि ?, उच्यते-तहावि ४॥५८६॥
ते बंदनारिहा, जतो अतिशयगुणजुना, तथा च-विसय० ॥ ९-१२६ ॥ १०१२ ॥ असहाये० ॥ ९-१२१ ॥१०१३॥ फलं तहेव णमोक्कार ।। साहुणिरुत्तगाहाओ-सामायारिबिहिण्णू संतिमाचारिया बरायारा। आयारमायरता आयरिया तेण वुच्चंति
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९८५-१०२४/९८५-१०१५], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [९] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
दीप
नमस्काराणायोववण्णपक्खाण पहाणगुण सीससंगहकराणं । आयारदेसगाणं आयरियाणं णमो तेसि ॥ २॥णायोवदेसगाणं दुविहमव-10
नमस्कारे व्याख्यायो झायविप्पमुक्काणं । सततमुवज्झायाणं णमामि अज्झेण(ज्झप्प)सुद्धाण ॥३॥ कार्य वायं च मणं इंदियाई च पंच दमयति । धारंति
आक्षेपादि ६ पंचभारं संजमपत्ती कसाए य॥४॥ एवमादि । ॥५८७॥
एवं एयेण णमोक्कारस्स बत्थुतो मणिया । इदानी आक्षेपः, 'क्षिप प्रेरणे' मर्यादोपदिष्टमर्थ आक्षिपति न सम्यगतदिति, 81 किमाक्षिपति ?, आह- द्विविधमेव सूत्रं- यद्वा संक्षपर्क यद्वा विस्तारके, संक्षेषकं सामाइक, विस्तारकं चतुर्दश पूर्वाणि, एवमेष नम
स्कारः नापि संक्षेपेनोपदिष्टः नापि विस्तरतः, एतावतोवरि कल्पना तृतीया नास्ति, नमो सिद्धाणति णिव्वुया गहिया, णमोद
साहूर्णति संसारत्था गहिया, एवं संखेवो, एत्थेगतरेणं कायम्बो, जेण ण कीरति तेण दुन्ति आक्खेवो ।।दारं। इदार्णि पसिद्धी, ४. संखेवेण मए णमोक्कारो कतो, गुणावलोयणेण, ण तुर्म जाणसि, कहं , अरहंता ताव णियमा साह, साहू पुण सियरईता सिय दाणो अरहता, णमो साधूणति णमोक्कारं करतेण जे साहूहितो अमहियगुणा अरहंता ण तेण ते पूड़या हॉति, विरुत्तकरेंतेणं |
अरहंता पूइया भवंति, साहविय सहाणे, एवं आयरिए विभासा, उवज्झाए विभासा, एवमादि, एतेणं कारणण पंचविहो जमोकारो ६ कीरइ जुत्तो, किं च- पुच जे हेतू भणिया मग्गे अविप्पणासो आपार विणयता सहायतन्ति, अरहंतेहितो मग्गो सिद्धेहितो अवि-11
प्पणासो आयरिएहितो आयारो उवज्झाएहितो विणयो साहहिंतो सहायत्तं, एतेणवि कारणेण पंचविहो णमोक्कारो जुत्तो, किं च-&॥५८७॥ |ज भणसि-न संखेयो न पित्थरोति, ते ण सोभणंति, उक्तंच-संक्षेपोक्तं मतिं हंति, विस्तरोक्तं न गृह्यते । संक्षेपविस्तरी हिरवा, बक्तव्यं यद्विवक्षितम् ।।१।।
अनुक्रम
RAKERAKAAS
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्राक
[-]
दीप
अनुक्रम
[8]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 2
भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [-1,
मूलं [१] / [गाथा-], निर्युक्तिः [९८५-१०२४/९८५-१०२३],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
नमस्कार व्याख्यायां
।।५८८।।
অজ
इदाणिं कमी, आह एस णमोक्कारो व पृथ्वाणुपुब्बी, व पच्छाणुपुब्बी, दुविहं च विहाणं, जं वा पुव्वाणुपुब्बी जं वा पच्छापृथ्वी, जहा- 'उसममजिय' एवमादि पुब्बाणुपुब्बी, पच्छाणुपुच्ची वीरो पासो एवमादि । एवं णमोक्कारो पुव्वाणुपुब्बीए णमो सिद्धार्ण णमो अरहंताणं आयरिय०उवज्झाय० साहूणंति, जेणेव तित्थंकरी चरितं पडिवज्र्ज्जतो सिद्धाणं पणमति, एवं पुच्चाणुपुब्वीर | भवति, पच्छाणुपुब्बीए नमो सव्वसाहूणं उवज्झायाणं आयरियाणं अरहंताणं सिद्धाणति, एवं करेंताण पसत्यो भवति, इयरहा विपरीतः १, उच्यते, अणुपुब्बी एसा ण य तुमं जाणसि, कहं १, जेण अरहंताणं उपदेसेण सिद्धा णज्जंति तेण उपदेसगत्ति पुब्बि कता, ततो सिद्धा गुरू, कमेण च सेसगावि, अविय णवि लोए परिसं पुव्वं पणमिऊणं परिसणायओ पणमिज्जति, पुब्वं णायओ पच्छा परिसा, एवं जहा लोए तहा सत्थेऽवि । एवं पसाधिये पसिद्धिदारं ॥
| नमस्कारे
प्रयोजनादि
आह- किं पयोयणं णमोक्कारं कीरति १, पयोयणं णाम प्रयोज्यत येन तत्प्रयोजनं, अनन्तरकार्यामित्यर्थः, उच्यते णाणावरणादिकम्मक्खयनिमित्तं, एकैकाक्षरोच्चारणे अनंतपुद्गलरसफइकघात सद्भावात्, मंगलं च होहिति महारिसीणं पणामेणेति, एस एव अम्दं सव्वसत्थाणं पुच्चि उच्चारिज्जति, जहा मरुयाण उंकारो जहा लोगे तहा लोउत्तरवित्ति । दारं ॥ इदाणिं फलेत्ति दारं, 'फल निष्पत्ती', किं निष्पादयति एषा नमस्कारस्मृतिः १, उच्यते, इहलोइयं परलोइयं च फलं इहलोइयं ताव अस्थाव हो कामावो ॥ ५८८॥ आरोग्गावहो होति अथ कामारोग्याः किं निष्पादयति १, उच्यते- अभिरतिः, परलोइओ सिद्धिगमणं वा देवलोगगमणं वा सोभणे वा कुले आयाति पुण बोहिलाभो वा एवमादि, इहलोगंमि तिडंडी० ।। ९-१३८ ।। १०२४ ।। णमोक्कारो अस्थावहो कहंति ?, उदाहरणं, जथा
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९८५-१०२४/९८५-१०१५], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक [-]
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार एगस्स सावगस्स पुत्तो धर्म न लएति, सो य सावओ कालगओ, सो विवाहितो, एवं चेव विहरति, अण्णदा तेसिं दार-18
नमस्कारग्याख्यायां समीपे परिवाओ आवासितो, सो तेण दारएण समं मित्तिगं करेति, अण्णदा सो परिबाओ तं दारगं भणति-जा णिरुवहत || फले ॥५८९॥
अणाधमतर्ग आणेह जा ते इस्सरं करेमि, तेण गविहूं, लद्ध, उवबद्धओ मणुस्सो, आणितो, मसाणं पीओ, जं च तत्थ पाउग्ग, सोचित्रिदंब्यादि
दारओ पिताए सिक्खावितो णमोक्कारं, जाहे पीभसि ताहे णमोक्कार करेन्जासित्ति, सो तस्स मतगस्स पुरतो ठवितो, मतगस्स * 8 य हत्थे असी दिण्णो, परिवाओ विजं परिवति, वेतालो उद्वेतुमारद्धो, सो दारओ भीओ णमोक्कार परियङ्केति, सो बेतालो दापडिओ, पुणो जवेति, पुणोषि उद्विओ, सुरछतरागं परियति, तिदंडी पुरुछति- किंचि जाणसि, सो भणति-ण जाणामि, एवं
सुचिरं वदृति , वाणमंतरेण रुद्वेण सो तिदंडी दोखंडो कतो, सुवण्णा खोडी जाता, अंगोवंगाणि से जुत्तगाणि, सव्वरचि बूढे। ४. ईसरो जाओ णमोक्कारफलेण, जदि णमोक्कारोण होतो तो बेतालेण मारिज्जतो, सोवण्णं जातं । एत्तो कामणिप्फत्तीए सादेष्वं, है कहं , एगा साविया, तीसे भत्थारो मिच्छादिडिओ अण्णं भज्ज आणेतु मग्गति, तीसच्चएणं ग लभति ससवत्तगं, चिंतेति
किह मारिज्जामित्ति , अण्णदा तेण कण्ड्सप्पो घडए छुभित्ता आणितो, संगोवितो, जिमिवो भणति-आणेह पुष्पाणि अमुगघडए द्र उवियाणि, सा पविट्ठा, अंधकारति णमोक्कारं करेति, जदि किंचिबि खाएज्जा तोवि मरंतीए णमोक्कारो ण णस्सिहिति, हत्थो है ढो, सप्पो देवताए अवहितो, पुष्फमाला साहिया, ताए गहिया, दिण्णा य, सो संभंतो चिंतेति-अण्णाणि, कहियं, गतो पेच्छति ॥५८९॥ सा घडगं पुफगंध, णवि एत्य कोइ सप्पो, ताहे आउट्टो पादपडितो सव्वं कडेति खामेति य, पच्छा सा चेव घरसामिणी माता. द एवं कामावहो ।
*CRECRACK
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आगम
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भाग-4 “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं H, मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९८५-१०२४/९८५-१०१५], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सूत्रांक -
CERIEWER
नमस्कार
आरोग्गाभिरतीए एग णगरं णदितडे, खरकमितेणं सरीरचिंतानिग्गतेण नदीए वुझते मातुलिग दिई, रायाए उवणीतं नमस्कार व्याख्यायालयस्स हत्थे दिण्णं, पमाणेण य अतिरित्त, वण्णेण य गंधण य अतिरित, तस्स मणुस्सस्स तुडो, भोगा दिण्णा, राया भणति- ne
ग्यादि अण्णं णदीए मग्गह जाव न लद्धं, पत्थयणे गहाय परिसा गया, दिडो वणसंडो, जो गिण्हति फलाणि सो मरति, आगता, रण्णो ॥५९०॥ 1 कहिये भणति- अवस्सं मम आणतध्वं, अक्खपडिया वच्चउ, एवं गता आणेति, एगो पविट्ठो बाहिं उच्छुभति, अण्णे आणेति,
सो मरति, एवं कालो वच्चति, सावगस्स परिवाडी जाया, गओ तत्थ, चिंतेति-मा विराहितसामण्णो कोई होज्जति णिसी-18 हियं णमोक्कार करेंतो दुक्कति, वाणमंतरस्स चिंता, संबुद्धो, बंदति, भणति- अहं तव तस्थेव साहरामि, गतो, रणो कहितो
सम्भावो, तस्स ऊसीसए दिणे दिणे, एवं ण जीतं अभिरती भोगा य लद्धा, जीविता णाम किं अण्णं आरोग्ग, रायावि तुट्ठो। टिपरलोए णमोक्कारस्स केण फलं पतं? -
वसंतपुरे राया, गणिया साविया, चंडपिंगलेण चोरेण समं वसति, एवं कालो बच्चति, अण्णदा तेण रणो घरं हतं, हारो लूणीणितो, भीतेहिं संगोविज्जति, अण्णदा ऊजाणीयाए गमण, सवाओ गणियाओ विभूसियाओ पच्चंति, तीए सव्वाओ अतिस
तामित्ति हारो आविडो, जीसे देवीए सो हारो तीसे दासीए णाओ, रण्णो कहिओ य, केण समं बसती?, कहेति, चंडपिंग
लो गहितो, सूले भिण्णो, तीए चिंतियं- मम दोसण मारिओचि सा से णमोक्कार देति, भणति य-णिदाणं करेहि जथा एत-13॥५९०॥ लास्सेव रण्णो पुचो पच्चायामि, कर्त, अग्गमहिसीत उदरे पच्चायातो, दारओ जातो, सा से साविया कीलावणधाती जाता।
अण्णदा चिंतेति- कालो समो गम्भस्स य मरणस्स य, होज्ज कदाइति रमावेति भणति-मा रोग चंडपिंगल! चंडपिंगलचि, संबुद्धो,
दीप अनुक्रम [१]
(299)
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं , मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [९८५-१०२४/९८५-१०१५], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
दीप अनुक्रम [१]
नमस्कार राया मतो, सो राया जातो, सुचिरेण दोवि पब्बतियाणि । एवं सुकुलपच्चायाती तमूलागं च सिद्धिगमणं ।। अहवा वितिय नमस्कार व्याख्यायाम
उदाहरणं- महुरा णगरी, तत्थ सावओ सम्बजीवस्सरण्णो, तत्थ हंडि चोरो णगरं मुसति, अण्णदा गहितो, सूले भिण्णो, पडियरहफिले आरो॥५९१॥ चितिगावि से णज्जिहिति, पच्छण्णा माणुसा पडितरंति, सो सावओ तस्स अदूरबत्ती वयति, सो भणति- सावगा! तुमंसि अ-15 ग्यादि
शुकंप ओ, अहं तिसाइओमि, देहि मम पाणितं जा मरामी, सावओ भणति-इमं णमोक्कारं पढ जतो पाणितं आणेमि, जदि विस्सारेसि आणितंपि न देमि, सो ताए लोमयाए भणति, सावओ पाणितं गहाय आमतो, तं वेलं पाहामित्ति णमोक्कारं पढं-17 तस्स विणिग्गतो जीवो, जक्खभवणे जक्खो जाओ, सो य सावओ तेहिं मणुस्सेहिं गहितो चोरमत्तदायगोति, रणो णिवेदिय, भणति- एयपि यले भिंदथ, आघातर्ण णिज्जति, जक्खो ओघि पउजति, जाव सावगो य अपणो य सरीरं पेच्छति, ताहे| पवयं उप्पाडेऊण गगरस्स ओप्पि ठितो, ता तुम्भे मम एवं भट्टारक ण जाणंह , खमावेह, मा से सब्बे चूरेहामी, ताहे खाति। देवणिसीयस्स पुग्वेण य से आयतणं कतं । एवं फलं भवति णमोकारेण परलोएवि ।।
॥ इति नमोकारनिज्जुत्ती सम्मत्ता॥ इदाणि सुर्च भणति
* ५९१॥ नंदिमणुयोगदारं विहिवदुषघातियं च णातूण । कातूण पंचमंगलमारंभो होति सुत्तस्स ॥१०॥१॥१०२५ ॥ कतपंचनमोकारो करेति सामाइयंति सोभिहितो । सामाइयंगमेव य जंसो सेसं तओ वुच्छ ॥१०॥२॥१२०६||
ॐन
***अत्र नमस्कार-नियुक्ति समाप्ता:
*** अत्र अध्ययनं-१- 'सामायिक' आरभ्यते ***
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[8]
दीप
अनुक्रम
[२]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 निर्युक्तिः [९८५-१०२४/९८५-१०१५], भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [१],
मूल [१] / [गाथा - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
सामायिक
व्याख्यायां
॥५९२॥
प्रागुपदिष्टं च एत्थ य सुत्ताणुगमो सुत्तालावगनिष्फण्णो निक्खेवो सुत्तफासियनिज्जुती समकं गमिष्यंतीति, तथात्र सामायिकसूत्रमुच्चारयितव्यं अक्खलितयं अमिलितं एते आलावगा जथा पेडियाए दब्वावस्सगे तहा विभासितव्या जाब सामाइयपयं णोसामाइयपयं वा तं च इमं करोमि भंते! सामाइय' मिच्चादि, ततो तंमि उच्चारित सिचि भगवंताणं केई अस्था| धिगारा अधिगता भवंति, केई पुण अणधिगता, ततो तेसिं अभिगमत्थं अणुयोगो, एवं च 'जिणपचयणउपपत्ती' एसावि गाथा एत्थ गता भविस्सतित्ति, सो य अणुयोगो एवं संहिता य पयं चैव पयत्थो पदविग्गहो । चालना य पसिद्धी य, छवि दिद्धि लक्खणं ॥ १ ॥ तत्थ पुव्वं संहिता, संहितेति कोऽर्थः १, पूर्वोत्तरपदयोः वर्णयोः परः संनिकर्षः संहिता, अक्सलियपयोउच्चारणमित्यर्थः, तत्थ संहिता 'करेमि भंते! सामा इयं सव्वं सावज्जं जोगं पञ्चक्खामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा कायसा न करेमि न कारवेमि करेंतमवि अण्णं ण समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पार्ण वोसिरामि' चि. एसा संहिता ॥
इदाणिं पदच्छेदो, करेमित्ति पदं भदंत इति पदं सामाइयंति पदं सव्वंति पदं सावज्जंति पदं जोगमिति पदं पञ्चक्खामिति पदं जावज्जीवाएति पदं तिविहंति पदं तिविद्देणति पदं मणसति पदं वयसति पदं कायसति पदं ण करेमित्ति पदं न कारवेमित्ति पदं करेंतमण्णं ण समजाणामित्ति पदं तस्सति पदं भदंत इति पदं पडिकमामित्ति पदं निंदामित्ति पदं गरिहामिति पदं अप्पाणंति पदं वोसिरामित्ति पदं । इदाणिं पयत्थी, पद्यतेऽनेनार्थ इति पदं गम्यते परिच्छिज्जते इतियावत्, एत्थ य आयरिया पदत्थमेवं वण्णयंति--यथा किर सच्चा अत्थसिद्धी सविसए जहासतीए पवित्तिनिब्बित्तीहिं दिड्डा, अतो एत्थेपि मोक्खत्थमु
... सामायिक अध्ययने प्रथमं सूत्रम् "करेमि भन्ते" निर्दिश्यते
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संहितापदादि
॥५९२॥
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प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 निर्युक्तिः [९८५-१०२४/९८५-१०१५], भाष्यं [ १५१...]
अध्ययनं [१],
मूल [१] / [गाथा - ],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
सामायिक व्याख्याया
॥५९३॥
ज्जुतो एवमन्भ्रुवगमं दरिसेति, जथा करेमि भंते! सामाइयमित्यादि, तत्थ 'डुकृञ् करणे' तस्य गुणादौ कृते करोमीति भवति, करोमि अभ्युपगच्छामीत्यर्थः, अंतचि भदंत भयान्त भवान्त इति पूज्यस्यामन्त्रणं, हे भदंत इत्यादि, सामायिकमिति णाणदंसणचरणाणि भावसमं तस्स आयः समाय इत्येतस्य इकण्प्रत्ययांतस्य नैरुक्तविधानेन सामायिकमिति भवति, तत्किमुक्तं ?हे पूज्य ! ज्ञानदर्शनचारित्रलाभं अभ्युपगच्छामि, अनेन मोक्षसाधनज्ञानदर्शनचारित्रलाभविषयं प्रवृत्त्यभ्युपगमं दर्शयति, सर्वशब्दोऽत्रापरिशेषवाची, सावज्जमिति अवधं गर्हितं मिच्छत्तं अण्णानं अविरती सह अवद्येन सावद्यस्तं, कोऽसौ ?-योग:व्यापार इत्यर्थस्तं किमिति १-पच्चक्स्वामित्ति पच्चक्खाणं करेमि, प्रतीपमाख्यानं प्रत्याख्यानं ज्ञपरिज्ञया परिज्ञानं प्रत्याख्यान परिज्ञया परिहरणमित्यर्थः तत्किमुक्तं ?- अपरिशेषं मिथ्यात्वाज्ञानअविरतिसहचरितं व्यापारं ज्ञात्वा निवर्तयामीति, अनेन तु संसारकारणमिथ्यात्वाज्ञानाविरतिसहगतव्यापारविषयं निवृत्यभ्युपगमं दर्शयति नणु सावज्जजोगो तिकालबिसओ संखातीतभेदो यतो कह तस्स निरवसेसस्स पच्चक्खाणं ?, अशक्यमित्यभिप्रायः, किं च तथाविधेण करणेण कसा कज्जं साहेति, न तं विणा, तदपि संख्यातीतभेदं कस्यचित्कार्यस्य किंचित्साधकतमं तदत्र नियतभेदं किं तथाविधं करणमित्याह-- जावज्जीवाए इत्यादि, अत्र जावज्जीवाएति न करेमि न कारवैमि करेंतेपि अनं न समणुजाणामि इत्यत्र योज्यते, यावत् परिमाणमर्यादावधारणेषु, जीव प्राणधारणे, जीवनं जीवो यावन्मम जीवनं जीवनपरिमाणं- जीवनमर्यादां, जीवनमात्रमित्यर्थः, किं ?, संख्यातीतभेदमपि जाइभेयविवक्षया त्रिविधं त्रिप्रकारं करणकारणानुमतिलक्षणं सावधं योगं, करणस्याप्यनेकविधत्वेऽपि तथैव त्रिविधेन त्रिप्रकारेण, करणेनेत्यर्थः तेनाप्यस्य कार्यस्य प्रसाधकतमेनैव मणसा वयसा कायेण एते विभासितव्या, एतेषामेकैकेनैव, अत एव माणसा वयसा
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पदच्छेदः पदार्थच
॥५९३॥
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भाग-4 “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं [१], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [९८५-१०२४/९८५-१०१५], भाष्यं [१५१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
[१]
दीप अनुक्रम
सामायिक कायेणेत्यत्र मिनविभक्तिको निर्देशः, न करोमि आत्मना न कारवीम परैः करेंतंपि अण्णं न समणुजाणामि, अपिशब्दा-18 पदार्थ व्याख्यायो कारतमवि समणुजाणवमवि अण्णं ण समणुजाणामि, अन्यग्रहणात् एव अन्यपरंपरयापीति, तरिकमुक्तं ?-वर्तमानसमयादारभ्य IP यावन्मरणकाल एतावतं कालं यावत्साची योगं करणकारणअनुमतिभेदात् त्रिप्रकार त्रिविधेन करणेनानेनैवास्य प्रसाधकेन मनोव-12
चनकायरूपेण एकैकेन न करेमि न कारयामि करेंतंपि अण्ण ण समणुजाणामीति, यश्चातीतकालविषयः तस्स पडिकमामि निंदामि गरिहामि, पडिकमामित्ति प्रतीपं क्रमामि प्रतिनियत्ते बोसरामीतियावत् 'निंदा आत्मसंतापे' 'गहरे प्रकाशने आत्मसाक्षिकी निंदा, परसाक्षिकी गहो, तत्कोऽर्थः १-योऽतीतकालविषयः त्रिविधः सावधयोगस्तस्मात् त्रिविधेन करणेन पडिनियसामि, तमेव चात्मसाक्षिकं निंदामि परसाक्षिकं गहोमीति, अपराधपदविशुद्धयर्थ चात्मानं बोसिरामित्ति, अयमभिप्रायः-एवमपि | यदा आत्मानं अपराधषदेहिं अविसुद्धं संभावयामि तदा अधारिहं पायच्छित्तं पडिबज्जामि, न तुण आतपडिबंधेण तं न पडिवज्जामि, अतो आतपडिबंधपरिहारेण पायच्छित्तपडिवत्तीए आलाबो सिद्धो चेव भवतिति अप्पाणं वोसिरामीत्याह, अनेन च यथा | शक्तिर्दर्शिता भवतीति पदार्थः । अण्ण पुण एस्थ केयी अवयवा अण्णधा संपवयंति बण्णयंति य, जथा किर करेमि भंते ! सामाइयं | तिविह-नाणदसणचरणभेदेण, सव्वं सावज्जं जोग पञ्चक्खामि तिविह, मिच्छत्तअन्नाणअविरतिसहगतत्वात्सोऽपि त्रिविधः, मण-IRL
४॥५९४॥ | वयकायवावारभेदेण वा तिविधो, तिविधेण मणसा करणकारणाणुमतिपवतेण, एवं वयसा कायणवि, सामाइयं करेमि सावज जोगं पञ्चक्खामि । सेसे पूर्ववत् ।। अण्ण पुण-करेमि भत! सामाइयं जावज्जीवाए, सव्वं सावज जोग पच्चक्खामि जावज्जीचाए, कह , तिविहं तिबिहेणं, मणेण वायाए कायेण, यड्ढमाणसमयादारभ्य जावज्जीवाए न करेमि जाव न समणुजाणामि, पुब्बकतस्स |
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं [१], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२८/१०१६-१०२६], भाष्यं [१५२-१७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
[१]
दीप अनुक्रम
सामायिक पुण पडिक्कमामि जाय गरिहामि एवं संबंधयंति, शेष पूर्ववत् । एवमायन्यथाऽपि दृश्यते । एष पदार्थः, पदविग्रहो यत्र संभवति I
मवावा करणव्याख्यायां तत्र वक्तव्यः । इदानीं सुत्तफासियनिज्जुत्ती जा एतं सुत्न अणुफुसतित्ति भणित्ता ततो पच्छा चालणा भण्णिहिति, एत्थ इमा निरूपण 11५९५॥
सुत्तफासिए गाथाकरणे भए य अंत सामाइय सब्बए य वज्जे य । जोए पच्चक्स्वाणे जावज्जीवाए तिविहेणं ॥१०॥४॥१०२८॥
एसा गाथा विभासितब्बा, तत्थ करणं छविहं, नामकरण ठवणा० दब० खेत्त० काल भावकरणं, तत्थ नामढवणाओ |गताओ,जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्तं दबकरणं दुविहं-सण्णाकरणं च पोसण्णाकरणं च, सण्णाकरण अणेगविह-जमि जीम दवे करणसंज्ञा भवति तं सण्णाकरणं, जथा- कडकरणं अट्ठकरणं पेलुकरणं एवमादि, जोसण्णाकरणं दुबिह-चीससाकरणं पयोगकरणं च, विगत ससना विससा, विगतप्रयोगकरणमित्यर्थः, तं दुबिह- अणादीयं सादीय च, अणादीयं जथा धम्माधम्मागासादीणं, तसु का करणविही, उच्यते. परप्रत्ययादुपचारतः करण, अहवा धम्माधम्मागासाण य अण्णमण्णगमणं तं अणादीयं बीससाकरणं, अहवा धमादीण य भवणं, एवं अणादीयं वीससाकरणं, सादीयं दुविह- चक्खुफासियं अचम्खुफासियं च, चक्खुफासियं 8 अब्भा अम्भरुक्खा एवमादि, चक्षुषा यन्त्र स्पृश्यते तदचक्षुःस्पर्शिक, जथा परमाणुपोग्गलाणं दुपदेशियाण तिपदेशियाणं एवमाहै दीर्ण, एतेसि ज संघातेणं भेदेण संघातभेदेण वा करणं उप्पज्जति तन दीसति छउमत्थेण तेण अचक्खुफासिय, बादरपरिण- ॥५९५॥
तस्स पुण अणंतपदेसियस्स चक्खुफासियं भवति । पयोगकरणं दुविह- जीवपयोगकरण अजीवपयोगकरणं च, जीवपयोगकरण टू दुविहं- मूलपयोगकरण च उत्तरपयोगकरणं च, मूलं नाम मूलमादिरित्यनर्थान्तरं, मूले पंच सरीराणि ओरालियादीणि, उत्तरपयो
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भाग-4 “आवश्यक- मूलसूत्रअध्ययनं [१], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२८/१०१६-१०२६], भाष्यं [१५२-१७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
दीप अनुक्रम
सामायिक | गकरणं नाम जं निष्फण्णातो उत्तर निष्पज्जति, त एतसिं चेव ओरालियबेउब्वियाहारगाणं तिण्हाण उत्तरकरणं, सेसाणं णास्थ करण: व्याख्यायो ।
एतं अट्ठविहं करणं । अहवा मूलकरणं अटुंगाणि, अंगोवंगाणि उवंगाणि य उत्तरकरणं, ताणि जथा-सीस १ मुरो २ दर ३/ ।।५९६॥
पट्टी ४ बाहाओ दोणि ६ ऊरुया दोषिण ८ । एते अटुंगा खलु अंगोवंगाणि सेसाणि ॥१॥१६० मा । होति उचंगा | अंगुलि कण्णा नासा य पजणणं चेव । महदंतकेसमंसू अंगोवंगेवमादाणि ॥ २ ॥ अहबा इमं उत्तरकरण- दंतरागो कण्णवड्डणं नहकेसरागो, एतं ओरालियवेउम्बियाणं, आहारए णस्थि एताणि, आहारगस्स पुण गमणादीणि, एस पुण बिसेसो- ओरालियस्स & चेव उत्तरकरणं विसेणं ओसहेण वा पंचण्हं इंदियाणं विणट्ठाण वा पुणो करणं निरुवहताण या विणासणं, एवमादि । तत्थ पुण ओरालियवेउब्बियआहारगाणं तिण्हं तिविहं करणं- संघातकरणं परिसाडणकरण संघातपरिसाडकरणं, उपरिल्लाण दोहं सरीराणं || संघातणा पत्थि, उवरिल्लाणि दो अस्थि, एताणि तिण्णिवि करणाणि कालतो मग्गिज्जति-ओरालियसंघातकरणं एगसमय, जं. पढमसमयोववण्णस्स, जथा तेल्ले ओगाहिमओ छूढो तप्पढमताए आययति, एवं जीवोऽपि उबवजंतो पढमे समये गेहति ओरा-12 लियपाओग्गाणि वाणि, न पुण मुंचति किंचिवि, पडिसाडणा जहण्णेणं समयो उक्कोसेणवि समयो, मरणकालसमए एगंतसो मुयति, न गेण्हति, मझिमे काले किंचि गेण्हति किंचि मुयति, जहण्णेणं खुड्डुग भवग्गहणं तिसमयूणं, तिसमयूर्ण कह !, दो। विग्गहमि समया समयो संघातणाए तेहणं । बुड्डागभवग्गहणं सव्वजहण्णो ठितीकालो ।। ४ । उक्कोसेणं तिण्णि पलितोचमाई
५९६॥ समयूणाणि, कहं ?, उक्कोसो समयूणो जो सो संघातणासमयहीणो। किह न दुसमयविहीणो साडणसमएऽवणीतमि ॥५॥ भष्णंति- भवचरिमंमि बिसमये संघातणपरिसाडणं चेव । परभवसमते साडणमतो तो न कालोत्ति ॥ ६ ॥ जदि परपढमे साडो
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अनुक्रम
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भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 निर्युक्तिः [१०२८/१०१६-१०२६],
भाष्यं [१५२-१७४]
अध्ययन [ १ ], मूलं [१] / [गाथा-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
सामायिक
व्याख्यायां
॥५९७॥
निब्बिगहतोय तंमि संघातो । गणु सव्वसाडसंघातणा उ समये विरुद्धाओ ||७|| आ० जम्हा विगच्छमाणं विगतं उप्पज्जमाणसुप्पण्णं । तो परभवादिसमये मोक्खादाणाणमविरोहो ॥ ८ ॥ चुतिसमये नेहभवो देहविमोक्खतो जथातीते । जदि परवोवि न तर्हि तो सो को होतु संसारी ? ॥ ९ ॥ णणु जह विग्गहकाले देहाभावेवि परभवरगहणं । तह देहाभावंमी होज्जेहभवोवि को दोसो १ || १० || आ०-जंपिय विग्गहकाले देहाभावेवि तो परभवो सो । चुतिसमएवि ण देहो ण विग्गहो जदि स को होतु ? ॥ ११ ॥ अंतरं- ओरालियसंघातकरणस्स जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूर्ण, उक्कोसेण तेत्तीस सागरोवमाणि पुष्चकोटिसमयाधियाणि सव्वसाडस्स जहणेणं खुल्लागं भवरगहणं, उक्कोसेण तेत्तीस सागरोवमाई पुब्बकोडिअहिताई। कह ?, संघात तरकालो जहणतो खुट्टयं तिसमयणं । दो विग्गहंमि समया ततिओ संघातणासमयो ।। १२ ।। तेणं खुट्टभवं धरितु परभवमविग्गहेणेव । गंतॄण पढमसमये संघातयतो स विष्णेयो ।। १३ ।। उक्कोसेणं तेतीस समयाधिय पुव्वकोटि अधियाई । दो सागरोमाई अविग्गणेह संघातं || १४ || कातूण पुव्यकोडिं धरिडं सुरजेङमातुयं तत्तो। भोतृण इहं ततिए समए संघातर्यतस्स ॥ १५॥ सव्वसाहस्स कहं खुड्डागभवग्गणं जहण मुक्कोसयं च तेतीसं । तं सागरोवमा संपुष्णा पुथ्बकोडी य ।। १६ ।। इहाणंतरातीतभवचरिमसमये ओरालिय सरीरसम्वसार्ड काढूण खुड्डागभवग्गहणिएस उचचण्णो, तस्स पज्जेते सव्वसार्ड करेति, ततो खुल्लागभवग्गणमेव भवति, उक्कोसेणं पुण कोइ ओरालियसव्वसार्ड कातूण तेत्तीससागरोवमट्टितीएस वेडब्बिएस उबवण्णो, पच्छा तुओ पुव्वकोडाउएस ओरालियरीरिसु उबवण्णो, पुव्वकोडिअंते औरालियसव्वसार्ड करेतिति । इदाणिं उभयस्स अंतरं-जहणेण एक्कं समयं उक्कोसेण तेत्तीस सागरोवमाणि समयाधियाणि, कहं १- उभयंतरं जहणं समयो निब्बिग्गहेण संघाते । परमं सति
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करणनिरूपण
।।५९७||
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भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं [१], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२८/१०१६-१०२६], भाष्यं [१५२-१७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
सामायिक व्याख्यायां ॥५९८॥
CROCK
BAR
दीप अनुक्रम
समयाई तेत्तीस उदधिनामाई ।। १७ ।। अणुभवितुं देवादिसु तेचीसमिहागतस्स ततियंमि । समए संघातयतो णेयाई समयकुस-18 | लेहि ॥१८॥ न्ति । वेउब्वियसंघातो जहण्णेण समओ उक्कोसेण दोण्णि समया, विउव्वमाणस्स अणगारस्स पढमे समए मरण ही जातं देवेसु उववण्णो, तत्थवि पढमे समए संघातेति एस वितितोत्ति, परिसाडणा जहेब ओरालिए, संघातपरिसाडणा जहण्णेणं दस बाससहस्साई तिसमयऊणाई, एवं- ताव देवनारगेसु तिरियमणुएसु पत्थडं पडुच्च एग समयं, उक्कोसेण तेचीस सागरोबमाई समउणाई, कई ?, उभयं जहण्ण समओ सो पुण दुसमय विउध्वियमयस्स । परमयराई संघातसमयहीणाई तेत्तीस ॥१९॥ अंतरं | सब्वबंधंतरं जहण्णणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अणंत कालं अर्णताओ जाव आवलियाए असंखेज्जतिभागे, कहं ? संघातंतरसमओ समयविउव्वियमयस्स ततियमि । सो दिवि संघातयतो ततिए व मयस्स ततियंमि ॥ २०॥ अविग्गहेण संघातयतो वितिओ संघातपीरसाडसमओ चेव अंतर, उक्कोसं पुण वणसइकालो। एवं देसबंधतरंपि, साडस्स पुण जहण्णेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं एवं चेब, कहं ?- उभयस्स चिरविउव्वियमयस्स देवे सविग्गहवतस्स । साडसंतमुत्तं तिहवि तरुकालमुक्कोसीच ॥ २१ ॥ आहारगतस्स संघातो समओ, परिसाडणा जथा ओरालिए, संघातपरिसाडणा जहष्णेण अंतोमुहत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, अंतरं सवबंधंतरं जहण्णेण अंतोमुहुचं, उक्कोसेणं अणतं कालं अणताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ,खेतओ अवर्ल्ड पोग्गल परियट्ट देसूर्ण, एवं देसबंधन्तरपि साडबंधन्तरंपीति । तयगकम्मगाणं परिसाडणाय संघातपरिसाढणाए-तेयगसरीरं, जे कम्मत्ताए पागले गेण्हति तेयगसरीरेण उणहवेति ततो संघात गच्छति, अयस्पिण्डवत् , एवं तेयगसरीरंग, अहवा जा सरीरुम्दा तेयगलद्धी वा, कम्मगसरीर णाम अट्टविहं कम्म, कालो अणातीओ वा अपज्जवसितो अभवियाण, अणातीओ वा सपज्जयसितो भवियाण,
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५९८॥
ARR4
ॐ
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दीप
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[२]
“भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
अध्ययनं [१],
मूलं [१] / [गाथा-],
निर्युक्तिः [१०२८/१०१६-१०२६].
भाष्यं [१५२-१७४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
सामायिक व्याख्यायां
॥५९९॥
परिसाडणा तहेव समयो भवति, दोहवि अंतरं नत्थि, एतेसिं दोन्हवि अंगोवंगा णत्थि, अडवा तदंतर्गता एवं तेजसकार्मका जीवप्पयोगकरणं, जतो जीवेण पयोगसा आत्मसात् नीयंते, आए वेइति । अहवा इमं जीवप्पयोगेणं निव्वत्तिय चव्विहं करणंसंघातणाकरणं परिसाडणाकरण संघातपरिसाडणाकरणं व संघातो व परिसाडो णोसंघातपरिसारणाकरणं, जथा पढो संखो सगडं धूणत्ति यथासंख्यं, पडो संघातितो, संखो परिसाडेत्तृण घट्टितो, सगड संघातपरिसाडणेण निव्वतियं, धूणा उभयनिसेहेण उद्धीकता, एवं वितिरिच्छीकता, एवमादि विभासा । अजीवपयोगकरणं अजीवे पयोगेण किरति जथा वण्णकरणाति जं वण्णं कुसुंभचितकारकादीण, एवं गंधरसफासावि विभासितव्या । एवं दव्वकरणं ।
खेत्तकरणं खतं आगासं तस्स किर करणं णत्थि, तहवि बंजणपरियावणं, जम्हा ण विणा खेचेण करणं कीरति, अहवा खेत्तस्सेव करणं खत्तकरणं, वंजणपरियावण्णं नाम जं खतंति अभिलप्पति, तंजहा उच्छुखेत्तकरणमादी य, सालिखेत्तकरणं तिलखसकरणं एवमादि, अहवा जमि खेत्ते करणं करेति वणिज्जति वा । कालकरणं कालोऽवि अकित्तिमो, तथावि तस्स वंजणपरियावण्णं जं जावतिएण कालेन कीरति जीम वा वंणिज्जति एवं ओहेण णामओ पुण इमे एकारस करणा, तत्थ य गाथाओ कालो जो जावतितो जं कीरति जमि जंमि कालंमि । ओहेण णामओ पुण इमे उ एकारसकरणा ॥ १ ॥ बवं च बालवं चैव, कोलवं थीविलोयणं । गरादि वणियं चैव विट्ठी हवति सत्तमा ॥ २ ॥ सउणि चउप्पयनागं, किन्छुग्यं करणं तथा । चचारि धुवा एते, सेसा करणा वरा सत्त || २ || किण्हचउदसिरति सउणिं पडिवज्जती सया करणं । एत्तो अहकमं खलु चउप्पयं नाग किन्छुग्धं ॥ ३ ॥ सुचराष्टदिवैकरपूर्णदिवा, कृत्रासदिवादरभूतदिवा । यदि चन्द्रगति तिथिश्व समा, इति विष्टिगुणं प्रवदन्ति बुधाः ॥४॥ पक्खतिहओ
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करणनिरूपर्ण
॥५९९॥
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आगम
(४०)
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं [१], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२८/१०१६-१०२६], भाष्यं [१५२-१७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक [१]
दीप अनुक्रम
सामायिक दुगुणिया दुरूवरहिता य सुकपक्खंमि । सत्तहिते देवसिय त चिय रूवाहित रति ।। ५॥ किण्हे दुरूवहीणा न कातवा, जे गता करणव्याख्यायां पक्षतिहयो बट्टमाणतिहिणा सह सत्तण्डं चलाण करणाण पचवता स सत्तहिं भागे हिते जं सेस तं करणं, णो जं लद्धालनिरूपण
तं कालकरणं । ॥६००॥
भावकरणं दुविहं-जीवभावकरणं च अजीवभावकरणं च, अजीवभावकरणं वण्णादी तब्ब, जीवभावकरणं दविहसुतकरणं च नोसुतकरणं च , सुतकरणं दुविहं-लोइयं च लोउत्तरियं च , एकेक्कं दुविहं-बद्धं अबद्धं च , बद्धं णाम | जत्थ सत्थेसु उवणिबंधो अस्थि । अबद्धं जं एवं चव विपरीतमिति, नस्थि उवाणिबंधो । तत्थ बद्धसुतस्स करणं दुबिह-सद्दकरणं निसीह-11 | करणं च, सद्दकरणं नाम जं सद्देहिं पगडत्थं कीरति, न पुण गोवितं, संकोतितं, जथा उप्पाएति वा भूतेति वा विगतेति वा परिणतेति वा उदात्ता अनुदात्ताः प्लुताश्च, निसीह जं पच्छण्णं गोवितं संकेतितं, तत्थ सुत्ते अत्थे तदुभए य, जथा निसीहणाम अज्झयण भवति, अहवा जथा अग्गेणीते विरिते अत्थिणत्थिप्पवायपुब्बे य पाढा-जत्थ एगो दीवायणो भुजति तत्थ दीवायणसयं भुंजति जत्थ सयं दीवायणा झुंजंति तत्थ एगो दीवायणो भुजति, एवं हमइत्ति जाव तत्थ एगो दीवायणो हम्मति । से बद्धकरणं, लोतियअबद्धकरणं
बत्तीसं अडिताओ बत्तीसं पञ्चाड्डयाओ सोलस करणाणि, लोगप्पवाए वा एत्थ छट्ठाणाणि, जहा-विसाहं समपदं मंडलं आलीढं पच्चा18लीढं, दाहिण पादं अग्गतोहुर्त कातुं वामपाद पच्छओ हुत्ता ओसारेति, अंतरं दोहवि पादाणं पंच पदा, एवं आलीद, एतं चेव विपरीतं ॥६००॥ I&| पचालीढं, वइसाह पाहीओं अभिन्तराहुन्तीओ समसेढीओ करेति, अग्गिमतला बाहिरहुत्ता, मंडलं दोबि पादे दाहिणवामहुत्ते ओसा
रेत्ता ऊरुणावि आउण्टाचेति जथा मंडलं भवति, अंतरं चत्तारि पादा, समपदं दोवि पादे समं पिरंतरं ठवेति, एताणि पंच
[२]
RXAYRLASSANASCE
GA
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[8]
दीप
अनुक्रम
[२]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2 मूलं [१] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१०२८/१०१६-१०२६],
भाष्यं [१५२-१७४]
अध्ययन [ १ ],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
सामायिक
व्याख्यायां ||६०१॥
ठाणाणि, लोगप्पवादे सयणकरणं छडं ठाणं । अरिइप्पवयणे पंच आदेससताणि, तत्थ एवं मरुदेवा, गवि अंगे गवि उवंगे पाठो अस्थि एवं मरुदेवा अणादिवणस्सइकाइया अणंतरं उब्वद्वित्ता सिद्धत्ति, तहा सयंभूरमणमच्छाण पउमपत्ताण य सव्वसंठाणाणि लयसंठाणं वलयसंठाणं मोत्तुं, करडकरडा य कुणालाए, एते जथा भणामि करकरडाण निमणमूली वसही, देवषाणुकंपणं, रुट्ठेसु पन्चरसदिवसवरिसणं, कुणालाणगरिविणासो, ततो ततियवरिसे साएए नगरे दोपहवि कालकरणं, अहे सत्तमपुढविकालनरगगमणं, कुणालानगरिविणासकालाओ तेरसमे वरिसे महावीरस्स केवलनाणुप्पत्ती एवं अवेद्धं, एतं सुतकरणं ॥ णोसुतकरणं दुविहं-गुणकरणं च जुजणाकरणं च गुणकरणं दुविहं तवकरणं च संजमकरणं च, दोनि विभासितब्बा जहा ओहनिज्जुतीए । जुंजणाकरणं तिविहं-मण जुंजणाकरणं वयर्जुजणाकरणं कायर्जुजणाकरणं, मणो सच्चादी ४, एवं वयीवि ४, कायो सत्तविधो ओरालियादि ॥
एत्थ कतरेण करणेण अहिगारो १, भावकरणेणं, तत्थवि सुतकरणेणं, तत्थवि सदकरणेणं, नोसुतेवि गुणकरणेणं, जुजणायच | जहासंभवं विभासेज्जा । तं इमाए पाहुडियाए अणुगंतव्वं । जथा कलाकतं १ केण कतं २ केसु व दब्बेस कीरती ३ वावि काहे व कारओ ४ णयतो ५ करणं कतिविहं ६ व कई ७ ॥ १०३९॥ ति, ग्रा इति सत्तपदा, तत्थ सामाइयं कतं कज्जति, एत्थ नएहिं मग्गणा, जथा नमोक्कारे उप्पण्णाणुप्पण्णो, जदि उप्पण्णो कतस्स करणं नत्थि, अणुष्पष्णेऽवि ससविसाणादीणं जह नमोक्कारे, दारं । केण कर्त सामाइयं १, अर्थ समाश्रित्य जिनवरैः सुतं गुणहरेहिं । केसु दत्रेसु कीरति सामाइयं १, तत्थ णेगमस्स उडाणेण बलेणं वीरिएणं पुरिसक्कारपरक्कमेणं मणुष्णेसु य दब्बे, जथा-मण्णुण्णं भोयणं भोच्चा, मणुष्णं सयणासणं । मणु
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कृताकृतादिनिरूपणं
||६०१॥
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[8]
दीप
अनुक्रम
[२]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
भाष्यं [१७५-१८५]
अध्ययनं [१],
मूलं [१] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१०३९-१०४६/१०२७-१०३४],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2
सामायिक
व्याख्याया 1180211
णंसि अगारंसि, मणुष्णं शायते मुणी || १ || एवं गमो इच्छति, संगहादीया सेसा सव्वदव्वेसु नो सब्वपज्जवेसु, जेण दव्वाण केइ पज्जवा सुभा केसि असुभा, सामाइयं च सुभपज्जवेसु कीरति णो असुभपज्जवेसु, दव्वाणि पुण परिणामवसेणं सुभा असुभावि भवति, सब्वदव्वाणिवि असुभपरिणामिहोतूण सुभपरिणामानि भवंति दुगंधावि पुग्गला सुगंधत्ता परिणमंतीत्यादिवचनात् । दारं
का व कारओ भवति १, एत्थ णयमग्गणा णेगमस्स उद्दिडे सामाइए पढउ वा मा वा पढतु करेतु मा वा करेतु कारओ चैव, संगहववहाराणं चंदणगं दातूणं निव्विट्टो गुरुपादमूले पढतु वा मा वा पढतु करेतु वा मा वा करेउ, कारतु चैव, उज्जुसुतस्स अपुब्वे सामाइयपज्जवे समए समए अकममाणस्स उवउत्तस्स वा सामाइयं भवति, अण्णे भणति तदा णो सामाइयं भवति, सम्मचे सामाइयं, ति सद्दणयाणं अपुव्वे सामाइयं, पज्जवे समए समए अकममाणस्स नियमा समद्दिस्सि उवउचस्स नो सामाइयं, समते कारओ सामाइयस्स । एते चैव नया, अहवा इमे अट्ठविहं नेयाइयं लक्खणं, तंजथाआलोयणा य विणए खेत्त दिसाभिग्गहे य काले य। रिक्वगुणसंपदावि य अभिवाहारे व अट्टमए ॥ २० ॥ ४३ ॥
न्यायेन चरतीति नैयायिकः, एवंगुणसंपन्नाय एभिः प्रकारैः, एवं आलोइयपडिक्कंतस्स जो सामाइयं देति सो नायकारी नायवादी भवति सा आलोयणा दुबिहा- गिहत्थालोयणा संजतालोयणा य, गिहत्थे का आलोयणा १, परिखिज्जति अरिहो सामाइयस अणरिहोति, तत्थ गाथा- अट्ठारस पुरिसेसुं वीस इत्थीसु दस नपुंसेसु । पब्वाचणाइ अणरिहा, कातुं अरिहातु वा १, विचरीत, संजतस्स का ?, उवसंपदा, सामाइयस्स अत्थनिमित्तं उवसंपज्जति सो आलोयाविज्जति, अहवा अणागतकालयत्थं सूपति,
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कृताकृतादिनिरूपणं
॥ ६०२॥
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आगम
(४०) ।
भाग-4 “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) 2 अध्ययनं [१], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०३९-१०४६/१०२७-१०३४], भाष्यं [१७५-१८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
ताता
प्रत सूत्रांक [१]
दीप अनुक्रम [२]
सामायिक जथा होहिंति ते मणूसा जेसि सामाइयस्स सुत्तनिमित्तं उपसंपदा होहिति, से य अद्धपढितेवि संजता चेव, जुगमासज्ज तेसि | व्याख्यायांसोधीकए भविस्सति, जो जत्तिय जाणति सो तावतिएणं पडिक्कमति जाव न समाणेति, जथा पुत्वं सामाइयं चोद्दसहि पुरुष- दिनिरूपणं ॥६०३॥
लाहिं विभासिज्जति, संपति थोवेणं, तथाषि उपसंपज्जिज्जति, एवं एस्सेवि काले होहिति, सा य सामाइयस्स तिहं निमिर्च उपसं
पज्जिज्जति- सुत्तस्स अत्थस्स उभयस्स इति, सो चउन्विहं सोधि करेति- दग्वातियारस्स खत्त काल भावतियारस्सत्ति, पायच्छित्तं दिज्जति, दवं चेतणमचेतणं वा, खेत्ततो जणवतं वा अद्धाणं वा, कालो सुभिक्ख दुभिक्खं वा, भावतो हवेण वा गिलाणेण वा, एवं आलोइए विणीतस्स दिज्जती, णो अविणीतस्स, सो जथा-अणुरत्तो भत्तिगतो अमुई अणुयत्तओ बिसेसंणू। उज्जुत्तमपरितंतो इच्छितमत्थं लभति साधू ॥ १॥ एतबिवरीतस्स.न दातव्यं, दारं । केरिसके खेत्ते तप्पढमताए सामाइयं कातव्वं, तं दुविहं पण्णत्त-पसत्थं अपसत्थं च, तत्थ अपसत्थं भग्गघरं तणरासी० एवमादि अमणुण्णा । पसत्थं चेतितघरं
चेतियरुक्खं वा, गाथा-उच्छुवणे सालिवणे पउमसरे पुष्फफलितवणसंडे । गंभीरसाणुणादे पदाहिणावत्तउदगादी DI॥ १॥ दारं । दिसाभिग्गहो- तिणि दिसाउ अभिगिज्झ उद्दिसितव्यं--पुण्यं वा उत्तरं पा चरिन्तियं बा, चरतिया जाए दिसाए
तित्थगरो मण• ओहि० चोदस दसणव० जाच एगपुब्वी, जो वा जुगप्पहाणो आयरिओ जाए दिसाए । दारं ॥ कालो पडिkडेल्लयदियसे वज्जेज्जा, अट्ठमि च नवमि च छढेिच चउस्थि वारसिंपि दोण्इंपि पक्खाणं, पसत्थेसु मुहुत्तादिसु, तचिवरीते ण A६०३॥
| वट्टति, रिक्खेसु केमु -मिगसिर अदा पूसो तिणि य पुवाई मूलमस्सेसा । हत्थो चित्ता य तथा दस विद्धिकराई। नाणस्स ॥ १ ॥ जस्स वा जत्थ अणुकूल, विवरीतमप्पसत्थं, अहवा-संझागतं रविगतं पिढेरं सग्गहं विलंर्षि च । राहु
C
RCMSACREA
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(४०) ।
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्रअध्ययनं [१], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०३९-१०४६/१०२७-१०३४], भाष्यं [१७५-१८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
[१]
दीप अनुक्रम
सामायिक हतं गहभिण्णं च वज्जते सत्त नक्खत्ते ॥ १ ॥ दारं ।। गुणसंपदा णाम पुन्वं विणयो, जदि विणीतो इमे य से गुणा भनति आचार्यादि व्याख्यायाद तो उद्दिसति, तंजथा-पियधम्मो दढधम्मो संविग्गो वज्जभीरु असहो य । खतो दंतो दविमादि धिरब्बत जिर्ति-13 करणं दिओ उज्जू ॥१॥ असदस्स तुलसमस्स य साधुसंगहरतस्स (अममस्स)। एसो गुणसंपण्णो तविवरीओ असं- लाभहतु।
भदन्त|पण्णो ॥ ४ ॥ दारं ॥ अभिवाहरो नाम पसत्थेसु सउणेसु अभिनिव्वाहारन्तेसु, अहवा उदिसतो अभिलवति कालियसुते-सुत्तेणं ति अत्थणं तदुभएणं उदिसामि, दिहिवादे दबेहिं गुणेहिं पज्जवेहिं । दारं ।।
इदाणिं करणं कतिविहंति दारं, आयरियस्स चउम्विहं, तंजथा- उद्देसणाकरणं समुदेसणाकरणं वायणाकरण अणुण्णाकरणं, लि सीसेचि चउविहं, तंजथा- उदिसिज्जमाणकरण समुद्दिस्समाणिज्जकरणं वाइज्जमाणकरणं अणुण्णविज्जमाणकरण । दारं ॥कहंति सामाइयस्स करणं कहं संभवति, सामाइयस्स आवरणे णाणावरणं दसणावरणं च, तेसिं दुविहाणि फगाणि-देसघातीण य | सव्वघातीणि य, सम्बधातिफडएहिं उदिण्णेहिं सव्वेहिं उग्धातिएहिं देसघाइफहएहिं अर्णतेहिं उग्पाइएहि अणतगुणपरिवद्धीए समए | समए विसुज्झमाणो २ पढमअक्खरलाभ ककारलाभं भवति, नतो पच्छा अणंतगुणविसाहीए विसुममाणो रेकारं लभति, एवं | | सेसक्खरेऽवि । एवं करणं सम्मत्तं ॥
___ 'करेमि भंते ! सामाइक'मिति सीसो सामाइयं करेतुकामो गुरुं आमंतति, मतेत्ति 'भदि कल्याणे सौख्ये च' अहो कल्याण-13 वंत इत्यामंत्रणं करोति, पाइतसेलीए वा भयस्यांतो गतो इति भयांतो भवतित्ति, 'मी भये' तस्स छव्विहो निक्खेवो नामादि,
[२]
॥६०४॥
(313)
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[8]
दीप
अनुक्रम
[२]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
भाष्यं [१७५-१८५]
अध्ययनं [१],
मूलं [१] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१०३९-१०४६/१०२७-१०३४],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि - 2
सामायिक व्याख्यायां
॥ ६०५ ॥
दुब्वमयं भयमोहणीयं कम्मं बद्धं न ताव उद्दिज्जति, अण्णे भणंति- जो जस्स दव्वस्स बीभेति सचितादिस्स, खेत्तभयं जमि खेते, जो वा जस्स खत्तस्स बीभेति, जमि वा खेत्ते भयं वणिज्जते, एवं कालेवि भाषितव्वं, जच्चिरं वा कालं बीमेति, भावभयं भयमोहणिज्जेणं कम्मेण उद्दिष्णणं सत्तविहं, तंजहा- इहलोगादी, इहलोगभयं जं पुरिसो पुरिसस्स बीहेति १ परलोगभयं सीहवग्घदेवादीणं जं वीति र आदाणभयं जो आदेयस्स चोरादीणं बीभेति ३ एवं चैव अगुत्तिभयं, नगरपाकारो आदाणभरण कीरात ४ अकस्मा*द्भयं जथा विज्जुमाइओ तथा मरणमिति महम्भयं 'नराणां०' वृत्तं, दोषि एक्कं ५ वेदणभयं सीतादीण बीभेति ६असिलोगभयं जदि एवं काहामि ता मे अयसो होहितित्ति बीमेति ७ एतस्स सत्तविहस्स अंत गतो भदंतो अहवा भवान्तो, सो य भवो चउब्बिहो-नामादि, दब्बभवो एगभवियादी, भावभवो- चउब्बिहो संसारो, जो चउगइस्स भवस्य अंतं गतो सो भवतो, भवानामंते वर्त्तते, कथमसावंते वर्तते १ अंत इव अंतो। सो अंतो छव्विहो, नामडवणाओ गताओ, दव्वस्स अंतो घडस्स पडस्स एवमादि, खितो जथातिरियलोगंतो उड्ड०, खेतं वा विषई चिराणगं तथावि सो अंतो, कालंतो बासंतो जाव मुत्तस्स अन्तो एवमादि, भावतो जो जस्स उदतियादिस्स भावस्स सव्वंतिम कंडए वट्टति | अहवा मंतो सक्करण भ्रान्तो, सो छब्विहो, दव्वभंतो जो जातो दव्वाओ भ्रांतः, न याणइ किं तं अष्यंति १, अहवा जो जातो दव्वाओ भ्रष्टः खचाओ गामाओ नगराओ एवमादि दिसामोहेण चा, कालाओ हेमंताओ साहरिओ वा अण्णांमि काले, मूढो वा कालं न याणाति, भावभ्रान्तो दुविहो- ठाणभंतो गुणभंतो य, ठाणभंतो ईसरतलवरादिडाणाओ, गुणभंतो दुविहो- अप्पसत्थो गुणभंतो णाणादिभंतो, पसत्थो अष्णाणादिभंतो ।। सत्तभयविप्पमुक्केण अधिगारो, भयंतेणवि भवंतेणवि, अप्पसत्थगुणमंतेणं भदंतेण य । एरिसयं को भणति करोमे मंते सामाइयां, गोतमसासी भट्टारगं
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मदन्तव्याख्या
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आगम
(४०)
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्रअध्ययनं [१], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०३९-१०४६/१०२७-१०३४], भाष्यं [१७५-१८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत
सूत्रांक [१]
सामायिक भणति, सेसगा अप्पणो आयरिए, आह शिष्यः--यदा परोक्षो गुरुस्तदा कमामंत्रयांति, उच्यते-दुविहा सेवा-पच्चक्खा य परोक्खा सामादिन्याख्यायांत गदा य, पाचक्खा रायादीणं, परोक्खा अण्णरथ गतस्सवि तस्स आणं अणुपालति, अहवा जथा विज्जा परिजविज्जइ, एवं लोगुत्तरेषि निकारका पच्चक्खे परोक्षिवि तंमि भावं निवेशयति, यथा विद्या साधयन् पूर्वाचार्यान् मनसीकरोति, एवं अम्हं, अण्णेसिं पुण अण्णहाविय,
धन्यान्यत्वे ॥६०६॥
ते आहुः-अप्पाणं चेव भणति- करेमि मंते सामाइयंति, जस्सीव जातिस्सरणं सोवि पुयायरियं आमतेति ॥ भदंतो गतो।
इंदाणिं सामाइयं, तस्य प्रकृतिप्रत्ययविभाग दर्शयति-तत्थ पगती सामं समं च संमं, पच्चओ इकमिति, तस्थ प्रकृति-13 प्रत्ययद्वितयं सामातियस्स एगहुँ, नामप्रकृतिप्रत्ययाभ्यां एकोऽर्थः साध्यते, अहवा सामं समं च संमं एते शब्दा इकमित्यनेन सह | गता सामाझ्यस्स एगट्ठा भवति, सामाइकार्थ प्रतिपादयंतीत्यर्थः, तत्थ मूलवस्थू चत्तारि विभासितब्बा । सामं चउव्यिह, णामट्ठ- वणाओ गताओ, दव्वसामं जाणि मधुरपरिणामीनि दब्बााण, भावसामं आओबम्मेण सध्वसत्ताण दुक्खस्स अकरणं, अकरणं नाम परिहरण, सामेण ताव गिण्हाहि, मधुरेणेत्यर्थः, अतः सव्वसत्तेसु महुरभाषतणं भावसामं । संमंपि चउब्बिह, दो गताणि, दब्वसंमं तुला कोकासचक्रं वा, भाषसम जो भावो इतो ततो न पलोट्टति, रागाइहिचि आयभावाओ ण चालिज्जर, एवं रागदोसमाध्यस्थ्यं भावसामाइयं तं । इक चउब्बिई, दो गताणि, दब्बइकं जथा दोरे हारस्स पोयणं भणियाण बा,भावइकं भावसामादीण जो आयो तस्स पचेसण, तत्परिणमनमित्यर्थः।
॥६०६॥ ___इदाणि सामाइयस्स एकार्थाभिधायकाः शम्दा उच्यते, जथा- चंदो ससी सोमो उहपती एवमादी, अमिहाणकतो अत्यविसेसोवि भवति, तंजथा-समता समत्त पसत्थ संति सिव हित सुहं अनिई चा अदुगुंछितमगरहित अणवज्ज व एकट्टा
दीप अनुक्रम
का
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आगम
(४०) ।
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्रअध्ययनं [१], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०३९-१०४६/१०२७-१०३४], भाष्यं [१७५-१८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक [१]
दीप अनुक्रम
सामायिक
यका ॥१०॥५६॥ १०४३॥ एत्थ अक्खेवाभिप्यायेण पुच्छति-को कारओ ?, उच्यते, करतो, कार्य कुर्ववित्यर्थः, किं कर्ज!, भण्णति, कारकाद्यव्याख्यायामा
जंतु कीरति तेणं, यत् का निवर्त्यते, तुशब्दाकिं करणं येन कर्ता कार्य निर्बर्तयति, यद्येवं ततः किं कारयो य करणं च होति, न्यान्यत्वे ॥६०७॥ तजथा- अण्णमण्मण ते, चशब्दात्कम च, अयमभिप्राय:-जदि कारओ य कर्म च करणं च अणणं तो करणं ण भवति, जेण|
अणण्णं ते एते विभागा कई भविसति', अतः सामाइयं जीवस्स किं एगचे वमृति !, अण्णत्ते पहा, जइ एगत्ते तो करणं नत्थि, न हु लोणं लोणिज्जति नहु तुप्पिज्जइ घतं व तेल्लं वा । जदि अण्णं ते तेण आया सामाइयं न भवति, जथा घडकारओ घडो न भवति । अत्रोच्यत
आया हु कारओ०॥१०-५९ ॥ १०४७ ॥ एत्थ सामाइयकरणप्रस्तावे आत्मैव कारकः, सामाइयं कर्म, करणं च आत्मैव, णणु कहं एगो आया कारओ करणं कर्म च भविस्सति', उच्यते, परिणामे सति आत्मा सामाइकमेघ, तुशब्दारकरणमेव, अयमभिप्रायः एकोऽप्यात्मा कर्तृपरिणामे सामाइकपरिणामे करणपरिणामे च सति कर्तृकर्मकरणव्यपदेसावह इति, नणु किं एकस्यापि परिणामे सति एते व्यपदेशा दृष्टाः, उच्यते, एगते दृष्टाः, जह मुढि करेति, यथा देवदत्तः हस्तेन मुष्टिं करोति , न च देवदचहस्तमुष्टयो भिनाः, किं तु परिणामस्तथा, एवं भिगुडिं करेति रोसं करोति अप्पाणं पतं करेति, जथा- अप्पाणमेच दमए, | अप्पा हुखलु दुइमो | अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ॥१॥ एवं ता अण्णचेवि करणं दिहूँ। पर आह-तो कि कारकाला ||६०७॥ कारणकमाणं अणण्णत्तमिच्छामो', उच्यते, कत्थवि अण्णतंपि, जथा अस्थतरे घटकरण, घडादिकरणे अत्यंतरेपि दिट्ट यथा|ग कुलालश्चक्रचीवरादिना चटं करोति, एतेषां भिण्णता । गणु जदि एवं तो सामाइककरणे किमिति पिहत्तता नेष्यते ?, उच्यते-दव्व
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भाग-4 “आवश्यक'- मूलसूत्र अध्ययनं [१], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०४७-१०५७/१०३५-१०४७], भाष्यं [१८६-१८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2
प्रत सूत्रांक
दीप अनुक्रम
सामायिक स्तराभावे गुणस्स कि केण संबद्धं १, अयमभिप्राय:-एतद्धि करणं गुणो, अपि च यदि द्रव्याद्भिण्णा गुणो नेष्यते ततः कस्य केन 18/ सर्वपदव्याख्यायांत संबंधः स्यादिति, सामाइयंति गतं ।
व्याख्या ॥६०८॥
. इदाणि सव्वं, सत्तविहं तं०-नामसव्वगं ठवणस० दव्वस० देसस० निरवसेस०सम्बधत्तास मावसब्बगमिति, नामस्थापने 181 पूर्ववत् , दब्बसब्वे चत्तारि विकप्पा, तंजथा-सकलं दव्वं देससव्वं १ असकलं दब्बं दब्बसव्यं तु २, सकलदव्यदेसो दबदेस-४ दसव्वं ३ असकलदच्चदेसो दध्वदेससवं ४॥ अत्र दृष्टान्त:-प्रकारकात्यविवक्षायां समस्तप्रकारं सकलं पृथिव्यादिद्रव्यं द्रव्यसर्व है।
च्याकात्स्न्येविवक्षायां तु असमस्तप्रकारमपि पृथिवीत्वाद्यन्यतरप्रकारापनप्रकारापेक्षया असकलमपि पृथिव्यधन्यतरत द्रव्यं द्रव्या-| पेक्षया द्रव्यसब, एवं सकलदब्बदेसो असकलदव्वदेसो- य विभासितव्यो । अण्णे पुण भणंति-दविते चतुरो भंगा 'सब्वमसब्वे य% दव्वदेसे य' चि, एत्थ इमा भावणा-इह जे विवक्खितं दव्वं अंगुल्यादि तं परिपुण्णमणूण सरहिं अवयवेहि सर्वमुच्यते, सकल-IA
मित्यर्थः, एवं तस्स चेव दबस्स कोइ देसो स्वावयवपूर्णतया यदा सकलो विवक्ष्यते तदा देसोवि सर्व एव, उभयस्मिन् द्रव्ये एतद्देसे च सर्वत्वं, तयोरेव यथास्वमपरिपूर्णतायामभिसंवन्धः, ततो चतुर्मगी-दव्यं सर्व, दव्बमसम्बं, देसो सम्बो, देसो असब्बो,
एत्थ यथाक्रममुदाहरणं-संपुण्ण अंगुलीदव्यं सर्व तदेव देशोनं दब्बमसब्वं, तथा देसी सव्वं तं संपुण्ण देससञ्च, असंपुष्णं अदेससव्वं ।।। आदेससवग जथा सच्यो गामो आगतो, सव्वो कूरो जिमितो, सब्बभवासद्धिया सिज्झिहिंति, आदेसो नाम उबयारो बवहारो,४|॥६०८॥ सो य बहुतरेसु पहाणेसु वा आदिस्सति देसेवि । निरवसेससब्बग दुबिह-सव्वापरिसेससव्यगं च तदेसापरिसेससव्वगं च,सव्वापरिसेससब्बर्ग जथा सव्वदेवाणिमिसणयणा,तहेसापरिससव्वगं सब्बे असुरकुमारा काला विंचोडा,तेषामेव देवानां देसी विभागस्तदेशः।
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प्रत सूत्रांक
सामायिक सवधत्तासब्वगं नो सध्वधत्तासति पडोयारो आहितत्ति वदेज्जा,ता सव्वधना दुपडोयारो आहितत्ति वदेज्जा, तंजथा-जीवा य अजीवा अवद्ययोगव्याख्यायां
य, जम्हा जं किंचि धरति तं सवं जीवा अजीवा य स धरेतीति सव्वधत्ता। दबसव्वगस्स सव्वधत्वासव्वगस्स य को ॥६०९||
विसेसो, सव्वधतेहिं सब संगहितं, दव्यसबगेण घडपडादीया सव्वदच्या चेव, भावसब्बगसब्बो उदइभावो सुमो असुभो यशव्याख्या उदयलक्खणो, उपसमिओ सव्वो सुभो, उपसमलक्षणो उपसमिओ, सथ्यो सुभो उपसमलक्खणो, खाइओ सब्यो सुभो अणुप्षत्तिलक्षणो, खाइओवसमिओ सम्बो सुभो असुभो य देसविसुद्धिलक्षणो, पारिणामिओ सब्बो सुभो असुभो य परिणामलक्षणो। &ाएत्य निरवसेससवगेण अहिगारो, अण्णेहिचि जहसंभवं विभासितव्यो । इदार्णि अवज्जति, तत्थ गाधा
कम्ममवज्जं जं गरहितं च लोहादिणो व चत्तारि ।। इति, एत्थं कम्मबंधो सब्ब वा पगतिहितिअणुभागपदेसकंमं तं | अवज्जं, उक्तं च-"पावे वजे वयरे पंके पणय खुहे दुहमसाते। संगे धुण्णे यरए कमे कलुसे य एगट्ठा ॥१॥" अहवा जे गरहितं वत्यु, गरहितंति वा अकथ्यंति वा अविविनंति वा परिहरणीयंति वा एगट्ठा, अहवा कोहादिणो चत्तारि कसाया, एतेहिं सह यो योगः बच्छमाणलक्खणः 'पच्चखाणं हवति तस्स' ति अयमभिप्रायो-यो हि कम्मसहगतो योमो तस्सवि निरवसेसस्स
पच्चक्खाणं भवति अयोगि पडुच्च, यतो योऽविय कसायसहगतो तस्सवि पचक्खाणं भवति, अहक्खायचरितं पडल्च यो पुण| *गरहितसहगतो योगो तस्स निरवसेसस्स पच्चक्खाणं भवति, सामाइयसंजताओ जाब अहक्खायचरित्ता इति ।
॥६०९॥ इदार्णि जोगेत्ति , युज्यत इति योगः, दबजोगो तिण्हं चउण्हं वा जोगाण जोगो । अहवा मणवइकायपायोग्गाणि दवाणि भावयोगो "योगी पिरियं थामो उच्छाह परकमो तहा चेट्टा । सत्ती सामत्थंति य योगस्स हवंति पज्जाया ॥१॥
55ॐॐकर
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व्याख्या
दीप
सामायिक सो य संमत्तादिअणुगतो पसत्थो , मिच्छत्तअण्णाणअविरति अपसत्थो ।
जप्रत्याख्याव्याख्यायां
नजीवितइदाणिं पच्चक्स्वाणं , तं छव्विह, दो गताणि, दब्बपच्चक्खाणं स्यहरणेणं अणुवउत्तो बा, जो बा सचित्तादिदम्ब पच्च-15 ॥६१०॥
क्खाति निण्हगादीर्ण वा, एवमादि दच्वपच्चक्खाण । खत्तपच्चक्खाणं खेत्ते पच्चक्खाण निविसयादिगमणं एवमादि । अदिच्छपच्चक्खाणं अतिस्थ० भणाण पडिसेहो न देमित्ति । भावपच्चक्खाण दुविह-सुतपच्चक्खाणं च णोमुत्तपच्चक्खाणं च, सुतप-| रुचक्खाणं दुविहं-पुबसुतपच्चक्खाणं णोपुव्यसुतपच्चक्खाणं च, पुष्बमुतपच्चक्खाणं पुच्वं, गोपुच्चसुतपच्चक्खाण अणेगविहं आतुरपच्चक्खाणादीयं, नोमुतपच्चक्खाण दुविहं-मूलगुणपच्चक्खाणं उत्सरगुणपच्चक्खाणं, मूलगुणा साधूण सावगाण य भाणितव्वा,
उत्तरगुणा विभासितम्या । दव्यभावपच्चक्खाण उदाहरणं रायधूता, परिसं मंस न खाइया, पारणगे अणेगाणं जीवाणं घातो कतो, है साहहिं बोहिता पय्यइया, पुवं दवपच्चक्खाणं पच्छा तीसे भावपच्चक्खाणं, भावपच्चक्खाणस्स अत्यो पडिनियत्तामि-अकरणताए अ
भुढेमित्ति एवमादि, अतो उवसंतो पच्चक्खाणं भवतित्ति । पच्चक्खाणंति गतं । इदाणि जावज्जीवाएत्ति, जावदवधारणमी दाजीवणमवि पाणधारणे 'भणितं । अप्पाण धारणाओ पावनिब्बत्ती इई अस्थी ।। १०५४ ।।
तं जीवित दसविहं, तंजथा-नामजीवितं एवं ठवणा० दब. ओह. भव० तम्भव० भोग. संजम० असंजमजीवितं जस-| कित्तीजीवितं, दो गताणि, दन्बजीवितं तिविहं- जेण जस्स सचित्तादिणा जीतमायतं, सचित्तं जथा-मम पुत्तेण जीतमायचं, आचलातेण हिरण्णादिणा जीतमात, मीसेण सचामरआसादिणा । अहवा इमं तिविह-दुपदस्स चतुष्पदस्स वा अपदस्स वा जं जीवितं, या | अहवा जीवपायोग्गा दवा दव्बजीवित | ओपजीवितं नाम सब्बे संसारत्था जीवा आउसद्दव्यजीवियाए जीवति । भवजीवितं चतु-।।
अनुक्रम
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ख्यान
दीप अनुक्रम [२]
मायका विहं नेरइयादीणं । तब्भवजीवियं जो तत्थेव मतो आयाति तत्थ जै जीवितं तब्भवजीवितं, तिरियणराणं जस्स जति भवग्गहणा- प्रत्याव्याख्यायां
IIणि । भोगजीवितं चक्कीण बलदेववासुदेवाणं । संजमजीवितं संजताणं तद्धम्मजीवियं । असंजमजीषियं असंजताणं अर्धमेण । जसो II ॥६१॥४कीति, जहा अज्जवि महावीरवद्धमाणसामिस्स भगवतो तेल्लोकेऽवि जसो जरति, तथा अण्णेसिंपि-भदं सरस्सतीए सत्तस्सर-2
वासरयणवसहीए। जीए गुणेहिं कइवरा मतावि माणेहिं जीवंति ॥ १॥ संजमजीविएणं मणूसभवजीवितेण य अधिगारो।। म. इदाणि तिविहेणंति बैणिज्जति, एतेण तिविहं तिविधेण इच्चादिसुतं फुसितं, एत्थ य सीयालं भंगसतं भवति जोगतियकरणतियकालतिएहिं, तंजथा-तिविहं जोगं तिविहेणं करणेण मणेणं वायाए काएणं ण करेमिण कारवेमि करतीप अण्णं
ण समणुजाणामि इत्यादि । अतीतकाले बट्टमाणे एस्से य काले जथासंभवमायोज्ज-सीयालं भंगसतं पच्चावाणमि जस्स ॐउवलद्धं । सो किल एत्थ उकुसलो सेसा सब्वे अकुसला उ||१|| सीयालं भंगसतं पञ्चक्खाणस्स भेद परिमाणं । तं च | | विधिणा इमेण भावेतव्वं पयत्तेणं ॥२॥ तिण्णि तिया तिणि दुया तिपिणकाय हाँति जोएसु । तिबुएनं तिदुरगं तितु-|
एकं चेव करणाई॥३।। एते खलु जोमा ३३३ २२२१११ करणा ३२१ ३२१३२१ फलं १३३३९९३९९ एत्थ भावणा-न करेति न कार| वेति करेंतपि अण्णं ण समणुजाणाति मणेणं बायाए कारणं, एस पढमो भंगो साधूण, अहवा कमि विसए केसिपि सावगाणवि, चो। लन करेइच्चादितिगं गहिणो कह होति देसविरतस्स ? | आ०-भण्णति विसयस्स बहिं पडिसेहो अणुमतीएविल
॥१।। केई भणति गिहिणो तिविहं तिविहेण णत्थि संवरणं । तं ण जतो निदिई पण्णत्तीए विसेसेउं ॥२॥ तो किह निज्जुत्तीएऽणुमतिनिसेहो ? बिसेसविसयंमी। सामण्णेणं नथि हुतिविहं तिविहेण को दोसो? ॥ ३ ॥
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दीप अनुक्रम
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पातणकरणाईणं तु अहव मणकरणं । सावज्जजोगमणणं पपणतं वीतरागेहि ॥ ६॥ कारवणं पण मणसा चिंतेति | भगा: ॥६१२॥
करेतु एस सावज्जं। चिंतेती यकते पुण सुटु कतं अणुमतीएसा ।।७। इवाणिं वितियभेदो-न करेति न कारखेति करेंतंपि अण्णं ण समणुजाणति मणेण वायाए, एस एको १, तथा मणेण कारण एस वितिओ २ तथा वायाए कारण एस ततिओ३, वितिओ मूलभेदो गती । इदाणि ततिओ-न करदिन कारवेति करतीप अण्णं ण समणुजाणति मणेणं १ वायाए चितिओ २ कारण ततिओ ३ तितरवि मूलभेदो गतो। इदाणिं चउत्थोन करेति न कारवेति मणेणं वायाए काएण एको, न करेति करेंत णडू
समणुजाणति बितिओ २ न कारवेति करेंत नाणुजाणति ततिओ ३, एस चउत्थो मूलभेदो। इदाणि पंचमो-न करेति न कार-1 हावेति मणण वायाए एस एको, न करेति करेंत नाणुजाणति एस वितिओ, न काखेति करेंतं णाणजाणए एस ततिओ, एवं एते| &ातिष्णि भंगा मणेणं वायाए लद्धा, अण्णेवि तिष्णि मणणं कारण एमेव लब्भति, तथाऽवरेवि वायाए कारण य लम्भंति तिष्णि,
एवमेव गते सव्वे णव, एवं पंचमोप्युक्तो मूलभेद इति । इदाणिं छट्ठो, न करेति न कारवेति मणेण एस एको, तहय न करेति| करेंत जाणजाणति मणेणं एस चितिओ, न कारवेति करेंत णाणुजाणति मनसैव तृतीयः, एवं वायाए, काएणवि तिष्णिवि भंगा लग्भंति, उक्तः पाठो मूलभेदः। अधुना सप्तमोऽभिधीयत इति, न करेति मणेणं वायाए कारण य एको, एवं न कारवति
॥६१२॥ मणादीहि एस बितिओं, करतं णाणुजाणतित्ति ततिओ, सप्तमोऽप्युक्तो मूलभेद इति । इदानीमष्टमा न करेति मणेण वायाए | सानापालाय एको, तथा मणेण कारण य एस चितिओ, तथा वायाए कारण य एस ततिओ, एवं न कारवेतिवि एत्थवि तिण्णि मंगा II
प्रत्याव्याख्याया
ख्यान एवमेव लन्भति, करेंतं णाणुजाणति तत्थवि तिण्णि , एप उक्तोऽष्टमः इदाणिं नवमः-न करेति मणेण एको, न कारवति ॥६१३॥ ४ बितिओ, करेंत णाणुजाणति एस ततिओ, एवं वायाएवि तियं, काएणवि होति ततियमेव, नवमोऽप्युक्तः । इदाणिमागतगुणना |
क्रियते-लद्धफलमाणमेतं भंगा उ भवंति अउणपण्णासं। तीताणागतसंपतिगुणितं कालेण होति इमं ॥ १ ॥ | सीतालं भंगसतं, कहं कालतिएण होति गुणणाओ । तीतस्स पडिक्कमणं पच्चुप्पण्णस्स संवरणं ॥२॥ पञ्चक्खाणं |च तहा होइ य एस्सस्स एव गुणणाओ। कालतिएणं भाणितं जिणगणहरवायएहिंति।शाएत्थ मणो नाम दव्वमणो भावमणोडू य, दष्वमणो मणपाउग्माणि दब्वाणि, भावमणो मणिज्जमाणाणि, बईवि दुविहा, दब्वे वहपाउग्गाणि दब्बाणि मिच्छद्दिहिस्स: | वा, भावबई ताए निसिरिज्जमाणाणि, दबकायो कायग्गहणपायोग्गाणि, निकाइज्जमाणाणि भावकायो, एवमादि विभासिज्जा ।
एत्थ य 'करेमि भंते ! सामाइय'ति पंच समितीओ गहिताओ, सव्वं सावज इन्चादिणा तिमि गुत्तीओ गहिताओ। समितीओ पवत्तणे निम्गहे गुत्तीओ, समिओ नियमा गुत्तो गुत्ती समियत्तणमि भइयव्यो। कुसलवइमुदीरतो जं वइगुत्तोवि समितोवि॥१॥ एताओ अट्ठ पवयणमाताओ, जहिं सामाइयं चोदस य पुवाणि माताणि, माउगाओ वत्ति मूकंति भणितं होति ।।
सुत्तफासियनिज्जुत्तिगाधा गता एवं ।। एत्थ चोदगी सुत्पदं अक्खिपति
तिविघेणंति न जुत्तं ॥१०-७६ ।।१०५८।। आह-तिविधणंति पदं न युज्यत इतिकातु, जतो मणेणं वायाए कारणं एवं प्रतिपदविधिना त्रैविध्यं गतमेव भवति, गतार्थत्वात त्रिविधेनेति ग्रहण न कर्तव्यं. उच्यते-अत्यविकप्पणताए गणभावणयत्ति को |
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दीप अनुक्रम [२]
भाग-4 "आवश्यक'- मूलसूत्रअध्ययनं [१], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०५८-१०६४/१०४८-१०५३], भाष्यं [१८६-१८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि-2 सामायिक दोसो?, अयमर्थः अत्थस्स मणवयणकायलक्षणस्स बिकप्पणरधं-भेदकहगत्थं, जथा किर तिविधेण मणेण तिविघेण वयसा विवि- शंकाव्याख्यायांदाधण कारण करणकारणअणुमतिपवत्तेण, अण्णहा अण्णथा संभावणा स्याद् , यथा मणेणं वायाए काएणं यथासंख्यं न करेमि न समाधाने
कारयामि करेंतंपि अण्णं न समणुजाणामित्ति, अहवा मणेण बायाए कारणंति एतेसिं अस्थविकप्पणसंगहत्थं, संगहभेदेहि सुत्तभ॥६१४॥
गणंतिकातुं, किं च-गुणभावना पुनः पुनरभिधानाद्भवतीति न दोष इत्यादि भाव्यं ।। अपर आह-जावज्जीवाएत्ति पदं न करेमीत्यस्य MIपूर्वसंवमेव किमिति न कृतं येन ग्धव हितसंबंधमिति, अन्यपदैरपि संबन्धेऽस्येष्यत इति, किंच. ववाहितमपि अर्थसंर्वधन संबमाधयित्वा ल्याख्येयमिति ज्ञापनार्थ, यतो अनन्तगमपज्जयं सुतं गमनिका अपि व्याख्यानांगमिति च संदर्शितं भवतीत्यादि भाव्य ।
तस्स पडिकमामि तस्स अतीतस्स सावज्जजोगस्स अण्णाणताए असवणताए एवमादिणा कतस्स प्रतीपं क्रमणं निवर्तनमित्यर्थः, तं चतुर्विध दध्यपडिकमणं यो यस्य दव्यस्स पडिकमति अपत्थस्स य नियचति दब्वभूतो वा यं वा निण्हगादी पडिकमेतूण वा#
पुणो पुणो त चेव करेति, एवं तं दवपडिकमणं , उक्तं च-"जं दुकर्डति मिच्छा तं चेष निसेवते पुणो पायं । पच्चक्खमुसाबातो IS मायानियडीपसंगो य ।। ७ ।। २३ (६८५॥" एत्थ दव्यपडिकमणे कुंभकारमिच्छादुकडं उदाहरण एगस्स कुंभकारस्स कुडीए
साधुणो ठिता, तत्थेगो चेलगो तस्स कुंभकारस्स कोलालााणि अंगुलधणुभएण पाहाणएहि विंधति, कुंभकारेण पडियग्गितुं दिडो,
भणितो य-कीस मे कोलालाणि काणेसि , खुडओ भणति-मिच्छादुकडंति, सो पुणो पुणो विधेतॄण मिच्छादुकडं देति, पच्छा ॥६१४॥ &ाकुंभकारेण तस्स मुडगस्स कण्णाउडओ दिण्णो, सो भणति-दुक्खावितोऽहं, कुंभकारी भणति-मिच्छादुफर्ड, एवं सो पुणोई
पुणो कण्णामोडयं दातूण मिच्छादुकडं करेति,पच्छा चेल्लो भणति-केरिसं ते मिच्छादुक्कड, कुंभकारो भणति-तुज्झवि एरिस चेव मिच्छा सामायिक दकडंति, पच्छा ठितो बिंधितब्बस्स । भावपडिकमणं समदिट्ठीसचिचो तम्मणो समाहितप्पा जो पडिकमति, उक्तं च-"जतिय पडिफमि- यमावव्याख्यायाम तिव्वं अवस्स कातूण पावयं कंमं । तं चेव न कातब्ब तो होइ पए पडिक्कतो ॥१॥" तत्थ मिगावती उदाहरणं, तं च इम-भगवं
BI निन्दादि ॥६१५॥
लाबद्धमाणसामी कोसंबीए समोसरितो, तत्थ चंदसरा भगवंत वंदगा सविमाणा उत्तिण्णा, तत्थ मिगावती अज्जा उदयणमाता।
दिवसोतिकातुं चिरं ठिता, सेसाओ साधुणीओ तित्थगरं वंदितूण सनिलयं गताओ, दसरावि तिस्थगरं वंदितूण पडिगता, सिग्धमेव वियालीभूतं, संभंता गता अज्जचंदणासकासं, ताओ य ताव पडिकताओ, मिगावती आलोइउं पवना, अज्जचंदणाए भण्णतिकीस अज्ज चिरं ठितासि , न जुत्नं नाम उत्तमकुलप्पसूताए एगागिणीए चिरं अच्छितुंति, सा सम्भावेण मिच्छादुकडंति भणमाणी अज्जचंदणाए पाएसु पढिता, अज्जचंदणा य ताए वेलाए संथारं गता ताए निदा आगता, पसुत्ता, मिगावतीएवि तिव्बसंवेगमावण्णाए पादे पडिताए चेव केवलनाणं समुप्पण्णं । सपोय तेणतेणमुवागतो, अज्जचंदणाए य संथारगाओ हत्थो लंबति, मिगावतीए मा खज्जिहितिति सो हत्था संथारगं चडावितो, सा विबुद्धा भणति किमेतंति ?, अज्जवि तुम अच्छसित्ति मिच्छादु'पकडं, निद्दापमाएणं न उडवितासि, मिगावती भणति- एस सप्पो मा ते खाहितित्ति हत्थो चडावितो, सा भणति- कहिं सो ?, सा दाएति, अज्जचंदणा अपेच्छमाणी भणति- अज्जे ! किं ते अतिसतो ?, सा भणति- आमंति, किं छउमथिओ केवलितोत्ति ?, भणति-केवलितो, पच्छा चंदणा पाएसु पडिता भणति- मिच्छादुक्कडं केवली आसाइतोत्ति, तीए केवलनाणं, एतं भावपडि-11६१५।। क्कमणं ॥ इदाणिं जिंदा आत्मसंतापे, निंदा चतुव्विहा, नामनिंदा ४, दवनिंदा जो दबनिमित्तं निंदति, न पुण धम्मनिीमच, निदित्ता वा भुज्जो भुज्जी आसेपति, दब्बनिदाए चित्तगरदारिया उदाहरणं, जथा-पडिकमणे 'पडिकमणा पटियरण' (१२४५) एतीएट्रा
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आगम
(४०)
प्रत सूत्रांक
[8]
दीप
अनुक्रम
[२]
भाग-4 “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 2
अध्ययनं [१],
भाष्यं [१८६-१८९]
मूलं [१] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१०५८-१०६४/१०४८-१०५३].
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४०]मूलसूत्र [१] आवश्यकनिर्युक्तिः एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि -2 सामायिक
व्याख्यायां ॥६१६॥
सामायिक व्याख्यायां
॥६१७॥
गाथाए नियत्तिदारे, भावनिंदा 'हा दुट्टू कतं हा दुट्टु कारितं बुद्ध अणुमतं वत्ति । अतो अंतो इज्झति पच्छातावेण निंदंतो || १ || गरहा प्रकाश्ये, परपागडीकरणं, सा चउब्विहा, दब्बभूता परपच्चया वा आलोएति गरहति, जथा आणंदपुरे मरुओ ण्डुसाए समं संवासं कातूण उवज्झायस्स कहेति, जथा-सुविणए ण्डुसाए समं संवासं गतोमित्ति, भावगरिहा-गंतूण गुरुसमीवं कानूण य अंजलिं विणयमूलं । अह अप्पणा तह परे जाणवणा एस गरहा उ || १॥ भावगरहाए साधू उदाहारणं ।
'अत सातत्यगमने ' अततीति आत्मा, तं बोसिरामित्ति, दव्यचिउस्सग्गो गणउवधिसरीरभत्तपाणाण विउस्सग्गो, जो वा धम्माशृङ्काणपवतो काउस्सग्गादिडितो अवसट्टो तस्सवि दव्वविउस्सग्गो, अणुवउत्तो वा तत्थेव उदाहरणं पसण्णचंदो, भावविउस्सग्गो मिच्छत्त अन्नाणअविरतणं, अहवा कसायसंसारकंमाण वा विउस्सग्गो, तत्थ पडियागतो पसण्णचंदो उदाहरणं भवति- जथा अणुभूतो वक्कलचीरिकहाणगे ||
- किमिति सामाइककरणाभ्युपगमं पूर्वं दर्शयति पच्छा सावज्जजोगवेरमणं १, भण्णति यतः सामायिकात्मैव सन् सावज्जजोगविरतो तिविहं तिविद्देण वोसिरिय निपावो भवति, न पुण सामाइयरहितो । एवं एसो अणुगमो परिसमत्तो । नया इच्छितच्या, तत्थ नेगमादीया नया सत्त, तेसिं विभासा कातव्या जहा हेडा, इमं सामण्णलक्खणं सामान्यं प्रविभागः प्रत्युत्पन्नं यथा वचः शब्दः । शब्दार्थं च वचः (खलु) प्रत्येकं संग्रहादीनाम् ॥ १ ॥ एवं सब्बे नया परूवेऊन तो सामाइयस्स एगमेकपदं नएहिं सत्तहिं मग्गितव्वं, न केवलं सामाइयस्स, सब्वज्झयणाण सुतक्खंधाणं च । एत्थ दारे णयमग्गणा कातव्या । अहवा ते सच्चेवि दोसु समोयरंति, विज्जानये चरणणए य, तत्थ णाणणयो-
णायम्मि गिण्डितब्बे अगेष्हियन्वंमि चैव अर्थमि। जतिव्यमेव इति जो उवएसो सौ नयो नाम ।। १०-८० ।। १०६५।। करणनयो ससिंपि नयाणं बहुविहवत्तय्वयं निसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणतो साधू || १० || ८३ ।। १०६६॥ एवं जथा सामाइयं विभागेण न घेण मरिगतं एवं सव्वज्झयणा सट्टाणे पत्तेयं पत्तेयं ॥ इति सामाइयनिज्जत्ती सम्मत्ता ॥
मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुनः संपादित: (आगमसूत्र ४० ) “आवश्यक-चूर्णि: [२]” परिसमाप्ताः
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द्रव्यभाव
व्युत्सर्गी
नयाथ
||६१६॥
द्रव्यमात्र3 व्युत्सगी
नयाच
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
भाग-4
पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च "आवश्यक मूलसूत्र" [नियुक्ति एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: -२]
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलिता "आवश्यक" नियुक्ति एवं चूर्णि: नामेण
परिसमाप्ता:
सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि श्रेणि, भाग-४ [आगम-४०]
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चामराजनगणम राणा
आणणालय
ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਮਾਲ ਰਲ ਕਲਸ
आगम
O
वाचना शताब्दी वर्ष
ਹਾਸ ਰਸ ਸ ਸ
ਰਸ ਕਸ
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आराम आवास आजम आ
उपनाम
राजम
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स
सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
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पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य
श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
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आजस
अभिनव संकलनकर्ता
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आजम
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आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
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प्रत- प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
सच्चारित्र चूडामणि स्वर्गस्थ पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागर
सूरीश्वरजी महाराज साहेब
श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठक्कर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद
करीब पचास साल पहेले परम पज्य स्व र्गस्थ गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. ही है।
इस संघमें पूज्य साधू -भगवंत एवं साध्वी -महाराज के लिए उपाश्रय भी है, जहां हर-साल चातुर्मास करवा के श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है | इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग्-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है।
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________________ आ आगम आगम आगम आ जम आजम मूल संशोधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आणम् आगम आगम आगम आगम आज आगम - 40 "आवश्यकनिर्यक्ति एवं चर्णि: [2] आजम आगर अभिनव-संकलनकर्ता आजम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] (328)