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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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जैन धर्म में तप
स्वरूप
और
विश्लेषण
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भी मपघर केसरी प्रवचन माला : पुष्प ५
जैन धर्म में तप
स्वरूप और विश्लेषण
मरुधर केसरी, प्रवर्तक, आशुकविरत्न मुनि श्री मिश्रीमल जी महाराज
गंपार घोचन्द सुराना 'सरस'
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प्रकाप
श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति
जोधपुर-व्यावर
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भगवान महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव समारोह
के उपलक्ष में
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प्रकाशक | सप्रेरक : मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति तपस्वी श्री रजत मुनि
जोधपुर-व्यावर विद्याप्रेमी श्री सुकन मुनि प्रथम प्रकाशन मुद्रणव्यवस्था : दीपावली वि० सं० २०२६, सजय साहित्य सगम के लिएनवम्बर १९७२ रामनारायन मेडतवाल
श्रीविष्णु प्रिंटिंग प्रेस, राजा की मडी, आगरा-२
मूल्य दस रुपये मात्र
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श्रद्वास्पद श्री मरुधर केश मिश्रीमल जी महाराज साहब क दोक्षास्वर्ण जयती के अवसर पर अभिनन्दन ग्रथ भेंट करते हुए भारत के राष्ट्रपति श्री वी यौ... गिरी। वि. स. २०२५ अक्षय तृतीया (सोजतनगर)।
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भव्य र नर सरी, वर्न
श्री मिश्रीमल जी महाराज
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अभिनन्दन
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उगन. सुमन सुवासरस, रंजित रसिक ललाम । 'भावक भव्य समाप जहा!
::: "मिश्रीमल गुन-धाम
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वाया से मन से तथा दान से, पाले दया को मागे कष्ट अनेक किन्तु मुख से, मिया न बोल कदा जैसे नीरज नीर बीच रहता - मिलेंपता को पर। वेले ही विनलेप समिभिमनि" ये, संसार में संबर जो है संयमनिष्ठ इट प्रिय भी, उत्कृष्ट योगी महान
बाग्मी मान गरिष्ट राष्ट्रपति से पाई प्रतिष्ठा महा ...बोले र गिरा सदैव सम से-पैनिश कीले मही
श्री भांत्रिभनीन्द्र रूप मनि के जी को पुराया बही __ मरुदेश मराल दुम्ति प्रतिवादि हस्तिमदहरम हव..
বগা! মম বga संयम पथ पविक सुदा है।
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सत्साहित्य मानव जाति की अमरनिधि है। मनुष्य की वह बन्न:चक्षु है, जिसके द्वारा अतीत और बनागत का दर्शन किया जा समता है। जीवन के गूढतम रहस्यो को जाना जा मयता है । जोपन मी निगूट पहेनिया सुलझाई जा सकती हैं।
जैन-धर्म और जैन परम्परा गाहित्य की दृष्टि से नदा मन नही है। सत्साहित्य वहा जीवन का अभिन्न अग बन कर रहा है । मलाहिता को सजना और उसका स्वाध्याय दोनो ही वहा 'तप' माना गया है, बाराम साधना का एक अंग माना गया है।
जिम समाज गा माहित्य प्राणवान होता है, याद और जीवन मी मुन दृष्टि से नाम होता है यह समान लदा हो अपनी अनि एब मलि. प्रगति में बता रहता है।
सुछ थपं पूर्य, जीवन में जामिर प्रेरणा जगान गारे मरगा प्रकाशन हेतु 'श्री मरधर गो माहिल प्रागन ममिति' को माना पी । म सस्पा मारब - और जीवन निर्मा पोनन-रन पंनिए गुलम नाना | RITESTANEERIE !
हम नम्मा प्रेरणा - श्री far महाग रस एर नाना -me
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और सत्साहित्य के निर्माण मे एव प्रसार के लिए उनके हृदय मे अपूर्व उत्साह है, अद्भुत प्रेरणा है और इस दिशा मे राजस्थान के अचलो मे जो कुछ उन्होंने किया है वह एक बहुत वडा कार्य है। __श्री मरुधर केसरी जी म. की वाणी मे ओज है, प्रेरणा है, और मानव मात्र के कल्याण की गू ज है । उनकी लेखनी भी इस दिशा मे पीछे नहीं है। कहा जा सकता है, वे वाणी एव लेखिनी के धनी है। राजस्थानी भापा के साहित्य मे उनकी कविता एव काव्य अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं । धार्मिकता के साथ-साथ नैतिकता एव राष्ट्रीय भावना उनके साहित्य का मूलतत्व है। __ कुछ वर्षों से समिति ने श्री मरुधरकेसरी जी म के पद्य एव गद्य साहित्य का प्रकाशन प्रारभ किया है। प्रवचन साहित्य की भी चार पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं । जनता मे उनका आदर हुआ है, पाठको ने हृदय से अपनाया है।
प्रस्तुत पुस्तक 'जैनधर्म मे तप : स्वरूप और विश्लेपण' इसी प्रवचन माला का पाचवा पुष्प है। यद्यपि यह पुस्तक अब तक के प्रकाशनो मे शैली एवं विषय वस्तु की दृष्टि से अपना विशिष्ट स्थान रखती है । यह पुस्तक श्री मरुधर केसरी जी म. के प्रकाशित एवं अप्रकाशित प्रवचन साहित्य का दोहन है, मथन है । तप के सम्बन्ध मे उन्होंने आज तक जो कुछ प्रवचन किये हैं, जो कि लिपिवद्ध हैं, तथा जो काव्य-कविताए आदि लिखी है उन सब के भावो को, सामग्री को वटोर कर-उसका वर्गीकरण किया गया है, उसके मूल प्रामाणिक स्थलो का अनुसघान किया गया है और उसे आधुनिकभाव-भापा के परिवेश मे उपस्थित किया गया है। इस दृष्टि से यह पुस्तक महाराज श्री के सीधे प्रवचन नही, किंतु उनके प्रवचन साहित्य का दोहन कहा जा सकता है। पाठको को इनमे बहुत ही उपयोगी व साधना प्रधान मामग्री मिलेगी।
प्रस्तुत प्रस्तक का संपादन श्रीचद जी सुराना 'सरस' ने किया है । श्री सुराना जी एक विद्वान् है, लेखनी के धनी है, जैन आगमो के अभ्यासी
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है, और साथ ही मन्तहृदय एव गरन प्रकृति के मजन है । गुरदेव श्री गो प्रति उनकी अनन्यक्ति है। यही कारण है कि उन्होंने वरी निप्ता और लगन के साथ प्रस्तुत पुस्तक या सपादन कर जनधर्म के तप सम्बन्धी नितन प्रवाह फौ वटी स्पष्टता व सरता ये गाय मूर्त रूप दिया है।
गुरुदेवधी या स्वास्थ्य घर में कुछ अस्यस्य गा रहा और फिर अनेक प्रवृत्तियों में अत्यंत प्यम भी रहे । इसी गाण सपादित मामी को पूरी गहगई गो गाध नहीं देग पाये । उन्हे विश्वास है हिमपादक बधु जगपर्ग के मगंज हैं, अत कोई विचार य तध्य उगले पनिपून होने का प्रश्न हो नही । फिर भी यदि प्रमादयश सैदान्तिक दृष्टि से, अपया प्रस्तुत गरने का शैली व भाषा की दृष्टि से कोई रिचार घटि पूर्ण रह गया होनी यह नपादक को न मान र महृदयना पूचा मूचित करणे TT नट करे।
हमारी प्रार्थना गो मान देकर ग पुरता को महत्वपूर्ण भूमिका अदापद कवि श्री धमरना जो महागन ने निगने पो गपागलप प्रायम्प यस्त होर हुए जो उन्होन रम पर जो मनुप्रा ITIE, इस नियम हृदय से भागा है।
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प्र जनना मे हामी परमाने में सि जिनका मनो ने मागिय गायोग प्रदान रि, समिनि और में उस नया ताकि साभार मागता और विभाग मारना Eritrimनी प्रसार गायोग कार का गंगे। पाटो हो मुन्ना गि अपिल गोगो मादानी निरनी : - मा.
दुपार निगोलिया
श्री मगधर फेम साहित्य प्रशासन, समिति
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सम्पादकीय
'तप' सिर्फ हमारी अध्यात्म साधना का ही नही, किंतु सपूर्ण जीव-जगत् का प्राण तत्व है । 'तप' के विना मनुष्य जीवन जीने के योग्य भी नही बन सकता । तप जीवन की ऊर्जा है, सृष्टि का मूल चक्र है। सेवा, सहयोग, तितिक्षा, स्वाध्याय, आदान-प्रदान, भोजन-विवेक ये जो तप के अग हैं क्या वे ही जीवन के अग नहीं है ? उनके विना जीवन का अस्तित्व ही क्या है ? इसलिए मैं मानता हूं-तप ही जीवन है। तप से ही मनुष्य, जीवन जीने की क्षमता प्राप्त कर सकता है-यह मेरी तप सम्बन्धी निष्ठा है।
तप की महिमा, भारतीय धर्मों मे ही नहीं, किंतु विश्व के प्रत्येक धर्म मे, यहा तक कि धर्म को नहीं मानने वाले विद्वानो व विचारको के शब्दो मे, भावनाओ मे भी गूजती रही है। किंतु अधिकाश धर्मप्रवक्ताओ एव विचारको ने तप के मम्बन्ध में कोई व्यवस्थित चिन्तन एव उसकी साधना विधि का वैज्ञानिक नित्पण करने का कष्ट नहीं किया । ___ जैन धर्म, चू कि एक वैज्ञानिक धर्म है, एक व्यवस्थित साधनामार्ग है, और चिन्तन-मनन का पक्षपाती है, इसलिए धर्म के प्राण तत्व 'तप' के सम्बन्ध मे वह मौन रहे, या अव्यवस्थित रहे-यह कैमे संभव था । यही कारण है कि 'तप' को एक जीवनव्यापी, सर्व-बाही रूप देकर जैन धर्म ने तप के विषय
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में चिंतन किया है, धारणाए स्थिर की है, मर्यादाएं बनाद है, माधना पा मार्ग निश्नित किया है।
जैन आगमों में, टीका, भाप्य आदि ग्रपी में, सतों के प्रवचन आदि साहित्य में तप के सम्बन्ध मे हजारो विचार विगरे पड़े हैं। इस विषय की सामग्री इतनी विशाल है कि यदि सपूर्ण रूप से सकलित करने का निश्चय किया जाय तो मिर्फ सकलन में ही कई वर्ष लग सकते हैं, और मापद फई हजार पृष्ठो में गी यह पूरी नहीं हो पायेगी।
प्रस्तुत पुस्तक में मैंने उम सामग्री को मार एक मक्षिप्त स्परेगा की तरह प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। इसी प्रेग्पा जगी थ य श्री मरपर फेगरोगी म० मे माहित्य का सपादन-प्रमाणन करते समय । उनके प्रयननों में तप के सम्बन्ध में कई महत्वपूर्ण प्रवचन थे, जिन्हें देखकर मेरे मन में गललगा जगी, "तप सम्बन्धी प्रचननो गागा बस मालनही कर लिया जाय तो सामग्री मापी उपयोगी व सकलन शो हरिट से पुछ नवीनता लिए होगी।" वा, उगी भावना ने इस ओर उन्मुग किया । उन प्रागन माहिती टटोना, बलग-अलग गयो में बाटा, और ग वन के मूल उगम स्थलो गा अनुमधान किया-~ग प्रसार या पुस्तक "नयम में नप म्याप और विसंतप" अपने रप में मल्ट हो गई। मनपायन नगभग एवमें पुछ अधिक ही समय नगा । ग वीर में प्रदे मागेगी गमा में बनेपा पार मार्गदर्शन भी जामा । साप ही बसम्म नाला गरगि जी, एक गिलास पर श्री
सिमा मार्ग न भी मिला । बनेग प्राली, हिसाना मायान से समयमम पर नो मध्य भी देना । गोरेला में ROAT
नं ६ को गोरे | RE गर ना THोर मेर माग मिमता को जापान में प्रार PRITI में पाया ।
सरकार से firriti irani 5 Farmer , P-METER
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[
१२ ]
प्रेरणा का ही फल समझना चाहिए । तप सम्बन्धी चित्रो को तैयार कराने में श्री मुकन मुनि जी ने काफी मार्गदर्शन किया है, तप न थ के अंत मे तप से सम्बन्धित सूक्तियो को सकलित कर प्रस्तुत करने का श्रेय-श्री 'रजत' मुनि जी को ही है । इस प्रकार अपने सम्पादन मे मैं इन दोनो मुनिवरो को अपना सहयोगी मानकर उनके प्रति भी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करू तो सभ्यता की दृष्टि से भी यह उचित ही होगा।
पुस्तक जैसे-जैसे तैयार होती गई, छपती गई, इस कारण कुछ आवश्यक मदर्भ जो कि विलम्ब से प्राप्त हुए, मूल अध्यायो मे नही दिए जा सके । उन्हें सक्षिप्त रूप से परिशिष्ट मे परिवर्धन शीर्पक से दिए हैं, पाठक उघर भी दृष्टि डालें ! ___ इस पुस्तक में जो कुछ विचारप्रधान, प्रेरणादायी और सार तत्व है, वह मूलत गुरुदेव श्री मरुधर केसरी जी म० का ही है । यदि प्रमाद या अज्ञानवश कही कोई स्खलना प्रतीत हो तो उसका उत्तरदायी मैं स्वय को मानता हूँ । सुलजन मुझे सूचित कर अनुग्रहीत करेंगे । आशा है मेरा यह प्रयत्न-अपने गुरुजनो के प्रति एक श्रद्धा-पुष्प सिद्ध होगा, तथा पाठको के लिए एक तैयार गुलदस्ता । वे स्वय इमकी सौरभ लें, दूसरो तक पहुंचाए -बस, इसी भावना के माथ
विजयादशमी
-श्रीचन्द सुराना 'सरस'
आगरा
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प्राक्कथन
भारतीय नाघना, सहनधारा तीर्घ है। माधना का जो दिराट् पर व्यापक रूप यहा मिलता है. पैसा अन्यत्र यहा मिलेगा ' भारतीय जीवन । हर सांस, साधना का साम होता है, हर नरम, माधना का परण होता है, हर सप, सापना का रूप होता है, यही कारण है कि भारत का, पायक्तिगत जीवन हो या पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीयन हो, या जागिर जीपन, मयंत्र जीवनधाग मे मापना की उमिया लगती है, साधना मा स्वर मुरारित होता रहता है, लगता है भारतीय जीवन माधना लिएको अस्तिव में है।
तप, भारतीय साधना पा पाप है। जिन प्रसार और जया जीरन के सान्नित्य पा पोय, मीनार नाम भी कर स्तिस्य का बोध मसता या प्राध्यामिण मा पनि गा, महिमा पा, गाय मा माई मिलापता गाना , नही। गौनिए पापा से गान मानोर - -
नाममा सपो' गा, मार को निको
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[ १४ ] वह अहिमा एव सयम की साधना के लिए भी अपेक्षित है। विना तप के अहिमा व सत्य मे गरिमा नही आती। इसीलिए मैंने एक जगह लिखा है
-"तप ज्वाला भी है, ज्योति भी । ज्वाला इस अर्थ मे कि मन के चिर सचित विकारों को तप जलाकर भस्म कर डालता है और ज्योति इस अर्थ मे कि तप अन्तर्मन के सघन अन्धकार को नष्ट कर एक दिव्य प्रकाश जगमगा देता है।
तप निग्रह नही, अभिग्रह है। तप दमन नही, शमन है । तप भोजन निरोध ही नहीं, वासना निरोध भी है। तप विना जल का अन्तरग स्नान है, जो जीवन पर से विकारो के मल का कण-कण घोकर साफ कर देता है । ____तप जीवन को सौम्य, स्वच्छ, सात्विक एव सर्वांगपूर्ण वनाने की दिव्य साधना है। यह एक ऐसी अद्भुत साधना है, जिस पर से आध्यात्मिक परिपूर्णता की सिद्धि मिलती है, और अन्त मे साधक जन्म-जरा-मरण के चक्र से विमुक्त होकर परमात्म पद को प्राप्ति करता है।" ___ जैन धर्म, तप के वीज मे से ही अकुरित होने वाला कल्पवृक्ष है । तप के सम्बन्ध मे जितना व्यापक, तलस्पर्शी तथा सर्वग्राही चिन्तन जैन परम्परा मे हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । अन्य परम्पराओ मे प्राय वाह्य (शरीराश्रित) अनशन नादि तपो का ही उल्लेख मिलता है। और वह एक देहदण्ड की स्थिति में ही अटक कर रह जाता है। देह दण्ड-देह उत्पीड़न कभी भी साधना का अग नही बन पाता । अस्तु ।
जैन धर्म ही वह धर्म है, जिसने वाहर मे अनर्गल फैलते और देहोत्पीड़न का रूप लेते वाह्य तप को अन्तर्मुख घारा मे बदला है, आध्यात्मिकता के अमृत स्रोत की ओर मोडा है । उसने आन्तरिक समत्व पर बल दिया है किउत्पीडन यदि अनुभूति मे रहता है तो चेतना दुखाकात रहती है और उस स्थिति मे अन्तरवृत्तियो मे व्याकुलता छायी रहती है। ऐसी स्थिति मे समन्व कैसे रह सकता है, यदि उसे अन्तर चेतना में समाहित न किया जाय ! इमी दृष्टि में जैन धर्म ने तप के दो भेद किये हैं बाह्य तप और अन्तरग
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[ १५ ] सप ! और कहा है कि वाय तप अन्तरंग तप के परिवहण के लिए ही है, बाचायं समन्तभद्र के शब्दों में -
अध्यात्मिकस्य तपसः परिवहणाम् यदि नप पावन वार में ही रहता है और उनका फेन्द्र फेयन उत्पीटन तक ही मीमित रहता है तो यह जंन दगंन की भाषा मे-'तनुपिशोपण मेव न चाऽपरम्-रीर पोषण मे अधिक पुछ नहीं है । उनमें अन्तरंग जीयन को विशुद्धि-कामं निजंग तो फ्या, पुण्य भी नहीं हो पाता है। और मनी कभी तो यह पाप वध का भी हेतु हो जाना । अन्तम नमत्य की पेतना जागृत हुए बिना जो तप किया जाता है, यह वान ना है, अर्थात् समान पष्ट है-जिनको जेन परम्परा ने भत्मना गी है।
तप का मूल भाव, देह में रहने हुए भी देह वृद्धिमा विगर्जन है। मामा घर में रहता है, पर योई पाप नहीं है, देर में सो देवादिदेर नीदर भी रहे है, केपल शानी भी तमा बन्य गाभर भो । लन मून प्रल दर का नहीं, पेर-युक्षिका है। जात्मानुलक्षी सापक के बनानादि भी अन्तरग समत्व के निमंन प्रकाश में होने है, गनिए ये दबुद्धि विन पाएर आध्यात्मिक प्रतिमा के रहमारे जीवन में आनं पाहिए। मायदे रक्षर भी घर में गृपा पनी पतनम मारमगता को अनुभूति करना। भरा मगती गो पा. सोचता है. पर भूगो . गुडे नही, बाग मगर गो भगी है, मुझे नही। गोन-37 आदि को पीटा भी मगर मो ., मुसे नहीं । मैं मामा ल गानी पुरान fret, ri मा. पीरन मेरा : और न मैं मेरा ।
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[ १६ ] कुछ लिखा गया है कि यदि उसे एक जगह संगृहीत किया जाये तो वह एक विशाल पुस्तकालय का रूप ले सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक 'जनधर्म मे तप : स्वरूप और विश्लेषण' पुस्तक मेरे समक्ष है । अस्वस्थता के कारण मैं इसे पूरा-पूरा तो नही पढ पाया हूँ, फिर भी जो कुछ मैंने इधर-उधर, विखरा-विखरा देखा है, उसने मुझे प्रभावित किया है, आकर्षित किया है । तप के सम्बन्ध में दूर-दूर तक विखरी हुई सामग्री को एकत्र संकलन करना आसान नहीं है । किन्तु मैं देखता हू, प्रस्तुत पुस्तक मे उस सामग्री का काफी अच्छा संकलन एवं विवेचन किया गया है । जिज्ञासु साधक को एक ही पुस्तक मे वह सब कुछ मिल जाता है, जो वह 'तप' के मम्बन्ध में जानना चाहता है । और यह केवल सकलन ही नहीं है, बीच-बीच मे तप के सम्बन्ध मे वह बौद्धिक चिन्तन भी है, जो तप सम्बन्धी कितनी ही गूढ-ग्रन्थियो को खोलता है, और तप के अन्तर मर्म को उद्घाटित करता है, उजागर करता है। प्रस्तुत पुस्तक के द्वारा श्रद्धेय मरुधर केसरी जी म. ने एक बहुत बडे अभाव की, एक बहुत बडी आवश्यकता की पूर्ति की है, एतदर्थ वे शतश धन्यवाद के पात्र हैं ।
श्रद्धेय मन्धर केसरी जी जैनपरम्परा के एक जाने-माने सुप्रसिद्ध सत हैं । चे वस्तुत केसरी हैं, वन के नही, मन के । उनका अत्तर्मन इतना दीप्तिमान है कि जिनशासन की शोभा एव सेवा के लिए वह हजार-हजार किरणो के साथ प्रदीप्त रहता है । उनकी वाणी मे वह मोज है, जो श्रोताओ के अन्तर्मन को झकझोर देता है । वे एक महान निर्भीक प्रवक्ता है । उन्होने राजस्थान को मगधरा मे जिनशासन को गौरवशाली बनाने मे जो महान कार्य किये हैं, और एतदर्थ अनेक संस्थाओ को पालित-पोपित किया है, वे युग-युग तक उनको गोरव गाथा के प्रतीक रहेंगे।
जैसा कि सुना है, आज अस्पी वर्ष की दीर्घ आयु में भी, जबकि मनुष्य का तन ही नहीं, मन भी जर्जर हो जाता है, उत्माह क्षीण हो जाता है, तव भी हम देगते हैं कि श्री मम्धरकेनगे जी अभी युवा हैं, तन बूढा हो चला
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[ १७ ॥ है, किन्तु उनके मन को चुनापा नहीं आया है, मगता है बागा भी नहीं ! युवको जैगी कार्यशक्ति रनमे देयो जाती है, जो हर किसी के लिए मूतिमती प्रेरणा है।
श्री मदार सरी जो म. ने साहित्य के क्षेत्र में भी फाफी कार्य किया है । पच व गध में उनकी अनेक रचनाए प्रााश में ना चुकी हैं। इन रचनाओं में भी उना यही जन्मजात मौन मुपरित रहना है । सामाजिक एव गष्ट्रीय पेतना के स्वर भी उनकी पतियो मे गूजते हुए मुनाई देते हैं । प्रस्तुन पुग्नका जनयी माहित्य मणिमाला को एा जाज्वल्यमान मणि है । अब नव प्रकाशित मतियों में इसबा फुध विशिष्ट स्थान है। उनमें जीयन के नवे अनुमयों और विचागेका दिप प भी उक्त पुप में निगाहना मिलता है। में आशा करता , भोर भागा ही नही मगलरामना करना , फियो गया पेसरी की निगाहो, और उनके द्वारा प्यायनर भविष्य के घी में माय पूर्ण उपलब्धियां गिन मागन को मिलती है ।
प्रस्तुत पुस्तक मे विषय में एक बात और पाहना पागा, दमणा मादन श्री पीचन्य पुराना परस' में रिया राम जी परता गम है. उमर हरामों में जो भी लोग जाती।, यह मा हो जाती है। गरामन मा में तो मुसे मरना चाहिए- पारगत है। उन सारा बनेर करना म परिवार तापी बोरो मारमा पसेर में अभिगनी 'सरम' जो मेरे पाटनमोगी है, उनमें निपट ग या ही नहीं, पना भी।। जंग मार उरी सेपार प्रान मरला कर माग जन मारिता गए नाग-गा, मरि गायन गर को प्रमुदित करता है-यही मंगल कामना । frarent संगमग, मोती रटन
--उपाध्याय अमरमनि
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波嶭 ;PPT)
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शुभ कामना
मनहर कवित
विश्व को विकास पुन्य-पुंज को प्रकाश अहा, पापों के विनाश हेतु तप ही प्रधान है। ज्ञान को निवास, सत्य - शील को आवास महा, दया को उजास खास कहा वर्धमान है । ताही को स्वरूप अनुरुप मेरे गुरुदेव, करि के प्रयास उसे रक्खा एक स्थान है । श्रीचन्द चार चाँद सजाकर लगाय दिये, पायेंगे सरस यश 'शुकन '
महान है ||१||
नया
अति उज्वल आतम की करणी, तप रूप जिनेश्वर ने धरणी, तरणी- भवसागर नाव चनी, दिव-लोक-पया शिव निस्सरणी । अरनी अघ जाल जरावन को, तप दोय विधी जग उद्धरणी, इस पीथिन मे सहि राह मिली, जिम बालक को जु मिलो जननो ॥२॥ सोन्या
आछो ओ आनन्द, मैं पिण पायो मोकलो, गह्यो हाथ में ग्रन्थ, तपरो तत्त्वों सुं भर्यो ||३|| मरुधर के शिरमोड़, मरुधर केसरी जाणिये, ग्रन्थ लिखा अनमोल, जैन-धर्म में तप महा ||४||
देश
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फली शुकन मन भावना, पूर्ण करी गुरुदेव । शासणपति दीजो सदा, सुगुरु-पद-कज सेव ॥५॥
- मुनि शुकन
धगड़ी नगर
जतसिंह जैनगढ़
२१-१०-३२
50 500-5
EVENI
PEA
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जैन धर्म में तप : स्वरूप और विश्लेषण
मनीषी मुनिवरों की दृष्टि में
श्रमणमघ पो द्वितीय पपर --आचार्य श्री आनंद ऋपि जी महाराज
तर जीवन के अभ्युत्थान का मार्ग है। उसमें बाम गित तो होती ही है, व्यक्ति का पारिवारिक सामायि, एव गप्टी जीवन भी नमुमत एव भक्तिसम्ममा बना है।
उप फे विषय पर श्री मरमसमरीजी म. गेम गीन विदेगन प्रस्तुत किया है. या देयने में नामा मापर मर दिया है।
हिसानु में लिए मा पर य? in fire रोगीमा
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--मालवकेसरी श्री सौभाग्यमल जी महाराज
'जैन धर्म में तप स्वरूप और विश्लेषण' का विहंगावलोकन करने पर ऐमा प्रतीत होता है कि इसमे मरुधरकेशरी मिश्रीमलजी महाराज का मौलिक चिन्तन और विचारो के ज्योति कण पद-पद पर विखरे पड़े हैं । प्रस्तुत पुस्तक ताप-तप्त इस विश्व-मानव को अपने आध्यात्मिक विचारो और फ्रान्तिकारी सुझावो से आत्मा पर बैठी अज्ञान की परतो को हटाकर शान्ति, मदभाव नौर स्नेह का शीतल अनुलेप प्रदान करने में समर्थ होती है।
प्रस्तुत पुस्तक तप के विशाल विराट स्वरूप को लेकर लिखी गयी है। इसके प्रत्येक पृष्ठो पर तप का मूल्याकन आलोकित हो रहा है । तप, त्याग, और सयम प्रधान साहित्य से हमारा जीवन उत्तरोत्तर विकसित होता रहे यही शुभेच्छा ।
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[ २१ ] योगनिष्ठ मुनि श्री फूलचद जी 'श्रमण'
'जैन धर्म में नप स्वस्प बोर विनवम' पुस्तक देगी, अपूर्ण पुस्तपा (एपे हुए ४०० पेज) ने भी मुझे पूर्ण भान करा दिया अपने स्वरुप का, अपने विषय ना, अपनी प्रतिपादन पानी का एव अपनी विश्लेषण को गम्भीरता का।
गाय शान के आधार पर मनुप कुछ लिग सकता है, परन्तु स्पानुभूति गी चराभूमि मे रहित होते ये धारण कर अभिब्यक्ति के गोप्य को प्राप्त नहीं कर सपना । श्री मगर कमी पी मिोगल जी महाराज एक तरी मन्त है, अतः उनके मुग में नए गे विषय में जो भी प्रष्ट होना या म्यानुगृति यो उपभूमिका में उदान होता है, लोरमा ही हमा है। नप पागलीन वित्त
।
लेपन मे गम्भीरता का मामी, मह नगगि नियम है. परन्तु भाषा में अभियक्ति मानना नो लपनामती है। श्री मम्मी जी महाराज - पं F में जो विना है, या सरर नही, गरम और उस ताप्रति आTTTTTTri
जोन र २८ जापानी सपने मार र यो मदन यम दाना या " मागोर आनिर ཙitfrunris པས་ ༣༢ ་ བ 1 •j༴ ཨ ༣ श्याम नगर हो:: माग Ta form मा
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[
२२ ]
बहुश्रु त विद्वान्, मधुर वक्ता श्री मधुकर मुनि जी महाराज
जैन धर्म की साधना का प्राणतत्व 'तप है। जैसे पुष्प की कली-कली मे सौरभ समाया हुआ है, ईख के पौर-पौर मे माधुर्य परिव्याप्त है और तिल के कण-कण मे स्नेह संचरित है, वैसे ही जैन धर्म के प्रत्येक चिन्तन मे तप परिव्याप्त है ।
जैन आगमो मे तथा प्रकीर्ण ग्रन्थो-नियुक्ति, भाष्य, चूणि एव टीका आदि मे तप का बहुविध विवेचन किया गया है। वह विवेचन-चिंतन है तो वहुत ही सूक्ष्म एव उपयोगी, किन्तु बिखरा हुआ होने से पाठक उससे उपयुक्त लाभ नही उठा पाते । ऐसे एक ग्रन्थ की बहुत बडी कमी थी जो उस समग्न विवेचन को सरल, सुबोध एव सरस शैली के साथ पाठको को उपलब्ध करा सके।
श्रद्धेय श्री मरुधरकेसरी जी महाराज ने उस अभाव की पूर्ति कर एक महनीय कार्य संपन्न किया है । तप के विपय मे इतना विशाल, प्रामाणिक तथा हृदयग्राही विवेचन अपनी समग्रता के साथ शायद पहली वार हिन्दी भाषा मे प्राप्त हुआ है। प्राकृत, सस्कृत एव अपन्न श आदि भापाओ में भी इस शैली का गथ मेरे देखने में नहीं आया।
अन्यकार मुनि श्री जी कोटिश धन्यवादाहं है, साथ ही सपादक श्री 'सरस' जी भी इस सत्प्रयत्न एव कुशन मपादन के लिए बधाई के पात्र हैं।
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विश्व के क्षितिज पर छाये सर्वनाश के नए मानव
जीवन पर भय एव लोभ के
टो हो ।
पात्र में नष्ट करदेनेोक्ति
[ २३}
area के प्रवर्तक
fare मुनि श्री सुशीलकुमार जो महाराज
जैन बा राम तप का विज्ञान है, प्रभु महावीर का जीवन तपना साम्रात् जीवन्त रूप है, प्रकृति विजय एप दर्शन की कुजी भी तप ही है।
अनन्तराम चया aft के aeraita re के fare श्री मगर गरी जी महाराज ने विकार जगत् पर
है।
अनन्त
मेरे मन में अनेक बार धर्म साहित्य में
ब
नाम को सालिन करते नपा करने का विर
भाता रहा है। भारतीय
जैन हत्य
पीविनामको व्यकि
थी।
पर जो महाराज के प fa
वृति
***F!
५
आतार,
मानवी अनुभव दिन माना
सेवित हो।मेरो श्रीमहा
नेपालको मायके
पाता है।
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वाद को खेर भी
1), tak froga kan mest vaz
*
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[ २४ ]
आगम अनुयोग विगारद. मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल'
अखिल विश्व की अनन्त आत्माओ का यदि वर्गीकरण किया जाय तो केवल दो वर्ग बनते हैं ।
पहला वर्ग कर्ममल से लिप्त आत्माओ का और दूसरा वर्ग कमल से मुक्त आत्माओ का है। पहले वर्ग की आत्माओ को "सामारिक" और दूसरे वर्ग की आत्माओ को "सिद्ध" कहा गया है।
सासारिक आत्माओ की वाह्याभ्यन्तर शुद्धि के लिये तपश्चर्या एक वैज्ञानिक साधना है । विधिपूर्वक की हुई तपश्चर्या से ही साधक की आत्मशुद्धि होती है यह एक तथ्य है । ___ अनेक जिज्ञामु बहुत लम्बे समय से एक ऐसी पुस्तक की आवश्यकता अनुभव कर रहे थे-~-जिसमे जैन, वैदिक और बौद्धमन्थो में प्रतिपादित तपश्चर्या का वैज्ञानिक रूप, तपश्चर्या के विविध प्रकार और तपश्चर्या के विधि विधानो का सक्षिप्त एवं सारगति मकलन हो ।
परम श्रद्धेय प्रवर्तक श्री मरुधर केशरी जी महाराज के तत्वावधान में श्री "सरम" जी द्वारा सपादित "जैन धर्म मे तप" नामक इन ग्रन्थ से अनेक साधको को जिजामा परिपूर्ण होगी। इसमे प्रवर्तक श्री जी की विशाल ज्ञान राशि का दोहन, अनेक ग्रन्यो का मन्यन और तपश्चर्या के अनेक अनुभवो का चिन्तन मनन ऐनी गरन एवं सरल भाषा मे दिया गया है - कि सभी स्तर के गाधक इम ग्रन्य के म्वाध्याय से लाभान्वित होंगे।
इम ग्रन्थ को प्रभावना करने वाले श्रद्धालु मद्गृहस्य भी अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग एव पुण्योपार्जन काके यशस्वी बनेंगे।
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[ २५ । सुप्रसिद्ध विचारक एवं अनेक ग्रन्यों के लेखक
श्री विजय मुनि शास्नी, साहित्यरत्न
तप एक अध्यात्म शक्ति है। जीवन की उर्जा जो अघोपा. हिनी हो रही है, उमे मध्यवाहिनी करना ही तप मा एक मात्र लक्ष्य है । मन मी वृत्तियों को बदलना हो, तप का उद्देश्य नही है. तप का उद्देश्य है ममम जीयन गा पान्तरण ! नप जीयन शो गणित होने बचाता है, और उमे भरतपः एव नमन सपने की जो कुछ साधना है, वह है तप !
तोमंडारी में एवं गणधरी ने तप गो माधना में जो मुछ उपलव्य किया वस्तुत. यही चोतगगदान है। पीपरागता प्राप्ति का अनन्य साधन तपही। सन परम्परा पा तप गना मापक और मा विमान कि उसमें मोचन यो उननग शिया पर पाने में सभी गापनी राममायेदा हो जाता है।
जैन आगो में तप में भारत भेशिश गरे । बनमा में मेरर ध्यान और माग रामसपमा विमतिया गया है, उसो परिक्षित लामा को ना मोर को और मा, रम में मुम में प्रोगा ।
सपनामा आज TETTER rferest T!
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[
२६
]
इसमे तप के समस्त अगों का विशद विवेचन शास्त्रीय आधार पर किया गया है। फिर भी शैली काफी सरल, सरस और रुचिवर्धक है। श्री मरुधर केसरी जी महाराज ने इस महान ग्रन्थ का प्रणयन कर जिज्ञासु साधको के लिए बहुत वडा उपकार किया है, वे कोटिशः धन्यवादाहं हैं।
जैमा कि मुझे मालूम हुआ है—प्रस्तुत ग्रन्थ श्री मरुधर केमरी जी महाराज के प्रवचन साहित्य के दोहन का परिणाम है, इसका मम्पादन श्री श्रीचन्द जी सुराना 'सरस' ने किया है । ग्रन्थ मे सम्पादक की प्रवुद्धता, व्यापक अध्ययन और गहरी विद्वत्ता की छाप भी परिलक्षित होती है। इसमें आगमो के साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान का भी पूरा-पूरा उपयोग एन प्रयोग कर ग्रन्थ को सर्वग्राही लोग भोग्य एव साथ ही विद्वद्भोग्य बनाने का सफल प्रयास किया है । लेखक महोदय के माथ-साथ मैं सम्पादक बन्धु के प्रयास की भी प्रशसा करता हूं और हार्दिक भाव से अभिनन्दता ।
प्रसिद्धवक्ता श्री ज्ञान मुनि जी
हमारे श्रद्धास्पद प्रर्वतक, मरुधरकेसरी श्री मिश्रीमल जी महाराज बढे दूरदर्शी, गम्भीर विचारक, आदर्श संयमी, प्रखर व्याख्याता और जैन जगत के जाने-माने तेजस्वी मुनिराज हैं। मोक्षदं और सौजन्य तो इनकी जन्ममिद्ध पावन सम्पदा है। इनकी वाणी मे बोज, मोर माधुर्य का विलक्षण संगम मिलता है। इनमे "यथानाम तथा गुण" के अनुमार जहा वास्त
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[ २७ । विकता के दर्शन होते हैं, वहाँ आयति बोर प्रणानि में भी पूर्ण सामजस्य उपलब्ध होता है । घमं प्रचार, मारिय मेवा, गमाजोत्यान की सेवा का महानग्रन नके जीवन को नवं नपान मङ्गलमयी साधना है।
परम पढेग मरुधर केगरी जो द्वारा लिगित "जैन धर्म में तम · स्वरूप और विश्लेषण" नामक गन्थर न । परिशीलन किया। प्रमाणन तो बहुत देखने में आए पन्तु नपोदेवता ये पायन चरणो मे व्यापक संप मे, गुरे दिल के नाय इतनी अधिक मात्रा में श्रद्धासुमनों का गमर्पण जीग में पानी बार देगा है। तप मे सम्बन्ध में जितने दृष्टिकोण उपलब्ध होगरते है, इसमें उन सब घान में समा गया है। अन्य TTER मानों तय गम्बन्धी मान्यताओं और भावना को या
क्षय नस्टार है। जैन-जनेतर चारयो तमा मोके पर तन पावन धरनों का उपन्याग करगे तो गोने में मागेमा काम कर दिया । यही नही तो नरक की भावना सनी मागार होती दिगाई lifT में हत्या प्राय सारे विशाहीरी। पापा ममा बनेगर परमी में मिला है।
अधि कार प्र में गो गा गट और Er माmari दिदा होता हो. me ti vi siz: 3: + "; ri's
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[ २८ ] पं० श्री मोहनलाल जी गोटेचा, साहित्याचार्य
एम ए एच-पी. ए , स्वर्णपदक प्राप्त
___ वरिष्ठ अनुसघान अधिकारी क्षेत्रीय अनुसंधान संस्थान, (आयुर्वेद)
जयपुर (राजस्थान)
प्रस्तुत ग्रंथ एक उत्कृष्ट एव परम उपादेय रचना है। इससे मानव को सही मार्गदर्शन प्राप्त हो सकेगा। जीवन को किस प्रकार सयम तप की साधना मे सलग्न किया जाय - इसका अनुभूतिपूर्ण मार्ग-अववोध-प्रस्तुत ग्रन्थ रत्न से प्राप्त किया जा सकता है।
श्रद्धास्पद श्री मरुधर केसरी मिश्रीमल जी महाराज एक त्यागी, तपस्वी, विद्वान एव प्रखर प्रवक्ता योगी हैं, साधक हैं। उनका जीवन सचमुच मे पारस है, जो इमका स्पर्श करता है, वह स्वर्णत्व को अवश्य प्राप्त होगा।
समस्त ग्रन्थ का अनुशीलन करने के बाद यह धारणा पुष्ट होती है, कि प्रस्तुत अन्य जैन धर्म मे तप . स्वरूप और विश्लेषण' वास्तव मे ही तप का सर्वाङ्गीण स्वरूप व्यक्त करने में सक्षम है। इसके अध्ययन अनुशीलन से पाठको को असण्ड-आत्ममानन्द को प्राप्ति होगी।
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अनुक्रमणिका
प्रथम खण्ड:
तप एक पिरलेपन । १ हमारा लक्ष्य २ मध्य साधना ३ मामी पन्मिापा ४ गप की महिमा (जनेत गन्दी में) ५ जैनधर्म में सपना मा ६ गप या उदय और नाम ७ प और महिला ८ सपि मनोग PM और पति ( तप (नोक्षमार्ग) निमा निदान १० गम-पुरा पदभार ११ न कर ११ गगनोमी mam
IN
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द्वितीय खण्ड :
बाह्य तप का स्वरूप
१ अनशन तप
२ ऊनोदरी तप
३ भिक्षाचरी तप
४ रसपरित्याग तप
५ कायक्लेश तप
६ प्रतिसलीनता तप
तृतीय खण्ड :
[३०]
आभ्यन्तर तप का स्वरूप
१ प्रायश्चित्त तप
२ विनय तप
३ वैयावृत्य तप
४ स्वाध्याय तप
५ ध्यान तप
६ व्युत्सर्ग तप
परिशिष्ट :
• तप- चित्र
तप-सूक्त
ग्रन्थ सूची
● परिवर्धन
• सहयोगी परिचय
१५१-३८२
१५७
२०६
२३०
२६५
२८२
३०३
३८३-५२४
३८७
४२२
४४०
४५५
४६७
५०५
५२५-५८४
५२७
५३४
५५८
५६१
५७५
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जैन धर्म में तप
स्वरूप
और विश्लेषण
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भव कोडिय संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ ।
- उत्तराध्ययन सूत्र ३०१६
करोडो जन्मो के सचित कर्म तप से नष्ट हो जाते हैं ।
तपो ब्रह्मेति ।
- तेत्तिरीय आरण्यक हार
तप स्वयं ही भगवान है ।
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तप : एक विश्लेषण
१ हमारा तय सार पसा
जिन, RIT गाशित! म मुगमय मोदर मोजमाप
मा मापना मंदीर ៗ
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रमार
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'इच्छा-निरोधस्तप
सयम भी तप है ४ तप की महिमा (जनेतर गन्थो मे)
सिद्धियो का मूल-तप सृष्टि-रचना का मूल-तप वैदिक ग्रन्थो मे तप की गरिमा
बौद्ध-धर्म मे तप का स्थान ५ जैनधर्म मे तप का महत्व
तप का प्रतीक श्रमण महानता का मार्ग . तप तप से तीर्थकरत्व तप से चक्रवर्तित्व तपस्वी को देवता भी चाहते है शुभकार्य की आदि मे तप
६ तप का उद्देश्य और लाभ
तप का फल निर्जरा कामना युक्त तप, तप क्यो नहीं ? सुख-दुख का मूल कर्म तप से लाभ
७ तप और- लब्धियां
अणु से आत्मा की शक्ति महान है लब्धि क्या है ? लब्धियो के भेद मठाईस लब्धिया अन्य लब्धिया
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- लम्धिप्रयोग निषेध और अनुमति
सन्धि या प्रयोग वर्गा? सहिए फोगना प्रमा गमता नी, नाना मा मात्र अनुमति का? में मावीर ने मौनमा गरी
फोटी? ६ तप (मोक्षमार्ग) का परिसमय : निदान
निदान गया। निगराननिदान पापा निसान IIT या नाना FEAfr
१० शान-गुप्त तप पा फल
मापना 17 . कि याव-गा
q=jir; f•f•ཀཱ ཙཅན सार-मार
1118
११ तप पावर
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तप की मर्यादा वाह्यतप के छह भेद आभ्यन्तर तप के छह भेद
तप के अनेक रूप
वौद्ध परम्परा में तप
आजीविको के चार तप
गीता मे तप का स्वरूप
१२ तपस्वियों की अमर परम्परा
भ ऋषभदेव से गौतम
तपस्विनी श्रमणिया
अर्वाचीन युग मे
महान तपोधन आचार्य श्री रघुनाथजी
***
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हमारा लक्ष्य
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जैन धर्म मे तप
वन्धुओ I आप भी ऐसे यात्री को सच्चा यात्री नही कहेगे न ? यात्री होता तो उसे अपने लक्ष्य का, अपनी मंजिल का अवश्य ही पता रहता । आप गाडी मे बैठे हो, और किस स्टेशन पर उतरना है यह पता ही न हो, तो क्या वह यात्रा कभी पूरी हो सकेगी ?
ने
एक यात्री स्टेशन पर टिकट लेने गया । बाबू से टिकट मागी । बाबू पूछा - " कहा जाना है
?"
६
ין
"ससुराल
"कहा है ससुराल
- वावू ने पूछा ।
"जहा गाटी जाती है ।"—उस यात्री ने उत्तर दिया ।
तो उस यानी को कहा का टिकट दिया जाय
?
जिसे अपनी ससुराल का पता भी नही मालूम, गाव भी नहीं मालूम, वह ससुराल कैसे पहुंचेगा ? और कौन बाबू उसे कहा का टिकट देगा ?
"
वधुओ ! दुनिया देकर हंसिए मत । सोचिए, क्या इस स्थिति में आज
1
आप या आपके समाज का बहुत-सा वर्ग नही गुजर रहा है ? जीवन एक यात्रा है, इस यात्रा पर हजारों-लाखो-करोडो लोग चल रहे हैं, कोई दस वर्ष से, कोई बीस वर्ष से, और कोई पचास-साठ वर्ष से भी । चलते-चलते कमर टेटी हो गई, घुटने कमजोर पड गये, पिंडलियां पणिहारी गाने लग गई, पर अभी तक मंजिल का कुछ पता नही है । आपसे कोई पूछे अरे, में ही पूछ लेता है, "भाई, आपकी इस लम्बी यात्रा का लक्ष्य क्या है गाव पहुंचना है ? मजिल वा नाम क्या है, किधर है वह प्रश्न पर सकपकाकर मेरा मुँह ताकने नही लगेंगे 'महाराज 1 यह तो पता नहीं ?" अरे । भोले यात्री । पता नही तो चला वहा जा रहा है पहले मंजिल तय कर फिर चल ।" आप कहेंगे- "आप ही बता दीजिये ।" यह भी क्या खूब है ! जाना आपको, और मंजिल में बताऊँ ।
?
आपको कौन से
क्या आप इस
?
1
कोई आपने पृष्ठे---"भाई साव, नाम क्या है ?
आप बोले--"आप ही बता दीजिये ?" पैना मजेदार उत्तर है यह
၇။
1 पर नचमुच आज की स्थिति ऐसी ही है,
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दमासना
मामा नाम, आपरे वा गा नाममी पूछने वाले कोही बताना पडेगा, ifr आपको गो गुछ मानम ही नहीं।
हा, में TE, पा--आप यात्री हैं, परिश, आपा गाय का पागो बना यौजिय, दि विना पने में निपाको नो लामो पाग--- मारिये देना , आप जपनी महिला बाग या
एम गवाणी, म यात्री गा बाहर में लग ग ई
द, गोई वगंगा कोई भगन्द है। रितु भीतर में ना गाप्रियो का हो , हो नाम है-"ar माग !" आम बिग गागं पर नन ना, जिस पर गुना ~ग पर ITY गगार पर।' जैम हिली गा 'मनपर'. ही जामानाम गाया राजमार्ग मगार समार गोभारमाराम EिR, fafer, जन्म और विभिप मेरमा तार पर काम प र , गोग, गरम लाई मानT
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जैन धर्म में तप
ही उसका स्वस्थान है, उसी का नाम किसी ने 'मोक्ष' रखा है, किसी ने 'मिद्धि' और किसी ने 'परमपद' या 'निर्वाण ।'
अनादिकाल से आत्माराम ससार पथ की भूल-भुलैय्या मे भटक रहा है । इसे अभी तक अपना असली स्वरूप, अपना असली स्थान मिला नहीं है। यह चल रहा है,किन्तु कभी सौ योजन पूरव मे चलता है,तो फिर कभी वापिस नौटकर दो मी योजन पश्चिम मे आ जाता है। कभी उत्तर की यात्रा पर चलता है, सौ-दो-सौ योजन पार करता है तो फिर दक्षिण की तरफ मुंहकर लेता है, फल यह होता है कि जिन्दगी बीत गई, एक नही, कई जिन्दगिया बीत गई फिर भी रहा वही का वही- "ज्यो तेली के बल को घर ही कोस पचास" बस, यह यात्री तेली के बैल की तरह ही चक्कर काटता रहा है ।
एक वार कुछ यात्री हरिद्वार मे गगा के किनारे गये, सध्या का समय था, धूमते-घूमते एक तट पर लगी नौका के पास पहुचे । सब ने निश्चय किया, चलो नौका मे बैठकर अमुक गाव चलें, रात भर चलते रहेगे तो सुवह अपनी मजिल पर पहुच जायेंगे। सव यात्री नौका मे बैठ गये, और चार जवान आकर डटे डाड हिलाने । रातभर डाड हिलाते रहे, खूब ताकत लगा फर, मस्तूल भी हवा मे हिलता रहा, सुवह जव मुह उजाला होने लगा और यात्रिणे ने आंख खोलकर देखा कि मामने एक सुन्दर नगर है, वडा सुहावना घाट है और लोग घाट पर नहाने को आ रहे हैं, उनकी नौका भी घाट के पाम सही है तो खुशी से नाच उठे। लोगो से पूछा- यह कौन सा गाव है भाई " लोगो ने कहा-'हरिद्वार !' यात्री चौके-"हैं ? हरिद्वार से तो हम रात को चले ही थे, गत भन नौका चलाकर क्या अभी तक हरिद्वार ही पहचे हैं।" मव यात्री एक दूसरे का मुंह ताकने लगे । तभी घाट पर बडे एक म्नानार्थी ने कहा- "मूगों। नौका तो अभी नगर में बंधी है, चले गरा तुम्हाग मिर' .."
मागे नॉन----'ओ हो ! यही तो भूल रह गई। नगर तो मोना ही नही, नौ चलेगी और यहां पहनेगी " ?"
मनुपगी जीवन नीरा भी मी प्रसार अनान और मोह के लगर में
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हमाराना
बपी है, जीवन भर हाथ-पैर मार भी वह यही का यती माता, जहा पहले पा। ___ लोग दुनिया में यह आत्मागम पुटवॉन गो नस पर से उधर नगर पाना ने गमवाना friगे मजिल गेरा पाप हो है, अर्गा न जो गुगापि है, वही त अपनी गमिल है। उनके नागवान यही बारमाही ---
रस्ता फिरता है ऐ 'पास' अपने-आपको,
माप हो गोपा मुसाफिर, आप ही मजित ह में । जाज मानी पोनपने TET TO माना जोग, वही पर भगवान का सामागः परमात्मा गा.
सिद्धा जगातीय : जीय गोही शिद होप,
पर गल पा आनग, पो पिरला प्रोग। मन में आगामी आना मगर ET
सप्पो विप परमाणो पम्मयिगरगोहोर र फर।। आत्मा श्य मे मुतो नागो गान
मामा मामा म NIA fat Tी पनि परमात्मा:, T r गाना मामाला : -
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१०
जैन धर्म मे तप
शक्ले-इन्सा मे खुदा था, मुझे मालूम न था,
चांद वादल मे छिपा था, मुझे मालूम न था। में यही बता रहा था कि हमारा स्वरूप क्या है ? वह कहा है ? हमारा स्वरूप है परम विशुद्ध, निर्मल कर्म मुक्त दशा । शकराचार्य के शब्दो मे कह नो
जाति-नीति-कुल-गोत्र दूरग
नाम रूप-गुण-दोप-वजितम् । देशकाल-विषयातिवति यद्
ब्रह्मतत्वमसि भावयमात्मनि ।' जो जाति, नीति, कुल और गोत्र के झमेलो से दूर है, रूप, गुण और दोप से रहित हैं, देशकाल और विपय से भी पृथक् है, उनका भी जिम पर कोई प्रभाव नहीं होता, तुम वही ब्रह्म हो, अपने अन्तःकरण मे ऐसी भावना फरते रहो।
यह है आत्मा का स्वरूप । जनदर्शन ने भी आत्मा के मूल स्वरूप की चर्चा करते हुए कहा है-आत्मा परम ज्ञानमय, ज्योति स्वरूप है। कहा है
जे आया से विनायारे जो आत्मा है, वहीं विज्ञाता है-वहा अधकार तो कुछ नाम मात्र का भी नहीं है, परम ज्योति जल रही है, वह ज्योति कभी बुझती नहो, क्षय नहीं होती, हां कर्मावरणो ने आवृत जरूर हो जाती है, किंतु वुझ नही सकती है।
अनन्त मुखमय रूप आत्मा का अपना मप है अनन्त सुबमय । भगवान महावीर ने पूछा--- आत्मन्बर। गंगा नो बताया--
राउल सुह नपना उपमा जन्त नत्यि उ
१ मिति २५५ । २ नानागग १५ उनगमन ३६६
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हमारा लक्ष्य
-आत्मा अनन्त सुखमय, अव्यावाघ सुखो मे स्थिर रहने वाला है, यही उसका स्वरूप है, जिसे मोक्ष भी कहा है, उन सुखो का वर्णन करने के लिए कोई उपमा नहीं है।
वधुओ | इस विवेचन से आपके सामने यह स्पष्ट हो गया होगा कि आत्मा चिदानन्दमय सुखरूप है
चिदानन्दरूपो शिवोऽहं शिवोऽहं यही उसका स्वरूप है, हमारी यात्रा, इस स्वरूप की प्राप्ति के लिए ही है इसलिए हमारा लक्ष्य, हमारी मजिल है-स्वरूप की प्राप्ति । अर्थात् आत्मा को अपने ही रूप का दर्शन । "सपिक्खए अप्पगमप्पएण" । आत्मा को अपनी दृष्टि से देखना है, आत्मदर्शन करना है । अपने भीतर क्या-क्या शक्तिया छिपी हैं, किन-किन विभूतियो का यह पुज है, बस, इसका अवलोकन करना यही हमारी यात्रा का लक्ष्य है। इसे देखने, समझने के लिए कही दूर जाने की जरूरत नहीं, अन्यत्र भटकने की आवश्यकता नही । यह हीरो की खान तो तुम्हारे ही पास मे हैमहाकवि 'निराला' के शब्दो मे
पास ही रे, हीरे की खान खोजता कहा अरे नादान । स्पर्शमणि तू हो अमल-अपार, रूप का फैला, पारावार खोलते-खिलते तेरे प्राण
खोजता कहा उसे नादान ! आवश्यकता है-इन हीरो की खान को देखने वाली तेज दृष्टि की। इन चर्मचक्षुओ से यह खान नही दिखाई देगी, इसे देखना होगा-अन्तरदृष्टि से । अध्यात्म जगत की यह विचित्र वात है कि जब तक वाहर मे दृष्टि खुली है, अन्तर सृष्टि नही दिखाई देगी, बाहर की दृष्टि भेदकर अन्तर दृष्टि खोलो
१ दशवकालिक चूलिका २।१२
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जैन धर्म मे तप
१२
अन्तर में झाको तो वहा की दिव्यसृष्टि तुम्हें दिखाई देगी और तव तुम अपने स्वरूप का नही अनुभव कर सकोगे ।
इस प्रकार एक बात निश्चित हुई कि हमारा लक्ष्य है—अन्तरदर्शन ! आत्मदर्शन या स्वरूपप्राप्ति | जिसे सीधी भाषा मे मोक्ष प्राप्ति भी कह सकते है ।
मोक्ष की परिभाषा एवं स्वरूप
वास्तव मे मोक्ष कोई भिन्न वस्तु नही है, आत्मा का आत्मस्वरूप मे प्रकट होना ही गोक्ष है । मोक्ष की परिभाया करते हुए आचार्य उमास्वाति कहते हैं
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कृत्स्नकर्म क्षयोमोक्ष
आत्मा के सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाना ही मोक्ष है । इसी बात को एक अन्य आचार्य ने कुछ स्पष्टता के माथ बता दिया है
कृत्स्नकर्मक्षयादात्मन स्वरूपावस्थानं मोक्ष २
नमस्त कर्मा का क्षय करके आत्मा अपने स्वरूप मे जब स्थिर हो जाता है, तब वही मोक्ष नाम मे कहा जाता है । मूलत मोक्ष का यही स्वरूप है । जैन दर्शन ही नहीं, भारत के अन्य दर्शनो ने भी मोक्ष के सम्वन्ध मे यही नितन प्रस्तुत किया है । नाख्य दर्शन के आचार्य ने कहा हैप्रकृति वियोगो मोक्ष
-आत्मा रूप पुम्यतत्व से प्रकृति रूप भौतिक तत्त्व का अलग हो जाना मोक्ष है ।
वैदान्त्रिक पानार्य के मतानुसार आत्मा का आत्मा में विलीन हो जाना हो मोक्ष है
आत्मन्येव तयो मुक्ति वेदान्तिक मते मताः *
१ उमापति नमयवि० ० १ ३ तक ) तत्वायंन्त्र १०१३
२ जैननिदान दपि ५३६
३ दर्शन मुन्नय ४३
४ पिकविलास
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हमारा लक्ष्य
१३
-~-~~
- परब्रह्म स्वरूप ईश्वरीय शक्ति मे आत्मा का लीन हो जाना मुक्ति है ।
वैसे वैदिक ग्रन्थो मे मुक्ति के कई रूप माने गये हैं । श्रीमद्भागवत मे मुक्ति के स्वरूप के विषय मे विवेचन करते हुए पांच प्रकार की मुक्ति बताई गई है'
१ सालोक्य भगवान के समान लोक की प्राप्ति । २ साष्टि - भगवान के समान ऐश्वर्य की प्राप्ति ।
३ सामीप्य - भगवान के समीप स्थान की प्राप्ति ।
४ सारूप्य - भगवान के समान स्वरूप की प्राप्ति ।
५ सायुज्य - भगवान मे लय हो जाना ।
इन पाँचो भेदो का, और उनके साधनो का वैदिक दर्शन मे काफी विस्तार से चिन्तन-मनन हुआ है, भक्ति, कर्म और ज्ञान-योग का विकास भी इन पाँचो स्वरूपो के आधार पर हुआ है । किन्तु जैनदर्शन इसमे चौथे रूप को ही स्वीकार करता है । उसका कहना है- भगवान के समान लोक मे तो आत्मा कई बार चला गया, सिद्ध क्षेत्र मे एकेन्द्रिय जीव भी चला जाता है, पर वहाँ जाने मात्र से मुक्ति थोडी हो सकती है ? जिस विशाल राजभवन मे राष्ट्रपति रहते हैं, उसी मे उनका चपरासी भी रहता है, पर कहाँ राष्ट्रपति और कहाँ चपरासी ? सेठ के घर मे रहने से नौकर सेठ नही होता । सिपाही की वर्दी पहनलेने से सभी सिपाही नही बनते । वैसे ही भगवान के समान ऐश्वर्य को भी हमने मुख्यता नही दी है। जैन धर्म मे वाह्य ऐश्वर्य की कोई कीमत नही है । आचार्य समन्तभद्र ने तो यहाँ तक कह दिया है- "प्रभो । आपके बाह्य अतिशयो को, विभूतियो को देखकर मैं आपकी स्तुति नही करता हूँ क्योकि यह ऐश्वर्य तो अन्य मायावी देवो मे भी दिखाई देता है- मायावीष्वपि दृश्यते - किन्तु आपकी जो विलक्षणता है वह तो वीतराग भाव है ।"
१ श्रीमद् भागवत ३।१६।१३
२ आचार्य समन्तभद्र ( समय वि. स. २-३ सदी) वृहत्स्वयभू स्तोत्र
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जैन धर्म में तप
इसी प्रकार भगवान मे लय होना भी जैन दर्शन को मान्य नहीं है, इससे तो आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता ही समाप्त हो जायेगी, जबकि प्रत्येक आत्मा एक अखण्ड स्वतन्त्र सत्ता है । वौद्ध दर्शन ने तो मुक्ति के विषय मे कुछ भिन्न वात ही कही है-वहा कहा गया है जिस प्रकार तेल क्षय हो जाने पर दीपक वुझ जाता है । विलय हो जाता है, वैसे ही आत्मा इधर उधर कही नही जाता, किन्तु क्लेश क्षय होने पर वह शात हो जाता है-आचार्य अश्वघोप की यह उक्ति प्रसिद्ध है
दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेत .
स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् । '' तथा कृती निर्वृति मभ्युपेत्य".
क्लेश क्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। किन्तु उनका यह विश्वास दर्शन जगत् मे टिक नहीं सका, उनके द्वारा दी गई मोक्ष (निर्वाण) की इस व्याख्या को जैनदर्शन के धुरघर आचार्यों ने तर्क-वितर्क द्वारा जीर्ण शीर्ण कर डाली है। हा तो मैं बता रहा था, हमने मोक्ष की चौथी व्याख्या स्वीकार की है-जिसमे 'मारूप्य' मोक्ष का स्वरूप माना गया है, आत्मा परमात्मा के समान ही स्वरूप प्राप्त कर लेता है, अर्थात् स्वय परमात्मा बन जाता है ।
यही बात जैन दर्शन मे, जैन आचार्यों ने वार-बार दुहराई है। आचार्य अकलक का कथन है
___ आत्मलाभं विदुर्मोक्ष जीवस्यान्तर्मलक्षयात्रे जीव के अन्तर्मलो का क्षय होने पर मात्मा को जो स्वरूप लाभ अर्थात् स्वरूपदर्शन प्राप्त होता है, आत्मा आत्मा मे स्थिर हो जाता है-वही मुक्ति है।
१ सौदरानन्द १६०२८-२९ २ आचार्य अकलक (गमय वि० ७ वी सदी) सिद्धिविनिश्चय पृ० ३८४
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हमारा लक्ष्य
इस प्रकार आपके सामने मैंने पहली बात स्पष्ट की-हमारा लक्ष्य है-~मोक्ष | भत उसका स्वरूप है-~-आत्मलाभ | अर्थात् हम जहा है, वही वैठे आत्म-दर्शन कर सकते हैं और वही से मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। भरत चक्रवर्ती, मरुदेवी माता के उदाहरण आपके समक्ष हैं । भरत जी आरीशा भवन मे बैठे-बैठे ही केवलज्ञान प्राप्त कर गये, रागद्वेष से मुक्त हो गये
और मरुदेवी माता तो हाथी के हौदे पर विराजमान रही और मुक्त हो गई। इन उदाहरणो से यही बात स्पष्ट की गई है कि आत्मा जहाँ भी रागद्वेप से मुक्त हो जायेगा वही वह मोक्ष प्राप्त कर लेगा।।
अब प्रश्न दूसरा है-इस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन क्या है ? कैसे हम अपनी उस मजिल तक पहुंच सकते है। इस प्रश्न पर अगले प्रकरण मे विचार किया जायेगा।
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लक्ष्य साधना
एक प्रसिद्ध आचार्य ने कहा है-'भगवान ने अपने समस्त प्रवचनो मे जो कुछ कहा है उसे यो बताया जा सकता है, कि भगवान ने सिर्फ दो ही बातें बताई हैं—मार्ग और मार्ग का फल
मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणं समक्खादं ।' इन दो बातो मे ही संपूर्ण जिन प्रवचन का समावेश हो गया है । मार्ग का अर्थ है-रास्ता, साधना, पथ और मार्ग फल का अर्थ है-मजिल । माध्य नीर गतव्य । गस्ता पार कर, यात्रा पूरी कर जिस ध्येय को हम पाना चाहते हैं, उसे 'मार्ग फल' कहा जाता है। उस मार्ग फल के सम्बन्ध मे यहा विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं। आपने समझा ही होगा कि हमारी यामा या अतिम ध्येय है --आत्मस्वरूप का दर्शन । अर्थात् रागद्वे प का क्षय फर सपूर्ण कमों से मुक्ति । ससार के समस्त साधको के सामने यही एक मात्र ध्येय रहता है कि हम मोक्ष प्राप्त करें। साधक को 'मुमुक्षु' कहा जाता है ! मुमुक्षु शब्द के अर्य पर विचार करेंगे तो आपको पता चलेगा,
१ भूलागार २०२
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लक्ष्य साधना
"जो मुक्ति की इच्छा रखता हो, वह मुमुक्षु है ।" साधु भी और श्रावक भी—दोनो ही मुमुक्षु कहलाते हैं। क्योकि दोनो की कामना एक ही हैमुक्ति ।
__ अब प्रश्न यह है कि ध्येय तो हम सबका एक है, एक ही हमारी मजिल है, एक ही लक्ष्य की ओर हमे चलना है, किन्तु उस ध्येय को प्राप्त करने का मार्ग कौन-सा है ? नगर मे जाना है, तो मार्ग भी मिलना चाहिए ! यदि मार्ग का ज्ञान न होगा तो मजिल सामने दिखाई देने पर भी हम उस तक पहुंच नही सकेंगे। समुद्र के बीच द्वीप है, वहा रत्नो का ढेर लगा है, पत्थर और ककर की तरह वहा हीरे-मोती बिखरे पड़े हैं, वहा की मिट्टी सोना है, और यह देख-देखकर आपकी आंखें ललचा रही हैं, आपके पाव उछल-कूद मचा रहे है वहा तक जाने को, किंतु प्रश्न यह है कि वहा तक जायें कैसे ? रास्ता भी तो मिलना चाहिए ! कोई साधन भी तो मिले कि हम वहा तक पहुंच जायें।
यही प्रश्न हमारे सामने है--मोक्ष के अनन्त और अव्यावाघ सुख, अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त आत्मशक्तिया और आध्यात्मिक विभूतिया देखकर हम चाहते है उन्हे प्राप्त करें, किंतु कैसे ? आज के प्रसंग मे हम इसी प्रश्न पर विचार करेंगे कि मोक्ष प्राप्ति के उपाय क्या हैं ?
मोक्ष के दो मार्ग. ज्ञान और क्रिया स्थानाग सूत्र के दूसरे स्थान में बताया गया है-मोक्ष मार्ग का पथिक अणगार दो मार्गों पर चलता हुआ इस अनादि-दीर्घ ससार रूप कातार (जगल) का पार पा सकता है
दोहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अणाइय, अणवदग्गं दीहम संसारकतार वीइवएज्जा, तं जहा
विज्जाए चेव, चरणेण चेव ।
१ स्थानाग सूत्र २।१६५
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जैन धर्म मे तप ___दो कारणो से इस ससार अटवी का पार पाया जा सकता है। वे दो कारण (मार्ग) है-विद्या और चारित्र !
विद्या का अर्थ है-~-ज्ञान और चारित्र का अर्थ है-सयम । ज्ञान और क्रिया-ये दो मोक्ष के मार्ग हैं । सूत्रकृताग में भी इसी वात पर बल देकर कहा गया है
आहसु विज्जा धरणं पमोक्खो-१ विद्या और चरण-अर्थात् ज्ञान और कर्म के समन्वय से ही मुक्ति हो सकती है। इसीलिए मोक्ष मार्ग के पथिक मुमुक्षु जनो को 'विज्जाचरण पारगा'-विद्या और चरण के पारगामी कहा गया है ।
प्रसिद्ध नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु ने एक दृष्टात देकर बताया है"किसी जगल मे एक पगु मनुष्य पडा था, उसने देखा कि जगल मे भयंकर आग लग गई है, धू-धूकर लपटें उठ रही हैं, बडे-बडे वृक्ष जलकर राख हो रहे है। आग की लपटें बढती हुई उसकी ओर आने लगी। पागले मनुष्य का कलेजा धक्-धक् करने लगा, जगल के सभी जीव इधर-उधर दौड रहे थे, पर विचारा पगु आग को पास मे आती देखकर भी हताशनिराश वैठा रहा, उसके पाव नही थे, चल नहीं सकता था, देखकर भी करे तो क्या करे ? वह मन ही मन भगवान का नाम ले रहा है, और जोर-जोर से पुकार रहा है ---"कोई परोपकारी मनुष्य इधर आकर मुझे वचालो"
तभी एक सूरदास महाराज रास्ते मे भटकते हुए उपर आ गये । 'जगल मे हाहाकार क्यो मच रहा है ?' पर कौन उत्तर दे। वह इसी प्रकार चिल्लाता हुआ उधर ही जाने लगा, जिधर आग की लपटे उछल रही थी। पगु महाराज ने देखा तो पुकारा-"सूरदाम महाराज | कहा जा रहे हो ?"
सूरदास--"यह क्या हो रहा है ?"
१ सूचकृताग ११११
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लक्ष्य साधना
ह
पग - "अरे महाराज ! आपको पता नही, जगल मे आग लग गई है, आग | जिधर आप जा रहे है, उधर ही आग की लपटें बढी आ रही हैं, कही भुन जाओगे ।"
सूरदास घबराकर बोला -- "भाई । मुझे तो कुछ दिखाई नही दे रहा है । किधर जाऊँ ? तुम मुझे रास्ता बता दो, भगवान तुम्हारा भला करेगा
ין
पशु मन-ही-मन बडा प्रसन्न हुआ, कहा - " महाराज I रास्ता तो मैं ता, किन्तु मैं चल नही सकता, आखें तो हैं, किंतु भगवान ने पाव छीन लिये चलू कैसे
"
सूरदास की बाछे खिलगई, वोला - "भाई । पाव न हो तो, क्या है, आखे सलामत चाहिए, यही बडी चीज है, देख पाव तो मेरे वडे मजबूत है, पाच मन भार कधे पर उठाकर चल सकता हूँ, बस रास्ता दिखाना चाहिए ।"
पगु ने कहा - "बाबा, तब तो घी खीचडी मिल गई, आओ मैं तुम्हे रास्ता बताऊगा ।"
हुआ अभी इस जगल से पार हो जाता हूँ, की ही सवा लाख की जान बच गई, वर्ना जाता ।"
सूरदास - 'बैठो, मेरे कधे पर । तुम रास्ता दिखाते जाओ, मैं चलता चलो दोनो मिल गये तो दोनो आज दोनो का सकरकद सिक
इस प्रकार पगु अधे के कधे पर बैठ गया, और दोनो ने मिलकर अग्निज्वालाओ से दहकते उस जगल को पार कर लिया । जब तक दोनो मिले नही, तो दोनो कष्ट पाते रहे
पासतो पगुलो दड्ढी धावमाणो य मघभो
पशु देखता हुआ भी जलता रहा, अधा दौडता हुआ भी आग की लपटो मे
फस गया ।
इस कहानी का सार बताते हुए आचार्य भद्रवाह ने कहा हैसंजोग सिद्धोइ फलं वयति
न हु एग चक्केण रहो पयाइ ।
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२०
अंधो य पगू य वणे समिच्चा ते संपउत्ता नगरं
पविट्ठा ।"
--
- सयोग सिद्धि (ज्ञान और क्रिया का
सयोग ) ही ससार मे फलदायी
कही जाती है । इसी से मोक्ष रूप फल की प्राप्ति होती है । एक पहिए से कभी रथ नही चलता । जैसे अघा और पगु मिलकर वन के दावानल से बचकर नगर के सुरक्षित स्थान मे पहुंच गये, दोनो ने ही अपना जीवन बचा लिया, वैसे ही साधक ज्ञान और क्रिया के समन्वित रूप के साथ चलकर मोक्ष रूप नगर को प्राप्त कर लेता है, अपनी मंजिल पर पहुच जाता है । ज्ञान- क्रिया का यह महत्त्व प्रत्येक विचारक और प्रत्येक अध्यात्मवेत्ता ने माना है । महपि वशिष्ठ ने कहा है
उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिणां गति । तथैव ज्ञानकर्मभ्यां जायते परम
पदम् ॥२
जैन धर्म में तप
- जिस प्रकार पक्षी को आकाश मे उडने के लिए दो परो की आवश्यकता होती है, दोनो पर बरावर होने से ही उड़ सकता है उसी प्रकार ज्ञान और कर्म - दोनो के समन्वय से ही परमपद अर्थात् मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है ।
जैसे सृष्टि मे दिन-रात का, धूप-छाह का, नर-नारी का युगल है, दोनो सही रहने से ही सृष्टि का क्रम ठीक से चलता है, वैसे ही ज्ञान-क्रिया मोक्ष यात्रा का अनिवार्य युगल है, जोडी है, इन दोनो मे से एक को भी छोड देने से काम नही चलेगा । क्रिया के बिना ज्ञान पगु की तरह पडा रहेगा और ज्ञान के बिना किया अधे की तरह भटकती रहेगी ।
गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा - " कुछ लोग शील ( आचार) को श्रेष्ठ मानते हैं और कुछ श्रुत (ज्ञान) को इन दोनो मे कौन ठीक
है कोन श्रेष्ठ है
?"
940
१ आवश्यक नियुक्ति १०१
२ योगवाशिष्ठ, वैराग्य प्रकरण १।७
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लक्ष्य साधना
भगवान ने उत्तर दिया--"न अकेला शील ठीक है, और न अकेला श्रुत । शील और श्रुत-चारित्र और ज्ञान दोनो एक साथ मिलेंगे तभी साधना ठीक चल सकेगी। अत जो शीलवान (सदाचारी) और श्रुतवान (ज्ञानी) है वही वास्तव मे धर्म का सच्चा आराधक है
सीलव सुयवं, उवरए विनायधम्मे. १ शीलवान और श्रुतवान ही धर्म का ज्ञाता और विपयो से विरक्त हो सकता है।
इस प्रकार आप देखेंगे कि मोक्ष की प्राप्ति का हमारे समक्ष ज्ञान और क्रिया का समन्वित मार्ग है ।
तीन मार्ग ज्ञान और क्रिया का विस्तार करके कही-कही पर मोक्ष के साधन रूप तीन मार्ग भी बताये गये हैं । आचार्य भद्रबाहु ने कहा है
णाणं पयासगं, सोहवो तवो
सजमो य गुत्तिकरो । तिण्हं पि समाजोगे,
__ मोक्खो जिणसासणे भणिओ।२ ज्ञान प्रकाश करने वाला है, तप आत्मा की शुद्धि करने वाला है, और सयम पाप-मार्गों का निरोध करने वाला है, बस, इन तीनो का सम-योग अर्थात् तीनो की उचित आराधना करने से ही मोक्ष मिलता है, इन्हें ही मोक्ष समझ लें तब भी ठीक है।
___ भगवान महावीर स्वामी ने अपने अतिम प्रवचन मे मोक्ष का मार्ग बताते हुए शिष्यो से कहा है
नाणस्स सव्वस्स पगासणाए
अन्नाणमोहस्स विवज्जणाए।
१ भगवती सूत्र १०८ २ आवश्यक नियुक्ति गाथा १०३
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२२
रागस्स दोसस्स एगंतसोक्खं
जैन धर्म मे तप
य
सखएणं
समुवेई मोक्ख 12
- जब आत्मा के समस्त अज्ञान और मोह दूर हट जाते हैं, निरावरण रूप केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, जिसके प्रकाश मे समस्त लोकालोक हथेली की रेखाओ की तरह जाना देखा जाता है, और आत्मा के घोर शत्रु, रागद्वेष का क्षय हो जाता है, तो फिर आत्मा को एकात सुखरूप मोक्ष प्राप्त करने में कोई समय नही लगता ।
इन्ही तीन मार्गों की चर्चा करते हुए आचार्य उमास्वाति ने कहा हैसम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः ।
तत्त्वार्थ सूत्र का यह पहला ही सूत्र है, इसी पर समूचे जैन दर्शन रूप महल की नीव टिकी है । क्योकि जब तक सम्यक् दर्शन नही होता, तब तक ज्ञान भी सम्यक् नही होगा । मुख्य वस्तु मन का विश्वास है, आस्था है । आस्था सच्ची है, तो ज्ञान भी सच्चा है, आस्था ही झूठी है, तो समझलो नीव खोखली है । विना आस्था का मनुष्य विना दस्तखत का पत्र है । विना हस्ताक्षर का चैक है । चैक चाहे एक लाख रुपये का हो, आप बैंक मे ले जाकर दे देंगे तो बैंक आपको पैसा दे देगा, पर कव ? जब उस पर हस्ताक्षर सही होगे । यदि चैक देने वाले का हस्ताक्षर सही नही होगा तो बैंक आपको वंरग ही लौटा देगा, एक पैसा भी नही मिलेगा ।
तो यही बात आस्था की है, सम्यक् दर्शन जब हो जाता है, तो ज्ञान भी सम्यक् होता है, और तब जो आचरण किया जाता है, वह मोक्षरूप फल भी देने वाला होता है, तो ये तीन मार्ग वताये है मोक्ष के -- सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ।
मोक्ष साधना के मार्ग मे ज्ञान दर्शन -चारित्र इन तीनो की कितनी घनिष्ठता है, तथा तीनो किस प्रकार एक दूसरे के पूरक हैं, इस बात को कई युक्तियो से समझाया गया है । जैसे
१
उत्तराध्ययन ३२२ २ तत्त्वार्थ सूत्र ९।१
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लक्ष्य साधना
हरड-बेहडे-आवला त्रिफला हरै त्रिदोष । ज्ञान-दर्श चारित्र त्रय देत मनुज को मोक्ष । मेदा-सक्कर-घीय से सीरो वर्ण सटाक । ज्ञान-दर्श-चारित्र ते मिटे कर्म की छाक । तेल-बती-दीपक मिलत अंधकार को नास। ज्ञान-दर्श-चारित्र ते मिले मोक्ष को वास । दाम-ठाम-हिय तीन ते बढे विणज व्यापार । ज्ञान-दर्श-चारित्र तिहु करदे भव जल पार । जल-वायु-अरु अग्नि त्रय करे यंत्र विस्तार । ज्ञान-दर्श-चारित्र तें छूटे आत्मविकार । नीम-गिलोय-चिरायता ज्वरनाशक ये तीन । ज्ञान-दर्श चारित्र तिन राग-द्वेष क्षय लीन । मसि-कागज-अरु लेखिनी लिखे जु मन का भाव । ज्ञान-दर्श-चारित्र ते समजे आत्म-स्वभाव । वर्षा-धरती-बीज ते होवे शाख सवाय ।
ज्ञान-दर्श चारित्र ते क्रोडो अघ मिट जाय।' उक्त उदाहरणो मे बताया है, जैसे हरड बेहडे और आवला इन तीनो के योग से त्रिफला बनता है, जो त्रिदोष का नाश करने वाला है, वैसे ही ज्ञानदर्शन चारित्र-कर्म दोष का नाश करके मोक्ष देने वाला है।
सीरा-हलुवा बनाने के लिए घी सक्कर और मेदा की जरूरत होती है, अधकार मिटाने के लिए तेल, बाती और दीपक (दीवट) की आवश्यकता होती है, व्यापार बढाने के लिए पैसा स्थान और हिम्मत की जरूरत होती है, यत्र व मशीन को चलाने के लिए पानी, हवा और अग्नि की जरूरत होती है, पुराने ज्वर को मिटाने के लिए नीम, गिलोय और चिरायता इन तीनो का घासा दिया जाता है, कविता व लेख लिखने के लिए स्याही, कागज और कलम चाहिए, धरती पर अन्न पैदा होने के लिए अच्छी भूमि,
१ मरुधर केसरी ग्रन्थावली पृ० ५८६
.
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जैन धर्म मे तप
वीज और वर्षा की जरूरत रहती है-जैसे उक्त वस्तुओ के विना उनके काम पूरे नही हो सकते न सीरा बन सकता है, न प्रकाश हो सकता है, न व्यापार हो सकता है, न मशीन चल सकती है, न ज्वर मिट सकता है, न लेख कविता लिखे जा सकते हैं और न खेती हो सकती है, उसी प्रकार ज्ञानदर्शन और चारित्र के विना मोक्ष नही मिल सकता, कर्म ज्वर का नाश नही हो सकता, ज्ञान का सम्पूर्ण प्रकाश नही हो सकता, सद्गुणो की पूर्ण खेती नही हो सकती । भाव यही है कि ज्ञान-दर्शन और चारित्र इन तीनो के मिलने से ही मोक्ष या मुक्ति मिल सकती है ।
चार मार्ग • इन्ही तीन मार्गों का विस्तार करके कही-कही मोक्ष के चार मार्ग भी वताये गये हैं
दानं च शील च तपश्च भादो, धर्मश्चतुर्धा जिनवांघवेन । निरूपितो यो जगतां हिताय,
स मानसे मे रमतामजस्रम् । दान, शील, तप और भाव-ये चार मोक्ष के मार्ग हैं, धर्म के अग हैं, भगवान ने ससार के कल्याणार्थ इनका निरूपण किया है।
उत्तराध्ययन सूत्र के मोक्ष मार्ग अध्ययन में भी मोक्ष के ये ही चार मार्ग बताये हैं
नाण च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा।
एस मग्गु त्ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदसिंहिं ॥२ -ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप--श्रेष्ठ ज्ञानी प्रभु ने मोक्ष के ये चार मार्ग बताये हैं । इन चारो का अनुसरण करके,इन मार्गों पर चलकर आत्मा मोक्ष मजिल तक पहुंच सकता है ।
वधुओ ! ये चार मार्ग ऐसे हैं, जिनमे कही बीच मे कोई घुमाव नही, नदी-नाले और घाटियां आदि नही, एक प्रकार के राजमार्ग हैं ये । हाँ,
१ शातसुधारस भावना (आचार्य विनय विजयजी) २ उत्तराध्ययन २८।२
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लक्ष्य साधना
चलने से पहले अपनी शक्ति को तोलकर देख लेना चाहिए । धीरे-धीरे चलने की शक्ति हो तो कोई बात नही, श्रावक धर्म बताया गया है, धीरे-धीरे ही चलो, पर चलते रहो, यह नही कि एक कोस चले और वही रुक गये, बैठ गये, थक गये और ली हुई जिम्मेदारी छोड भागे । यह मार्ग तो ऐसा है, जो चल पडा उसे सतत चलते ही रहना चाहिए। हर समय उसके कानो मे यही मत्र गूंजता रहे
चरैवेति चरैवेति घरन् वै मधु विदति
चरन् भद्राणि पश्यति चलते रहो, चलते रहो, चलने वाला ही अमृत प्राप्त करता है, चलने वाला ही मगल और कल्याण के दर्शन करता है। इसलिए साधक को बारवार यही प्रेरणा दी गई है
ओ चलने वाले, रुकने का तुम नाम कहीं भी मत लेना,
पथ मे जो बाधाएँ माथे, विजय उन्हीं पर कर लेना। हा, तो यह बता रहा था मैं कि मोक्ष प्राप्ति के ये चार मार्ग भी बताये गये हैं। वैसे इनके नाम चार है, किन्तु देखा जाय तो सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, ज्ञान जहां होगा, वहा दर्शन अर्थात् श्रद्धा (सम्यक्त्व) भी होगी, क्योकि श्रद्धा शून्य ज्ञान निर्वल होता है । उस ज्ञान में कोई शान्ति नही, वल नही, और तेज नही, जिस ज्ञान में श्रद्धा नही हो । भगवान ने तो यहां तक कह दिया है कि जिसे सम्यकदर्शन की प्राप्ति नही हुई हो उसे सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति हो ही नही सकती
नादसणिस्स नाणं
नाणेन विणा न हुति चरणगुणा । और सम्यक् ज्ञान के बिना चारित्र भी नही, चारित्र के बिना तप नही, और यह चारो नही तो फिर कुछ भी नहीं। बारह में से चार निकल गये तो ?
१ उत्तराध्ययन २८१३०
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जैन धर्म मे तप
आप कहेगे - 'आठ' पर यह तो कोई भी दूसरी-तीसरी कक्षा का विद्यार्थी बता देगा, फिर मैं आपसे क्यो
?
२६
पूछता
?
वादशाह ने पूछा -- बारह में से चार निकल गये तो कितने बचे आप जैसे ही सभासद बैठे थे, वोले - "हजूर । आठ बचे !”
वादशाह ने वजीर की तरफ देखा, वजीर वीरवल चुपचाप सव सुन रहा था । वादशाह बोले- वीरवल । तुम क्यो नही बोलते ?
वीरबल ने कहा - "हजूर । क्या वोलू ? वारह में से चार निकल गये तो कुछ नही बचा ?”
लोगो को आश्चर्य हुआ, क्या वीरबल जोड बाकी भी भूल गया ? वादशाह पूछा- कैसे ?
ने
वीरवल ने बताया
-
-वर्ष के बारह महीने होते हैं, उनमे चार महीने वर्पा
ऋतु के हैं, वर्षा होती है,
खेतो मे अन्न उपजता है, नदी नाले-सरोवर पानी से भर जाते हैं, समूची सृष्टि मे रग-रगीली छा जाती है, चारो तरफ आनन्द और सुख-समृद्धि लहराने लगती है । यदि वर्षा ऋतु मे चार महीने सूखे निकल गये तो ? सावन की वर्षा मिगसर पोष मे हो तो ? क्या हाल होगा ससार का ? अकाल पडेगा, लोग भूखो मरेंगे, प्यासे मरेंगे, लाखो करोडो मनुष्य दाने-दाने को तरसते फिरेंगे । यदि ये चार महीने निकल जाये तो ससार मे हाहाकार मच जाये . "
तो भाइओ | ये चार - ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप भी यदि जीवन मे न रहे तो फिर जीवन का भी वही हाल होगा जो चार मास निकलने से सृष्टि का होता है ।
शास्त्रो मे वैसे कई दृष्टियों से मोक्ष के अलग-अलग मार्ग भी बताये गये है । नय, निक्षेप आदि की दृष्टि से तथा साघना के विविध मार्गों की दृष्टि से भी इस पर विचार किया गया है । एक स्थान पर धर्म के चार द्वार वाताये हैं
१
स्थानाग ४|४
चत्तारि
धम्मदारा,
खतो, मुत्ती, अज्जवे महवे '
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लक्ष्य साधना
-~-क्षमा, सतोष, सरलता और नम्रता-ये चार धर्म रूप नगर में प्रवेश करने के लिए द्वार हैं। जिस जीवन मे ये द्वार खुले होगे, वही धर्म-नगर मे प्रवेश कर सकेगा।
इन्ही विचारो की प्रतिध्वनि वैदिक साहित्य में भी मिलती है। महर्षि वशिष्ठ ने भी कहा है
मोक्षद्वारे द्वारपाला श्चत्वार परिकीर्तिता ।
शमो विचार सन्तोषश्चतुर्थ साधुसंगम ॥' -मोक्ष द्वार के चार द्वारपाल हैं-~-शम-(वैराग्य) विचार (ज्ञान) सतोप और साधु संगति । इन चारो की सेवा किये बिना मोक्ष नगर में प्रवेश नही हो सकता । अर्थात् ये भी मोक्ष प्राप्ति के चार साधन हैं ।
विविध दृष्टियों आप जानते हैं. जैन धर्म स्याद्वादी है, अनेकातवादी है, वह प्रत्येक विषय को अनेक दृष्टियो से सोचता है, समझता है। जैसे वैज्ञानिक लोग आजकल उपग्रह छोडकर चन्द्रमा के तरह-तरह के चित्र ले रहे हैं, अलगअलग दिशाओ के फोटू लेकर फिर सब को मिलाकर देखते हैं कि कुल मिलाकर~चन्द्रमा का रूप कैसा है ? वहा क्या-क्या है ? इसी प्रकार जैन धर्म मे अनेक दृष्टियो से विचार करके अलग-अलग बाते बताई गई हैं, धर्म के अलग-अलग चित्र प्रस्तुत किये गये हैं-~-मोक्ष के अलग-अलग उपाय बताये गये हैं--कुछ तो मैंने आपके समक्ष रखे है। कुछ और रख रहा हू किन्तु आगे चलकर फिर सब एकत्रित हो गये हैं। जैसे सब नदियां एक समुद्र मे मिल जाती हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है
तस्सेस मग्गो गुरु विद्धसेवा
विवज्जणा बालजणस्स दूरा।
१ योगवाशिष्ठ ११५६
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२८
सज्झाय एगत निसेवणा य सुत्तत्थ सचितणया घिई च ।'
उस एकात सुख रूप मोक्ष स्थान तक पहुंचने का मार्ग है - गुरु एव वृद्ध जनो की सेवा, अज्ञानी और मूर्खजनो से दूर रहना, स्वाध्याय करना, एकात निर्दोष शुद्ध स्थान मे रहना, और बुद्धि से सूत्र अर्थ का चिन्तन करते रहना । यह है मोक्ष का मार्ग |
मुख्य रूप से इसमे भी ज्ञान और चारित्र की विशेष साधना ही बताई गई है, भाषा अवश्य भिन्न है, किन्तु भावना मे कोई अन्तर नही हैं । यह सव माथ-माथ तप चारित्र और ज्ञान के ही अग है ।
-
आचार्य हरिभद्र ने एक स्थान पर मुक्ति का एक मार्ग बताते हुए कहा है, " कषाय मुक्ति किल मुक्तिरेव - कपायो से मुक्त होना ही मुक्ति है । कपाय विजय ही मोक्ष का एक मार्ग है । यह भी बात सही है, कपायो को जीते और वीतराग बने विना मुक्ति कैसे होगी ?
विना राग-द्वेप का क्षय नही होगा
एक सूक्ति यह भी प्रसिद्ध है
जैन धर्म मे तप
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात !
१
वियान् विषवत् त्यज !
वधु । यदि मुक्ति चाहता है, तो विपयो को विप समझकर छोड़ दे । जब तक विषय वासना मन से नही हटेगी, तब तक मुक्ति नही होगी । क्योकि विपयो के चिन्तन से मन अपवित्र होता है,
विपयो के आचरण से चारित्र
का पतन होता है और अपवित्र एव पतित व्यक्ति को भी यदि मुक्ति मिल जाये तो फिर ससार पवित्रता और सदाचार का नाम ही भूल जायेगा |
इस प्रकार मोक्ष मार्ग की विविध दृष्टिया हमारे सामने आई हैं, विविध मार्ग बताये गये हैं, इन मार्गों की विविधता से घबराने की या चिंता करने की आवश्यकता नही है कि अव किस रास्ते से चलें ? कौन सा रास्ता ठीक है ? वास्तव मे ये सभी रास्ते ठीक हैं, सभी मार्ग आपको उमी केन्द्र
उत्तराध्ययन ३२
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लक्ष्य साधना
२९ पर पहुचायेगे । जैसे बडे नगर मे पहुचने के अनेक दिशाओ से अनेक मार्ग होते हैं, सभी मार्ग आकर उसके मुख्य केन्द्र पर मिल जाते हैं, यही बात इन मार्गों की है। फिर जैन धर्म तो समन्वयवादी है, वह विभिन्न मार्गों को देखकर झगडा नहीं करता, किंतु उनमे समन्वय करता है, वह कैची का काम करने वाला धर्म नहीं, कितु सूई का काम करने वाला है, टुकडो को जोड़ने वाला धर्म है। इसी दृष्टि से भगवान ने सब मार्गों को समन्वय करते हुए कहा है
जे आसवा ते परिस्सवा
जे परिस्सवा ते आसवा । जितने भी आश्रव–अर्थात् कर्म आने के, ससार मे भटकने के मार्ग हैं, उतने ही, अर्थात् वे सव मोक्ष के मार्ग बन सकते हैं, उन सब मार्गों से साधक निर्जरा भी कर सकता है, सिर्फ उसकी दृष्टि शुद्ध चाहिए। ध्येय मोक्ष का चाहिए, फिर तो विप भी अमृत बनाया जा सकता है । आचार्य ने कहा है
जे जत्तिआ अ हेउ भवस्स
ते चेव तत्तिया मुक्खे ।। जो, जितने हेतु, कारण ससार के हैं, वे और उतने ही हेतु मोक्ष के बन सकते हैं, वस, वनाने की कला आनी चाहिए। वह कला है वीतराग, दृष्टि ।
समन्वय
वधुओ । इस प्रकार अनेक बाते, अनेक मार्ग आपके सामने मैंने बताये हैं, शायद यह सुनकर आप भ्रम मे पड गये होंगे कि अब कौन से मार्ग का आचरण करें। ज्ञान, क्रिया, दान, शील, तप, भाव, गुरु सेवा, स्वाध्याय सूत्र चिंतन, एकात निसेवन, कपायपरिहार, विषयत्याग, शम, सतोप, वैराग्य, सरलता आदि विविध मार्ग आपने बता दिये, इनका निश्चय करना
१ आचाराग सूत्र ११४२ २ ओधनियुक्ति ५३
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जैन धर्म मे तप भी कठिन हो गया । लेकिन बात ऐसी नही है, जैसा मैंने वताया, यह उस एक ही चन्द्रमा के विविध चित्र समझ लीजिए। एक ही पहाड के विविध दृश्य समझ लीजिए । सवका केन्द्र एक ही है, मूल एक ही है, आपको इन विविधताओ मे नही ले जाकर एक ही केन्द्र पर लाऊ तो वह है तप । तप मे यह सव मार्ग समन्वित हो जाते हैं, ज्ञान भी, भाव भी, वैराग्य भी, सेवा भी, सवका समावेश तप मे होता है ।
जैन धर्म का तप केवल शरीर को सुखा देना मात्र नहीं है, केवल उपवास आदि करना ही तप नही है, तप का क्षेत्र बहुत विशाल है, बडा ज्यापक है, ज्ञान और क्रिया-दोनो ही तप है, तप चारित्र तो हैं ही, भाव के बिना तप होगा नही, ध्यान, विनय, गुरु सेवा आदि भी तप के मुख्य अग है, जिनका वर्णन आगे किया जायेगा-इस प्रकार मोक्ष के जितने भी मार्ग आपके समक्ष वताये गये हैं, उन सवका यदि एक नाम ही रखा जाय तो वह है-तप । जैसे सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्ना-हाथी के खोज मे सवके खोज समा जाते हैं, और सागर के आगन मे सब नदिया मिल जाती हैं, वैसे ही तप के आचरण मे मोक्ष के समस्त मार्ग समाहित हो जाते हैं। आत्मा को ज्ञानाभिमुख करने वाला भी तप है । ज्ञान प्राप्ति तभी होगी जब आप अध्ययन करेंगे, या गुरुजनो की सेवा करेंगे और ये दोनो ही तप के अग हैं, स्वाध्याय तप है, गुरुसेवा (वैयावृत्य) भी तप है। कपाय छोडना तप है, इन्द्रिय सयम तप है, कम खाना तप है, कम बोलना तप है, आसन, ध्यान करना तप है और दोपो का प्रायश्चित्त करना भी तप है। अब वताइए आत्मशुद्धि का ऐसा कौन-सा साधन है जो तप मे नही आया हो ? तप से ही आत्मा पर लगे कर्म आवरण दूर हटते हैं, तप से ही आत्मा शुद्ध होती है-सपूर्ण तप ही मुक्ति मार्ग का एकमेव साधन है, सभी साधन तप के अग है।
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तप की परिभाषा
• आपके सामने दो वाते स्पष्ट हो जानी चाहिए कि हमारा लक्ष्य क्या है, और उस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन क्या है ? लक्ष्य है मोक्ष | और उसका साधन है-तप ।।
शायद तप के नाम से आप चोक उठेंगे | जैसे बच्चा सिंह का या भूत का नाम सुनकर भयभीत हो उठता है, उसके रोगटे खडे हो जाते हैं, कानो की लवें लाल-लाल हो जाती हैं, वैसे ही तप का नाम सुनकर शायद् आपकी हालत हो जाये | आप सोचेंगे-तप ? भूख मरना ? पेट पर पाटी बाधना - 'ओह ! कितना कठिन काम है ? मनुष्य तलवारो के घाव सह सकता है, वाणो की पीडा भी हँसते-हँसते सह सकता है, किंतु भूख नही सह सकता । 'भूख भूवाजी पाजी' इसीलिए तो कही गई है । इसीलिए तो हमारे यहाँ के बारठ जी कहते रहे हैं-"सर्व वात खोटो एक सिर दाल रोटी है।"
किंतु वधुओ । किसने बताया कि तप का अर्थ केवल भूखो रहना है । जिस तप के नाम से आपके कान खडे हो जाते हैं, आपको मालूम भी है वह तप क्या है ? या खाली तप को बच्चो का 'होवा' समझ रखा है। आइये,
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जैन धर्म मे तप
तप के विपय मे, तप की परिभापा, उसका स्वरूप और उसके भेद समझ लें, फिर आप शायद् अपने आप ही कह उठेगे-'ओह । हमने तो कुछ और ही समझ रखा था, जिस तप को 'अलूणी सिला' कह रहे थे, वह तो मिसरी को रोटी है । हा, पहले तप का ज्ञान कीजिये, उसका स्वरूप समझिये ।
तप को विविध व्याख्याएं तप यह दो वर्णों का एक चमत्कारी शब्द है, इसमे अचिंत्य और असीम गक्ति छिपी है । जैसे 'अणु' दो वर्णों का छोटा सा शब्द है, परतु उसकी शक्ति कितनी विराट् है ? कितनी चमत्कारी है ? 'अणु शक्ति' के नाम से आज ससार चोकता है, और उसके अद्भुत कारनामो से, उसकी अद्भुत शक्तियो से वडे-बडे राष्ट्र भी भयभीत है । तो 'अणु' की तरह ही दो वर्ण का शब्द है 'तप' और वह भी अणु से अधिक शक्तिमान है । तप की शक्ति के समक्ष हजारो लाखो अणुवम धूल चाटते हैं। हा, तो उस महान् शक्तिपुत्र तप का अर्थ क्या है ? आवश्यक सूत्र की टीका मे आचार्य मलयगिरि ने बताया है
तापयति अष्ट प्रकार कर्म-इति तप ।' जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता हो, उन्हे भस्मसात् कर डालने मे समर्थ हो, उसे कहते हैं-तप ।
आपने ताप शब्द तो सुना ही है ? ताप का अर्थ है-गर्मी ! उष्णता ! धूप | कर्मों को स्थान-स्थान पर सुखे काठ की उपमा दी गई है, शुष्क घास बताया गया है, और उस घास को जलाने के लिए तप को अग्नि बताई है ।२ धूप जैसे पानी को सुखा देती है, गर्मी जैसे शीत को भगा देती है, वैसे ही तप कर्मरूप जल को सुखा देता है, भव रूप शीत को भगा देता है, इसलिए तप को ताप या आतप-धूप के रूप में समझना चाहिए ।
जैन आगमो के प्रसिद्ध चूर्णिकार जिनदासगणी महत्तर (समय वि० स०
१ आवश्यक मलयगिरि, खण्ड २ अध्ययन १ २ तापयति कर्म, दहतीति तप -पचाराक विवरण १६
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तप की परिभाषा
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६५०-७५० ) ने भी तप की व्युत्पत्तिजन्य परिभाषा करते हुए यही बात
कही है.
तप्यते अणेण पावं कम्ममिति तपो ।
जिस साधना आराधना से, उपासना से पाप उसे तप कहा जाता है । जैसे पहाडो पर बर्फ ast चट्टाने बन जाती हैं, उन पर चलो तो पाव फिसलने लगता है, ठिठुर ने लगता है, किन्तु यदि कोई उन चट्टानो के पास मे आग जलादे, तो उसके ताप से वे चट्टानें धीरे-धीरे पिघलने लगती हैं और पानी बन कर बह जाती हैं । इसी प्रकार आत्मा पर कर्मों की बडी बडी बर्फीली चट्टाने जमी हैं, जब तप की अग्नि प्रज्वलित होती है तो उसके ताप से ये चट्टानें पिघल कर बह जाती है । इसलिए उन कर्म रूप हिमखण्डो को उत्तप्त करने वाली शक्ति को 'तप' कहा गया है ।
आचार्य अभयदेवसूरि ने तप का निरुक्त - शाब्दिक अर्थ करते हुए कहा है
कर्म तप्त हो जाते हैंजमती है, पानी की बडी
रसरुधिर मास मेदाsस्थि मज्जा शुक्राण्यनेन तप्यन्ते, कर्माणि वाऽशुभानीत्यतस्तपो नाम निरुक्त | 2
- जिस साधना के द्वारा शरीर के रस, रक्त, मास, हड्डिया, मज्जा, शुक्र आदि तप जाते हैं, सूख जाते हैं, वह तप है, तथा जिसके द्वारा अशुभ कर्म जल जाते हैं वह तप है । यह तप की शाब्दिक परिभाषा है, जिसे सस्कृत मे निरुक्त कहते है । तप से देह भी जर्जर हो जाती है, शास्त्रों में तपस्वियो का वर्णन किया है— सुवखे, लुषखे निम्मसे- 'शरीर लूखा, सूखा, मास रहित, रक्त रहित हड्डियों का ढाचा मात्र बनजाता है, और कर्म तो उससे निर्मूल होते ही हैं । इस प्रकार देहगत प्रभाव और आत्मगत प्रभाव - दोनो ही दृष्टियों से तप की परिभाषा की है—तप्त करने वाला तप !
१ निशीथचूर्णि ४६
२ स्थानाग वृत्ति ५|
३
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जैन धर्म मे तप
इच्छा निरोध-तप
तप की शाब्दिक परिभाषा आपके सामने बताई गई है । अब उसकी अर्थ-परक अर्थात् भाव परक परिभाषा भी आपके सामने है ।
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वैसे जैन सूत्रो मे तप शब्द का हजारो लाखो बार प्रयोग हुआ है, वह जैन धर्म का प्राण समझा जाता है, जैन आचार की जननी भी तप ही है, किन्तु फिर भी आगमो मे तप की सीधी परिभाषा कही नही दी गई है । तप के फलादेश पर ही उसकी परिभाषाएँ निकल सकती हैं। जैसे कोई यह नही पूछता कि मा किसे कहते है, वैसे ही जैन साधको ने भगवान से कही यह नही पूछा कि 'प्रभो । तप किसे कहते हैं ? क्योकि वह माता की तरह हर साधक की परिचित पद्धति थी । तप का अर्थ क्या पूछना ? वह तो जीवन का सार ही है । किन्तु वाद में जब तप से साधक कुछ दूर हटने उसे तप की परिभाषा भी समझानी पडी कि तप का क्या अर्थ है, कहते हैं ?
लगा तो
तप किसे
तप की भाव-प्रधान परिभाषा करते हुए एक आचार्य ने कहा हैइच्छा निरोधस्तप
इच्छाओ का निरोध करना तप है ।
इस परिभाषा का वीज उत्तराध्ययन सूत्र मे मिलता है, जहा पर एक
प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने बताया है—
पच्चक्खाणेण इच्छानिरोह जणयह
प्रत्याख्यान - अर्थात् त्याग करने से इच्छाओ का निरोध हो जाता है । त्याग से इच्छा - आशा तृष्णा शात हो जाती है । वास्तव मे तप की यह भावात्मक और व्यापक परिभाषा है । जैन दर्शन मे समस्त त्याग प्रत्याख्यान सयम आदि को तप के अन्तर्गत मान लिया गया है, क्योकि जबतक त्याग नही होता, आशा तृष्णा छूटती नही तब तक सयम कैसे होगा ? और सयम नही होगा तो तप कैसे होगा ? भोजन की इच्छा का त्याग होगा तभी उपवास तप हो सकेगा ? शरीर की सुख-सुविधा को तृष्णा का त्याग होगा तभी
१ उत्तराध्ययन २६।१३
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तप की परिभाषा
कायक्लेश और कायोत्सर्ग तप होगा | मन के अहकार और कषायो का त्याग होगा-तभी विनय तप एव वैयावृत्य तप होगा । इस प्रकार जबतक इच्छाएँ नही रुकेगी तब तक तप नहीं हो सकेगा, सिर्फ मुह पर या पेट पर पट्टी बाघ लेने से कोई तपस्वी नही हो सकता किन्तु जो इच्छाओ पर सयम कर लेगा, मन को जीत लेगा तभी वह तपस्वी हो सकेगा। हा, तो इसी दृष्टि से तप का अर्थ हुआ~~-इच्छाओ का सयम । इच्छाओ का निरोध । ___तप की इस परिभाषा ने यह स्पष्ट उद्घोषित कर दिया है कि जो परम्पराएं सिर्फ देहदमन मात्र को तप मानती है वे तप के सपूर्ण स्वरूप से अन भिन्न है । तप वास्तव मे देह दमन तक सीमित नही है उसका अकुश इच्छा और वासना पर रहता है। इस परिभाषा ने तप के बाह्य और आभ्यन्तर-~ये दो स्वरूप बताकर दोनो को ही महत्व दिया है।
संयम भी तप है . शास्त्रो मे जहा-जहा सयम का वर्णन आया है, वहा-वहा तप का वर्णन अवश्य आया है, क्योकि जैसे जल के बिना मछली जीवित नही रह सकती, हवा के बिना अग्नि प्रज्वलित नहीं हो सकती, वैसे ही सयम के बिना तप की साधना भी चल नही सकती, वास्तव मे सयम और तप दो शब्द हैं, दोनो का भाव एक हा है। इन्द्रिय सयम, मन सयम, वचन सयम, ये सब तप के ही अन्तर्गत आते हैं। भगवान महावीर ने धर्म का स्वरूप बताते हुए कहा है
अहिसा सजमो तवो। धर्म-अहिंसा, सयम एव तप रूप है। ऊपर से तीनो शब्दो का अर्थ अलगअलग लगता है, किन्तु गहराई मे उतरने से तीनो मे ही अभेद दृष्टिगोचर होगा। तीनो एक ही वस्तु के तीन दृश्य जैसे लगेंगे। इसलिए मुख्य रूप से सयम, नियम, इच्छा-निरोध आदि को तप ही कहा जा सकता है। आचार्य सोमदेव सूरि ने कहा है
इन्द्रियमनसो नियमानुष्ठान तपर
१ दशवैकालिक १११ २ नीतिवाक्यामृत श२२
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जैन धर्म मे तप
पाच इन्द्रियाँ-स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षु एव श्रोत्र, और मन इनको वश मे करना, इन पर सयम रखना, इच्छाओ पर अकुश लगाना-बस इसी का नाम तप है । यही तप की सर्वमान्य परिभाषा है। ___तप का जैसा व्यापक और विस्तृत वर्णन जैन आगमो व ग्रन्थो मे किया गया है-उसके अनुशीलन से यह निश्चित ही पता चलता है कि-जैन धर्म की समस्त साधना जो आचार प्रधान और ज्ञान प्रधान है, वह सब तपोमय ही है, तप का क्षेत्र इतना व्यापक माना गया है कि स्वाध्याय, अध्ययन, सेवा, भक्ति, अनशन, प्रायश्चित्त आदि जीवन की समस्त क्रियाए ही उसके अन्तर्गत आती हैं। अगले प्रकरणो मे पृष्ठ स्वय यह बतायेंगे ।
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४
तप की महिमा
जैनेतर ग्रन्थों में
तप तेज है
ससार मे वही जीवन श्रेष्ठ होता है जो तेजस्वी होता है, प्रभावशाली, ओजस्वी और ज्योतिर्मय होता है । तेजोहीन, ज्योतिहीन निष्प्रभ जीवन निष्प्राण शरीर के समान है ।
आपको जानना चाहिए कि जीवन मे 'तेजस्' ही मुख्य तत्त्व है । इसी तेजस् तत्व को 'तप' कहा जाता है। वैदिक सहिताओ मे प्रायः तपस् के स्थान पर व तपस् के अर्थ मे 'तेजस् शब्द का ही प्रयोग किया गया है । तेजस्वी बनने के लिए 'तपस्' की साधना का उपदेश किया गया है ।
तप रहित जीवन मिट्टी का वह दीपक है, जिसके पास आकार तो है, किन्तु ज्योति नही है, क्या ऐसे ज्योतिहीन हजार लाख दीपको से भी कुछ बनने वाला है ? "दीव सयसहस्त कोडीवि ?' उन करोडों दीपको से भी क्या लाभ है, जिनमे ज्योति नहीं है ।
१. आवश्यक निर्युक्ति
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जैन धर्म मे तप
कहावत है
अमावस की रात आये वराती,
घर मे खाये ठोकर, न तेल, न वाती । तो तप रहित जीवन भी ऐसा मिट्टी का दीपक है, जिसमे न तेल है न वाती, वह किसी भी काम का नहीं, उसका कोई महत्व नहीं ।
जैसे फूल तो हो, पर उसमे मीठी सुगन्ध न हो, दीखने मे वडा सुन्दर लगे, आखें तो ललचाती रहैं, किन्तु जव नाक के पास लें तो वस, सुवह हो जाय ' न सौरभ न परिमल --जिसके लिए कहा जाता है:
रूप रूड़ो गुणवायरो
रोहीड़ा रो फूल नदी मे यदि जल न हो, अग्नि मे यदि तेज न हो, गाय को यदि दूध न हो, तो जैसे वे निरुपयोगी और सारहीन मानी जाती है, वैसे ही तप रहित जीवन-सारहीन, महत्वहीन, तेजोहीन और पृथ्वी का भा भूत माना जाता है । क्षत्रिय मे यदि तेज न हो, घोडे मे यदि तेजी न हो और साधक मे यदि तगस् की तेजस्विता न हो तो वे मिट्टी माने जाते हैं।
राजस्थानी मे कहावत है-दीधी पण लागी नहीं रोते चूल्है फूफ-चूल्हा ग्वाली पडा हो, ठडा पड़ा हो, देवता-अग्नि वुझ गयी हो, एक भी चिनगारी न हो और भोजन बनाने वाली बहन लकडियां डालकर फू-फू-फूक मारती रहे तो क्या होगा ? राख उडकर उलटी मुह पर ही तो आयेगी | आँखो मे राख भर जायेगी । न ज्योति जलेगी, न खाना पकेगा । एक नही, हजार लाख फूक भी वेकार है, ठडे चूल्हे पर ! इसी प्रकार तप अग्नि से शून्य जीवन-'ठडा जीवन है, खाली चल्हा है, उसे कितनी ही प्रेरणा दो, कोई लाभ नही !'
तप जीवन का प्राण है, जीवन का ही क्या, धर्म का, मस्कृति का, राष्ट्र का और समस्त विश्व का प्राण तत्व है। वैदिक ग्रन्यो में बताया गया है
तपसा वै लोक जयन्ति
.
सतपय वाटाण ॥४।४।२७
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तप की महिमा
तप रूप तेजस् शक्ति के द्वारा ही मनुष्य ससार मे विजय श्री एव समृद्धि प्राप्त कर सकता है।
सिद्धियो का मूल , तप जितनी भी शक्तियाँ हैं, विभूतियाँ हैं, लब्धियाँ है, यहाँ तक कि केवल ज्ञान और मोक्ष भी जो हैं, वह तप के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है । समूचे धर्म ग्रन्थो के इतिहास मे, ससार के इतिहास मे ऐसा एक भी उदाहरण नही मिलेगा कि तप के विना किसी ने कुछ लब्धि, उपलब्धि, ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त की हो। तप से असख्य शक्तिया प्राप्त होती हैं। अगणित विभूतिया प्राप्त होती हैं । शास्त्र में कहा हैं
परिणाम तव वसेण इमाईहुति लद्धीओ। जितनी भी ल ब्धिया हैं, वे सब तप का ही परिणाम हैं । तप साधना से आत्मा मे अद्भुत ज्योति प्रदीप्त होती है, एक विचित्र, प्रवल शक्ति जाग्रत होती है, और उस शक्ति से आत्मा मे ये समस्त विभूतियाँ ऐसे प्रस्फुटित हो जाती है जैसे कमल कलिका मे अपूर्व रूप एव सौरभ ।
कहावत है-वर्षा भी कव होती है, जब सूर्य तपता है, यदि जेठ मे सूर्य न तपे, मिगसर पौष जैसा ठडा बना रहे तो क्या समय पर वृष्टि हो सकती है ? और वृष्टि के विना सृष्टि का क्या हाल होगा ? तो सृष्टि का आधार वृष्टि है, और वृष्टि का कारण है सूर्य का तपना ! यह तो एक प्राकृतिक उदाहरण है जिसे आस्तिक और नास्तिक सभी स्वीकार करते हैं, मुझे आश्चर्य है इस बात का कि प्राकृतिक उदाहरण आपके सामने होते हुए भी आप राह क्यो नही समझ सकते कि जीवन की सृष्टि मे भी सदगुणो की वृष्टि तभी होगी, प्रभाव, और तेज की वृद्धि तभी होगी जब जीवन तपेगा, तप से निखरेगा, तेजस्वी वनेगा । भारतीय संस्कृति का एक प्रसिद्ध सूक्त है-तपोमूला हि सिद्धय.--- समस्त सिद्धिया तप मूलक हैं, सब की जड तप है।
१ प्रवचन सारोद्वार, द्वार २८०, गाथा १४६२ ।
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. जैन धर्म मे तप तप की महिमा मैं आपको बता रहा हूँ, वह सिर्फ मेरे चिंतन और विचार की बात नही, किंतु समस्त धर्मों के चिंतन की भूमिका है । जैनधर्म मे तो तप की अपार महिमा है ही, वैदिक धर्म मे भी उसकी महिमा मुक्त कठ से गाई गई है, लीजिए पहले वैदिक दृष्टि से तप की महिमा ।
सृष्टि रचना का मूल : तप यद्यपि जैन दर्शन सृष्टि की उत्पत्ति और आदि मे विश्वास नहीं करता है, किन्तु हमारा पडौसी वैदिक दर्शन इस बात मे गहरा विश्वास रखता है। उसके ग्रथों मे सृष्टि उत्पत्ति की सैकडो रोचक कहानियाँ भरी पडी हैं । हम यहा अपने विषय पर ही चलना चाहते हैं मत हमे सिर्फ यह बताना है कि वैदिक धर्म मे सृष्टि की उत्पत्ति का मूल स्रोत भी तप ही माना है । वहा बताया गया है
"सृष्टि के पहले यह जगत् कुछ भी नहीं था न स्वर्ग, न पृथ्वी और न अन्तरिक्ष । प्रजापति के मन मे इच्छा उत्पन्न हुई, इस असत् को सन् रूप मे बनाया जाय। उसने तप किया । तप के प्रभाव से धूम्र उत्पन्न हुआ। पुन. तप किया, उसमे से ज्योति प्रकट हुई। फिर तप किया, ज्वाला उत्पन्न हुई । पुन तप करने से ज्वाला का दिव्य प्रकाश फैला, क्रमश समुद्र वना और फिर क्रमश सृष्टि की रचना सपन्न हुई।"
इस उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ब्रह्म-जिन्हें वैदिक अन्य जगत्पिता और प्रजापति कहते हैं, उन्हें सृष्टि रचना का अपूर्व सामर्थ्य कैसे प्राप्त हुआ ? तप के द्वारा ही तो! तप के द्वारा ही वे अपनी विराट शक्तियो को जागृत और उद्दीप्त कर सके और एक महान विचित्र सृष्टि करने में सफल हुए।
१ इद वा अग्रेनैव किञ्चनासीत् तदस देव सन् मनोऽकुरुत स्यामिति तदतप्यत । तस्मात्तपेनाध्घूमोऽजायत । तद्भूयोऽतप्यत ।
-~-कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीयब्राह्मण २६ (ख) म तपोऽनप्यत, म तपस्तप्त्वा इद मर्व अमृजत ।
तैत्तिरीय आरण्यक ८६
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तप की महिमा
वैविक ग्रन्थों में तप की गरिमा वेदो एव उपनिषदो मे स्थान-स्थान पर तप की महिमा गाई गई है और बडे ही मुक्त मन से, श्रद्धा भरे हृदय से ! कुछ सूत्र देखिए
तपो में प्रतिष्ठा तप ही मेरी प्रतिष्ठा है। श्रेष्ठो ह वेदस्तपसो ऽधिजात २ श्रेष्ठ और परम ज्ञान तप के द्वारा ही प्रकट हो जाता है।
यो ऽसौ तपति स वै शसति' जो तपता है, अपने कर्तव्य मे जुटा रहता है, वह ससार मे सर्वत्र यश कीर्ति प्राप्त करता है।
सपो वाऽग्नि स्तपो वा दीक्षा तप एक अग्नि है, तप एक दीक्षा है।
___ श्रमेण लोकास्तपसा पिपति श्रम ( सयम-~-इन्द्रिय निग्रह ) एव तप के द्वारा ससार की रक्षा की जाती है।
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नतम् ।। ब्रह्मचर्य एव तप के द्वारा देवताओ ने मृत्यु को जीत लिया, अर्थात तप से ही वे अमर बन सके।
सामवेद मे बताया है-सरलात्मा देवताओ ने धूर्त एव दुष्ट राक्षसो को कैसे जीता ? तो कहा कि अपने तपस् के द्वारा
१ तैत्तिरीय ब्राह्मण ३१७१७० २ गोपथ ब्राह्मण १।११६ ३ गोपथ ब्राह्मण २।५।१४ ४ शतपथ ब्राह्मण ३।४।३।३ ५ अथर्ववेद ११३५१४ ६ अथर्ववेद १११५३१६
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जैन धर्म मे तप नियायिनस्तपसा रक्षसो दह- तपस् तेज के द्वारा देवताओ ने राक्षसो को पराजित कर भगा दिया।
तपसा चीयते ब्रह्म तप के द्वारा ही ब्रह्म-ज्ञान एव परमात्मपद प्राप्त किया जाता है ।
____ तस्य तपो दम फर्मेति प्रतिष्ठा आत्मज्ञान का मूलाधार इन तीन बातो पर टिका है-तप, दमइन्द्रिय निग्रह) और सत्कर्म ।
तपो ब्रह्मति तप ही स्वय ब्रह्म है।
ऋतं तप सत्यं तप श्रुतं तप
शान्तं तपो दानं तपः ऋत (मन का सत्य सकल्प) तप है, सत्य (वचन-यथार्थ भापण) तप है, श्रुत (शास्त्र श्रवण) तप है, शाति (इन्द्रिय विपयो से विरक्ति-वैराग्य) तप है, और दान तप है । अर्थात् धर्म के समस्त अग तप ही हैं ।
___सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा यह आत्मा सत्य और तप के द्वारा प्राप्त किया जा मकता है। अर्थात् तप के द्वारा ही आत्मदर्शन व आत्मस्वरूप की प्राप्ति सभव है । ___ महाभारत (आदिपर्व ६०।२२) मे स्वर्ग के मात द्वार वताये हैं जिनमे पहला द्वार है-तप ।
इस प्रकार वैदिक दर्शन के मान्य ग्रथो को पढने पर पृष्ठ-पृष्ठ पर आपको तप की महिमा, उसकी अपारशक्ति और उसके विराट स्प का
१ सामवेद पूर्वाचिक ११११११० २ मुण्डक उपनिपद १२११८ ३ केन उपनिपद् ४११ ४ तैत्तिरीय आरण्यक ६२ ५ तैत्तिरीय आरण्यक १०१८ ६ मुण्टक उपनिपद् ३३११५
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तप की महिमा दर्शन हो सकता है । महपिं मनु ने तो कह दिया है कि ससार मे जो कुछ है सो तप ही है
यद् दुस्तर यद् दुरापं यद् दुर्ग यच्च दुष्करम्
सर्व तत् तपसा साध्यं तपोहि दुरतिक्रमः ।' मसार मे जो कुछ भी दुस्तर है, दुष्प्राप्य है-अर्थात् कठिनता से प्राप्त होने वाला है, दुर्गम है, दुष्कर है वह सब कुछ तप के द्वारा पाया जा सकता है, साधा जा सकता है । तप की शक्ति के समक्ष अन्य कुछ भी दुष्कर नहीं है, जो दुष्कर है, दुर्लध्य है, वह स्वय तप ही है । यही एक अमोघ महाशक्ति है, जो इसे साध लेता है वह ससार की समस्त कठिनाइयो पर, समस्त शक्तियो पर विजय प्राप्त कर सकता है। तप सब को जीत सकता है, तप को कोई नहीं जीत सकता।" ___ तो यह है तप की महिमा । अब बौद्धधर्म के पृष्ठो को भी पलट लीजिए, देखिए वहाँ भी कितने मुक्तमन से तप की महान् शक्तियो का तप की सार्वभौमता का वर्णन किया गया है ।
बौद्ध धर्म में तप का स्थान हमारे जैन धर्म का एक निकट पडौसी धर्म है बौद्धधर्म । जैन और वौद्ध दोनो ही श्रमण नाम से पुकारे जाते हैं। इन दोनो धर्म परम्पराओ मे काफी निकटता भी रही है, यद्यपि आज भारतवर्ष मे बौद्ध धर्म का वह स्थान नही रहा, जो प्राचीन समय मे था, फिर भी उस धर्म का विश्व मे काफी फैलाव हुआ है । हा, तो बौद्ध धर्म मे भी तप के सम्बन्ध में क्या विचार है-~-सक्षेप मे मैं आपको बता दू ।
आमलोगो मे यह धारणा है कि महात्मा बुद्ध तप के विरोधी थे। कहते हैं कि-छह वर्ष तक कठोर तपस्या करते-करते वे तप से ऊब गये थे, साधना मे सफलता नहीं मिल रही थी। एक दिन वे उदासीन, चिन्तामग्न' से बैठे थे, तभी कोई गायक मडली उनके पास से निकली। उनमे एक अनुभवी गायिका किसी नवशिक्षित युवती से कह रही थी-"देखो, सितार के
१ मनुस्मृति ११।२२६
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जैन धर्म मे तप तारो को इतना ढोला न छोड़ो, कि वे वजे ही नही, और न इतना ज्यादा कसो, कि वस टूट जाये ।"
तपस्या से उद्विग्न बुद्ध ने ये शब्द सुने तो उनके मन मे एक प्रकाश सा जगा, कि सचमुच जीवन इतना आराम-भोगप्रधान भी नहीं होना चाहिये कि वह एकदम शिथिल, दुर्बल और क्षीण हो जाय कि संयम का स्वर भी नहीं सध सके, और न इतना कठोर, देहदण्ड भी हो कि बस मन अशात और उद् विग्न रहे । ध्यान मे स्थिरता व शान्ति भी न रह सके । इसी विचार से प्रेरित हो बुद्ध ने कठोर देह दण्ड का मार्ग छोडकर मध्यम मार्ग अपनाया।
महात्मा बुद्ध के जीवन की यह घटना बहुत प्रसिद्ध है और मध्यम मार्ग के समर्थक इसका जोरदार शब्दो मे मण्डन भी करते हैं । किन्तु बौद्ध धर्म को गहराई से पढने वाले जानते हैं कि इस घटना के बावजूद भी उस धर्म मे तप का महत्व कम नहीं हुआ । प्रारम्भ मे बुद्ध स्वय छह वर्ष तक कठोर तप करते रहे हैं। और इस घटना प्रसंग के बाद भी उन्होने तप साधना का मार्ग छोडा नही। मज्झिमनिकाय के महासीहनाद सुत्त मे सारिपुत्र के समक्ष वे अपनी कठिन तपश्चर्या का रोमाचक वर्णन सुनाते हैं । अपने पूर्वजन्मो मे की गई कठोर तपश्चर्या की अनेक कहानिया वे लोगो को बताते है और तपस्या की प्रेरणा भी देते हैं । जीवन रूप खेत में धर्म और सत्कर्म की फसल लगाने के लिए वे श्रद्धा को वीज वताते हैं और तपश्चर्या को वृष्टि
सखा वीजं तपो वुट्टि श्रद्धा मेरा वीज है, तप मेरी वर्षा है ।
बुद्ध ने चार उत्तम मगलो मे 'तप' को सर्व प्रथम उत्तम मगल माना है और इसकी आराधना की प्रेरणा दी है।
एक बात यह भी जान लेनी चाहिए कि वैदिक और जैन दर्शन की भांति
१ मुत्तनिपात ११४२ २ महामगल मूत्र
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तप की महिमा बुद्ध ने तप को कठोर देह दण्ड के अर्थ मे कम लिया है, चित्त शुद्धि के प्रयास के अर्थ मे अधिक । हा, यह बात भी समझ लेनी है कि जैन धर्म भी तप को केवल देहदण्ड नहीं मानता, चित्त शुद्धि, ध्यान आदि को भी वह तप ही मानता है, और इस प्रकार विचार करे तो जैन धर्म का आभ्यन्तर तप बौद्ध ' धर्म मे भी अपनाया गया है ।
बुद्ध ने भिक्षुओ के लिए अति भोजन का वर्जन किया है, साथ ही एक समय भोजन का विधान भी । रसासक्ति का निषेध है। प्रायश्चित के रूप मे बौद्ध ग्रथो मे प्रावारणा का विस्तृत विधान है। स्वाध्याय एव ध्यान का भी बौद्ध साधना में काफी विस्तार के साथ वर्णन है !
बुद्ध के निर्वाण के बाद तो सिद्ध, नाथ, धुतग आदि साधुओ मे तप की अनेक कठोर प्रक्रियाएं चल पडी । वे जगलो में रहकर विविध प्रकार की तपश्चर्या करते थे। इसीलिए डा० राधाकृष्णन बौद्ध साधको की तपस्या के विषय मे लिखते हैं-"यद्यपि बुद्ध सैद्धान्तिक दृष्टि से निर्वाण की उपलब्धि तपश्चर्या के अभाव मे भी सभव मानते हैं फिर भी व्यवहार मे तप उनके अनुसार अति आवश्यक सा प्रतीत होता है ।२ बौद्ध साधको की तपस्या ब्राह्मण ग्रन्थो मे वर्णित तपश्चर्या से कम कठोर प्रतीत नही होती है।"3
भारत के वैदिक एव बौद्ध-दोनो ही धर्मों में तप का अपार महत्व है, तप को जीवन-शुद्धि और सिद्धि का प्रमुख तत्त्व माना है ।
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१ दीपवश २ इडियन फिलोसफी, पृष्ठ ४३६ प्रथम भाग ३ वहीं
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जैनधर्म में तप का महत्व
कल्पना कीजिए-~-यदि आकाश मे सूर्य नहीं तपता, तो इस पृथ्वी की क्या स्थिति होती ? न वर्षा होती, न मधुर अन्न उत्पन्न होता, न जीवनदायिनी वनस्पतिया पैदा होती । न मधुर रसीले फल वृक्षो की डाली पर चमकते और न भीनी सुवास से भरे फूल सृष्टि की गोद को रग-विरगी बनाते । सूर्य के तपने से ही समूचा सृष्टि-यत्र ठीक प्रकार से चलता है । ___जीवन का यत्र भी इसी प्रकार तप के द्वारा सचालित होता है । जिस तन मे तेजस न हो, वह तन 'शव' कहलाता है, जिस मन मे तेजस न हो, वह मन निष्क्रिय होता है, निप्प्राण होता है । कर्तृत्व एव पुरुपार्थ की नदी जीवन मे तभी वहती है और सुख एवं आनन्द के मधुर फल भी तभी प्राप्त होते हैं जव जीवन मे तप की तेजस्विता होती है।
जैनधर्म मे 'तप' को धर्म का प्राण तत्त्व माना गया है । जैनधर्म का सदेशवाहक 'श्रमण' एक कठोर तप की जीती जागती प्रतिमा है । आपको मानूम होना चाहिए-आज जिसे हम जैनधर्म कहते हैं, वह प्राचीन समय में 'निर्गन्य धर्म' या 'श्रमण धर्म' कहलाता था । जैन आगमो से पता चलता है कि-प्राचीन समय मे भगवान महावीर को 'जैन मुनि' नही, किंतु स्थानस्थान पर निग्गये नायपुत्ते' अथवा 'समणे भगय महावीरे' इन्ही विशेषणो
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जनधर्म मे तप का महत्व से पुकारा गया है इससे यह पता चलता है कि पूर्वकाल मे जैन मुनियों को निम्रन्थ और श्रमण ही कहा जाता था। भगवान महावीर ने साधु के चार नाम बताये है
माहणे ति वा, समणे ति वा,
भिक्खु त्ति वा, निग्गन्थे त्ति वा। इन नामो पर विवेचना करते हुये वृत्तिकार आचार्यशीलाक ने बताया है-किसी भी प्राणी का हनन मत करो, अर्थात् सब प्राणियो पर दयाभाव रखो जिसकी ऐसी वृत्ति हो, वह माहन है
मा हण त्ति प्रवृत्तिर्यस्याऽसौ माहनः ।
जो शास्त्र की नीति व मर्यादा के अनुसार तप साधना करता हुआ कर्म वधनो का भेदन करता है वह भिक्ष, है
यः शास्त्रनीत्या तपसा कर्म भिनत्ति स भिक्षु २
आचार्य भद्रबाहु ने भिक्ष, की एक सुन्दर व्याख्या और की है--- जो भिदेइ खुह खलु सो भिक्खू भावओ होइ जो मन की भूख-अर्थात् तृष्णा एव आसक्ति का भेदन करता है, वही भावरूप मे भिक्षु है।।
अव आप देखिये निम्रन्थ का अर्थ क्या है ? ग्रन्थि का अर्थ है-गाठ और परिग्रह । जो राग-द्वेष की गाठ से मुक्त हो, अथवा धन-धान्य आदि बाह्य परिग्रह एव राग-द्वेष मोह आदि आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त हो, वह निर्ग्रन्थ है । निर्ग्रन्थ की परिभाषा करते हुए बताया गया है-निर्गतो ग्रंथाद निर्गन्य:-जो ग्रथि अर्थात् गाठ से रहित है वह निम्रन्थ है । आचार्य उमास्वाति ने प्रशमरति मे बताया है
ग्रन्थः फर्माष्टविध, मिथ्यात्वाविरतिदुष्टयोगाश्च । तज्जय - हेतोरशठं संयतते य स निर्गन्य ।"
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१ सूत्रकृताग १११६११ २ दशवैकालिक वृत्ति अध्ययन १०, (आचार्य हरिभद्र) ३ उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा ३७५ ४ दशवैकालिक वृत्ति अध्ययन १, (आचार्य हरिभद्र) ५ प्रशमरति प्रकरण १४२
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जैन धर्म में तप
थे । वौद्ध ग्रंथों में स्थान-स्थान पर भगवान महावीर को दीघतपस्सी कहा
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ᄋ
गया है । उनकी रोमांचक तपस्या की चर्चा करते हुए महात्मा बुद्ध ने स्थानस्थान पर दीघतपस्सी निठो कह कर संबोधित किया है । इस दीर्घं तपश्चर्या
- ध्यान, स्वाध्याय भावना, आदि के द्वारा ही उन्होंने उपसर्गों की विकट अटवी को पार कर केवलज्ञान, केवल दर्शन के सुरम्य उद्यान में प्रवेश
किया |
तप से तीर्थंकरत्व
जैन धर्म में महानता की अलग-अलग क्रमिक श्रेणियाँ मानी गई हैं । सबसे उत्कृष्ट महानता अथवा महत्ता है तीर्थंकर पद की । तीर्थंकरों की लोगुत्तमाणं लोग नाहाणं - लोक में उत्तम, लोक के नाथ आदि विशेषणों से उनकी स्तुति की गई है । संसार में उनके जैसा पुण्यशाली अन्य कोई जीव नहीं होता । वे अनन्तबल, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख सौभाग्य के स्वामी होते हैं । हाँ, तो यह संसार की उत्कृष्टतम महान पदवी वे कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? क्या. तीर्थंकर पद किसी की जागीर या वपौती होती है ? नहीं ! वह पद प्राप्त किया जाता है साधना के द्वारा ! तीर्थंकर गोत्र वांधने के वीस वोल ज्ञातासूत्र में बताये हैं, उनका अवलोकन करने पर आप को पता चलेगा कि आत्मा सेवा, स्वाध्याय, तपस्या, गुरु आदि की भक्ति, ज्ञान आदि की आराधना में जव उत्कृष्ट भाव विशुद्धि को प्राप्त करता है, तभी वह तीर्थंकर गोत्र कर्म का उपार्जन करता है । विना साधना के सिद्धि नहीं मिलती, यह जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है और साधना का अर्थ ही है तप |
महान माना गया है ।
तीर्थकरों के बाद भावितात्मा अणगार का पद यह साधु का पद भी तपःसाधना के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । साधु होवं सो साथै फाया - जो शरीर को, मन को साधता है, तपाता है, वही साधु होता है | श्रमण की व्याख्या भी मैंने आपको बताई है— जो श्रम करता है. तप करता है वही श्रमण होता है, वही तपस्वी होता है । साधकों में हमारे यहां गौतम स्वामी की क्रिया को उनकी तपःसाधना को सर्वोकृष्ट और आदर्श माना गया है। भगवान महावीर के शासन में गौतम स्वामी
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जैनधर्म में तप का महत्व
उपकार के लिये, नर से नारायण बनने के लिए, जन से जिन बनने के लिए श्रम करता है, वही सच्चा श्रमण है । जैन आचार्यों ने उसे तपस्वी कहा है । देखिये आप प्राचीन आचार्यों के अमर वचन
श्राम्यति तपसा खिद्यति इति कृत्वा श्रमणो वाच्यः१ जो श्रम करता है, अर्थात् तपःसाधना करता है, तप से शरीर को खेदखिन्न करता है- इस कारण उसे श्रमण कहा जाता है। यही बात आचार्य हरिभद्रसूरि ने कही है
श्राम्यतीति श्रमणा तपश्यन्तीत्यर्थ:२ वास्तव में श्रमण शब्द तपस्वी का ही वाचक बन गया है, और जैनमुनि कठोर तपस्या का प्रतीक माना गया है । जैन श्रमण का जीवन मंत्र ही तप था। तप ही उसका धर्म था।
महानता का मार्ग : तप जैन धर्म का इतिहास पढेंगे तो पता चलेगा कि यहाँ जितने भी महापुरुष हुए हैं वे सब तपस्या करके हुए हैं । जितने भी ऊंचे और श्रेष्ठ पद हैं, उनको तप के द्वारा ही प्राप्त किया गया है। भगवान ऋपभदेव जो इस युग के आदि पुरुप थे उन्होंने एक हजार वर्ष तक कठोर तपस्या करके केवल ज्ञान प्राप्त किया। यह नहीं कि महापुरुष को वैसे ही कुछ सिद्धि प्राप्त हो जाये । वास्तव में तो तपस्या द्वारा ही महापुरुष बना जाता है। ऋषभदेव जैसे युग के आदिकर्ता को भी एक हजार वर्ष तक उग्र तप करना. पड़ा। भगवान महावीर ने भी बारह वर्ष और साढ़े छह मास तक कठोर उग्र और लोम-हर्षक तपःसाधना की थी, उनकी उग्र तपस्या को देखकर पास-पड़ोस के अनेक धर्माचार्य चकित हो गये थे, वे आश्चर्य और विस्मय के साथ भगवान महावीर की कठोर तपश्चर्या का उल्लेख भी करते
१ सूत्रकृतांग १।१६ की टीका, आचार्य शीलांक २ दशवकालिक वृत्ति ११३ आचार्य हरिभद्र ३ कल्पसूत्र १६६
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जैन धर्म में तप
तप से चक्रवतित्व संसार में भौतिक समृद्धि की दृष्टि के चक्रवर्ती का पद सबसे श्रेष्ठ । और सवसे दुर्लभ माना गया है। वह चक्रवर्ती पद कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? तपश्चरण के द्वारा। भरत. चक्रवर्ती ने अपने पूर्व जन्मों में हजारों वर्ष तक तपस्या, सेवा और स्वाध्याय तप की आराधना की थी, उसी के प्रभाव से वे चक्रवर्ती पद प्रात कर सके । सनत्कुमार चक्रवर्ती का भी . पूर्व-जीवन आपने पढ़ा होगा ? हजारों हजार वर्ष की तपस्या करने के बाद वे चक्रवर्ती पद पर आरूढ़ हुए । चक्रवर्ती के भव में जन्म लेने पर भी वे सहसा चक्रवर्ती नहीं बन गये । हरएक भौतिक उपलब्धि, समृद्धि के लिए उन्हें तप करना पड़ता है। चक्रवर्ती के तेरह तेले जैन परम्परा में प्रसिद्ध है । समय-समय पर तेले की तपस्या करके वे अपने कार्य को सिद्ध करते हैं।
जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में बताया है कि इस अवसर्पिणी काल के प्रथम .. चक्रवर्ती भरत की आयुधशाला में जब सर्वप्रथम चक्ररत्न प्रकट हुआ, (जिसके बल पर ही वे चक्रवर्ती कहलाये) तव आयुधशाला के रक्षक ने महाराज भरत को बधाई दी ! यह शुभ संवाद सुनकर भरत प्रसन्नता में .. झूम उठे। उन्होंने वधाई लाने वाले को बहुत-सा प्रीतिदान दिया, फिर चक्ररत्न की पूजा की और पश्चात् चक्ररत्न के अधिष्ठायक देव को प्रसन्न करने के लिए पौपधशाला में जाकर तीन दिन का निर्जल तप (अट्ठमभत्तं पगिण्हइ) तेला करके मागध तीर्थ कुमार नामक देव को प्रसन्न किया।
चक्रवर्ती की भांति वासुदेव बलदेव को भी जब अपने अभीष्ट कार्य . की सिद्धि के लिए विशेष सहयोग एवं दिव्यवल की आवश्यकता होतीतव-तब उन्होंने तप करके देवताओं की उपासना की और उन्हें प्रसन्न कर . अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त की ! ___ वासुदेव श्री कृष्ण, जो महान बलशाली, चतुर और अद्भुत पराक्रमी थे, सव यंत्र मंत्र तंत्र के मूल रहस्यों के वेत्ता थे वे भी द्रौपदी को धातकी.
१. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, ३. वक्षस्कार
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जैनधर्म के तप का महत्व
एक महान साधक थे । उनके विषय में आज भी हम श्रद्धा के साथ यह पद्य
न
बोलते हैं
अंगूठे अमृतवसै लब्धितणां भंडार। __ श्री गुरु गौतम सुमरिय वांछित फलदातार । गौतम स्वामी के अंगूठे में अमृत भरा था-इसका क्या अर्थ है ? अर्थात् तपस्या के द्वारा उनके शरीर का रोम-रोम, प्रत्येक अंग रसायन बन गया था, पारस बन गया था, अमृत हो गया था। जिस वस्तु को भी उनका स्पर्श हो जाता, वह कंचन हो जाती। यह लब्धि कठोर तपःसाधना के द्वारा ही उन्हें प्राप्त हुई थी। भगवान महावीर ने गौतम गणधर की कठोर तपःसाधना का वर्णन करते हुए शास्त्रों में स्थान-स्थान पर बताया है-उग्गतवेघोरतवे-तत्ततवे, महातवे' गौतम बड़े उग्रतपस्वी घोरतपस्वी और एक अद्भुत महान तपस्वी थे। तपस्या के द्वारा उनका शरीर अग्नि में तपे स्वर्ण की भाँति, कसौटी पर खिची स्वर्ण रेखा की भाँति दमकने लग गया था। और उनका तपश्चरण दुर्धर्प तो इतना था कि साधारण मनुष्य उसकी कल्पना करने मात्र से कांप उठता था । आचार्य अभयदेव सूरि ने लिखा है-यदन्येन प्राकृत पुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि तद्विधेन तपसा युक्तः२ साधारण मनुष्य जिस उग्र तपश्चरण की कल्पना भी नहीं कर सकता ऐसा, उग्रतपश्चरण गौतम करते थे। इसी कठोर तपःसाधना के द्वारा उनका शरीर कंचन कहो, पारस कहो या अमृत कहो वह बन गया था। इसी तपस्या के द्वारा ही उन्हें ऐसी महान तेजोलेश्या प्राप्त हुई थी जिसके प्रभाव से थोड़ा सा भी क्रोध आने पर सोलह महाजनपदों को क्षण भर में भस्मसात् किया जा सकता था। ___ तो यह अदभुत महानता, प्रभावकता गौतम को कैसे प्राप्त हुई ? इसके उत्तर में एक ही उत्तर है कि तपस्या के द्वारा !
१ (क) भगवती सूत्र १११ (ख) औपपातिक सूत्र २ भगवती सूत्र १११। वृत्ति पृ० ३५ ३ भगवती सूत्र शतक १५
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जैन धर्म में तप । कठोर उग्र तप:कार्य करने वाला बालतपस्वी यदि हमारा स्वामी बनने का . निदान कर वहाँ से आयुपूर्ण करे तो हमें सचमुच ही में एक महान प्रतापी तेजस्वी स्वामी प्राप्त हो सकता है ।'' बस फिर क्या था, अगणित अंसुरकुमार
और असुरकुमारियां सुन्दर दिव्य रूप बनाकर उसके सामने आये, बत्तीस प्रकार के दिव्य नाटक, संगीत आदि का प्रदर्शन कर तपस्वी को प्रसन्न करने की चेष्टा करने लगे। बड़े ही विनय के साथ वंदना कर उसे प्रार्थना करने लगे-हे महान तपस्वी ! हम पर दया करो, हम अनाथ हैं, स्वामिहीन हैं, आप जैसे स्वामी हमें प्राप्त हो जाय तो हम सब सुरक्षित और आनन्दपूर्वक जीवन यापन कर सकते हैं। इसलिए हम पर करुणा कर आप निदान (नियाणा) करें और यहाँ से आयु:पूर्ण कर हमारी वलिचंचा राजधानी के इन्द्र बनना स्वीकार करें।'
असुरकुमारों के द्वारा दीनता और विनय के साथ वार-बार प्रार्थना करने पर भी तामली तापस ने उसे स्वीकार नहीं किया और अपने चिंतन में ही मस्त रहा। फिर आयुष्यपूर्ण कर वह ईशान कल्प में ईशानेन्द्र के . रूप में जन्म लेता है। ___कहने का अभिप्रायः यह है कि उस तपस्वी को अपने स्वामी के रूप । में प्राप्त करने के लिए असुरकुमारों ने कितनी प्रार्थनाएँ की, कितनी दीनता दिखाई ? किसलिये ? इसीलिये कि यदि ऐसा तपस्वी हमारा स्वामी वन जाता है तो यह अपने तपस्तेज से समूचे स्वर्ग-विमानों को भयभीत और निस्तेज बना सकता है। तपस्या की शक्ति के समक्ष देवता और इन्द्र. . की भी शक्ति तुच्छ है. अल्प है, वे भी तपस्वी के चरणों की धूल सिर पर चढ़ाने को लालायित रहते हैं और उन्हें अपना स्वामी बनाने को उत्सुक !
__ आदिमंगल : तप तप सिर्फ भौतिक सिद्धि और समृद्धि का प्रदाता ही नहीं, किन्तु वह अनन्त आध्यात्मिक समृद्धि का प्रदाता भी हैं। मैंने बताया है आपको कि तीर्थकरत्व भी तप के द्वारा ही प्राप्त होता है । यही नहीं, किन्तु तीर्थकर वनने के।
१. ततेणं तुम्हें अम्हं ईदा भविस्सह-भगवती सूत्र ३१
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जैनधर्म के तप का महत्व
खंड से लाने के लिए जाते-आते समय समुद्र को पार करने के लिए तेला करके देवता को बुलाते हैं और उनका सहयोग मांगते हैं। माता देवकी की पुत्र को रमाने की इच्छा पूरी करने के लिए तेला करके देवता को प्रसन्न करते हैं और एक भाई की याचना करते हैं, जिसके फलस्वरूप गजसुकुमाल का जन्म होता है । तो इस प्रकार प्रत्येक कठिन कार्य की सिद्धि के लिए तप का सहारा लिया जाता रहा है । हर दुःस्साध्य कार्य को तप के द्वारा सुसाध्य बनाया जाता रहा है । हर एक दुष्कर और मानव के लिए असंभव लगने वाले कार्य को तप के द्वारा सुकर और सम्भव बनाया जा सकता है।
____ तपस्वी को देवता भी चाहते हैं तपस्या के द्वारा आत्मा की सुप्त शक्तियाँ जागत होती हैं, दिव्य वल .. प्रकट होता है और आत्मा एक प्रचंड शक्तिस्रोत के रूप में व्यक्त होता है । तपस्वी का तपोवल इतना प्रखर होता है कि मानव ही क्या, देवता
और इन्द्र भी उसके चरणों में झुकते हैं, उसको चाहते हैं, और उसकी शक्तियों से भय खाते हैं। वैदिक पुराणों में बहुत सी कथाएं ऐसी आती हैं जिनमें बताया गया है कि अमुक तपस्वी के तपोबल से इन्द्र महाराज का सिंहासन कांप उठा । इन्द्र भय खाने लगा कि कहीं मेरा राज्य यह तपस्वी छीन न ले । जैनशास्त्र भगवती सूत्र में वर्णन आता है कि एक बार असुरों की राजधानी बलिचंचा नगरी का इन्द्र आयु पूर्ण कर गया। दूसरा कोई इन्द्र वहां उत्पन्न नहीं हुआ। अब असुर घवराये-हम अनाथ-स्वामी रहित हो गये ? क्या करें ? नये स्वामी को कैसे कहाँ से प्राप्त करें जो शत्रुओं से हमारे राज्य की रक्षा कर सके ! ऐसा तेजस्वी स्वामी कहाँ से लाए ? इसी चिता में उलझे हुए असुरकुमारों की दृष्टि पड़ी एक घोर वाल तपस्वी पर ! वह बाल तपस्वी था तामली तापस । तामली तापस घोर तपश्चर्या कर रहा था, साठ हजार वर्ष तक वह लगातार बेले-बेले तप करता और पारणे में इक्कीस बार धोया हुआ चावल का सत्वहीन पानी लेता। इस कठोर तप से उसका. शरीर अत्यंत जर्जर हो गया, किन्तु तपस्तेज अत्यंत प्रचण्ड होकर दमक रहा था । असुरकुमारों ने तामली तापस को देखा तो सोचा-"यह
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तप का उद्देश्य और लाभ
बंधुओ ! एक व्यक्ति आम का वृक्ष लगाता है, उसकी खूब सेवा और सार-संभाल करता है, रातदिन उसकी देखरेख करता है, कोई उससे पूछे कि भाई, आम की इतनी सेवा कर रहे हो -आखिर किसलिए ? वह उत्तर देता है कि "समय पर आम पकेगा, वीर आयेगा और मीठे-मीठे फल लगेंगेउन फलों के लिए ही मैं इतना कष्ट कर रहा हूँ ।"
अब उसके पड़ोस में एक दूसरा व्यक्ति भी आम की वैसी ही सेवा कर. रहा है। उससे भी किसी ने पूछा- आप आम की इतनी देख-भाल किसलिये कर रहे हैं ? वह उत्तर देता है - " इस विशाल वृक्ष से छाया मिलेगी, कटेगा तब ढेर सारी लकड़ियाँ मिलेगी ।"
आप सोचिए - उन दोनों में चतुर कौन है और मूर्ख कौन है ? जो आम का फल चाहता है वह अथवा आम से लकड़ियां और पान -पत्ते चाहता हैं वह ? आप कहेंगे - आम से तो फल ही चाना चाहिए, छाया, पान पत्ते और लकड़ियाँ तो अपने आप ही मिलेगी । उसकी इच्छा और लालसा करने की जरूरत क्या है ?
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जैनधर्म के तप का महत्व
वाद भी अर्थात् तीर्थंकर के भव में भी तपःसाधना करनी पड़ती है । अनन्तवली तीर्थंकरों ने जीवन में जो भी शुभकार्य किये हैं, जैसे दीक्षा, केवल ज्ञान, धर्मदेशना आदि उनके प्रारंभ में भी सर्वप्रथम तपश्चरण करते हैं । प्रत्येक शुभकार्य की आदि में तप करते हैं। तपको उन्होंने परम मंगल माना है, महामंगल माना है ।१।
कल्पसूत्र में भगवान ऋषभदेव के जीवन का वर्णन करते हुए बताया है कि जब वे संसार त्याग कर दीक्षा लेते हैं तो पहले दो दिन का तप करते हैं-छद्रेणं भत्तेणं अपाणएणं केवलज्ञान के समय भी वे तपस्या में लीन रहते हैं । और सिर्फ भगवान ऋषभदेव ही क्या, सभी तीर्थंकर दीक्षा के, केवलज्ञान के और निर्वाण के समय तपःसाधना करते पाये जाते हैं। भगवान महावीर भी जिस दिन घर से अभिनिष्क्रमण कर दीक्षा के लिए प्रस्थान करते हैं उस दिन उनको वेले का तप होता है । केवलज्ञान के पूर्व भी वे वेले का तप कर ध्यान में लीन रहते हैं । इसका अर्थ है हर एक सिद्धि के मूल में तप ही मुख्य रहता है, तप मंगलमय है, वह सब विघ्नों का नाश करने वाला है, सब अरिष्ट उपद्रव को शांत करने वाला है। आपको ज्ञात होगा, प्राचीन समय में चातुर्मास प्रवेश के दिन, शास्त्र वाचन की आदि में मुनिजन तप का अनुष्ठान करते थे। इसका अभिप्राय यही था कि तपानुष्ठान के दिव्य प्रभाव से सव अनिष्ट दूर हो जाते, कार्य सुखपूर्वक संपन्न होता और मंगलमय वातावरण रहता।
- जैन परम्परा में तप को महानता का प्रशस्त मार्ग माना गया है, सव मंगलों में प्रमुख मंगल के रूप में ध्याया गया है और सर्वसद्धियों का मूल मंत्र मानकर इसकी आराधना की गई है।
१. धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा सजमो तवो- दशवकालिक १११.
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का
जैन धर्म में तप . ही भाव तप के द्वारा कर्म मल से मुक्त होकर आत्मा शुद्ध व पवित्र बन जाता है।
आत्मा के साथ जो अनन्त अनन्त कर्म दल चिपक कर उसे मलिन बना रहा है, उसके शुद्ध ज्योतिर्मय स्वरूप को ढक रहा है-तप की तेज पवन उन कर्म दलों को तितर-वितर कर आत्म-सूर्य की निर्मल ज्योति को प्रकट कर देती है । वस, तप का यही उद्देश्य है, यही उसका फल है।..
मनुष्य कोई काम करता है तो उसके सामने उसके फल की कल्पना भी रहती है । उद्देश्य और लक्ष्य भी रहता है। .
लक्ष्यहीन फलहीन कार्य को
मूरख जन आचरते हैं। . सुज्ञ सुधीजन प्रथम, कार्य का
लक्ष्य सुनिश्चित करते हैं। जो तप जैसा कठोर, देह दमनीय कार्य करता है वह विना उसका लक्ष्य समझे, बिना उसके फल की कल्पना किये कैसे करेगा ? क्या कोई किसान अपने खेत में ऐसे-तेसे बीज डालेगा जिनके लिए उसे यह भी नहीं मालूम हो कि इनके फल कैसे लगेगें? नहीं ! आप कोई भी कार्य करते हैं, . एक कदम भी चलते हैं तो पहले उसके परिणाम को सोचते हैं। फिर कार्य । करते हैं। तो तप का फल क्या है ? उद्देश्य क्या है ? तप किस लिये किया जाता है ? इस प्रश्न का उत्तर मैं भगवान महावीर की वाणी में ही दूंगा।
भगवान महावीर एक बार राजगृह नगर में पधारे। वहां पर गणधर .. इन्द्रभूति गौतम ने भगवान से कई प्रश्न पूछे, उनमें एक प्रश्न याक्ष तप के विषय में । गौतम ने पूछा
भगवन् ! तप करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ? . उत्तर में भगवान ने कहा-तवेण वोदाणं जणयइ ।' तप से व्यवदान होता है । व्यवदान का अर्थ है-दूर हटाना । आदान का अर्थ है ग्रहण करना और व्यवदान का अर्थ है छोड़ना, दूर करना । तो
१ उत्तराध्ययन २६२७
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'तप का उद्देश्य और लाभ
बंधुओ ! आचार्यों ने तप के विषय में भी यही बात कही है । तप रूप महावृक्ष से जो कि निर्जरा रूप मधुर फल चाहता है, वह सच्चा और चतुर साधक है और जो शरीर को भयंकर कष्ट व यंत्रणा देकर भी उस तप से सिर्फ यश, कीर्ति, ऋद्धि-सिद्धि और स्वर्ग की कामना करता है, वह मूर्ख, अज्ञान अथवा बालतपस्वी है।
जैन सूत्रों में तप की अद्भुत और अपार महिमा गाई गयी है, जिसकी एक झलक आप देख चुके हैं । उस तप के प्रभाव से अचिन्त्य लब्धियाँ, ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । यह सुनकर आपके मन में भी ललक उठेगी कि हम भी तप करें और अमुक शक्ति, अमुक लब्धि प्राप्त करलें, अमुक देवता को प्रसन्न करलें ! किंतु बंधुओ ! जैसा मैंने कहा-किसी ऋद्धि सिद्धि अथवा देवता आदि को प्रसन्न करने के लिए तप करना तो आम के महावृक्ष से लकड़ियाँ चाहने जैसा है । वास्तव में तप का उद्देश्य यह नहीं है । तप तो किसी महान लाभ के लिये किया जाता है--ऋद्धि-सिद्धि तो स्वतः ही प्राप्त हो जाती है जैसे धान की खेती में धान के साथ भुसा-पलाल भी होता है। किंतु क्या कोई पलाल व भुसा के लिए ही खेती करता है ? नहीं । इसी प्रकार किसी भौतिक लाभ के लिए तप नहीं किया जाता, तप आत्मशुद्धि के महान उद्देश्य से प्रेरित होकर ही किया जाना चाहिए।
तप का फल : निर्जरा मैंने आपको तप की परिभापा करते हुए बताया है कि जैसे अग्नि सोने को शुद्ध करती है, फिटकरी मैले जल को निर्मल बनाती है, सोड़ा या साबुन मलिन वस्त्र को उज्वल बनाता है उसी प्रकार तप आत्मा को शुद्ध निर्मल और उज्वल रूप प्रदान करता है । आचार्य भद्रवाहु ने कहा है
जह खलु मइलं वत्यं सुज्झए उदगाहिएहि दवेहि, ___ एवं भावुवहाणेण, सुज्झए फम्मट्ठविहं ।' जैसे मैला वस्त्र जल आदि शोधक द्रव्यों से उज्ज्वल हो जाता है,
१ आचारांग नियुक्ति २८२
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. .. .. जैन धर्म में तप .. श्रावकों से कही है और समस्त तीर्थङ्करों ने, आचार्यों ने भी यही बात कही . . है । सम्पूर्ण जैन संस्कृति का एक ही स्वर है–कि . .........
नो इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठयाए तवमहिछिज्जा,
नन्नत्य निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा।' . . . इह लोक की कामना और अभिलाषा से तप मत करो, परलोक की कामना और लालसा से तप मत करो! यश कीति और प्रतिष्ठा आदि के लिए भी तप मत करो ! तप करते हो तो केवल कर्म निर्जरा के लिए करो!
कामनायुक्त तप क्यों नहीं ? .. अव एक प्रश्न खड़ा होता है कि तप के उद्देश्य के विषय में इतना जोर क्यों दिया गया है कि "किसी भी भौतिक अभिलापा से तप मत करो! इहलोक परलोक के लिए भी तप मत करो!" इस निपेध का मतलब क्या है ? स्वर्ग के लिए तप क्यों नहीं किया जाय ?'
इस के उत्तर में आपको जैन दर्शन की दृष्टि समझनी होगी। आपको पता है जैन धर्म सुखवादी धर्म नहीं है, मुक्तिवादी धर्म है ।
जो सुखवादी धर्म है, वह सिर्फ संसार के सुखों में उलझा रहता है। • इस लोक में धन मिले, सुन्दर पत्नी मिले, यशकीति मिले और परलोक में स्वर्ग मिले । बस, यही उसका दृष्टिकोण रहता है, और इसीलिए वह सब कुछ करना चाहता हैं । लेकिन जो मुक्तिवादी धर्म है, वह कहता है सुख
और दुःख दोनों ही बन्धन है। आदमी सुख चाहता है, सुख के लिए प्रयत्न करता है, समझ लो, सुख प्राप्त भी हो जाता है, अब वह सुख भोगता है, ऐशो आराम करता है, किन्तु उस सुख-भोग के साथ नया पाप कर्म भी बांधता जाता है । शुभ कर्म क्षीण होता है,फिर अशुभ कर्म का उदय होता है। थोड़े से सुख के बाद भयंकर दुःख प्राप्त होते है । गीता में बताया है- जो
१ दशवकालिक ६।४
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तप का उद्देश्य और लाभ
तपस्या के द्वारा आत्मा कर्मों को दूर हटाता है। कर्मोका क्षय करता है । कर्मों की निर्जरा करता है। बस यही तप का उद्देश्य है और यही तप का फल है । तप से जो पाना चाहते हैं-वह यही फल है-निर्जरा ! व्यवदान !
जैन परम्परा में भगवान महावीर को तपोयोगी माना गया है। और भगवान पार्श्वनाथ को ध्यानयोगी। भगवान पार्श्वनाथ के युग में अज्ञान तप का बोल-बाला था । लोग भौतिक सिद्धियों के लिए कठोर देहदमन-अज्ञान तप करते थे। पंचाग्नि साधते थे, वृक्षों पर ओंधे लटकते थे। शीतकाल की भयंकर सर्दी में भी और हडकंपी पैदा करने वाली ठंडी हवाओं में भी पानी के भीतर खड़े रहकर तप जप किया करते थे। किन्तु कोई उनसे पूछता कि आप यह तप, जप, यज्ञ आदि क्यों करते हैं ? तो उनका एक ही उत्तर होतास्वर्गकामो यजेत ! स्वर्ग के लिए यज्ञ तप करो ! अमुक सिद्धि के लिए ! अमुक शक्ति को प्राप्त करने के लिए ! बस इससे आगे उनके समक्ष कोई उद्देश्य ही नहीं था। किन्तु भगवान पार्श्वनाथ ने तप का उद्देश्य जनता को समझाया-तप शरीर को सुखाने के लिए नहीं। ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिए नहीं ! किन्तु आत्मा को कर्म बन्धनों से मुक्त करने के लिए हैं । जो वात भगवान महावीर ने कही थी वही वात भगवान पार्श्वनाथ ने भी कही थी। उनके स्वयं के वचन व उपदेश भले ही आज हमारे पास नहीं है, किन्तु उनकी परम्परा के विद्वान श्रमणों के वचन आज भी भगवती सूत्र में. इस बात की साक्षी देते हैं कि भगवान पार्श्वनाथ ने तप का उद्देश्य क्या बताया है।
एक वार तुगियानगरी के तत्त्वज्ञ धावको ने भगवान पार्श्वनाथ के स्थविर श्रमणों से तत्त्व चर्चा करते हुए पूछा-भंते ! आप तप क्यों करते हैं ? तप का क्या फल है-तवे किं फले ? उत्तर में श्रमणों ने कहा-तवे बोदाण फले-तप का फल है व्यवदान ! कर्म निर्जरा ! तो जो वात भगवान महावीर ने गौतम स्वामी से कही है, वही वात पावसंतानीय श्रमणों ने
१ भगवती सूत्र २२५
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. जैन धर्म में तप हो जायेगा । इसलिए जो भी कार्य करो, वह अशुभ कर्म को नष्ट करने के लिए करो । अर्थात् अशुभ कर्म की निर्जरा के लिए करो। __दूसरी बात यह भी है कि भौतिक लाभ के लिए तप करने वाले का उद्देश्य बहुत सीमित है, वह छोटे से उद्देश्य के लिए ही बहुत बड़ा कष्ट उठाता है, जबकि कर्म निर्जरा के लिए तप करना असीम अचिन्तनीय फल देने वाला है । एक आदमी अमृत का उपयोग कीचड़ से सने पाँव धोने के लिए करता है और एक मरते हुए प्राणी को जीवन दान देने के लिए। अमृत के उपयोग में जिस प्रकार यह महान अन्तर हैं, उसी प्रकार तप के उद्देश्य में भी महान अन्तर है । भौतिक लाभ के लिए तप करना अमृत से पैर धोने जैसा है। चिन्तामणि रत्न को फेंककर कौओ उड़ाने जैसा मूर्खता . पूर्ण कृत्य है । आप जानते हैं कामना युक्त तप का फल सिर्फ स्वर्ग है,भौतिक लाभ है, जबकि निष्काम तप का फल सव कर्मों का क्षय कर अनन्त आनन्द- . मय मोक्ष को प्राप्त करना है । अव कौन मूर्ख है जो अपने अचिन्तनीय लाभप्रद तप के द्वारा अनन्त मोक्ष सुख की कामना को छोड़कर क्षणिक सुखों की . इच्छा करेगा।
इन दोनों दृष्टियों से सकाम तप का निषेध किया गया है। गीता में भी कहा गया है
असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः । अनासक्त भाव से जो श्रेष्ठ कर्म करता है वह परमपद को प्राप्त करता है और आसक्ति के साथ कर्म करने वाला तुच्छ लाभ को । एक लोक कथा प्रसिद्ध है
एक साधक ने चौदह वर्ष तक कठोर साधना की। उपवास किये, मौन .. रखा और फिर उसने जल पर चलने की सिद्धि प्राप्त की। यह सिद्धि प्रान्त
होते ही साधक अहंकार में फूल उठा । वह अपने गुरु के पास आया, और अहंकार से गर्दन ऊँची उठाकर बोला-"गुरुजी ! मेरी चौदह वर्ष की साधना सफल हो गई। मैंने जल पर चलने की सिद्धि प्राप्त कर ली । अव .
. १ गीता २०१६
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तप का उद्देश्य और लाभ स-काम कर्म करते हैं, पुण्य की अभिलाषा से, स्वर्ग की कामना से तप करते हैं, वे मर कर स्वर्ग को प्राप्त भी कर लेते हैं, किन्तु वहां अप्सराओं के मोह माया में फंसकर अपने समस्त पुण्यों का क्षय कर डालते हैं, और फिर पुण्य हीन होकर पुनः दुःखों के महागर्त में गिर जाते हैं ।
क्षीणे पुण्ये मयं लोकं विशन्ति इस प्रकार सुख-दुःख का यह चक्र चलता रहता है । दुख से घबराकर सुख की कामना करते हैं, स-काम कर्म करते हैं और सुख प्राप्त कर पुनः दुःख के योग्य कर्म वांधकर दुःख के गर्त में गिर पड़ते हैं। संसार के जितने भी सुख हैं, वे सब दुःख की खान है।
जितने सुख संसार में सारे दुःख की खान । जो सच्चा सुख चाहिए ले समता उर ठान ।
सुख-दुख का मूल : कर्म जैन दर्शन कहता है-सुख-दुःख के इस चक्र का मूल है कर्म ! संसार के समस्त सुख और दुःख कर्म से ही उत्पन्न होते हैं-कम्मुणा उवाही जायईकर्म से सभी उपाधियाँ उत्पन्न होती हैं। सभी प्राणी अपने कमों के कारण ही नाना योनियों में जन्म लेते हैं-सव्वे सय कप्पफप्पियारे-सव प्राणी अपने कर्म के अनुसार चलते हैं।
जं जारिसं पुवमकासि फम्म
तमेव आगच्छति संपराए। पूर्व जन्म में जिसने जैसा कर्म किया है इस जन्म में वही उसके भोग में आयेगा । कर्मवाद का यह शाश्वत नियम है। अव जैन दर्शन कहता हैसुख-दुःख तो कर्म के अधीन है। सुख-दुःख तो खुद सेवक हैं, राजा तो कर्म है - अशुभ कर्म को क्षीण करो तो दुख अपने आप क्षीण हो जायेगा और दुःख का क्षय होगा तो सुख भी स्वतः प्रगट हो जायेगा । दीपक जलाओगे तो अंधेरा अपने-आप मिट जायेगा, और अंधेरा मिटा तो प्रकाश स्वतः ही
१ आचारांग ११३३१ २ सूत्रकृतांग १।२।३।१८
सूत्रकृतांग १।५।२।२३
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जैन धर्म में तप
वेश्या बोली -- कल इस घर की एक काली-कलौटी लड़की ने एक मैले. कुचेले साधु को उड़द के वाकले दिये थे जिससे रत्नों की अपार वर्षा हुई । इधर आप भी न्हाये धोये उजले कपड़े पहने हैं और मैं भी न्हा घोकर आप को मिष्टान्न खिला रही हूं । तो अभी तक रत्नों की वर्षा क्यों नहीं हुई ?.... वेश्या की मूर्खता पर बावाजी को हँसी आ गई । वे बोले---.
वा सती वो साध थो, तू वेश्या मैं भांड़ ! यांरे-म्हारे योग सूं पत्थर पडसी रांड !
तो चंदना के दान में कितनी पवित्रता, कितनी निष्कामता थी, और वेश्या के दान में, वास्तव में वह दान भी नहीं था, वह तो मूर्खता पूर्ण सौदा था । तो बताना यह है कि निष्काम भाव से सुपात्र को दिया हुआ उडद का वाकला भी कितना महान फल देने वाला सिद्ध हुआ ! इसी प्रकार शुद्ध भाव से आत्मशुद्धि के लिए किया गया जप, तप, दान, सत्कर्म सभी अचिंतनीय और महान फल देने वाले हैं। भगवान महावीर ने इसीलिए कहा है— एक उपवास भी, एक नवकारसी भी किसी भौतिक कामना से नहीं करो । तप से पूजा, सत्कार स्वर्ग और देवी देवताओं की आराधना मत चाहो
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नो पूयणं तवसा आवहेज्जा'
तप से पूजा आदि की कामना मत करो, किन्तु तपस्या में एक ही पवित्र लक्ष्य सामने रखो - आत्मा की शुद्धि हो, कर्मों की निर्जरा हो ! कर्म दुख का मूल है, वह कर्म जब क्षय हो जायेगा तो दुःख अपने आप ही क्षीण हो जायेगा ।
तप से लाभ
भगवान ने बताया है कि तपस्या से आत्मा पवित्र होती है, सम्यक्त्व शुद्ध होता है । और आत्मा का ज्ञान, दर्शन, चारित्र, निर्मल, निर्मल तर होता जाता है
१
२
तवसा अवहट्ट लेसस्स दंसणं परिसुज्झइ
सुत्रकृतांग ७।२७
दशाश्रु तस्कन्ध ५६
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तप का उद्देश्य और लाभ मुझे आपके दर्शनों के लिए उस पार से इस पार आते समय नदी पार करने में कोई कठिनाई नहीं होगी। नाव की इन्तजार भी नहीं करनी पड़ेगी, जव चाहूँगा, तभी चला आवगा।" .
शिष्य की शेखी पर गुरुजी को कुछ हँसी भी आई और घृणा भी ! बोले-'मूर्ख ! क्या इस दो पैसे की सिद्धि के लिए ही चौदह वर्ष तक शरीर को सुखाकर कांटा बनाया है ? इसी काँच के टुकड़े के लिए जीवन के चौदह अमूल्य रत्न खोये हैं ? कोई भी नाविक सिर्फ दो पैसा लेकर तुझे नदी के इस पार से उस पार पहुंचा सकता है । इतनी सी तुच्छ वात के लिए इतना अहंकार ! अच्छा होता तू चौदह वर्ष क्या, चौदह दिन ही निष्काम भाव से कुछ भगवान का भजन करता तो तेरी आत्मा कितनी ऊँची उठ गई होती !"
तो इस समस्त विवेचन का सार यह है कि साधक के सामने तप का उद्देश्य बहुत महान, बहुत ऊँचा रहना चाहिए । उसका पवित्र उद्देश्य एक ही होना चाहिए-तप द्वारा कर्म निर्जरा, कर्म मुक्ति । मुक्ति का महान फल सामने रखकर ही उसे तपः साधना करनी चाहिए।
तप-जप सेवा साधना दान और सत्कर्म ।
'मिश्री' मुक्ति हित करो, यही परम है धर्म । लोग सामायिक करते हैं, दान देते हैं, थोड़ी सी सेवा करते हैं और सोचते हैं, इससे हमें अमुक लाभ मिलना चाहिए, हमारी कीर्ति होनी चाहिए । दान दिया तो हमारा नाम अखवार में छपना चाहिए ! तेला किया तो देवता स्वप्न में आकर दर्शन देने चाहिए'-यह सव आकांक्षाएँ, लालसाएँ उस सत्कर्म के फल को क्षीण और वर्वाद करने वाली हैं। आपने भगवान महावीर के जीवन प्रसंग में सुना होगा-चंपा नगरी में जव चंदनबाला ने भगवान को उडद के वाकले बहराये तो आकाश से रत्नों की वर्षा हुई। समूची धरती रत्नों से, हीरों पन्नों से भर गई। यह देखकर एक वेश्या ने भी अपने बाबाजी को बुलाया, खूब मिष्टान्न खिलाये और बार-बार आकाश की तर्फ देखने लगी। यह देखकर वावाजी ने पूछा-बार-बार ऊपर क्या देखती है ? . .
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तप और लब्धियां
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आज का युग वैज्ञानिक युग कहलाता है । आज कोई भी वस्तु तवं तक सही व सत्य नहीं मानी जाती जव तक विज्ञान उसकी सत्यता स्वीकार नहीं कर लेता । लोगों में एक भावना बन गई है कि जो विज्ञान द्वारा सम्मत हों, वही सत्य है । जिस वस्तु तथ्य का विज्ञान समर्थन नहीं करता वह सत्य नहीं हो सकता । यह धारणा एक लोकप्रवाह मात्र है । वास्तव में विज्ञान ने आज आश्चर्यकारी अनुसंधान तो किये हैं, किन्तु वे सब भौतिक जगत में ही किये हैं । वस्तु, पदार्थ और अणु के विश्लेषण में विज्ञान ने अवश्य आश्चर्यजनक प्रगति की है, किन्तु आध्यात्मिक शक्तियों के बारे में वह आज भी गतिहीन है | मनुष्य की आत्मा में, मन में कितनी अनन्त शक्तियां भरी हैं इसका विश्लेषण आज का विज्ञान नहीं कर सकता । आज भी वैज्ञानिक जब किसी योगी के मानसिक शक्तियों के चमत्कार, आध्यात्मिकं तेज तथा आत्मा में प्रगट हुई कुछ विचित्र स्वाभाविक शक्तियों को देखते हैं तो दांतों तले अंगुली . दवा लेते हैं और विज्ञान वहाँ हार खा जाता है । विज्ञान ने जिसे विल पावर (Will Power) (इच्छा शक्ति) माना है वह भी एक प्रकार को मानसिक शक्ति है । मेस्मेरिज्म के प्रयोग से हजारों मनुष्यों का सम्मोहित किया जाता है, असाध्य रोगों का इलाज किया जाता है—क्या यह भौतिक शक्ति है ? नहीं
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तप का उद्देश्य और लाभ
तपस्या से लेश्याओं को संवृत करने वाले साधक का दर्शन-सम्यक्त्व परिशुद्ध होता है, निर्मल होता है। तप से इसी प्रकार के महान फल की प्राप्ति वैदिक ग्रन्थों में भी मानी गयी है । कहा है
तपसा प्राप्यते सत्वं सत्वात् संप्राप्यते मनः ।
मनसा प्राप्यते त्वात्मा ह्यात्मापत्त्या निवर्तते।' तप द्वारा सत्व (मन को विजय करने की ज्ञानशक्ति) प्राप्त होती है सत्व से मन वश में आता है, मन वश में आ जाने से दुर्लभ आत्मतत्व की प्राप्ति होती है और आत्मा की प्राप्ति हो जाने पर संसार से छुटकारा मिल जाता है, आत्मा कर्म बन्धनों से सर्वथा मुक्त हो जाती है। इस प्रकार जैनेतर दर्शनों ने भी तप का अन्तिम लाभ मोक्ष माना है। महर्षि वशिष्ट से पूछा गया कि संसार में सबसे दुर्लभ-दुष्प्राप्य क्या है ? तो उन्होंने कहा-मोक्ष ! सर्व दुःखों से विमुक्ति ! फिर पूछा गया-वह दुष्प्राप्य मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकता है ? तो उत्तर दिया
तपसैव महोग्रेण यद् दुरापं तदाप्यते ।। संसार में जो सर्वाधिक दुष्प्राप्य वस्तु है, वह तपस्या के द्वारा प्राप्त की जा सकती है।
उपर्युक्त विवेचन का सार यही है कि तप का जो उद्देश्य है, वही उसका फल है, लाभ है । तप का उद्देश्य है-आत्म विशुद्धि और मोक्ष प्राप्ति । तप से इसी फल की प्राप्ति होती है। इसलिए कहा जा सकता है मुक्ति लाभ ही तप का मुख्य फल है।
१ मैत्रायणी आरण्यक ११४ २ योगवाशिष्ठ ३।६८।१४
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जैन धर्म में तप
लेकिन वादल हटते ही सूर्य चमकने लगता है । रंगमंच पर पर्दा पड़ा रहता है, तब तक अभिनेता दिखाई नहीं देता, किंतु जैसे ही पर्दा हटता है अभिनेता हमारे सामने हंसता-बोलता दिखाई देता है । इसी प्रकार जव जिस विषय के कर्मदलिक दूर होते हैं तब उस उस सम्बन्ध की आत्मशक्ति प्रकट होकर हमारे सामने आ जाती है । आचार्य अभयदेव ने वताया हैआत्मनो ज्ञानादि गुणानां तत्कर्म क्षयादितोलाभ: १. - आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य आदि गुणों का तत् तत् सम्बन्धित कर्मों के क्षय व क्षयोपशम से जो लाभ प्राप्त होता है, उसे लब्धि कहते हैं । जैन दर्शन में लब्धि का प्रायः सर्वत्र इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है । लब्धि की प्राप्ति परिणामों की विशुद्धता, चारित्र की अतिशयता तथा उत्कृष्ट तप के आचरण से होती है । आचार्य ने बताया है
परिणाम तववसेण इमाई हुति लडीओ | 2
शुभ परिणाम एवं तप संयम के आचरण से ये लब्धियां प्राप्त होती हैं । इस कारण ये लब्धियां शुद्ध आत्मशक्ति हैं । इनमें कोई देवशक्ति, या मंत्र की शक्ति का सहारा नहीं लिया जाता है ।
वैदिक दर्शन में योगदर्शनकार पंतजलि ने इन्हीं लब्धियों को 'विभूति' कहा है । साधक योगी, अपनी साधना के द्वारा अनेक प्रकार की विभूतियां प्राप्त कर लेता है, अनेक चमत्कार प्राप्त करता है । जैन दर्शन में जैसे कहा है- ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय व क्षयोपशम से ज्ञान सम्वन्धी लब्धियां प्राप्त होती हैं, वैसे ही अन्य कर्मों के क्षयादि से उनसे सम्बन्धित लब्धियां । आचार्य पतंजलि ने योगदर्शन में भी प्रायः इसी प्रकार विभूतियों की प्राप्ति का क्रम दिखाया है, जैसे अहिंसा की साधना से वैरविजय, 3 सत्य की साधना से वचन सिद्धि आदि । वौद्ध दर्शन में इस 'लब्धि' या
१ भगवतीसूत्र वृत्ति पार
प्रवचन सारोद्धार २७० ११४६५
२
३ अहिंसा प्रतिष्ठायां तस्सन्निधो वैरत्यागः । ४ योगदर्शन २३६
— योगदर्शन २३५
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तप और लब्धियां यह भी एक प्रकार की मानसिक शक्ति है । किन्तु मानसिक शक्ति का बहुत ही छोटा सा तुच्छ रूप है ।
'अण' से आत्मा की शक्ति महान है आज अणु की शक्ति से संसार चकित है, किंतु जब अत्मा की शक्ति का पता चलेगा तो अनुभव होगा कि अणु से भी अनन्त गुनी शक्तियाँ आत्मा में हैं । आत्मा अक्षय अनन्तशक्तियों का पिंड है। हमारे में जो चेतना है, मनो बल है, चिंतन करने की क्षमता है, भविष्य की बातों का कभी कभी पूर्वाभास हो जाता है; अतीत की हजारों स्मृतियां मस्तिष्क में चक्कर काटती हैं, बहुत से लोगों को मृत्यु से पूर्व ही अपनी अंतिम यात्रा का ज्ञान हो जाता है ये सब क्या भौतिक शक्तियां हैं ? नहीं ! आत्मा की ही कुछ विकसित शक्तियाँ हैं और इनके अनुभव से हमें विश्वास होता है कि यदि इन शक्तियों का विकास किया जाय तो ये ही शक्तियां अदभुत चमत्कार दिखा सकती हैं।
लब्धि क्या है ? चमत्कार को संसार नमस्कार करता है, किंतु चमत्कार पैदा कौन कर सकता है ? जिसमें आत्मबल होगा ! जिसके पास साधना होगी ! यंत्र
और तंत्र की शक्तियां भौतिक होती हैं, किंतु साधना, तपस्या से प्राप्त शक्ति आध्यात्मिक होती है। भौतिक शक्ति 'जादू' कहलाती है, आध्यात्मिक शक्ति 'सिद्धि' । आज भी अनेक लोग तांत्रिक प्रयोग करते हैं, देवी की उपासना से कुछ चमत्कार भी दिखाते हैं, भैरव, भवानी, काली आदि की उपासना कर कुछ चमत्कृत करने वाले करिश्में भी दिखाते हैं, किंतु वास्तव में इन प्रयोगों को सिद्धि नहीं कहा जा सकता । सिद्धि तो वह है, जो शुद्ध आध्यात्मिक हो, कर्म आवरणों का क्षय होने पर स्वतः आत्मा से ही जो शक्ति प्रकट होती है उसे 'लन्धि' या 'सिद्धि' कहा जाता है।
लब्धि का अर्थ है-'लाभ' ! प्राप्ति ! तपस्या आदि के द्वारा जव कर्मों का क्षय होता है तो आत्मा को उतने रूप में विशुद्धि व उज्ज्वलता प्राप्त होती है। आत्मा के गुण व शक्तियां, जो कर्मों के कारण ढंकी हुई थी, छिपी हुई थी, वे कर्मावरणों के हटने से प्रकट हो जाती हैं । जैसे आकाश में सूर्य पर बादल आ जाते हैं तो उसका तेज, प्रकाश धुंधला पड़ जाता है
है ? जिसमें आपातक होती हैं, फिजादू कहलाती है,
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जैन धर्म में तप:
का उतना ही अधिक
दान, लाभ, भोग, उपभोग लब्धि के १-१ वीर्य लब्धि के ३, और इन्द्रिय लब्धि के ५ - यों कुल दस लब्धि के २६ अन्तर भेद बताये गये हैं । इन लब्धियों से अभिप्राय है, उन उन विषयक आत्मशक्तियों का विकास ! जैसे ज्ञान लब्धि के कारण आत्मा की ज्ञान शक्तियों का विकास होता है, जिस आत्मा को जितना क्षय, क्षयोपशम होगा उसके ज्ञान विकास होता जायेगा । वैसे हो इन्द्रियलब्धि में आत्मा को पांच इन्द्रिय विषयक क्षयोपशम होता है, और उसकी इन्द्रिय शक्तियों का विकास उसी अनुपात में होता रहता है। हां, ये लब्धियां एकान्त तपोजन्य नहीं मानी गई हैं। इनके विकास में तप मुख्य कारण बन सकता है, किंतु आत्मा की विकासशीलता के कारण सहजरूप में भी कुछ न कुछ उनका दिवास प्रत्येक आत्मा में होता ही है । एकेन्द्रिय आदि में भी इन विकास रहता है । हां, तपः साधना के द्वारा इस विकास एवं प्रवल फलदायी बनाया जा सकता है ।
लब्धियों का सूक्ष्म को अधिक सक्रिय
७०
अठाईस लब्धियां
प्रकार की तपोजन्य
उपर्युक्त लब्धियों के अतिरिक्त ग्रंथों में अनेक लब्धियों का बड़ा विस्तृत विवेचन किया गया है । २८ प्रकार की तपोजन्य लब्धियों का वर्णन आचार्य ने किया है । वे लब्धियां
प्रवचन सारोद्वार में
1
इस प्रकार हैं
१ आमोसहि विप्पोसहि खेलोसहि जल्लओसही चेव । सव्वोसहि भिन्ने ओहीरिउ विउलमइ लवी ॥ चारण आसी विस केवलिय गणहारिणो य पुव्वधरा । अरहंत चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा वासुदेवाय ।। खीरमहु सप्पि आसव कोट्ठय बुद्धी पयाणुसारी य । तह बीयबुद्धि तेयग आहारक सोय लेसा य ॥ उव्विदेहलवी अक्खीणमहाणसी पुलाया य । परिणाम तववसेण एमाई हुति लद्धीओ ॥
-प्रवचन सारोद्वार, द्वार २७० गाथा १४६२-- १४६५.
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तप और लब्धियां . 'विभूति' को 'अभिज्ञा' कहा गया है। तपस्वी साधक अपनी उत्कृष्ट तपस्याके द्वारा जो शक्ति प्राप्त करता है, उसे वहाँ 'अभिज्ञा' संज्ञा दी गई है। उसके पांच और कहीं-कहीं छह भेद बताये हैं ।
लब्धियों के भेद यों तो आत्मा की शक्ति अनन्त है, और वह अनन्त रूपों में प्रकट हो सकती है । जितने रूपों में प्रकट हों, उतनी ही लब्धियां बन सकती हैं। फिर भी मूल आगमों में तथा उत्तरवर्ती ग्रन्थों में लब्धियों की गणना करके उनका विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। कहीं पर लब्धि के दस भेद, कहीं अठाईस भेद तथा कुछ अन्य नाम गिनाये गये हैं।
भगवती सूत्र में पूछा गया है-भगवन् ! लब्धियां कितनी प्रकार की हैं ? ___ उत्तर में बताया गया है-दसविहा लद्धी पण्णत्ता-दस प्रकार की लब्धियां बताई गई हैं।
१ नाणलद्धी-ज्ञानलब्धि २ सणलद्धी-दर्शनलब्धि ३ चरित्तलद्धी- चारित्रलब्धि ४ चरित्ताचरित्तलद्धी-चरित्रा चरित्र लब्धि ५ दाणलद्धी-दानलब्धि ६ लाभलद्धी लाभलब्धि ७ भोगलद्धी-भोगलब्धि ८ उवभोगलद्धी-उपभोगलब्धि ६ वीरियलद्धी-वीर्यलब्धि १० इंदिय लद्धी-इन्द्रियल ब्धि
ज्ञानल ब्धि के, ५ ज्ञान लब्धि और ३ अज्ञान लब्धि यों आठ भेद बताये गये हैं। दर्शन लब्धि के ३, चारित्र लब्धि के ५, चरित्ताचरित्त लधि का १,
१ भगवती सुत्र ६२ सूत्र ३१६
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....जैन धर्म में तप,
देवता संभ्रमित हो गया, बोला-"महाराज ! कर्मजन्य भाव रोग मिटाने की शक्ति मुझ में नहीं है, मैं तो स्वयं भी उस रोग से घिरा हूं, . मेरा काम सिर्फ शरीर का रोग मिटाना है।" ___ मुनि ने उपेक्षापूर्वक कहा--"शरीर के रोग की क्या चिंता है," और मुख का अमृत (थूक) लेकर शरीर के एक भाग पर लगाया तो शरीर कंचन की तरह चमक उठा । देवता नतमस्तक होकर वापस चला गया। ..
तो उन्हें खेलोसहि लब्धि प्राप्त थी, थूक में ही सव रोग मिटाने की शक्ति विद्यमान होते हुए भी उन्होंने कभी अपने शरीर की चिंता नहीं की, अपने लिए अपनी लब्धि का प्रयोग नहीं किया। इससे यह भी पता चलता है कि लब्धिधारी मुनि हर समय लब्धि का उपयोग नहीं करते । आवश्यकता पड़ने पर, संघहित, धर्म प्रभावना या परोपकार की भावना से ही जब अपनी लब्धि का उपयोग करने का संकल्प करते हैं तभी लन्धि अपने प्रभाव में आती है । तो दूसरी लब्धि है
(२) विप्पोसहि'-वि डीपधि-'वि' शब्द का अर्थ है शरीर द्वारा त्यक्त मल, और 'प्र' का अर्थ है - प्रश्रवण । पूरे शब्द विप्रुङ का अर्थ है- . मल-मूत्र । अर्थात् जिस लब्धि के प्रभाव से तपस्वी साधक के मल-मूत्र में । सुगन्ध आती हो, और जिसका स्पर्श होने पर रोगी का रोग शांत हो जाता हो-उनका मलमूत्र औषधि की भांति रोगोपशमन में समर्थ हो, ऐसी योग शक्ति का नाम है-विप्पोसहि लब्धि ।
in .
साधारणतः मलमूत्र महान दुर्गन्धि और अपवित्र वस्तु मानी जाती है,
।
१ (क) विप्पोस हि गहणेण विट्ठस्स गहणं, कीरइ तं चैव विटेओसहि सामत्थज्जतेण विप्प सहि भवति ।
___ ~आवश्यकचूणि-१ (ख) यन् माहात्म्यात् मूत्र पुरीसावयवमात्रमपि रोगराशि प्रणाशाय संपद्यते, सुरभिच सा विगुढीपधिः ।
-प्रवचन सारोद्धार वृत्ति द्वार २७०
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तप और लब्धियां
७१ (१) आमोसहि आमीषधि""इस लब्धि के धारक तपस्वी किसी रोगी, ग्लान आदि को, स्वयं को अथवा जिस किसी को भी स्वस्थ करना चाहें तो वे पहले मन में संकल्प कर लेते हैं-मेरे स्पर्श से यह नीरोग हों, और फिर उसे स्पर्श करते हैं, तो उनके स्पर्शमात्र से ही रोग शांत हो जाता है, काया कंचन जैसी उज्ज्वल हो जाती है।
एक प्रश्न उठता है कि इस लब्धि के धारक तपस्वी के हाथ आदि का स्पर्श क्या किसी भी समय किसी भी स्थिति में होने से रोगी का रोग शांत हो जाता है या कोई विशेष स्थिति में ? इसका उत्तर हमें आवश्यक चूर्णि के इस शब्द-तिगिच्छामिति 'संचितेऊण'' में प्राप्त होता है, लधिधारी जव मन में यह संकल्प या चिंतन करता है कि 'मैं इसे स्वस्थ करू, नीरोग बनाऊं, ऐसा संकल्प करके जव रोगी का स्पर्श करता है तभी उसका स्पर्श औपधि रूप में कार्य करता है, अन्यथा नहीं, अन्य लब्धियों के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिए। चूकि लब्धिधारी बहुत बार स्वयं गी असाता वेदनीय के उदय से रोगाक्रांत हो जाते हैं, वे अपने असातावेदनीय को भोगते हैं, किंतु लब्धि के द्वारा सहज में रोग मिटाने का प्रयत्न नहीं करते। जैसा कि सनत्कुमार चक्रवर्ती के विषय में प्रसिद्ध है कि उनका शरीर जव सोलह महारोगों से आक्रांत हो गया तो शरीर की नश्वरता का बोध कर वैराग्य प्राप्त कर वे दीक्षित हो गए और घोरतपश्चर्या करने लगे। उस तपोवल से उन्हें खेलोसहि आदि लब्धियां प्राप्त हो गई। एक बार कोई देवता उनकी सहनशीलता और निस्पृहता की परीक्षा करने वैद्य का रूप वनाकर आया और बोला-"महाराज ! आपका शरीर कुष्ट रोग से गल रहा है, मुझे सेवा का अवसर दीजिये, मैं आपका रोग मिटा दूं।"
मुनि ने सहज शांति के साथ कहा-"भाई ! द्रव्य रोग मिटाता है या
भाव रोग ?"
१ आमोसहि पत्ताणं रोगाभिभूतं अत्ताणं परं वा जवि तिगिच्छामिति संचित्तेऊण आसुर ति ते तक्खणा चेव ववगयरोगातंकं करोति सा।
-आवश्यकचूणि
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तप और लब्धियां
है । मल-मूत्र का माहते हैं । किंतु
हां कहीं भी उसकी ने इसका थोड़ा
किंतु तपस्या के प्रभाव से वह दुर्गन्धमय वस्तु भी सुगंधित हो जाती है, और औषधि के रूप में बन जाती है।।
(३) खेलोसहि-खेल यानी श्लेष्म, खंखार थूक । जिस योगशक्ति के प्रभाव से लब्धिधारी के श्लेष्म में सुगंध आती हो, और उसके प्रयोग-लेपनस्पर्शन आदि से औपधि की भांति रोग शांत हो जाता हो, वह खेलोसहि लब्धि है । मल-मूत्र की भांति खेल-खंखार से भी घृणा की जाती है, और उसके स्पर्श से बचना चाहते हैं। किंतु खेल खंखार तपस्या के प्रभाव से दुर्गध के स्थान पर सुगंध देने लगता है, और जहां कहीं भी उसका स्पर्श हो जाता है वस रोग को तुरंत शांत कर देता है । सनत्कुमार चक्रवर्ती ने इसका थोड़ा सा चमत्कार देवता को दिखाया, कि तू जिस शरीर के रोग मिटाने की बात करता है, उस शरीर का रोग मिटाने की दवा तो तेरी जड़ीबूटी में क्या, मेरे थूक में भी है, किंतु मुझे शरीर रोग की चिंता नहीं, कर्म रोग मिटाने की चिंता है । अस्तु ।
(४) जल्लोसहि-जल्ल नाम है मल का । शरीर के विभिन्न अवयवजैसे कान, मुख, नाक, जीभ, आँख आदि का जो मल-पसीना अथवा मैल होता है उसे 'जल्ल' कहा जाता है । साधु के २२ पीपहों में अठारहवां 'जल्ल परीषह' बताया गया है, क्योंकि इन मलों के कारण भी शरीर में दुर्गध आने लगती है, तथा वैचेनी होने लगती है । किंतु तपस्वियों को लब्धि प्रभाव से ये मल भी सुगंध देने लगते हैं, तथा इनका स्पर्श भी औपधि की भांति रोग मिटाने की अद्भुतशक्ति रखता है।
(५) सवोसहि-सोपधि । प्रथम चार लब्धियों में शरीर के अलगअलग अवयव एवं वस्तुओं के स्पर्श से रोग शांत होने की शक्ति होती है, किंतु सर्वोपधि लब्धि के धारक तपस्वी के तो शरीर के समस्त अवयवमल मूत्र, केश, नख, थूक आदि में सुगध आती हैं तथा उनके स्पर्श से रोग शांत होते हैं । इस लधिधारी का समूचा शरीर ही जैसे पारस होता है, अमृतमय होता है, जहां से भी, जो भी वस्तु छू लो तुरन्त वह चमत्कार दिखाती है।
अलग aur लब्धि के IIT में सुगध आत
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जैन धर्म में तप
(६) संभिन्नश्रोता-इस लब्धि की व्याख्या कई प्रकार से की गई है। एक अर्थ है-इस लब्धि के प्रभाव से साधक शरीर के किसी भी भाग से शब्दों को सुन सकता है ।' साधारणतया कान से ही सुना जाता है, किंतु लब्धि प्रभाव से नाक से भी सुन सकते हैं जीभ से भी, आँख से भी । अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय श्रोत्र-कान का कार्य कर सकती है।
एक दूसरा अर्थ किया गया है कि साधारणतः एक इन्द्रिय एक ही कार्य कर सकती है । आँख देख सकती है. जीभ सूघती है, न आँख जीभ का काम कर सकती है, और न जीभ आँख का। किंतु तपस्या के प्रभाव से साधक को ऐसी शक्ति प्राप्त हो जाती है कि किसी भी एक इन्द्रिय से पांचों इन्द्रियों का काम कर सकता है । आंख मूंदकर बैठा है, आपके शब्द सुन रहा है तो शब्दों के साथ ही आपके हाव-भाव का ज्ञान भी उसे हो रहा है, आपका पूरा रूप उसके कानों से प्रतिविम्वित हो जाता है, इसी प्रकार जीभ से एक वस्तु को छूने पर उसका रूप रंग स्पर्श गंध आदि सब का ज्ञान कर लिया जाता है । यह इन्द्रियों की अद्भुत विकसित शक्ति है ।
प्रकारान्तर से एक अर्थ यह भी किया जाता है कि संभिन्नयोतो लब्धि के धारक योगी की श्रोत्रइन्द्रिय शक्ति बहुत ही प्रचंड हो जाती है । सूक्ष्म से सूक्ष्म ध्वनि को वह अलग-अलग करके ग्रहण कर लेता है । जंगल के वातावरण में जैसे एक साथ सैकड़ों पक्षियों की आवाजें आती हैं, कहीं चिड़िया चहक रही है, कौआ कांव-कांव कर रहा है, कोयल गा रही है, और छोटे-मोटे झींगुर आदि अगणित जीव अलग-अलग शब्द कर रहे हैं । साधारण मनुष्य के लिए वह कोई स्पष्ट शब्द नहीं, केवल एक कोलाहल माम होता है, किसी की भी ध्वनि व अर्थ उसकी समझ में नहीं आ सकता। किंतु भिन्नथोतोल ब्धि का धारक दूर खड़ा ही उन तमाम शब्दों को, ध्वनियों को सुनकर सबको अलग-अलग पहचान सकता है, कौन किस की ध्वनि है ! उदाहरण देकर बताया गया है कि -चक्रवर्ती की विशाल सेना ।
१ नर्वतः सर्वैरपि शरीर देगः श्रृणोति स संभिन्नश्रोता:
-आवश्यक चूणि अ०१
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तप और लब्धियाँ
कहीं शंख बज रहा है.
जो बारह योजन में खड़ी है । उसमें एक ही समय कहीं ढोल, कहीं भेरी, कहीं घंटा, कहीं बाजे, कहीं वीणा आदि विभिन्न ध्वनियां एक साथ गूंज रही है, और एक विचित्र कोलाहल सा हो रहा है, लब्धिधारी उन समस्त वाद्य विशेषों के शब्दों को पृथक्-पृथक् रूप से सुनता है । प्रत्येक वाद्य की ध्वनि को अलग-अलग पहचानता है । इतनी सूक्ष्म और दूरस्थ विषय को ग्रहण करने की शक्ति संभिन्नश्रोतोलव्धि कहलाती है ।
(७) अवधि लब्धि - इस लब्धि के प्रभाव से अवधि ज्ञान की होती प्राप्ति है ।
( ८- ६ ) ऋजुमति विपुलमति लब्धि - मनः पर्यव ज्ञान के दो भेद हैंऋजुमति और विपुलमति । ऋजुमति मनः पर्यव ज्ञान का धारक लढाई द्वीप में कुछ कम (अढाई अंगुल कम ) क्षेत्र में हे हुए संज्ञी, अर्थात् समनस्क प्राणियों के मनोभावों को जानता है । प्राणी मन में जो भी सोचता है, संकल्प करता है उसका सामान्य रूप से ज्ञान करना ऋजुमति मनः पर्यव ज्ञान है । और संपूर्ण अढाई द्वीप में रहे हुए सज्ञी प्राणियों के मनोभावों को स्पष्ट रूप से, सूक्ष्मातिसूक्ष्म विचारों को भी जान लेना विपुलमति मनः पर्यव ज्ञान है । यह मनोज्ञान जिस लब्धि के कारण प्राप्त होता है, उस लब्धि को ऋजुम तिलब्धि तथा विपुलमतिलब्धि कहा जाता है ।
(१०) चारणलब्धि - जिस लब्धि के कारण आकाश में जाने आने की विशिष्ट शक्ति प्राप्त होती है, उसे चारणलब्धि कहा जाता है । चारण शब्द एक प्रकार का रूढ शब्द है, जिसका आकाशगामिनी शक्ति के रूप में जैन ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर प्रयोग हुआ है ।
भगवती सूत्र में चारणलब्धि के दो भेद बताये गये हैं । जंधाचारण और विद्याचरण | जंघाचारण लब्धि का धारक पद्मासन लगाकर जंघा पर हाथ लगाता है और तीव्रगति से आकाश में उड़ जाता है । टीकाकार लभयदेव सूरि ने वताया है कि जंघाचारणवाला मुनि आकाश में उड़ान
१
शतक २० उद्देशक
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को शक्ति में और मिता है, किंतु वह जन्म से भी आकाश
जा सकता है या के वश होती हाती बनेगी । जैसे कारण लति है । कितनी है. अधिक होती जाती होगा, वह उतनी ही तन से अधिक शािव में मानुषोत्ता बरखाप पहुंचता
प और लब्धियां
ওও रहती है और इसमें ज्ञान की । तप के साथ विद्याभ्यास करने से इस लब्धि की प्राप्ति होती है। किंतु है यह भी तपोजन्य । विद्याधरों की आकाशगामिनीशक्ति में और विद्याचारणलब्धि में अंतर है। विद्याधरों को भी यद्यपि विद्याभ्यास करना पड़ता है, किंतु वह जन्मगत एवं जातिगत संस्कार रूप में भी प्राप्त होती है । कुछ योगी मंत्र शक्ति से भी आकाश में उड़ान भरते हैं। किंतु विद्याचारण लव्धि वाला मंत्र-तंत्र व जन्मगत कारण से नहीं, किंतु तप के साथ विद्याभ्यास के कारण ही आकाशगमन कर सकता है।
विद्याचारण वाला तिरछे लोक में आठवें नंदीश्वर द्वीप तक उड़कर जा सकता है । विद्याचारण की शक्ति प्रारंभ में कम व वाद में अधिक होती है । चूंकि यह विद्या के वश होती है,विद्या का जितनी बार परिशीलन अधिक होगा वह उतनी है. अधिक शक्तिशाली बनेगी । जैसे भांग को जितनी घोटी जाती है, वह उतनी ही तेज होती जाती है, विद्याचारण लब्धि भी इसी प्रकार पुनः पुनः परिशीलन से अधिक शक्तिशाली बनती है । इसी कारण विद्याचारण को नंदीश्वर द्वीप जाते समय बीच में मानुपोत्तर पर्वत पर एक विश्राम लेना पड़ता है, और दूसरी उड़ान भरकर वह नंदीश्वरद्वीप पहुंचता है किंतु लौटते समय परिशीलन से उसकी विद्या शक्ति प्रखर हो जाती है अतः एक ही उड़ान में सीधा अपने स्थान पर आ जाता है। इसी प्रकार ऊँची उड़ान भरते समय भी जाते समय पहले नंदनवन में विश्राम लेकर फिर दूसरी उड़ान में पाण्डुकवन पहुँचा जाता है, किंतु लौटते समय में सीधे ही एक उड़ान में अपने स्थान पर आ जाते हैं। ___जंघाचारण से विद्याचारण की शक्ति कम होती है । ग्रंथों में बताया गया है कि जंघाचारणलब्धि वाला तीन बार आँख की पलक झपकने जितने समय में एक लाख योजन वाले जंबूद्वीप के २१ चक्कर लगा सकता है, किंतु विद्याचारण लब्धि वाले इतने समय में सिर्फ ३ चक्कर ही लगा पाते हैं । गति की तीव्रता जंघाचारण में अधिक है। आज के जैट विमान, फ्रांस के मिराज विमान जो कि शब्द की गति से भी अधिक तेज दौड़ सकते हैं, और जन्यान, जो मिनटों में हजारों मील के चक्कर काट लेते हैं, अभी भी
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जैन धर्म में तप भरने से पहले मकड़ी के जाल जैसा तंतु, वटी हुई वाती अथवा सूर्य की किरणों का अवलंबन-निश्राय लेता है, और फिर आकाश में उड़ता है। ..
___ जंघाचारण लब्धि चारित्र एवं तप के विशेप प्रभाव से प्राप्त होती है। भगवती सूत्र में इसकी साधना विधि का वर्णन करते हुए बताया गया है, निरंतर वेले-बेले तप करने वाले को विद्याचारण एवं निरंतर तेले-तेले का उग्र तप करने वाले योगी को जंघाचारण लब्धि की प्राप्ति होती है । जंघा .... चारण लब्धि वाला एक ही उड़ान में (उत्पात में) तेरहवें रुचकवर द्वीप तक जा सकता है । यह द्वीप भरतक्षेत्र से असंख्यात योजन दूर है । इस - . लधिधारक की पहली उड़ान अधिकशक्तिशाली होती है । किंतु उड़ान करने में प्रमाद और कुतूहल होने के कारण लब्धि की शक्ति क्रमशः हीन व क्षीण होने लग जाती है, इस कारण एक उड़ान में रुचकवर द्वीप जाने वाला जव वहाँ से वापस उड़ान भरता है तो वह बीच में थक जाता है, इसलिए वीच में नंदीश्वर द्वीप में उसे एक विश्राम लेना पड़ता है और वह दूसरी उड़ान में . अपने स्थान पर लौट कर आ सकता है।
जंघाचारणवाला यदि ऊपर ऊर्ध्व लोक में उड़ान भरता है तो वह सीधा सुमेरुपर्वत के शिखर पर सुरम्य पाण्डुकवन में पहुँच सकता है। यह वन सब बनों में सुन्दर व सबसे अधिक ऊँचाई पर है । जब योगी वहां से वापस लौटता है तो जाने की अपेक्षा आने में उसे अधिक शक्ति व समय लगता है । शक्ति की क्षीणता के कारण उसे नंदनवन में एक विश्राम लेना । होता है, और दूसरी उड़ान भरके अपने स्थान पर पहुंच जाता है। ___ विद्याचारण लब्धि तप के साथ विद्या के विशेप अभ्यास द्वारा प्राप्त होती है। जंघाचारण से इसका तपक्रम कुछ सरल है, उसमें तेले-तेले तप का विधान है, और इसमें वेले-बेले तपका ! उसमें चारित्र की अतिशयता
१ लूतातन्तुनिर्वतित पुटकतन्तून् रवि करान् वा नियां कृत्वा जंड्धाभ्या- .
माकाणेन चरतीति जंघाचारणः । -भगवती सूत्र वृत्ति २०१६ २ भगवती सूत्र २०१६
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न और लब्धियां
मनुष्यों को 'कल जिह्वा" भी कहा जाता है। चूंकि यह लब्धि मनुष्य व तिर्यंच दोनों में हो सकती है, और सिर्फ वर्तमान में तपस्या करने से ही नहीं, किंतु अतीत में की हुई तपस्या आदि के प्रभाव से भी प्राप्त हो सकती है। देवता शाप आदि से जो अनिष्ट करते हैं वह इस लब्धि का कारण नहीं माना जाता उनमें तो देवभव जन्य ही ऐसी शक्ति होती है और वह सभी देवताओं में सामान्य रूप से पायी जाती है ।
यहां यह भी बता देना जरूरी है कि जाति आशीविष कोई लब्धि नहीं होती है, वह तो जन्मजात-जातिगत स्वभाव के कारण प्राप्त हो जाती है। जैसे विच्छू सांप आदि में जो विप होता है वह जातिगत होता है। इसीलिए कहा जाता है 'सांप का बच्चा क्या छोटा क्या बड़ा ? वह तो जनमते ही विपधर होता है।' जाति आशीविप के सम्बन्ध में स्थानांग सूत्र में काफ विस्तार के साथ वर्णन करके बताया है
जाति आशीविप के चार भेद हैं - १ बिच्छू,
होती है, वह तो
जो विप होता है
बड़ा ? वह तो जना
२ मेंढक,
३ सांप, ४ मनुष्य विच्छू से मेंढक का विप अधिक और प्रबल होता है, मेंढक से सांप का और सांप से मनुष्य का। मनुष्य का विप सबसे प्रवल और अधिक विस्तार वाला होता है।
(१२) केवलीलब्धि-चार घनघाती कर्मों के क्षय से लोकालोकप्रकाशी जो केवलज्ञान, केवल दर्शन की प्राप्ति होती है, वह केवली लब्धि है।
(१३) गणघर लब्धि-गणधर 'गण को धारण करने वाले होते हैं। ये तीर्थकरों की वाणी रूप पुष्पों को सूत्र रूप में गूथते हैं-उसे क्रमबद्ध करते हैं और आगम का रूप देते हैं, आज की भाषा में तीर्थकर प्रवक्ता होते
-स्थानांग ४१४
Tतारि जाइ मासीविसा-विच्छ्यजाई.. ...
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जैन धर्म में तप जंघाचारण और विद्याचारण लब्धि की शक्ति से बहुत पीछे हैं। फिर इनमें यंत्रवल है, जबकि उनमें आत्मवल का ही सारा चमत्कार है । अस्तु, .
दिगम्बर आचार्य यति वृषभाचार्य ने चारण लब्धि के अनेक अन्तर्भेदों .. का भी वर्णन किया है-जैसे जलचारण-जल में भूमि की तरह चलना, पुप्पचारण-फूल का सहारा लेकर चलना, धूमचारण-आकाश में उठते धूएं का आलंबन लेकर उड़ना, मेघ चारण-बादलों को पकड़कर चलना, ज्योतिश्चारण-सूर्य व चन्द्र की किरणों का मालंबन ग्रहण कर गमन . करना आदि ।
(११) आशीविष लब्धि-जिनकी दाढ़ों में तीव्र विप होता है उन्हें . आशीविप कहा जाता है। अर्थात् जिनकी जीभ या मुख में, जिनका थूक या मुंह से निकली सांस विप के समान अनिष्ट प्रभावकारी होती है उन्हें भी आशी विप में माना गया है ।
आशीविप के दो भेद किये गये हैं कर्म आशीविप और जांतिआशीविप! , कर्म आशीविप-तप अनुष्ठान, संयम आदि क्रियाओं द्वारा प्राप्त होता है इसलिये इसे लब्धि माना गया है । इस लव्धि वाला, शाप आदि देकर दूसरों को मार सकता है। उसकी वाणी में इतनी शक्ति और प्रभाव होता है कि क्रोध में आकर किसी को मुंह से कह दिया 'मर जाओ।' या 'तेरा नाश' हों, तो वह वाणी विप की तरह शीघ्र ही उसके प्राण हरण कर लेती है। - प्राचीन ऋषि-मुनियों को शाप आदि की जो घटनाएं. हम सुनते हैं वह एक प्रकार की यही लब्धि होगी ऐसा अनुमान होता है। वैसे इस लब्धि . के बल से सिर्फ शाप ही दिया जा सकता है, वरदान नहीं, चूकि विप प्रायः .. अनिष्ट परिणाम ही लाता है और यह लब्धि "आशीविष लब्धि' हैं। हां, यह भी प्रायः देखा जाता है कि जो शाप दे सकता है, वह वरदान दे या . न भी दे ! शाप देने वाले में वरदान देने की शक्ति होना कोई जरूरी नहीं है। बहुत से मनुष्यों के विषय में हम सुनते हैं-जिसकी जीभ काली होती है उसके मुह से जो बात निकलती है वह प्रायः सही भी हो जाती है ऐसे
१ देखिए तिलोयपण्णत्ती .
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तप और लब्धियां वह पूर्वधर लब्धि कहलाती है। वर्तमान परम्परा में चौदह पूर्व के अंतिम ज्ञाता श्रीभद्रवाहु स्वामी हुए । यद्यपि आचार्य स्थूलिभद्र ने दश पूर्व का अर्थ सहित ज्ञान प्राप्त कर लिया था, और ग्यारहवें पूर्व का अनुशीलन (वाचना) चल रहा था, किंतु उसी समय उन्होंने अपनी बहनों को चमत्कार दिखाने के लिये लब्धि फोड़कर सिंह का रूप बना लिया ।' स्थूलिभद्र का यह कृत्य देखकर भद्रवाहु स्वामी ने सोचा-'इसे विद्या हजम नहीं हो रही है, अतः अपात्र समझकर आगे वाचना देना वद कर दिया। संघ ने आचार्य से वहुत अनुनय-विनय किया-कि यदि आप ज्ञान नहीं देंगे तो चार पूर्व का ज्ञान लुप्त हो जायेगा । आचार्य ने कहा-"अपात्र को विद्या देने से तो विद्या साथ में लेकर मर जाना ठीक है ।" किंतु फिर भी श्रीसंघ के अत्यधिक आग्रह
और स्थूलिभद्र के विनय के कारण भद्रवाहु ने अंतिम चार पूर्व का ज्ञान तो दिया, पर केवल शब्दरूप में ही, अर्थरूप में ही नहीं। इसलिए अंतिम चतुदर्शपूर्वी भद्रबाहु स्वामी ही कहलाते हैं । पूर्वो का ज्ञान इतना विशाल है कि वह केवलज्ञान का एक नमूना पेश कर सकता है, इस कारण चतुदर्शपूर्वधर को 'श्रुतकेवली' भी कहते हैं ।
(१५) अहल्लब्धि-अरिहंत तीर्थकर को कहते हैं । साधारणतः अरिहंत शब्द का अर्थ होता है-कर्म रूप शत्रु ओं का नाश करने वाले । किंतु इस व्याख्या से तो प्रत्येक केवली अरिहंत कहला सकते हैं। इसलिए आचार्यों ने कहा है जिस केवलज्ञानी को अहल्लब्धि की प्राप्ति हो, वही सिर्फ अर्हत् कहलाता है, हर एक केवलज्ञानी नहीं। अहल्लब्धि की प्राप्ति होने पर अनेक विशिष्ट अतिशय भी प्रगट होते हैं जिनमें अप्ट महाप्रा तिहार्य मुख्य हैं । १ आवश्यक वृत्ति. पृ० ६६८ २ अशोक वृक्ष, देवकृत अचित्त पुष्प वृष्टि, दिव्य ध्वनि, चामर, सिंहासन,
भामण्डल, देव दुन्दुभि और छत्र-ये आठ महाप्रातिहार्य हैं। अर्हत् जब माता के गर्भ में आते हैं तो माता चौदह महास्वप्न देखती है। चौदह महास्वप्न का चित्र परिशिष्ट में देखें।
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जैन धर्म में तप हैं गणधर उस प्रवचन के संपादक । तीर्थंकर सिर्फ अपने विचार व्यक्त . करते हैं, गणधर उन्हें शास्त्र या साहित्य का रूप प्रदान करते हैं।' किंतु यह महान कार्य हर कोई नहीं कर सकता। इस के लिए विशिष्ट ज्ञान, . प्रतिभा और कुशल संयोजन मेधा होनी चाहिए। यह कुछ खास व्यक्तियों - में ही होती है । अतः यह माना गया है कि जिनको गणधर लब्धि की प्राप्ति होती है वे ही गणधर पद प्राप्त करते हैं ! ..
(१४) पूर्वधर लब्धि-'पूर्व' का शब्दार्थ होता है पहले । जैन परम्परा में पूर्व का अर्थ किया गया है-भगवान ने जो सबसे पहले गणधरों के सामने प्रवचन दिये-जिनमें सार रूप से समस्त वाङमय का ज्ञान छिपा थावे 'पूर्व' कहलाये । वारह अंग जो श्रुतज्ञान का अखूट खजाना है उसमें सबसे पहले जिस अंग (दृष्टिवाद) की रचना हुई उसे 'पूर्व' कहा गया-ऐसा प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य अभयदेव एवं अन्य आचार्यों का मत है ।२ कुछ आचार्यों का कथन है कि जो श्रु तज्ञान भगवान महावीर से भी पहले अर्थात् भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा से चला आ रहा था, उसे पूर्व' (पहले का) कहा गया है। ___ विश्व विद्या का ऐसा कोई भी विपय नहीं है, जिसका वर्णन 'पूर्व' में नहीं किया गया हो । यंत्र, मंत्र, तंत्र, शब्द शास्त्र, ज्योतिष, भूगोल, रसायन रिद्धि-सिद्धि आदि समस्त विषयों की चर्चा पूर्वो में है । पूर्व चौदह है । जिस मुनि को दश से लेकर चौदह पूर्व तक का ज्ञान होता है वह पूर्वधर कहलाता है । जिस शक्ति के प्रभाव से उक्त पूर्वो का ज्ञान प्राप्त होता हो,...
१ अत्यंभासई अरहा सुत्तं गुथति गणहरा निउणा -आवश्यक नियुक्ति २ (क) प्रथमं पूर्व तस्य सर्व प्रवचनात् -समवायांग वृत्ति पत्र १०१ (ख) सर्वश्रु तात् पूर्व क्रियते इतिपूर्वाणि -स्थानांग वृत्ति १०१ (ग) तित्य करो तित्य पवत्तण काले गणघराणं सन्त्र सुत्ताधारत्तणतो पुव्वं पुव्वगत सुत्तत्यं भासति ताहा पुव्वं ति नणिता।
__ -नंदीसूत्र (चूणि पृ० ११)
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तप की लब्धियाँ खींच सकते हैं । ' वासुदेव में जितना बल होता है उससे दुगुना वल चक्रवर्ती में और जिनेश्वर देव चक्रवर्ती से भी अधिक बलशाली होते हैं । क्योंकि संपूर्ण वीर्यान्त राय कर्म का क्षय हो जाने के कारण तीर्थंकरों का बल अपरिमित होता है।
(१९) क्षीरमधु-सपिराश्रवलब्धि-इस लब्धि के प्रभाव से वक्ता के वचन सुनने वालों को बड़े ही मधुर (दूध-मधु एवं घृत के समान) प्रिय एवं सुखकारी लगते हैं । आचार्य ने कहा है--यद् वचनमाकर्ण्यमानं मनः शरीर सुखोत्पादनाय प्रभवति ते क्षीराश्रवाः-जिनके वचन दूध जैसे, शहद जैसे और घी जैसे मन को, और शरीर को भी सुख एवं प्रीति पैदा करने वाले होते हैं वे क्षीर मधु सपिराश्रवल ब्धि के धारक होते हैं।
साधारणतः दूध-मधुर भी होता है, प्रिय भी और शरीर एवं मन को प्रीति उत्पन्न करने वाला भी। इस पर भी यदि पुण्ड्रक्षु चरने वाली गाय का दूध मिले और वह भी वह दूध, जिससे चक्रवर्ती की खीर बनती हो तो उस दूध का कहना ही क्या ? उस दूध का वर्णन करते हुए आचार्यों ने बताया है:-पुण्ड-इक्ष (गन्ने) के खेतों में चरने वाली एक लाख गायों का दूध
१ सोलसराय सहस्सा सव्व वलेणं तु संकलनिवद्ध।
अंछंति वासुदेवं अगडतडम्मिठियं संतं ॥ १॥ घेत्त ण संकलं सो वामहत्थेण अंछमाणाणं। . भुजिज्ज बलि पिज्ज व महुमहणं ते न चाएंति ॥ २॥ जं केसवस्स उ वलं तं दुगुणं होइ चक्कवट्टिस्स । तत्तो बला बलवग्गा अपरिमियवला जिणवरिंदा ।। ३ ॥
--प्रवचन सारोद्धार करोड़ चक्रवर्ती का वल एक देव में, करोड़ देवों का वल एक इन्द्र में,
अनन्त इन्द्रों का बल तीर्थकर की कनिष्ठ अंगुली में।। ३ (क) पुण्ड्रक्षु चारिणीनामनातंकानां गवां लक्षस्य....."यावदेवस्या गो:
सम्बधियत् क्षीरं"... -जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति, वक्षस्कार २ (ख) प्रवचनसारोद्धार वृत्ति द्वार २६६ । (ग) दूध को मधुर एवं स्वादिष्ट बनाने की ऐसी ही एक कथा बौद्ध
(देखें पृष्ठ ८४ पर
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(१६) चक्रवर्ती लब्धि-छह खण्ड के स्वामी को चक्रवर्ती कहा जाता है । चक्रवर्ती एक पराक्रमी राजा होता है, जव चक्रवर्ती लब्धि के प्रभाव से उसे चौदह रत्न प्राप्त होते है तो वह छह खण्ड पर विजय करता है और फिर चक्रवर्ती सम्राट का पद प्राप्त करता है।
(१७) बलदेव लधि
(१८) वासुदेव लब्धि-वासुदेव तीन खंड के स्वामी होते हैं। युद्ध कौसल एवं राजनीति में वासुदेव चक्रवर्ती से भी बढ़-चढ़कर होता है । चक्रवर्ती स्वयं युद्ध कम करते हैं उनका सेनापति रत्न ही अधिकतर युद्ध करता है, किंतु वासुदेव स्वयं युद्ध करते हैं इसीलिए-जुद्धे सूरा वासुदेवा' युद्ध में वासुदेव शूर होते हैं-कहा गया है । ये सात रत्नों के स्वामी होते हैं। बलदेव वासुदेव के बड़े भाई होते हैं। बलदेव प्रायः सात्विक व धार्मिक प्रकृति के होते हैं, किंतु वासुदेव राजसी और तामसी प्रकृति के तथा भोगप्रिय एवं राज्य सत्ता के आकांक्षी होते हैं। जिस लब्धि के प्रभाव से बलदेव पदवी प्राप्ति हो वह वलदेवलब्धि तथा वासुदेवपदवी प्राप्ति हो वह वासुदेव लब्धि कहलाती है। बलदेव पदवी बड़ी भाग्यशाली है, इस पद में उसकी कभी मृत्यु नहीं होती, किन्तु पद को छोड़कर मुनि बनता है, और कर्म क्षय कर मुक्ति प्राप्त करता है ।
वासुदेव में वीस लाख अप्टापद का वल होता है । उसके वल का अनुमान करने के लिये आचार्यों ने एक उदाहरण दिया है-एक वासुदेव कुएं के तट पर बैठा हो, उसे जंजीरों से बांधकर उसकी समस्त सेना के हाथी, घोड़े, रथ और पदाति (पैदल)-यों चतुरंगिणी सेना के साथ सोलह हजार राजा उस जंजीर को दम लगाकर खींचते रहे, पसीना-पसीना हो जाये फिर भी वे वासुदेव को खींच नहीं सकते। किन्तु वासुदेव उस जंजीर को बाएं हाथ से पकड़ कर बड़ी आसानी के साथ उसे अपनी ओर
१ स्थानांग४. .
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संहज प्रभाव होता है, और वह शुद्ध आध्यात्मिक ही होता है, उसमें मंत्रतंत्र का कोई पुट नहीं होता है ।
(२०) कोष्ठक बुद्धि लब्धि - जिस प्रकार कोठे में डाला हुआ धान्य बहुत काल तक ज्यों का त्यों सुरक्षित रह जाता है, इसी प्रकार जिसे कोष्ठक बुद्धि लब्धि प्राप्त होती है वह आचार्य आदि के मुख से सुना हुआ सूत्र अर्थ, तथा अन्य जो भी तत्त्व सुनता है उसे ज्यों का करने में समर्थ होता है । इस लब्धि प्रभाव से बन जाती है :
त्यों अविकल रूप में धारण बुद्धि स्थिर धारणा वाली
(२१) पदानुसारिणी लब्धि - इस लब्धि के प्रभाव से सूत्र के एक पद को सुनकर आगे के बहुत से पदों का ज्ञान विना सुने ही अपनी बुद्धि से कर लेता है । जैसे कहा जाता है— एक चावल के दाने से पूरे चावलों के पकने का पता चलता है, एक बात सुनते ही पूरी वात का ज्ञान हो जाता है । इसी प्रकार एक पद से अनेक पदों का ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता इस लब्धि धारी होती है ।
(२२) वीजबुद्धि लब्धि - जैसे वीज विकसित होकर विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार वीज बुद्धि लब्धि के प्रभाव से एक सूत्र, व अर्थ प्रधान वचन को ग्रहण कर अपनी बुद्धि से उसके सम्पूर्ण सूत्र व अर्थ का ज्ञान कर लिया जाता है । यह लब्धि गणधरों में सर्वोत्कृष्ट रूप से होती -बस इन तीन है | तीर्थकर देव के मुख से सर्वप्रथम उत्पाद व्यय धौव्य रूप त्रिपदी का ज्ञान प्राप्त करते हैं—उप्पन्ने इ वा विगमे इ वा धुओ इ वा पदों को सुनकर ही संपूर्ण द्वादशांगी का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और वारह अंगों की रचना भी ।
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( ३ ) तेजोलेश्या लब्धि - यह आत्मा की एक प्रकार की तेजस् शक्ति हैं । इस लब्धि के प्रभाव से योगियों को ऐसी शक्ति प्राप्त हो जाती है कि कभी क्रोध आ गया तो वे वायें पैर के अंगूठे को घिसकर एक तेज निकालने है जो अग्नि के समान प्रचंड होता है, और विरोधी को वहीं जलाकर भस्मसात् कर डालते हैं । इस शक्ति से कई योजनों तक में रही हुई वस्तु को
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निकाल कर पचास हजार गायों को पिलाया जाता है । पचास हजार गायों .. का दूध पच्चीस हजार को। और इसी क्रम से करते करते दो गायों का दूध एक गाय को पिलाया जाता है । उस गाय का दूध जितना मधुर, स्वादिष्ट और शरीर को सुख प्रीति देने वाला होता है उसी प्रकार क्षीराश्रवलब्धि के प्रभाव से वक्ता का वचन भी उस दूध की भांति मधुर और सुख-प्रीति उत्पन्न करने वाला होता है।
दूध की तरह ही जिसका वचन सुनने में श्रेष्ठ, मधु के समान मोठा लगता हो, वह मध्वाधव लब्धि का प्रभाव समझना चाहिए और उन पुण्डे क्षु . चरने वाली गायों के घी के समान जिसका वचन तृप्ति कारक लगता हो .. वह सपिराश्रवलब्धि का प्रभाव ।
उक्त लन्धि का एक प्रभाव यह भी होता है कि उनके भिक्षापात्र में दूखा-सूखा-नीरस आहार भी आ जाता है तो वह स्वतः ही क्षीर, मधु एवं ..। घृत के समान स्वादिष्ट बन जाता है ।-येषां पात्र पतितं कदन्नमपि क्षीर- . मधुसपिरादि सवीर्य विपाकं जायते-और यह अन्न खाने पर भी उतना ही स्वादिष्ट और प्रीतिकारक लगता है।
कहीं-कहीं लोग मांत्रिक प्रयोगों से भी वस्तु का स्वाद बदल देते हैं । मिसरी का मिट्टी जैसा स्वाद बना देते हैं और मिट्टी को मिश्री जैसा मधुर ! किन्तु यह एक मांत्रिक प्रयोग है। किन्तु लब्धिधारी का तो यह
ग्रन्थों में भी प्रसिद्ध है । सुजाता युद्ध की उपासिका थी। वह एक हजार गायों का दूध पांच सौ गायों को पिलाती, पांच सौ गायों का ढाई सौ को, इसी क्रम से सोलह गायों का दूध आठ गायों को आठ का चार को, चार का दो गायों को दूध पिलाकर उसके दूध की खीर बनाती है । उस खीर की भिक्षा वह बुद्ध को देती
___~-आगम और त्रिपिटक पृ० १७० १ नोट :-इनी दूध से चमावर्ती की खीर बनती है जिसे 'कल्याणका
. भोजन' कहते हैं।
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हो, या मन में कभी कुछ संशय खड़ा हो गया हो, और उत्तर देने वाला पास में न हो, तथा तीर्थंकरों की अद्भुत ऋद्धि का दर्शन करने की भावना जग गई हो और वे दूर विचर रहे हों तो मुनि उस प्रयोजन को पूरा करने के लिए आत्म-प्रदेशों से एक स्फटिक के समान उज्ज्वल एक हाथ का पुतला बनाते हैं और उसे तीर्थंकर अयवा सामान्य केवली के पास भेजकर अपने प्रश्नों का उत्तर मांगते हैं, उनके दर्शन करते हैं । तथा किसी की रक्षा करनी हो-तो वह भी कर लेते हैं । पुतला वापस लौट आता है और पुनः आत्मप्रदेशों में विलीन हो जाता है । यह लब्धि चौदहपूर्वधारी मुनि को ही प्राप्त हो सकती है।
(२५) शीतललेश्या लब्धि - यह तेजोलेश्या की प्रतिरोधी शक्ति है। तेजोलेश्या के द्वारा भड़कायी गई अग्नि को समाप्त करने के लिए शीतल लेश्या लब्धि धाक जब करुणाभाव से प्रेरित होकर सौम्यदृष्टि से निहारता है, तो क्षण भर में ही धधकते दावानल को शांत कर देता है । गौशालक पर करुणा-द्रवित होकर भगवान महावीर ने उसे बचाने के लिए शीतल लेश्या का प्रयोग किया तो क्षण मात्र में ही वैश्यायन की तेजोलेश्या शांत हो गई।
शीतल लेश्या भी एक आध्यात्मिक तेज है, किंतु यह उष्ण नहीं,शीत है । इसकी शक्ति मारक नहीं, तारक है, शामक है । अग्नि को शांत करने के लिए जैसे जल है, वैसे ही तेजोलेश्या को शांत करने के लिए उसकी प्रतिरोधी आत्मशक्ति है- शीतललेश्या ।
(२६) वैक्रिय देह लब्धि-प्रस्तुत में जनदर्शन विक्रिया का अर्थ करता है विविध क्रिया, अनेक प्रकार के रूप,आकार आदि की रचना करना विक्रिया या वैक्रिय कहलाता है । वैक्रिय देहलब्धि से शरीर के छोटे-बड़े विचित्र सुन्दर और भयंकरतम रूप बनाये जा सकते हैं । एक रूप के हजारों रूप भी बनाये जा सकते हैं । चींटी से भी सूक्ष्म और अति विशाल रूप बनाने की क्षमता वैक्रिय देहलब्धि धारक को प्राप्त होती है।।
मुनि विष्णुकुमार ने संघ की रक्षा के लिए नमुचि से तीन पांव रखने
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. जैन धर्म में तप भी भस्म किया जा सकता है । उत्कृष्ट शक्ति-प्रयोग में १६।। महाजनपदों . . . को एक साथ भस्म कर डालने की शक्ति भी इस लब्धि धारक में होती है ।
भगवती सूत्र में बताया गया है कि जब भगवान महावीर छद्मस्थ थे तो गौशालक उनके साथ-साथ घूमता था। एक बार उसने वैश्यायन नामक बाल तपस्वी को छेड़ लिया । तपस्वी ने क्रुद्ध होकर गौशालक को जला डालने के लिए तेजोलेश्या छोड़ी। तव गौशालक भयभीत होकर चीखता हुआ भगवान महावीर के बगल में आकर छुप गया। भगवान ने उस दीन . प्राणी की रक्षा करने के लिए परमशीतललेश्या का प्रयोग किया जिससे आग शांत हो गई।
गौशालक इस शक्ति के चमत्कार से बड़ा प्रभावित हुआ। उसने अनुनयविनय कर भगवान से तेजोलेश्या साधने की विधि पूछी । प्रभु ने उसे बताया- छह महीने तक निरंतर वेले-बेले तप करके सूर्य मंडल के सामने दृष्टि रखकर खड़े रहना और पारणे में मुट्ठीभर उड़द के वाकले. और चुल्लू भर पानी लेना । लगातार छह मास तक इस प्रकार की तपश्चर्या करने से थोड़ी बहुत मात्रा में तेजोल ब्धि की प्राप्ति होती है।
गौशालक कुछ समय बाद भगवान से अलग हो जाता है और हाला.. हला नामक अपनी भक्त कुम्हारिन की भट्टीशाला में छह महीने तक साधना कर तेजोल ब्धि प्राप्त करता है।
__ यह तेजोलव्धि आज के अणुवम से भी अधिक विस्फोटक है । हां, तेजोलब्धि का प्रयोग जिस पर जितनी दूर तक संकल्प करके किया जाता है उतने ही क्षेत्र को वह प्रभावित करती है, जबकि बम तो फटने के बाद .. विध्वंस भी करता है और वायुमंडल को दूपित भी ! इस तेजोलेश्या के प्रयोग से वायुमंडल दूपित नहीं होता है।
(२४) आहारकलब्धि-कभी-कभी तपस्वी मुनियों के समक्ष कुछ समस्याएँ व कुछ परिस्थितियां आ जाती हैं जिनका समाधान करने के लिए वे इस आहारक लब्धि का प्रयोग करते हैं। किसी प्राणी की रक्षा करना
१ भगवती मूत्र मतक १५
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दर्ह
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वैक्रियलव्धि के प्रभाव से ही वह दिखा पाता था ।
भोजन करा
रहता है । वस,
(२७) अक्षीणमहानस लब्धि - इस लब्धि के प्रभाव से तपस्वी भिक्षा में लाये हुये थोड़े से आहार से लाखों व्यक्तियों को भरपेट सकता है । फिर भी उस भिक्षा पात्र का अन्न अखूट बना शर्त यही है कि जब तक लब्धिधारी स्वयं भोजन न करे अखूट रहता है, जब लब्धिधारी स्वयं उसमें से एक ग्रास भी खा लेता है तो फिर वह अन्न समाप्त हो जाता है ।
तब तक ही वह
वल्पसूत्र में गौतम स्वामी की क्षीणमहानसलब्धि के चमत्कार को एक घटना बताई गई है जिसे देखकर पन्द्रह सौ तापस उनके शिष्य हो गये । घटना इस प्रकार है
कोडिन्न, दिन्न और सेवाल नाम के तीन तापस गुरु थे । प्रत्येक के पांचपांच सौ तापसों का शिष्य परिवार था, यों पन्द्रह सौ तीन तापस अष्टापद पर्वत पर आरोहण कर रहे थे । सभी तपस्या से बड़े दुवले हो रहे थे । कोडिन्न तापस पांचसौ शिष्यों के साथ पहली मेखला तक चढ़ा था, दिन का परिवार दूसरी मेखला तक और सेवाल का परिवार तीसरी मेखला तक आरोहण कर गया था । अष्टापद पर्वत पर एक-एक योजन की कुल आठ मेखलाए थीं । ऊपर चढ़ने में तापस खिन्न हो गये थे और हताश से बैठे थे । तभी गौतम स्वामी उधर से आये और देखते-देखते ही लब्धिवल से अष्टापद पर्वत के शिखर पर चढ़ गये । गौतम के इस तपोवल से सभी तापस बड़े प्रभावित हुये, उन्हें आश्चर्य भी हुआ कि 'हम तो एक-एक मेखला पार करने में ही थक कर चूर हो जाते हैं और यह तपस्वी एकदम ही शिखर तक जा पहुँचा | जरूर यह महान लब्धिधारी और तपोवली है। जब यह तपस्वी अष्टापद से उतर कर आयेंगे तो हम भी उनके शिष्य बन जायेंगे ।"
I
इन्द्रभूति शिखर से वापस नीचे आये । तापसों ने विनयपूर्वक कहा - 'आप हमारे गुरु हैं और हम आपके शिष्य !' तापसों के आग्रह पर इन्द्रभूति ने उन्हें दीक्षा दी । अपने अक्षीण महानस लब्धिवल से खीर के एक ही भरे हु
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. जैन धर्म में तप की भूमि मांगी थी । वचन मिलने पर एक लाख योजन का विराट रूप बनाकर एक चरण जगती के इस छोर पर व दूसरा उस छोर पर रखा तथा तीसरे चरण को रखने की भूमि न देने पाने पर उसकी छाती पर रखकर उसे समाप्त कर डाला था । यह वैक्रिय देह लब्धि का ही चमत्कार था।
इस लब्धि के प्रभाव से एक साथ सैकड़ों हजारों रूप भी बनाये जा सकते हैं, जिधर देखो उधर वही रूप दिखाई देगा। एक साथ सैकड़ों घरों में घूमा जा सकता है, सैकड़ों जगह एक साथ भोजन आदि का उपभोग किया जा सकता है। ___अंबड परिव्राजक वैक्रिय लब्धि से सैकड़ों रूप बना कर लोगों को चमत्कार दिखाया करता था। उववाई सूत्र में प्रमंग है कि एक बार भगवान महावीर कंपिलपुर में पधारे । वहां पर अंबड परिव्राजक का बड़ा ही प्रभाव . था । लोग कहते-अंबड परिव्राजक बड़ा सिद्ध पुरुप है । वह एक साथ सौ .. घरों में भोजन कर सकता है, सौ घरों में एक साथ दर्शन दे सकता है। लोगों के मुंह से गणधर इन्द्रभूति ने यह चर्चा सुनी तो उन्होंने भगवान से पूछा-प्रभो ! क्या यह बात सत्य है ? उत्तर में भगवान ने कहा-'हां, अंबड परिव्राजक ऐसा कर सकता है।' गौतम ने पुनः आश्चर्य के साथ पूछा-- वह यों कैसे कर सकता है ? भगवान ने बताया--अंबड परिव्राजक ने दीर्घ काल तक बेले-बेले की कठोर तपश्चर्या की, सूर्य के सामने हाथ ऊपर उठाकर मातापना ली और इस तपःसाधना के कारण उसे वैशियलब्धि, वीर्यलब्धि तथा अवधिज्ञानलब्धि की प्राप्ति हुई, उसी लब्धि के बल पर वह ऐसा कर सकता है।
सुलसा की परीक्षा करने के लिए भी अंबड ने अनेक रूप बनाए । और उसकी दृढ़ धार्मिकता की परीक्षा ली । यह सब चमत्कार
१ यह लाख योजनउत्सेधा गुल से किया था, अतः सिन्हांगुल से वह
सो योजन ही माना जाता है, मनुष्य उत्कृष्ट बैक्रिय सी योजन का ही कर सकता है। २ उपवाई सूत्र ३ आवश्यक चूर्णि, उत्तरार्ध पत्र १६४.
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लब्धि-प्रयोग :
निषेध और अनमति
.
है
, उनका क्षय तन, चारित्र, या
जैन शास्त्रों में बताया गया है कि तपस्या का फल दो प्रकार का होता है-एक आभ्यन्तर और दूसरा वाह्य ! आभ्यन्तर फल है-कर्म आवरणों की निर्जरा, उनका क्षय तथा क्षयोपशम ! इससे आत्मा की विशुद्धि होती है, विशुद्धि होने पर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बल, वीर्य आदि आत्म-शक्तियां अपने शुद्ध एवं प्रचंड रूप में प्रकट हो जाती हैं । जैसे किसी स्वर्ण पट्ट पर मिट्टी की तह जमी होती है तो सोने की चमक दिखाई नहीं देती, किन्तु जैसे-जैसे मिट्टी हटती है सोना चमकने लगता है । उसी प्रकार कर्म रूप मिट्टी जैसे-जैसे हटती है आत्मा की शक्तियां प्रकट होने लगती हैं ।
आत्मशक्ति के रूप में ये शक्तियां आभ्यन्तर होती हैं, किन्तु उनका प्रभाव, चमत्कार, तेज वाह्य जगत में दिखाई देता है। उन शक्तियों के सहज विकास, एवं सामयिक प्रयोग से वाह्य वातावरण व समाज पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। इस कारण उन शक्तियों को लन्धि आदि के रूप में तप का बाह्य फल माना गया है।
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- जैन धर्म में तप ... पर जल की भांति जैसे सरोवर में उन्मज्जन-निमज्जन की क्रियाएं होती हैं .. वैसी ऊपर नीचे आने-जाने की क्रियाएं करना प्राकाम्य लब्धि है। ...
ईशित्व लब्धि-- इस लब्धि के प्रभाव से तपस्वी तीर्थकरों जैसी तथा . इन्द्र जैसी ऋद्धि की विकुर्वणा कर सकता है । यद्यपि यह विकुर्वणा कुछ क्षण ही टिक पाती है, पर लोगों को चमत्कार दिखाने के लिए ऐसी शक्ति का प्रयोग तपस्वी करते हैं।
वशित्व लब्धि-दूसरों को अपने अनुकूल या वश में करने के लिये इस लब्धि का प्रयोग किया जाता है । वशीकरण के लिए यंत्र मंत्र तंत्र आदि । भी अनेक प्रचलित हैं, किन्तु वे सब भौतिक वस्तुओं पर आधारित हैं जबकि यह लब्धि आत्म-शक्तिजन्य है ।
कुछ योगी पर्वत मालाओं के बीच से, शिलाखंडों के भीतर से विना रुकावट के ही निकल जाते हैं और शिलाखंड में कहीं कोई छेद भी नहीं दिखाई देता । इस लब्धि को अप्रतिघातित्व लब्धि कहा जाता है । शरीर को अदृश्य करने की लब्धि 'अन्तर्धान लब्धि है, तथा एक साथ अनेक प्रकार के रूप बनाना, मनचाहे रूप बना लेना कामरूपित्व लब्धि है।
लब्धियों का विस्तार के साथ वर्णन इस लिए किया है कि आत्मा की .. अनन्त शक्तियों का किस-किस रूप में विकास होता है,और क्या-क्या चमत्कार पैदा होते हैं- इसका अनुमान पाठकों को लग सके । यह भी नहीं भूल जाना चाहिए कि तप का सीधा फल लब्धि नहीं है । तप का फल तो है कर्मनिर्जरा, आत्मा का शुद्ध स्वरूप में आना | आत्मविकास होने पर आत्मा की शक्तियां भी स्वतः जाग्रत होती हैं। वे शक्तियां ही एक प्रकार की लब्धि है । इस तरह . तप का मूल लाभ है-कर्म निर्जरा ! और उत्तर लाभ है --लब्धि ! शक्ति !
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लधि प्रयोग : निषेध और अनुमति
__इस प्रश्न का उत्तर है कि लब्धि एक अतिशय है, एक प्रभाव है, साधक अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए कभी उत्सुक नहीं होता, भाव बढ़ता है तो प्रभाव अपने आप बढ़ जाता है। सिद्धि मिलती है तो प्रसिद्धि अपने आप हो जाती है । इसलिए तप की जो विधि है वह लन्धि प्राप्त करने के लिए नहीं है, किन्तु तप का एक मार्ग है जिस मार्ग पर चलने से बीच में अमुक सिद्धियाँ मिल जाती हैं । जैसे अमुक नगर को जाना है, यदि इस रास्ते से गये तो बीच में अमुक-अमुक स्थान आयेंगे और अमुक रास्ते से गये तो अमुकअमुक स्थल ! वीच के स्थल पर पहुँचने के लिए कोई यात्रा नहीं करता, वह तो अपने आप आयेगा ही, यात्रा का लक्ष्य तो मंजिल है। वैसे ही तप का उद्देश्य तो कर्म निर्जरा है, किन्तु अमुक विधि से तप का आचरण करने पर कर्म निर्जरा तो होती ही है, किन्तु जिस प्रकार के कर्मों की अर्थात् जिस वर्गणा के कर्मों की निर्जरा होगी उसके फलस्वरूप आत्मा में स्वतः ही अमुक प्रकार की शक्ति जग जायेगी। जैसे वेले-बेले तप करते रहने से अमुक प्रकार की शक्ति जगेगी. तेले-तेले तप करने से उससे कुछ विशिष्ट आत्मशक्ति जागृत होगी। उदाहरणार्थ-भगवान महावीर को भी लब्धियाँ प्राप्त थीं, तेजोलन्धि भी और शीतललब्धि भी प्राप्त थी। तो क्या उन्होंने इन लब्धियों के लिए तप किया या ? नहीं ! किन्तु वे वैले-वैले तप करते रहे तो उससे जैसे ही उस लब्धि के योग्य कर्मों की निर्जरा हई तो वह लब्धि अपने आप प्राप्त हो गई। अंत: यह ध्यान में रखने की बात है कि शास्त्र में तप को लब्धि प्राप्त करने की विधि के रूप में नहीं बताया है, किन्तु अमुक प्रकार के तप के फल रूप में लब्धि बतायी गई है. और फल की कामना से रहित होकर ही साधक को तप करना चाहिए।
लब्धि का प्रयोग क्यों ? एक और महत्व की बात है कि लब्धि जब तप के प्रभाव से स्वतः ही प्राप्त होने वाली एक आत्मशक्ति है तो उसका प्रयोग करना चाहिए या नहीं ? शास्त्रों में इसका प्रयोग करना अनुमत है या नहीं।
इस प्रश्न का समाधान प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम हमें भगवती सूत्र
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जैन धर्म में तप लब्धि तप से स्वतः प्राप्त होती है । तप व चारित्र की उत्कृष्टता होने पर लब्धियों की प्राप्ति अपने आप हो जाती है। जैसे पौष्टिक भोजन करने पर शरीर में शक्ति और स्फूर्ति बढ़ती है, तो रक्त और मांस भी बढ़ता है। भीतर में शक्ति बढ़ने पर वाहर में ओज-तेज जिस प्रकार दिखाई देता है, उसी प्रकार तप के द्वारा तेज प्रकट होता है, तो वह वाहर में स्वतः ही . अपना प्रभाव दिखाने लगता है। इसीलिये भगवान महावीर ने कहा है-: ..
सक्खं खु दीसइ तदोविसेसो तप का विशिष्ट प्रभाव संसार में साक्षात् दिखाई देता है । राजस्थानी में कहावत है
घी खायो छानो को रेवेनी -~धी खाया हुआ छिपता नहीं है, शरीर पर अपने आप उसका तेज दमकने लगता है, वैसे ही तप भी तपा हुआ छुपता नहीं है । तपस्वी की .. ऋद्धि, तेज और प्रभाव अपने आप ही वोलने लग जाती है । कहा है:
___ जस्सेरिसा रिद्धि महाणुभावा -उस महानुभाव तपस्वी की अपूर्व ऋद्धि, लब्धि और तेज ऐसा . अद्भुत है कि जो देखे वह स्वतः ही नतमस्तक हो जाता है । तपस्वी के चेहरे पर स्वतः ही एक विशिष्ट तेज ओज दमकने लगता है । उसको वाणी ... में सिद्धि, उसकी प्रसन्नता में वरदान तथा आक्रोश में शाप की शक्ति अपने आप आ जाती है । इन शक्तियों के लिए उसे प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहती। ___ यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जव लब्धियों के लिए तप करने की आवश्यकता नहीं है, तो शास्त्र में अलग-अलग लब्धियों के लिए अलगअलग प्रकार की तपस्याएं क्यों बताई हैं ? जैसे भगवतीसूत्र में गोगालक को तेजोलेश्या की साधना विधि बताई गई है। जंघाचरण विद्याचरण की भी साधना विधि बताई है तथा पूर्वी में लब्धियों की विभिन्न साधना पद्धति का वर्णन उपलब्ध था ऐसा उल्लेख किया जाता है तो इसका क्या अर्थ है ? जब लब्धि के लिए तप नहीं किया जाना चाहिए तो फिर उसके लिए तप । की विधि क्यों ?
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ब्धिप्रयोग : निषेध और अनुमति भाव है, और लब्धि-विस्फोट प्रमत्तभाव है, प्रमादसेवना है। प्रमाद कर्म वन्धन का कारण है-पमायं फम्ममाहंसु' प्रमाद स्वयं ही कर्म है । इसीलिए भगवती सूत्र में बताया गया है- जो साधक (गृहस्थ या मुनि) लन्धि का प्रयोग कर, प्रमादसेवना कर यदि पुनः उसकी आलोचना नहीं करता है, और अनालोचना की दशा में ही काल प्राप्त कर जाता है तो वह धर्म की आराधना से च्युत हो जाता है-नत्थि तस्स आराहणारे अर्थात् वह विराधक हो जाता है।
लब्धि-प्रयोग प्रमाद क्यों है ? इसका सीधा सा उत्तर है कि-लब्धि फोड़ना-एक प्रकार की उत्सुकता, कुतूहल और प्रदर्शन, यश एवं प्रतिष्ठा की भावना का परिणाम है। कभी साधक कुतूहल के वश में होकर लब्धि फोड़ता है, कभी अपना प्रभाव लोगों पर जमाने के लिए । कभी-कभी क्रोध के वश होकर किसी का अनिष्ट करने के लिए भी लब्धि का प्रयोग किया जाता है। ये सब भावनाएं राग-द्वेपात्मक हैं, जो प्रमाद-जन्य हैं, इस कारण लब्धि प्रयोग को भी प्रमाद-भाव माना गया है और प्रमाद भावना से मुक्त होना साधक का लक्ष्य है । तो जो कार्य उसे लक्ष्य के विपरीत दिशा में ले जाता हो, वह उसके लिए करणीय कैसे हो सकता है ? लब्धि बल से विविध रूप बनाने वाले अंबड को सुलसा श्राविका ने ढोंगी कहकर पुकारा, उसे नमस्कार नहीं किया इसका अर्थ यही है कि लब्धि का प्रयोग साधक के लिए विहित नहीं है, अनुमत नहीं है।
चमत्कार नहीं, सदाचार का महत्व यह एक निश्चित तथ्य है कि भगवान महावीर सदाचार को महत्व देते थे, चमत्कार को नहीं। शुद्ध चारित्र, निस्पृहभावना और वीतराग साधना में उनका विश्वास था, अपने शिष्यों को भी वे सदा यही उपदेश
१ सूमकृतांग १८३
भगवती सूत्र २०१६
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. .. जैन धर्म में तप ...... के एक उल्लेख की ओर ध्यान देना होगा । गौतमस्वामी की विशिष्ट साधना का वर्णन करते हुए भगवान ने बताया है- गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी संखित्त विउल तेउलेस्से... " गौतम इन्द्रिय शक्तियों का संगोपन करते थे, अर्थात् कभी अपनी शक्ति और तेज का प्रदर्शन नहीं करते थे तथा विपुल तेजोलेश्य का भी संगोपन करके रखते थे। लब्धियाँ प्राप्त करके उन्हें पचा. .. लेते थे, उनका अजीर्ण उन्हें नहीं होता था। गरिष्ठ भोजन करने का . महत्व नहीं है, महत्व है उसे पचाने का। वैसे ही शक्ति को प्राप्त करना उतना महत्वपूर्ण नहीं हैं किन्तु शक्ति को प्राप्त करके उसे पचा लेना बहुत महत्वपूर्ण है। इसलिए शास्त्रों में जहाँ लब्धियों का वर्णन किया गया है, वहाँ लब्धियों के प्रदर्शन व प्रयोग का निपेध भी किया गया है । प्रसिद्ध है कि आचार्य स्थलिभद्र ने अपनी बहनों को चमत्कार दिखाने के लिए लन्धि फोड़ . कर सिंह का रूप बनाया था । बहनें भाई का दर्शन करने गई थी पर भाई ..." की जगह सिंह को बैठा देखा तो वे भयभीत हुई, घबरा गई। सोचा-... अवश्य ही इस सिंह ने हमारे भाई को खा लिया है । वे घबराई हुई आचार्य भद्रबाहु के पास आई और बोली - "भगवन् ! अनर्थ हो गया । स्थूलिभद्र के आसन पर तो एक केसरी सिंह बैठा है ।" आचार्य ने ज्ञानवल से देखा . तो पता चला कि सिंह और कोई नहीं, स्यूलिभद्र ने ही यह रूप बनाया है। .. आचार्य को बड़ा खेद हुआ-सोचा स्थूलिभद्र को विद्या सिखाई तो है, परन्तु उसे हजम नहीं हुई । इसी कारण आचार्य ने आगे ज्ञान देने से इन्कार .. . कर दिया। इसका अर्थ है लधि फोड़ना एक प्रकार से शक्ति का अजीर्ण है। किन्तु कब ? जव कि वह अपना अहंकार पोषण करने के लिए हो, लोगों को जागर जैसा चमत्कार दिखाकर मनोरंजन करने के लिए हो। . . . . .
लब्धि फोड़ना प्रमाद है .. सबसे पहली बात तो यह है कि लब्धि का प्रयोग, लब्धि फोड़ना एक .. प्रमाद है, प्रमादसेवना है। जितने भी लब्धि प्रयोग किये जाते हैं-सब . प्रमत्त दशा में ही होते हैं । च्छे गुण स्थान तक ही लन्धि प्रयोग है । सप्तम गुणस्थान वाला कभी भी लब्धि का प्रयोग नहीं करता, क्योंकि यहां अप्रमत्त
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लब्धि-प्रयोग : निषेध और अनुमति
__ है ?
बाहुने निहो
जज विह
अनुमति कब ? एक प्रश्न यहां और आता है कि क्या लन्धि फोड़ना सर्वथा ही निषिद्ध है ? अथवा कभी किसी परिस्थिति विशेष में अनुमत भी है ? इसका उत्तर आचार्य भद्रवाहु ने दिया है
एगतेण निसेहो जोगेसु न देसिमो वाऽवि ।
दलिअं पप्प निसेहो, होज्ज विही वा जहा रोगे। जिन शासन में किसी भी क्रिया का, किसी भी आचरण का न तो एकांत रूप से निषेध ही है और न एकांत रूप से विधान ही है। जैसे रोग होने पर चिकित्सक रोगी की प्रकृति, वातावरण व देशकाल को देखकर उसकी चिकित्सा करता है, वैसे ही साधक परिस्थिति विशेष को देखकर कभी अनुमत कार्य का भी निषेध कर देता है, और कभी निपिद्ध कार्य भी अनुमत मान लिया जाता है। ___ किसी भी कार्य में मुख्यता कार्य की नहीं, भावना को होती है, परिस्थिति की होती है। यदि भावना में कुतूहल नहीं है, स्वयं के प्रभाव व यश-प्रतिष्ठा की कामना नहीं है, और उसके स्थान पर किसी जीव के. प्रतिवोध की आशा हो, किसी का कल्याण हो सकता हो, किसी की रक्षा होती हो, अथवा संघ, गण आदि पर कोई संकट आया हो और वह संकट टल कर संघ की रक्षा होती हो तो ऐसी परिस्थिति में किया गया लब्धिविस्फोट, लब्धि का प्रयोग वास्तव में कल्पप्रतिसेवना है, उसके सेवन से साधक विराधक नहीं होता। यद्यपि परम्परा में उसके लिए भी प्रायश्चित लेने का विधान किया गया है । प्राचीन आचार्यों ने कहा है -
रागद्दोसाणुगता तु दप्पिया फप्पिया तु तदभावा ।
आराघतो तु फप्पे, विराधतो होति दप्पेणं ।' राग और द्वेष पूर्वक जो आचरण (प्रतिसेवना-निपिद्ध आचरण) किया जाता है, वह दपिका है, सदोष है, उसके सेवन से संयम की विराधना होती
स्थितिकी कामना नहा
कल्याण हो सकता और वह संकट टल
साधक विधान किया गया
पिया ना होति आचरण)
१ वृहत्कल्प भाप्य ४६४३
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जैन धर्म में तप
er
देते थे । यश, प्रतिष्ठा, कीर्ति, प्रभाव जमाने की भूख को वे दल दल कहकर पुकारते थे, और स्वयं इस दल-दल से दूर थे, अपने शिष्यों को भी इस दल-दल से बचते रहने की ही शिक्षा दिया करते थे ।
.
भगवान महावीर के समान गौतम बुद्ध भी लब्धि प्रयोग प्रदर्शन को साधक के लिए त्याज्य मानते थे । उनके संघ में गल्यायन महान् लव्धिघारी ऋद्धिवली माना अपने ऋद्धिवल का प्रदर्शन किया करता था, ऋद्धिवल के प्रदर्शन की असारता बताते रहते ।
जाता था ।
किन्तु वुद्ध
:
एक बार का प्रसंग है कि एक राजा ने एक बहुमूल्य चन्दन का रत्न जटित कटोरा ऊँचे खंभे पर टांग दिया और उसके नीचे लिख दिया -- "जो कोई साधक, सिद्धयोगी इस कटोरे को बिना किसी सोढ़ी आदि के एक मात्र अपनी यौगिकशक्ति से उतार लेगा में उसकी सारी इच्छाएँ पूर्ण करूंगा ।"
बहुत से लोग वहां इकट्ठे हो रहे थे तभी भिक्षु काश्यप वहां पहुंचा, उसने केवल उधर हाथ बढ़ाया और कटोरा उतार लिया। सभी दर्शक व पहरेदार चकित होकर भिक्षु को देखते रहे । भिक्ष कटोरा लेकर बुद्ध विहार की ओर चला गया । लोगों की भीड़ बुद्ध के पास पहुंची और उनकी तथा उनके शिष्य काश्यप के चमत्कारों की प्रशंसा करने लगी ।
व चमत्कार
बुद्ध सीधे काश्यप के पास पहुंचे, उस रत्नजटित कटोरे को लेकर उन्होंने तोड़ डाला और वोले- मैं तुम लोगों को चमत्कारों के प्रदर्शन का बार-बार निषेध करता हूं, यदि तुम लोगों को चमत्कारों का प्रदर्शन ही इष्ट है तो सचमुच तुमने धर्म को समझा ही नहीं है । कल्याण चाहने वाला भिक्षु चमत्कार से बचकर सदाचार का अभ्यास करें 12
.
भिक्षु मोद्
वह कई वारं वारवार उसें
इससे पता चलता है कि आत्मसाधना के पथ में चमत्कारों व लब्धि
प्रयोगों को सभी अध्यात्मवादियों ने त्याज्य माना है ।
१ संयुक्त निकाय महावग्ग रिद्विपाद
२] CARV'S GOSPEL OF BUDDHA.
-pp99-101
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लब्धि-प्रयोग : निषेध और अनुमति
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की भूमि माँगी । जव वैक्रिय लब्धिफोड़कर लाख योजन का रूप बनाया और दो चरण में जंबूद्वीप के ओर छोर को नाप कर तीसरा चरण रखने की भूमि माँगी, और आखिर दुष्ट नमुचि के अत्याचारों से धर्म शासन की रक्षा की ।
यदि ऐसे प्रसंग पर उनके सामने यह अपवाद मार्ग नहीं होता, तो क्या जैन शासन की रक्षा हो सकती थी ? इसीलिए आचार्यों ने माना है कि लब्धि फोड़ना एकान्तरूप से निषिद्ध ही हो ऐसी बात नहीं है, परिस्थिति का विवेक तो उसमें होना ही चाहिए ।
गौतम गणधर ने अष्टापद से उतरते समय जव पन्द्रह सौ तीन तापसों को अपने प्रति आकृष्ट हुए देखा और उनकी प्रार्थना पर उन्हें वहीं दीक्षा देकर खीर का पारणा कराने लगे तो अक्षीण महानस लब्धि के प्रभाव से एक ही क्षीर पात्र में से पन्द्रह सौ तीन तापसों को भरपेट पारणा करवा दिया। 1
उस सम्बन्ध में कहा है
छोटा क्षीर पात्र भर पनरास तीन मुनि
ज्यांको पेट भरपाई खूटी नांही खीर रे । दीक्षा निज हाथ दीनी केवलो बने हैं वे तो
ऐसे थे दयालु गुरु धारया जिन वोर रे । अतिशयवन्त छवि चकित निहार होत,
कंचन समान फान्ति राजती शरीर रे । कामधेनु मणि सुरतरु तिहुँ नाम छाजे
'मिश्री' लब्धि गौतम की भांजी डारे भोर रे ।
तो यह भी एक विशेष परिस्थिति थी, वे जानते थे कि इसके कारण इन तापसी के मन में धर्म के प्रति दृढ़ आस्था उत्पन्न होगी । इस प्रकार के अनेक प्रसंग आगमों में व अन्य ग्रन्थों में आते हैं जिनसे यह पता चलता है कि लब्धि-प्रयोग कभी कभी परिस्थिति विशेष में किया भी जाता था और
१ कल्पसूत्र प्रबोधिनी पृ० १६६
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जैन धर्म में तप है; किन्तु वही प्रतिसेवना, जब अपवाद काल में परिस्थिति आ जाती है, तब , रागद्वेप की भावना से अलिप्त रहता हुआ साधक यदि उसका आचरण । करता है तो वह निपिद्ध आचरण भी कल्पिका है, उसकी प्रतिसेवना में भी संयम की आराधना है। व्यवहारभाष्य में तो यहां तक कह दिया है कि सालंबसेवी समुवेइ मोक्खं .--साधक यदि किसी विशिष्ट उद्देश्य से निपिद्ध .... का आचरण भी करता है तब भी वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ___ भावना और परिस्थिति की इसी भूमिका पर जैन धर्म का आचार महल खड़ा है । लब्धि-प्रयोग में भी हमें इसी दृष्टि से सोचना होगा कि सामान्यतः लब्धि फोड़ना निषेध है, लब्धि फोड़ने वाले को प्रायश्चित्त भी बताया है, किन्तु यदि कोई महत्वपूर्ण प्रसंग आ पड़ता है तो उस समय में साधक पीछे भी नहीं देखता, किन्तु अपने तपोबल से, संघ की, धर्म की, एवं . किसी प्राणी की रक्षा के लिए लब्धि का प्रयोग भी कर लेता है । भगवान . . ' महावीर स्वयं जब साधना काल में थे तब गौशालक की प्राणरक्षा के लिए द्रवित होकर उसे वैश्यायन तापस की तेजोलेश्या से जलते हुए को बचाया और .. शीतल लेश्या का प्रयोग किया। यह महान करूणा का प्रसंग था, एक जीव की रक्षा का प्रसंग था और महान दयालु प्रभु महावीर ऐसे अवसर पर मौन. ... कैसे रह सकते थे ? शक्ति होते हुए भी यदि किसी की रक्षा न की जाय, .. किसी का उपकार न किया जाय तो क्या यह साधु धर्म है ? ..
रक्षा बन्धन पर्व की कथा सुनने वाले जानते हैं कि जब नमुचि प्रधान को दुष्टता के कारण धर्मशासन पर संकट आ गया था, जैन धर्म पर विपत्ति की काली घटाएं मंडराने लगी थी तव आचार्य ने लब्धिधारी मुनि विष्णु कुमार को याद किया। शिष्य को मेरु पर्वत पर भेजकर उन्हें आने का आग्रह किया। मुनि विष्णु कुमार ने उस परिस्थिति में अपना ध्यान बन्द करके संघ की रक्षा का बीड़ा उठाया, और नमुचि से सिर्फ तीन पांव रखने
१ व्यवहार भाप्य पीठिका १८४ २ भगवती सूत्र १५॥
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S
तप (मोक्षमार्ग) का पलिमंथु : निदान
हमारा लक्ष्य है - आत्मशुद्धि ! आत्मा को पवित्र व उज्ज्वल बनाकर स्वरूप दशा को प्राप्त करना ही हमारी समस्त क्रियाओं का अंतिम लक्ष्य है । . इस लक्ष्य की पूर्ति करने वाला श्रेष्ठ व उत्कृष्ट साधन है तप ! तप एक पवित्र व श्रेष्ठ क्रिया है । उसका फल अचिन्त्य और असीम है । जैसे कल्पवृक्ष से जो चाहे वही वस्तु प्राप्त हो जाती है, चिंतामणि रत्न के प्रभाव से मन में सोचे हुए सब संकल्प सफल हो जाते हैं - तप का प्रभाव इनसे भी अधिक है । इसीलिए तप को सर्व संपत्तियों को 'अमरवेल' कहा है । भगवान ने बताया है
भव-कोडी संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ ।
करोड़ों भवों के संचित कर्म तप से क्षीण व विलीन हो जाते हैं ।
१ उत्तराध्ययन सूत्र ३०|
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जैन धर्म में तप
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उसके सुन्दर परिणाम के कारण उसे कभी हेय नहीं बताया गया । वास्तव में हर एक क्रिया उसके गुण-दोष रूप फलं पर निर्भर करती है । सुन्दर फल लाने वाला दोष भी कभी-कभी गुण वन जाता है
अगुणो विय होति गुणो जो सुन्दर णिच्छओ होति । १ वह दोष भी गुण का कारण बनने से गुण ही मानना चाहिए जिसके परिणाम में सुन्दर फल प्राप्त होता है ।
दोष और गुण वस्तु में, नहीं कभी एकान्त ! 'मिश्री' फड़वा नीम भी करता पित्त प्रशान्त ! गुण-दोष के परिणाम का
विचार करके ही वस्तु को, किसी क्रिया को
अच्छी या बुरी कही जाती है, जो नीम कड़वा होता है, जिसे चखते हो थू-थू करते हैं, वह भी पित्त ज्वर को शांत करने में, रक्तशुद्धि करने में तथा चर्म रोगों पर औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है, ओर बड़ा लाभकारी माना गया है- सर्व दोषहरो निम्व: कहा गया है ।
तो इसी प्रकार गुण-दोप के विचार पर ही लब्धि प्रयोग का विधान और निषेध शास्त्रों में किया गया है। मूल बात है, लब्धि व शक्ति का प्रयोग अपने अहंकार आदि के पोपण के लिए निषिद्ध है, किंतु, जीवदया, संघ रक्षा व धर्म प्रभावना आदि के प्रसंगों पर वह अनुमत भी है ।
१. निशीय भाष्य ५८७७
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निदान
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तप (मोक्षमार्ग) का पलिमंथु : निदान
पर फसल पावस, वह तो अपनी खेती का भी दूसरों की तरह
पर बाली चली तो पहले पांच सौ कमल
टूट जाता है, वह भी दूसरों की भांति आजादी से हाथ में नोट लेकर घूमना चाहता है । उसने पांच सौ में अपनी खेती वेच डाली।
दूसरा साथी मेहनत करता गया, फल के लिए उसे कोई अधीरता नहीं थी। मन में कोई लालसा नहीं थी कि में भी दूसरों की तरह आजादी से घूमू-फिरूं ! वस, वह तो अपनी खेती की देखभाल में लगा रहा । समय पर फसल पकी, एक-एक बेल को सैकड़ो अंगूर लगे, ग्राहक आये, पांच हजार से बोली चढ़ी तो पचीस हजार में खत्म हुई । वह पच्चीस हजार के नोट लेकर घर आया। पहले ने पांच सौ कभी के खत्म कर डाले थे, जब उसने . अपने साथी की पच्चीस हजार में फसल विकी सुनी तो सिर पर हाथ धर कर पछताने लगा-हाय ! यदि मैं भी पांच सौ के लालच में नहीं पड़ता, मौज-शौख के चक्कर में नहीं आता, मेहनत करता जाता तो आज मुझे अपनी फसल की कीमत पच्चीस हजार मिल जाती । खन-खन करते कलदार हाथ में आते ! फिर मन चाही मौज-शौख सब हो जाती !" हाथ में रुपैया तो सारा जगत भया ।" पर अब तो पछताने और सिर पीटने के सिवाय और क्या हो सकता है ? __यही स्थिति तपस्या के बीच भोगों की कामना करने वालों की होती है । दूसरों को मौज-शौख करते देखकर साधक अपने तप को दांव पर लगाने के लिए अधीर हो जाता है कि बस,मुझे भी इस तपस्या के प्रभाव से ऐसा घर मिलना चाहिए, ऐसी पत्नी मिले, राज्य मिले, परिवार मिले, और मैं भी ऐसा आनन्द लूटू!
भगवान कहते हैं-"मूर्ख साधक ! तू तप करता है तो यह सब तो अपने आप मिलेगा, इनसे भी अधिक मिलेगा, किन्तु इन तुच्छ अभिलाषाओं के चक्कर में पड़कर अपनी तपस्या को वेच मत ! हीरों को कंकर के मोल मत वेच !" आमों के बगीचे को लकड़ियों के भाव वेच देने वाला मूर्ख होता है, वैसे ही अक्षय मुक्ति सुख प्रदान करने वाले तप को, संसार के तुच्छ भोगसुखों के लिए वेच देने वाला-मूखं, महामूर्ख माना जाता है।
निदान क्या है? भोगाभिलापा में फंसकर तपस्या को बेच देने की यह क्रिया ही जैन
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जैन धर्म में तप ___किंतु, कभी कभी तप करने वाला साधक कर्मनिर्जरा का उद्देश्य भूलंकर भौतिक लाभ के लिए तप करने लग जाता है । उसके मन में, तप के भौतिक फल की कामना भी जागृत हो जाती है । संसार की भौतिक ऋद्धियों को देखकर, काम भोगों के सुखों की कल्पना कर वह सोचने लगता है-"मेरे तप के प्रभाव से मुझे भी ऐसा लाभ मिलना चाहिए। यदि मेरी तपस्या का कुछ फल हो, तो मैं भी अमुक प्रकार का संपत्तिशाली, यशस्वी व सुखी बनूं।" तपस्या के साथ इस प्रकार का तुच्छ संकल्प पैदा होना 'तप का शल्य' माना गया है । कांटा जिस प्रकार शरीर में चुभकर बैचेनी पैदा कर देता है, वैसे ही इस प्रकार की भोगाभिलापा तपस्या के आत्मानंद में, एक .. प्रकार की वैचेनी, पीड़ा व खटक पैदा कर देती है। साथ ही तपस्या के अचिंत्य व असीम फल को भी तुच्छ भोगों के लिए वांध देती है।
कल्पना करिए-द्रो मनुष्य अंगूरों की खेती कर रहे हैं, खेती में खूब खाद और पानी दे रहे हैं, अच्छी बढ़िया जाति के पौधे लगाए हैं, समय-समय. पर उसकी देखभाल भी कर रहे हैं । अब अंगूर की खेती पकने में तो समय लगता है, खेती में चट रोटी पट दाल नहीं हो सकती । फल आने में महीनों .." व वर्षों लग जाते हैं। तव उनमें से एक आदमी सोचता है-मैं इतनी मेहनत कर रहा हूँ अभी तक इसका कुछ फल नहीं मिला, दूसरे लोग देखो, विना मेहनत किये ही मजे से खाते-पीते हैं, घूमते फिरते हैं। कोई मुझे भी यदि मेरी मेहनत के बदले सिर्फ पांच सौ रुपये दे दे तो मैं यह खेती वेच डालू और मौज करूं।" दूसरा साथी उसे कहता है--"भोले भाई ! . पांच सौ रुपये के लिए यह इतनी मेहनत की खेती मत बेचो । पता नहीं पांच सौ की जगह पांच हजार और पचीस हजार भी मिल जाये । यह तो अंगूर की खेती है, मेहनत करते जागो ! फल तो मिलेगा ही, फल के लिए वीच में अधीर बन कर मेहनत के मोती को कंफर के भाव मत वेचो !"
किन्तु पहला साथी दूसरों को आजादी से घूमते-फिरते मौज-मजा करते देखकर अधीर हो जाता है। किसान के हाथ में तो सेती पकने पर पैसा . भाता है, पहले तो बस, जो आये खेती में लगाते जागो ! पहले का धीरज
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तप (मोक्षमार्ग) का पलिमंयु : निदान
भिलापा के वश होकर निदान करने वाले साधक की अन्तर आत्मा को कभी शान्ति नहीं मिलती, वह भीतर ही भीतर व्याकुल एवं वैचैन रहती है । जब अपने ही समान अपने से कम तप करने वालों को अधिक ऋद्धिशाली, प्रभावशाली व अपने ऊपर शासन करते देखता है तो वह निदान की असारता से दुःखी भी होता है, और उस चिंता व आर्तध्यान आदि के कारण मन बेचैन बना रहता है। निदान तीव्र कर्म बंधन का भी कारण है । सम्यक्त्व का भी घातक है । इस कारण इसे शल्य कहा है ।
निदान करने वाला पछताता है
निशीथ भाष्य में निदान करके तप करने वाले एक यक्ष की कहानी आती है। चंपानगरी में अनंगसेन नामका एक स्वर्णकार रहता था । वह अत्यंत कामुक व भोगासक्त था । उसके पास धन की कमी नहीं थी । जहां कहीं भी किसी सुन्दर कन्या को देखता धन के द्वारा उसे खरीद लेता । इस प्रकार पांच सौ कन्याओं के साथ उसने विवाह किया । फिर भी भोगों में अतृप्त ही रहा ।
एक बार हासा - प्रहासा नामकी दो यक्षिणियों ने अनंगसेन को देखा, उनका यक्ष उनसे पहले ही काल कर गया था, इसलिए वे विरह में भटकती हुई अनंगसेन के पास आई । अनंगसेन को अपने रूप-लावण्य हाव-भाव के द्वारा आकृष्ट किया । अनंगसेन उनके सौन्दर्य व काम चेप्टा से उन्मत्त हो हाथ फैलाकर उनकी ओर दौड़ा । तव यक्षिणिय बोली - "हमें चाहते हो तो पंचशैल द्वीप में आओ ।" बस इतना सा कहकर दोनों अदृश्य हो गई ।
अनंगसेन तो उनके पीछे पागल होगया । उसने घोषणा करवाई "जो कोई व्यक्ति मुझे पंचशैल द्वीप पहुंचा देगा, उसे एक करोड़ स्वर्ण मुद्रा दूंगा । एक बुड्ढे नाई ने घोषणा स्वीकार की । उसने एक करोड़ स्वर्ण मुद्रा लेक घर में रखी और अनंगसेन को नौका में बिठाकर पंचशैल द्वीप को ओ चला । बहुत दूर चलने के बाद नाई ने पूछा - कुछ दिखाई दे रहा है ?
अनंगसेन बोला- "बहुत दूर, जल की धारा के बीच एक मनुष्य खोपड़ी के वरावर लाल गोला दिखाई दे रहा है ।"
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. जैन धर्म में तप दर्शन में 'नियाणा-निदान' के नाम से प्रसिद्ध है । आचार्य अभयदेव ने निदान की परिभाषा करते हुए बताया है-' 'अक्षय मोक्ष सुखों का आनन्द रूप . फल वरसा देने वाली ज्ञान, तप आदि की लता, जिस इन्द्रचक्रवर्ती भादि के भोगों की अभिलापा रूप परशु (कुल्हाड़ी) से काटी जाती है-उस भोगाभिलापा रूप कुल्हाड़ी को निदान कहते हैं ।" किसी देवता अथवा राजा आदि मनुष्य की ऋद्धि व सुखों को देखकर, या सुनकर उसकी प्राप्ति के लिए अभिलापा करना कि मेरे ब्रह्मचर्य व तप आदि के फलस्वरूप मुझे भी ऐसी ऋद्धि व वैभव प्राप्त हो, और अपने तप अनुष्ठान को उसके लिए बद्ध कर देना निदान है । निदान-शब्द का अर्थ है-निश्चय अथवा वांध देना। उच्च तप को, निम्न फल की अभिलापा के साथ बांध लेना, महान् ध्येय को तुच्छ संकल्प-विकल्प रूप भोग प्रार्थना के लिए जोड़ देना यह होता है निदान । का अर्थ । इस निदान को शल्य-अर्थात् आत्मा का कांटा कहा है। . .
निदान शल्प . श्रमण सूत्र में तीन प्रकार के शल्य बताये गये हैं-माया शल्य, निदान शल्य और मिथ्यादर्शन शल्य !3 आचार्य हरिभद्र ने शल्य की व्युत्पत्ति .. करते हुए कहा है-शल्यतेऽनेनेति शल्यम् ---जो हमेशा सालता रहे, वह शल्य है । जिस प्रकार शरीर के किसी भाग में कांटा, कील अथवा तीर आदि तीक्ष्ण वस्तु घुस जाये तो वह समूचे शरीर को वेचैन कर देती है, जब तक वह नहीं निकले भीतर ही भीतर सालती रहती है, उसी प्रकार भोगा
१ निदायते लूयते ज्ञानद्याराधना लताऽऽनन्द-रसोपेत मोक्षफला, येन परशुने. व देवेन्द्रादिगुणद्धि प्रार्थनाध्यवसायेन तनिदानम् ।
-स्थानांग १० वृत्ति (ख) स्वर्ग मादि ऋद्धि प्रार्थने
-स्थानांग, वहीं पर, .. २ दिव्य-मानुष ऋद्धि संदर्शन प्रवणाभ्यां तदभिलाषाऽनुष्ठाने
-आवश्यक ४ . (ख) भोगप्रार्थनायाम्
-व्यवहार भाप्य वृत्ति . ३ श्रमणसूत्र शल्य सूत्र
४ हारिगद्रीय आवश्यक वृत्ति
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तप (मोक्षमार्ग) का पलिमंथु : निदान
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प्राप्त हुआ । वह र द्वीप में अष्टान्हि
देव इन्द्र के सामने देखा तो पर प्रभाव को या तो हत
- अनंगसेन पर तो बस यक्षिणियों का जादू चढ़ा था उसने किसी की बात नहीं मानी और उन्हीं को प्राप्त करने का निदान कर वाल तप करने लगा। वहाँ से मरकर वह पंचशैल द्वीप में विद्युन्माली यक्ष बना । वह हासा प्रहासा के साथ भोग भोगने लगा।
इधर णाइल श्रावक भी संयम स्वीकार कर तप करता हुमा मृत्यु को प्राप्त हुआ। वह अच्युत कल्प में महान ऋद्धिशाली सामानिक देव बना।
एक बार नन्दीश्वर द्वीप में अष्टान्हिक महोत्सव मनाया जा रहा था। इन्द्र की आज्ञा से सभी देवों को अपना-अपना नियुक्त कार्य करना था ! विद्युन्माली देव को ढोल बजाने का कार्य सौंपा गया। वह ढोल बजाना नहीं चाहता था । आखिर इन्द्र के आदेश से जर्वदस्ती उसे वहां जाना पड़ा और ढोल बजाने लगा।
णाइल देव इन्द्र के साथ इस महोत्सव में आया था। उसने जब विद्युन्माली देव को ढोल बजाते देखा तो पूर्व जन्म का स्नेह उमड़ आया। वह उसके पास आया। विद्युन्माली उसके तेज व प्रभाव को सहन नहीं कर सका, वह पीछे-पीछे हटने लगा। णाइल देव और पास में आ गया। तो हतप्रभ हुआ विद्युन्माली ढोल वजाना भूल गया।
णाइलदेव ने पूछा-तुम मुझे पहचानते हो ? विद्युन्माली-महाराज ! मैं आपको कैसे जानू ! आप महान शक आदि कौन इन्द्र हैं ?
णाईलदेव-मैं तुम्हारा मित्र हूँ।"
विद्युन्माली-सकुचाता हुमा वोला-"नहीं ! नहीं ! आप महान हैं! मैं तो एक बहुत तुच्छ आतोद्यवादक हूँ।"
माईल देव-"मैं पूर्व जन्म की बात कह रहा हूँ, याद करो ! हम दोनों मिल थे।" फिर णाइल देव ने उसे पूर्व जन्म की घटना सुनाई-देखो, मैंने तुम्हें कहा था निदान करके तप मत करो, लालसा रहित होकर तप माचरण करो। तुमने नहीं माना इसलिए तुमने अपने तप को इसी भव
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.... ... जैन धर्म में तप नापित ने कहा-यह पंचर्शल द्वीप की जल धारा में स्थित वट वृक्ष है। नौका चलती हुई इस वृक्ष के नीचे से गुजरेगी । तुम अपना खाने-पीने का सामान लेकर तैयार हो जाओ ! जैसे ही हम वहाँ से गुजरें, वृक्ष की शाखा को पकड़ लेना और ऊपर चढ़ जाना । संध्या के समय पंचशैल द्वीप के बड़े-बड़े पक्षी यहाँ आयेंगे। रात भर यहां विश्राम कर प्रातः वापस द्वीप की ओर उड़ेंगे, तब तुम उनके पर पकड़ लेना, वे तुम्हें पंचशैल द्वीप पहुंचा देंगे।" ___ यक्षिणियों के मोह में फंसा अनंगसेन जान को जोखिम में डाल कर भी सव कुछ करने को तैयार हो गया। वह वृक्ष आया, अनंगसेन ने शाखा .. पकड़ ली, और प्रातः पक्षियों के पर पकड़कर वह पंचशैल द्वीप में पहुंच गया । यक्षिणियां उसकी राह देख रही थी। वहां पहुंचने पर उसने उनसे भोग प्रार्थना की । यक्षिणियाँ नाक मुंह सिकोड़ कर बोली- “मानव का शरीर बड़ा अशुचिमय होता है, हम इस अपवित्र देह के साथ भोग नहीं करतीं। तुम वाल तप करके निदान करो, हमारे स्वामी विद्युन्माली यक्ष के रूप में .. जन्म लो, तब हम तुम्हारे साथ रमण करेंगी।" ।
अनंगसेन एक वार हताश हो गया, पर उसने यक्षिणियों का पीछा नहीं छोड़ा । सोचा- "इस जन्म में न सही, अगले जन्म में तो जरूर इन्हें । प्राप्त करूंगा।" तभी हासा-प्रहासा ने उसे वहाँ के मादक फल खिलाये। शीतल जल पिलाया। उसे नशे जैसी नींद आने लगी। वह एक वृक्ष की ... छाया में सो गया। यक्षिणियों ने उसे उठाकर वापस चंपा नगरी में ... उसके घर पर पहुंचा दिया। कुछ देर बाद उसकी नींद खुली । अपने घर व परिवार को देख कर वह बड़बड़ाने लगा-"मेरी हासा ! प्रहासा ! कहाँ .... चली गई।"""कई दिनों तक वह इसी प्रकार प्रलाप करता रहा। .. . .
अनंगसेन का एक मित्र था गाइल श्रावक ! उसने उसे समझाया"तुम उन के चक्कर में मत फंसो ! जिनोक्त धर्म का पालन करो, इसके
फलस्वरूप तुम्हें सौधर्म आदि स्वर्ग की प्राप्ति होगी, दिव्य देवऋद्धि मिलेगी . उनसे भी सुन्दर देवियां मिलेगी व दीर्घकालीन भोग भी प्राप्त होंगे। किन्तु
तुम उन भोगों की लालसा छोड़कर धर्म का पालन करते रहो।" . .
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तप (मोक्षमार्ग) का पलिमंयु : निदान से भटक जाता है, वह भूल जाता है-"चलना अभी है दूर, यहाँ पर रुकना नहीं है।" ___ वह अपनी मोक्ष यात्रा के मार्ग को भूलकर संसार की भूल-भुलैया में उलझ जाता है और फिर निदान कर बैठता है-"कि मेरे ब्रह्मचर्य, शील, तप आदि का यही फल मिले, मैं अगले जन्म में इन भोगों को प्राप्त करूं।"
निदान की भावना जव साधक के मन में जागृत होती है तो वह अपनी साधना से भी पतित हो जाता है । क्योंकि उस भावना के वश होकर वह एक प्रकार से मनसा-भोग भोग लेता है । संयम और साधना तो परिणामों पर ही टिकी है । मन जब संसारी हो गया, तो तन भले ही संन्यासी का रहे, उससे क्या लाभ होगा ? भावना से गोगों में आसक्त हो गया, तो तन से भले ही वह दूर रहे, किन्तु वह अपने तप से तो पतित हो ही जायेगा। फिर जब तक वह अपने इस मनसा पाप की आलोचना नहीं करेगा, धर्म में स्थिर नहीं हो सकेगा, चारित्र को सम्यक् आराधना कैसे कर पायेगा। दशाभुत स्कंध में इस सम्बन्ध में एक प्रसंग हैं -
श्रेणिक नपाल पटनार चेलना के साथ
वीर जिन वन्दन को मोद घरी आयो रे । दोनों को दीदार भव्य भाल के श्रमण कई
महासतियों को वृन्द रूप मन चायो रे । किया है नियाणा तव प्रभु मगधेश भणी
कह्यो मेरो समोशर्ण डाको तू डलायो रे । भेद खोलतां ही सबै निजातम शुद्ध करी
____ 'मिश्री' मुनि कहे नाथ साथ कवचायो रे । एक बार महाराज श्रेणिक रानी चेलना आदि राज परिवार के साथ भगवान महावीर की वन्दना करने के लिए आये। राजा श्रेणिक एवं चेलणा के अपूर्व सौन्दयं, लावण्य एवं सब प्रकार के मानवीय भोगों को आनन्द पो साथ भोगते हुए देखकर भगवान के श्रमणों के मन में एक संकल्प उठा--"अहो ! यह राजा श्रेणिक धन्य है ! जो रूप लावण्यवती रानी
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जैन धर्म में तपः
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लिए बेच डाला, मैंने शुद्ध तप किया जिस कारण इतना ऋद्धिशाली देव वना हूँ ।"
मित्र की बात सुनकर विद्य ुन्माली बहुत पछताने लगा । अपनी भूल पर बहुत दुःख हुआ - " पर अव पछताये होत क्या चिड़िया चुग गई खेत ।"
भाष्यकार आचार्य ने इस कथा के मर्म को स्पष्ट करते हुए बताया है, निदान तप करने वाला जब दूसरों की असीम शक्ति व समृद्धि को देखता है. तो इसी प्रकार अपने कृत निदान पर पछताता है । शोक करता है । क्योंकि निदान का फल तो उतना ही होगा जितना उसने संकल्प किया था ।
'
तपस्या में बार-बार निदान करने से, भोगों की अभिलापा के वश होकर अपना तप दांव पर लगाते रहने से वह तप दूषित हो जाता है, तथा उसका तेज क्षीण हो जाता है । लम्बी और कठोर तपस्या करने पर भी तपस्वी के तपस्तेज में वह वल और शक्ति नहीं रहती, कारण वह तप को बार-बार दूपित करता रहता है । इसलिए स्थानांग सूत्र में बताया गया है-जैसे बारवार बोलने से अर्थात् वाचालता से सत्य वचन वार-वार लोभ करने से निस्पृहता का प्रभाव बार-बार निदान करने से तप का तेज क्षीण हो तप का उत्तम फल नष्ट हो जाता है । इसलिए रहित होकर तप करने को श्रेष्ठ बताया है ।"
का तेज नष्ट हो जाता है,
क्षीण हो जाता है, वैसे ही जाता है । निदान करने से : भगवान ने सर्वत्र निदान
निदान का हेतु : तीव्र लालसा निदान तभी किया जाता है, जब अमुक वस्तु के प्रति साधक के मन में तीव्र राग भाव उत्पन्न होगा, गहरी आसक्ति मोर आकर्षण होगा । साधारण स्थिति में कोई भी साधक अपने तप को बेचना या नष्ट करना नहीं चाहता, किन्तु जव अमुक किसी वस्तु पर अथवा दृश्य देखने पर मन राग से चंचल हो उठता है, कामनाओं से प्रताड़ित होने लगता है, और वार-बार उन विषय भोगों के प्रति आसक्त होने लगता है तभी साधक अपने महान उद्देश्य
'भिज्जा णिदाणकरणे मोक्स
१ मोहरिए सच्चयणस्त पलिमंधू...
मग्गस्त पलिमंधू । सव्वत्य भगवया अणियाणया पसत्या ।
-स्थानांग ६१३
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सकोगे ! दुलना! काम-भोगों की
आदि व्रतों की शुद्ध
जाता है मन प्राप्त जान देता है। अधिक मूर्ख
तप (मोक्षमार्ग) का पलिमंथु : निदान
११३ सकोगे ! दुर्लभवोधि वनकर संसार-चक्र में परिभ्रमण करते रहोगे।' इसलिए हे श्रमणो ! काम-भोगों की आसक्ति से मुक्त होकर, सब संगअभिलापाओं का त्याग करके अपने तप-नियम आदि व्रतों की शुद्ध आराधना करो, किये हुए निदान का प्रायश्चित्त करो, ताकि तुम अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का दर्शन कर सको, कर्मआवरणों का क्षय कर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त अक्षय अव्यावाध सुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर सको।"
दशाश्रुतस्कंध के इस प्रसंग से स्पष्ट होता है कि निदान करने से आत्मा तप व संयम से किस प्रकार पतित व भ्रष्ट हो जाती है। उस भव में ही क्या, किंतु अनेक भवों तक उसे सद्धर्म का श्रवण भी मिलना कठिन हो जाता है, और वह संसारचक्र में परिभ्रमण करने लगती है। जैसे कोई कठोर प्रयत्न से प्राप्त अमृत को नदी के प्रवाह में बहा देता है, शुद्ध गाय के घी को राख के ढेर में डाल देता है, और चिंतामणि रत्न को समुद्र में फेंक देता है, वैसी ही बल्कि उससे भी अधिक मूर्खतापूर्ण वात है, निदान करके तप के फल को खत्म कर डालना ।
फ्या साधना के लिए निदान विहित है ? एक प्रश्न यहां उपस्थित होता है कि निदान का निषेध इसलिए किया गया है कि उसके मूल में तीव्र भोगाभिलाषा रहती है । यदि कोई भोगाभिलापा न रखकर अन्य वस्तुओं के लिए निदान करे तो क्या वह भी निंदनीय है ? जैसे किसी ने संकल्प किया-'मैं अगले जन्म में तीर्थकर बनू, अथवा चरम शरीरी वनू !' तो क्या यह संकल्प भी नहीं करना चाहिए? इसमें क्या आपत्ति है ? .
जैनधर्म इस प्रश्न को बहुत ही गहराई से पकड़ता है और स्पष्ट विश्लेषण करके कहता है कि तीर्थक रत्व की अभिलाषा भी एक प्रकार की अभिलाषा
१ एवं खलु समणाउसो ! तस्स णियाणस्स इमेया रूवे पावकम्म-फल विवागे जं णो संचाएइ केवलिपण्णत्तं धम्म पडिसुणित्तए ।
-दशा तस्कंघ १०
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. . जैन धर्म में तप चेलना के साथ आनन्द क्रीड़ा करता हुआ अपने यौवन को सफल बना रहा है । इसने सचमुच ही मानव जीवन का आनन्द लिया है । यदि हमारे तप, विनय, ब्रह्मचर्य आदि का भी कुछ सुफल हो तो हम भी अगले जन्म में इसी प्रकार जीवन का आनन्द लेवें।"
इधर रानी चेलना को देखकर श्रमणियों के मन भी चंचल हो उठे। वे भी सोचने लगीं-"यह रानी चेलना धन्य है ! इसका जीवन सफल है। .. इसे कितना सौन्दर्य व लावण्य मिला है, राजा श्रेणिक का प्यार मिला है
और कितने आनन्द के साथ यह अपना मानव जीवन सफल बना रही है। ..... यदि हमारे तप, नियम, ब्रह्मचर्य, आदि का कुछ फल हो तो हम भी अगले जन्म में इसी प्रकार के काम-भोग भोग कर जीवन का आनन्द लेवें।"
इन विचारों का प्रवाह ऐसा उमड़ा कि अनेक श्रमण एवं श्रमणी एक ही विचारधारा में वह गये । उनके मन चंचल हो उठे और वे ऐसा संकल्प कर बैठे । सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने अपने ही सामने जब अपने शिष्य परिवार को यों इतने दीर्घकालीन तप-नियम व्रतों की बलि देते देखा और .. तुच्छ भोगाभिलाषा के कीचड़ में फंसते देखा तो प्रभु ने तुरंत संबोधित किया। श्रमण वृन्द को जागृत किया और कहा-“हे श्रमणो ! राजा श्रेणिक और चेलना के युगल को देखकर तुम लोगों ने ऐसा संकल्प (निदान) किया है ?" ___ सभी ने नीचे मस्तक झुकाकर स्वीकृति की-"हां ! प्रभु ! ऐसा संकल्प . हमारे मन में जगा है।"
प्रभु ने श्रमण-धमणी वृद को उद्बोधन देते हुए कहा-"आयुष्मान् श्रमणो ! जानते हो इस प्रकार के निदान का कितना भयंकर फल होता है ? तुम्हारे दीर्घकाल तक आचरण किये हुए तप, नियम, ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का जो महान फल होने वाला था, वह अब अति तुच्छ फल रह गया है। महासमुद्र सूखकर छोटा सा गड्ढा रह गया है । तुमने अपना सर्वस्व खो. दिया । इस निदान के कारण तुम अगले जन्म में संकल्पित काम भोग तो .. प्राप्त कर सकते हो, लेकिन अपने धर्म से, सम्यकत्व से भ्रष्ट हो जावोगे, और लास प्रयत्न करने पर भी केवली प्ररूपित धर्म का श्रवण भी नहीं कर .
र
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समझदार है कि नहीं पहा भी त्याच्या खराब है । मन में बताया है स्प न धर्म में की ही ३ का वह पलेश ही है अतः
तप (मोक्षमार्ग) का पलिमंथु : निदान
.:. जो रयणमणग्धेयं विक्किज्जऽप्पेण तत्य कि साह ?? --- : - मूल्यवान मणि को बेंचकर कोई कांच का टुकड़ा चाहे तो क्या यह समझदारी है ? ऊपर से नीचे गिरने की भावना रखना क्या उचित है ? स्पष्ट उत्तर है कि नहीं !... ... ... ... __ जैन धर्म में पुण्य की स्पृहा भी त्याज्य बताई है, और पाप की भी ! सुख और दुःख दोनों की ही इच्छा रखनी खराब है । कारण सुख भोग से राग की उत्पत्ति होती है, दुख भोग से ढपं की। योगदर्शन में बताया है सुख से भी मन में क्लेशवृत्ति उत्पन्न होती है, पर वह क्लेश मीठा लंगता है, अत: उसे राग कहा है, और दुःख जन्य क्लेशवृत्ति बुरी लगती है अतः वह द्वप है ।२ इसीलिए सुख-दुख के संकल्प से मुक्त होकर निप्कामभाव के साथ जो धर्म का, तप का आचरण करता है, वही शांति व निर्वाण को प्राप्त होता है । गीता में कहा हैं
विहाय फामान् यः सर्वान् पुमांश्चरति निस्पृहः ।
निर्ममो निरहंफारोः स शांतिमधिगच्छति । जो सब प्रकार की कामनाओं को छोड़कर बिल्कुल निस्पृहभाव के साथ तप का आचरण करता है, वह ममता से मुक्त हो जाता है, अहंकार के बंधन तोड़कर शांति को प्राप्त कर लेता है। गौतम बुद्ध ने भी वितृष्णा को ही परम मोक्ष बताते हुए कहा है
कथं फया च यो तिण्णो विमोक्खो तस्स नापरो। जो सुख-दुख की विचिकित्सा से, कामना और तृप्णा से पार पहुंच गया है, उसके लिए अन्य मोक्ष क्या हो सकता है !
हां तो, निदान का उपयुक्त विवेचन इसी दृष्टि से किया गया है कि साधक अपने तप में न भौतिक सुख की कामना करें, और न भौतिक दुःख
निमार की शाम, वह ममत
१ पंचाशक विवरण २६८ २ सुखानुभायी रागः । दुःखानुशायी द्वेषः। -योगदर्शन २१७-८ ३ गीता. २१७१ ४ पटिसम्भिदामग्गो:-२६५८ . . .
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. . . . जैन धर्म मैं तप ही है, कामना है, यशःस्पृहा है। क्योंकि जो साधक तीर्थकर होने की इच्छा करता है वह तीर्थंकरों के देवकृत अतिशयों से, उनके छत्र, चामर भामण्डल आदि वैभव से तथा लोक में उनकी यश: प्रतिष्ठा एवं कीति सुनने से प्रभावित होकर उस पद की अभिलाषा करता है. अत: आखिर है तो यह भी एक प्रकार की कामना, पूजा-सत्कार की स्पृहा । इस कारण साधक को इस पद की भी कामना नहीं करनी चाहिए । यदि चाहना हो तो मोक्षगमन की चाहना करे, केवलज्ञान, केवलदर्शन की अभिलाषा रखे, किंतु तीर्थकर पद की अभिलाषा न करें । क्योंकि पदवी की अभिलाषा रखना ही त्याज्य है।' इसी प्रकार चरम शरीर होने की भी अभिलापा न करें, क्योंकि उसमें भी पुनर्जन्म की अभिलापा छिपी है।
एक दूसरा प्रश्न आचार्य ने उपस्थित किया है कि ठीक है, कोई भोगों . की, यश-प्रतिप्ठा की, पद की, एवं पुनर्जन्म की कामना न करें किंतु यदि ऐसी कामना करे कि-"मैं अगले जन्म में आसानी से मुनि बन सकू, संसार का त्याग कर सकू, किसी भी प्रकार की बाधा उपस्थित न हो, अतः किसी दरिद्रकुल में उत्पन्न होऊ, ताकि सहजतया भोग-त्याग कर दीक्षा ले सकू" यदि ऐसा निदान करे तो क्या आपत्ति है ?
आचार्य ने प्रश्न का उत्तर स्वयं ही देते हुए कहा है-इस प्रकार की कामना भी साधक को नहीं करना चाहिए । क्योंकि जैसी सुख की कामना हैं, वैसी ही दुःख की भी कामना है। वैभव और दरिद्रता दोनों की अभिलापा ही त्याज्य है। सोने की वेड़ी न चाहकर लोहे की वेड़ी चाहना भी तो मूर्खता ही है
१ इहलोग पर-निमित्तं अवि तित्यकरत्त चरिम देहत्तं । सम्वत्येसु भगवता अणिदाणंतं पसत्यं ..तु। .. . ...
-पंचाशक विवरण गा. २५८ यतस्तीयंकर सत्कस्यामरवरनिर्मित - समवसरण कनक-कमल प्रमुख विभवस्य दर्शनात् श्रवणाद् वा संजाततदमिलापः, कोपि विकल्पे करोति भव-भ्रमणतोऽप्यहं तीर्थकरो भूयासमिति । -पंचायक विवरण टीका
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ज्ञान युक्त तप का फल
| साधना किसलिये की जैनधर्म में तप को एक साधना माना गया जाती है ? साध्य को प्राप्त करने के लिए ! साध्य क्या है ? साध्य है मुक्ति ! मुक्ति क्या है ? आत्मा का निज स्वरूप में स्थिर होना - स्वरूपायस्यानं मुक्तिः - आत्मा का अपने स्वरूप में, अपने ज्ञान दर्शन - चारित्र आदि गुणों के विकास की पूर्ण स्थिति में पहुंच जाना ही मुक्ति है । अतः यह स्पष्ट हुआ कि मुक्ति रूप साध्य को प्राप्त करने की साधना है तप !
कुछ साधक परमात्म-दर्शन की बात करते हैं । भगवत् स्वरूप की प्राप्ति अथवा भगवत्स्वरूप के दर्शन की तीव्र अभिलाषा लेकर साधना करते हैं । इस विषय में में कहता हूं, भाई ! परमात्म-दर्शन करने से पहले आत्म-दर्शन तो करो ! जो मात्मा का दर्शन कर लेता है वही परमात्मा का दर्शन कर सकता है | सच बात तो यह है कि आत्मा ही परमात्मा के रूप को प्राप्त कर लेता है। किंतु कब ? जब वह आत्मा के सही रूप का ज्ञान कर लेता है ।
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जैन धर्म में तप की । उसके सामने, तो बस एक ही संकल्प रहे कि मैं अपनी आत्मा को विशुद्ध व उज्ज्वल बनाने के लिए तप करूं । तपःकर्म में इस प्रकार को निष्कामता जिसे जैनधर्म में अनिदानता कहा है-इसे ही प्रभु ने श्रेष्ठ बताया है। साधक हमेशा, इसी वाक्य को याद रखकर तपः साधना करता रहे
सव्वत्य भगवया अनियाणया पसत्या'.. भगवान ने साधक के लिए निदान रहित तपः साधना ही प्रशस्त । बताई है।
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१ देसे स्थानांग ६, व्यवहार ६, भगवती मातासूत्र आदि में भी।
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न-युक्त तप का फल चज्ञान जिसे होता है, वही आत्मा का दर्शन कर सकता है । आत्मा का दर्शन करने वाला तपः साधना के द्वारा आत्मा के विभावों को, जड़ आवरणों व बंधनों को तोड़कर सर्वथा मुक्त हो जाता है । आचारांग सूत्र में कहा है
एगमप्पाणं संपेहाए धुणे फम्म सरीरगं ।' आत्मा को शरीर से पृथक् समझकर कर्म शरीर को धुन डालो ! कर्मों को धुन दिया तो आत्मा अपने स्वरूप में स्वतः प्रकट हो जायेगा । शरीर और आत्मा का यह भेद समझ पाना ही आत्म-विज्ञान है, आत्म-विज्ञानी में अपने साध्य का विवेक होता है । वह साधना करता है तो किसी भौतिक अभिलापा से नहीं, अथवा अंघों के जैसे भी नहीं कि “चलते चलो, कहीं न कहीं तो पहुंचेगे ही ! साधना करते जाओ ! शरीर को कष्ट देते जाओ कुछ न कुछ फल तो मिलेगा ही !" आत्मद्रष्टा साधक इतने अंधेरे में नहीं चलता । वह अपने मार्ग को स्पष्ट देखकर ही आगे बढ़ता है। उसके सामने लक्ष्य स्थिर रहता है, दिशा स्पष्ट रहती है कि 'मुझे तो अपनी आत्मा को उज्ज्वल बनाना है, कर्म शरीर को, अर्थात् कर्मों के आवरणों को नष्ट कर परम शुद्ध दशा को प्राप्त करना है।" . साधना के क्षेत्र में उक्त दोनों प्रकार के साधक आते हैं । जो साधक आत्म-ज्ञान के अभाव में, मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य से रहित साधना करते हैं, उनका तप 'अज्ञान तप' कहलाता है। वे तप तो करते हैं, देह को भयंकर कप्ट भी देते हैं, किन्तु उस देह कष्ट में अहिंसा, करुणा, अनासक्ति और बारमदर्शन का विवेक नहीं रहता। उदाहरण स्वरूप से एक साधक 'पंचाग्नि तप' कर रहा है, उसके चारों ओर अग्नि की ज्वालाएं धधक रही हैं, ऊपर सूर्य की प्रचंड किरणें आग बरसा रही है, इस साधना में देह को कप्ट तो अवश्य होता है, किन्तु साथ में अग्नि की ज्वालाओं से अनेक जीवों की हिंसा भी होती रहती है। कभी-कभी उन ज्यालाओं में बड़े बड़े जीय भी भस्म हो जाते हैं। जैसे भगवान पाश्यनाथ ने कम तापस की धूनी में
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आचारांग ४१३
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जैन धर्म में तप
साधना का मूल : विवेक आत्मा का सही रूप पहचानना ही साधना का विवेक है । विवेक के विना साधना चल नहीं सकती, चलती है तो सफल नहीं हो सकती । जैसे अंधा आदमी अपने मार्ग पर अकेला ठीक रूप से नहीं चल सकता । कभीचलता-चलता लड़खड़ा जाता है, कहीं ठोकर खाजाता है, और गिरता . पड़ता भी है, कहीं का कहीं पहुंच जाता है। इसीप्रकार विवेक ज्ञान के विना साधना करनेवाला जीवन में अनेक बार गिरता है, पड़ता है, भटक जाता है और सुदीर्घ काल तक चलता हुआ भी अपने सही लक्ष्य पर नहीं पहुंच पाता । अपने साध्य को प्राप्त नहीं कर सकता।
साधना में विवेक की अनिवार्यता बताते हुए आचार्यों ने कहा है-.. विवेगमूलो धम्मो-धर्म का मूल विवेक है। इससे भी आगे कहा हैवियेगो . मोक्खो - विवेक ही मोक्ष है। इसका भाव है कि-साधना का मूल ज्ञान है । प्रश्न होता है-ज्ञान किसका ? उत्तर है अपने आपका ! हमारी समस्त साधना का, तप-संयम रूप आचार का अधिष्ठाता है-आत्मा !२ आत्मा ही तप का माचरण करता है, साधना : व संयम के पथ पर चलता.. है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम साधना के अधिष्ठाता का ज्ञान प्राप्त करें ! तप के संचालक का दर्शन करें। आत्मज्ञान का अर्थ है हम अपने । अन्तर: चैतन्य का अनुभव करें। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है-आत्मनान कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? उत्तर में कहा है---आत्म-प्रज्ञा द्वारा अर्थात् जड और चेतन के भेद विज्ञान द्वारा ही आत्मा का ज्ञान, अनन्त चैतन्य का अनुभव हो सकता है । यह.शरीर, चेतन नहीं है, यह तो चेतन का क्षणिक मात्रय है । आज मिला है, कल छोड़ना है । शरीर भी पुद्गल है, पुद्गल जड़ है, भौतिक वैभव, सुख-साधन सब जड़ है, वे सब. विभाव है, विकृति है, नश्यर हैं । आत्मा स्व-भाव है, चैतन्य है, शाश्वत है । इस प्रकार का भेद- ...
१ आचारांग चूगि १७१ २ जोवाहारो भष्ण मायारो दशकालिक नियुक्ति २६२ ३. कह सो धिप्पअप्पा ? पण्णाए सोउ पिप्पए अप्पा ।-समयसार २६६
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बान-युक्त तप का फल
१२१ जाता है । इसी तरह मुक्ति के लक्ष्य से शून्य तप को भी 'वाल तप' कहा जाता है । जैन सूत्रों में प्रायः 'अज्ञान' के अर्थ में 'वाल' शब्द का प्रयोग हुआ है। सूत्रकृतांग में स्थान-स्थान पर 'वाल' शब्द का अज्ञानी और मूर्ख के अर्थ में प्रयोग किया गया है-जैसे
णातीणं सरति बाले' वाले पाहि मिज्जती
वालजणो पगभई स्थानांग ४ में भी तीन प्रकार के मरण बताये हैं-बालमरण, पंडितमरण, वाल-मंडित मरण । यहां भी 'वाल' शब्द 'अज्ञानी' का ही द्योतक है। भगवती सूत्र में ६० हजार वर्ष तक कठोर तप करने वाले तामली तापस के लिए भी 'बालतवस्सी' शब्द का ही प्रयोग किया गया है। क्योंकि वह भी सम्यक् ज्ञान के बिना ही तप कर रहा था । उत्तराध्ययन सूत्र में भी नमिराज ने ऐसे अज्ञान तपस्वियों को वाला' कह कर पुकारा है । इन सब प्रकरणों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्यक्ज्ञान के बिना जो तप किया जाता है, वह चाहे कितना ही कठोर और दुर्घर्ष हो, वह 'वाल तप' है, फल की दृष्टि से वह प्रायः 'खोदा पहाड़ निकाली चुहिया' के जैसा ही कार्य है।
बाल-तापसों के विभिन्न रूप भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर के समय में इस प्रकार के चाल तप का बोलबाला था। भगवान पाश्वनाथ जब गृहस्थ जीवन में थे। तव इस प्रकार के विवेक हीन बाल तपस्वियों का जनता पर अत्यधिक प्रभाव था। कमठ तापस जो वाराणसी के बाहर ही कठोर बालतप कर
१ सूम कृतांग १।३।११६ २ सूत्र० १।२।२।२१ ३ सूत्र० १३१३१२४ ४ स्थानांग सूय स्थान ३ । ५ भगवती सूप शतक ३ । उद्देशक १ ६ उत्तराध्ययन सूत्र ६४४ ।
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जैनधर्म में तप
जलते हुए नाग को देखा और बचाया था। कुछ तपस्वी इन्द्रासन प्राप्त . करने की लालसा से, कुछ लब्धियां प्राप्त करने की अभिलापा से और कुछ - सम्यक् ज्ञान के अभाव में विना किसी कर्मनिर्जरा की भावना के यों ही . तप करते रहते हैं। इस तप में सम्यक्ज्ञान का अभाव होने से कष्ट तो. भले ही अधिक हो, किन्तु उसका फल बहुत ही कम होता है । अज्ञान तप से कर्म निर्जरा बहुत कम होती है । जैसे पत्थर ढोने वाला मजदूर सुवह से शाम तक दम तोड़ काम करता है, फिर भी मजदूरी क्या मिलती है ? एकदो रुपये ! और हीरे का व्यापार करने वाला तोला भर सामान लिये भी ... लाखों का वारा-न्यारा कर लेता है, वैसे ही सम्यग्ज्ञान पूर्वक तप करने वाला बहुत अल्प श्रम में अत्यधिक कर्मनिर्जरा रूप लाभ कमा लेता है। सम्यक् मानपूर्वक और उसके अभाव में तप करने वालों की तुलना करते हुए आचार्य ने बताया है
जं अपणाणी फम्म खवेदि भवसय-सहस्स फोडोहि । '
तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेदि उस्सासमेत्तण ।' अज्ञानी साधक लाखों करोड़ों जन्मों तक तप करके जितने कर्म खपाता है, सम्यक् ज्ञानी साधक, मन, वचन और काया को संयत रखकर सांस माय .. में ही उतने कर्म खपा देता है। ___अज्ञानी का एक और करोड़ों जन्मों का तप, तथा दूसरी और सम्यक् . जानी का सांस मात्र का तप, कितना महान् अंतर है ?
बाल तप क्या है ? जिस तप में सम्यक् ज्ञान का अभाव होता है, मुक्ति की दृष्टि से उस तप का कोई मूल्य नहीं है। इसी कारण उन तप को 'वाल तप' कहा जाता है। जैसे बालक की नियालों में, चेप्टाओं में कोई लक्ष्य नहीं होता, कोई विशिष्ट ध्येय नहीं होता, वे प्रायः कुतूहलप्रधान या उद्देश्य शून्य-सी होती है। इसी कारण किसी व्ययं चेष्टा को, या लक्ष्यहीन प्रयत्न को 'बालचेप्टा' पाहा
१ प्रवचनसार ३३८
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करने का उपाव और जंगल में नार
ज्ञान-युक्त तप का फल पार्श्वनाथ ने इस अज्ञान तप के विरोध में बहुत बड़ी फ्रान्ति की थी,लोगों को विवेक पूर्वक तप करने का उपदेश दिया था। आज भी जनसूत्रों में आये वर्णनों से पता चलता है, गांव-गांव और जंगल उपवनों में ऐसे हजारों लाखों बाल तपस्वी भरे थे । कोई कड़कड़ाती सर्दी में नासाग्र तक जल में खड़ा रहकर रात विताता था, कोई भुजायें ऊपर उठाकर चिलचिलाती धूप में सूर्य मण्डल के सामने खड़ा आतापना लेता था । कोई वृक्ष की शाखा से पांवों को बांधकर ओंधा लटक जाता था, कोई जीते जी छाती तक भूमि में गड़कर पड़ा रहता था । कोई सिर्फ खलिहानों में धान साफ करने के बाद बचे खुचे दाने वीनकर ही पेट भरते थे तो कोई पानी पर तैरती सेवाल (काई) खाकर ही रहते थे । औपपातिक सूत्र में ४२ प्रकार के वानप्रस्थ तापसों की चर्चा है जो विविध प्रकार के क्रियाकांडों द्वारा तप करते थे, शरीर को कष्ट देते थे । बहुत से मगर मच्छ की तरह रात-दिन जल में पड़े रहते थे, तो वहुत से सांप की तरह सिर्फ वायु भक्षण कर के ही जीते थे।
.इस प्रकार सैकड़ों हजारों प्रकार से साधक अपने शरीर को कप्ट देते थे, अज्ञान तप के द्वारा जनता को प्रभावित करते थे।
वाल-तप की असारता भगवान पार्श्वनाथ के प्रयत्नों से अज्ञान तप का प्रवाह कुछ कम जरूर हा, किन्तु फिर भी पूरे भारतवर्ष में इसका बहुत प्रचार था। भगवान महावीर स्वयं कठोर तपोयोगी थे, किन्तु वे इस प्रकार के देहदण्ड को विल्कुल निरर्थक मानते थे । तप के साथ ज्ञान और विवेक होना बहुत ही
व्यवहार भाप्य १०१३३-२५ ।
वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद पि भी ऐसा ही व्रत तप करते थे। २ सेवालभविखणो-ओपपातिक सूत्र तथा बौद्धग्रन्य ललितविस्तर
पृ० २४८
३ जलवासिणो, अम्बुभ विखणो"वायुभविखणो। -नोपपातिक सूत्र
(स) रामायण (३।११।१२) में, मंडकर्णी नामक एम. तापस का वर्णन आता है, जो केवल वायु भक्षण करके जीवित रहता था।
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.१२२
जैन धर्म में तप
रहा था, पंचाग्नि तप में शरीर को झोंक रहा था उसकी तत्कालीन जनता पर गहरी धाक थी । वह जवं वाराणसी में आया तो नगर की जनता हाथों में भेंट पूजा के थाल सजाकर उसके दर्शनों के लिए उमड़ पड़ी थी। हजारों लोगों को एक ही दिशा में जाते देखकर पार्श्वकुमार ने अपने सेवक से पूछा तो पता चला कि एक महान तपस्वी नगरों में आया है, लोग उसके दर्शन करने जा रहे हैं । पार्श्वकुमार भी उस तपस्वी को देखने के लिए घोड़े पर चढ़कर बाहर निकले । किन्तु जब उसे अपने चारों ओर बड़े-बड़े लक्कड़
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I
.
जलाकर बीच में बैठे हुए देखा तो वे स्तंभित रह गये । वे सोचने लग गयेयह कोई तप है ? इतनी अग्नि हिंसा ! इतना पाखण्ड ! इतना प्रदर्शन ! एक तरफ तो यह तपस्वी होने का दंभ कर रहा है, और दूसरी ओर इसकी धधकती अग्नि ज्वालाओं में नाग जैसे पंचेन्द्रिय प्राणी जल रहे हैं ! प्रभु पार्श्व का हृदय करुणा से द्रवित हो गया । वे तपस्वी के पास आये । उसे यह अज्ञान तप करने से रोकते हुए बताया- 'तुम्हारे विवेकहीन आचरण से कितने जीवों की घात हो रही है पता है तुम्हें ? इतना कष्ट ! भूख, प्यास गर्मी सहन करके भी तुम उल्टा कर्म बन्धन करते जा रहे हो !"
कमठ तापस उल्टा पार्श्वकुमार पर गुर्राया "राजकुमार ! तुम्हें क्या पता धर्म क्या होता है ? तप क्या होता है ?"
पार्श्वकुमार ने शान्ति से तापस को समझाया
किन्तु जब वह नहीं समझा तो अपने सेवकों को आदेश दिया - "तपस्वी की धूनी में जो लक्कड़ पड़े हैं उनमें एक नाग जल रहा है, उसे सावधानी से बचाओ !" :
सेवकों ने लक्कड़ बाहर निकाले, तो उसमें से एक विशाल नाग
कोमल होती है, वह
लपटों के बीच पड़ा था,
तड़पता हुआ निकला । सांप की चमड़ी बहुत तेज धूप से भी जल जाता है, वहां तो आग की विचारा मरणासन्न हो गया था, प्रभु ने नवकार उसका उद्धार किया ।
मंत्र का स्मरण कराकर
इस घटना से पता चलता है कि उस युग में अज्ञान तप का कितना जोर था और लोगों के मन पर उसका कितना प्रभाव था ! भगवान
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नि-युक्त तप का फल
१२५ देह को तपाना नहीं, देह के साथ मन को तपाना भी आवश्यक है । अन्तर शुद्धि के विना केवल शरीर को दण्ड देना मान्य नहीं है। इसलिए यहां शरीर को कृश करने की जगह आत्मा को (कर्म दलों को) कषायों को कृश करने की बात कही गई है
फसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं आत्मा को, कपायों को कृश करो, उन्हें जीर्ण करो। सिर्फ तन को जीर्ण करने से क्या लाभ है यदि कपाय जीर्ण न हुई ?
एक कथा आती है कि एक आचार्य का शिष्य बड़ा उन तपस्वी था। साथ ही उसका स्वभाव भी बड़ा उग्र था । कपाय भी प्रवल थी । आचार्य ने उसे कपाय को क्षीण करने का उपदेश दिया। शिष्य ने आचार्य के उपदेश से लंबी तपस्या प्रारंभ करदी। एक मासखमण का तप कर एक दिन पारणा लाने के लिए आचार्य की आज्ञा मांगने आया । आचार्य ने शिष्य को संबोधित कर कहा-"पतली पाड़ !" शिष्य ने समझा-आचार्य शरीर को और पतलादुवला करने के लिए कह रहे हैं । उसने पारणे का विचार त्याग दिया और बोला-गुरुदेव ! दूसरा मासखमण पचखा दीजिए ! गुरु ने पचखा दिया। फिर दूसरा महीना पूरा हुआ ! पुनः पारणा लाने के लिए आज्ञा लेने आया तो आचार्य ने फिर वही बात कही, 'पतली पाड़ ! शिष्य ने फिर तीसरा मास खमण पचख लिया, और उसी प्रकार एक महीने बाद चौथा माससमण भी पचख लिया।
चार महीने की तपस्या से शिष्य का शरीर एक दम क्षीण हो गया था। हाथ-पांव की संगुलियां सूखी फली की जैसी हो गई । चौमासी तप का पारणा लाने की माशा लेने शिष्य पहुंचा तो नाचार्य ने पुनः वही बात कही, "वत्स ! पतली पाड़ !" यस अब तो तपस्वी का पारा चढ़ गया । वह बोलापतली करते करते देह को इतनी तो पतली कर डाली हैं, । (और अपनी संगुली तोड़कर नाचार्य की ओर फेंक डाली) अब क्या मुझे मारना ही चाहते हो तो संघारा पचला दो।"
आचार्य ने शांति के साथ पहा-चत्ल ! मैंने इस देह को पतली करने
४३
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जैन धर्म में तप
आवश्यक मानते थे । अज्ञान तप के विरोध में उन्होंने स्थान-स्थान पर प्रवचन भी दिये, उसकी असारता भी लोगों को समझाई। इस बाल तप की तुच्छता बताते हुए कहा है
मासे मासे उ जो बाला कुसग्गेण तु भुजए । न सो सुक्खायधम्मस्त फलं अग्धेइ सोलसि 12
-जो अज्ञानी साधक एक-एक मास का कठोर उपवास करता है और पारणे में सिर्फ घास की नोंक पर टिके उतना सा भोजन लेता है-इतना कठोर तप करने पर भी वह श्रेष्ठ धर्म की सोलहवीं कला की समानता भी नहीं कर सकता । क्योंकि वह देह को दण्ड तो दे रहा है, किन्तु उसके घट में अज्ञान भरा है, माया शल्य ( दंभ ) भरा है । और जब तक अज्ञान का, माया का शल्य मन में भरा है तब तक -
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जइ वि व णिगणे फिसेचरे जइ विय भुजे मासमंतसो । जे इह मायाइ मिज्जइ आगन्ता गन्भाय ऽणंतसो । भगवान महावीर ने इस प्रकार अज्ञान तप की कठोर आलोचना ही नहीं की, किन्तु उसे स्पष्ट रूप से 'वाल तप' कहकर व्यर्थ का देहदण्ड बताया !
केवल शरीर को कष्ट क्यों ?
"
यह बात नहीं है कि जैनधर्म में कठोर तप का महत्व नहीं माना है । तप का महत्व तो बहुत ही अधिक है किन्तु अज्ञान तप का नहीं, ज्ञानपूर्वक तप का महत्व है | भगवान ऋषभदेव एक वर्ष तक निरन्तर कठोर तप करते रहे । भगवान महावीर ने अपने १२|| वर्ष के साधना काल में इतना उग्र तप किया था कि उसे सुनते ही रोमांच हो जाता । धन्ना अणगार जैसे अनेक उग्र तपस्वी भिक्षु भिक्षुणियां उनके संघ में थे । यह सब घटनाएँ बताती है कि जैन परम्परा में तप का महत्व कितना है । इसीलिए यहांदेह दुक्खं महाफलं - देह को कष्ट देना महान फलप्रद माना है । किन्तु सिर्फ
उत्तराध्ययन सूत्र ६६४४ सुकृतांग ११२ ११६
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ज्ञान-युक्त तप का फल
कसिके कमर तप, भिक्षु-प्रतिमा को धारी
___ श्वसुर की रीस सारी ध्यान तें गमारली। मृदुल पट्टी के पेच कसूबल रंग वारी
आग हू की पाल धन्य शीस पर धारली। घोर पाप कर्म करने वाले अर्जुनमाली ज्ञानपूर्वक तप करते हुए सिर्फ छह मास में ही केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो गये !
आचार्यों ने बताया है, वाल तप चाहे जितना कठोर, दीर्घकालीन और निष्काम भाव से किया जाय उसमें मुक्ति हो ही नहीं सकती
___ न हु बाल तवेण मुफ्छु त्ति हमने पूर्व में ही बताया है कि साधक के सामने तप साध्य नहीं, साधना है, साध्य है मोक्ष ! जिस साधना से साध्य की प्राप्ति न हो वह साधना वास्तव में साधना नहीं, विराधना ही है । जिस तप के करने से मोक्ष की प्राप्ति न होती हो, उस तप से लाभ क्या ? स्वर्ग, भौतिक वैभव, सुख समृद्धि भले ही मिल जाय, किंतु इनसे तो आत्मा का हित होने वाला नहीं है । ये तो पुनः कर्म बंधन के कारण होंगे और पुनः पतन होगा। ज्ञानी साधक यदि मरकर स्वर्ग में भी जायेगा तब भी वह सुखों में आसक्त नहीं होगा । आत्म ज्ञानी तपस्वी लन्धि प्राप्त करके, समृद्धिशाली बन करके भी उसका दुरुपयोग नहीं करेगा, इस कारण वह सुख भोग कर भी पुनः तीव्र कम बंधन नहीं करेगा। इस कारण तपःसाधना के फल में हमें यह विचार करना है कि तप चाहे अल्प ही क्यों न हो, पर जो हो, वह विवेक पूर्वक हो, अन्तःनि से किया जाय । वही तप मोक्ष का साधन बनेगा। अन्यथा तप, ताप बन जायेगा, केवल देह दंड मान रहेगा, इसलिए सर्व प्रथम ज्ञान पूर्वक तप करने की साधना जीवन में आनी चाहिए । यही तपोविवेक है ।
साधक यदि मरकर पलब्धि प्राप्त करके,
कर भी पुनः तीन
। साचारांग नियुक्ति २४
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... जैन धर्म में तपः के लिए नहीं, किन्तु इस तीव्र कपाय को पतली पाड़ने के लिए ही तो कहा था। देह तो तेरी सूख रही है, मुझे भी दीखता है, किन्तु कषाय तो आज. भी हरी-भरी हो रही है। यह कपाय पतली नहीं हुई तो देह पतली होने से न्या होगा?
तो देह दुक्खं महाफलं'--का यह अर्थ तो नहीं कि देह को कष्ट देते जामो, अन्तःकरण की कोई परवाह ही नहीं। इसी बात पर तो कबीर ने कहा है
केतन कहा विगारियो जो मूडे हर बार।
मनवा क्यों नहीं मूंडता जामें विषय विकार । .. . . तब तक सिर मुंडने से कोई लाभ नहीं है, जब तक कि मन को नहीं मूडा जाये । मन को मूडने का अर्थ है-मन के विषय विकारों का परिमार्जन ! अन्तःकरण की शुद्धि, और यह तभी होगी जब मन में ज्ञान का उदय होगा, विवेक जगेगा । यदि विवेक जग गया तो फिर उग्र तपः कर्म को भी कोई खास शर्त नहीं रहती। ज्ञानपूर्वक अल्पकालीन और अल्प तप भी महान फल देने वाला है।
सज्ञान तप का महाफल : . पूर्व प्रकरण में तामली तापस का उदाहरण दिया गया है जिसने ६० हजार वर्ष तक कठोर तप किया और उस तप का फल बहुत ही अल्प हुआ। इसी कारण वह आयुप्य पूर्ण कर सिर्फ इशानेन्द्र ही बना । जवकि ज्ञान पूर्वक तप करने वाले कुछ समय में ही समस्त कमों से मुक्त हो गये । मरुदेवा माता को जब आत्मज्ञान हो गया तो हाथी के होदे पर बैठे-बैठे ही मुक्त हो गई। गजसुकुमाल मुनि ने एक दिन-रात में ही समस्त कर्मों को क्षय कर अनन्त आनन्दमय मोक्ष पद को प्राप्त कर लिया। महामुनि गजसुकुमाल की स्तुति में कहा हैवसुदेव वारो प्यारो देवकी को नैन तारो,
जैन को दुलारो, भारी जादुता दिखारली। बाल ब्रह्मचारी महा नेम को नगीनो शिष्य
समता को धार सेरी शिव की निहारली।
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तप का वर्गीकरण
जात रहती है । जैसी अन्ततमा और विनय
एक अन्तर्-प्रक्रिया सतत चालू रहती है। उपवास, कायक्लेश जैसी प्रत्यक्ष दीखने वाली साधना और ध्यान, प्रायश्चित्त जैसी अन्ततम में चलने वाली गहन गुह्य साधना-दोनों ही तप की सीमा में ना जाती हैं । सेवा नौर विनय जैसी सामाजिक साधना, जिसका सीधा सम्बन्ध समाज, संघ, गण और अपने निकटतम सहयोगियों के साथ आता है वह भी तप का एक अंग है । इस प्रकार हम देखते हैं कि तप का क्षेत्र बहुत व्यापक है।
तप का मुख्य ध्येय जीवन-शोधन है । शास्त्रों में जहां-तहां तप का वर्णन किया गया है वहां इसी भाव की प्रतिध्वनि सुनाई देती है तवेण परिसुज्सई' तवसा निजरिज्जइ तवेण धुणइ पुराण-पावर्ग,3 'सोहो तवो'४ इन शब्दों की ध्वनि में यही संकेत छिपा है कि तप से नात्मा निर्मल, पवित्र एवं विशुद्ध हो जाता है।
यह स्मरण रखना चाहिए कि तप केवल शुद्धि का मार्ग ही नहीं, सिद्धि का भी मार्ग है । दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं-तप से शुद्धि होती है, शुद्धि से सिद्धि मिलती है। विना शुद्धि के सिद्धि नहीं--यह जनधर्म का अटल सिद्धान्त है । सिद्धि का अर्थ है मोक्ष-और शुद्धि कारक तत्त्व है तप ! इसलिए तप मोक्ष का अन्यतम कारण है । मोक्ष की इच्छा रखने वाले को तप करना ही होगा।।
आत्मा में कर्म रूप मल सतत माता रहता है । वह कपाय, विषय, रागदेप नादि के द्वारा प्रतिक्षण कलुपित होता रहता है । जैसे घी में सना वस्त्र यदि खुली हवा में पड़ा हो तो हवा के साथ उड़कर लाने वाली मिट्टी, रजकण उस पर प्रतिक्षण लगते-लगते वह मैला हो जाता है। सड़कों की दुकानों पर लगे नये वरम बाप देखते हैं, मिट्टी नादि से धीरे-धीरे वे कितने मैले हे
१ उत्तराध्ययन ३८१३५, २ उत्तराध्ययन २०१६,
दर्वकालिक १०७ ४ नावश्यक नियुक्ति १०३
Mm"
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तप का वर्गीकरण
• तप की अनेक परिभाषाओं में एक सर्वसामान्य परिभाषा बताई गई है-इच्छा का निरोध-तप है । वास्तव में जैनधर्म के आगम और उत्तरवर्ती ग्रंथों में तप का इतना विस्तृत और बहुविध वर्णन किया गया है कि उसके समग्र रूप को किसी एक परिभाषा में बांध पाना बहुत कठिन है । जैसे महासागर की गंभीरता को, गगन की असीमता को, हाथ फैलाकर, भुजाएं लम्वाकर बता पाना एक वाल प्रयत्न है, वैसा ही तप को किसी एक व्याख्या व एक परिभाषा में बांध पाना बाल क्रीड़ा मात्र है।
शुद्धि और सिटि तप जीवन के अन्तर्तम को शोधने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है । तप के विविध अंगों पर विचार करने से लगता है, साधना के क्षेत्र में, जीवन शुद्धि के क्षेत्र में ऐसा कोई भी अंग बाकी नहीं बचा है जिसको तप में अन्तर्गत नहीं लिया गया हो । व्यक्तिगत जीवन से लेकर समाज एवं समग्न विश्व के साथ जितने, जहां-तहां सम्बन्ध भाते हैं उन सब सम्बन्धों में तप की
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तप का वर्गीकरण
९ वाह्य तप
२ आभ्यन्तर तप-तप के ये दो भेद कहे गये हैं ।
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वाह्य तप का अर्थ है - बाहर में दिखाई देने वाला तप ! जिस तप की साधना शरीर से अधिक सम्बन्ध रखती हो, और उस कारण वह बाहर में दिखाई देती हो वह तपः साधना बाह्य कहलाती है। जैसे उपवास है । उपवास का स्पष्ट प्रभाव शरीर पर पड़ता है। लंबे उपवासों से शरीर दुर्बल भी होता है, देखने वालों को यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि यह तपस्वी है । कायक्लेश, अभिन, भिक्षावृत्ति ये सब ऐसी विधियां है जो बाहर में साफ दिखाई देती हैं ।
आभ्यन्तर तप का अर्थ हैं- अन्तर में चलने वाली शुद्धि प्रक्रिया | इस का सम्वन्ध मन से अधिक रहता है । मन को मांजना, सरल बनाना, एकाग्र करना और शुभ चिंतन में लगाना - यह आभ्यन्तर तप की विधि है । जैसे ध्यान, स्वाध्याय, विनय आदि । हां यह बात भूल नहीं जाना है कि जैसे बाह्य तप में मन का सम्वन्ध भी रहता है, वैसे आभ्यन्तर तप में शरीर का भी सम्बन्ध जुड़ा रहता है । ऊनोदरी वाह्य तप है, फिर भी उसमें कपायों को ऊनोदरी का सीधा सम्बन्ध अन्तरंग से है । प्रतिसंलीनता वाह्य तप है, किन्तु अकुशल मन का निरोध, कुशल मन की उदीरणा और मनको एकात्र करना इसका सम्बन्ध भी ध्यान साधना से जुड़ता है जो स्पष्ट ही आभ्यन्तर तप है । वैसे ही विनय, वैयावृत्य नाभ्यन्तर तप है, जब कि इनकी प्रवृत्ति का सीधा सम्बन्ध वाह्य जगत से जुड़ता है । गुरुजनों का विनय, अपने साधमिकों का विनय क्या बाहर में दिखाई नहीं देते ? गुरु, दक्ष, रोगी आदि को नेवा करना भी सीधा बाहरी संपर्क में आना है, फिर भी इन्हें वान्यन्तर तप माना है। इस प्रकार गहराई से देखने पर पता चलता कि बाह्य एवं भाभ्यन्तर भेद तप की प्रक्रिया समझाने के लिए है, न कि एक को अ महत्व देकर दूसरे का महत्व घटाने के लिए !
लोगों को यह धारणा वन गई है कि बाह्य तप साधारण तप कुछ साम्यन्तर तप चढ़ा तप है । बाह्य का महत्व कम है,
यन्तर का न
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जैन धर्म में तप
जाते हैं । यही हाल आत्मा का है । जैसे तालाव में प्रतिक्षण पानी आते-आते वह भर जाता है, वैसे ही आत्मा मलिन विचारों के पानी से धीरे-धीरे भर जाता है । तप उस मैन को धोने के लिए साबुन का काम करता है, पानी को सुखाने के लिए तेज धूप का काम करता है, वह भीतर में शोधन करता है । जैसे सोना अग्नि को निर्मल बनाता है वैसे ही तप आत्मा को निर्मल बना
देता है । शास्त्र में कहा है
Hans
जहा महातलागस्स सन्निरुद्ध जलागमे । उचिणाए तवणाए कमेणं सोसणा भवे ।
एवं तु संजयस्सावि पावकम्म निरासवे ।
C
भव फोडी संचियं धम्मं तवसा निज्जरिज्जइ । ' जिस प्रकार किसी बड़े तालाव का पानी समाप्त करने के लिए पहले जल के आने के मार्ग रोके जाते हैं, फिर कुछ पानी उलीच उलीच कर बाहर फेंका जाता है और कुछ सूर्य की तेज धूप से सूख जाता है । और इस प्रकार तालाव का समूचा पानी सूख जाता है, वैसे ही संयमी पुरुष व्रत आदि के द्वारा नये कर्मास्रवों को रोक देता है, और पुराने करोड़ों जन्मों के संचित किये हुए कर्मों को तप के द्वारा सर्वथा क्षीण कर डालता है । कर्म क्षीण होने पर आत्मा अपने लक्ष्य में सिद्धि प्राप्त कर लेता है । यही शुद्धि और सिद्धि का क्रम है जो तप के द्वारा फलीभूत होता है ।
तप के दो भेद : वाह्य और आभ्यन्तर वास्तव में नात्म-शोधन रूप तप एक संपूर्ण प्रक्रिया है । वह एक अखट इकाई है । उसके अलग-अलग खंड नहीं है। किंतु फिर भी उसकी प्रक्रियाएं, विधियां अलग अलग होने के कारण उसके अलग-अलग भेद भी बताये गये हैं । मूलतः आगमों में तप के दो भेद बताये हैं
सो तवो दुविहो वृत्तो बाहिरव्भन्तरो तहां ।
१ उत्तराध्ययन ३०।५-६ .
२ उत्तराध्ययन ३०१७
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तप का वर्गीकरण
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जीवन का केन्द्र होता है और वाह्य भाग राज्य संचालन आदि व्यवस्था का । किन्तु इसमें यह कहना कि वाह्य भाग कम महत्व का है आभ्यन्तर अधिक ! यह एक गलत बात होगी राज्य की दृष्टि से दोनों का ही महत्व है और दोनों ही अपनी-अपनी जगह में आवश्यक व उपयोगी हैं ।
जैसे एक ही पुस्तक के दो अध्याय होते हैं । एक ही महल के दो खण्ड होते हैं, एक सिक्के के दो पहलू होते हैं, वैसे ही तप के ये दो पहलू हैं । दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं । वाह्य तप के बिना केवल आभ्यन्तर तप की साधना कठिन क्या, असम्भव प्राय: है । और आभ्यन्तर तप के अभाव में केवल बाह्य तप देह दण्ड मात्र है । जो सिर्फ अपने को तत्त्वज्ञानी व अध्यात्मवादी दिखाने के लिए वाह्यतप की उपेक्षा करता है; उसकी असारता बताता है वह वास्तव में जैनतत्वज्ञान से ही अपरिचित है । यदि वाह्य तप अनुपयोगी होता - तो भगवान ऋषभदेव क्यों एक वर्ष तक भूखे रहकर कष्ट उठाते, क्यों भगवान महावीर साढ़े बारह वर्ष के साधना काल में ग्यारह वर्ष तक का काल उपवास आदि में व्यतीत करते ! क्यों घप्ता अनगार चौदह हजार श्रमणों में सर्वश्रेष्ठ तपस्वी घोषित किये जाते ! आखिर बाह्य तप भी कुछ शक्ति है, कुछ साधना है और बड़ी चमत्कारी साधना है । साधक के मनोबल और कष्टसहिष्णुता की जितनी कसौटी वाह्य तप में होती है, उतनी आभ्यन्तर में नहीं, साधक के जीवन स्वर्ण के लिए वाह्य तप अग्नि है और आभ्यन्तर तप उस पर पालिश है । सोना पहले अग्नि में शुद्ध हो जायेगा तभी तो उस पर पोलिश की जायेगी ? क्या कभी अशुद्ध सोने पर पालिश या चमक की जाती है ओर की जायेगी तो वह कितने समय तक टिकेगी ? इसी प्रकार बाह्य तप से जब तक मानसिक मलिनता दूर नहीं हो जाती हृदय शुद्ध नहीं हो जाता तब तक ध्यान, विनय, स्वाध्याय कैसे होंगे ? इसीलिए वाम्यन्तर तप से पहले बाह्य तप का क्रम रखा गया है, वाह्य तप को साधने के बाद साधक वाभ्यन्तर तप की ओर बढ़ता है ।
दोनों का समन्वय हो, एक बात ध्यान में रखनी है कि जैन धर्म केवल बाह्य तप का ही आग्रह
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जैन धर्म में तप
अधिक ! एक विद्वान मुनिजी से तप की चर्चा चल रही थी । प्रसंग में किसी तपस्वी मुनिराज के दीर्घ उपवास और उसमें आतापना लेने की बात आगई। मैंने कहा-वे सचमुच बड़े उग्र तपस्वी हैं। अपने को विद्वान समझने वाले मुनि जी ने जरा उपेक्षा के साथ कहा- हां, ऐसी तपस्याएँ तो बहुत होती रहती हैं। ____ मैंने उनसे पूछा-आपने भी काफी लम्बे उपवास किये होंगे ? आतापना मादि ली होगी?
वे बोले- मैं इन वाह्य तपों में कम विश्वास करता हूं। ये बाह्य तप... है, साधना तो आभ्यन्तर तप की होनी चाहिए ? वही तो खास बात है ! . .
विद्वान मुनि के उत्तर ने मुझे झकझोर दिया । मैं सोचने लगा-क्या . इनकी विद्वत्ता इतनी ही गहरी है ? अभी तक इन्होंने तप का यही अर्थ समझा है कि वाह्य तप हलका है, आभ्यन्तर तप बड़ा है ? कितनी बड़ी ना समझी है ! लगता है इन्होंने सिर्फ बाह्य-आमान्तर शब्दों को पकड़ा है, इनकी गहराई को नहीं ! वास्तव में तो बाह्म में आभ्यन्तर और आभ्यन्तर में वाह्य समाया हुआ है । और फिर आश्चर्य तो यह कि बाह्य तप को हलका वताकर भी स्वयं कभी आभ्यन्तर तप की ओर नहीं चढ़े ! न कभी ध्यान किया हैं ? न सेवा और न और कुछ ! किन्तु फिर भी बड़ाई तो आभ्यन्तर तप की करते ही हैं।
तो यह एक गलत धारणा है। शास्त्रों में . आभ्यन्तर तप का जो महत्त्व है वहीं महत्व वाह्य तप का है । हां ! किसी एक तप का ही आग्रह करना गलत है, दोनों को समान आराधना करना ही वास्तव में सम्यक् आराधना . है । भगवान महावीर ने कठोर उपवास भी किये और ध्यान साधना भी की । वाहा-आभ्यन्तर का सुमेल करके उन्होंने अपनी साधना में सिद्धि प्राप्त की । यदि हम गन्नोरता में साथ देखें तो तप में बाह्य आभ्यन्तर का भेद बहुत मौलिक भेद नहीं है । जैसे किसी एक ही गजप्रासाद में एक आभ्यन्तर - भाग होता है और दूसना चाहा माग । आन्यन्तर भाग राजा के अन्तरंग
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बामामा और मर्यादा का आकुल होता रहार भी वह आग्रह , मन बाहे
तप का वर्गीकरण तप की महिमा में जैन धर्म में हजारों पृष्ठ लिखे गये हैं, हजारों गाथाएँ गाई गई हैं उस तप के सम्बन्ध में भी जैनधर्म हठवादी नहीं है । किन्तु समन्वयवादी है, उस तप की भी उपयोगिता देखकर ही वह चलता है, तप करने की भी सीमा और मर्यादा को मानता है। यह नहीं कि मन संक्लेश से भरा रहे, भूख-प्यास से चित्त आकुल होता रहे, देह-दमन से समस्त क्रियाएं एवं विधियां विशृंखल हो जाय और फिर भी वह आग्रह लिए बैठा रहे कि नहीं तप करते जाओ, प्राण निकले तो भले ही निकल जाय, मन चाहे जैसा संत्रास पाये पर तप करते जाओ ! ऐसा आग्रह जैन धर्म में नहीं है । वह कहता है-अमृत पीओ, किंतु वह भी मर्यादा के साथ ! तप करो, किंतु उसको भी मर्यादा है, सीमा है। सीमा को समझकर तप करो। भगवान महावीर ने कहा है
वलं थामं च पहाए सद्धामारोग्गमप्पणो।
खेत्तं फालं च विन्नाय तहप्पाणं निजजए। अपना शरीर बल, मन की दृढ़ता, श्रद्धा, आरोग्य तथा क्षेत्रकाल आदि का पूर्ण विचार करके ही तपश्चर्या में लगना चाहिए । आप कहेंगे-पया तप में भी कोई सीमा होती है ? जितना तप किया जाय उतना ही अच्छा है। हां, बात तो यह ठीक है कि तप जितना भी किया जाय करना चाहिए, किन्तु यदि तप नारते समय मन में संग्लेश पैदा हो, आकुलता और क्षुब्धता पैदा हो तो फिर उस तप में समाधि कैसे रहेगी। सोना नभी पहनते हैं, पर उतना सोना पहनना पया काम का जिससे गीर ही टूटने लगे
यह सोना पया फामफा जिससे टूटे अंग।।
'मिधी' तप यह पयों फरे जाहि समाधि मंग। जिम सोने में शोर टूटे, जिस तप से समाधि भंग हो, वह सोना और यह तप गया कामका:
लामको पता है भगवान अपनदेव समय में यष्ट तप भार
१ दावालिक ८।३५
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जैन धर्म में तप . नहीं करता। यदि आभ्यन्तर तप न हों तो वाह्य तप की अतारता भी उसने. मानी है । आचार्य संघदास गणी ने कहा है-- ..
इन्दियाणि फसाये य गारवे य फिसे कुरु ! ....
णो वयं ते पसंसामो किसं साहु शरीरगं । .. हम केवल अनशन आदि से कृश-दुर्बल-क्षीण हुए शरीर की प्रशंसा करने .. वाले नहीं हैं, वास्तव में तो वासना, कपाय और अहंकार को क्षीण करना चाहिए। जिसकी वासना कृश हो गई हम उसकी ही प्रशंसा करेंगे।
तप को मर्यादा इसका अर्थ है वाहतप-- अनशन,काययलेश आदि का अंधानुकरण करना जैनधर्म सम्मत नहीं है। वह तो हर स्थिति में समन्वयवादी, संतुलनवादी दृष्टि देता है । बाह्य तप पर एकांत भार नहीं देता, किंतु संतुलित आचार का ही समर्थन करता है । आचार्य जिनसेन का भी कितना स्पष्ट चिंतन है....... न फेवलमयं फाय: फर्शनीयो मुमुक्षभिः।
नाप्युत्कटरसः पोप्यो मृष्ट रिटरव वत्मनः ॥५॥ --मुमुक्ष साधकों को यह भी न तो केवल कृश एवं क्षीण ही करना चाहिए और न रसीले एवं मधुर मन चाहे भोजनों से इसे पुष्ट ही करना जाहिए।
दोष निरिणायेप्टा उपवासाद्य पत्रमाः ।
प्राण संधारणायायम् आहार: सूत्रशितः ७१२ दोरी गा दूर करने के लिए उपवास आदि का उपप्रम है और संयम साधना हित प्राण घाण करने के लिए आहार का ग्रहण है-- यह अन गिनाधना यई।
एक बड़ी महत्व की बात है कि जिन तप के सम्बन्ध में, और जिस .
१ निशीयमा ३७५६ २ महापुराण, पदं २०
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नप का वर्गीकरण
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तदेव हि तपः फायं दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते क्षीयन्ते नेन्द्रियणि च ।
वही तप करना चाहिए जिससे कि मन में दुर्ध्यान न हों योगों की
हानि न हों ओर इन्द्रियां क्षीण न हों ।
एक प्राचीन आचार्य का कथन है
सो नाम अणसण तवो जेण मणोमंगुलं न चिते ।
जेण न इं दियहाणी जेण य जोगा न हायंति ।
वही अनशन आदि तप श्रेष्ठ है, जिससे कि मन अमंगल न सोचे, इन्द्रियों की हानि न हो और नित्यप्रति की योग - धार्मिक क्रियाओं में विघ्न न आये ।
तो यह तपः विवेक ही जैन धर्म की तपमर्यादा है । तप का संतुलित दृष्टिकोण है । इस दृष्टि का विवेक रखकर ही साधक अपनी शक्ति और रुचि के अनुसार कभी बाह्य तप का आचरण करता है और कभी आभ्यन्तर तप का । वैसे यह भी माना गया है कि बाह्य तप की दृष्टि आभ्यन्तर तप की ओर रहनी चाहिए ।
वाह्य तप के छह द शास्त्र में तप के दो भेदं करके प्रत्येक तप के छह-छह भेद बताये गये है । वाह्य तप के छह भेद है और उसके अन्तर्भेद भी अनेक है । अन्तमंदों का वर्णन पढ़ने से लगता है यह तप सिर्फ वाह्य तप ही नहीं, आभ्यन्तर तप तक भी पहुंच गया है। उसके छह भेद ये हैं
अणसणमूणोर्यारया भिक्खायरिया य रस परिच्चाओ ।
काफिले सो संतीणया य,
वज्लो तवो
होई ।'
(१) अनशन - आहार त्याग
(२) कनोदरी आहार बादि की कमी ।
(३) भिक्षाचरी - अभिग्रह आदि के साथ विधिपूर्वक भिक्षा ग्रहण करना ।
१ उत्तराष्ययन ३०१८
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जैन धर्म में तप
मास का माना है, मध्य के वाईस तीर्थकरों के समय में आठ मास का और भगवान महावीर के समय में छह मास का !' इसका क्या कारण है ? क्या भगवान महावीर में छह मास से अधिक तप करने की क्षमता नहीं थी ? ये तो अनन्तवली थे। और फिर भगवान ऋपभदेव और भगवान महावीर की आत्मशक्ति में कोई अन्तर नहीं था। तब क्यों यह अन्तर दिखाया गया कि एक तीर्थकर के समय में बारह मास का तप (उत्कृप्ट) विहित है तो दूसरे तीर्मकार के समय में छह मास का ! भगवान महावीर स्वयं भी इस सीमा की भागे क्यों नहीं बढ़े ? . इसका कारण और कुछ नहीं, किंतु यही था कि उस काल की शरीर .. स्थिति में अन्तर आ गया था। अपभदेव युग के साधक के लिए एक वर्ष का तप सहज था, वह अतिभार नहीं था, जबकि भगवान महावीर के युग . के साधकों के लिए छह मास तक का तप ही शरीर-स्थिति के अनुकूल समझा गया । उससे अधिक लम्बा तप करने पर शरीर पर अतिभार पड़ता . और उससे इन्द्रिय शक्ति अधिक क्षीण होकर संमयाराधना में भी कठिनाई ... आने लगती, इसी कारण यह एक तप की सीमा बताई गई है। यदि किसी . साधक को दो चार दिन का उपवास करने पर भी अधिक संक्लेश होता हो... तो शास्त्र में कहा है- वह उपवास न करके तप के अन्य मार्ग की बाराधना . . करें। क्योंकि तन की तपस्या उपवास है और मन की तपस्या समाधि है, यदि समाधि भंग होती हो तो फिर तप-समाधि नहीं हो सकती; अतः वह तप का मार्ग बदल दें, ध्यान, स्वाध्याय, विनय सेवा आदि के मार्ग पर बड़े किन्तु मन को क्षुब्ध न बनाएं।
सीलिए प्राचीन नाचार्यों ने अनशन आदि तप की श्रेष्ठता का मापर यंत्र भी यही बताया है कि जिस तप के साथ ताप (उत्ताप-संश्लेग) का अनुभव न हो, तप करते समय यदि मन में ताप होता है, संताप परिताप बढ़ता है तो उससे तो अच्छा है कि तप न किया जाय | बानाय वमोविजय । जी ने अपने तपोप्टमा ग्रन्थ में कहा है.
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१ व्यवहार नाय उ०१
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१३६
तप का वर्गीकरण
तप के अनेक रूप तप के उक्त बारह भेदों पर जैन आचार्यों ने बहुत ही विस्तार के साथ चितन किया है, मनन किया है, और तर्क, युक्ति एवं व्यवहारोपयोगी साहित्य का निर्माण किया है। यह कहा जा सकता है कि तप के विषय में जितना चितन जैन धर्म ने प्रस्तुत किया है, उतना शायद किसी अन्य धर्म ने नहीं किया। इतना गहरा विश्लेपण किसी भी धर्म में प्राप्त नहीं होता । तप के उक्त भेदों के अलावा अलग-अलग दृष्टियों से, कारणों से तप के अलग-अलग नाम व परिभाषाएं भी की गई हैं । कुछ यहां बताई जाती है।
सराग तप---किसी भौतिक आकांक्षा या प्रतिष्ठा, कीति, लधि तथा स्वर्ग आदि की भावना से तप करना सराग तप है।
यीतराग तप-आत्मा को कर्म बन्धनों से मुक्त होने के लिए कपाय रहित दृष्टि से जो तप किया जाता है वह वीतराग तप है। सराग तप निम्न कोटि का है, अल्पफलदायी है, वीतराग तप उत्कृष्ट कोटि का उत्तम फल देने वाला है।
बाल तप-आत्म ज्ञान के अभाव में जो तप किया जाता है वह बाल तप कहा जाता है, इसे अज्ञान तप भी कहा गया है । आचार्य भद्रबाहु ने कपायों की उत्कटता के साथ जो तप किया जाता है उसे भी वाल तप हो है । कहा है
जस्स वि दुप्पणिहिआ होंति फसाया तवं चरंतस्स ।
सो बालतवस्ती वि व गयाहाण परिस्लम कुणई। जिस तपस्वी ने अपने कामानों को क्षीण नहीं किया, पाय आदि पर फाबू नहीं पाया यह वाल तपस्वी हैं, वह चाहे जितना तप करें, उसका सब श्रम के बन गप्ट रूप है, जो हाथी स्नान कर के फिर मूंज से मिट्टी उत्ताल कर शरीर को मना कर लेता है, उसका स्नान करना अपं है, वैसे ही उस बाल तपस्वी का सब तप व्ययं है । १ निगीर भाप्य, गापा ३३३२ २ दावकालिक निमुक्ति ३००
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जैन धर्म में तप
(४) रस परित्याग-प्रणीत, स्निग्ध एवं अति मात्रा में भोजन का त्याग ।
(५) काय क्लेश---शरीर को विविध आसन आदि के द्वारा कष्ट.. सहिष्णु बनाकर साधना तथा उसकी चंचलता कम करना।
(६) संलोनता- शारीर, इन्द्रिय, मन वचन आदि तथा कपाय आदि .. का संयम करना, एकांत शुद्ध स्थान में रहना । '
वाह्य तप के ये छह भेद हैं । इनका विस्तार दूसरे अध्याय में किया जा रहा है।
आभ्यन्तर तप के छह भेद आभ्यन्तर तप के छह भेद इस प्रकार हैं
अभिन्तरए तवे छबिहे पण्णत्ते तंजहा-१ पायच्छित्तं, विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्ज्ञाओ।
झाणं विउस्सग्गो। (१) प्रायश्चित्त-दोष विशुद्धि के लिए सरलतापूर्वक प्रायश्चित्त आदि
करना।
(२) विनय-गुरुजनों आदि का आदर, बहुमान एवं भक्ति करना । (३) वयावृत्य-गुरु, रोगी, बालक, संघ आदि की सेवा करना । (४) स्वाध्याय-शास्त्रों का अध्ययन, अनुचितन एवं मनन करना । (५) ध्यान-मन को एकाग्र कर शुभ ध्यान में लगाना ।
(६) व्युत्सर्ग-यपाय आदि का त्याग करना, शगीर की ममता छोड़कर उसे साधना में स्थिर करना एवं आवश्यक होने पर संघ आदि का भी त्याग करना।
माभ्यन्तर तप के यह छह भेद है। जैसा कि पूर्व बताया गया हैइनका अधिक सम्बन्ध मन के साथ आता है, अन्तरंग मुन्द्धि और अन्तरंग दोपों का परिहार इनका विशेष फल है इसी कारण इन छह तपों को आभ्यन्तर तप कहा है।
भगवती चूम २५७
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तप का वर्गीकरण
(१) आत्मन्तप-कुछ साधक अपने शरीर नादि को कठोर तपश्चर्या के द्वारा सुखा डालते हैं, उसे कष्ट देते हैं, किन्तु दूसरों को कुछ भी पीड़ा नहीं पहुंचाते।
(२) परंन्तप-कुछ व्यक्ति दूसरों को ही कष्ट देते है. स्वयं सदा सुख सुविधा में रहना पसंद करते हैं।
(३) आन्मन्तप-परंतप-कुछ व्यक्ति स्वयं भी धार्मिक अनुष्ठान आदि करके कप्ट उठाते हैं, और दूसरों को भी कष्ट पहुंचाते हैं।
(४) न आत्मन्तप न परंतप-जो लोग न तो स्वयं कष्ट करते हैं और न दूसरों को ही कुछ कप्ट देते हैं।
बुद्ध ने इन चार भेदों में चौथा भेद श्रेष्ठ बताया है । वे अपने अनुयायियों (श्रावकों) से कहते हैं-तुम न स्वयं कष्ट उठाओ और न मोरों को कष्ट व पीड़ा दो।
यद्यपि जैन परम्परा में इस प्रकार के तप का कोई खास महत्व नहीं है । वहां तो पहला भेद ही मुख्य रूप से स्वीकार्य है, कि स्वयं को चाहे जितना फष्ट उठाना पड़े, तपस्या करनी पड़े किन्तु दूसरों को वितकुल ही पीड़ा मत दो । स्वयं कष्ट उठाने से दूसरे का लाभ होता हो तो और भी श्रेष्ठ । चौथा भेद तो एक प्रकार को अकर्मण्यता ही है---न स्वयं कष्ट क्षेले, न दूसरों को कष्ट दें। दूसरा-तीसरा भेद जैन दृष्टि में सर्वथा त्याज्य है। ऐसे व्यक्ति तपस्वी तो क्या साधारण योग्य नागरिक भी नहीं माने जा सकते।
आजीचिफों के धार तप भगवान महावीर के समय में गौशालक के आजीविका संप्रदाय का भी काफी बल बह गया पा। उसके सिद्धान्त प्रायः भगवान महावीर के सिद्धान्तों पी नफल मात्र ही भे, हां उनमें कुछ सरलता और लोकों का मनोरंजन हो ऐनी बातें और जोड़ दी गई थी। तप पर गोगालक का काफी चल पा,
१ मन्सिय निकाय, पदरक नुत । भगवान् बुर पृ० २२०
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जैन धर्म में तर जैन धर्म में बाल तप को बहुत ही निम्नस्तर का माना है, एक और क्षण भर का सज्ञान तप तथा एक और करोड़ों वर्ष का संज्ञान तप-वात तप? दोनों की तुलना में ज्ञानी का क्षण भर का समान तप श्रेष्ठ है, वह एक सांस भर समय में जितने कम खपा सकता है अज्ञानी करोड़ों जन्मों में .. उतने कर्म नहीं खपा सकता।' ___ अकाम तप-जो तप की इच्छा किये बिना ही परवशता आदि के कारण भूखा रहता है, धूप आदि में कष्ट सहता है, यह सब अकाम तप है । वास्तव में यह तप है ही नहीं, एक प्रकार की विवशता है, किन्तु भूख एवं काय-कप्ट को माने तो उसे अकाम तप कह सकते हैं। __ इस तरह अनेक दृष्टियों से, कारणों से जो शारीरिक काप्ट किये जाते हैं उन्हें उस भावना के साथ जोड़ने से उसी प्रकार का तप हो जाता है। फिन्तु उक्त सब तपों में सज्ञान तप, तथा वीतराग तप यही तप श्रेष्ठ है ! .
बौद्ध परम्परा में तप । जैन ग्रन्थों में तप का जितना भी वर्णन है वह प्राय: तप के बारह भेदों . में ही समाविष्ट हो जाता हैं । अन्य धमों में भी तप की महिमा खूब गाई है, तप को परम्परा भी रही है, किन्तु वहां तप की कोई व्यवस्थित विधि या .. मर्यादा, नियम आदि का कोई वर्णन प्राप्त नहीं होता । बौद्ध श्रमण भी तप करते थे । बुद्ध के कुछ समय पश्चात् तो तप का काफी जोर बौद्ध श्रमणों में । वढ़ा है, उन्हें 'घुतांग तपस्वी' कहा जाता था। स्वयं बुद्ध ने अपने पूर्व साधयः जीवन में कठोर तप का आचरण किया था-ऐसा उन्होंने स्वीकार किया है । वह तप जैन तप साधना से काफी मिलता-जुलता है। पिन्तु उसके पश्चात् । बुद्ध ने तप को उतना महत्व नहीं दिया, और न कोई विशेष उपदेश भी इस सम्बन्ध में दिया। साधारणतः वहां तप की श्रेष्ठता एवं निकृष्टता पर विचार किया गया है । इसी दृष्टि से बुद्ध ने चार प्रकार के तप करने वाले बताये है
१. प्रवचनसार ३३८
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तप का वर्गीकरण
ज्ञप्ति (जानकारी) एवं प्राप्ति की जा सकती है-सत्येन लभ्यस्तपसा ोप आत्मा --सत्य एवं तपस्या के द्वारा ही आत्मा को प्राप्त किया जा सकता है ! योगदर्शनकार आचार्य पंतजलि ने भी तप का वर्णन किया है, आत्म शुद्धि के साथ-साथ शरीरशुद्धि के लिए भी उन्होंने तप की महत्ता स्वीकार की है-फायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धि क्षयात्तपसः२-तप: साधना के द्वारा अशुद्धि दोप का क्षय होने से शरीर एवं इन्द्रियों की शुद्धि होती है।
गीता में भी तप के सम्बन्ध में कई दृष्टियों से विचार किया गया है। तप के स्वरूप और उसके उद्देश्य को ध्यान में रखकर गीता में तप के तीनतीन भेद बताए गए हैं ! प्रथम स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है
देव द्विज-गुरु प्राज्ञ पूजनं शौचमाजवम्। . ब्रह्मचर्यमहिसा च शारीरं तप उच्यते ॥१४॥ अनुद्वग करं वाक्यं सत्यं प्रिय हितं च तत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चव वाड्मयं तप उच्यते ॥१५॥ मनः प्रसाद सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भाव संशुद्धिरित्येतत् तपो मानस मुच्यते ॥१६॥ तप के तीन प्रकार हैं
शारीरिक तप याचिफ तप मानसिक तप
१-देवता, ब्राह्मण, गुरुजन एवं मानी जनों का आदर सत्कार करना, उनकी सेवा करना, शौच-शरीर एवं आचरण को पवित्र रसना, सरल व्यवहार करना, ग्रहानयं का पालन करना तमा किसी जीव को फप्ट नहीं देना-शारीरिक तप है।
१ मुण्यक उपनिषद् १११ २ योगवन, साधनापाय ४३
श्रीमद्भगवद् गीता, जयाय १७ ।
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जैन धर्म में तप
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स्वयं उसने भगवान महावीर के साथ रहकर कई प्रकार की तपस्याएं की थी, देखी भी थी, और लोगों पर प्रभाव डालने का एक अचूक साधन तप को वह मानता था । गोशालक के संप्रदाय में तप को क्या परम्परा घो इसका कोई विशेष वर्णन नहीं मिलता । स्थानांग सूत्र में एक स्थान पर आजीविकों का चार प्रकार का तप बताया है
आजोवियाणं चउव्विहे तवे पण्णत्त ' उग्गतवे, घोरतवे, रसनिज्जूहणया
जिभिदिय पडिलोणया ।
आजीविकों का तप चार प्रकार का है
(१) उग्रतप - जो आचरण में कठिन हो ।
---
(२) घोरतप - जो दीखने में बड़ा कठोर हो ।
(३) रसनिय हण स्वादिष्ट वस्तु न लेना ।
(४) जिह्वन्द्रिय प्रति-संलीनता --- रसना इन्द्रिय के विषयों का संकोच
करना ।
गीता में तप का स्वरूप
कुछ लिखा गया है । आज के प्रचलित तप
अधिक है। यहां तपस्
वैदिक साहित्य में भी तप के सम्बन्ध में बहुत मूलतः वेदों में तप का जो उल्लेख है, वह शायद (तपस्या) के अर्थ में कम है, किंतु तेजस् के अर्थ में को एक दाहक - आग्नेय तत्व माना है जो अनिष्टों को, दुष्टों को और कष्टों को भस्मसात् करने की अपूर्व शक्ति है । उसके बाद उपनिषद् साहित्य में तप के विषय में काफी चितन किया गया है और उस पर जैन चितन की गहरी छाप भी है। वहां तप को साधना के रूप में ग्रहण किया है। कहा गया है-तपसा धीयते ब्रह्म - तप से परमात्म स्वरूप (ब्रह्म) की सोज की जा सकती है और तप से ही आत्म स्वरूप - जो शुद्ध ज्योतिमंच है उसकी
१ स्थानांग सू ४२ २ मुण्डक उपनिषद् ११११८
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तप का वर्गीकरण क्योंकि तप में दूसरे को पीड़ा देने की भावना तो होना ही नहीं चाहिए, हां यदि दूसरे के लाभ के लिए, हित के लिए स्वयं को कष्ट उठाना पड़े तो उस स्थिति में भी साधक सहर्ष स्व-पीड़ा भोगने को तैयार होता है।
इस प्रकार गीता में तप के स्वरूप और ध्येय की दृष्टि से कुछ विचार किया गया है। किन्तु तप के समस्त अंगों पर जितनी गहराई से और वैज्ञानिक वर्गीकरण करके जैन धर्म में विचार किया गया है, उतना विचार, चिन्तन और अनुसंधान तप के विषय में कहीं भी प्राप्त नहीं होता।
जैन धर्म में आत्म-विकास में सहायक प्रत्येक क्रिया पर तप की दृष्टि से विचार किया गया है । यहां तक कि दोप विशुद्धि के लिए जो प्रायश्चित किया जाता है उसे भी आभ्यन्तर तप में महत्वपूर्ण स्थान दिया है। जबकि वैदिक आचार्यो-खासकर गीताकार ने उसे शरणागति मामेकं शरणं ब्रजप्रभु की शरण में आ जाने से शुद्धि हो जाती है मानकर हो विश्राम ले लिया । किंतु जैन धर्म ने जीवन की उस सरलता एवं निष्कपटता को तप माना है।
जैन धर्म सम्मत तप के समस्त अंगों पर अब विस्तार के साथ अगले खण्ड में विचार किया जायेगा।
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जैन धर्म में तप २-दूसरों को उद्विग्न--कप्ट न देने वाला, शांति कारक, सत्य, प्रिय हितकर वचन बोलना, सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय (अनुचितन) एवं अध्ययन करना-यह वाचिक (वचन का) तप है।
३-मन को प्रसन्न रखना, शांत भाव, मौन, मनोनिग्रह और मन को शुद्ध-पवित्र रखना--यह मानसिक तप है। ..
तप के ये तीन स्वरूप बताकर फिर तीनों ही तप की शुद्धता, ध्येय की पवित्रता एवं आचरण की निष्कपटता पर भी विचार किया गया है। ... ___ गीताकार ने बताया है-उपर्युक्त तीनों प्रकार का तप यदि निष्काम.. वृत्ति-फल की आकांक्षा से रहित होकर दृढ़ श्रद्धा के साथ किया जाता है. तो वह तप सात्विक तप है, अर्थात् प्रथम श्रेणी का तप है। यदि यह तप सत्कार, सम्मान एवं लोकों में पूजा प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए किया . . जाय - तो फिर उसकी उदात्तता एवं पवित्रता में कमी आ जाने से यह तप । 'राजस' श्रेणी में आ जाता है, क्योंकि इस प्रकार के तप में आत्म-शोधन . एवं ईश्वर-आराधना की प्रवृत्ति नहीं रहती किन्तु, दिखावा, प्रदर्शन और यश की भूख ही प्रवल रहती है । फिर भी यह तप गीता की दृष्टि में द्वितीय ... श्रेणी का है, जब कि जैन दर्शन में इस प्रकार के तप का सर्वथा ही निषेध किया गया है। ___गीता की दृष्टि से तीसरी श्रेणी का तप तो विल्कुल निम्नस्तर का .
मूढाग्रहेणात्मनो यत् पोडया क्रियते तपः
परस्योत्सादनायं वा तत्तामसमुदाहृतम् ११७.. .. जिस तप में मूढता, दुराग्रह की भावना छिपी हो, जिद्द पर चढ़ कर ही . शरीर को कष्ट दिया जाता हो, अथवा दूसरे का अनिष्ट करने की भावना से जो तप किया जाता हो, वह तामस तप' कहलाता है । यह तप बात्मशुद्धि की दृष्टि से तो हेय है हो, किन्तु नैतिक दृष्टि से भी त्याज्य है।
१ श्रीमद् भगवद् गीता, अध्याय १७
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तपस्वियों की अमर परम्परा
भूघर
रघुनाथ
जयमल
भोपत सी
वेनीदास आदि मिश्री' पोनो तप पेग को ।
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भगवान ऋषभदेव से गौतम
जैन धर्म के आदि तीर्थंकर भगवन ऋषभनाथ एक वर्ष तक कठोर तप करते रहे, भूख-प्यास के भयंकर कष्टों को हंसते-हंसते सहते रहे और जनपद में घूमते रहे । बाहुवली एक वर्ष तक जंगल में खड़े रहे, न खाना-न पीना, न सोना न बैठना ! वृक्ष की भांति अचल ध्यान मुद्रा में खड़े हुए तो पूरा वर्ष ही बीत गया, खड़े ही रहे, पक्षियो ने शिर पर घोंसले डाल लिए, लताएँ वृक्ष की तरह शरीर पर लिपट गई फिर भी वे तप करते रहे ।
भगवान महावीर का तप तो आज भी लोमहर्षक सत्य है । कितने भयंकर कष्ट ! उपसगं ! कितनी लंबी-लंबी तपस्याएँ । आचार्य भद्रबाहु ने कहा है- २३ तीर्थकरों के कष्ट उपसर्ग एक ओर भगवान महावीर का तप एक ओर ! कितना दुर्धर्ष तप था उनका । सिहों की दहाड़ ! दैत्यों के अट्टहास, तूफानो की संज्ञावात ! फिर भी कभी क्षुब्ध नहीं हुए, मन चंचल नहीं हुआ ! साढ़े बारह वर्ष के साधना काल में सिर्फ ३४६ दिन पारणा भोजन ग्रहण किया बाकी लगभग साढ़े ग्यारह वर्ष तक तपस्या ! उपवास बादि में लीन रहे । धन्ना अणगार की तपस्या को देखकर तो स्वयं भगवान महावीर ने राजा श्रेणिक से कहा
इमेसि चोद्दसहं समणसाहत्तीणं घन्ने अणगारे महादुवफरफारए चेव ।
इन चौदह हजार श्रमणों में घना अणगार महान दुष्कर और कानप करने वाला है । तप करते-करते उसका शरीर एकदम जर्जर लकड़ियों की भांति गुसा रक्त-मांस रहित हो गया । जिसे देखकर श्रेणिक ने भी दांतों तले अंगुली दबानी ।
इसीप्रकार नंदपेण, स्कन्दक, गणधर गौतम, जैसे अनेक उपस्वी प्राचीन परम्परा में होगए जिनके तपस्तेज से आज भी इतिहास जगमगा रहा है।
१ आवश्यकनियुक्ति गापा ५३४
म २१३६
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तपस्वियों की अमर परम्परा
जैन परम्परा में तप का सिर्फ सैद्धान्तिक महत्व ही नहीं रहा है, यिन्तु आचरण में भी उसका अपार महत्त्व रहा है। जैसे दूध के कण-कण में घृत . रमा हुआ है, फूलों की कली-कली में सौरभ वसा हुआ है और ईस के पोरे । पोरे में माधुर्य छलकता रहता है वैसे ही जैन साधकों के जीवन के प्रत्येय कण में, प्रत्येक रूप में तप समाया हुआ है । उनका हर व्यवहार तपोमय होता है, वहाँ तप जीवन की रसायन के रूप में प्रयुक्त होता रहा है । एक से एक बढ़कर तपस्वी, ध्यानी, मौनी वहां हुए हैं जिनका जीवन मोदक की तरह तप का परिपूर्ण माधुर्य लिए हुए है। देखिए
प्रथम जिनेन्द्र तप धारयो एफ अन्द अहा, - बाहुबलो ताहि भांति ग्रही तप तेग को। त्रिशला सपूत, तप फोनो तो अभूत जग ___घना नंदोषेण भर देखो मुनि मैप को। पन्दना र काली राणी दस को यपान पढ़ो, .
विचित्र तपस्या तपी बरी शिव वेग को। .
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तपस्वियों को अमर परम्परा आज भी स्थानकवासी व तेरापंथी संप्रदायों के लिए स्मरणीय है । वे एक महान श्रुतधर विद्वान आचार्य तो थे ही, किन्तु इससे भी अधिक वे क्रियानिष्ठ एक महान तपोधन थे। उनके रोमांचक तप का वर्णन सुनते हुए आज भी हम आश्चर्यचकित से रह जाते हैं।।
चार विगे टाली चतुर दीक्षा दिन घो जाण ।
पांच-पांच लग पारणो अभिग्रह धार्यों आन । जिस दिन दीक्षा ग्रहण की उसी दिन से जीवन भर के लिए चार विगय का त्याग कर दिया था और पंचोले-पंचोले-अर्थात् पांच-पांच दिन के उपवास प्रारंभ कर दिये थे। आपको आश्चर्य होगा पांच-पाच का उपवास तो उनके जीवन भर का साधारण नियम बन गया था। पांच दिन के बाद एक दिन भोजन करना उसमें भी चार विगय का त्याग और फिर पांच दिन का उपवास । किन्तु उनके तप की सीमा इतनी ही नहीं थी। इस श्रम के बीच अनेक माससमण, चोमासी, पंचमासी तप भी किये
पांच मास पाली में फोना, मेड़ते चार रसाल । चार मास उज्जन पचखिया, चार जोधाणे रसाल। तीन मास इग्यारा आदर्या, दोय मास सप्त धार । मासी तप इफयीस अन्दाता, पक्ष पांच ही लार।
पोसो तप तपियो पूज्य दयाल सुनता आनन्द माये ॥ यह है महामहिम आचार्य श्री के तप का संक्षिप्त वर्णनपांच मासी तप-१, गार मासी तप-३ तीन मानो तप-११ दो मासी तप-७ माससमा तप-२१ पन्द्रह दिन त तग ५
तथा अन्य फुटगार तप अनेक प्रकार का भी करते रहे । आचार्य भद्रबाह ने पतापा है-भगवान महावीर ने सादे बारह वर्ष नापना काल में उपअद्वितीय सप का कारण किया, साड़े बारह वर्ष में मुल ३४६ दिन ही पाहार प्राण किया । शिन्तु जाप माहित होगार देगे कि बागायं यो गुनार जी महाराज ने अपने माराध्यदेय में ममार्ग को और भी MIT निकाय माय अपनाया । अपने मापनामय जीवन में ६० पाये
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जैन धर्म में तप
. तपस्विनी धमनियों जैन परम्परा में सिर्फ श्रमण ही नहीं, किन्तु श्रमणियां भी तपःसाधना .. मेंप्रतिस्पर्धा के साथ आगे बढ़ती रही हैं । काली, महाकाली,रामकृष्णा आदि महाराज श्रेणिय को दस रानियों की तपस्याओं का वर्णन अंतगड़ सूत्र में आता है, जिसे पढ़ते-पढ़ते रोमांच होने लगता है-कि एक सुकुमाल नारी जो किसी प्रतापी सम्राट की महिषी रही होगी, फूलों की शय्या में सोती रही .... होगी, मन चाहे मधुर मिष्ठानों से जिसकी मनुहारे होती होंगी वह नारी जब साध्वी जीवन में आती है तो इतना उग्र तप करना शुरु कर देती है कि जिसे सुन कर बड़े-बड़े योद्धाओं के दिल कांपने लग जाते हैं। चंदना, मृगावती आदि साध्वियों के तपोमय जीवन की घटनाएं तो अभी ढाई हजार वर्ष पुरानी भी नहीं हुई हैं।
- और इस मध्यकाल में भी कितने महान श्रमण तपस्वी हुए हैं क्या उनका अमर इतिहास इन कागजों पर कभी उतरा है ? शायद बहुत कम ! सौ में एकाधा ही, सैकड़ों-हजारो तपस्वियों ने अपनी तपःअग्नि की आहुतियां देकर जैन धर्म के तेज को, गौरव को सदा दोप्त किया है, करते रहे हैं ।
अर्वाचीन युग में : मध्यकाल में भी अनेक महान तपस्वी, योगी हुए हैं जिनके उग्र तप की भारत के सुदूर प्रांतों तक में बहुत चर्चा थी । दुईलिका पुप्य मित्र, पादलिप्त सूरि तथा अन्य अनेक तपः साधकों के नाम लिये जा सकते हैं। ___ अभी दो सौ-तीन सौ पूर्व भी हमारे समक्ष ऐसे महान तपस्वी आए हैंआवायं भूधरदास जी, आचार्य रघुनाथ जी, पूज्य जयमल्ल जी, तपती . . भोपत जी, तपस्वी श्री येणीदास जी म. नादि । उनके तपोमय जीवन की . घटनाएं भी बड़ी प्रेरक रही हैं।
स्थानकवासी परम्परा के पूर्व पुरुप आचार्य भूधरदास जो म० सायं एफ ... महान तपस्वी थे। तपस्या के विविध अंगों को उन्होंने कठोर आराधना की थी।
महान तपोधन आचार्य श्री रपताप जी हमारे प्रात:स्मरणीय आचार्य श्री रघुनाल जी महाराज का अमर नाम
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... जैन धर्म में तप .. में उन्होंने सिर्फ ६७५ दिन 'ही आहार किया । अर्थात् ६० वर्ष में तीन... वर्ष से भी कम माहार का समय रहा, बीस वर्ष में १ वर्ष से भी कम (१० मास २० दिन) ही सिर्फ आहार ग्रहण किया । कितना महान व दुधपं . . . तप था उनका ! ___आचार्य रघुनाथ जी म० के गुरु भाई पूज्य जयमल्ल जी म० भी एक महान तपस्वी साधक थे। वे सोलह वर्ष तक निरंतर एकांतर तप करते . रहे । उनके जीवन में एक और महान संकल्प था जो बड़ा उग्र तपश्चरण कहा जा सकता है । जब (संवत् १८०४) श्रद्धेय गुरुवर श्री भूधर जी म० का स्वर्गवास हो गया था तो आपने एक वनसंकल्प लिया कि-'आज से आजीवन सोकर नींद नहीं लूगा ।" आप इस तप की ओरता अनुभव कर सकते हैं कि मनुष्य एक दिन भी यदि आराम से नहीं सोने पाये तो शरीर पर आलस छा जाता है, काम करने का मन नहीं होता, हाथ-पांव टूटते से लगते हैं, जिसमें एक दो वर्ष नहीं, लगभग पचास वर्ष तक, बुढ़ापे में भी कभी सोकर नींद नहीं ली। ___भोपत जी तपसी, श्री वेणीदास जी म०, वेणीचन्द जी म० मादि अनेक तपस्वियों की उज्ज्वल परम्परा आज भी हमारे समक्ष है जो जैन धर्म में . तप के महत्व को उजागर कर रही है।
यह बात नहीं है कि सिर्फ स्थानकवासी परम्परा में ही महान तपस्वी .. . हुए हैं-श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज में भी अनेक आचार्य, साधु-साध्वियां सुदीर्घ तप करने वाले हुए हैं, तेरापंथी समाज में भी अनेक साधु साध्वियों .. तथा श्रावक-श्राविकाओं के सुदीर्घ तप की बातें हम सुनते आये हैं। ये गंभी तंगवी जैन धर्म के गौरव को, तप की महिमा को बढ़ाने वाले हैं और .. जगाधर्म को तप परम्परा को बादरणीय, प्रशंसनीय गाड़ियां रही है। वमान में भी सभी परम्पराओं में ऐसे तपस्वी संत, गतियां, गहस्य
जो बाज के भौतिकवादी युग में सनमुच में अध्यात्म युग का गमलार
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बाह्य-तप का स्वरूप :
१ अनशन तप
अशन और अनशन अन्न का महत्व आहार के विविध प्रकार भोजन में आवश्यक रस व तत्त्य आहारशुद्धि आहार का उद्देश्य भोजन में अनासक्ति आहार करने के छह कारण आहार त्याग के छह कारण उपवास के लाभ अनशन में निषिद्ध मा अनमन तप को भेद इत्वरिफ तप के छह मेव: नित्य-तप (नागिनोजन त्याग)
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- १५३ -
वस्त्र-पात्र की मर्यादा भक्तपान ऊनोदरीआहार की मात्रा वत्तीस कवल-प्रमाण अतिभोजन के दोप मित-भोजन के लाभ अन्य भेद भाव ऊनोदरीअल्पभापण अल्पकलह
उपसंहार
३ भिक्षावरी तप
भिक्षा के तीन भेद गौनरी बोर माधुकरी वृत्तिसंक्षेप नयकोटि परिशुद्ध भिक्षा भिक्षा के दोप मिक्षा के नियम भिक्षा का काल मिक्षा की विधि मुधाजीवी भिधानरी के साठ भेद सात एपनाएं तील प्रकार के अभिप्रह मुखपणा का महत्व भिक्षा भोगे?
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- १५२. --
भिक्षु प्रतिमाएं सर्वतो भद्रप्रतिमा लघु सर्वतोभद्रप्रतिमा महासर्वतोभद्रप्रतिमा भद्रोत्तर प्रतिमा यवमध्य चन्द्रप्रतिमा . वज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा लघुसिंह निष्क्रीडित तप .. महासिंह निष्क्रीडित तप मुक्तावली तप रत्नावली तप कनकावली तप गुणरत्त्न संवत्सर तप आयंबिल वर्धमान तप वीतप छहमासी तप कल्याणक तप महावीर तप बोली तप यावत्फयिक अनशन . संलेखना भक्त प्रत्याख्यान अनशन पादपोपगम अनशन
उपसंहार २ नोदरी तप
मनोदी का अर्थ व स्वरूप उपकरण नोदरी
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दो कछुए:
इन्द्रियों को यह दासता ? प्रतिसंलीनता के भेद इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता इन्द्रियों का स्वरूप इन्द्रिय-विषयों में आसक्ति का वर्जन इन्द्रिय प्रति लीनता के दो रूप संग त्यागो! वीतरागता के तीन सोपान पांच भेद फपाय-प्रतिसंलीनता अन्तरंग दोष तीन श्रेणी : मुद्ध-गांत-प्रशांत क्रोधोत्पत्ति के कारण क्रोध को विफल कैसे करें ? एक तीर : तीन गिकार मान से हानि मदस्पान अभिमान को जसे जीत ? माया से दूर हो माया रे दुरफल माया विजय लोग सर्वनाम है मंतोष से लोन को जीतो मोग-प्रतिसंलीनता लोग की परिभाषा
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४ रस-परित्याग तप
'रस' क्या है ? . पड्स विगय कितनी ? रस विजय ही सबसे कठिन . क्या रस का सर्वथा निषेध है ? .. स्वाद का निषेध भोगपणा के पांच दोप रस-लोलुपता से हानि रसासक्ति से कामासक्ति रस-त्याग के विविध रूप.
उपसंहार ५ फायक्लेश तप
कायक्लेश की परिभाषा वाईस परीपह शरीर को कष्ट क्यों ? कायगलेश की दार्शनिक पृष्ठभूमि सुकुमारता का त्याग सहिष्णुता आवश्यक फायनश के प्रकार आसन नती साधना बारानों के भेद परिम और विभूपा
उपसंहार .....६ प्रतिसंलीनता तप
Hai
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लशन और अनशन
जैन भागमों में स्वरूप को दृष्टि से तप का वर्गीकरण करके उसके बारह भेद बताये गये हैं, जिनमें छह माभ्यन्तर तप के और छह वाह्य तप के भेद हैं । बाह्य तप में सर्वप्रथम अनदान तप माना गया है। वनदान का अयं है- उपवास ! निराहार ! अशन कहते हैं- आहार को ! भोजन को ! भोजन का त्याग करना अनशन है। अनशन का महत्व और स्वरूप सम के पहले अशन - बाहार के सम्बन्ध में कुछ बातें जान लेनी नावश्यक है।
૧
अनशन तप
विकराल मूल
जब पेट में भूम लगती है तो भोजन को इच्छा जागृत होती है । जब क भोजन नहीं मिलता मारे भागता है। उसके हाथ पैरन हो जाते है। इसलिए भूल को सबसे बड़ी वेदना माना गया है-पहासमा देवना नबुद्ध ने तो यहा है-जियच्छा परमारोपा
१
धम्मपद १३७श
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तीन भेद मन के रूप पहले शुद्धीकरण : फिर स्थिरीकरण . : तीन घुड़सवार मन को कैसे मोड़ें? धारा बदल दो। .. कुशलीकरण एकाग्रता मन शुद्ध तो, वचन शुद्ध अशुभ वचनयोग अशुभ वचन के लक्षण सत्य की परिभाषा मौन का अर्थ काय संकोच यह पूजा भी है विविक्त शय्यासन प्रति-संलोनता. अनगार कौन ? माश्रम और विहार अनिकेत जन श्रमण आवास क्यों नहीं ? विवेक योग्य भावास दो दृष्टियोः ग्रह्मचर्य की सुरक्षा अनय-भावगी साधना उपसंहार
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१५६
मनशन तप
तो ऐसे अपवित्र कर्म, पाप और निकृष्ट आचरण मनुष्य पेट के लिए करता है । अर्थात् भूख से व्याकुल होकर जो चाहे सो पाप पारने को तैयार हो जाता है। जब तक पेट में भूख रहती है, भगवान याद नहीं आते"भूले भजन न होय गोपाला।"
सन्न का महत्व
इस दुभर पेट को भरने का, भूख को मिटाने का साधन है रोटी! अन्न ! कहावत है-"भूरो पेट को क्या चाहिए ? दो रोटी !" बन्न का पुजारी पुकारता है-"सारी बात सोटी एफ सिरं दाल रोटी है।" जब तक शरीर है तब तक भूख है, और भूख मिटाने के लिए अन्न है । अत: गोरधारण के लिए अन्न सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है ? इसीलिए वैदिक प्रापियों ने अन्न को प्राण कहा है-अन्नं ये प्राणा:---अन्न ही प्राण है। उपनिषद के अध्यात्मज्ञानी पिजनों ने भी अन्न की महिमा गाते हुए कहा है-अन्नेन पाय सर्व प्राणा महीयन्ते -अन्न से हो गब प्राणों की महिमा स्थिर रहती है । अन्न न हो, तो हीरे जवाहर मोती माणः गया काम फे? कहा जाता है कि एक धनाड्य सेठ एक बार अपने पर में सोचा था । पहरेदार बाहर से घर बंद करके कहीं नाला गया । सेठ भीतर ही बंद रह गया। उसे भूप लगी तो भंगार सोले, मगर अन्न का दाना यहां नहीं मिला। हीरे मोती से तिजोरियां भरी पो, किंतु अन्न के बिना उनका पया करता ? पहरेदार माया नहीं, दूस-या से तिलमिलाता सेठ भीतर ही भीतर दम तोड़ने लगा। सभी पहरेदार पहुंचा, उत्तने गमरा सोला, नेक गरजासान पड़ाया, मरते दम उसके मुंह में इतना ही निकला "जवाहर के हजार दानों में ज्यार फा एक दाना बेहतर है।"
जब पेट में भय को बाल सुलगती है, सब सही उमे गान्त कर सकता
१ छा जाब सरीरं हाय रिय साचारांग यूलिया २२ २ ऐतरेय ग्राहण ३० ३. समितीय अनिषद !
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thee
जैन धर्म में तप
१५.८
भूस ही सबसे बड़ा रोग है । पेट जब तक खाली रहता है, कोई काम सुझता नहीं | जैसे तेल के बिना दीपक टिमटिमाने लगता है, पानी के बिना मछली तड़फड़ाने लगती है, भोजन के बिना मनुष्य भी इसी प्रकार आकुल व्याकुल हो उठता है, भूख से व्याकुल होकर ही किसी ने कहा थाबुभुक्षितः फि न करोति पापं
- भूखा क्या पाप नहीं कर लेता । सन् १९४५ में जब बंगाल में भयंकर दुष्काल पढ़ा था तब भूख से व्याकुल हुई एक माता अपने बच्चे को भी पकाकर खा गई थी । मनुस्मृति में एक स्थान पर बताया है- "अजीगतं नाम के ऋषि ने भूख से व्याकुल होकर अपने प्यारे पुत्र शुनःशेप को यज्ञ में होम देने के लिए बेच डाला था ।"" विश्वामित्र जैसे ऋषि भी क्षुधा पीड़ित होकर चंडाल के हाथ से लेकर कुत्ते की जांघ का मांस खाने को तैयार हो गए ।" इन उदाहरणों से यह बात स्पष्ट होती है कि भूसा क्या नहीं करता ? संस्कृत के एक कवि ने कहा है
-
अस्य वग्धोदरस्यायें कि न कुर्वन्ति मानवाः । वानरोमिव वाग्देवीं नर्तयन्ति गृहे गृहे ।
इस पापी पेट को भरने के लिए मनुष्य कौन-सा पाप नहीं कर लेता ? सरस्वती जैसी पवित्र वाग्देवी को भी वानरी की तरह घर-घर में हर किसी के सामने नचाने लगता है । कवि ने कहा है
दाता,
कयन फला वोह क्रूर, फिता मुख होय कवीश्वर, सुत दासो नो सोय, न्याय सुध होय नरेश्वर । कायर ने सूरा कहे कहे सम में न घण से नार कहे आ जाचवा काज जिन-जिन विधे हुलस हाय हे घरे । दुभर पेट भरवा भगो करम एह मानव करें ।
तिमी माता |
१ मनुस्मृति १०।१०५ २ मनुस्मृति १०१४८
"
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नमन तप
___ "महाराज ! ये सब चीजें तभी अच्छी लगती हैं-जव पेट में अल हो !. पेट भूसा तो जगत कसा ! भूखे पेट संसार में कहीं भी रस व मानन्द नहीं आता।"
रामचन्द्र जी ने गंभोर होकर कहा - "यह बात है ? तो फिर मैंने आप लोगों से अन्न की कमाल क्षेम पूछो तो आप लोग हंसे रवों ? और क्यों मेरे प्रश्न को उपेक्षापूर्वक दुहराया ?"
लोगों की समझ में लाया-सचमुच मन ही सबसे मुख्य चीज है ! बन्न से ही संसार की गाड़ी चलती है।
__माहार के विविध प्रकार यहां अन्न ने अर्थ है सुपरव माहार ! इस सृष्टि में प्रत्येक शरीरधारी प्राणी को माहार की अपेक्षा रहती है। बिना आहार के कोई प्राणी जी नहीं सकता। जैन दर्शन का तो यहां तक कपन है कि कोई भी प्रापी अनाहार स्थिति में अधिक समय तक नहीं रह सकता। दो समय से अधिर अनाहारक स्थिति नहीं रहती।' अनन्तवली तीर्थकर भगवान भी अनाहारक नहीं रहते । वे भी शरीर चलाने के लिए बाहार करते हैं।
माहार की परिभाषा करते हुए जनाचार्यों ने कहा है-"दुधा वेदनीय फागो उदय ने भोजन रूप में जो वस्तु ली जाती है यह आहार (भावबाहार) है।" पह लाहार तीन प्रकार पा है
भावाहारो तियिहो बोए तोमे ५ पक्सेय ।। (1) लोज आहार-जन्म के प्रारम्भ में-माता के गर्भ में सवंयम लिया जाने वाला आहार !
(२) लोग माहार-स्वचा पा रोम द्वारा लिया जाने वाला माहार, से पचन हाधि।
(३) प्रक्षिपा माहार-मुखपा दमन बाधिशारा गरीर में प्रोन किया जा पाला बार।
dia
१ एकोनानासार: दारयाशंगम २१३१ २anनिक १३
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जैन धर्म में तपः ।
आमने आप भाप में प
रामचने लगे।
। एक पौराणिक कथा है कि रामचन्द्र जी वनवास से लौटकर जब अंपोध्या . प्रवेश कर रहे थे तो अयोध्या के नागरिक उनके स्वागत में बहुत दूर तक .. मने आये । नागरिकों का अभिवादन लेते हुए रामचन्द्र जी ने सर्व प्रथम उनसे पूछा-आप के घरों में अन्न कुशल क्षेम है ? ....
स्वागत के अवसर पर रामचन्द्रजी का यह प्रश्न लोगों को बड़ा अजीयोगरीव लगा, कुछ लोग मन ही मन हंसने लगे। उन्होंने सोचा-"वनवास में राम को जरूर भूख सताती रही है, इसलिए सबसे पहले अन्न को याद बायी है ।" वे बोले-'हां, महाराज ! अन्न की क्या फिकर है ? सय
बस पहले
?
कुशल है ?"
ताद लिया, पर जा भोज के लिए यहा रहे। लोगों का आ रही थी 1 हो
दिनमा उनके साल
ही
में ।
! फिर हम आप रामचन्द्र जी
सेवकों को संकेत :
___लोगों का छुप-छुपकर हँसना और व्यंग्यपूर्वक बोलना रामचन्द्र जी । ताद लिया, पर उस समय वे कुछ नहीं बोले । स्वागत समारोह के बाद ए दिन नागरिकों को भोज के लिए बुलाया गया । नागरिक आये । काफी देर तक राम उनके साथ गपशप करते रहे । लोगों को भूख सताने लग गई। इधर उधर देखा, पर कहीं अन्न की वास भी नहीं आ रही थी । आसिर भूस से परेशान होकर नागरिकों ने कहा-महाराज ! पहले भोजन हो जाय ! फिर हम आपके साथ विचार चर्चा करेंगे।
पूर्व योजनानुसार रामचन्द्र जी ने सेवकों को संकेत किया-सोने के पालों में हीरे-मोती-मानिक भरे हुए माये ! सब नागरिकों के सामने जवाहरात के पाल रख दिये गये। लोग दिग्मूढ़ से देख रहे थे-कुछ समक्ष नहीं पाये कि रघुपति राम उनके साथ आज क्या मजाक कर रहे हैं ?
राम बोले-श्रीमानो ! अब भोजन प्रारम्न कीजिये ?"..."अब तो मजाक की हद हो गई ! पेट में चूहे दंट पैन रहे हैं, और सामने होरे पाने में पात . परोसे जा रहे है ? लोग बोले-"महाराज ! बाप जैसे नीतिश आज हम लोगों से साय या मजाक कर रहे हैं ?
राम ने कहा-"नहीं! फोई मजाक नहीं !" "तो हम क्या मागे ? अन तो है ही नहीं !"
"अन्न का क्या करना है ? राम ने कहा ।" जन्म का दाना तो मामूली पोज है, कहीं भी मिल जाता है ! आप लोग होरे जवाहरात मीजियेन?
हरात के बाल नामानिक भरे हुए
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अनशन तप
१६३ करता है । यतमान स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने हमारे भोजन के आठ आवश्यक तत्त्व माने हैं
(१) प्रोटीन-दाने आदि । (२) फंट्स-गर्वीले पदार्थ-घी तेल आदि । (३) खनिज -लवण सहा पदार्थ । (४) फार्वोहाइड्रेटस-शरा जातीय चीनी आदि । (५) फेलशियम-चूना फासफोरस आदि । (६) लोहा-लोह युक्त पदार्थ । (७) पानी पेय पदार्थ ।
(E) फेलोरी-शरीर को गर्मी और पाक्ति देने वाले तत्त्व । इन नाठों तत्त्वों का उचित मात्रा में शरीर में पहुंचना आवश्यक रहता है। शुद्ध दूध और गेहूँ में ये आठों तत्व सबसे अधिक मात्रा में पाये जाते हैं अत: शरीर के लिए सबसे अधिक बावश्यकता उन्हीं तत्त्वों को रहती है। फिर भी भोजन में संतुलन और आवश्यक मात्रा का ध्यान रखना जरूरी है।
मामा के साथ भी भोजन की वस्तु आदि का विवेक रखना आवश्यक है । जिस पदार्थ के सेवन से शरीर में राजरा जोर तामस भाव की उत्पति होती हो, वत् पापं स्वादिष्ट लगने पर भी नहीं साना नाहिए। गोवा में आहार के तीन भेद बताये हैं
सायिक नाहार राजा आहार
तामस आहार इन तीनों आरबीन पारते हुए बताया :
आयुः सत्य • सतारोग्य • गुप्रीति • वियनाः ।
म्या: स्निग्माः स्पिरा हया साहारा: सायिका प्रिया । भागु को माने जाना, बम, लारोग्य, गुणवं मोति सपनामा सीना. पिना, पान में होने वाला समय हो तुस्ट बनाने
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जन धात
( २
दिम पान-
या आहार
देव, नरक, तिर्यच एवं मनुष्य योनि में ये ही तीन प्रकार के माहार लिये जाते हैं। इनमें देवताओं का आहार बड़ा सुन्दर व मधुर रस, गंध, वर्ण व स्परां वाला होता है, जबकि नारकों का आहार-अंगारों के समान जलाने वाला, मुमुर के समान दाह उत्पन्न करने वाला अथवा बर्फ के समान : भत्यन्त शीतल ठिठुरन पैदा करने वाला होता है । पशुओं का आहार समाद भी होता है तथा दुखद भी ! मनुष्यों के आहार के चार प्रकार बताये हैं:
(१) अशन-दाल-रोटी-भात आदि । (२) पान-पानी आदि पेय पदार्थ । (३) खादिम-फल-मेवा आदि ।
(४) स्वादिम-पान-सुपारी-लौंग आदि । मनुप्य साधारणतः यह चारों प्रकार का आहार लेता है और इसी में से जीवनी शक्ति प्राप्त करता है।
भोजन के आवश्यफ रस व तत्त्व आयुर्वेद की दृष्टि से आहार के पडस माने गये हैं
मधुर रस-मीठा-चीनी मधु आदि फटु रसकडवा-नींव वादि आम्ल रस-सट्टा-कांजी आदि तिक्त रस-तीसा-मिनं, करेला आदि फापाय रस-कला-आंवला आदि
लवण रस-नमक इन पदसों से मुक्त आहार मन को प्रीति, गरीर को बल य ओज प्रदान करता है । शारीर निर्माण में सभी रनों की आयज्य पाया रहती। तथा दूध, घृत आदि पदार्थो पो भी। किंतु प्रत्येक रामा, घी दूध धादि का उचित प्रमाण ही शारीर के लिए आवश्यक होता है, अधिए. मात्रा में कोई भी वस्तु उचित नहीं होती। मात्रा में अधिक तो अमृत भी हानि
, नबि लाहारे असणे, पाने, माटो, गा, -- स्थानांग ४३४०
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बनमन तप
एक
न तो मिट्टी काल सफेद है, इससे का गदा कारण ?
१६५ जैसा साये अन्न वसा होये मान । जंसा पीवे पानी वसो योले बानी।
जैसा अन्न जल खाइये तैसा ही मन होय ! एक. प्राचीन उक्ति है कि एक राज सभा में राजा ने विद्वानों से एक प्रश्न पूछा-दीपक तो मिट्टी का बना हुआ है, उसका रंग लाल है, तेल पीला है, उसमें नई की बातो बिल्कुल सफेद है, इससे जो ज्योति प्रगट होती है वह भी लाल है, किन्तु काजल काला होता है, इसका क्या कारण ? जय अन्य कोई चीज काली नहीं है तो उनसे उत्पन्न होने वाला काजल ही काला क्यों ? फज्जले श्यामतां फयम् ? राजा के प्रश्न पर मनी विद्वान मौन होकर सोचने लगे । तभी एक अनुभवी विद्वान उठा, उसने कहा-महाराज ! आपका प्रश्न ठीक है, तेल पीला है, वाती सफेद है, ज्योति लाल है, फिर गज्जत काता पयों ? किन्तु महाराज ! जैना आहार होता है वैसा ही नीहार होता है, जैसा अन्न साते हैं वैसी ही उकार आती है
योपो भक्षयते ध्यान्तं फग्गलं च प्रसूयते ।
पदा भक्ष्यते नित्यं जायते ताइशी प्रजाः मापको माग है दीपक का भोजन पचा है ? वा अन्धकार को निगलता है, इसलिए वह काला काजल पैदा करता है। काले अन्धकार को लाने वाना तो गाला माजत हो पैदा गारेगा । मफेदी बाहों में आयेगी?
तो कपि का यह उत्तर शरीर और मन पर अन्नमा प्रभाव बताता है। जैगा भोजन किया जायेगा धनी हो बुद्धि पंदा होगी। आपने माता मृग में मुनी भीक और पंटनी की कथा । सरोक राजा ने दीक्षा लेकर हजार वर्ष तपः फाठोर गरया के शरीर को गला दिया । मिना एका कार उस ये भाई की ताजपानी में आये पा रामा उनसो भनि पाने नगा, राजा गो देशमार लोग भी भक्ति करने लगे। सदन म्यादिष्ट सातार मिनने लगा। पूनार सम्मान मिला। म गमग-स्वादिष्ट भोटमले पर रोष मुनि कंग गार वर्ग की माया
र पाप नीति
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जैन धम म त५
तो जलन
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। भोजन सात्विक प्रकृति वाले मनुष्यों को प्रिय होता है अतः यह त्वक आहार कहलाता है।
फट्वम्ललवणात्युप्ण- तीक्ष्ण - रक्ष विदाहितः। ___ आहारा राजसस्येष्टा दुःख - शोकामयप्रदाः । -अति कडुवे, अति खट्टे अति नमकीन, अति उष्ण तीसे, सो, जलन पैदा करने वाले, खाने से दुःख शोक एवं रोग उत्पन्न करने वाले भोग्य पदार्थ राजस प्रकृति वाले मनुष्यों को प्रिय लगते है, अतः यह राजस आहार कहलाता है।
यातयाम गतरसं पूति पयुपितं च तत्
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ।। बहुत देर का पका हुआ, रस रहित, दुर्गन्धित, वासी, जूठा, तथा अपवित्र भोजन तामस प्रकृति वालों को अच्छा लगता है अत: यह तामस आहार कहा जाता है।
आहार शुद्धि जिस प्रकार का भोजन किया जाता है, वैसे ही विचार मन में उत्पन्न होते हैं ? यदि शुद्ध सात्त्विक भोजन किया जायेगा तो विचार भी शुद्ध और सात्विक रहेंगे । काम, क्रोध आदि की जागृति कम होगी। मन पवित्र रहेगा। इसके विपरीत भोजन में यदि उत्तेजक पदार्थ लिये जायेंगे मिर्गमसाला, तोरी चनंरे तथा गरिष्ठ पदार्थों का सेवन किया जायेगा तो यह विकार बढ़ायेगा मन को चंचल बनायेगा । शास्त्र में कहा है
पणीय भत्त पाणं तु खिप्पं मयपिवणं प्रणीत-सदार तेज मसाले बाला गरिष्ठ भोजन तुरन्त ही शरीर में उत्तेजना फैला देता है, मद-अर्थात् काम-मोध की जागृति करता है। और मस्तिष्क को अशान्त कर देता है। क्योंकि अन्न का प्रभाव सीमा मन। पर पड़ता है । अतः इन कहायतों में बहुत ही सच्चाई है।
मे १०
१ भगवद गीता १७ मतो
11:
Me...ample
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૬૭
किन्तु श्री कृष्ण को वे छिलके भी बहुत मोठे और स्वादिष्ट लगे । तो श्री कृष्ण ने ऐसा क्यों किया ? इसीलिए कि पापी का अम्न कण भी मुँह में लेने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, जैसी कि भीष्म पितामह जैनो को भी दुर्योधन का जम जाने से हो गई । इसलिए भोजन में वन की पवित्रता, शुद्धता, स्वच्छता और सात्विकता का विचार रखना बहुत ही आवश्यक है । गांधी जी कहा करते थे "जाहार सुधारिये, स्वास्थ्य अपने आप सुधर जायेगा ।" छांदोग्योपनिषद् के इस कथन पर भी गांधी जी का बहुत बल या
आहारशुद्धी सत्यशुद्धिः सत्यशुद्धो या स्मृतिः । सर्वप्रथीनां
स्मृतिलम्भे
विमोक्षः ।
आहार की शुद्धि रहने पर अन्तःकरण - अर्थात् मन भी पवित्र रहता है, मन पवित्र रहने पर बुद्धि पवित्र और स्थिर रहती है, बुद्धि स्थिर रहने पर आत्मा में ज्ञानको ज्योति प्रज्वलित हो उठती है और ज्ञान मोह की समस्त ग्रन्थियां खुल जाती है । तो वन्धुजी ! बुद्धि की स्थिरता और पवित्रता जीवन में बहुत ही आवश्यक बात है, यदि बुद्धि भ्रष्ट हो गई तो सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा - बुद्धिनाशात् प्रणश्यति (गीता २२६३) वृद्धि को ि व संतुलित रखने के लिए आहार को संतुलित और शुकराना आवश्यक है । इसीलिए हमने यहां पर बाहार शुद्धि की चर्चा की है। बाहार जितना वाया, सात्विक होगा मन उतना ही शांत और स्थिर रह गयेगा ।
लगगन तप
आहार का उद्देश्य
*
किंतु
यह बात नहीं है कि बाहार के बिना रह गया सभी लोग शरीर बनाने के लिए हो आहार करते है ? बहुत से गोग
के लिए ही हारते है।
जिनके लिए जिले रहते हैं। ऐसे मनुष्यों का है, भोजन और नाया है
के भो भी बर्बाद कर
के लिए नहीं,
y
लिए भोजन नहीं
के जीवन
स्वाद !
१७१२६३
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और रसों में गृद्ध हो गये । व गढ़िए- मनोज्ञ असन पान
मणुन सि असस पान खाइम साइमंसि मुछिए सादिम स्वादिम में गृद्ध हो गए, मूहि हो ए । बस, रस लोलुपता ने विचारों को झकझोर दिया मन को बदल दिया और वर्ष तक जो विचार ? हजार हजार वर्ष की तपस्या खोकर वापस संसार में जाकर फंस गये। तो उनके मन पर यह बुरा परिणाम किस बात का हुआ नहीं बदले वे कुछ दिनों के सरस-स्वादिष्ट भोजन आदि से बदल गये ।
ओर
गेही वन तीन दिवस आमिप आहार कर ।
सप्तमी नरक गयो भारी दुःख खान पै ।"
सिर्फ तीन दिन संसार में आमिष आदि उत्तेजक आहार कर तीव्र भाव से भरकर सातवीं नरक में गया ।
बताना यह है कि उत्तेजक और राजसी भोजन का मन पर कितना
गहरा प्रभाव पड़ता है |
शुद्धि के
महाभारत में भी भोजन विवेक का एक उदाहरण हमारे सामने आता है । श्रीकृष्ण जब शान्तिदूत बनकर दुर्योधन को समझाने के लिए हस्तिनापुर जाते हैं कि तुम युद्ध मत करो, युद्ध से कुल का सर्वनाम हो जायेगा, केवल पाण्डवों को पांच गांव देकर इस विनाश लीला को टाल
मिठाइयों के पाल सजाकर
दो । तब दुर्योधन श्रीकृष्ण के स्वागत सत्कार रसता है, भोजन का आग्रह करता है, किन्तु श्रीकृष्ण उस दुष्ट के घर का एक कण भी मुँह में नहीं लेते। क्योंकि उनका अन्नपाका पाप का अन्नाने से बुद्धि भी भ्रप्ट हो जाती है, इसलिए दुर्योधन के मेवे मिष्टान छोड़कर विदुरजी के घर गये और वहां विदुर पत्नी को ह काकी ! भूख लगी है ! कुछ खिलाओ, तो वह भाव
आई, छिलके उतारने लगी और श्री कृष्ण के प्रेम में ऐसी पान हुई ि छिलके तो श्रीकृष्ण को देने
क
१
सरायर केसरी ग्रन्थावली पृ० ३२०
N
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१६६
के नाम पर मद्य-मांस का सेवन करने में भी नहीं चूकते। यह मध्यम
श्रेणी हे ।
- साधना के लिए खाने वाले ये संयम की रक्षा के लिए, तप त्याग के योग्य शरीर को बनाये रखने के लिए एवं भजन आदि साधना करने के लिए भोजन करते हैं । इनके भोजन में शुद्धता, नियमितता ओर मर्यादा रहती है । साधना में भोजन की आवश्यकता न होने पर ये भोजन का त्याग भी कर देते हैं। उनका उद्देश्य न स्वाद है, न स्वास्थ्य, किन्तु साधना ही उनका लक्ष्य है । ये सबसे उत्तम श्रेणी के लोग हैं। भोजन की तरह उपवास आदि को भी वे शरीर की खुराक मानते हैं ।
अनशन तप
भोजन में अनासक्ति
उत्तम श्रेणी के मनुष्य भोजन तभी करते हैं जब उन्हें साधना के लिए उसकी आवश्यकता रहती है। सूत्र में बताया है--- साधुजन देह की रक्षा क्यों करते हैं ? उत्तर दिया है- मोक्ष की साधना करने के लिए " मोक्त साहन हेस्स साहू देहस्त धारणा - मोक्ष साधना के लिए ही साधु देह को धारण करता है, और देह को सुचारु रूप से कार्यरत रखने के लिए भोजन करता है। इस बात को शातासूत्र में धन्य सेठ का उदाहरण देकर बहुत ही स्पष्ट रूप में बताया गया है | धन्य सेठ का इकलौता पुत्र भाव ! बड़ी मनौतियों के बाद उसका जन्म हुआ था । सेठ-सेठानी का बना ही प्यारा, बांगों का तारा और कलेजे को कौर था यह एक बार यह पर के बाहर बच्चों के साथ खेल रहा था। अचानक उस नगर कोर विजय उधर से निकला । उसने कुमार को विविध आभूषणों से उनके मुंह में पानी छूट या
और भाग गया। जगत में लिये और
हुआ
मोका देकर उसने कुमार की
उसने
गोतियों के
कर एक अंधे में
सेके
राजका हामी
काम
गहने चार
दिया |
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.
जैन धर्म में तप..
१६८
डालते हैं, स्वास्थ्य चौपट कर डालते हैं। कंडरीक का उदाहरण भी मापके सामने दिया गया है, वह साधुत्व से भ्रष्ट होकर कुछ दिनों में ही क्यों मर गया ? इसका कारण स्पष्ट बताया गया है-अति मात्रा-में भोजन- . पान रस आदि विषयों में गृद्ध होकर । रात-दिन स्वादिष्ट-गरिष्ठ भोजन करता रहा, वह हजम नहीं हुआ, शरीर में रोग फूट पड़ा। रोग होने पर . भी स्वादिष्ट-गरिष्ट भोजन छोड़ नहीं सका, रोग बढ़ता गया और अंत में दुःख पाता हुआ मरकर सातवीं नरक में गया ! ..
भोजन में जब ऐसी लोलुपता आ जाती है तो उनके सामने जीवन और स्वास्थ्य का भी कोई महत्व नहीं रहता, वे तो बस खाना ! साना ! यही रट लगाये रहते हैं। किंतु यह अन्न-मूढ़ व्यक्तियों की बात हुई । साधारणतः विचारशील भोजन करता है तो उसमें संयम भी बरतता है, उस भोजन का उद्देश्य भी होता है । गांधी जी से किसी ने पूछा-"आप भोजन मिसलिए करते हैं ?" गांधी जी ने कहा-"दास की तरह शरीर को पालने मे लिए।" कवीरदास जी ने भी यही बात कही है- कि भूख एक पुतिया है, ... यह भौंकने लगती है तो हमारा चित्त चंचल हो उठता है, मन अशांत हो जाता है, अत: मन को शांति बनाये रखने के लिए और स्थिरता के साय भजन करने के लिए इस भूख-कूतरी को रोटी का टुक्या दालना जरूरी है
"भूख कचौरा कूतरी करत भजन में मंग।" बस भोजन करने का यही उद्देश्य है- क्षुधा शांत फार साधना मो रहना । विचारलों ने भोजन करने वालों को तीन श्रेणियां की हैं१-स्वाद के लिए भोजन करने वाले-ये अशानी और मृगं लोग हैं, से
याद की चाट में बर्वाद हो जाते हैं, मगर व धन को चौपट कर आरन
यह सबसे नीची अंगी है। २~स्यास्य को लिए भोजन करने वाले से जीवन को बाबत माग करने वाले लोग है। शरीर व स्वारको रक्षा का पद्धि करना उनमा उद्देश्य है। ये स्वाद के लिए गंगा भी गाते हैं पर याद
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१७१
अनशन तप
कुछ दिनों बाद सेठ बन्दीगृह से छूटकर घर आया । सेठानी ने उसका स्वागत-सत्कार भी नहीं किया । सेठ ने उसे परिस्थिति की विवशता समझाई कि यदि मैं उसे कुछ भोजन नहीं देता तो मेरा इतने दिन जी पाना भी कठिन हो जाता। नहीं चाहते हुए भी सिर्फ परिस्थिति से निवटने के लिए ही मैंने विजय को भोजन दिया था। सेठ के समलाने से सेठानी का रोष कम हो गया। इस कथानका का भाव बताते हुए कहा गया है
सिवसाहणेसु बाहार विरहियो जं न पट्टए देहो।
तम्हा घणोन्य विजयं साहू तं तेण पोसेज्जा ।' मोक्ष के साधना पथ में यह शरीर भोजन के विना बन नही सकता, यद्यपि शरीर विजय चोर की तरह आत्मगुणरूपी पुनों का हत्यारा है, फिर भी समय पड़ने पर जैसे गधे को भी बाप बनाना पड़ता है, वैसे ही तप आदि करने के लिए इस शरीर का भी पोषण करना पड़ता है। किन्तु साधक शरीर से किसी प्रकार का मोह वा ममत्व न रखकर सिर्फ अपनी जीवन साधना में सहायक होने के नाते ही इसका पोषण करें। जब देगे कि अब गरीर से कोई मतलब नहीं रहा है तब आहार का त्याग कर मनमन स्वीकार कर ले और शरीर के बन्धन से छूट जाय ।
भोजन के उद्देशय को स्पष्ट करते हुए जैन आगमों में रमान-पान पर इस बात पर बल दिया गया है कि भोजन का नाम नही, नवीर का पोषण भी नहीं, किन्तु शरीर को पनं नहायाः यमाय नसाना बनाना गया है-जैसे गाड़ी चलाने के लिा पहियों ने अंगर (निमा संल मादि) लगाया जाता है, गाय को बीच पारने के लिए उस पर मामलमार जाता, उसी प्रकार मारो मंगा यात्रा निभाने का मनभा शीशम सानो लिए नया प्राण को पार निमोनमार पारि .
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जैन धर्म में तप
जंगल में उसी अंधकूप से बालक की लाश मिली और फिर बाल-पातरू विजय चोर भी पकड़ लिया गया। चोर के हाथ पैरों में बंधन डालकर कारावास में डाल दिया गया । पुत्र शोक में सेठ-सेठानी सिर-छाती पीटकर रह गये। जो गर गया उसका अब क्या हो ?
1
एक बार किसी व्यापारिक अपराध में धन्य सेठ भी पकड़ा गया। उसे उसी कारागार में विजय चोर के साथ एक ही बंधन से बांध दिया गया । सेठ के घर से भोजन आया देखकर विजय चोर के मुंह में भी पानी छूटा भूख से वह व्याकुल हो रहा था । सेठ से प्रार्थना की- "शेठ ! यहां तो हम दोनों ही बंदी हैं, एक समान हैं। मुझे भी भूख लगी है, थोड़ा सा भोजन दे दो तो मेरे पेट की आग भी शांत हो जाय ।"
पुत्र घातक विजय चोर की प्रार्थना पर सेठ आग-बबूला हो गया । उसने खूब डांटा, फटकारा और दुत्कार कर कहा - "मेरा अन्न बनेगा तो कुत्तों को डाल दूंगा, किन्तु तुझ दुष्ट को नहीं दूंगा ।"
विजय चुप रहा । सेठ ने भोजन कर लिया । संध्या के समय सेठ को शरीर चिता के लिए जाने की इच्छा हुई। उसका एक पैर तो विजय पोर के साथ बंधा था, उसके बिना वह अकेला कैसे चला जाता ? सेठ बड़ी दुविधा में पढ़ गया । उसने विजय से अपने साथ चलने के लिए कहा। विजय ने मुँह बनाकर कहा-- समय तो अकेले सावा, और जाते समय मुझे भी बुला रहे हो क्यों जावू ? जो खायेगा वह जायेगा ? सेठ वही परेशानी में फंस गया। शरीर का पेट दुखने लगा । बहुत अजीजी करने पर भी जब विजय उसके साथ जाने को तैयार नहीं हुआ तो क सेठ ने उसे भोजन में से कुछ हिस्सा देना स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन के अनुसार सेठ ने मन कर भी वि अपना कुछ भोजन दिया। भोजनानेनेही नहीं देया गण । उसने जाकर सेठानी से होने बागभाग हो गई।
कि मेरे
पर की यह भोजन देता है। सेवी र
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शान्तिपूर्वक संपन में मार भोजन अपने सिर का महान्
अनशन तप F--क्षुधा वेदनीय को शान्त करने के लिए अर्थात् भूग मिटाने के लिए। २-यावृाय अर्थात् बालक, वृद्ध, रोगी, गुरु तपस्वी आदि की सेवा करने
के लिए। ३.--र्यासमिति का पालन करने के लिए । भूब से चलना ठीक तरह नहीं
हो पाता, नतः ठीक यतनापूर्वक नलने के लिए आवश्यक भोजन
जरूरी है। ४--संयम पालन के लिए, मन आदि का निग्रह करने के लिए। ५-प्राणधारण करने के लिए। ६-धर्म का चिन्तन करने के लिए। ध्यान आदि मियाओं को स्थिरता व
शान्तिपूर्वक संपन्न करने के लिए।
इन छह कारणों में हमारे भोजन के, और यों यह तो जीवन जीने के मुख्य उद्देश्य आ गये हैं। मनुष्य सिर्फ अपने लिए ही नहीं जीता है, पेट मे लिए ही जीना पाप है । उनके जीवन में कोई न कोई महान् उद्देश्य होता है । सेवा, त्याग, परोपकार, संयम साधना, हिना व दया गा पालनप्रसार आदि । न उश्यों को पूरा करने के लिए गवीर को सबल होना भी जरूरी है, गोंकि मरीर भवन रहता है. समर्म राता, तो दानों को मैया भी की जा नाती है। जो गुलही दुर्थन होगा, बोगी मोगा का दूसनों को सेवा गया करेगा, जो तो स्वयं सेवा की जान ले होस्या मारने के लिए भी शरीर मम होना चाहिए । पानी में सामान है.--- पार हार नहीं हुदै । जो गाता, पर यमाला भी। जो गोडा साना पायेगा, या मालिक के लिए कोई गा भी ! जो सारीर भोजन आदि पुष्प बनेगा पर समय पर याग तपस्या कादि करने में भी आगे गोगा कि गदि गरीर पाने में आगे और मेगा में पोर को पार कर मार पया नामकाजी मनिशान के महाराष्ट-पुष्ट मिना गुल से मना करने को को
? राजांनी तोकारको
पनि सेमिनी मार है ? मारेको मोटर की
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३२
जायामाय
णिमितं ।
अक्खोवंजणाणलेवण नूयं संजम संजमभार वहणट्ठायाए मुंजेज्जा
पाणधारणट्ठाए ।
इस आशय का कथन, अन्य अनेक आगमों में भी मिलता है। इसी प्रकार का कथन एक वैदिक आचार्य का भी है
शरीरं व्रणवद् ज्ञेयं
अन्नं च व्रणलेपनम् । 3
भोजन उस की जरूरत
शरीर व्रण के समान है, और घाव को ठीक करने के लिए मरहम के बाद मरहम की कोई जरूरत नहीं, के लिए भोजन की जरूरत है, जब तब उसे भोजन देने की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती ।
पर मरहम की भांति है । रहती है, घाव ठीक होने इसी प्रकार शरीर से साधना करने शरीर साधना करने में समर्थन रहे
जैन धर्म में तप
आहार करने के छह कारण
आहार के उद्देश्य पर सभी दृष्टियों से विचार करते हुए भगवान महावीर ने उसके छह कारण बताये है
वेण वैयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए ।
तह पाणवत्तिपाए छट्ठं पुण धम्मचिताए ।
श्रमण भोजन करने से पहले यह विचार करे कि वह भोजन मि लिए कर रहा है ? उसके भोजन की आवश्यकता क्या है ? क्योंकि ये बातें हैं, जिनके लिए कि भोजन किया जाता है
३
४
१
भगवती सूत्र ७११-२ तथा-रश्नव्याकरणगुन २११ २ (क) जायामावाइ जावए—आनारांग ३३
(स) नारस्त जागा गुणि भुजएज्जा - सूत्रकृतांग ७२६ (ग) स्थानांग ६ ( भोजन के यह कारण इसी प्रकरण में देखिए ) संभार बहुट्टपाए
(घ)
लिपि
-3
भगवती
१२२
(ज) जट्टा महामृषी-उत्तराध्ययन २५६७ मा २६१३३
चैतन्य महाप्रभु
उत्तराध्ययन सूत्र -६३३ तथा स्थानांग सूत्र ६
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स्थिति में भी साधक जीवदया के लिए अहित की रक्षा के लिए आहार का परित्याग कर दे ।
नशन तप
(५) तप के लिए जब साधक तप आदि करना चाहे तो उसके लिए भी आहार त्यागना होता है ।
(६) शरीर त्याग के लिए-- जब देने कि शरीर बल, वीर्य, ओज आदि से हीन हो गया है, चलने फिरने में ग्लानि होने लगी है, तब शरीर को छोड़ने के लिए उपवास वेला आदि तप तथा नंलेखना प्रारम्भ कर देनी
चाहिए ।
--जव श्रमण यह देखे कि अब यह गलने नाचारांग में बताया है में समर्थ हो रहा है, तब धीरे-धीरे उसे आहार का लाग करते जाना चाहिए ।
उपवास के लाभ
आहार त्याग के जो छः कारण बताये हैं- प्रकारान्तर से मे हो कारण अनशन के हो जाते है । अर्थात् बाहार त्याग में जो उद्देश्य कहता है वही उद्देश्य अनशन का है। प्रारम्भ में हमने वहीं बताया है-का अर्थ है आहार ! और अनशन का अर्थ है-निराहार ! अर्थात् आहार त्याग, उपवास आदि ।
प
तप का उद्देश्य क्या है यह तो प्रथम में ही बहुत विस्तार के माम बता दिया गया है। वात्मशुद्धिकर्मवोधन यही प्रमुख है। यहाँ विषय में नयक्ति को लापता नहीं है अतः के विषय में ही विस्तार के नही है। अन को सभी वर्षों में स्थान मिला है,
और
ही संसार
ह
१ समता का गेमे दे। निनामिरातु न इसरी
तप आचरण में अन्य वर्षों से अधिक पर विजय करनी होती है और
Sqqq
भूरा से व अन्याय करतो जीना और मापसे
भू
“आवास का
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हने गावी संधान महावत है न हीन भावना चाहिए
जैन धर्म में सप फन्तु करे इसीलिए कि उससे संयम, सेवा, अहिंसा, त्याग आदि की प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिले । स्वाध्याय, ध्यान, आदि की वृद्धि हो । यदि इन गायों की आराधना में शरीर पीछे हटने लगे तो फिर इस शरीर का मोह नहीं रखकर इसे उपवास, तप, अनशन संलेखना आदि में झोंक देना चाहिए। इसीलिए जहाँ छह कारण आहार करने के बताये हैं, वहां आहार लाग - करने के भी छह कारण बताये गये हैं।
आहार त्याग के छह कारण शास्त्र में कहा है--
आर्यके उवसग्गे तितिक्षणे बंभचेरगुत्तीसु
पाणीदया तवहे सरोरवोच्छेयणट्ठाए।' १ रोग होने पर-रोग में आहार करने से रोग और अधिक प्रयत होता है, इस लिए रोगादी लंघनं यः-रोग की आदि में लंघन- उपवास अच्छा रहता है । राजस्थानी में कहावत है
___ ज्वर जाचफ अफ पावणा लंघन तीन फराय इन सबका भाव है-रोग होने पर भोजन नहीं करना चाहिए।
(२) उपसर्ग-संकट आदि आने पर, उपरागं होने पर आहार त्या कर उपसगं सहने में स्ट जाय ।
(३) ब्रह्मचर्य में कठिनाई होने पर यदि भोजन करने से मनोविकारों की वृद्धि होती हो, ब्रह्मचर्य की साधना में कठिनाई भाती हो, तो नाहार का त्याग कर ब्रह्मचर्य की साधना में स्थिर रहे। गांधीजी इसीलिए कहते . पे-"उपवास से शारीर के रोग तो शान्त होते ही हैं, मन के धिकार भी पान्त हो जाते हैं । अपात सरीर एवं मन नि । निविदा है।" तो भोजन करने से पदि होता हो तो माहारमा त्याग कर देखें।
(२) मन में एक ना होने पर अपनाई जाती है। इसीलिए पहले
...
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अनशन तप
पानशनात् परं ।
faar विनिवर्तन्ते निराहारस्य
आहार का त्याग करने से मन के विषय विषय-निवृत्ति होने से मन में पवित्रता आती है, है, इस प्रकार नीरोग मनुष्य प्रसन्न रहेगा -- इससे अतः उपवास करने से शरीर दुर्बल नहीं, किन्तु स्वस्थ और तेजस्वी बनता है। मनोबल बढ़ता है, मानसिक शक्तियां शुद्ध होकर केन्द्रित हो जाती हैं जिससे तपस्वी बड़े-बड़े कष्टों को भी चुटकियों में उड़ा देता है ।
तपस्या के इन्हीं लाभ रूप परिणामों को देकर एक ऋषि ने मुक्त कंठ से कहा है-
जैन सूत्रों में तप के भगवान महावीर मे न की प्राप्ति होती है?
देहिनः । "
विकार दूर हो जाते हैं ।
शरीर भी रोगमुक्त रहता ओज तेज प्रगट होगा । अधिक नीरोग, सवल,
परं तपस्तव दुर्घम् तद् दुरापम्
-और कोई तप नहीं है । साधारण मनुष्य के लिए यह तप बड़ा ही दूध सहन करना और बहुत करना कठिन है कठिनतम है । यह तो एक प्रकार की अग्नि का रूप है जा है। जो इसमें कूद पड़ेगा उसके समस्त मत दूर हो जायेंगे। यह निरार उठेगा, चमक उठेगा और जो करता सोगा यह अपने अशुद्ध रूप में ही पड़ा रहूँगा ।
लाभ के विषय में पूछा गया है। पर गौतम करते हैं--आने से
नाम होता है ?
૨૦૭
चारमा कोसे
उत्तर में कहा गया है--बहार का स्वा
वर्षात्
का नोट रहता है, और
एवं प्रायों का मोह छूट जाता है।
र १०१२
परी
कारी एवं के
१ भगवद गीता २१५६
२
३ २०३४
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जैन धर्म में का
निग्रहीत करना अनशन तप की साधना है। इस साधना से शरीर द्वि भी होती है और मन की भी । जैसा कि पूर्व में बताया गया हैन-अर्थात् उपवास मादि शरीर का सबसे बड़ा चिकित्सक है। एक तिक चिकित्सक से पूछा गया-संसार में सबसे अच्छा डाक्टर कोन ..
और कौन सी चिकित्सा सबसे अच्छी है ? उसने उत्तर दिया-संसार सबसे अच्छे डाक्टर पांच हैं- १ उपवास
२ मिट्टी ३ जल
४ हवा
कित्ता है । गांधी जाता है।" बहुत सार रप स्व होते हैं, और सा से दूर हो जाता। इसीलिए शुरूप
में न आगा।
५ धूप और इन पांचों की राय से जो चिकित्सा की जाती है वही निकित्सा .. सबसे अच्छी है।
प्राकृतिक चिकित्सा में शरीर शुद्धि के लिए उपयास सबसे पहली. निकित्ता है । गांधी जी का विश्वास था-"उपवास से शारीरिक दोष दूर होते हैं, और मनोबल बढ़ता है।" बहुत से दुःसाध्य प्रतीत होने वाले रोग उपवास चिकित्सा से दूर हो जाते हैं। शरीर रूप स्वर्ण को तपाफर निसारने वाली अग्नि है-उपवास ! इसीलिए शुकरूप धारी इन्द्र ने जय वागभट्ट से पूछा कि जो न भूमि में पैदा होती हो, न जल में न थापान में। जिसमें कोई रस भी नहीं, और कहीं बाजार में रारीदने पर लाया रुपये में भी नहीं मिलती-मिन्तु जिसके सेवन से शरीर में समस्त दोप दूर हो जाते हैं ऐसी परम औषधि क्या है ? वद ? चैध ! किमौषधम् ?-- . चंदाराज ! बतलाए ऐनो औषधि क्या है?
आयुर्वेदश यागभट्ट ने गोनकर उत्तर दिया-ती परम औषधि तो मसार में कही है और वह है-संधन परमौषधम् -लंघन ! उपचार । महमद रोगों को दूर करने वाली रमापन है।
कर के. साग-गाय उसयाम मन को नी कुल मारता है। मानसिक विमारों को जाने के लिए, हमालि लिए गया बदमार श्रीर होई मान नहीं है। इसलिए गीता में भी महा
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૨૦૨
उतनी कर्म निर्जग नहीं कर सकता। साधु तेले में जितने कर्म सपाता है,
सकता और साधु
नैरविक जीव करोड़ों वर्ष में भी उतने कर्मक्षय नहीं कर एक बोला करके जितने कर्मों का क्षय कराता है, करोड़ों-करोड़ वर्षो में भी उतने कर्म नहीं सपा सकता।"
नैरविक प्राणी तो
अनशन तप
प्रभु ने इसका उत्तर दिया है। इससे उपवास का कितना महत्व है ? कम कितना गौरव है ? उपवास की गरिमा बताते हुए कहा गया है-
गौतम स्वामी ने यह प्रश्न राजगृह में भगवान महावीर से पूछा है, और पता चलता है, जीवन में एक शुद्ध करने की दृष्टि से एक उपवास का
तप से तन रोग मिटे सगले, सगरे मध जीत रहे उनको, जप में मन लागत है ससरो, सब चंचलता ज मिटे मन को । प जाय कठोर विधानस हो, फमतो न रहे उनके धन की, 'मिसरी' कर एह ज मोद भरी शिव पावन वाह जिनकी ।
तेज घई निज देह को, निश्चय विपदा नाश | फूट मिटायन फूटरो यो जग उपयात ॥ शुद्ध भाव जो निज करत मुनि गुनि जन है जान | arrafafa स परे हो जग उपवास ॥
अनशन में निषिद्ध का
बताया गया है, कविता
उपवास आदि का जो महान है ? जबकि तब को विधि विवाय । उपवास में आहार का इसका अर्थ यह नहीं कि आहार ही मात्र में उपवास का पूर्ण पनि जाता है। आहार के
होता है,
दे
साथ दिन
का, शोष बादि प्रधान
है।
व
है उपवन में तीन कार्य करो और तीन कार्य करो !-तीन
करो
कान
१ भगवती मूव ग४
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जैन धर्म में तप । नासक्ति रहती है, तप हो ही नहीं सकता। शरीर की सार-संभान पारने ... चाले प्राणों के मोह में पड़ने वाले --एक समय की भूख भी नहीं सह सकते। उन्हें लगता है-भूखा रहने से शरीर कमजोर हो जायेगा, शक्ति घट जायेगी। इसलिए खाने से ही उनका मन चिपटा रहता है। वास्तय में यह नजान है । खाने से जितनी शक्ति नहीं आनी उतनी पचाने से मिलती है। यदि बढ़िया से बढ़िया स्वादिष्ट व गरिष्ठ भोजन गाया, किन्तु हजम नहीं हुआ तो शक्ति बढ़ेगी या क्षीण होगी ? अपचन हुआ । बजीणं हुआ तो रोग की शुरूआत समझ लो । रोग होने से शरीर दुर्बल होगा, आगुक्षीण होगी । खाये हुए अन्न को पचाने के लिए, उसका रस बनने के लिए पेट को विश्राम की जरूरत होती है, और वह विधाम ही अनशन व ऊनोदरी तप है । तो इसलिए तप से आयु व शरीर क्षीण नहीं होते, किन्तु तप से मनुप्प दीर्घायु होता है । नीरोग रहता है।
हां तो मैं यह नहा या शरीर का मोह रखने वाला उपवास आदि तप नहीं कर सकता । यह तप वही कर सकता है, जिसे गरीर की ममता न हो, प्राणों का मोह न हो, जीवन के प्रति कोई आसक्ति न हो । और जीवन के प्रति अनासक्त भाव जगना ही आहार त्याग रूप तप का फल है ।
वहाँ एक बात ध्यान में रखने की है, शास्त्र में उपवास का नाम जहा भी बताया है, वहां आध्यात्मिक लाभ ही बताया है। उपवान से होने वाले शारीरिक लाभ तो अपने माप होते ही हैं, उनके लिए कोई उपवास नहीं किया जाता, उपयास तो आत्मा को निर्मल बनाने के लिए, मन य शरीरमा निग्रह करने लिए ही किया जाता है। ऐसे उपयाग का महार पर होता है।
भगवती गुम में एक प्रसंग पर पूछा गया है-"माधु पर उसयाम करता है तो उससे मिलने गमों का क्षय कर दालना है ?"
उजर में पाया गया है. मा एक पयाम में जितने का
आने काम र विक जीवनमाणु वर्ग में भी नहीं पा ममता । में सामने की कामना, रवि जीय नागों में
न में गाने को बनाया है। उपायास मदी
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१८१
अनशन तप
अनशन तप को दो भेद है१ इत्यरिफ-कुछ निश्चित काल के लिए २ पायत्कत्यिक - जीवन पर्यत के लिए,
यावत्यधिक तप को मरणकालिक (मृत्युपर्यत) भी कहा जाता है। इत्वरिक तप में समय की मर्यादा रहती है, निश्चित समय के पश्नात् भोजन की आयक्षा रहती है, इसलिए इस तप भी को सावमांक्ष तप कहा है, गायत्कापिका में जीवन पर्यन्त आहार का त्याग कर दिया जाता है, उसमें भोजन की कोई आकांक्षा शेष नही रहती, जीवन के प्रति गोई आकांक्षा नहीं रहती इस कारण उसे निरचनाक्ष तप भी कहा गया है।
पत्वरिफ तप के छह भेय दोपही ग माह त्याग से लेकर छह गात तक उपवारा गो इत्परिक तप माना जाता है, जितु यहां दो प्रश्न उपस्थित होते है। पहला यह है कि मूल आगग में प्रत्यरिग तप गो गणना पठाय भतं नापं भक्त अर्थात एक बहोराप्ति के उपवास में प्रारंभ की गयी है। फिर चतुर्थ भक्त से कम समय के उपनाम को अनगन तप पयों माना जा ? साना बारमाराम जोमा ने अपनी आत्मज्ञानप्रकागिता हिन्दी टीका में योगी ने आहारमाग को भी अनपान तप माना है। यह मानामा परम्परा में प्रचलित है. गोटि प्रको सपने में नारी, पोरकी वादि को भी तय माना है, समता उनी आधार पर दोपही याहारमान मो जगगन में गिना गया। गि मूल राम में जहां अनशन तर म ग .. i नामने माग गं माना गोमामलाप माना गोमाग माल मागगरः जलोदवीरो मनमा में लिया गया। सागनिगा।
समती बात यह कि दारिश का अहट का नाम काकी को माना नमाजमार मिशार का सारा सारिका
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जैन धर्म में त
२ शास्त्र का पठन
३ मात्मस्वरूप का चिंतन और तीन कार्य न करो
१ क्रोध
स्वामी को कठोरता है । यि क्षीण हो
के पुष्प का नाश मास तप कान पर एक वर्ष काट कर देता है ।
तप और
२ अहंकार
३ विषय-प्रमाद सेवन उपदेश माला ग्रन्थ के रचयिता क्षमाश्रमण धर्मदासगणो ने कहा है
फरसवयणे दिणतवं अहिरखवतो हणइ मासतवं ।
परिसतवं सवभाणो हणइ हणंतो य सामन्न ।१२४ --किसी को कठोर वचन कहने वाला एक दिन के तप का-एक उपवास के पुण्य का नाश कर डालता है। किसी को निंदा, भत्संना और मगं प नोट करने से एक मास के तप का पुण्य क्षीण हो जाता है। किसी न शाप देने और लट्टी आदि से प्रहार करने पर एक वर्ष का तप और हत्या करने पर जीवन भर तक किये गये तप के पुण्य को नष्ट कर देता है। . इसका अभिप्राय है उपवास में पाठोर वचन, शाप, गाली, निदा, हिता आदि का भी त्याग करना चाहिए । तभी उपवास का योग्य फल प्राप्त होता है।
मनशन के मेर अनशन को पूर्वभूमिका स्पष्ट कर देने पर अब हमें अनशन तप के .. मास्त्रगत विविध प्रकारों पर विचार करना है । अनशन का सीधा अर्थ है - आहार त्याग ! आहार त्याग कम से कम एक दिन बानि (अहोरात्रि) का भी हो सकता है और उत्तुष्ट छहमहीने मा नौर जीवन पा का भी । उसरे विविध भेद इस प्रकार है
असणे दुयिहे पणतं-- तं जहां-इत्तरिए य आयफहिए इत्तरिए अर्णगरिहे पण्णत ---- सं जहा-घनत्य भने, दम बाप हम्मासिए भने ।
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जनगन तप
३ पनतप
४ वर्गतप
५. वर्ग-वर्ग तप
६ प्रकोप
वेला,
कगा (१) श्रेणी तप-श्रेणी का अर्थ है कम, अर्थात् पंक्ति ! उपवास, तेला, मीना आदि यम से किया जाने वाला पण तप, आता है। यह तप उपवास से लेकर छह मास तक का होता है । (२) प्रतर तपश्रेणी को श्रेणी से गुना करना अंतर है। प्रवर म से अर्थात् श्रेणी तप को गुणको दृष्टि से तप करते जाना उपवास, बेला, तेला, चोला
है।
चार पदों की श्रेणी है।
उदाहरण स्वरूप - श्रेणीकोण
पर
पद लंबाई-चौड़ाई में बराबर होने चाहिए। जैसे पहली
यह क्रम बनेगा. दूसरी श्रेणी में सबसे पहले
४ के बाद १ निगा जायेगा। इसको
प्रकार है
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इसकी एक
आहार में वो हुए कि है जिनमें
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पद हो जाते है।
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लिया जायेगा और
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आहार के होते है।
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जैन धर्म में तम
१८२
तप नहीं है ? जबकि मान्यता यह है कि प्रथम तीर्थकर भगवान पदेव ।। में स्वयं एक वर्ष का कठोर तप किया। उनके शासन में भी एक वर्ष का उत्कृष्ट नप माना गया है, मध्य के वाईन तीर्थफरों के शासन में अप्टमास .... का उत्कृष्ट तप है । तो उनका तप किस तप की गणना में आयेगा। . .
इस विषय में समाधान यह है कि इत्वरिक तप का यह वर्णन भगवान । महावीर (वरम तीर्थकर) के शासन काल की अपेक्षा से ही किया गया है। चरम तीवंफर के शासन काल में इत्वरिक तप उत्कृष्ट छह मास का ही होता है, जो स्वयं भगवान महावीर ने भी किया है। इस काल मर्यादा का.. कारण है उस समय का शरीर बल ! अस्तु, इमी हेतु से वर्तमान काल की दृष्टि से एक दिन के उपवास से लेकर छह मास पर्वत का उपवास त्वरिना तप की सीमा में आता है ।
इत्वरिक तप में अनेक प्रकार की तपस्याएं आ जाती हैं। आगग में जितने प्रकार के तप 'गुणरत्न संवत्सर, महासिंह नितीदित तप, तथा सर्वतो भद्र प्रतिमा आदि जितने भेद बताये गये हैं वे सब इत्वरिकतप के अन्तर्गत आ जाते हैं । उग सब भेदों का समावेश करते हुए संक्षेप में इन तप के छह भेद बताये गये हैं
जो सो इत्तरिमो तयो सो समारोण छव्यिहो। सेडितयो पयरतयो घणो य तह होइ वगो य ।
तत्तो य वग्ग यगो पंचम घट्टओ पइराण तयो । - मण इच्चिपचित्तत्यो नायव्यो होइ इत्तरिमो॥ मन:निछन न प्रमान करने वाला त्यरिक नाम गंक्षेप में घर प्रकार
पोला २ प्रायन
सन पर मामानमानि हो।
मा पनिशमन , मान मणि सलोन।
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,
रा
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मनमन तप
_____(६) प्रफी तप है। भिन्तु यदि साध को प्रकीर्ण तप कही
१८५ (६) प्रफीर्ण तप-प्रेणी आदि तपों में एक निश्चित विधि रहती है, निश्चित कालमान रहता है। किन्तु यदि साधक यथाशक्ति जैसा चाहे वैसा तप करना चाहे तो भी कर सकता है उस तप को प्रकीर्ण तप महते हैं। प्रकोण का अर्थ है फुटकर ! इनमें नवकारसी से लेकर परमध्यचन्द्र प्रतिमा, पचमध्यचन्द्र प्रतिमा,गुणरत्न संवत्सर आदि सभी तप लाजाते हैं। इन तपों का विस्तृत वर्णन आगमों में व टीका ग्रन्थों में अलग-अलग स्थान पर प्राप्त होता है। अधिकतर तपों का वर्णन अंतगड़ मूम में आता है। वासुदेव श्री नो १० रानियां काली महाकाली आदि ने भगवान अरिष्टनेमि के सानिध्य में दीक्षा ग्रहण कर जो विविध प्रकार की परमर्वाएं की उनका वर्णन अंशगद में किया गया है। गुछ तपों का अन्या भी वर्णन आता है ! संक्षेप में Ei उन तपों गा वर्णन किया जाता है।
(१) नयकारली . सूर्योदय से लेकर दो पड़ी दिन महेताः अमात मुरन भर में लिए बिना नमस्कार मंत्र पढ़े, आहार पानी ग्रहण नहीं करना।
गगा दूसरा नाम नमस्मारिका भी है। बोलतानी माता गंगकारली गरसे।। नमस्कार मंच पड़गार ही उसका पारणा किया जाता है. इस कारण इगे नमस्कार गहिता' भी ना जाता । प्राचीन सपा के अनुसार नारमी नोशिकार हो होती है। इनके गढिगाष्ट्रिय मुदित मादि अनेक
(२) पौरपी-- गुोरम ने मेरा पर निबनकमा प्रसार साहार करना गोपी नरोला gram हामा' रानी माय में जब पीना शामिना पासो अदा सो आदिको गतिमान amart एर रहिन पर मरमा पटो अपने और प्रमा जानीमानमारकी
पोREE (E) --- मेरा
मोनर
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जैन धर्म में वर
(३) धन तप - प्रतर को श्रेणी से गुणा करना धन है । जैसे सोलह की संख्या 'प्रतर' हुई, इसे श्रेणी ४ की संख्या से गुणा करने पर ६४ की संख्या बाई, यह घन संख्या कहलाती है । इस संख्या के क्रम से किया जानेवाला तप घन तप कहलाता है। श्रेणी तप में ४ कोष्ठक की श्रेणी चार बार तिम्रो गई, उसमें कुल १६ कोष्ठक बने। इसमें ८ कोष्ठक को श्रेणी वार ि
जायेगी । जैसे
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की एक
पूर्ण करने में ३६ दिन उपवास के और
पार के कुल ४४ दिन लगते हैं। आठ श्रेणी पूर्ण होने में कुल ३५२ दिन
है। जिनमें ६४ दिन भोजन के और २८०त के होने है। (४) वर्ग-घन कोन से गुणा करना वर्ग है। यहां ६४ को ६४ चारने पर ४०६६ को संस्था आई है यही है। इसेवा गुना करना वर्ग तप है।
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(५.) -तप-वर्ग है। जैसे वर्गी संया ४०१६ के मया ४०१६ से गुणा करने पर आती है यह है १६७७७२१६
ह
एम से जो गए किया जाता है।
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अनशन तप
1
ये रात्रौ सर्वदाहारं वर्जयन्ति सुमेधसः मासेन जायते । तेषां पक्षोपवासस्य फलं
महीने में प
भी भोजन का
जो बुद्धिमान गरिभोजन का त्याग कर देते हैं उनको दिन के उपवास का फल स्वतः मिल जाता है। धर्म एवं नीति भारत में दिन में ही माना है। रात को ग्राना, धर्म, दया आदि दही किन्तु स्वास्थ्य की दृष्टि में भी बहुत हानिआयने रात्रिभोजन को अक्षय भोजन कहा है-रात्री अनेक परिणाम है, जिनका दम्
को दृष्टि से
कारक
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भूतमभोजनम्-इ
पद्य में कराया गया है
१८७
कैरो के भरोसे मुख मेंढकी को योग वप्यो,
लापसी में छिपकली देवी जीव धावो । नाव को काली कुल्हे वृक गिरयो है आय, घुटे लेता गाय धरा पर जा गि अहि लार और परी सोच में स्वानी, विको प्राण गयो बाप । रात्रिभोज दुस्तान जाती पनसान कीजे,
'मिनी' भनत पाप मेरा मत दो ||
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म एवं
कोकना चाहिए।
कात आवरण में है प प्रदान करने में है।
वर्णन
में!
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, अहित
(१०) चतुभधर्म पर
है।
1
भयका अर्थ है दिन में एक बार का भोजन पर दिन में की मेदिनीन पार भवन शिवा करवाने पर के नही कृणा त्यादिना और
भाभोजन कायम है f यह कृत अर्थ रूप ही काम में भी और समीरण में
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जैन धर्म में कर
१८६
अशान तथा एकसान । प्रवचन मारेला एकाशन त
के अनुसार एकाशन बोलचाल की भाषा यति हो, जिग कि
एकाशन तप है। एकाशन शब्द से दोनों ही अयं ध्वनित होते है-एक+ अगन तथा एक-आसन ! प्राकृत 'एगासण' शब्द से एकाशन एवं एकासन दोनों ही अर्थ होते हैं। प्रवचन सारोदार वृत्ति में कहा है-एक आसन पर बैठकर दिन में एकबार भोजन करना-एकाशन तप है ! प्रानी परम्परा के अनुसार एकाशन में पौरपी के बाद ही एकबार आहार किया जाता है।
(५) एकस्यान-बोलचाल की भाषा में इसे 'एकलठाणा भी पाहते हैं। . . भोजन प्रारम्भ करते समय शरीर की जो स्थिति हो, जिग स्थिति में बैठे .. हों, भोजन के अंत तक उसी स्थिति में बैठकर भोजन गारना एकरमान सा है। इसकी विशेषता यह है कि, दाहिने हाय एवं मुरा के सियाग गरीर के किसी भी अंग को हिलाए बिना दिन में एक आगन से एकबार भोजन
(1) आयंबिल-इस तप में सब रस (विगय)-धी-दुध मादि एवं जगण का भी त्याग किया जाता है। इस तप में दिन में एकबार भोजन किया जाता है, भोजन में कोई भी एक नम आहार जैसे उबले हुए बागने, भुने हुए नने, सत् उड़द, चावल आदि एक प्रकार का अन्न लिया जाता है, यह भी लवण रहित और अन्न को पानी में भिगोनार लेना होता है। इस तर में । स्यादिन्द्रिग का संगम ही मुख्य बात है।
(७) दिवस चरिम-दिन के अन्तिम भाग में, अर्थात् सुर्यास्त के समा, किन्तु सूर्यास्त से पहले दूसरे दिन सूर्योदय तक को लिए तिमिहार मा चीनिहार प्रत्यापमान मापना दिवस सम्म तप (प्रत्याग्यान) है। इस प्रत्यापान में राति भोजन का भी स्वतः त्यार हो जाता है। जो कि श्रावक के लिए भी पर मासपूर्ण तप है।
(८) रामि भोजनत्याग तप (नित्यतप)---थि भोजन या शाम .. गरना एम. बहामा। बिले गिता पहा गया है। मुत्र में बता सहोनिरचं तयो काम' रात्रि मौलनामाग पर प्रकार मान , मार
दिन यस मनिनों को सहन कर में हो जाता l
-
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Et
स्कंधे में १२ भिक्षू प्रतिमानों का वर्णन है । यहां प्राप्त कम के अनुसार एन तपः कमों की संक्षिप्त परिभाषा बताई जाती है
नगणन तप
प्रतिमाएं - प्रतिमाएँ अनेक प्रकार की है, किसी प्रतिमा में तप के साथ ध्यान एवं कार्य का भी विधान है वे प्रायः ध्यान प्रधान ही होती है, कुछ प्रतिमाओं में प्रणः आहार का त्याग व भिक्षा में बहार को यति का नियम रहता है ।
.
भिक्षु प्रतिमा- भिक्ष के द्वारा विविध प्रकार के अभिग्रहों के साथ तप का नागरण करना प्रतिमा कहलाता है। ये प्रतिमाएं बारह है। इनमें ध्यान व का भी साथ में चलता है ।
(६) मातिको प्रतिमा - यह पहली प्रतिमा है- इसका समय एक मात का है । एक मान तक भिक्षु एक दत्ति भोजन की ओर एक यति पानीको नई ग्रहण करता है। दति से अभिप्राय है-मतत धारा । चाता भोजन देना प्रारम्भ करता है और जब तक हम चीन में नहीं टूटता यह एक दि कहलाती है । यदि एक ग्राम एक बूंद जल देकर मेन में द्वारा टूट तो यह एक दति हो गई। उसमें दुबारा नहीं लिया जाता। प्रतिमाधारी मुनि गत ध्यान में कामें लीन रहता है। सिर्फ एक बार भिक्षा का समय होने पर भिक्षा जाता है। उनमें भी कठोर नियम रहता है, नियम के साथ यदि बहार मिले तो में नहीं तो बिना ए मोट बाता है। इस विस्तार के साथ कप में बताये गये है।
(२) हिमासिक प्रतिमा-प्रतिमा में मि आहारको यो यति न की जाती है, विमान
भागोजीना
पंचनामे
में गामात पनि सकी शती है।
competing
में परवार पति
पिक में हर पति म मानि
है
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१०८
उक्त शब्द में अर्थ को ग्रहण नहीं कर एक अहोरात्र भोजन न करना मात्र . इतना अर्थ ही ग्रहण किया गया है । इसे ही उपवास कहते हैं।
उपवास का प्राचीन नाम अभक्तार्थ भी है । भक्त का अर्थ है भोजन ! अ का मतलब है-प्रयोजन । जिसमें भोजन का कोई प्रयोजन नहीं हो, वह तप यभक्तार्थ है । अर्थात अशन पान खादिम स्वादिम इन चारों अथवा पानी की छोड़कर तीनों आहार का जिसमें त्याग हो,उस अभक्तार्थ को ही उपवास हा जाता है । उपवास को 'नउत्य भत्ते' चतुर्थ भक्त, बेले को 'घट्ट भक्त तेले को 'अट्टम भक्त नऔर इसी प्रकार चोले को दसम भक्त तथा आगे के उपयामों को दो-दो भक्त अधिक जोडकर बताया गया है । मासिक तप. गो माराममण एवं छह माग के तप को छमासी कहा जाता है।
उपवाग के आगे अनेक प्रकार के विचित्र-विचित्र उग्र तपोफर्म का वर्णन .. शास्त्रो में मिलता है । अंतगड़ में। यह तप करने वाले साधकों गे नामों का उल्लेग भी आता है। उपवाई गूपर में भगवान के श्रमणों का जहां वर्णन किया गया है वहीं बताया है-भगवान के अनेक भिक्ष, कानगावलीत करते थे, अनेक भिक्ष एकावली तप, अनेक भिक्ष, महासिंह निष्पीडित सण, . . अनेक भिक्षु भवप्रतिमा, अनेक भिक्ष, महाभद्र प्रतिमा, अनेक भिक्ष सतोभद्र प्रतिमा, अनेक भिक्षा मायंबिल वर्धमान तप, अनेक भिक्ष, मालिको नि प्रतिमा, अनेक भिक्ष द्विमासिनी भिक्ष प्रतिमा में सप्त मालिगो भिक्ष प्रतिमा, अनेक निक्ष, एक अहोरात्र प्रतिमा, अनेर भिटा प्रथम-द्वितीम-तीय सअहोराण प्रतिमा, अनेक मिा एमरामि प्रतिमा अनेक मिश, माता
तमिमा प्रतिमा, बनेग मिक्ष पवमान नन्द प्रतिमा बनेक भिक्षु यसमा गद प्रतिमा तारने में।
सावन के अतिरिश भी अंग गम में गुणारत्न संवत्सर तार, ना. गानी गर, गुमानी बार, महीना प्रतिमा आदि का भी गर्माना
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के साथ मन करता है । उसका ध्यान आम यदि वह किसी कारण इस प्रतिमा से नलभ्रष्ट हो जाता है तो या तो उन्मत--पागल हो मकता है कोई भयंकर raftara an रोग से पीड़ित हो सकता है, अथवा धर्म से भ्रष्ट भी हो सकता है। यदि इस प्रतिमा को जारापना में सफल होता है तो वह शान की प्राप्ति अवश्य करता है। इसे ही एकरात्रि महाप्रतिमा कहा गया है। राजकुमाल मुनि ने महाकाल में इस महाप्रतिमा को ना
कर एक ही दिन को नाना में मोक्ष प्राप्त किया था।
अमान तप
बाते हैं, भिक्षु उन्हें अपार स्वरूप में ही लीन रहता है।
सर्वतोभद्र प्रतिमा - सर्वतोभद्र प्रतिमा की दो विधियां बनाई गई है। विधाओं की ओर ग करके एक
प्रथम विधि के अनुसार
बहोरात्र का काम
किया जाता है। भगवान महावीर ने इ
भद्र प्रतिमा की आराधना को थी ।
सर्वतोभद्र प्रतिमा को हमरी विधि के दो भेद दिये गये है। एक तोभद्र तथा दूसरी महान |
१
प्रतिमा - सर्वतोभय का वर्ष है अंकों को इस
कार की स्थापना जिनसे हो
गए ना आये।
जैसे सो मंग बनाया जाता है
केसे
योग आता है, वैसे ही प्रत्येक पंक्ति को योग समान होना
सर्वतोभद्र प्रतिमा है।
प्रतिमा उपवास से प्राप्त किया जाता है, ए
परी ही दिन
दिन
(क)जाता है।
परिपाटी होती है | पर
पुती
१ म
होने पर एक
है।
भार परि
समय भगता है। कान से
महानतो महारणा (आनाको यो ।
rate
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१६०
बाहर गुना
तीय सप्त अहोरात्र
आयंबिल उत्कुटुरः,
जैन धर्म में आठवी से वशवी-प्रतिमा तक प्रत्येक प्रतिमा का कालमान एक सप्ताह . का होता है। इनमें एक दिन चीविहार उपवास, दूसरे दिन पारणे में आयबिल किया जाता है। आठवी प्रतिमा को प्रथम सप्त अहोरात्र प्रतिमा भी कहा जाता है। इसमें सात दिन तक चौविहार एकान्तर उपवास रा कर उत्तानक या किसी पाश्र्व से शयन या पलगी लगाकर गांव जाति से बाहर मुनसान जंगल में कायोत्सर्ग किया जाता है।
नवमी प्रतिमा-द्वितीय सप्त अहोराम प्रतिमा कहलाती है । इसमें भी सात दिन तक एकान्तर चौविहार उपवास, पारणे में आयंबिल उत्कृटा, नगण्डशायी (केवल सिर व एडियों का पृथ्वी पर स्पर्श हो, इस प्रकार पीठ. के बल लेटना, या दण्डायत (सीधे दण्डे की तरह लेटना) होपर, प्रामादिक्ष के बाहर कायोत्सर्ग किया जाता है।
दसयों प्रतिमा- तृतीय सप्त अहोरात्र प्रतिमा है । इसमें सात दिन के नोविहार एकान्तर तप के साथ गोदुहासन वीरासन, गा मामलामा (बामफल की तरह वक्राकार स्थिति में बैठना) में प्रामादि के बाहर मायोसगं किया जाता है।
ग्यारहवीं प्रतिमा-- एक अहोरात्र की होती है । इसमें भिक्षु नौबिहार बेला करता है और गांव के बाहर शून्य स्थान में भुजाएं सीधी लम्बी यार. कामोत्सर्ग करता है । बारहवीं प्रति मा एफरानि प्रतिमा महो जाती है। की साधना सर्वाधिक कठोर है। सामान्य साधु इस प्रतिमा की आराधना नहीं कर सकता। विशिष्ट संहनन, विशिष्ट धर्य, व महामता से भावितामा अपगार गुरु आदि की आशा प्राप्त करके ही इस प्रतिमा मी बाराधना र मरता है। इस प्रतिमा की आराधना में पौविहार का {पाटा भक्त किया जाता है। प्राण आदि के बाहर जिनमुना (दोनों को में चीन नार गुल का अनार यसो हुप मोगा गग अवता में नई जना में मिार मुनाए सम्बो कर के, अनिमिष नयन मन पर दिशामराम सदन में एक दिन का काम किया
अपना में प्रकार के दिम, मानपिश, r aram
ग्यारहवीं प्रतिमा पर शून्य स्थान में अन्ना करता हैं और बारहवीं प्रतिमा एक
की जाती है। इस प्रतिम
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अनशन संप
भद्रोत्तर प्रतिमा-इस तप का आरम्म पंचोले (द्वादश भा) से प्रारम्भ होकर नौ (बौन भक्त.) तक पहुंचता है। यह भी पिछले कम से चलता है। एक परिपाटी में हमाल बीस दिन लगते हैं। चारों परिपाटी पूर्ण करने में २ वर्ष ३ मारस २० दिन लगते है। महासती रामकृष्णा (अंतगड़) ने इस सपनो आराधना तो भी । इसे निम्न मंत्र से नन ।
भद्रोत्तर प्रतिमा
यवसाय प्रतिमा- सुमन पक्ष को प्रतिपदा मेधारमा है। गगनात मान में बनी और पूर्णिमा परती जाती तीन नार में पाति मे भिक्षा में भारी समर को मिल रही है। सामान पक्षाको प्रार रशि, Friter शो यो पति और राम में पारा योनिमा पोमा यति । र पानीमा यो मौer, और म . PAANE पाएमको सजन रही ।
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- जैन धर्म में
लघुसवतोभद्र प्रतिमा
(२) महासवंतो भद्र तप-इस तप का प्रारम्भ उपयारा से रिणा जाकर मात (पोटश भक्त) उपवास तक पहुंचा जाता है। बढ़ने का श्म मधु की भांति ही है,सन्तर केवल इतना ही है कि लघु में उत्कृष्ट तग पंचोला है. महा में ७ उपवास । एक परिपाटी का कालमान १ वर्ष १ महीना और १० दिन है। इनकी भी चार परिपाटी होती है। चारों का सम्पूर्ण कालमान' वर्ष ५ मास १० दिन का है। इसकी आराधना वीरकृष्णा (अंतगढ़) गे' पी । इसका प्रम निम्न यंत्र के अनुसार है
महासवंतो भद्र प्रतिमा
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अनुसार पग तप में एक वरण आगे बढ़ाकर फिर पीछे अाया जाता है, और फिर अगले चरण में एक चरण आगे बढ़ा जाता है।
मकी पहली परिपाटी में १० मास १५ दिन लगते हैं। नारों परिपाटो में वर्ष १० मान सामय लगता है। पहली परिपाटी के पारणे में विगय आदि सय स लिये डा गरते हैं। दूसरी परिपाटी में पारणे में विगय का त्याग, तोमरी में पका भी त्याग और चौथी परिपाटी में पारणे में आयं. बिल किया जाता है। जिसे स्पष्ट समझा जा सकता है। अंतगा गुर के गणंगानुगार इसकी आराधना महासतो प्रियरोनकाया ने की थी।
रत्नायलो तप-रत्नमनियो को मायति बनाने सीपलाना के अनुसार इस तप की विधि का जागरण किया जाता है। उपयामी १६ तर वा जाता है और फिर जमी से उतारा जाता है। एक परिपाटी में १ ३ नाम २२ दिन नगते सम्पूर्ण तप में ५ वर्ष २ माग २८ दिन लगते हैं। पारणे में विजय जादि यजन गारो परिपाटी में सिर में ही चलता । परिनिष्ट गत चित्र में इनकी रसना समझी जा सकती।
एकायलों तप -- नदी के नारो रगना को गलनानुगार इस तर पानाचरण किया गया है। वामगोलायक नहना और फिर मी पर से आरना । एक परिपाटी में २ मास मोर २ दिन का समय जगता।। नानपरिपाटी में कुल ४ व गार और ना समय मगता में गई म प्राला हो दूरी परिवार में पारण में
विग माग, न मेरमा पप गोदी में आलिया । विनिट में।
शनशाली परममियागारको Upar K a । विमाटी में नाम दिन मा पसिनी में १ मा विशिक्षिका
रहने
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मन पर (ries in Ma
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जैन धर्म में तप
वज्रमध्य चन्द्र प्रतिमा इसका क्रम कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर चन्द्र कला को हानिवृद्धि के अनुसार दत्ति को हानि-वृद्धि से बाकृति बनती है | उदाहरणार्थं कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को १५ दत्ति, द्वितीया को १४. यो घटाते घटाते अमावस्या को एक दत्ति | शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को और फिर क्रमशः एक-एक दत्ति बढ़ाते हुए चतुर्दशी को १५ दत्ति और पूर्णिमा को उपवास किया जाता है। इस तप का काल मान एक मास का है। देखिये चित्र परिशिष्ट १ में ।
६४
लघुसिह निष्कोटित तप - सिंह गमन करता हुआ पीछे मुड़कर देता. है यह सिंह का जातिगत स्वभाव है । इसी अर्थ में सिंहावलोकन शब्द ता है। सिंह को इसी गति के क्रम से आगे बढ़ना और साथ ही पीछे आना, फिर आगे बढ़ना और फिर पीछे जाना - इस गति से जो तप किया जाता है यह सिंहनिष्योडित तप कहलाता है । यह दो प्रकार का है-एक लघु ए निष्कीदित दूसरा, महासिंहनिष्कीडित !
लघुसिंह निष्कोदिन तप में अधिक से अधिक नौ दिन की तपस्या की जाती है, और फिर उसी श्रम से तप का उतार होता है । इम की एक परिपाटी में ६ मा ७ दिन लगते हैं। चारों परिपाटी में २२८द लगते है । यह तप महाकाली ने किया था । समने के लिए विदे शिष्ट १ में ।
तितका नजर में
अधिक से अधिक जाती है.
होता है और फिर
से
महासिंह निति तप-घुसिंह
किया गया है।
तव में अधिक
भी
है।
दते है।
को भी मार परियारी होती है परिवाद में वर्ष १२ दिन मग हैं। अंगद सूकीमती कृष्णा को भी
--
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केबीसी के
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अनदान तर
उसी स्मृति में रैना ८ में प्रारम्भ गार वंशाणगुस्ता राम एकता उपवास पन्ना वर्गी तप कहलाता है।
(:) च्ह मासी तप-भगवान महावीर १३ बोल के अभिग्रह के समय ५ गाग २५ दिन तम निराहार रहे। उन स्मृति में ५ मास २५. दिन तग एगान्तर तप आदि गारमा घामानी तप कहा जाता
(३) पल्याण तप-प्रत्येक तीमंदर को पंच कल्याणक तिपिपा हैअचमन, जन्म, दीक्षा, कामशान और निर्यान। इन मल्लागम तिचिनों को जावास या साबित करना माल्यापा, रापन तिथियों में अक्षय सानीमा (अपम पारणा) पोष दि १० (पाग्य जगन्ती) पैन मुदि १६ (महावीर जयन्ती) कार्तिक अमावस्या (बीपावली) माक्षि के उपलक्ष्य में अगर लोगा उगान, तथा दीवाली गो बेला मादिगारने।
(४) महापौर तप - भगवान महापौर ने १२॥ या काल में अनेक समस्याएंगीनी छमामोसप, पान माग, २१ शिवम । पार मानी, २ तीन मागो, २ दो मामी, १३ मागी ७२ पाक्षिमता, लेले २२ घेने, १ नाशिमा १ मा प्रतिमा, सतोमा पनि थे। भाजजनीतिन नमानापमान पर गाना गाम, सभा मेले में स्थान पर आपविन पेने, हाशिमा, जो महावीर
(५) पन्दन यावा तरवार पारी में जाने, गमा पनीरममा प्रा. मामा कोही frra
(९) प्रदेशी सपा मसाप हर माता । गोमार सोमवार को AT ARE REL
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जैन धर्म में ता .. एक वर्ष का समय बीतता है इसलिए इसे गुणरत्न संवत्सर तप कहते हैं । इसमें तपो दिन १ वर्ष से अधिक होते हैं इसलिए भी इसके साथ संवत्सर नाम जुला है । इसमें प्रथम मास में एकान्तर उपवास किये जाते हैं, १६ उपवास और १४ पारणे होते हैं । द्वितीय मास में बेले-येले पारणा, तृतीय में तेलेगी इस प्रकार क्रमशः बढते हुए सोलहवें महीने में सोलह-सोलह का त किना जाता है। तपस्या के साथ दिन में उत्कुटुकासन से सूर्य के सामने बैठकर :: मातापना ली जाती है, और रात में वीरासन से वल्म रहित रहा जाता है। सम्पूर्ण सर में १६ मास ७ दिन लगते हैं, जिसमें ७३ दिन पारने के आरो। अक्षोम सागर मुनि (अंतगढ़ २) ने इस तप की आराधना की थी। चित्र . देखिए परिशिष्ट १ में।
आयंबिल यधमान तप-आयंबिल को परिभाषा पोछे बतायी जा चुगी । है । भुना हुआ,तथा रंधा हुआ एक प्रकार का हो भन्न पानी में भिगोकर दिन में एक बार साना आयंबिल कहलाता है। बधमान पा अर्थ है निरंतर ते जाना । पहले दिन १ आयंबिल, फिर दो आयंबिल, फिर उपवास, तीन आय. दिल फिर जगवास बों बलाते हुए सो आयंबिल तक ले जाना और बीन. बीच में उपवास करते जाना आयंबिल वर्धमान तप कहलाता है। ग.तर में कुल २४ वर्षगाम और धीस दिन का समय लगता है । अंतगटनम में अनुगार महागती महागेन या ने इस तप की आरापना की थी।
प्राचीन राज्यों एवं परम्परागत मागताओं में उस तपः निधियों में आप. विश मना भी अनेक प्रकार के मालित है । पुछार प्रानीन पर . की स्मृति में किये जाते आराधनाम पर पी ने अपन में।
पति कार में लिये जाने वाले तप को गंम्मरमाग का भी यह मा ।। पुछ राप पर्तमान में कहा ही प्रमिला ---
(१) यसप-प्रपम गोयंकर भगा कमाने जामा माटी मोदी पी पी. मी दिनमा कर मार रिमा पनन और पलादि करते
g: होम द्वारा ना ! को
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जो रोहिणी नग (संतान प्रालि हेनु) आदि लिये जाते हैं उनका फल बनाको नगम होता , अत: सपनही पता और पूर्ण पान देने वाला होगा जो मुस भारमलाम लिए किया जायेगा परमय भेद स्वारिकाए।
| মায়ায় নান अनगन स! मरा मेदामकालिक अनान ! गावस्कान का है औपन पत्र ! उसमें मान ग्रीका जाता है, तो र बा ना जान मृतु आमेषम आहार आदि का साग करना गालाfoनन । अनमनार मे, मटिगोंगे अमगाना भद दो चिनार करने में पर
पाल गि सेना पर भी मार करना
नाद.. जीवन मा जापानीमा नदो।
सामान में हमने . . कारण मानों को काम समान गोथे । जसका
! कार
१
.
यो
।
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बनधर्म में तप .
१९८
उपाध्याय, साधु, ज्ञान, दर्शन,चारित्र व तप-इन नौ पदों की आराधना स्वरूप वर्ष में दो बार नो-नो आयंबिल किये जाते हैं, जिसे आयबिल को भोली कही जाती है। यह नंग शुक्ला सप्तमी से पूर्णिमा तक, तथा आश्विन शुक्ला सप्तमी से पूर्णिमा तक चलती है।
पांच पदों के १०८ गुण होते हैं-अरिहंतों के १२, सिद्धों के ८, आचार्यो के ३६, उपाध्याय के २५ तथा साधुजी के २७---कुल १०८ । इन गुणों की माराधना गी भावना के साथ उतने-उतने दिनों का उपवास या आयंबिल आदि किया जाता है । जैसे अरिहंतों के १२ गुणों को आराधना के लिए १२ उपवास । इसी प्रकार अन्य गुणों की आराधना के लिए उतने उपवास करना। सम्यक्त्व, ज्ञान आदि की आराधना के लिए भी उन गुणों के अनुसार उतने-उतने उपवास नादि करना । इस प्रकार प्राचीन महापुरुषों के विविध गुणों का निमित्त लेकर तप को आराधना करने की परिपाटी भी आज प्रचलित है।
संवत्सरी, नातुर्मासी, पूर्णिमा, नदी, पांच तिथियों को उपवास, पगुंपण के बाठ दिन उपवास करना ये सब पर्वलक्षी तप कहे जा सकते हैं ।
यही नहीं आगम आदि को वागना करते समय भी बार किया जाता है। इसका उद्देशान के प्रति विनय, तथा शास्वाध्याय की निविप्न समाप्ति की भावना है। पास्त्र के प्रति मादर बुद्धि गोगो गो उगा बाप मान भी सम्मा कप में परिणत होगा। मष्टि में बनेगा मार के सप किये जाने -निक 'उपधान तप' कहते हैं।
नाकेनों का पूरा लक्षण हो ।जीवन में किलोनी प्रेरणा दिनी भी निमिताने मंग, त्यागतमा मनोनिया की भागना जो नया उगे और पनि यो । भोग-निमाग गेट
माग HTR में परमा गरे। प्रमोशन में सभी
नाम चमोली
मार
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নন না
है. जीवन के प्रति राग-नाचना का उरद मारता और बिनत कोम्बोकार करता
भत्ता प्रत्याश्यान पायकालिक अनामन मे दो भेद बताते हए कहा है ,
आयफहिए दुबिहे पणत
पानोकामणे 4 मतपस्चराने य।' पापानिक अनमान में दो भेद पाओगगन और भत्ता प्रसारणान! उतराध्ययन में कुल मिरीक्षा मे गरे दो भेद दवा है-----
जा सा भरणरणा मरणे विहा सा विपाहिया ।
स विचारमयियारा कायचिट्ठ पई भये ॥ -~-मरकाम पयंना मनात त कागबेटा ही दमद ...मागिनार और भनितार !
भिम अनसन बार में शरीर को मेटा, हिलना, गलना, ar मारमा आदि कारखापार काम क र गनिया नमन और जिसमें परमो मारना किया करारा बिनrien आमा शमा सिभितार है। __ अनधन भेद म forts, नेहा आHिari
.
में ). S
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- wran firi daritram: air faar
FINE
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जैन धर्म में प
इसी प्रकार अन्य अनेक अणगार व गृहस्यों का भी जहां वर्णन आता है वह पहले तपस्या, फिर संलेखना और उनके साथ अनशन स्वीकारने की चर्चा बाती है । बाचारांग सूत्र का वह उल्लेख भी हमारे समक्ष है जिसमें बताया है कि नाधु जब यह देखे कि यह शरीर अब जीपं हो रहा है, मुझे हलने चलने में भी ग्लानि हो रही है तब वह धीरे-धीरे तपस्या द्वारा शरीर त्याग करने की ओर बढ़े।
२००
इन सब उपरणों से यह ज्ञात होता है कि याववजीवन अनशन के पूर्व उनको भूमिका भी तैयार होनी चाहिए और वह भूमिका है संसना ! तों में लगे हुए अतिचारों की आलोचना के साथ जो तपस्या की जाती है, जिससे कि दोष विशुद्धि होकर आत्मनिर्मलता व समाधि प्राप्त होती हैयह है संसना ! संलेखना की व्याख्या करते हुए बताया गया है-- सम्पर्क -फपाय लेपना-संलेखना | काय शरीर एवं कपाव-प्रमाद विकार लेखना करना-सानोचना आदि करके
फाय
आदि की सम्यक प्रकार करना इसका नाम है
ना। संतराना के साथ आगमों में are:---- पच्छिम मारणांतिक शब्द आते है जिसका अर्थ होता है, उसके बाद में अन्य कोई संराना आदि शेष नहीं रहती वही अंतिम होती है और मरणका तक चलती है । जीवन के अंत में अनशन से पूर्व यह एक प्रका
है, जिसके द्वारा साधक पूर्ण विशुद्ध स्थिति में
स्वीकार करता है । भूतकालीन समस्त दोषों, पारस अपने दी
वन निर्माण बना है और पूर्ण
दिगम्बर आचार्य यदि विविध सायनिक अवयव
कामना आया है।
हो जाता है।
भी यही कहा-जीवन में आरि अनशन
॥
-
विचारों की आ
है
समिति १२
अम९७७ भाकामा पार्ट
पूर्वको दृष्णमृमार
हा
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बनशा तप
२०३ रिक चेष्टानों को नियमित कर नया है--कि मैं अगु मर्यादा से अधिक क्षेत्र से बाहर नहीं जाऊंगा । इतने स्थान में ही रहंगा, तथा अपनी सेवा स्वयं करूंगा, रिमो अन्य को सेवा, सहयोग नहीं नगास प्रकार की प्रतिमा करते रहना-गिनी मरण माहलाता है।
उक्त दोनों तप सविनार तथा सपनिमम तप है, इनमें भरीर आदि को नेष्टाए, हिलना-दुलना मुला रहता है, तथा गरीर की सेवा ट्रमों में भी नो जाती है, स्वयं भी की जाती है।
पादोपगम-मरण के भेदों में यह सत्रहपां तथा अन्तिम मरण है । इसे पादपोपगम भी गाहते हैं- शब्दार्थ व भाव दोनों का एक ही है-पादप अर्थात् वृक्ष-वृक्ष के समान स्थिर होना-इसका अभिप्राय मा दिया अंगेजह से टूट कर, उगकर यही भी किसी भी स्थान पर गिर जाता है, और गिरता है, फिर वहां से हिलता नहीं, निश्चत रहता है उसी प्रकार मापक अनगन प्रा स्वीकार गरीर की नगस्त मेष्टाओं का स्थान माहवा की भांति अगंगन --- अष्टा हल चामल एक ही स्थान परजिन पर जिला में भारत में स्थिर हुआ. अन्तिम राजमाती मुसारि नामा मासु पूर्ण पाता। इन अवस्था में निभाना
मी sinी गदि लोगो को बन्द नहीं हो जाता। मा किमान जगभरपा प्रातही है। और मरमा
THEE में गिरा। पादोषणमा
railR मंपो पलो मनमुटु समायो ।
वि स प गरी ॥ ६१.!
मानो या ना :
काम irr. , at:
! र यो
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अन धर्म में तप
२०२
आयु घटती ,, प्राणी मरता है इसे 'जावोनिमामिल मर हो। इमरण या आत्मपरिणामों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पता। इसके बार अन्य प्रकार के कई मरण यताये -जैसे अनधिमरण, अंतिम मरण, बसन्मरण, बनातं मरण, तद्भव मरण, पंडित मरण, बाल-पंधित मरण, मयति (पंधित-पंडित) मरण । अत में तीन गरण बताये गये है-मक्त परिना मरण, इंगिनी मरण, पादोपगममरण-इन तीन मरणों का सम्बन्ध अनदान (मंगासामलेगना) के साथ है। जीवन के अन्तकाल में जब माया देखता उसका आगु, बल आदि क्षीण होने लगे, दागेर गलने लगा है, राय आग. शुद्धि के लिए भूतकाल में किये गये दोप, अतिनार आदि की मग आली. जना करता हुआ आहार पानी आदि का प्रत्याग्मान गरको समाधिन गार मरणाभिमुन स्थिति को स्वीकार कर लें।
भक्त परिजा मरण को स्वीकार करना ही भक्त प्रत्यारगान सपालामा है। इस सपने गावज्जीवन के लिए माहार (तीनों आहार) अगया आहारपान (नारों माम) का त्याग किया जाता है । आहार प्रसारयान करणे साधक मसरा स्वायमान आत्मनितन, क्षमापना आत्मालोनन में ही अपना समग विशाता है। उसने मन में जीवन के प्रति वितुन होगह नहीं ALL जय गौ महीना मोग-यार की वंदना ग काट नहीं दे गमती, अगर मन में किसी प्रकार का गलग पहा नहीं हो समता र सदा गमाधि पग मामा मुग पर जगमगाताना नमन में मार-
माग गेष्टाओाग मी मा मत रही लोनी मेला मुभमाय भी करता art, नीलगना, अपना रिमोहाय पाई, मीना और मार गरमागनिया भी करना। गोवार गापा--गिरम भात, प्रसाद में
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अनशन तप
उपसंहार अनशन में मूलतः आहार त्याग एवं कपार व दोर विशुद्धि रहती है, यह तो प्रत्येल. अनगन में ही समान है। यदि आहारत्याग के साथ कापायपर्जना नहीं होती तो यह अनशन भी नहीं होता। शोध आदि के बस में मोह में फंस कर, दुःखी होकार पलेरा, प राग आदि के निमित्त से प्रेक्ति होकर समुद्र में यूदना, पूए में गिरना, ऊपर से छलांग लगाना, किसी भी प्रकार आत्महत्या करना · शरीर छोद देना, यह महापाप है। गोंकि ऐसी स्थिति में पानी की भावनाए बड़ी कनुपित रहती है, बामोन, वेष . और शेप से जलसा हुआ यह मृत्यु प्राप्त गरेगा को अगले भाव में भी बना रहेगा। मन में कहा गया है.---जागा जिन नेण्याओं परिणामों एवं भावनाओं में ग्रा, प्राप्त मारता है, उन्ही संस्थाओं आदिको परिणति में आगे जन्म ग्रहण मारता है। वास्तविकता तो यह है कि आने जिस प्रकार गो गति में जन्म लेना होता है उसकी आनुपूर्वी यहीं पर मामाती है। मरते समय यदि कोई अशांति और संपलंग के साथ मरता तो समझ लेना पाहिए भगनी गति भी उसकी पैनी ही होगी। मृत्यु पं. मगर यदि जाति, समाधि और प्रारमता के नाम प्राण त्यागता है तो यह उनके आगामी भय . मा पद निमम आगे भीमा सद्गति मे जायेगा।
मृत्यु को गुमर, माहिम नमाधिपूर्ण बनाने में दिन को अना रामपा, मन भिमा या अनमना मनु बालय में एक मूगर र माहो-ही जीवन की परिपूति ।
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२०४
जैन धर्म में
काव होने के
पादपोपगम अनशन का भी हो जाता है।
उक्त दोनों ही अनशन सामान्य स्थिति में कहा है और यह भी नयन्जय बायु आदि को पता से गायक को मृत् निकट प्रतीत होता हो, अथवा ज्ञान के तथा देवता आदि के वनों में मृत्यु हो गया हो उस स्थिति में साधक संगना के गाव अनशन स्वीकार करता है उसे रण अनशन कहा जाता है । कहीं कहीं (वाई-भगवती ) याद में इनियांघात अनशन भी कहा गया है। किन्तु यदि कभी ऐसी परिपत विजली गिर पड़ी हो, पर्वत से गिरहोग नेमलिया हो उस दशा में मृत्युका अतिनिकट जा जाने से सुरत हो अनशन स्वीकार करता है। भी नहीं रहता कि पहले
श्री जाव
क्योंकि उसमें रेयान का जो उद्देश्य है यह अनको पूर्व भूमिका के इस परी
भी वहां पूर्ण नहीं होता।
ही
पाय आदि को कम की स्थिति को बनाया जाता है, किन्तु आकस्मिक व्यापात आदि में छूटने को स्थिति स्वतः हो प्राप्त हो जाती है, अत: उमा में तो गायक की अनार कर समाधि भाव के साथ शरीर छोड़ने की हो या व्याघातिक अनशन कहा गया है। पर करता है, उसके दिनार मे नोहारिमनोहारी नोहारिम और
जाता है। उक्त अनुदान को
सायक शरीर
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यदि
और
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fria
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कोनोहारिमहा है।
संकुल म्यान में दिया * * * *
कहा गया है। केने
राज
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जनावरी तप
२०७ के बिना यह तप नहीं हो ममता । इसलिए निराहार रहने की अपेक्षा आहार करते हुए पेट को खाली बसना, अधिक संयम व मनोयल का कार्य।
दूसरी बात यह कि उपवास आदि में शारीरिक बन, सामर्य, एवं स्वास्थ्य आदि की अपेक्षा रहती है किन्तु जनोदरी तप तो रोगी, कमजोर और दुर्वल भक्ति भी कर सकता है । यस्कि नोदरी में अनेक रोग भी निट जाये है, अस्वस्थ व्यक्ति स्वस्म हो जाते हैं। रोगावस्था प्रधान आदि प्रत्येक परिस्थिति में वानमः, वृस, आदि सभी दम तप गी आराधना कर सकते है। इसलिए नीदरी तप पाटिन भी हैं और सवंगुलम भी। मोटामा पान्य, विवेक और धमंशान होने पर हर कोई नायक मतप का मानकर
जनोदरी काम घरप नोटरीमा प्रचलित अर्थ प्रायः 'काम माना में लिया जाता है। प्राआहार, परिमित बाहार आशिमलों में नारी का प्र मा यपि जन सूत्रों में जगोदरी में सम्मान में बहुत ही सरम माया गया
। आहार की भांति. वाय. उपरम आदि को भी तोरीको प्रत्येग बाण मा मंगम गरना, आपम्यानासोकोमा विरोध पारगान या अनोद तप को किया गया। जिसकी हमें भाषा
गाया में विकार करना, मी माता म. मालिका गरमा और
रिमेय का काम होममेकर मामा मामीभाव ARE से गायनाच A pr क्षेत्र में,
ན ཨ* gi gro ཙi༣ ཨ ཀཾ ་ ་ ༢:; ; ; ་ པ : +-- f: ་ ; ཝཱ༔ ཨ༔ ས པ : ,, t:པ༔ ཚུ་ ; ; ::
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पका दूसरा भेद-नवरी तप । उनीदरी का
है जनम
उदपे ! अर्थात् भोजन के समय पेट को खाली रखना, मृग से माना नोवरी है। नवरी को कहीं कही-प्रद भी कहा जाता है । भोपा और भाव यह है
अर्थमा
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प्रश्न सेता है, राम होता है, किन्तु
२
ऊनोदरी तप
:
ना !
में आका
करना तो
है,
में तो भोजन दिया जाता है फिर
20 )—za a não com era mat, fra dz रवाना, योगी सनापर
करने के लिए
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में भी ना
कुकर के विवाह
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cat et art A. fra den mà mà tem a vem,
माय समेटिन
न
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अनादरी तप
उपकरण नोदरी उपयारण का अप है-उपकार करने वाली वस्तु । जिन बस्तुओं के हारा गोत-ताप आदि से शरीर की रक्षा होती हो, निरजा का निवारण होता हो, भूमा प्यान आदि मिटाने में सहयोग मिलता हो,तथा जो साधना को अन्य प्र. त्तियों में मानारी मोती हो-~-उन वस्तुओं को उपचार हो । सनि से यार-पान आदि उपयोगी वस्तुओं की उपकरण मंशा होती है । इस. कारणों की जो गर्यादा है. उनसे कम उमरण नाना, अर्थात् सत्र-पार आदि आवरण वस्तुओं की कमी फरना-- करण इच्च नोदनी है।।
माधक का शीर नोमानापन माना गया जर तमाम गरीर के द्वारा मोक्ष की मापना होती है. मगर क्ष मी गर्मी में बचने के नियम आदि पालना होता, लोकतानिए मीर ने आवश्यक अगी होना होता , मग आदि के बारे में शरीर RATमरनी होती : सरक नए
साल होते । शालिए, "तपि संजम सज्जनता पारति परिहाति".... यसन आदि म मात्रा में
स
मा उन धारण मारमा साबरमा नहीं होगी काम में उपयोगी पार आदि नही । समाज में माना ए
रीर दाा में लिए गोकन ENTERE: पारा नारिया-
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ཤུས ད
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२०६
सोमोरिया यिहा
दरोमोरिया प भायोमोरिया गोवरी को प्रसार को है- द्रा योदये। २ भाव जोगी। कहीं नहीं नोदी के पांच भेद भी किये गये है--
मोमोपरणं पंचहा समारोण पिपाहियं ।
बन्यो त कालेण, भायेणं परमहि य । संक्षेप में ऊनोदनी के पांच प्रकार है
(१) द्रव्य ऊनोदरी-आहार को मात्रा से काम माना और आपसमा से कम यमन आदिना ।
(२) क्षेत्र कनोदरी-मिक्षा के लिए गोई स्थान आदि निश्चित कार वही में मिक्षा सेना।
(३) पाल जनोपरी-भिक्षा के लिए काल-गमय निविता कर ant नमा पर निशा मिले तो सेना, नहीं तो न लेना।
(४) माय जनांदरी-मिक्षा के समय अनि आदि करना । (५) पर्याप नोदरी-वक्त चारों भेदों को निगा रूप में परिणाम
प्रसंग के अनुसार समसाई अर्थ हो जाते
मय। से 7 साप्रतामावि ! बास्तविक गुण से हीन होने पर आति, भगा आदिको देशमार किमी सोमाणु समानामा कोसा दिया है काम मागु ! द मन्द माना नहीं! Arts
- पर मापा मानिनोरी पोहरी मार
!
1) बायोमोपरिवार {} भोमोपरिणा-AIRTEE
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नोदरी तप
२११ (२) साधु जो नत्र ग्रहः करता है वह महामूल्य वस्त्र -बहुत मंहगा, दीराने में बहुत मुन्दर व आकर्षक नहीं होना चाहिए, किन्तु सादा, अल्पगन्ना वाला होना चाहिए।
(३) माधु पाच प्रकार के बन्नों में से ही कोई बाम ले सकता है जैसे -~~-5 फे, रेशम के, मन के, कपास के और यक्ष आदि की छाल व सण आदि
(५) सो त गा तीन प्रकार के पास ग्रहण किये जा सकते है-नये के, फाटक और मिट्टी से !
घाम-पाप प्राप्त करने की सम्पूर्ण विधि आघानांग ८४ तथा बारे अत संध के पांचवें अमापन के बगल में विस्तार के नाम बताईन । यहाँ पर हमारा प्रमंगलनाशिनिया पाप को मर्यादा है, उन मर्यादा मे नाम बस-
पासना । जो एक समान और एक बारना अभया सम्पूर्ण परिवार परला तये से अभिनयगए पा सरकार ए. लोय। दिलगी तो पूर्ण करन-
पागो मे उपकार मनोको नही हो सकती !
उमरा नोदरी को साधना गरी राज में जहां पत्रों की सुपर बर माने, रोमांच महामाया मालिक होगी। जिन मगर मनु मन मनमा sani मद को मारी गो, और पालने का मानना जी i, शरमा जा, दमा पूरी करने में fire m ent: कर दिमायों को कुन मापन .
སཙྩ ༼ཨ༽ ༧: ན མ དྡྷོ ཙྩ • ས ས # # शिनी । मोदी
,
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और
में
दिनोई चाय पारणको, और उसमें भी गिर मोती पनि माने और याको अगा पातु गो परिग्रह न माने तो नाम तक गंगा चा ? दिनमा पनि , तो भोजन, पार और शरीर पीपरि. मा । जब शरीर की रक्षा करो हो, भोजन भी करते हो. पाप-सारण आदि भीगते हो तो फिर या साय पनिमा यमाही अटक गया? पपात मे बस्नको परिग्रह मानना जैन-दर्शन मेमनी नाना प्रगट पाता परिमा ?मा स्पष्टीकरण जैन-नन म बानी कर का:--
मुच्छा परिरगहो पत्तो
मूळ परिग्रहः२ मादिगाभाय है, ममत्य है जो गरीर भी परिणत हो गाता है और वा भी । यदि भूभास नहीं है, तो न बन परिणा है, और न हरीर पनिया है।
यस्य-
पाको मर्यादा सोम याा रहा था कि ममम मात्रा मनाने के लिए नामर गो नाम पाय आदि कारणों की आय होती है, जायता के अनुगार ओर म . मन मात्र आदि सागमा पानी, किन्तु माना है
सो पनि गातारा । मदिरा भी महतो मा जायेगी मानी हो। Hart HIT भी चार या जागरि माया HTETऔर विाि--- १) म :मार्गमा पर शोर furi xfrr
(ोर (महाभार) पार शीन irrier am
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कोदरी तप
२१३
करता है,
अनुपयुक्त आहार शरीर के बल, वीर्य, बीन आदि को आवश्यकता के अनुसार प्रकृति के अनुकूल किया हुआ आहार शरीर में
बल, आरोग्य की वृद्धि करता है ।
धानायें उगायाति ने सबको इनमें है
कालं क्षेत्रमा स्याम्यं य-गुद सायं स्वयम् । ज्ञात्वा योऽभ्यव्हार्य मुद्रको कि भवजस्तस्य । जो कान, क्षेत्र, मात्रा, हित, पदार्थ की गुस्तायता--( भारीपन ) तथा अपनी पाचन शक्ति का विचार कर भोजन करता है, कसे दवा की कभी जरूरत नहीं पह कभी मना नहीं होना । इसलिए आवश्यक है कि ने पहने आहार की गाथा का मान मा किया जाये |
हो सकता है -पस्थ और पाप के है क्या वाके
निगम वो अपया मर्यादा ही पति की
बाहार की मात्रा में जिन प्रकार समय
कति है। उनमें बहता है
दीनी नहीं
बामी १० रोटी साल भी नहीं होता और गाव पाते है गामा पहलवान मानामि २५ फू
केही मानिये कि बीमा नहीं को जी
में पैसा कोई सामान्य विम
है,
श्रायाम, पापा
और
पानी पर डर मानी ने जो जाम भी एक Anamnest राजस्थानी प्राण उनका गाना ग्या गाने के बाद की बारदाने गा चाय को नहीं निभा
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कनोदरीतम
एकदम ही उन पर नकाटियों का अम्बार लगा दिया तो वह चुश जाती है-- यही स्थिति जठराग्नि की है। पोरे पोरे, थोडायोड़ा साने से भनि तेज रहती है और एका नाम ही भूल ने अधिका लिया तो बस अनि हो जाती है, अग्नि मंद हो गई तो बस फिर पाचन गिया बिगड़ जाती है, बात काम करना बन्द कर देता है, साये हुए का नहीं बनता, रस नहीं बनता, शरीर दुर्बल और क्षीण होने लग जाता है।
इसलिए कहा गया है कि गाने में सबसे पहली मर्यादा तो यही कि साना मा माओ जिसे अकराग्नि मंद पर जाग, गाना-विजा गि जाय ।
प्रत्तीस कपल-प्रमाण गो गाय ही भोजन गी छ न त मर्यादा समय भी निगा किया गया । माया के सम्बन्ध में दिनार मानते हुए जेन ना में गहा गया
साधारण स्वरण मनुष्य का भोजन बीम का मानना है । मान के दो अर्थ किये
गोर्गी अंडे के बराबर बर मा सागर गायन यालाता । भानारों ने मचान का अभियाना अना भोजन म भाग फर नेने पावतीमा भाग ना है नदि एक मनुसना भोजन भार टीकाको मोटो गाशा भाग एक मगर ना कोटि में
गाड़ी का t) भीगी भायमानार आना
genा शुटी भुटो गरीमियरमा गरी पायदा . अपकमियामु" ____fear मार....
" मा ... ३ मा
TET MERE AREATME * ཨ ཨཱ་༔ : # : 2 པ : ༣ ི ༔ ཅ ན པ ༈ ཁོ་
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गर्म में सप सरसो ४.५० आदमी की रसोई अकेला ही भट कार जायेगा । उपर
पंडित जी ! मा.मागे !, पंडित जी ने कहा कोई बात नहीं, पाप माको पुलकी नमने दो ! कार ने गहा---गही ! महाराज ! मा Hinा नमार है, लो और मेरी जान छोड़ो !
तो सभी में अति होती है, दो-चार सेर बाटे में उनमें पेट का पानी भी नीलिमा और ऐसे भी अमोर मोग हो जो १ रोटो में पर माग गाया मा निमा गो अपना हो जाता किनारों को रोटी भोजन मोही माती, पीपी तो बात ही गया? शोज और पाको ानी विभिलता तो है तो भोमग मी गाना मे मम्बा में या कोई पर: गांमान्य नियम बन गया है ? आना सोमदेव गरि में काम ----
___ म भक्ति परिमाणे सिवानोऽस्ति'--- भोजन शिप -मिना साना-... म मम्मी को मिलात नहीं!
कि बिना माना-समोना मानोगमती ? 7 में में बनारसमा भूमितीतः ! पमा मापाचन पिपलानी भीमाशा गाना हि हो, माना टायर हिमनाम ना नि माने में पेट धामा भागमा दूसरे मामय नानासमोरारना चाnिi माग गरे अग्निी , भूगल 17ी
टा
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जनोदरी तप
२१७
मन्न मवीर के लिए इतना आवश्यक होते हुए भी दिया गाया और नियंग के विरुद्ध किया जाये तो वह अमृत समान आहार भी जर का भाग पार देता है । कहा जाता है...
मधुरमपि यहपादितमजीर्ण भवति ।
अमतमपि यह पोतं दिसायले ! बहुत ज्यादा का हागपुर भोजन भी बसोबानगी पेक्षा देता है । मात्रा में शामिल लीयामा अपल भी कार का काम । अति गोलन में आप भी पटता है । आवायं मा ने पहा ---
नारोग्यमनागमस्यायं धाति भोजनाः ।। अधित मोजा गया ... विगाः जाना , अनु महो जाता , जीरा , गार प्राप्त कर पानी परलोर में भारत तो वहां पर भी बिना जान आगाम मे मा को बाप
मन में बना मोको, किन्तु परलोभी Fाना
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नमें स
dar & fa fra gra si fram et sua ami a 397 अपेक्षा से एक पनपता है।
चनीय समय का आहर पुरुष का आहार माना गया है। री का आहारपुर की अपेक्षा कम होता है अत: का
और २४
प्रमाण
मग जाये उतनी ही
का संपूर्ण आहार है। इस प्रमाण से जितना तो है । कोई कि अपने आहार का भोजन है यह अल्पाहार का जावा से
चोपाई अत् आठ
है। नो मे यह कवन गोवन करना-जपा
दो भाग र
भन पादन कर स
और हकीम वका भोजन रात दीपकरा पाप का पूर्ण बहार करने वाला मोदी पर आहार करने वाला है।
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भोजन का भोजन का प्रमाणातिकांत भीगी कहा जाता है।
जोहा जगद्दि एवं
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ओतु जो गरे ।
गये।*
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माना जाता है।
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३ क कायदा कर
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सम्पती छाई विशद
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२१९
कनोदी तप विशेषण है, और ये पल बाल मे कोतक है. यि साधना करने वाला सदा ही आहार की जनोदरी गरता है। जैन दर्शन तो यह भी मानता है कि नाम साना, अल्पाहावी होना, मनुष्य के मुगा नानाग्य का सूचक है। जो प्राणी जितना ही भाग्यशाली होगा, सुगी होगा तथा उन्नत होगा, उगे भूरा भी उतनी ही कम लगेगी और वह सदा कम नौजन में ही मंतुष्ट हो जायेगा, इस बात की पुष्टि के लिए आपके मक्ष प्रापना गुम (२८ या पद गा यह प्रशारण बताता हूँ।
भगवान में पूछा गया नया तिन भादि लोहको आहार करने पीछा गितने समय में होली ? उत्तर में मनाला ----
गार जीव मन्तहान (४८ मिनट में भोतमी) में भारी का
सियन जीन समन्य प्रति समय उत्कृष्ट यो दिन में आपका हो । मनुराहत कष्ट तीन दिन में
.... गतिमा मनु तीन दिन में, गरेर मोदिनी आम दिनोrtert samiti Art i बारे में गोरा में
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-
जे नरा ।
हियाहारा मियाहारा अप्पाहारा
न ते विज्जा तिगिंच्छंति अप्पाणं ते तिमिच्छगा ।'
जो मनुष्य हितभोगी, मितभोगी एवं अल्पभोगी हैं, उन्हें वैद्यों की चिकित्सा की कोई आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि वे तो अपने आप में ही चिकित्सक (वैद्य ) हैं । उनकी चिकित्सा तो सतत चल रही है ।
प्रसिद्ध आयुर्वेदज्ञ वाग्भट से किसी ने पूछा कि संसार में नीरोग (स्वस्य ) कौन रह सकता है ? तो बिना किसी विलम्ब के सीधा उत्तर दियाहितभुक् मितमु शाकभुक् चैव, वामशायी शतपदगामी
छ ।
हितकारी परिमित भोजन करने वाला, टहलने वाला, और बायें पसवाड़े सोने वाला - ये
जैन धर्म में तप
भारत के सुप्रसिद्ध नीतिशास्त्री विदुर जी
वालों के यह छह गुण बताते हुए लिखा है—
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शाकाहारी भोजन के बाद बीमार नहीं पड़ते ।
--
१ ओषनियुक्ति ५७८
२
विदुरनीति ५१३४
ने परिमित भोजन करने
गुणाश्च
मितभुजं भजन्ते आरोग्यमायुश्च बलं सुखं च ।
अनाविलं चास्य भवत्यपत्यं न चैनमाद्यून इति क्षिपन्ति ।
जो आदमी परिमित अल्पभोजन करता है—उसका आरोग्य, आयुष्य वल और सुख बढ़ता है । उसकी सन्तान सुन्दर होती है, तथा लोग उस पर पेटू' 'भोजन भट्ट' आदि बुरे शब्दों से आक्षेप नहीं करते ।
शास्त्रों में साधु के लिए स्थान-स्थान पर इसी कारण अल्पभोजन का उपदेश किया गया है कि इससे स्वास्थ्य भी सुन्दर रहता है, आलस्य नहीं ध्यान आदि भी आनन्दपूर्वक हो सकता है। साधु का आदर्श चढ़ता, स्वाध्याय, ही है-- अप्पमासी मियासणे - अल्पभासी, मितभोजन करने वाला । - अप्पपिण्डास पाणासि - अल्प आहार और अल्प पानी पीने वाला - अप्पाहारे, योवाहारे, मियाहारे अल्पाहारी, स्तोक बहारी, मिताहारी ये ही उसके
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૨૨
ॐनोदरी तप वृत्ति का संक्षेप द आहार का संकोच होता है, इन पद्धतियों से मन इच्छित आहार नहीं प्राप्त हो सकता अत: इन्हें ऊनोदरी तप भी माना जा सकता है।
काल मनोदरी उत्तराव्ययन मूत्र में काल की अपेक्षा भी ऊनोदरी का वर्णन किया गया है-जैसे
दिवसस्त पोस्सीणं चटप्ह पि ३ जत्तिओ भवे फालो। एवं चरमाणो सलु फालोमाणं मुयव्यं । अहया तइयाए पोरिसीए उणाए घासमेसंतो।
चऊ भागूणाए वा एवं फालेण क नवे ॥' दिन के चार पहरों में इस प्रकार का अभिग्रह करना कि मैं अमुक प्रहार में भिक्षा के लिए जागा उस समय भिक्षान मिल गया तो भोजन पर गा अन्यथा अगवास करूंगा। इसमें प्रत्येक पौरुष का भी अलग अलग भाग करके अभिग्रह किया जा सकता है--जैसे तृतीय पौरखो में कुछ समय बाकी रहेगा तब भिक्षा के लिए जागा, अथवा उनके चतुर्थ भाग मा पंचम भाग (माय) में भिक्षा में लिए जागा-इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके आहारी यामी करना काल सम्बन्धी ऊनोदी है। ___ उबयाई मूत्र में इस प्रकार की प्रतिमा को कालचरस' नाम ने निक्षा पीके भेदों में गिना गया है। तात्पर्य दोनों का एक ही है.गाल की मर्यादा करके आहार वृत्ति में कमी लाना और तप को प्रोत्साहन देना ।
मुष्टियों में भिक्षा के चार दोपयातिपाल, मानातियांत, मार्मातित्रात और प्रमाणित प्रांत भी नोदी ना में लिये जा सकते है। मघोंकि उनमे मिला ये गान-नाराहार का भी नाम होता है । जैग
रातिशांत--जो गोदय के पूर्व साहार प्रहम करना और गोदय सोने होना पारि भिक्षा में भी सम्बन्दिर और
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जैन धर्म में तप
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इच्छा क्रमश: दो दिन तीन दिन, नौ दिन और हजार वर्ष से होती है । सर्वार्थसिद्ध विमान के देवता जो सबसे अधिक सुखी व दोघं आयु वाले (३३ सागर की स्थिति वाले) होते हैं उन्हें ३३ हजार वर्ष से भोजन की इच्छा होती है ।
क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि जो जितना अधिक सुखी व भाग्यशाली होगा उसे भोजन की इच्छा उतनी ही कम होगी । और भोजन की मात्रा भी उसकी उतनी ही अल्प होगी ।
एक श्रीमंत सज्जन किसी बड़े डाक्टर के पास अपने के लिए ले गये । डाक्टर ने पूछा- क्या बीमारी है ? खाना बहुत कम खाता है, भूख बढ़ाने की दवा दीजिए। कहा - बुद्धिमान लड़के हमेशा ही कम खाते हैं ।
बच्चे को दिखाने
सज्जन बोले -- यह
डाक्टर ने हंसकर
यह प्रकरण यहां पर इसलिए बताया जा रहा है कि जैन धर्म ने ऊनोदरी को तप क्यों माना है, उसके क्या कारण है ? और उससे क्या लाभ है । उपर्युक्त विवेचन से यह बात स्पष्ट समझ में आ जानी चाहिए, कि ऊनोदरी करने से मनुष्य नीरोग रह सकता है, सुखी रह सकता है सुखपूर्वक साधना कर सकता है । अतः स्वस्थ जीवन के लिए सुखी जीवन के लिये और साधनामय जीवन के लिये कनोदरी तप की आराधना करनी चाहिए ।
अन्य भेद
उत्तराध्ययन सूत्र में क्षेत्र ऊनोदरी व काल ऊनोदरी भी कनोदरी के भेदों में ली गई है। वहां क्षेत्र ऊनोदरी से ग्राम नगर, पत्तन आदि में भिक्षाचरण करना - क्षेत्र ऊनोदरी बताई गई है। इसी प्रकार पेटा, पेटा, गोमूनिका आदि भी क्षेत्र कनोदरी में सम्मिलित किये गये है जबकि ये सब भिधानारी के भेद है, जिनकी चर्चा उनवाई सूत्र तथा भगवती नून में की गई है। प्रश्न हो सकता है, जब से भिक्षा तप में क्यों गिन लिया गया ? समाधान नही है कि इन प्रकारों से भी
के
इन्हें
ज्ञानमय आहार पद
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ऊनोदरी तप
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हों, हंसता हुआ हों या रोता हुआ, अमुक विशेष वर्ण का-काला-गोरा आदि हों, कोप मुद्रा में हों, या प्रसन्न मुद्रा में हों- . इत्यादि प्रकार की भावनाओं के साथ भिक्षा दें तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा उपवास रखूगा।" ये सब अभिग्रह दाता के भावों से सम्बन्धित है, इन्हें उववाई आदि सूत्रों में भाव अभिग्रह के अन्तर्गत बताकर भिक्षाचरी में इस का समावेश किया है।
उक्त चारों अभिग्रहों के साथ जो भिक्षा आदि करता है-उसे पर्यवचर ऊनोदरी तप करने वाला कहा है ।
भाव ऊनोदरी में दाता से सम्बन्धित भावनाओं की अपेक्षा रखते हुए उववाई व भगवती सूत्र में कुछ विभिन्न प्रकार का वर्णन किया है । तप के साथ मनोविश्लेषण की दृष्टि से भी उसका अधिक महत्व है।
भाव मनोदरी यहां पर भाव ऊनोदरी से तात्पर्य है-~-भाव सम्बन्धी अनोदरी । भाव का अर्थ है आन्तरिक वृत्तियां । क्रोधमान-माया--लोन-आदि कषायों को आन्तरिक वृत्तियां कहा जाता है । इन वृत्तियों गा अर्थात् गापायों का सयंया क्षय करना-साधक का लक्ष्य है। किन्तु साधना कोई जादूगी छटी तो नहीं है कि घुमाई ओर कमायों गा धाय हुआ। धीरे-धीरे जैसे साधना आगे बढ़ती है, साधक का मनोबल लागत होता है, वियक प्रबुद्ध होता है, गरी-वैसे फपाय क्षीण होती जाती है । कपायों को क्षीण अर्थात् दुवंत मारते रहने की यह प्रक्रिया--भाष जनोदरी तप माना गया है। जैसे आहार को गामी गारना, वैसे ही कषायों की कमी मारना-प्रोमो, मान को, माया गो, लोग गो, कामह गो, अधिक बोलने की आदत इसो म माथ-निद्रा आदि . हो पति को कम करो भाना---नव उनादरी में आ जाता है। पूछा गया है निभाय गोदरी गा ? उत्तर में बता :
बप्प पोहे, माप मागे, अपनाए जाए मोह मापस अप्प से तंभावो मोरिया
mmmmmmmmmmmmmmmer
१
माई मार परियार
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जैन धर्म में तप
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कालाति क्रांत दोप है । साधु का नियम है कि वह तीन प्रहर से अधिक काल तक अपने पास भोजन नहीं रख सकता। इससे साघु को असंग्रह वृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है, साथ ही भोजन का संयम भी किया जाता है । __ मार्गतिक्रांत-अर्ध योजन से अधिक दूर आहार ले जाना-मार्गातिक्रांत दोप है । भोज्य सामग्री के प्रति गृद्धि न रहे और वह सदा साथ लिये न घूमेइसलिए यह विधि भी आहार मंयम की द्योतक है।
प्रमाणातिकांत-इसका वर्णन बत्तीस कवल के सन्दर्भ में किया जा चुका है, इसका सीधा सम्बन्ध ऊनोदरी तप से जुड़ता ही है।।
इसी प्रकार भिक्षु की कुछ प्रतिमाएं-जिनमें एक दत्ति आहार की एक दत्ति पानी की प्रथम सात दिन तक ली जाती है, फिर दूसरे सप्ताह में दो दत्ति आहार दो दत्ति पानी-इस प्रकार बढ़ाते हुए सातवें सप्ताह में सात दत्ति आहार सात दत्ति पानी लेना-यह भिक्षु की सप्त सप्तमिका प्रतिमा कहलाती है। इसे अनशन तप में गिना जाता है, किन्तु इसका सीधा सम्बन्ध फनोदरी तप से भी जुड़ता है । इसमें आहार का सर्वथा त्याग नहीं, किन्तु आहार की न्यूनता--- कमी की जाती है। आहार पानी की कमी करना ऊनोदरी है। इसी प्रकार अप्ट अप्टमिका तप में प्रथम आठ दिन तक एक दत्ति आहार,एक दत्ति पानी,क्रमशः बढ़ाते हुए आठवें उठवाड़िये में आठ दत्ति आहार व आठ पानी की ली जाती है । नवम नवमिका और दशम दमिका में भी इसी प्रकार नो दिन और दश दिन का क्रम चलता है। इन तपों में साहार की न्यूनता ही प्रधान है, अतः इस अपेक्षा से इन नत्र वृत्तियों को जनोदरी तप में भी गिना जा सकता है।
भाव ऊनोदरी का वर्णन भी दो प्रकार से किया गया है-एक में दाता यो भावों की अपेक्षा से और दूसरे में अपने भायों की अपेक्षा से । पहली प्रकार की दृष्टि उत्तराध्ययन में मिलती है। वहां कहा है- . .
"भिक्षा महप के लिए जाने वाला साधु मन में यह बनिनह गरे फि. लाज मुझे अमुक स्त्री, क्या पुरुष, बले कार से युक्त हो अयया रहित, बालक हो मा वृद्ध, अमुक विशिष्ट प्रकार के वस्त्रों से, अमर रंग के वस्त्रों से विभूषित
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ऊनोदरी तप
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अर्थात् अल्पभापी बने । भाषा-मनुष्य की सबसे बड़ी संपत्ति है, इसके द्वारा मनुप्य अपने भावों को यथार्थ रूप में प्रकट कर सकता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह इस अद्भुत संपत्ति का मनचाहा उपयोग करें। संपत्ति को उड़ाने वाला बुद्धिमान नहीं होता किंतु संपत्ति का सदुपयोग करने वाला बुद्धि मान होता है । भाषा की संपत्ति का सदुपयोग करना-बचन को कला है । इसके लिए सबसे पहली बात यह है-निरर्थक योलने की आदत कम करें। जो मनुष्य अधिक बोलता है-वह भाषा का विवेक नहीं रख सकता। वोलते-बोलते विना विवेक के ऊलजलन भी बोल जाता है । और उसका फिर दुष्परिणाम आता है-इसलिए कहा गया है-धचन रतन मुख फोट है, वचन एक प्रकार या रत्न है, इसको मुख रूप तिजोरी से बाहर निकालने से पहले बहुत सोच-विचार करलो, किसलिए ? क्यों ? और कितने वचन रतन निकालने हैं यह सोचकर ही निकालो ! जितने यनन की जरूरत है उससे पाम वचन से ही काम कर लेना बुद्धिमानी है, और एक को जगह दो बनन का प्रयोग करना गुसता है । नीतिकारों ने कहा है---
हितं मनोहारो वचोहि वाग्मिता' हितकर मनोहर बचन बोलना वक्तृत्वकला है । जो साधन
मियं अदुटुं अणुपोइ भासए सयागमन सहई पसंसणं ।। विचारपूर्वक सुन्दर और परिमित शब्द बोलता है वह सज्जनों में प्रशंसा प्राप्त पारना है।
शास्त्रों में जहां भी बोलने का प्रसंग नाया है यहां प्राय: साधर के लिए यह निर्देण दिया गया है-यह कम बोले, परिमित पद घोले
अप्पं भासिज्ज सृष्यए' नुभवी मारक कम से पान बोले
निस्वर्ग या पिन योहाना
६ मा
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जैन धर्म में तप
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क्रोध को कम करना, मान को कम करना, माया को कम करना, लोभ को कम करना, शब्दों का प्रयोग कम करना, (अल्पभाषी होना) कलह कम करना-यह है भाव ऊनोदरी !
द्रव्य ऊनोदरी में जहां साधक जीवन को बाहर से हलका, स्वस्थ व प्रसन्न रखने का मार्ग बताया है, वहां भाव ऊनोदरी में जीवन की अन्तरंग प्रसन्नता, आन्तरिक लघुता और सद्गुणों के विकास का पथ प्रशस्त किया
गया है।
जीवन विकास में तथा आत्म-कल्याण में कपाय-क्रोध मान आदि सब से वाधक तत्त्व हैं। जिस जीवन में कपायों की प्रचुरता रहती है उस जीवन में आनन्द और प्रसन्नता कहां से आयेगी। धधकती अग्नि के पास बैठकर यदि कोई शीतल लहर की इच्छा करे तो यह एक प्रकार की मूर्खता ही है, वैसे ही कपायों की वृद्धि करके यदि जीवन में शांति की कामना करे तो वह उससे भी बड़ी मूर्खता समझनी चाहिए । कपाय का अर्थ ही है, कलुपित करने वाला । प्रज्ञापना कपाय पद (१३) की टीका में बताया है
फलसंति जं च जीवा तेण फसायत्ति वृच्चंति जिससे जीव कलुपित होते हैं, आत्मा मलिन होती हैं, उन्हें, अर्थात् उन वत्तियों को कपाय कहा जाता है । क्रोध, मान माया लोभ आदि से कितना अनर्थ होता है और इन्हें कैसे वश में किया जाय, उन पर विजय कैसे प्राप्त हो इसका विशद विवेचन प्रतिसंलीनता तप के अन्तर्गत-कपाय प्रतिसंली. नता में किया जायेगा, अत: यहां पर तो इतना ही निर्देश है कि इन कोष आदि की कमी करने का प्रयत्न करें। विवेक जगाकर उनके अनर्थ कारी परिणामों का चिन्तन कर साधक सोच-कपाय बढ़ते हैं तो जीवन में अशांति बढ़ती , कपार घटती है तो जीवन में बगांति कम होती है, शांति की लहर उठती है, यदि शांति प्राप्त करने की इच्छा है तो कपायों को काम कारो। इसने शांति प्राप्त होगी-बस यही फपायों को ऊनोदरी का फल है।
अल्पभाषण भाव ऊनोदरी का पांचवां रूप बताया गया है-अप्पसह-अल्पशब्द
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ऊनोदरी तप
पूछा गया है--समझदार की निशानी क्या ?
कम बोलना, कम खाना। मूर्य की निशानी क्या?
ज्यादा बोलना ज्यादा खाना । कम बोलना--- विद्वान का गुण है, और मूर्य का भूषण है । लुकमान हकीम ने अपने पुत्रों से कहा था कि तुम यदि समझदार हो, तो कम बोलनाइससे तुम्हारी समझदारी और अधिक चमकेगी। यदि तुम मूसं हो, तब भी कर बोलना-~इससे तुम्हारी मुख्ता छुपी रहेगी।
एल प्रकार 'अल्पभाषण' जीवन में अनेक सद्गुणों को जन्म देता है, मनुष्य को सभ्य, विद्वान और चतुर बनाता है वहां 'वाणी का तपस्वी' भी ! शास्त्रकारों का मत है कि सिर्फ न बोलना ही मौन नहीं, किन्तु कम बोलना, विवेनापूर्वक बोलना भी मोन का एक अंग है । इस मौनमत को साधना भरा भाषण की साधना से प्रारम्भ की जा सकती है । पहले काम बोलने की आदत डालो, फिर मौन रहने की।
अल्प कलह मानह, सगा, वैर-
पिप आदि को कमी करना--यह भी भाव मनोदरी का एक भेद है । शास्त्र में बताया है
फतहकरो असमाहियरे जो पाला करता है, यह संप में, समाज में, परिवार और शक्तिमत जीवन में भी भगोति पैदा करता है । कलह पारने वाले को नमी गति और प्रसन्नता प्राप्त नहीं हो सकती । ऋगन में कहा है-न धान रनिंग । याला मारने माना जीपन में गुर, समलिननीय गौभाग्य प्राप्त की कारमा करने पाने का मन भीतर में शनिपटी मालि HTTER:
मोविले मिगी। गनमत नही होगी तो .
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जैन धर्म में तप थोड़े शब्दों में कही जाने वाली बात को अधिक लम्बी न करें।
नाइवेलं वएज्जा मर्यादा से अधिक न बोले ।
अप्पभासी मियासणेसाधक कम बोलने वाला और कम खाने वाला हो ।
जो अधिक बोलता है, वह सत्य वचन की आराधना नहीं कर सकता क्योंकि सत्य वचन और वाचालता में परस्पर विरोध है। कहा है
___ मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमयू ।२।। मुखरता-वाचालता सत्य वचन का घातक है । जो वाचाल होता हैवह सर्वत्र निंदा, अपमान और तिरस्कार प्राप्त होता है । उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है -जैसे सड़े कानों वाली कुतिया जहां कहीं भी जाती है, वहीं लोग उससे घृणा करते हैं, दुत्कारते हैं और दुत्कारने पर भी नहीं निकलती है तो डंडे मार-मार कर निकालते हैं-जो वाचाल होता है, उसकी भी संसार में यही दशा होती है -मुहरो निक्कसिज्जइ----वह वाचाल-लवार व्यक्ति कुतिया की तरह सर्वत्र दुत्कारा जाता है । राजस्थानी में एक दोहा है -
वह बोला वेश्यां घणी, दोय गांव अधवार ।
तिण ने कांई मारसी मार गयो फरतार । बहुत बोलने वाला, वहत बेटियों का बाप और जिसका दो गांवों में रहना हो-एक पग यहां एक पग वहां-उसे किसी को मारने की जरूरत हो गया है, भगवान ने ही उसे मार डाला है । अर्थात् बढ़त बोलने वालाअपनी आदत से स्वयं ही बर्बाद हो जाता है, उसे वर्वाद करने के लिए किसी तो कुछ प्रयत्न करने की जरूरत ही क्या है ? तो बहुत बोलने वाले की बहुत युदंशा होती है, इस कारण साधक को कम-से-कम बोलना चाहिए।
१ मतांग ११४१२५ २ स्थानांग ६१ ३. उत्तराध्यापन १४
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कनोदरी तप
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उपसंहार
तो कलह की भीषण लीला आज सर्व विदित है । उससे मानव जाति नष्ट हो जाती है । इसलिये भगवान ने साधक को उपदेश दिया है वह कलह को, परस्पर के झगड़े को शांत करे । शास्त्र में बताया है- साधर्मियों में परस्पर कलह हो जाने के बाद जब तक वापस क्षमा याचना न करे तब तक साधु को आहार पानी नहीं करना चाहिए । यदि तुरन्त क्षमा याचना न करे तो एक दिन में, पक्ष में, मास में, चातुर्मास में तथा अधिक से अधिक संवत्सरी पर तो परस्पर का कलह अवश्य ही शांत कर लें | यदि संवत्सरी पर भी कलह शांत नहीं होता तो उसकी साघुता और श्रावकपन तो क्या, किन्तु सम्यक्त्व भी नहीं रह सकती ! जो न उवसमद तस्स णत्थि आराहणा, नो उसम तस्स अत्यि आराहणा । जो कलह शांत नहीं करता वह धर्म की आराधना नहीं कर सकता, जो कलह को शांत करता है, मन की गांठें खोल देता है वही धर्म का आराधक हो सकता है | आप जानते हैं-मन में गांठ रखने वाला 'निर्ग्रन्थ' (श्रमण) नहीं हो सकता |
तो मन को गांठें मिटाने के लिए, मन में प्रसन्नता जगाने के लिये, जीवन में धर्म की आराधना करने के लिये भाव कनोदरी के इस रूप की आराधना अत्यन्त आवश्यक है कि धक -अप्प क को गांव करें ।
- अल्प कलह वर्षात्
इस प्रकार अनोद के हुए। इनकी सम्पए आराधना से जीवन में सगुन एक नया आनन्द प्राप्त हो सकता है। यह क जीवन और का जीवन दोनों ही सुना है ।
3 इटवर आण १४
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२२८
जैन धर्म में तप
धर्म की साधना कैसे होंगी ? इसलिए साधक को शांति प्राप्त करनी हो तो
कलह शांत करना होगा ।
कई कारण हो सकते हैं—स्वार्थ में बाधा आने पर, कलह होने इच्छित वस्तु न मिलने पर अहंकार पर चोट पड़ने से तथा लेन-देन के विषय । ये सभी बातें मनुष्य के कपायों से सम्बन्धित हैं, इसलिए प्रारम्भ में कपायों की कमी करने का उपदेश किया है । कपाय की कमी होगी तो कलह का प्रसंग आने पर भी मनुष्य अपने मन को समझाकर उसे टाल देगा । - कलह से बड़े-बड़े साम्राज्य नष्ट हो गये । कौरवक्योंकि वह जानता पांडवों का विशाल साम्राज्य परस्पर के कलह के कारण ही नष्ट हुआ है ।
-
नीतिकार का कथन है
कलहान्तानि हम्र्म्याणि कुवाक्यान्तं च सोहृदम् । १
कुवचन से मित्रता का नाश हो जाता है, और कलह से कुटुम्ब का क्षय । जो भारत सोने की चिड़िया कहलाती थी, और जहां बड़े-बड़े पराक्रमी राजा हुए, वह भारत भूमि म्लेच्छो, अनायों और मुसलमानों के पैरों से क्यों रोंदी गई ? यहां का वैभव क्यों लूटा गया ? यहां के स्वर्ण-रत्नजटित मंदिरों की पवित्र मूर्तियां क्यों तोड़ी गई और क्यों लाखों हिन्दू मुसलमान बने ? क्यों हिन्दुओं का रक्त वहा और उनकी सभ्यता, संस्कृति, धर्म, भक्ति पूजा आक्रमणकारियों के पैरों से क्यों कुचली गई ? सिर्फ एक ही कारण है— आपस का कलह ! फूट ! आपस के कलह से, द्वेष से कुछ हिन्दुस्तानी वीरों ने विदेशी आक्रमणकारियों को बुलाया, उन्हें सहयोग दिया - और एक दिन वे नाकांता उन्हीं को, उनके बंधुओं को दास बनाकर हत्या करके मालिक बन बैठे |
जैन शासन जो एक दिन महान तेजस्वी धर्म शासन था । आज कितने टुकड़ों में बंटा है ? कितने गंप्रदायों में गुण्डा हो रहा है? उसका प्राचीन गौरव कहां लुप्त हो गया ? उनका कारण यही है- परस्पर का कलह ! साधुओं का कलहू ! श्रावकों का कलह ! इसी से जैन धर्म के टुक टुकड़े हो गये ! ओगवान जाति छिन्न-भिन्न हो गई ।
१ पंचतंत्र २०७३
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भिक्षाचरी तप
२३१
फिर वह 'तप' या 'धर्म' कैसे हो सकती है ? भिक्षावरी 'तप' तभी हो सकती है जब वह नियम पूर्वक, पवित्र उद्देश्य से और शास्त्रसम्मत विधि-विधान के साथ ग्रहण की जाय ! 'भिक्षाचरी तप' में हमें भिक्षा के समस्त अंगों पर विचार करना है । शास्त्र में उसको क्या विधि है, क्या उद्देश्य है इस पर भी चिन्तन करना है !
भिक्षा के तीन भेद
सकते हैं ।
पात्र और उद्देश्य की अपेक्षा से मिक्षा के अनेक भेद किये जा जैसे एक दरिद्र भिखारी भी रोटी मांगता है—घर पर घूमता है, और एक त्यागी तपस्वी श्रमण भी आहार की गवेषणा करता हुआ ऊंच-नीच कुलों में 'भ्रमण करता है, तो क्या इन दोनों को शिक्षा कभी एक कोटि में आ सकती है ? नहीं ! दोनों भिक्षुक होते हुए भी उनकी वृत्ति में आकाश पाताल का अन्तर है - जैसे- "आक दूध - गाय दूध अन्तर घनेरो है," आक के दूध में और गाय के दूध में महान अन्तर है, होरे और कांच के टुकड़े में बहुत बड़ा फर्क है वैसे ही इन भिक्षुकों को भिक्षावृत्ति में बहुत अन्तर है ! आचार्य हरिभद्र ने तीन प्रकार की भिक्षा बतलाते हुए कहा है
सर्वसम्पत्री चंका पौरुपनी तथापरा । वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञं रिति भिक्षा प्रिपोदिता । 1
भिक्षा तीन प्रकार की है- दीनवृत्ति, पीपन और सम्प। जो नाव वर्षाग, आपस्त दरिद्र व्यक्ति मांगकर जाते है, वह न वृद्धि भिक्षा है। जो श्रम करने में राम होकर होकर भी काम से जी पुराकर भागकर गाते है, कमाने की शक्ति होते हुए भी मांग 'पोनी' भिक्षा है अर्थात् पुरात्य का नाश करने वाली है। ऐसे रामु में देश के भार है। जिनकी मांग को पट जाती है, और मांगने मे हो पेट भर जाता है ऐसे आदमी भी मत करना नहीं चाहते। मेगे बाद यह है--या मिले दाणा का करेगा ना ?" मांगने से हो जय पेट जाता हैवी चया की नया सरकार हमारा नया विवाह
सदका प्रमाण
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भिक्षाचरी तप
तप के बारह भेदों में 'भिक्षाचरी' तीसरा तप है । भिक्षाचरी का अर्थ है-विविध प्रकार के अभिग्रह, (नियम संकल्प आदि) करके आहार पी गवेपणा करना । .भिक्षा का सीधा अर्थ होता है-याचना, मांगना । किन्तु सिर्फ मांगना भात्र तप नहीं होता। अनेक भिखारी दर-दर हाथ फैलाते हैं, सोली पसारे घूमते हैं, "अम्मा ! दो पैसा दे दे, बाबू ! कुछ देते जाओ!" शहरों में चारों और इस प्रकार की गुहार-पुकार सुनाई देगी। सहनों पर, स्टेशनों पर, रेल में कहीं भी जामो भिखारियों की फोज मांगती-हुई, दीनता पूर्वर याचना करती हुई दिखाई देगी, क्या ये भीख मांगने वाले भी निशाना है ? इनकी भिक्षा वृत्ति क्या भिक्षाचरी तप है ! नहीं ! यह तो उल्टा पाप है, ! मास्त्र में कहा है आदीणवित्ति यि फरेइ गवं' जो दीनता पूर्वक भिक्षा मांगता है, वह भी पाप करता है। इसलिए दीनतापूर्वक, असंयम को और लिप पेट भरने की लानमा से जो भिक्षा मांगता है, उस निक्षा को वासव में 'मिसा' नहीं, 'भीम' गहना नाहिए ! यह तो अशान निम्नस्तर की है,
१ मून गतांग ११०१६
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भिक्षाचरी तप
इस शब्द पर जैनाचार्यों ने बहुत ही व्यापक रूप से विचार किया है और गाय की चर्या का आदर्श भिक्ष के लिए बताया है । भाचार्य जिनदास और हरिभद्र नादि से विश्लेषण पर से स्पष्ट होता है कि जिस प्रकार गाय अच्छी-बुरी घास का भेद किये बिना एक और से दूसरी ओर तक चरती हुई चली जाती है, वह किसी प्रकार शब्द, रस आदि विषयों में आसक्त न होकर सिर्फ उदरपूर्ति करने के लिए गामुदानिक रूप से घास चरती है,
और वह भी बन की हरियाली को नष्ट किये विना, उसे जड़ से बिना उसाड़े सिर्फ ऊपर-ऊपर से थोड़ा-थोड़ा साती है। इसी प्रकार मुनि सरस और नीरस आहार का विचार किये विना सामुदायिक रूप से भिक्षा के लिए चलता है। कोई राजा या सेठ का पर आ गया तब भी और किसी गरीव का पर आ गया तन्त्र भी सभी घरों से, थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण कर लेता है,
और स्वादिष्ट आहार आदि में मारा हुरे दिना सिर्फ संयम यात्रा के निर्वाह के लिए ही लाहार प्रहण करता है। इसलिए मुनि गोल निक्षा विधि को 'गोनरी' कहा गया है।
शास्त्रों में जहां भी मुनियों पी भिक्षा विधि का वर्णन आता है वहां . काही बाब सामने आता है रि--
उच्चनीयमनियम फुला अरमाणे उन, नीन और मध्यम गुलों में समान भाव से भिक्षा मारते हुए विगरते हैं । इसका अर्थ या नहीं है कि निक्षा कन-नीन शुन-अनुन मा । विमाको नरमे को भी पर चीन में आ जाये में प्रदेश पार जायेमागोमाको नाक धिरन है, विवेकहीन लिया है। सागर गर मामा- िान करतो पानि को या भी जानना गामि पिनमा परगोनमा कुरा मि मा मगित ?
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जैन धर्म में तप सकती है ? और आश्चर्य की बात तो यह है आज कल ऐसे पुरुषत्व हीन मांगखोर व्यक्ति संसार में जिधर देखो उधर ही फैले हुए दिखाई देंगे। बड़ेबड़े शहरों में तो मांगना भी एक व्यवसाय बन गया है। सुबह से शाम तक मांग कर कोई पांच रुपये कमा लेता है, कोई दस ! ऐसे मंगते पेट भर कर खाते भी नहीं, मांग-मांग कर जमा करते जाते हैं। तो इस प्रकार की भिक्षा - वृत्ति 'पौरुपघ्नी भिक्षा' कहलाती है।
भिक्षा का तीसरा रूप है-सर्वसम्पत्करी । जो त्यागी अहिंसक, संतोपी । श्रमण आदि अपने उदर निर्वाह के लिए माधुकरी वृत्ति से गृहस्थ के घर में सहज भाव से बना हुआ शुद्ध आहार ग्रहण करते हैं, और आहार की निर्दोष विधि से उसे खाते हैं, उन मुनियों की भिक्षा-सर्वसम्पत्करी भिक्षा है अर्थात् वह 'भिक्षा देने वाले और ग्रहण करने वाले दोनों का ही कल्याण करने वाली है । 'सर्वसम्पत्करी' भिक्षा देने वाला, और लेने वाला-दोनों ही सद्गति में जाते हैं-वो वि गच्छंति सुग्गइ।
भिक्षाचरी, जिसे तप कहा गया है, वह यही सर्वसम्पत्करी भिक्षा है । यह धर्म की आराधना करने वाली और मोक्ष की साधिका है।
गोचरी और माधुरी "भिक्षाचरी' को शास्त्रों में कहीं-कहीं गोचरी 'माधुकारी और कहीं वृत्तिसंक्षेप' कहा गया है। ये सभी शब्द भिक्षावरी के उच्च बादशं को बताते हैं । उत्तराध्ययन, दशवकालिया, और आचारांग आदि आगमों में 'गोपर' शब्द का ही अधिक प्रयोग हुमा है । दशवकालिक में इसे गोगरग'-- . गोचरा' कहा है । मोनर शब्द का अर्थ है-गाय की तरह चरना, भिक्षाटन करना।
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१ दशवशालिग १०० २ दवालिय. ५॥१॥३
(स) उत्तरा ३०२५ ३ गोरिच करणं गोचर :--उत्तमाधममन्यमगुले प्यराताहिष्टम्म मिक्षा.
टनं- हारिभद्रीय टोला, पत्र १६३ ।। (ग) गोरिख नरम गोपोनहा महादिसु अमुनियो-अगस्यमिदमूणि
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भिक्षाचरी तप
जहा दुमस्स पुप्फेतु भमरो आवियइ रसं ।
न य पुर्फ फिलामेइ सो य पोणेइ अप्पयं । जैसे भ्रमर फूलों पर घूमता हुआ थोड़ा-थोड़ा उनका रस पीता जाता है, फिर उड़ जाता है, और फिर किसी अन्य फूल पर जाकर उराका घोड़ा सा रस पी लेता है । इस प्रकार थोड़ा-घोड़ा रस पीकर वह स्वयं भी संतुष्ट हो जाता है और फूलों को भी कोई हानि नहीं पहुंचाता। इसी प्रकारमहगारसमा बुद्धा-मधुकर के समान विद्वान मुनि होते हैं, वे गृहस्य के घर में सहज रूप में बने हुए भोजन आदि में से थोड़ा-थोड़ा ग्रहण कर अपना जीवन निर्वाह भी कर लेता है और गृहस्थ को भी कोई नाप्ट नहीं होता। नियुक्तिकार आचायों ने बताया है-जैसे तृण के लिए वर्षा नहीं होती, हरिण के लिए तृण नहीं बढ़ते, मधुनार आदि के लिए पुष्प आदि नहीं पालते, वैसे ही साधु के लिए गृहस्थ के घर में भोजन नहीं बनता । अर्थात् जैसे पर्या, तृण और फल-फूल अपने सहज रूप में होते हैं बसे ही गृहस्व को घर में भोजन भी सहज रूप में बनता है. उस भोजन में से मधुकर पी भांति श्रमण घोड़ा सा अन्न महण कर लेता है। श्रमण को यह पत्ति माधुकरी वृत्ति पहलाती है। मधुगार और गौ का आदर्श सामने कर जो भिक्षा की जाती है। वही भिक्षाचरी, गौरी और माधुकरी वृत्ति कालाती। मधुकार को यह यत्ति न मंचन जैन परम्परा में हो, अपितु बौर परम्परा में एनं वैदिक परम्पया में भी लापा भिक्षा विधि मानी गा
त्तिसंक्षेप मिक्षापरी का एक नाप है यत्ति संक्षेप । नाम अपने माय में नाम । गोवरी में मन किन भार प्राप्त नही हो सकता। कभी गर्म थाहारी बताने पर नागी झाल: मिल सकती .
राहिम
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.
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(7) मधमान
जिपमः।
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... जैन धर्म में तप पडिफुटें फुलं न पविसे, मामगं परिवज्जए,
अचियत्त कुलं न पविसे चियत्त पविसे कुलं । प्रतिक्रुष्ट-अर्थात् निन्दित, जुगुप्सित और गर्हित कुल में कभी प्रवेश नहीं करना चाहिए ।' जो कहे कि - मुनि ! मेरे घर में मत आना, उस निपिद्ध घर में भी नहीं जाना चाहिए ! जिस घर में जाने से घर मालिक को संदेह हो कि यह साधु कहीं गुप्तचर बनकर तो नहीं आया है, ऐसे कुल : में तथा जहां जाने से गृहस्थ के मन में साधु के प्रति अप्रीति उल्टा पभाव बढ़े कि कहां से आ टपके ! क्यों आ गये ! वैसे घरों में भी नहीं जाये । जहां . जाने पर प्रीति, सद्भाव और शुद्ध भोजन की प्राप्ति हो सके ऐसे ही कुलों में जाना चाहिए। - हां, तो यह विवेक तो भिक्ष को रखना ही चाहिए ! बिना सोचे-समझे किसी के घर में घुस जाना तो अनर्थकारी हो जाता है। आप कहेंगे फिर क्यों शास्त्रों में स्थान-स्थान पर यही पद दुहराये गये हैं ? इसका समाधान है--कि ऊँच-नीच-मध्यम कुल में भिक्षाटन करे। यह नहीं कि किसी बड़े सेठ के घर से तो भिक्षा ले आये, मिष्ठान्न से पात्र भर लिये, गरीब घर मेंजहां सूखी रोटी मिलने की आशा होती है उसे छोड़ दिया । भले. ही विचारा गरीब पलक पांवड़े बिछाये साधु जी के आगमन की राह देखता है । सामु. दानिक गोयरी का अर्थ यही है कि साधु रस की, स्वादिष्ट भोजन की लोलुपता से रहित होकर समभाव के साथ भिक्षाचरी करे, और थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करके गोचरी करें, न कि गधाच री ! जहां पड़े मूमल वहीं येम . कुशल-ऐसी बात न करें।
गोचरी के इस आदर्श को माधुकरी वृति में भी तोला गया है। श्रमण को मधुकर 'भंवरे' की उपमा दी गई है। दशवकालिक में कहा है -
२ प्रतिष्ट मल दो तरह के होते हैं-मृतक और मृतक के घर अलगालियः प्रतिष्ट तथा सोम मातंग आदि पावकालिक - गर्दा प्रतिरप्ट ! निकि मग सूत गादि, भावरहि अमोजा डायमायंगादी।
-- जिनदास यूनि, प० १७४
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भिक्षाचरी तप होती है, वही भिक्षा भिक्षु के लिए ग्राह्य होती है । वास्तव में तो भिक्षा वही है जो सहज ही गृहस्थ के घर में प्राप्त हो जाय ! भिक्षु के लिए बनाया हुमा, खरीद कर लाया हुआ भोजन आदि भिक्षा नहीं, उपहार बन जाता है। अतः भिक्षाचरी करने वाले श्रमण को इस प्रकार के निर्दोप आहार की ही ऐपणा करनी होती है जो वास्तव में भिक्षा हो, भिक्षा के नियमों के अनुकूल हो।
भिक्षा के दोष भिक्षु को जो कुछ भी मिलता है वह सब भिक्षा के द्वारा ही मिलता है, अर्थात् मांगा हुआ ही मिलता है। मांगना-याचना भिक्षु को विधि है। इसलिए शास्त्र में कहा है
सव्यं से जाइयं होइ नत्यि फिचि अजाइयं ।' भिक्षु के पास जो कुछ भी है, यह गाव याचित - अर्थात् भिक्षा से प्राप्त किया हुआ है । न सगैदा हुआ है, ने अपने घर से दीक्षा लेते समय कुछ साथ में लेकर आया है। भविष्य में भी जो कुछ आवश्यकता होगी वह भी मांगने पर-दूगरों को सामने पाय या हाथ पसारने पर ही मिलेगा ! और दूसरे के सामने हाय पसारना-मांगना सरल नहीं है। "पाणो णो सुप्पसारए अत: मांगना एक परीपह है, काट है।
यहत से लोग कहते हैं साधुओं को गया, उन्हें तो मांगा हमा मिलता है।
ज्यां में मांगा मिले माल
त्यां ने फाई पामोरे नात! किया मान जाते कि गांगना जितना कठिन माविमला -पर जाय मांग नहीं मिज देहो रे फाज !
अपने लिए मांगने से हो पर माया . शिरमाए नाममा मोवाद मांगना ही नहीं हैं, जिनमक और
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kayin
जैन धर्म में तप
I...
मधुर आहार की आवश्यकता होने पर रूखा सूखा नीरस ! किन्तु साधु उसी में संतोष करता है, अपनी इच्छा का, वृत्ति का संकोच करता है, मन का तथा स्वादेन्द्रिय का निग्रह करता है, जैसा भी मिल गया उसी में संतुष्ट होता है मन इच्छित वस्तु के न मिलने पर शोक नहीं करता -
ल पिण्डे अलद्ध वा णाणु तप्पेज्ज पंडिए '
इस प्रकार उसे अपनी वृत्तियों का कठोर संयम करना होता है. इस कारण इसे 'वृत्ति संक्षेप' भी कहा है ।
वास्तव में भिक्षा एक पराश्रित चर्या है, दूसरे की इच्छा और रात्रि के अनुसार बने भोजन में ही स्वयं को प्रसन्न रखना होता है, इसमें स्वादविजय की साधना करनी होती है । भिक्षावृत्ति का उद्देश्य भी यही है कि रसइच्छा - ( स्वादवृत्ति को जीत कर जीवन यात्रा करना:
जायाए घासमेसेज्जा रस गिद्ध न सिया ।
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रस को आसक्ति छोड़कर संयम यात्रार्थं आहार की गवेषणा करे, उस कारण इसका 'वृत्तिसंक्षेप' नाम भी सार्थक है ।
नव फोटि परिशुद्ध भिक्षा यह बताया जा चुका है कि भिक्षा गाय के समान समभाव पूर्वक और मधुकर के समान दूसरों को बिना कष्ट दिये अल्प रूप में ग्रहण करनी चाहिए। तथा स्वादविजय करके ही भिक्षाटन के लिए निकलना चाहिए। इस प्रकार जैन धर्म में भिक्षा को बहुत ही आदर्श, विशुद्ध और पूर्ण अहिंसक रूप में प्रस्तुत किया गया है। भगवान महावीर ने कहा है कि-- भिक्षु को ऐसी भिक्षा लेनी चाहिए जो नवकोटि परिशुद्ध हो, अर्थात् पूर्ण रूप से महि हो, भिक्षू, भोजन के लिए न स्वयं जीवहिंसा करें, न करवाएं और न करते हुए का अनुमोदन करें । न वह स्वयं अन्न आदि पकाये, न पवाए और न
ते हुए का अनुमोदन करे तथा न स्वयं मोल लें, न लिवाए और न लेने या का अनुमोदन करें। इन विधियों से विशुद्ध अर्थात् निर्दोष जो भिक्षा
१ उत्तराध्ययन १३०
ફ્ उतराध्ययम १११
गोष्टि परिमुळे नित..... स्यानांग दा
San
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मिक्षाचरी तप के समय गृहस्य के द्वारा लगने वाले दोष । अतः इनका निमित्त गृहस्य होता है।
१ आहाफम्म-माधाकर्म-साधु के लिए बनाना। २ उद्देसिय-औद्देशिक-सामान्य याचकों के लिए बनाना । ३ पूइफम्म-पूतिकर्म---शुद्ध आहार को आधाकर्मादि से मिश्रित करना। ४ मीसजाय-मिश्रजात-अपने और साधु के लिए एक साथ बनाना । ५ ठवणा-रथापना- साधु के लिए अलग निकाल कर रख देना । ६ पाहुडिया-प्राभृतिका--साधु को गांव में लाया जानकर उन्हें विशिष्ट
भोजन बहराने के लिए जीमणवार, पाहुने आदि का
समय आगे-पीछे करना। ७ पाओयर---प्रादुष्करण-अंधकार युक्त स्थान में दीपक आदि का
प्रकाशकर भोजन भादि देना। ८ फीय-गीत-माधु के लिए खरीदना । ६ पामिच्च-प्रामित्य -- साधु के लिए उधार लाना । . १० परिय टिब-परियतित-साधु के लिए बाटा-साटा करना। ११ अभिहट अभिहतमा के लिए दूर मे लागार देना । १२ उभिन्न उभिन --लिप्त पाम का मुह सोलकर पृत आदि पेना । १३ मालोहड़-मालापहत----पर पी मंजिल से या छीके वगैरह से
मोदी भादि से उतार कर देना। १४ अधिग्ज-आन्दर-दुयन ने छोग पार लगा। १५ मिसिह-अनिलष्टमा की चौ बिना दूसरे साथी की मात्रा
देना। १६ अशोरय-
साधु गो गांव में आया जानकर अपने लिए बनाये जाने वाले भोजन में और अधिरः यहा देना। न आ ने बहा योप माना गया के लिए मनाया. TET HTET पनाने में, में if आदि 3, TER HIT ने मामा-मामा नलिए
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E
मिल गया | मांगने पर भी यदि नियमों के अनुकूल मिले तो लेवें, अन्यथा खाली हाथ लौट आवे । साधु की 'मिक्षाचरी' के नियम बहुत ही कठोर और बहुत ही सूक्ष्म है । उनका पूरा विचार करके ही साधु आहार आदि ग्रहण करता है । और वैसी भिक्षाचरी ही तप कहलाती है। यहां पर हम आगमों में वर्णित भिक्षाचरी के दोषों की कुछ चर्चा करेंगे ताकि उसका असली स्वरूप परिज्ञात हो सके ।
साधु जो भिक्षा की याचना करता है, उसे 'एपणा' कहते हैं । 'एंपणा' में तीन शब्द आते हैं
जैन धर्म में
गवसणा- गाय की भांति आहार प्राप्त करना ।
ग्रहणपणा - ग्रहण करते समय उसकी शुद्धाशुद्धि का विवेक रखना ।
परिभोगेपणा - आहार करते समय भोजन के दोष टालकर समतापूर्वक प्राप्त आहार का भोग करना ।
गवसणाए गहणे य परिभोगेसणाय य । आहारोवहिसेज्जाए एए तिनि विसोहए || उग्गमुप्पायणं पढमे बीए सोहेज्ज एसणं । परिभोयम्मि चउक्कं विसोहेज्ज जयं जई ॥
इन तीनों एपणाओं का वर्णन करते हुए उत्तराध्ययन में बताया गया है.
उत्तराध्ययन २४|११-१२
तप
आहार, उपधि, शय्या आदि प्राप्त करते समय भिक्षु गवेपणा, ग्रहणपणा ओर परिभोगपणा की शुद्धि का विवेक रसे । उद्गम के, उत्पादन के, एणा के और परिभोग के जो-जो दोष हैं उन्हें सर्वथा दूर करता हुआ विशुद्धरीति से गोचरी करें |
(१) १६ उद्गम दोद े उद्गम दोष का अर्थ है आहार को उत्पत्ति
१
२ वाहक मुद्देसिय
कम्मे व नीसजाए व ।
aar genre पालोयर की पामि ॥ उभिन मानोहटे इय ।
परिषट्टिए अभि अरिने अनिमिट्ठे
मे ||
-निवृक्ति ६२
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भिक्षाचरी तप
१४ चूर्ण---चूर्ण, अंजन आदि से वशीकरण करके लेना। १५ योग-आहार के लिए सिद्धि आदि योग-विद्या का प्रदर्शन करना । १६ मूलकर्म-गर्भस्तंभ आदि गृह्य प्रयोग बताकर आहार लेना।
(३) १० ग्रहणपणा के घोष ये दोप आहार ग्रहण करते समय लगते हैं । इनमें साधु और गृहस्थ दोनों की मिली-भगत रहती है । अर्थात् गृहस्य की ओर से भी ये दोष लगते हैं और साधु की ओर से भी, अतः इन दोपों के निमित्त दोनों ही हो सकते हैं ।
१ शंपित - बाघाकर्मादि दोगों की शंकता होने पर भी आहार लेना। २ प्रक्षित-सचित्त आदि का संघट्टा होते हुए भी आहार लेना। ३ निक्षिप्त--सचित्त वस्तु पर सा हुआ आहार लेना। ४ पिहित-सचित्त वस्तु से ढंका हुआ आहार लेना। ५ संहत-पाय में पहले से रसे हुए अकल्पनीय पदार्थ को निकालकर
उसी पाम से दान देना। ६ दायक-शराबी, गभिणी आदि दान देने के अनधिकारी से थाहार
७ उन्मियसनित्त से मिश्रित आहार लेना। ८ अपरिणत--- पूरे तौर पर पके बिना अपाय शाकादि लेना। है लिप्त-दही, पृत बादि से लिप्त होने वाले पाम या हाय ने आहार
लेना ! लिप्न हाथ पहले (सचिन पानी में) होने के कारण पुरमा दीप और बाद में धान का कारण मनातम और
१० जति छोटे नीचे पहले हो, ऐसा आहार लेना ।
मिमानिस सायमी।
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जैन धर्म में तप साधु की भिक्षाचरी का पहला नियम है कि वह अपने लिए बना हुआ माहार न लें । शास्त्र में तो यहां तक बताया है कि आधाकर्म आहार का एक कण भी यदि किसी भोजन में मिश्रित हो गया है तो वह आहार भी साधु न लें। ...
(२) १६ उत्पादन दोप---ये १६ दोष भिक्षा ग्रहण करते समय साधु की ओर से लग सकते हैं । इनका निमित्त मुनि ही होता है। १ धात्री --धाय (माया) की तरह गृहस्थ के वालकों को खिला-पिलाकर .
हंसा-हंसा कर आहार लेना। २ दूती-दूत के समान इधर-उधर संदेश पहुंचाकर आहार लेना। ३ निमित्त-शुभ-अशुभ निमित्त (ज्योतिष) बताकर आहार लेना। ४ आजीव-अपनी जाति, कुल आदि वताकर आहार लेना। ५ वनीपफ - भिखारी की भांति गृहस्थ की चापलूसी करके आहार लेना। ६ चिकित्सा-आहार प्राप्त करने के लिए औषधि आदि बताना । ७ फ्रोध--गृहस्थ पर क्रोध करना या शाप आदि का भय दिखाकर
आहार लेना। ८ मान-अपना प्रभुत्व जमाकर, शेखी बघारकर आहार लेना। ६ माया--किसी प्रकार का छल कपट रचकर आहार लेना। १० लोभ-सरस भोजन की लालसा से घूमते रहना। ११ पूर्व पश्चात् संस्तव-दान दाता के माता-पिता या सास-श्यतुर आदि
से अपना परिचय बताकर भिक्षा लेना। . १२ विद्या-आहार के लिए किसी प्रकार की विद्या मादि सापना यताना
मरवा उनका प्रयोग करना । १३ मंत्र-मंत्र प्रयोग द्वारा आहार लेना।
१ धाई दुई निमिते माजीय वणीमगे तिगिच्छा य ।
मोर माणे माया लोमे य हपंति दस एए । पनि पच्छा मुंगविज्जा मते प सुनोगे । उपायमा दोला सोलन में गूलकम्मै २ ॥
-मिनियंक्ति ४०८-४०९ .
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मिक्षाचरी नप
२४३, .
कार्य में कुछ भी तपस्या नहीं करनी पड़े, मन, वचन आदि का संयम व निग्रह करने का अवसर भी न आये वह कार्य 'तप' कैसे हो सकता है ? वैदिक परम्परा में तो आधाकर्म, औद्देशिक आदि जैसे शब्द भी नहीं मिलते हैं, किन्तु बौद्ध परम्परा जो कि श्रमणों की ही एक परम्परा है और भगवान महावीर के समय में हो जिसका विकास विस्तार हुमा, उसमें भी ऐसे नियम नहीं हैं । बौद्ध ग्रन्थों को पढ़ने से ज्ञात होता है कि वहां भी भिक्षु के लिए बनाया हुआ, खरीदा हुआ, लाया हुमा, नादि आहार ग्रहण किया जाता था। एक बार सिंह सेनापति ने बुद्ध को संघ सहित निमंमित किया था और बाजार से मरे हुए पशुओं का मांस मंगवाचार उन्हें भोजन दिया था। इसी प्रकार का एक और उल्लेख है कि एक तरुण श्रद्धालु महामात्य ने बुद्ध सहित भिक्षा संघ को निमंत्रण दिया । युद्ध के साथ साड़े बारह सौ भिक्ष, ये मत: उसने लादे बारह सौ गालियां तैयार करवाई और आने पर प्रत्येका भिमा को एस-एक बानी परोसी ।
इन संदर्भो से मात होता है कि बौद्ध भिक्षा आधाकर्म, औद्दे शिका, अभिहत आदि दोषों को नहीं टालते थे। भिक्षा के विषय में इतना गहरा और सूक्ष्म चिंतन सिर्फ जैन धर्म में ही किया गया है। भिधा के विषय में सूक्ष्म से सूक्ष्म हिंसा को नहीं टाला गया है । यहां तक कि भिक्ष, के निमित्त बनाया दबा तो दूर, किन्तु अपने लिये बनाये हुए भोजन में यदि को हिस्सेदार हो, उनमें से एक मोठा हो कि मैं मुनि को भिक्षा। यह मुनि से माना गरे कि.महाराज ! भिक्षा लीजिए। किन्तु मूसा यदि देना ने . पानोर उनका मन भिक्षा देने में पाप पाता हो तो मुनि को पाहिए हि यह बार भी न लें । महिऐगा करने से एक के बाद में लोग, भपक्षा पपीता को भी है, जो कि हा प्रकार की महिमा की।
mom
1 f ire, ream २ Fram feer : मान
१८२४४ ५, पुष्ट २६५
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..
जैन धर्म में तप
मिक्षावरी के इन ४२ दोपों का वर्णन मूल आगमों में एक स्थान पर नहीं मिलता है | कुछ दीपों का वर्णन आचारांग, कुछ का दशवेकालिक, उत्तराध्ययन, तथा प्रश्नव्याकरण एवं भगवती सूत्र आदि में अलग-अलग आता है | आगमोत्तरकालीन ग्रंथों में जैसे पिंड नियुक्ति, प्रवचन सारोद्वार, आवश्यक वृत्ति आदि में एक स्थान पर भी प्राप्त होता हैं ।
२४२
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परिभोगपणा (ग्रासपणा) के संयोजना, अप्रमाण, अंगार आदि पांच दोप बताये गये हैं, उनका सम्बन्ध भिक्षाचरी से उतना नहीं है जितना कि आहार विधि ( रसवृत्ति) से हैं, अतः हमने उनका वर्णन रस परित्याग के अन्तगतं यथाप्रसंग कर दिया है ।
इसी प्रकार भगवती सूत्र (७११ ) में क्षेत्राविक्रांत, कालातिकांत आदि भिक्षा के चार दोप बताये हैं । उनका सम्बन्ध ऊनोदरी तप से बैठता है । अतः उसी प्रसंग में चारों का वर्णन किया गया है ।
श्रमण सूत्र के गोचरचर्या सूत्र में भी गोचरी के अनेक दोष और विधियों का सूक्ष्मवर्णन किया गया है । विस्तार के लिए पाठक (श्रमण सूत्र : विवेचन उपाध्याय अमरमुनि) देख सकते हैं ।
इस तरह उद्गम, उत्पादन और एपणा के दोषों को कुल संख्या बयालीस होती है । ये बयालीस दोप 'भिक्षाचरी' के हैं। इन दीपों को टालकर विवेक पूर्वक भिक्षा ग्रहण करना - शिक्षाचरी है ।
पाठक कल्पना कर सकते हैं कि जैन मुनि की भिक्षा के सम्बन्ध में कितने नियमोपनियम बनाये गये हैं, भिक्षा की विधि कितनी कठोर और विवेकपूर्ण है। भिक्षा विधि के सम्बन्ध में इतना गहरा विवेचन अन्य किसी श्री भिक्षुक परम्परा में नहीं मिलेगा । निक्षा लेना तो वैदिक एवं बौद्ध परम्परा में भी विहित है, किन्तु वहां भिक्षा के नियम बहुत मस्त है। यहां पर इस प्रकार के ४२ दोषों को, नवकोटि विशुद्धि को कोई भी नहीं है । यस भिक्षुक ने याचना को, दाना ने जैसा भी, जहां से भी लाकर दे दिया, भिक्षुक ने ग्रहण कर लिया। इस प्रकार की भिक्षा बहुत ही आसान है, इसी कारण हम भिक्षा को 'तप' कहा भी
,
है।
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भिक्षाची तप
२४५ इस माहार को लेने से पश्चात्कर्म आदि दोप तो नहीं लगेगा ? यदि मेहमान आदि के लिए बनाया हो तो लेने से उन्हें कमी न पड़ जाय जिससे दुबारा बनाना पड़ेगा उन्हें बुरा लगे, तो वह आहार भी न लेथे। किसी गर्भवती स्त्री के लिए बनाया हो, और वह सा रही हो तो उसका भोजन भी नहीं लेवे ।२ गरीबों और भिखारियों को देने के निमित्त बनाया हो तो वह आहार भी भिक्षु के लिए अकल्पनीय है । दो साझीदरों का हो और दोनों की पूर्ण सहमति न हो तो वह भी न लेवे ।
इस प्रकार प्राप्त आहार को भागम के अनुसार भी एपणा करें और व्यवहार के अनुसार भी। साधु का उद्देश्य सिर्फ भिक्षा लेना, पान या पेट भरना माम नहीं है, किन्तु शुद्ध और निर्दोष भिक्षा मेना है, यह मुद्ध भिक्षा मिले तो लेयें, न मिले तो अदीन भाव के साथ पुनः गगाली लोट आये ! यह न सोने कि देखो, गौसे लोग हैं ? कसा गांव है कि यहाँ भिक्षा ही नहीं मिलती ? प्रकार का संकल्ल भिक्षु मन में हो न लावे । किन्तु यह सोने किलो, कोई बात नहीं, आज भोजन न मिला तो तपस्या का ही प्रसंग प्राप्त हुआ। किन्तु अपने आचार में किसी प्रकार का दोप न आने दे !
भिक्षा का फाल जिसमा महत्व और नीरज जैन श्रमण को मिला का है, ना ही उनकी विधिमा विधिपूर्वक समय पर किया गया काम ही सरानीमा है। यदि मोसमय मुका मार दिया जवि मोजागी प्रकारे
मान लीनिया होगी। इसीलिये महावत है..."समय का हमा गोता .ममा पाने पर नारा मामी को होगा ।
मलों में आमिर को निगम शामिनाये उनका मान भी
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२४४
जैन धर्म में
तप
दोन्हं तु भूजमाणाणं एगो तत्थ निमंतए । दिज्जमाणं न इच्छेज्जा छंद से पडिलेहए ।'
-दो स्वामी या भोक्ता हो, वहां एक मुनि को भिक्षा के लिए निमंत्रित करे, तब मुनि दूसरे के अभिप्राय को भी देखें, यदि उसे देना अप्रिय लगता हो तो मुनि उस भिक्षा को ग्रहण न करे ।
मिक्षा के अन्य नियम
मुनि को भिक्षा के सम्बन्ध में जैनसूत्रों में स्थान-स्थान पर बहुत ही विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। आचारांग (२१) प्रश्नव्याकरण ( संवर द्वार १.१५ ) भगवती मूत्र ( ७११) उत्तराध्ययन (२६) दशवेकालिक (५) तथा निशीथ आदि सूत्रों में भिक्षाचरी के अनेक विधि-निषेधों का बड़ा ही सूक्ष्म वर्णन प्राप्त होता है । आचारांग दूसरे श्रुतस्कन्ध का प्रथम अध्ययन और दशवैकालिक का पांचवां अध्ययन तो विशेष रूप से भिक्षा विधि के वर्णन से ही भरे हैं । इस कारण इनका नाम भी 'पिंडेपणा अध्ययन' प्रसिद्ध हो गया ।
वृहत्कल्पसूत्र के प्रथम उद्देशक में बताया है कि- भिक्षा के लिए जाने से पहले कामोत्सर्ग करना चाहिए । इस कायोत्सर्ग-ध्यान में यह विचार करना चाहिए कि "आज मैंने कौनसा आयम्बिल, नोवी आदि व्रत से रसा है, मुझे कितना आहार लेना है, कैसा आहार करने का मेरा नियम है ?" इस प्रकार का चिन्तन साधक को भिक्षा के लिए जाने से पहले सावधान कर देता है कि आज मेरा अमुक संकल्प है, अतः अमुक प्रकार का रंग, विग आदि नहीं लूंगा । और सादा भोजन भी अमुक मर्यादा के अनुसार होगा। दवैकलिक में बताया गया है, कि मुनि आहार के लिए जाये तो
के घर में प्रवेश करके वह शुद्ध आहार की गवेषणा करें, सर्वप्रथम यह यह जानने का प्रयत्न करे कि यह बहार शुद्ध और निर्दोष है
१ मलिक ३७
०५४।११२७
(स) --सोना विजयही ११५६
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भिक्षावरी तप
२४७ गया है। प्राचीन समय में भगवान महावीर के निप्य जिस समय भिक्षा करते थे उसका वर्णन भी सूत्रों में आता है। उत्तराध्ययन सूत्र के समाचारी प्रकरण में बताया गया है ..
पढम पोरिसि सज्झायं चीयं क्षाणं शिवाय ।
तइयाए भिक्खापरियं पुणो चउत्योइ सन्सायं ।' मुनि पहले प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे प्रहर में ध्यान करे, तीसरे प्रहर में शिक्षा के लिए जाये और चौधे प्रहर में पुनः स्वाध्याय करें!
इस विधान के अनुसार तो मिक्षा का काल तीसरा पहर ही है। तो गया लाज भी यही काल मान्य है ? इस प्रश्न के समाधान में हमें आगमों की मूल भावना को देखना चाहिए ।
प्राचीन गाल गो नागरिक जीवन की जो विधि मिलती है, उसके अनुसार उस समर भोजन का समय प्राय: मध्यान्होत्तर साल ही था । आम भी अनेक प्रदेशों में १२-१ बजे के समय ही भोजन किया जाता। इसलिए होमकता है कि उस समय की प्रथा के अनुसार तीमा पहर ही भिक्षा ना मगर मान लिया गया हो!
उत्तरप्यान गो बाशि के अनुसार गाविधान जागं यिनि । "उत्सर्गतो हिनतीय पौरप्यामेय भिक्षाटनमनुजातम् ---उन विधि (सामान्य विधि) के अनुसार तीसरे पहर में ही भिक्षा मनी नाहिए। किन्तु मा बाम में यह भी कहा है--
मकानं स पिचन्जिता माले हाल सपायरे' भागना छोरालमा पर ही सब कार्य करना चाहिए। air भी मात
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जैन धर्म में तप
२४६
बताया है । किस समय भिक्षा करनी चाहिए और किस समय नहीं करनी चाहिए इसका विवेक भी साधु को रखना होता है ।
आचार्य जिनदास गणी ने चूर्णि में एक कथा प्रसंग देते हुए बताया हैएक मुनि भिक्षा का काल टालकर अकाल में भिक्षा के लिए घूमता था । उस समय घरों में कहीं चौका उठ जाता, कहीं रसोई बन्ध मिलती । फल यह होता कि मुनि भूखा-प्यासा ही खाली झोली लेकर लौट आता । एकवार उसे खाली लोटते देखकर कालचारी- (सयम पर भिक्षा करने वाले ) मुनि ने पूछा- क्यों सुने ! भिक्षा मिली कि नहीं ?
वह बड़-बड़ाकर बोला- कैसा है यह गांव ! सब भिखारी रहते हैं यहां पर ! कहीं भी भिक्षा नहीं मिली !
इस पर वह कालचारी भिक्षु बोला- मुने ! इसमें भूल तो तुम्हारी है और गांव को दोष दे रहे हो !
अकाले चरसि भिक्खु ! कालं न पडिलेहसि !
अप्पाणं च फिलामेसि सन्निवेसं च गरिहसि !
भिक्षु ! तुम समय को तो देखते नहीं हो, वैसमय में भिक्षा के लिए घूमते हो, फिर भिक्षा मिलती नहीं तो स्वयं भी सेद सिप्न होते हो और गांव को भी गालियां देते हो ! तो यह दोष गांव का नहीं, तुम्हारा ही है ।" इस कथा प्रसंग को देकर बताया गया है कि भिक्षु जिस देश में रहता हो, जहां विहार करता हो उस देश के भिक्षा काल का भी ज्ञान से और जन वहां शिक्षा का समय हो तब भिक्षा के लिए जाये !
संपत freeकाम्म असंतो अमुच्छि !
भिक्षा का समय होने पर असंधान्त अर्थात् अनकुल और अनाशल भाव मे भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए !
यह
होता है कि भिक्षा का कोई गम में नहीं बताया गया है ? उत्तर है आगमों में क्षमता
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वैधानिक प्र११११
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भिक्षाचरी तप
૨૪ सट से जैसे तैसे तैयार होकर जाने की जल्दी करता है, इधर-उधर देखता हुआ जल्दी-जल्दी जाता है इससे न पूरी ईर्या समिति देखी जाती है और न ऐपणा समिति का ही विवेक रहता है। इस कारण पहली विधि यह बताई है कि भिक्ष असंभ्रान्त-अर्थात् स्थिर चित्त हो, गंभीर होकर गजगति से धीरे-धीरे नीचे देखता हुआ भिक्षा के लिए जाये। दूसरी बात है-- अमूछित भाव रखे। आहार के प्रति आसक्ति न रखे। स्वादिष्ट माहार के प्रति गृद्ध न होकर बिलकुल अनाकुल एवं अनासक्त रहे । गृहस्थ के घर में जाये तो वहां भी शब्द, रूप, रस आदि में मूच्छित न हो। घर में गुन्दर युवतियां भी होती है, कन्याएं भी होती हैं, सुन्दर-यस्य आभूषण भी पढ़े रहते हैं। विविध पकवान, मिठाइयों से बाल भरे होते हैं, भिक्षु उनकी तरफ आं उठाकर भी न देखें। उसे तो जो वस्तु मिल रही है, बस उगी नी शुद्धाशुद्धि की गवेपणा में ध्यान रहे।
अच्छा भाव को समझाने के लिए आनायं जिन दाम ने गोयल का . सुन्दर उदाहरण दिया है । जो इस प्रकार है.---
किसी नगर में एनधनाट्य सेव था। उसने एक गाय पाल गोपी। उस गाय को एक बड़ा धा । संठ की पुत्र-वधू बछड़े की बड़ी सेवा करती, उसे अपने हाय ने मारा मालती, पानी पिनाती और सम-समय पर जानी गंगाल गती !
क बार सेट में घर में कोई उपाय ! मार मे गे महमान माये । भर में सभी लोग सलय को तमानी में और सामानों के सामनमनार में लग गर । म नि माया मा पानी भी लोमन गरें । मेह को पिलो और सुपर बातों में मजा माना स्थामा मारी । मन मार के मारे बार मामा । मी भावान गुमर मा नौलो ना ! को हिमा का नाम भी नहीं ! मोटी। इसमे । में नर नर मादी ने
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२४८
... जैन धर्म में तप चाहिए, खाने के समय खाना चाहिए और सोने के समय सोना चाहिए । देश व क्षेत्र की प्रथा बदलती रहती है, देश की प्रथा के अनुसार जव मध्याह्न . में भोजन बनता था तो भिक्षा का काल भी मध्यान्ह था, अब यदि देवा को प्रथा दूसरे पहर में भोजन बनाने की हो गई और भिक्षु फिर भी तीसरे पहर को पकड़े रहे, उसी समय भिक्षा के लिए निकले तो वह तो अकाल वर्या हो गई ! जबकि 'अकाल चर्या' को छोड़कर काल चर्या का अनुसरण करने का स्पष्ट आदेश है। इसीलिए शास्त्रों में-सेत्त कालं च विन्नाय- . क्षेत्र और काल को जानकर आचरण करने की सूचना दी गई है। इन सब बातों पर विचार करने से यही प्रतीत होता है कि जिस देश में, जिन समय लोग भोजन करते हों उस समय भिक्षा के लिए निकलना भिक्षागरी का काल है, और उससे पहले या पीछे जाना, अकाल चर्या है। ...
छेद सूत्रों में तो भिक्षा का काल सूर्योदय मे सूर्यास्त पूर्व तक बतलाया गया है, पर इनका यह अर्थ नहीं कि भिक्ष. दिन भर ही भिक्षा के लिए घूमता रहे। इसका माशय यही है कि दिन के समय में जब जहां मिक्षा की प्राप्ति का उचित समय हो, तब वहां भिक्षा के लिये जाये।
भिक्षा फी विधि मिक्षा का काल प्राप्त होने पर जब भिक्ष भिक्षा के लिये जाये तो गरी जाना चाहिये ? किस प्रकार गृहस्थ के घर में प्रवेश करना और किस प्रकार की वृत्ति रसना--यह भी एक महत्वपूर्ण बात है। शास्त्रों में इन विधी का भी बहुत विस्तार से वर्णन मिलता है।
भिक्षा में निय जातो हुए मुनि को सबसे पहले- असं तो अमुटियो - अगसांत और अन्छिन होना चाहिए । भिक्षा का समय होने पर मन नंबर नही कोना नामिनि नली, सबसे पहले गृहत्य में घर में जाकर शिक्षा ले! गुने पहले अन्य कोई भिक्ष यह न पहन जामे ! दिमाग कोई गईनगा तो वही स्वादिष्ट आहार पान आदि में जायेगा, और मो . MATो गा । इस विचार से मन में जनता बाली , मन . चन होगा मोकामादिको लीग में प्रतिमान कर
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भिक्षाचरी तप
२५१ साधु तो स्पष्ट कहता है-"मुझे भिक्षा देने वाला किसी लालचवश नहीं, कामनावश नहीं, किंतु निस्वार्थभाव से त्यागी समझकर देवें ।" इस विषय को स्पष्ट करने के लिए टीकाकार आचार्य ने एक बहुत ही सुन्दर दृष्टान्त दिया है।
मुधाजीवी एक राजा था । एक दिन उसके मन में धर्म के सम्बन्ध में जिनासा जगी कि कौन सा धर्म श्रेष्ठ है ? उसने अपने मंत्री से पूछा--मंत्रिवर ! सब धर्मों में श्रेष्ठ कौन सा धर्म है ?
तटस्वष्टा मंत्री ने निवेदन किया--"महाराज ! वैसे तो प्रत्येक धर्म गुरु अपने-अपने धर्म. को श्रेष्ठ और मोक्ष का साधन बताते हैं, किन्तु हमें इससी परीक्षा करके देखना चाहिए । धर्म को पहचान गुरु होती है, जो गुरु निस्पृह होगा, दुनियादारी में जिनका कुछ लेना-देना नहीं होगा यही गुरु उत्तम होगा, और उसका बताया हुआ गर्म सना तमा श्रेष्ठ होगा।"
मंत्रो फा .मन राजा ने गर्न उनः गया। उसने धर्म गुगओं को बुलाने के लिए नगर में घोषणा कारवाई ---"रामा सभी धर्म गुग्नी मो मोदय दान देना चाहता है, और उनगे पमं सुनना चाहता है। अन: आज भी धर्मगुम गजलमा में उपमित हो।"
रामाही घोषणा सुनकर बहुत से मंगवामा में पहुँचे । राजा में शाम उन गुटों में पूजा-~~~orm मारमा बौन नि ।
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२५०
जैन धर्म में तप पुत्रवधू की सुन्दरता और साज-शृंगार से उसे कोई वास्ता नहीं था, उसकी नजर तो बस अपने भोजन की ओर लगी, वह उसी में मस्त था।
इस दृष्टान्त के द्वारा आचार्य ने बताया है कि साधु भी गृहस्थ के घर में भोजन के लिए जाता है तो वहां विविध प्रकार के रूप-रस-शब्द आदि विषयों के आकर्षण रहते हैं, किंतु बछड़े की तरह उन रूपादि विपयों से उसका कोई लगाव नहीं होता, वह तो सिर्फ अपने ग्राह्य भोजन की ओर ही ध्यान देता है और उसे प्राप्त कर गृहस्थ के घर से लोट आता है । भिक्षु को गृहम्य के घर में जाने पर इस प्रकार आसक्त रहना चाहिए।'
भिक्षा लेते समय मुनि को गृहस्थ के सामने अपना पूर्व परिचय भी नहीं देना चाहिए कि मैं अमुक परिवार का जन्मा हूँ--मेरा अमुवा घराना है। तथा न ही दाता की स्तुति करनी चाहिए। क्योंकि ये सब चेष्टाएँ तभी होती हैं जब भिक्षु के मन में सरस भोजन प्राप्त करने का लालच होता है। भोजन की आसक्ति व रसनोलुपता ही साधक को गिराती है । इसीलिए भगवान ने कहा है-साधक जो भिक्षा में उदर निर्वाह करता है, वह भिक्षा के ऊपर ही निर्भर नहीं रहता । वह तो अपने धर्म के साधन भूत देह की पालना के लिए ही मिक्षा ग्रहण करता है । इसलिए इस प्रकार का साधक मुधाजीवी होता है। मुधाजीवी यी व्याच्या करते हुए आचार्य ने बताया है-मुहाजीयो नाम जं जाति कुलादीहिं आजीवण पिसेसेहि परं न जीवति -जो जाति, कुल आदि में सहारे नहीं जाता, उसे मुधाजीयी कहा जाता है । वह तो निस्पृहतापूर धर्म माधना और धर्मोपदेश के लिए ही जीता है, इसी उद्देश्य से भिक्षा ग्रहण - करता है। उसके मन में यह भी विकल्प नहीं होता कि भिक्षा देने वाले को अमुफलाम बताऊ या उसका अमुक या सिद्ध करादू ? अगसर लोग कहते हैं.---"जिसगी नाचे बाजरी उसकी बजाय हाजिरी" किंतु यह बात उन लोगो के लिए है जो किसी कामना से, लोग लालच मे किमी का अफगाने जो पवावे गाल पोहानंद' होते है ये भी प्रकार की युक्ति गरे । मना
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१ कालिका जिनामानि० १६७.६८ २ आनागजिनदास निदाद २० ५. .
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भिक्षाचरी तप
२५६ मुघादायी' अर्थात् किसी प्रकार की प्रतिफल की कामना के बिना १ मुधादायी का एक अर्थ यह भी किया गया है कि दाता मन में किसी
प्रकार के प्रतिफल की कामना नहीं रसे कि मैं इसे भिक्षा देता हूं तो मुझे अमुक फल की प्राप्ति हो अथवा मेरा यह कार्य भिक्षा लेने वाला सम्पन्न कर दें । इस सम्बन्ध में टीका में एक काया है
ऐक सन्यासी था । एक बार वह एक भक्त (भागवत) के घर पर पहुंचा और बोला . मैं तुम्हारे यहां चातुर्मास काल व्यतीत करना चाहता हूं, क्या तुम मेरे निर्वाह का भार उठा सकोगे ?
भागवत ने कहा--आप मेरे यहां चातुर्मान व्यतीत करेंगे इसमें मुझे खुशी है, किन्तु मेरी एक गतं है, यदि मेरी शर्त आपको स्वीकार हो तो आप प्रसन्नतापूर्वक रहिए।
सन्यासी ने कहा-शतं क्या है ? भागवत ने कहा- मैं यथा माय आपकी सेवा करूंगा, लेकिन बदले में आप मेरा कोई भी कार्य नहीं करेंगे । क्योंकि प्रत्युपकार की भावना रखने से मेरी सेवामा पाल क्षीण हो जायगा।
मन्यासी ने शतं स्वीकार कर ली। वह उसके घर रहार गया। भागयत भी भोजन आदि से उसने संया पारने लगा। एक दिन बात म नगर भागवत के घर नार आये। चोरों नेहा और मुछ नहीं लगा तो वे भागवत का पोड़ा गुराकर ही ले गई। जाते-
जात्रा होने लगा तो लोगों की भय लगा उनहनि घोड़ा नदी किनारमा बांध दिया और आगे चल पडे।।
अपने नियमानुसार प्रात: सन्यासी नदी किनारम्नान करने गया। पहा भागामापा गानोलो गर देने तुरन माग गरौटकर आया। अपनी प्रतिमा बनाई। ममामा बाल हीने सभागार में कहा- नो विगारे ना या
रिना सामोरा सपने मार
गट २५४ पर
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२५२
जैन धर्म में तप नाजा ने कहा 'आप लोगों के उत्तर से मैं कुछ समझ नहीं पाया। अतः स्पष्टीकरण करके समझाइए।"
पहले भिक्षु ने कहा- "मैं कथावाचक है, लोगों को कथा सुनाकर अपना निर्वाह करता हूं। दूसरे ने स्पष्टीकरण किया मैं संदेश वाहक है। यात्रा करता रहता है और लोगों के संदेश इधर से उधर पहुंचाकर अपना निहि. करता हूँ।"तीसरे ने बताया- "मैं लेखक (लिपिक) हूं । अतः हाथ से अपना निर्वाह करता है। चौथे भिक्ष ने कहा- "मैं लोगों को प्रसन्न करने उनका अनुग्रह प्राप्त करता हूँ उसी से मेरा निर्वाह हो जाता है।"
सबसे आखिर में मुधाजीवी भिक्षु बोला -- ' मैं संसार से वियत निग्नंन्य भिक्षु हूँ। मुझे जीवन निर्वाह की या चिन्ता ? निस्वार्थ बुद्धि से लोगों को उपदेश सुनाता है और संयम-निर्वाह के लिए अल्प भोजन विशुद्ध रीति से लेता है। मैं भोजन के लिए किसी की स्तुति प्रशंसा नहीं करता, किगो के सामने दौलता नहीं दिखाता और न किसी को सत्य उपदेश देने हिनगि नाता है। अतः मैं मुधाजीबी भिक्षु हूँ।". ___मुधाजीवी भिक्षु का भयन सुनकर राजा बहुत प्रभावित हुआ। उसने सिर झुकाकर नगशार किया और बोला-'वास्तव में गच्चे गुरु आप ही है, मुझे धर्म का ज्ञान दीजिये ।"
मुनि ने राजा को धर्म उपदेश दिया। राजा प्रतिबुद्ध होकर उनका निप्य बन गया।
मुधाजीवी अर्थात् निस्वार्थ भाव से लोगों का कल्याण कर लिया प्राप्त करने वाला निक्षु वास्तव में ही आदर्श होता है और वही ना . निक्षा का अधिपाती हैं। पेने भिा बट्टा ही दुनम हो । बागम में
बुल्लहानो मुहादायी मुधात्रीयो यि दुल्लहा । गुहादायी मुबानीयो योयि गच्छति गुग्गई।"
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निधाची तप
भट्ठयिह गोयरगं तु तहा सत्तेव एसणा।
अभिग्गहा य जे अन्ते भिखारियमाहिया ।' आठ प्रकार की गोचरी (गोचराग्र) और सात प्रकार को एपणाएं तथा अन्य जो अभिग्रह आदि हैं यह सब भिक्षाचारी तप है !
भिक्षाचरी के आठ भेद में छह भेद ऊनोदरी तप के प्रकरण में भी उत्तराध्ययन नग के अनुसार बताये गये हैं। जैसे पेटिका, मधपेटिका आदि । इसके दो भेद और हैं - जगति तथा वक्रगति । इस प्रकार भिक्षाचरी के फुल माठ भेद ये हुए१ पेटिफा-पेटी (मन्दूक) की तरह गांव के घरों के चार भाग वनाकार
नौकोर गति से भिक्षा करना । २ अपेटिका-आधी सन्दूक की तरह यो भाग में भिक्षा करना। ३ गोमूनिफा-गौमूत्र की धारा की भांति विरल टेडी-मेढ़ी गति को
मिक्षा करना। ४ पतंग योधिका-पनंगे फो तरह उड़ती हुई बीच-बीच में परों को
छोड़ती हुई गति से भिक्षा करना। ५ शंगायतांस की भांति गोल सपकारबार गति से मिक्षा ना . ६ गत्या प्रत्यागता-दर जाकर वापस नीधा लोट आना, ए ओर जाते
हए गोरी करे, दूसरी ओर आहए गोचली पारे। ७ एजति-पारल । ६ ५ गति--टेको मति ।
Wrir गातो सपा उपमान में इन दोंगी कोई नहीं है। की नोमनीगर में और नागरी सर में ही में भेद ही साये
कि मन में नोटो प्राइन न ! Emaira
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२५४
जैनधर्म में तप
निस्वार्थ भाव से देने वाला और निष्काम भाव से लेने वाला — दोनों ही दाता ' और पात्र संसार में दुर्लभ है। ऐसे मुधादायी और मुधाजीवी दोनों हो सद्गति में जाते हैं ।
भिक्षाचरी के आठ भेद
भिक्षाचरी का समय, विधि और महत्त्व बताने के बाद अब हम आगम में बताये गये भिक्षाचरी के विविध भेदों पर विचार करेंगे। उत्तराध्ययन सूत्र में भिक्षाचरी और ऊनोदरी तप के भेदों में बहुत साम्य दिखाया है, भिक्षाचरी के विविध भेदों को ऊनोदरी तप में भी ले लिया गया है। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि भिक्षावरी का मूल उद्देश्य रमना पर विजय प्राप्त करना हे । मूसा रूखा जैसा भी भोजन मिले अरसं विरसं वावि-जैसा अरस-नीरस आहार प्राप्त हो उससे ही उदर निर्वाह करके अपनी संयम यात्रा चलाते जाना यह भिक्षान्तरी का उद्देश्य है । इसमें पेट भर कर भोजन प्राप्त हो भी सकता है और नहीं भी ! मन इच्छित भोजन कभी मिले और कभी न भी मिले । कभी-कभी भिक्षु स्वयं विविध अभिग्रह, संकल्प आदि करके अपने मन को अधिक निग्रहीत करने का प्रयत्न करता है । उस निग्रह में कनोदरी तो अपने आप होती ही है, इस कारण उन अभिग्रह आदि को जनोद तप में भी गिना गया है जिनका वर्णन कनोदरी तप के भेद में किया जा चुका है । और वह ऊनोदरी भिक्षावरी के माध्यम से होती है इस कारण भगवती सूत्र ( २५१७ ) और उबवाई सूत्र (तपाधिकार) में उसे भिक्षानरी के भेदों में गिना है। इस गणना में कोई विरोध नहीं, किन्तु भावना का साम्य ही अधिक है । बंब यहां दोनों सन्दर्भों पर हम विचार करते हैं। उत्तराध्ययन मैं यहा है.
(पृष्ठ २५३ का शेप ).
की थी, पर अब आप से रहा नहीं गया। आप अपनी
तो
किसी से
हे ! अंत: अब मैं आपकी सेवा नहीं करता। सेवा लेकर उसकी सेवा करने का फल बहुत ही होता है । अत: मैं तो सेवा करना चाहता था ।
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भिक्षाची तप
२५७
उसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव सम्बन्धी अभिग्रह, एपणा सम्बन्धी विधि और गति सम्बन्धी वेद भी सम्मिलित कर लिये गये हैं ।
तीस प्रकार के अभिग्रह
(१) य्य अभिग्रह ( चारफ) - द्रव्य वस्तु सम्बन्धी वभिग्रह करना । जैसे-उग्रव के बाकले, भुने चने आदि अमुक द्रव्य मिलेगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा उपवास करूंगा। इसमें वस्तु की संख्या का भी संकल्प किया जा सकता है-जैसे दो लड्डू मिलेंगे, एक रोटी मिलेगी तो मूंगा, इससे कम या नधिक मिलेंगे तो नहीं दूंगा | यह अभिग्रह है। जैसे भगवान महावीर उदके वाले लेने का अभिग्रह किया था।
(२) क्षेत्र बनिग्रह (धारक) --अमुक क्षेत्र में आहार मिलेगा तो लुगाजैसे-यात न घर के अन्दर बैठा होन घर के बाहर | देहली में पैर कर बैठा हो । जैसेवाला के सम्बन्ध में भगवान महावीर का अभिग्रह फला-यह हनी के बीच में बैठी हुई मिली। इसमें अनेक प्रकार के विकल्प किये जा सकते है, के बाहर भिक्षा मिले, भीतर भिक्षा मिले, जमुक में भिक्षा मिले तो इस प्रकार के सभी अभिय क्षेत्र अभि में भ (३) बाल अभिग्रह (धारक) - दिन में समय दिन के अमुक प्रहर में, अमुक घंटा में गोरी जैसे भगवान महावीर मे तीसरे पहर का (४) भाप अभियमुक नाति, के साथ जमून ग्रह किया था
आसूसी
में
अभि करना ।
नहीं।
तो
दिया था ।
मुनि,
भाव
जैसे भगवान महावीर मे अभि
पढ़ने में ffm
भिक्षा देगा तो गा कोकणा से रि हो, ही भाषा में
2
तो सुगः ।
भाप में है।
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भोजन पाए जाने
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जैन धर्म में तप
सात ऐषणाएं (पिण्डपणा) पूर्व बताया जा चुका है कि दोपरहित, शुद्ध प्रासुक अन्न जल ग्रहण करने को एपणा कहते हैं। एपणा के तीन भेदों में एक भेद है पिण्डग्रणा । इसके भी दो भेद बताये गये हैं-पिण्ड पणा एवं पानपणा । आहार ग्रहण करने की विधि को पिण्डेपणा कहते हैं और पानी ग्रहण करने को पानपणा । पिण्डेपणा के सात भेद ये हैं१ असंसट्ठा- देने वाले भोजन से बिना सने हुए हाथ तथा पात्र में
आहार ग्रहण करना। २ संसट्ठा-सने हुए हाथ तथा पात्र से भोजन देना। .. ३ उद्धड़ा-वटलोई से थाली आदि में गृहस्थ ने जो भोजन निकालकर
रखा हो, वह लेना। ४ अप्पलेवा-जिनमें चिकनाई का लेप न लगा हो, इस प्रकार का
आहार-जैसे भुने हुए चने आदि आहार लेना। ५. अवग्गहीया-भोजनकाल के समय भोजनकर्ता ने थाली में जो भोजन
परोस रसा हो, किन्तु अभी तक उस भोजन में से कुछ
खाना शुरू न किया हो, वह भोजन लेना। . ६ पग्गहीआ-थाली में परोस कर रखा हो, और भोजनकर्ता ने एक
___ ग्रास उस में से खा लिया हो, किन्तु दूसरा ग्रास न लिया
हो, इस प्रकार झूठा न हुमा हो, ऐसा आहार लेना ।। ७ जज्जितधम्मा--जो आहार अधिक होने से, अथवा साने, योगगन
होने से फेंकने के लिए रखा हो, फेला जा रहा हो,
वैसा फैलाने योग्य आहार लेना। इम एपणा विधियों से मिलानर्या में विशेष संगोन होता है, पटोला आतीमायही निर्दोपता भी। लाचारांग गुर मे विटेपणा अध्ययन में रामा स्मानांकन (6) में पिटीपणा मा गाफी विस्तार के साथ वर्णन मिलता है।
भिटामी निदोगवा माम-माय निशा को ठोर पर्श अनाने का भी इनमें भाग AT | गति सेपल्या ग यस्तु मादिगो दृष्टिगे और it free
अन्य दो और नीम राई में गिनाये गये है।
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भिक्षाचरी तप
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१८ पृष्टलाभिए - दाता पूछे कि आपको किस वस्तु की इच्छा है, ऐसा प्रश्न करने पर आहार ग्रहण करना ।
१९ अपृष्ट लानिए- किसी भी प्रकार का प्रश्न नहीं पूछने वाले से
आहार ग्रहण करना |
२० भिक्षा लाभिक - भिक्षु को देने योग्य
आहार मिलने पर लेना । २१ अभिक्षा लाभिक-सामान्य भोजन योग्य आहार मिलने पर लेना |
२२ अन्यलायक- दूसरे रोगी के लिए लेना ।
२३ ओपनिधिक- अन्य स्थान में काया हुआ बहार लेना ।
२४ परिमित पिष्टपातिक-परिमित आहार लेना । पणिक- निर्दोष आहार देना |
२५.
२६ संवत्तिक पति की संख्या निश्चित करके, जैसे---जावनी दति वा आहार आदि को गवेषण करना ।
करने के अग्रह
इसमें एक दति, दति यावत् ददति किये जाते है। जिन्हें प्रतिमा भी कहा जाता है।"
यता है कि
ही बताया गया है. फिर गृहस्य उत्तर है कि इन अभियो में कुछ भी कर सकता है।
तप तो मुख्यतः माधु को लक्ष्य पर स तप की सेकता है ?
अभियह ऐसे है जो
की भािं
1
घर में भिक्षा के लिए जाता है गृहस्य अपने पर में बैठा हुआ मनको साधना कर है -- "वाली में एक बार जितना परोग दिया गया उतना ही गोड" अपन अपुष्ट वार्षिक आरि नहीं गाना "
गुदा
को गुरु
यदि मन में वर्ष की भावना है उस विशेष की और भोजन का संपोनेमे for
है। after ही है जो नियम
सांप १० अधिक
7
चेक
योग में भी
अन है।
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२५८
जैन धर्म में तपः २ निक्षिप्त चरक-भोजन पात्र से निकाल कर अन्य पान में डाले हुए
आहार को ग्रहण करने वाले। ३ उत्क्षिप्त-निक्षिप्त चरफ-रांधने के पान से निकालते हुए भोजन को
खाने के पात्र में लेते समय मिले तो ब्रहण करने वाले। . .... ४ निक्षिप्त-उत्क्षिप्त चरक-एक बार निकाला हुआ आहार पुनः भोजन
पात्र में डालकर दूसरी बार निकाला हुआ आहार लेना । ५ वर्तमान चरक-खाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना। ६ साहरिज्जमाण चरक - ठंडा करने के लिए चाली आदि में लिया
हो, उसे पुनः यतन में डाल दिया हो, वह आहार ग्रहण करना ! ७ उपनीत चरफ-पास में लाकर देवे,अथवा गुण-प्रशंसा करते हुए देवे । ८ अपनीत घरफ-सामने से दूर हटाकर लेजाकर देवें, भयया साधु
की निंदा करते हुए देखें। ६ उनपीत अपनीत चरक-पहले पान में लागे, फिर दूर ले जाये, ___ अथवा पहले प्रशंसा करे, फिर निदा करके आहार देवे । १० अपनीत-उपनीत घरक-६ का विपरीत । ११ संसृष्ट चरक -आहार आदि से लिप्त हाय व कुडली में आहार देखें।
तो लेना-~ोमा अभिग्रह करने वाले । १२ असंतृप्ट घरमा -- अलिप्त हाय में आहारादि लेने वाल। १३ तज्जात संमृप्ट घरया-जो पदार्थ दे रहा है, उसी पदार्थ में काम
लिप्त हो और तब देवे तो लेवें । १४ सज्ञात चरक ... अगनिचित परों से आहार लेना। १५ मौन चरस...मीन पूर्वर आzr मारना ।। १६ सप्टलापिय-~-जिस शस्त या साया पर समष्टि की
यमिक तो मान सम्मा। १५ अदृष्ट लाभिएः - जो आहार मामने दिया गया हो, अपना को
पहले कभी नहीं होगा मिले तो ना करना । .
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भिक्षाचरी तप.
अपने राज्य में स्थान-स्थान पर भोजन शालाए गुलवाई थी, और महानमिकों (रसोदलों) को आदेश दे दिया था कि कोई भी श्रमण बाहार के लिए आये तो उसे आहार दिया करो, मैं तुम्हें बदले में उचित सत्कार दूंगा। नगर है. लेल, वस्त्र आदि ने विक्रेता दुकानदारों से भी राजा ने कह दियाश्रमणों को जो भी वस्तु चाहिए वह दै दिगा करो। उगका मूल्य राजकोष में दे दिया जायेगा।
कुछ श्रमण जय इस प्रकार का निमिछा, व त्रीत दान लेने लगे तो मायं महागिरिको यादहमा । उन्होंने कार्य हस्ति से पहा - "आर्य! हमें इस प्रकार का अधिक लाहार नहीं लेना चाहिए !" ___ आय गुहस्ति में समय का प्रभाव बताकर या नियम में गुछ उपेक्षा दिखाई। महा--- राजा धर्मानुरागी है, अत: जनता भी उसका अनुकरण गारती है, इसमें एंनी माग गया बात है?
मानहागिरि ने नहीं ! साधु गो उपयाग नादि कर पर रस्थान देना शक्ति है, किन्तु अनैपनिक आहार नहीं ना चाहिए!' आर्य मानित पर आगरा के पारण प्रमों को हम प्रसारमा आहार नेता मा प्रति मार दिया गया।
सोनार थमन प्रजा परिस्थिति में अपनी भिक्षावरी को गुमर निदाद मारन गो निवाने में प्रश्नगीन रहना। उसमा
हामि मिय मेसपिन ...མཁལ ་ པ ལ སྶ ༣ པ་ སྶ } ཨ ༣ ཙi fri '' : HEETT R लामो तिन मोइमा म न
कि चोति धारा सपनाहर कर
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२६०
जैन धर्म में तप है, वे तो हैं ही, किन्तु उनके साथ अन्य और कठोर नियम आदि का बंधन . लेकर मन को अधिकाधिक निग्रहीत करें। वृत्ति को अधिक से अधिक .. संयत बनाये !
शुदंपणा का महत्व उपयुक्त गोचरी के भेद, एपणा के भेद, एवं अभिग्रह के भेदों के द्वारा भिक्षाचरी करना, शुद्ध ऐपणिक निर्दोष आहार प्राप्त करना और मुधाजीयो होकर रहना-भिक्षाचरी तप है। इस प्रकार की भिक्षाचरी करने वाला भिक्षक भिक्षाचरी तप की आराधना करता है । और ऐसे भिक्षक को आहार पानी आदि का दान करना भी महान् पुण्य का कारण है। भगवती मूय में शुद्ध दान का महत्व बताते हुए कहा गया है
मात्मा तीन कारणों से दीर्घायुष्य (सुखमय दीर्घजीवन) प्राप्त करता है-- १ अहिंसा की साधना से २ सत्य भाषण से ३ श्रमण-ब्राह्मण को शुद्ध-निदोंप आहार पानी देने से
दान के शुभ परिणामों की एक झलक इस उद्धरण में देसी जा सकती है !
यह दान का फल उसे ही प्राप्त होता है जो उक्त रीति से भिशापरी पारता है । भिक्षाचरी की यह विशुद्ध मनोवैज्ञानिक विधि जैन श्रमणों के .. जीवन का मुख्य नाधार है। यदि उक्त विधि से आहार न मिले तो अमा:. उपवास करना, तप कर शरीर को त्याग देना श्रेष्ठ समझता है, जिन अविधि से दोप लगाकर भिक्षातरी नहीं करेगा । जैन श्रमणों के सामने अब जब भी ऐसे प्रसंग आये तो ये भूये रह गये,किन्तु पनगणिया माहार ग्रहण कर अपनी भिक्षानरी यो दूपित बनाना उन्हें स्वीकार नहीं हुआ । निनीय भार । में प्रगंग मनाया गया है, कि जय मध्यान में भयंकर दुकान पर शो जन गणों को मुरबार मिलना अत्यंत माठिन हो गया । राजा गंप्रति में
मा ५-६
* भगवती गूज मानक ५ २ शिमोगमा १६
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भिक्षावरी तप
आज धन्य भाग्य है ! आज का दिन धन है जो ऐसे अमल मेरे घर पर मिक्षा के लिए प्रधान रहे हैं। फिर वह जहां बैठा हो उत आसन से उठकर उत्तरासंग करे, मुंह पर वस्न नगापार मुनि को वंदना करे, नात-आठ मदम भर्थात् गुन्छ दुर ता मुनि को लेने पे लिए सामने जाये, उन्हें वंदना पार प्रसता व्यक्त गरे कि है भगवन् ! आज आपका आगमन सा हो गया मचमुच मेरे घर में कल्पवृक्ष आ गया है ? मुझे इतनी प्रसन्नता हुई है रित कोई अमृत पान कर लिया हो।" इस प्रकार, प्रसामना करके मुनि नतो भारनी भोजन माला कम लाये, अपने हाथ में भुन निर्योग आरोमिक्षा देये, भिक्षा दे समय भी प्राप्त रहे, देने के पनात भी मन में प्रमाला अनुभव करें। भोर मुनि को पाने बाहर तर घोड़कर भागे।"
भागों में गानों पर निक्षा दान की गा विधि बनाई गई है। प्रारक गा कर दिया. इस प्रकार में नि । गानही शिमुनि भिक्षा में लिए आगे, गरम लापरवाही से मंकाको गाई भिकारी जागा हो, मिले तो जान मिले तोपानी लौट आप गंधा पूर्वर मारलाही में शानदेवा , आमदनी भी मिलता और माया नमः पर भी मिलता। जग पन भी मिला जब मो में, प्रेमशः दान दिया जाम भान गादि में पारा निधिको
देगी माना जाय, बागा आगन धी को म यो नेह, आदर सम्मा । सोनमा गांद बोले गुग मीठी वाणी ,
मदुम या यान भोजन ने पानी ।
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जैन धर्म में तप आचार्य कुंद कुंद ने भी यही बात कही है कि जो श्रमण भिक्षा में दोष रहित शुद्ध आहार ग्रहण करता है, वह आहार ग्रहण करता हुआ भी निश्चय दृष्टि से अपाहार (तपस्वी) कहा जाता हैअण्णंभिक्ख मणेतणमध ते. समणा अणाहारा।'.
भिक्षा कसे ? भिक्षानरी के प्रसंग में हमने भिक्षा की विधि, नियम और उसके महत्त्व पर तो विचार कर लिया है, अब एक बात और इस प्रसंग पर विचारणीय है कि शिक्षा कैसे दी जानी चाहिए ? नागमों में बताया गया है कि जो दान त्रिकरण शुद्ध होता है, वहीं महान फल देने वाला होता है। दान को तीन मुन्य अंग है--
दन्न सुद्धणं-द्रव्य वस्तु शुद्ध हो, दायग सुद्धणं-दाता की भावना शुद्ध हो, पडिग्गाहग सुद्धणं-ग्रहण करने वाला शुद्ध हो, दान का अधिकारी हो!
वस्तु निर्दोष हो, उद्गम उत्पादन आदि दोपों में रहित हो, तथा ग्रहण . . करने वाला पाय हो, वह सच्चा त्यागी हो, और अपनी विधि के साथ नियमों . के अनुल मिक्षा ग्रहण करें, तथा दाता की भावना पवित्र हो, निष्काम : . . भाव से वह दान देवें । तभी यह दान शुख शाहलाता है। . . . . . .
वस्तु, दाता, एवं पान के सम्बन्ध में हमने पूर्व में काफी गिरतार में बताया है। अब यहां एक बात और रह गई है कि माता जय भिक्षा को पर पर माया देगे तो नसे. किस प्रकार उसका स्वागत करें! गारगों में स्थान-स्थान पर ऐनी पटना आती है जहां कोई श्रम मात्र के पार माहारी पणा नारता मापनमा है दहस्य बमण को घर पर आग देवकर पिता , उनका रो-रोग नापने ना !
२ मा समानताटा , आय
...
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रस-परित्याग तप
-
-
तप के यार भदों में चोगा मेद रग-परित्यागम का स्वाग। प्रनाम सप में आहार त्याग पर विधान किया ग , घुछ ममान के लिए अपना जीरन मा में लिए जमी नरिक हो, इस प्रकार आहार का सामना अननस में दिशानि में सनी महिनामा नहीं है बाराम, सयाम आदि कार में भी
मोका मार्ग परत न हो ! म दिशा की मनमाग्रता और ज मा करना , गरम
! TE
नौARE ITEM मोगी, भोगी
____yaat मा
पिसे
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-
जैन धर्म में आप
चक्षुर्वचात् मनोदद्यात् याचं दद्या तच्च सूनृताम् ।
अनुबजेदुपासीत स यज्ञः पंचदक्षिणः ।। घर पर आये हुए अतिथि का पांच प्रकार से स्वागत करना चाहिए, अतिथि को आते देख कर प्रफुल्लित आँखों से उसका स्वागत कारे, फिर प्रसन्न मन से मीठी वाणी बोले, किस वस्तु को उसे आवश्यकता है यह जाने
और उस वस्तु को देकर उसकी सेवा करे, जब अतिथि इच्छा पूर्ण होने पर वापस जाने लगे तो घर के बाहर तक उसे छोड़ने के लिए जाए-~-इन पांचों विधियों से अतिथि का सत्कार करना अतिथियज्ञ की सच्ची दक्षिणा है।
तो इस प्रकार दाता अपनी शुद्ध एवं प्रफुल्लित भावनाओं के साथ भिागश्रमण को भिक्षा देवे और भिक्षाचरी के तीन अंगों को पूर्ण करें। जब यह तीनों अंग पूर्ण होते हैं तभी भिक्षाचरी अपने पूर्ण एवं अलौरिया फल यो देने में सफल होती है।
3 महामाया
३:६
.
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रस-परित्याग तप
२ मधुर--मीठा
३. आम्ल
- एन्हा
४ तिक्त-तीमा
2. कापाय -कला
६ लवण -नमकीन
इन रसों के संयोग से भोजन मधुर जीन को प्रिय लगता है, खाने से मन में सरम भोजन होने के कारण मनुष्य भूग से
अधिक भीसा जाता है ।
इन छह रनों के अलावा कुछ रस ऐसे भी है जो भोजन को स्पष्ट बनाने के सामना गरिष्ट व पौष्टिक भी बना देते है । सुपाच्य लग्न को दुष्पान्य बनाते हैं । हनके आहार को भारी बनाते हैं । क्तिव कर्जा (मकेलोरी) देने वाले बाहार को विकारोजक भी बना देते है। नका है
को
लिए (पप) की
२६७
पारा वितिकरा नराणं---+
म प्राय: दीपिन्वतेजनापेक्षा होते हैं। इसलिए जन रसों को 'विशति' (गिम) कहा जाता है। जैसे पीवी, आदि मधु क नहीं है, रितु विजय ही है, है। है-इश
आदि की भांति
को प्राकृतिक
की मग केस
जामवाल
बनता है, स्वादिष्ट लगता हैममता व प्रीति होती है।
जैन गुणो मे उसमे
(नि) की परिभाषाएँ
$1st & 2nd fasha h eam - af and fake mi
है
में
SONED TH
हैगामे में
विमा कके अधिक सेवन)
मे जाता है --सी के सपने में भी
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जैन धर्म में तप . की साधना में भी कर सकते हैं जो भिक्षाचर नहीं, जिन्तु गृहनर हैं । भिक्षा .. का मुख्य उद्देश्य है स्वाद वृत्ति की विजय ! क्योंकि भिक्षा में मनोनुकूल .. स्वादिष्ट भोजन प्राप्त होना दुर्लभ है. वह तो एक प्रकार का सौदा है, गृहस्थ के घर में जगा भोजन बना होगा, उसमें भी जो शुद्ध ऐपणिक होगा, गृहस्प देना चाहेगा और जितना देना नाहेगा--तब उसनी मात्रा में ही साधु को वह प्राप्त होगा। इसलिए स्वाद को, सन्इच्छा को जीते विना त सप गो आराधना नहीं की जा सकती । स इच्छा का विजय, आहार का विविध प्रकार से संकोच, अभिग्रह आदि गृहस्य सायक भी कर सकता है अत: भिक्षाचरी तप न सही, किन्तु उस तप के लक्ष्य की प्राप्ति गृहस्थ जीवन में की जा सकती है।
तप का चौथा मार्ग है-रस-परित्याग । रस परित्याग का अर्थ है-- ग-स्वादिष्ट भोजन दूध, दही, घी, मिष्टान्न आदि रस मग वस्तुओं का त्याग करना । यह त्याग साधु भी कर सकता है, तथा गृहस्य नी! उपवारस मादि तप की अलग-अलग काल मर्यादा भी है किन्तु रस परित्याग तप तो जीवन भर की सतत साधना है। यह तप मन में राय भाव ना होने एक ही किया जा सकता है, अतः अन्य तमों में इस तप में कुछ विशिष्टता भी. इसी साधना हर कोई कर सकता है, किन्तु माठिन है। अतः मात पिरति वयामप्टिको अपेक्षा रहती है।
___ रस क्या है? 'स' का अर्थ है, नीति बढ़ाने वाला-सं प्रीति विकशि कारण नोटा में बात में प्रीति उत्पन्न होती हो उसके गार में नौ गतीनिर यताये हैं कि उनके कारण कविता में प्रीमि लाकर पेक्षा होता है। जिस वस्तु को देखने मे, सुनने में, गाने में मन मेमसा बरि प्रीति एवं आयरन पंधा होता है में ... पही '' हो
---प्रो रामाया।
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रस-परित्याग तप
शरीर यात्रा के लिए
या रस का सर्वथा निषेध है ? भोजन आवश्यक है, बड़े से बड़ा साधक बर तपस्वी भी बिना भोजन के साधना नहीं कर सकता | इसलिए साधक की भोजन का निषेध नहीं है, वह भोजन कर सकता है भोजन करना कोई पाप नहीं है, वह भी धर्म साधना का एक अंग है, किन्तु भोजन में एक शर्त है, और वह शर्त है सात्विकता ! भोजन ऐसा होना चाहिए जो सात्विक हो, जिस पदार्थ के खाने से गत में विकार व तन में रोग, पोटा बाद उत्पन्न न हो। इसलिए यही भोजन करना चाहिए जो शालिक हो, विकारजनक न हों और संयम साधना को दूषित न करें।
शरीर के लिए पौष्टिक बाहार बंधा वर्जित नहीं है। क्योंकि वत्यंत राव नीरस आहार शरीर को दुर्बल व बता बनता है। को तेल व बक्षी की जरूरत होती है बसे ही शरीर को भी शुरू ना शक्ति आहार को अपेक्षा रहती है। कहा है-
पुष्ट गुराफ बिना नहीं बनता से दिमाग । सेल और बत्ती fart पैसे जसे fचराग ?
सदा स्वानुया नीरस आहार करने में जमाती याम कभी रोगी हो गया है। अमे पोष्टिक आहार कर लिया दिवसे
विनिषेध भी नहीं है।
सो उसमें कोई दोष नहीं, किन्तु
अधिक पौष्टिक आहार का सेवन नही करता हि (1) #sam i fa a fun ala wait: an fan af at her
वह पापी भगण है 1
यात्र का निषेध
कवि
आप भी स्ट्रयाः किभर है। गाय में कमाया है from sim ह प्रखता है। अन्य अमी
यदि
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जैन धर्म में तप के ही हेतु है-इस कारण इन्हें विगई (विकृति-विगति) कहा जाता है।
. . विगय कितनी? . प्राचीन ग्रंथों में विगय के दो रूप मिलते हैं-भक्ष्य विगय अभक्ष्य विगय । विगय-विकृति पैदा करने वाली अवश्य है, किंतु फिर भी शरीर को . समयं व कष्ट सहिष्णु बनाये रखने के लिए साधक कभी-कभी उनका उपयोग भी कर सकता है। जो विगय खाने के उपयोग में ली जा सकती हैं उन्हें मध्य विगय कहा गया है।
'भक्ष्य विगय छः हैं-दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और अवगाहिम अर्थात् परवान्न-मिठाई आदि कढ़ाई में पकी हुई तली हुई, बस्तुएँ।
अभक्ष्य विगय चार हैं, जिन्हें महा विगय नी कहा जाता है-मद्य, मांस मधु और नवनीन । इनमें मद्य-मांस तो सर्वथा ही त्याज्य है, माधक किमी भी स्थिति में इनका सेवन नहीं कर सकता। किंतु मधु और मपसन विशेष स्थिति में लिये जा सकते हैं-ऐसा विधान है।
रस शिजय ही सबसे कठिन पांज इन्द्रियों में सनेन्द्रिय' दूसरी इन्द्रिय है। इसका काम है-ग का, स्वाद का अनुभव करना । जब भाषा पर्याप्ति मिल जाती है तो सहन्द्रिय बोलने का भी कार्य करती है स प्रकार अन्य इन्द्रियों से एक-एक गाय होता है, किन्तु गनेन्द्रिय में दो काम होते हैं....रस लेना और बोलना । जीवन में दो ही महत्वपूर्ण यस्ता हैं- भोजन और भाषण । साना और . बोलना- ये दोनों कार्य सन्द्रिय के अधीन है। मष्टि भोजन-मार नही स्वामिनी राना इन्दिन है। पांचों इन्द्रियों में इसका प्रमुरा गया है। अन्य दिलों में गिर गो जीतना आसान है, किन्तु मन्तिम पिठी को जीतना माहिम लिए गहा गया है- 'स जिन जिने से।" जिमने बन्दियो गीनिया उसने गंगार को मन विभागों जीना
mmonweatmmeramme
१ नामद गतिमाद ना गिरी, Frent
नामाचार पति ( मार) मरनी हा निरः। नाशि
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रस-परित्याग तप
२७१
भी सगाता है । यदि अस्वाद नाव नो आहार मारता है, तो आहार करता यह केवलमान भी प्राप्त गार गगता है। मूरगडग मुनि का उदाहरण हमारे गागन । जो आचार्य द्वारा खीगढ़ी में चूकने पर भी समभाव पूर्वक लाहार करो न और उग समय समता की माधना में इतने ऊन उठे कि बीवी साते-गाते ही केयलमानी हो गए। इस घटना में यह बात स्पष्ट होती कि आहार का लक्ष्य स्वाद नहीं, साधना होना चाहिए। यदि माधना हमारा ला तो भोजन भी उपसारक साधक होगा।
भोगेपणा के पांच दोष स्वाद यत्ति मा परिहार करने के लिए अर्थात् सम-विजय के लिए शास्त्र में मांगेगमा के पांच दोष यताये, जिन्हें टानमार भोजन करना मार का परमय। यदि साधन मार गाना आम दोपों को नही टारमता तो उसका आहार करना भी पापा और उसमें उसी माधना मदिन पित हो जाती है।
भगी गुम में बताया है - आहार मारता इन तीन को
१ सगाल--- स्वादिष्ट भोजन प्राप्त पारसे उस सम में अनुष्यमा बार-गार मनोरन भी
माने तो दम मा मालिन माजिर र कोपरगना निवजहो जाता है, अपना सोपवादित कामो कोपना माला। नाम--- Aaram TR
E E का TREPRोगा की भारत का
:
... ENTERTE सोना mrry . मा
fari
को
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२७०
जैन धर्म में ता -~-उसी में प्रसन्न रहे। ऐसा नहीं कि स्वादिष्ट सरस आहार तो चुन-चुन कर चुपचाप खाले और नीरस रूसा सूखा भोजन फेंक दे, या अन्य किसी .. को दे दें । शास्त्र में विधान किया गया है कि जैसा आहार भिक्षा में प्राप्त हुआ, वह लेकर सर्व प्रथम गुरु के पास आये, गुरु को दिखाकर उनसे प्रार्थना करें---"गुरुदेव ! मेरे इस भोजन में से आप कुछ भोजन ग्रहण कर के कृतार्थ कीजिए।" यदि गुरु लेना चाहें तो सम्मान पूर्वक देवें, वे न लें तो फिर अपने अन्य साथियों को निमंत्रित करें-"जइ मे अणुग्गहं कुज्जा साहू हुज्जामि तारिओ"१. यदि कोई महानुभाव मुझ पर अनुग्रह करें, कृपा करें तो मेरे । भोजन में से ग्रहण कर मुझको कृतार्थ करें।" उसके बाद यदि कोई उसका निमंत्रण स्वीकार करें तो उनके साथ भोजन करें अन्यथा अकेला ही शांत एवं प्रशांत मन से जैसा भी सरस नीरस भोजन हो स्वादरहित होकर ऐसे साये-जैसे बिल में सांप घुस रहा हो, अर्थात् उस भोजन में स्वाद न से रस में आसक्त न हो, किन्तु अस्वादवृत्ति के साथ साये ।२ साधक को आहार का निषेध नहीं है, विगय का भी सर्वथा निषेध नहीं है, किन्तु स्वाद कर नर्वथा निषेध है । स्वाद वृत्ति का निषेध करते हुए आचारांग मूग में यहाँ तक बताया है कि-"साधु आहार करते समय यदि उस आहार में स्वाद लेने की भावना आ जाये तो उस ग्रास को बाई दाढ़ से दाहिनी दाइ गो ओर भी नहीं ले जाना चाहिए।" स्वाद के लिए आहार यो नाना और चबाना भी दोष है। अतः स्वाद भावना से रहित होकर थाहार करें कि -- "अणासापमाणे तापयियं आगममाणे तवे में अभिसमन्नागए भवः''-- स्वाद न लेने से गमो का हलापन होता है, ऐसा सापक बाहार मस्तारा. भीमा करता है।" इसीलिए कहा जाता है कि माधु आहार करताना मात-आद कामों के बंधन गीत भी गार गाता है, और उन्हें दर-यशन बांग
१ कामानि १६६४ २ हिलमिल पन्नगा
या
आहारमाहारे
अगरती मत ?
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परित्याग तप
२७३
भी दया
-रे सूर्य ! पराया अन्न खाने को मिला है तो साले ! शरीर परकरा करकरीत फिर-फिर के मिल जाता है, किन्तु पराया धन वारवार नहीं मिलता ।" यह नहीं सोच पाता किन्न तो पराया है, किन्तु पेट तो नहीं है ? तो किस पेट को दस-दस का नेता है और फिर रोगी होता है कष्ट पाता है, अनेक प्रकार की बीमारियों में पिर जाता है और अन्त में हाय नाय करता हुआ मरता है ।
ने एक हजार वर्ष तक संयम पाता, किन्तु सिर में ग
भोजन
लोलुपता के कारण संगम से हुआ और
करके मोह महारोगों में नाकात ही मदनरक में गए।
उत्तराध्ययन सूप (७) में बताया है कि मनुष्य
अपने जीवन से भी विसरता है ।
यह सपने मन को वन में नहीं
फिर रोग हो जाते है और आदिर में रोग मृत्यु के बाद कहा गया है
देता है। एक प्राचीन
और में भी
उपत
भरता है, जाकर उन
अपत्यं संवर्ग भोच्चा राया र तुहाए।
एया है - किसी नगर
ने स्व के कारण
अपथ्य आम साकर एनेपस (जीवन यामा) कार दिया।
आग के दिनाक्षम
मानेका हुन ।
गाना भी नही होने
के पहेन्यसे कमी नगर में
ऐसी
की। अमिषा में आने से से, हिन्दु रोग
माना
नहीं भारत की एक नाम नही पहचान
में
पैदा ही न
हमें एक सू
दिय
करी
किती शुरू यहत के fee को उसने भा
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जैन धर्म में तप
रस परित्याग करने वाले साधक को भोजन के इन तीन दोषों को दालना जरूरी है । इसी के साथ भोजन (परिभोगपणा) के दो अन्य दोष और भी हैं
२७२
४ अकारण - आहार करने के छः कारण बताये गये हैं उन छः कारणों के सिवाय वल-वीर्य की वृद्धि के लिये, शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए आहार करना - अकारण दोष है ।
५ अप्रमाण - शास्त्र में बत्तीस कवल - आहार का प्रमाण बताया है। प्रमाण से अधिक आहार करने वाला साधक 'प्रकाम रस भोजी' कहलाता है । 'प्रक्राम रस भोजी' साधना से च्युत हो सकता है, व्रत से भ्रष्ट हो सकता है ।
रस-लोलुपता से हानि इसमें स्वाद पर विजय
'एस परित्याग' एक प्रकार का अस्वाद व्रत है । प्राप्त करने की साधना होती है । क्योंकि स्वाद के वशीभूत हुआ साधक भोजन में बानक्त हो जाता है, वह स्वादिष्ट और सरस भोजन की योज करता है, अपने नियम, व्रत और समाचारी को ताक में रखकर जहां रसदार भोजन मिलता है वहीं जा धमकता है । सब मर्यादाओं को तोड़ डालता है, और हर प्रकार से स्वादिष्ट बाहार प्राप्त करने की चेष्टा करता है। उसकी लोलुपता को देकर लोग कहते हैं- यह साधु है या स्वादु ! वहीं मिष्ठान पक्वान्न का नाम सुन लिया तो धूप-गिने न छह सीधा वहां पहुंचा है । ऐसे रंग खोलुषी व्यक्तियों के लिए हो तो कहा गया है
सौरो ।
साठे फोसे तापसी सोए फोसे मिलिया में छोड़े नहीं नगद बाइ से
सरस आहार के लिए व्यक्तिसाठी कोस का
है। और पानी और बाकि से प्राप्त किया हुआ
या गोगा? तो सामने यही दागभोजनं कुरु हुई ! माद !
परा
में सोके
शरीराणि पुनः पुनः ॥
बोरों ।
चक्कर भी या ना
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रस-यग्ल्यिाग तप
अरे मगं ! पराया अन्न गाने को मिला है तो साले ! मरीर पर जरा भी दमा गत पर ! पोंकि सारीर तो फिर-फिर से मिल जाता है, किन्तु पराया बन्न बार-बार नहीं मिलता।" यह नहीं सोच पाता कि अन्न तो पराया। किन्तु पेट तो पराकानही तो आसक्ति कम पेटको बोस-ठौर पर पा लेता है, और फिर रोगी होता है, बाट पाता है, अनेक प्रकार की बीमारियों में घिर जाता है और मात में हाग-बार वारसा हुमा मरता है।
दुरीका में एक हजार वर्ष तल गंयम पाला, शिन्तु माविर में रसलोनुमा मसारण मंबर से सटा और अत्यधिक म स्वादिष्ट भोजन गारो भोला महारोगों में आपांत हो सरकार में गया !
उत्तरायन सुर (७) में बताया कि मनुष्य पोटे से स्वाद के कारण अपने जीवन में सीनियाद कर लेता है। स्वाद और सभासद सामान को भी नहीं मरता, अपच्य भोजन करता
फिर रोग हो जाते। और वाशि में गोगा महार जागर गैल ताप्रामीन 3 महाम---
अपरथं अंचगं भोपा रापा र तु हाए । Raमामा में जो भगना मा (जीवन मामा)
मी नगर पा राणा आम
था।
को
र
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जैन धर्म में तप रस परित्याग करने वाले साधक को भोजन के इन तीन दोयों को .. टालना जरूरी है। इसी के साथ भोजन (परिभोगपणा) के दो अन्य दोष और भी हैं
४ अकारण --आहार करने के छः कारण बताये गये हैं उन छ कारणों के सिवाय बल-वीर्य की वृद्धि के लिये, शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए आहार करना-अकारण दोष है।
५. अप्रमाण-शास्त्र में बत्तीस कवल-आहार का प्रमाण वताया है। उस प्रमाण से अधिक आहार करने वाला साधक 'प्रकाम रस भोजो' कहलाता है। 'प्रकाम रस भोजी' साधना से च्युत हो सकता है, व्रत से भ्रष्ट हो ... सकता है।
. रस-लोलुपता से हानि 'इस परित्याग' एक प्रकार का अस्वाद प्रत है। इसमें स्वाद पर विजय प्राप्त करने की साधना होती है। क्योंकि स्वाद के वशीभूत हुआ साधक भोजन में आसक्त हो जाता है, वह स्वादिष्ट और तरस भोजन की योज करता है. अपने नियम, व्रत बौर समाचारी को ताक में रखकर जहां रसदार भोजन मिलता है वहीं जा धमकता है। सब मर्यादामों को तोड़ डालता है, और हर प्रकार से स्वादिष्ट आहार प्राप्त करने की चेष्टा करता है । उसमी लोलुपता को देखकर लोग कहते हैं-~यह साधु है या स्यादु ! यहीं मिष्टान्न पक्वान्न का नाम सुन लिया तो धूप-गिने न छह, सीधा यहां पहुंच जाता है। ऐसे म लोलुपी व्यक्तियों के लिए ही तो कहा गया है--
साठे फोरो तापसी सोए कोरी सीरी।
मिलिया छोड़े नहीं नगद बाद रो बोरो। .. . सरग आहार के लिए व्यक्ति साठ-गो लोग गा पाकर भी यादमा
और इतनी तीन शासक्ति से प्राप्त किया जा साहार माते समय नियम सा रहेगा? सय तो गो गाम्ले दही भावगं पासपूमता रहेगा---- . . . भोजनं कुर दुई ! मा गोरे या !
___ परान पुनम लोग शरीराणि पुन: पुन: ॥
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स्म-परित्याग सप
छाया में बैठने से ही कोई योगी हो जाता है।" राजा भोजल धाया में सो गया। हया के शो में नाथ एक पका हुमा आम नीचे आकर धड़ाम से गिन । गला की नींद गुली। आग की मधुर और मीठी महक से राजा के मुंह में पानी यूट आमा । मंत्री ने प्रार्थना को.---' महाराज ! आग को यौजिये ! यार लाम नहीं, आपके लिए जहर है।"
माझा मंत्री के कारन पर हंग उठा--- "मंत्री राज ! अब तो पूर्ण स्वरूप
प्रया चल होती, यदि एर आमा भी नियाको पा होगा? दो पाक मादा लगे।"
मंत्री का जी भीतर-भीतर याममता उटः । इनका मन आ, राजा महादसेनार नाम को र। तभी राजा ने भाम को नाम लगा लिया ! ममी से ना मना करने पर भी बार अपने आप पर माद नहीं कर
। उसने आम नागा, कुछ ही देर में रोग पुनः भरा जहाना और मंत्री में आगे गाम को बनाया पर बार बाजार मार
दर दिवस पर कोर मेरे पानी में नहारनेगी होनी" रा
, मारनी गा और न की भीड़ में माला में
प्राय: HERE मामामा मनुका
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२७४
जैन धर्म में सप का निदान किया--"अधिक आम खाने से ही आपको रोग हुआ है। जब तक आम खाना बन्द नहीं करेंगे कोई भी दवा नहीं लगेगी।"
राजा ने बहुत दीनता से कहा-'वैद्यराज ! आप दया देकर गुशे टोप कर दीजिए ! मैं आपको मुंह मांगा इनाम दूंगा। किन्तु में आम ताना नहीं छोड़ सकता।"
वैद्यराज ने कहा-... "यदि आम खाना नहीं छोड़ोगें तो मैं श्या, धन्यतार भी ठीक नहीं कर सकता, फिर तो वैद्यराज नहीं, किन्तु यमराज ही ठीक कर सकता है।"
परिवार जनों ने और मंभि आदि ने बहुत समझाया तब कहीं जाकर राजा ने आम छोड़ना स्वीकार किया। वैद्यराज ने दवा दी. राजा भीध्र हो ... स्वस्थ हो गया। कुछ दिन बाद फिर आम साना शुरु कर दिया। पुनः बोमानी खड़ी हो गई । राजा ने फिर से वैध राज को बुलाया । बधाम में कहा----"नाजन् ! यदि जीवन चाहते हो तो सदा-सदा के लिए बाम को छोड़ दो ! आम खाना गया, आम को लाया में भी मत बैटो। तब तो तुम पूर्ण आयुष्य तक जी रायते हो और स्वस्थ भी हो सकते हो, अन्यथा तुम्हारे संग की कोई औषधि नहीं है।"
मरता गया नहीं करता - राजा ने हमेशा के लिए आम म गाने भी प्रतिमा पर ली। यही नहीं, किन्तु राज्य में समस्त आमों के प्रभारी पदा दिगे । आमों की बड़ी-बड़ी अगराईगांसाफ मारवादी । गग्य की सीमा रही एक भी शाम का पेड़ नहीं रहने दिया । मोना-जयनगंगा योग मौन बजेनी गांगुरी ! नाज्य में आम का पेड़ ही न रहा जो भाग भाग .
ने ? बैंच ने बोधि दी, नाना फिर स्वार हो गया। ____ या मोरम में राजा सपने मंत्री माय गम-सिर पर Semi-RRIER पानी की मामा कर. मग ।
पिन , सीमा पर मारे ग free
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स-परियाग तप
रता पणानं न निषियच्या, पारं सा दित्तिमा नराणं । वित्त व कामा समभिवति,
दम जहा माफर्स प परको १॥ नरम पदायों का अधिक मेवन नहीं करना चाहिए। मलामि सदार गरिष्ट आहार में धातु आदि पुष्टोती, दीयं उत्तेजित होता है, उससे कामानि प्रगट बनती। जोर इस विमान नायर को जागर होने लगते हैं जो दिल वाले वृक्ष को सीमा हार र ले। भाने --
जहा दगी परिपने बर्ष
समागमो नोगाम पर। एपिडियागो विपनाम मोहनों
नमयासिस हिदाय एसा ॥ ११ ॥ जामि मा भोगी हैं जो मामा से अधिक रमशा स्वादिष्ट भोजन करता मनपनियों में समानिनी मानी
जी ही पशि में संगत में शेजवानी होकि में अनि . मिनमानी भी भर में पार जानी है. और नाग्नि का मारमा साजी
करन मोरा करने के का दिन
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२७६
• जैन धर्म में ताप रागाउरे वडिस - विभिन्नफाए,
मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ।। जो मनुष्य रस में अत्यन्त गृद्ध हो जाता है वह उसमें मूटित हुआ अपने जीवन को भी अकाल में ही हार बैठता है और विनाश प्राप्त करता है । जैसे कि मांस के लोभ में फंसा हुमा मत्स्य कांटे में फंस कार अपने प्राण सो देता है।
अपार सागर के जल में सुरक्षित बैठा हुआ मत्स्य इसी तीन रसासक्ति के कारण अपनी जान से हाथ धोता है । जब मछली पकड़ने वाला लोहे के कांटे में मांस का टुगादा लगाकर वह कांटा समुद्र में डालता है तो मांत लोभी मत्स्य उसे खाने को दौड़ता है, मोस को खाते-गाते कांटा जब उसके गले में फंस जाता है तो बस वह वहीं तड़फड़ाने लगता है । मछली पकड़ने वाला तभी उस कांटे को खींच लेता है । मत्स्य पानी से बाहर मा जाता है और कुछ ही क्षणों में अपने प्राण गंवा देता है । यह फल है रस लोलुपता का । यदि ..... मत्स्य रमलोलुप होकर मांस खाने न आता है तो किसी घीवर को ता . नहीं है कि उसे जल में से पकड़कर बाहर ले आये । किन्तु सामति के कारण मुद ही अपनी मौत उसने बुलाली । इसलिए बताया गया है कि गा. मत मनुष्य अपनी तीन आसक्ति के कारण अकाल में ही नष्ट हो जाता है।
रसासक्ति से कामाराति दूसरी बात - अधिक रसीले स्वादिष्ट व चटपटे गमावदार गरि भोजन से शरीर में विकार यो हैं, उनमना पदा होती है और फिर मान माधना भंग होने का मतरा पैदा हो जाता है। यायानिया में ant
. पणीय मत पाणं तु पिम्पमयिया । प्रमोट (गी सादिया सजग गरिष्ठ) आहार मीर में हम का कर देता है । मन
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रम परित्याग कर
आनार्य के कुछ शिष्य जो बोरगानी में आगामी थे, उन्होंने मानाय को विहार करने की प्रागंना ली। रमलोलुप आचार्य ने -"माही भी जाओ ! माधु का धर्म तो देना है, बेनी बही नाम मारते । फिर कांद मा दोष है ?" टालमटोल का जनर मुनार गुना मानार्थ को छोड़कर अन्य विहार फार गं। किन्तु भानावं मंत्री रमलोलुपता नही घटी। गरम स्वादिष्ट भोजन के नाम में पदकार, अपनी मा ना भूल गरे । पर दूध, दही, पीपीत आहार माने नोग आपसे पारण देगाधना
माटो नगे । आनुमपूर्ण कार में जनी नगर में मर बन गई। जब शान में उन्होंने अपना पूर्व जन्म पानी में कहा नाना --- गोला ! सोमनाया जाना मा वि मादा में रहता हो कोई देगानिज इन्द्र बनता ! योनि में विकास किया तो को जो गई मोतु मेरे कारण अब जार मा लोकर པས ''' ཨཱ་པཱ ཎ } པ མfry པ ' ' it #1 : ཚེ :11 Franान निमा में प्रविष्ट र मोहीयाना । माधान मारा दिन मामीनपा TE गोलोर जिला बार निकाय ?
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जैन धर्म में तप
के समान है। तालपुट जहर जैसे जीभ पर रखकार ताली बजाये तब तक में मनुष्य को मार डालता है, उसी प्रकार आत्मशोधक के लिए उक्त तीनों. . या विनाशकारी हैं।
ब्रह्मचर्य की नव गुप्तियों में बताया गया है कि ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले साधक को प्रणीत .. अतिस्निग्ध सरस आहार नहीं करना नाहिए
१ नो पणीयरतभोइ भयइ
२ नो पाण भोयणस्स मइ मायाए आहारइता भवः आगम बाणी के प्रकाश में और अपने अनुभव के आलोक में यह बात प्रायः स्पष्ट है कि इंधन से जैसे अग्नि प्रचंड बनती है, वैसे ही सरस भोजन से मामाग्नि प्रचंड होती है। अतः मात्मसाधना करने वाले, महान यं का पालन करने वाले साधक के लिए सचमुच में ही रसयुक्त प्रपीत भोजन --विप के तुल्य हैं।
निशोथ भाप्य में एक उदाहरण देकर समझाया गया है कि रम लोनुर होने से लाधु का यह भव ही नहीं, किन्तु अगला भव भी बिगड़ जाता है। उदाहरण इन प्रकार है
प्राचीन समय में एक प्राचार्य धे-~-आर्य मंगु । नामों के अच्छे l और बई ही मधुर वक्ता थे। जहां भी जाते यहां उनका अच्छा सरकार सम्मान होता । जनता में उनके प्रति बड़ी अक्षा थी।
पलवार आमंग मधुना में भागे। मथुरा के भानु जनों ने बाला । ही वही भक्तिी आना को दूध, दही, घी मिष्टान आदि प्रतिदिन दिन ' ..
गा। प्रतिदिन मा गोजन करने में आनाका मननी में पन्न हो गया। मधुर भोजन आदि के कारण के गथरा भी सामने गी। अब सो आना जम गये। माम कला पूजाने पर भी विदार 1; मा
भनित लोगों में भी उनी । मामा STATE पिर भी माना जाने को नहीं
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मापरित्यागर
आचार्य के कुछ शिष्य जो बो त्यागी च आमाझे थे, उन्होंने आगार्य विहार करने की प्रार्थना की। रमलोलुप आचार्य ने कहा ---"कहीं भी जाओ ! साधु ना धर्म तो उपदेश देना है, यहां बैठे भी वही काम करते पिर कान सा दोष है ?" टालमटोल का उत्तर मुनगान गुछ साधु आनार्य को छोडकर अन्यत्र विहार कर गये। गिन्तु आचार्य मंगु ने गलौनुपता नहीं हटी। में सरल स्वादिष्ट भोजन के लोन में पाकर मारनी साधु मर्यादा भून गये। गब दूध, दही, मी प्रपीत आहार जाने लगे। इस आग ने कारण ये गाना मे प्रष्ट हो गरे । आगुप्तपूर्ण पार उनी नगर में एक नया बन गये । जब मान में उन्होंने अपना पूर्व जन्म देता तो उन, बहा गातार होने लगा--- गोगा ! मैं तो इतना बड़ा बानायं पा गदि गर्भावा में कहा तो गोमानिका इन्द्र बनता ! अब पक्ष योनि में आ गिग । नियार
ािर तो जो गति मोह मिना मेरे कारण अब आप साधु मला हो कर सपना जन्म दिना। इसलिए मा पर जा भी जर को साथ निगाना सो प्रतिमा में प्रविष्ट होकर नंगे जो बाहर
निका । माधान ग उमोर जाते । एक दिन पग मामी मागे "म मोगी? और निमगिया जोग मानिकारक ?'
महान Tar format गुम लोगों का नुकसान मंत्र ! में जाटो मिनि में आयोनिमा
साल रिमोम मा में मुझे , Free TET मानी ।"
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जन धर्म में तप
के समान है। तालपुट जहर जैसे जीभ पर रखकर ताली बजाये तब तक .. में मनुष्य को मार डालता है, उसी प्रकार मात्मशोधक के लिए उक्त तीनों वाते विनाशकारी हैं।
बहाचर्य की नव गुप्तियों में बताया गया है कि ब्रह्मचर्य का पालन करने । वाले साधक को प्रणीत .. अति स्निग्ध सरस आहार नहीं करना चाहिए
१ नो पणीयरसभोइ भयइ
२ नो पाण भोयणस्त अइ मायाए आहारइत्ता भवा आगम वाणी के प्रकाश में और अपने अनुभव के आलोक में यह बात प्रायः स्पष्ट है कि इंधन से जैसे अग्नि प्रचंड बनती है, वैसे ही सरर भोजन से कामाग्नि प्रचंड होती है। अत: आत्मसाधना करने वाले, ब्रह्मन यं का पालन करने वाले साधक के लिए सचमुन में ही रसयुक्त प्रणीत भोजन--विष के तुल्य है।
निशीय भाप्य में एक उदाहरण देकर समझाया गया है कि नोला । होने से साधु का यह भव ही नहीं, किन्तु अगला भय भी बिगड़ जाता है। उदाहरण इस प्रकार है
प्राचीन समय में एक मानायं ये--आर्य मंगु । शास्त्रों के अन्दै माता और बड़े ही मधुर बक्ता थे। जहां भी जाते यहां उनका अच्छा नकार सम्मान . होता। जनता में उनके प्रति ली श्रद्धा दी।
एकबार आमंगु मथुरा में नाये। मथुरा के अहानु जनों ने आमा गोबी मक्ति की आना को, दही, मी मिष्टान आदि प्रतिदिन दिने नगा। प्रतिदिन मत मधुर भोजन करने में जानामा मामी मर को गया। मधुर भोन आदि काग उन्हें मरा भी मानाने भगी। अब तो जग गये। गाम का पूरा होने पर भी
का नाम नहीं लिया ! विमा लोगों में भी गुदमी रहा। मामांग स भी आदाय में जाने को मारमा
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रम-परित्याग तप
इसी के साथ नुच्छाहार-~-जली हुई रोटी आदि के मुख और भी भेद मिलते हैं। किसी-किसी आचार्य ने इन नौ भदों का विस्तार कार १४ भेद भी
इस प्रकार भोजन में रस, स्वाद, विनाई आदिका तयार गरी साधर 'रस-परित्याग' तप की अनेक प्रकार में साधना यार मकता है। सपरित्याग का मूल उद्देश्य है-भोजन के प्रति अनासक्त भाव । परम व स्वादिष्ट भोजन प्राप्पा मारने को भी इच्छा न हो, और न ऐमा मयुक्त भोजनमानेको लालसा हो । बल्कि शिक्षाची में या (गृहल्य के लिए घर में) गज में जो भोजन प्राप्त हो गया उसे गरीर चलाने की लिए साना से पान पर मरहम पट्टी की जाती हो, उसी एष्टि में भूर तो जान मारने गो नियनीजन करना--लक्ष्य जीवन में प्राप्त गारमा मानियाग गोमानी माधना।
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जैन धर्म में तप कभी-कभार वह विगय ग्रहण भी कर सकता है, किन्तु नित्य नहीं । नित्यप्रति विगय का सेवन करना दोष है। इसलिए कभी-कभी विगय ग्रहण करें और कभी विगय का त्याग करें। विगय का त्याग करना रसपरित्याग तप का पहला कम है।
उववाई सुत्र में इसके नौ क्रम बताये हैं- .. १ निर्वितिक-विगय का त्याग करना । विगय का वर्णन पूर्व में किया
चा पुका है। २ प्रणीत आहार का त्याग-जिस भोजन में मृत आदि टपकता हो, जो
अति स्निग्ध और बल वीर्य बढ़क भोजन हो उसका त्याग करना । ३ आयंबिल-नमक एवं विगय आदि का त्याग कर सिर्फ भुना हुमा गा.
रंधा हुआ एक प्रकार का भोजन पानी के साथ लाना। इसमें स्वादविजय की विशेष भावना रहती है। ८ आयामसित्य भोई-धान्यादि के घोषण में से कुछ अंग (बयया । ___ कण) ग्रहण गार भूख मिटाना। ५. अरसाहार-रहित भोजन करना, जो धोका, बिना नमन म बिना मिर्च मसाले का स्वाद रहित भोजन । जैसे उमद ने बापले, भुने गरे,
फुल्माप आदि । ६ विरताहार-~-गिल भोजन मास विगढ गा हो, बागी, बाद भोजन करना। संताहारको आमिर- सना दुआ आहार लेना । अपवा गना,
दिया कि जो कि अंतिम बने रहोगे। - हाहा:..मनोमा पाने के बाद में अंत में न ... महारामा - Pार--- दिना का भी निगम सदर
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कायक्लेश तप
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ऐसे हैं यदि
करना अर्थात् शरीर को विभूषा का त्याग करना से मनुष्य नहीं चाहें तो ये नहीं होते । स्वतः इनकी ओर प्रवृत्त होने पर हो कष्ट उत्पन्न होते है । केशलुचन करवाने पर ही यह कष्ट होता है। सब कष्ट स्वीकार किये जाते हैं । अर्थात् जैसे मेहमान को निमंत्रण बुलाया जाता है वैसे ही साधक अपने धैर्य, साहस और कटसहिता की कनोटी करने कष्टों को बुलावा देता है अतः इन्हें स्वतः स्वीकृत कहते है ।
चाईन परीपत्
साधक जीवन में उक्त दोनों प्रकार के कष्ट आते है। इन को महने के लिए दो प्रचलित है-परी और काया | आर्यन मग महत्तर के अनुसार परीषह की परिभाषा है
परीसज्जिते इति परीसहा, अहियासिज्यंति ति
सुपा, पिपासा, गीत उष्ण आदि शारीरिक कष्ट को सलमान आदि मानसिक कष्टों को फर्म निर्जय की भावना के साथ पूर्व रूप से कहत करना परोष है। तो कोई भी आगत जनव एन
जाता है-परोष होता है।
बी
निर्देश के लिए
१ परीष
5 दिवसा-याम
● गीत-मी
४ उप-नमी, पुषादि
4 mm-sin,
देवीका कष्टों के
परियह-अम्मा म्य
A
er mer TIER
दिन नष्ट
कोकण
६. ०७१- विटामिन
१० मेि
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श
कायक्लेश तप
तप के बारह भेदों में प्रथम चारत आहार से विशेष सम्बन्ध रखते है। पांचवें तप में शरीर क्रियाओं का सम्बन्ध है अत: इस तप का नाम है कायलेश तप !
कालेश को परिभाषा कायकनेश का अर्थ है शरीर को कष्ट देना । कष्ट दो प्रकार के होते है--एक प्राकृतिक रूप में स्वयं आना, देवता मनुष्य नियंत्र आदि के उप से प्राप्त होता । यह कष्ट, अनचाहे अपने आप आते है। आप में लारें में टू के पेड़े, वर्षा में आदि
भरे
है ये आते ही है।
हीनान्तु प्राकृतिक नीम के सहत उसी को वापस मनुष्य आदि अपमान करे हि आदि भी करेंसी में भी ना कोई न करना, अपने जाते है। प् 1 दूसरे राष्ट से यकृताना जैसे आप वाकिया, पर विपर
निर्भर नर कोभा नहीं
,
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हाला ताप
२८५ वृक्ष की तरह सीधे खडे रहते है, काली पदों में भी नामः कम पानी में
वे रहते हैं.--ौंधे गिर लटका रहते। किन्तु उन के गुराको महाफाल नहीं, अपफान, अत्यन्त अलफान वाला गाना गया। अतः यहाँ पर देह दुःयं महाफल' का नाय नही लेना चाहिए कि मा. पोपत जर उत्पन्न हो तो साधक सोये - मोर को उत्पन्न हुए कष्ट को प्रान्न भाप में सान पारना महान गामं निगंगा का कारण मा: (भाग कर को पष्ट देना नहीं, किन्तु) भानपूर्वक कार मेगा और खाना महान फारयाती।
हा तो में बता रहा था कि-य-गृत एवं पा दोनों प्रकार से मारीरिक-मानसिक काटों को सान मारमा
पीपालेकी पनि समाजातील कष्टी चोपीका पानामा विशेष निगनिबार में धासन, मान, प्रतिमा, चनारीर मामा आnिam मेदि गाय को मौकार मारता- विमा सप । . मागम में बनाये गरे गाय पर नदी में मंगा पेटला
रोपाट शवों : माननादि में न तो माना... गि गाई मात्र परम संपन्नों में मान- मामा PERFE मा की। गुर समग मानुगतन पाrमें नाम
मटर को भी का - या नोक
र शो को मार
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जैन धर्म में तप १. शव्या ---निवास स्थान अथवा सोने की भूमि का कष्ट । १२ आमोश दुर्वचनों का म.प्ट । १३ बघ-लमही नादि की मार। १४ याचना--भिक्षा आदि मांगना । १५. सलाम ... मांगने पर भी नहीं मिलना । १६ रोग-~ोग आने पर समभाव से सहन करना। १७ तणस्पर्श-चारा आदि के पर्ण का कष्ट । १८ जल्ल-शरीर पर मैल आदि का काप्ट (अस्नान)। . १६ सत्कार-पुरस्कार-पूजा-प्रतिष्ठा को सम्यक रूप से सहना-अर्थात
उन पर पालना नहीं। २० प्रज्ञा--बुद्धि का गर्व न करना। २१ अज्ञान-बुद्धिहीनता अषया अजानकारी का दुष्प सहन गारना। ..... २२ वर्शन परोपह सम्यकत्व से भ्रष्ट करने वाले मिथ्या मतों का
मोहक वातावरण देखकर मन को स्थिर राना। .. ये बाईस पीपद हैं जिनमें दोनों प्रकार के ही परोपह आये है..गरी केशारा होने वाले और अपने मन में स्वीकार करने वाले नी । इन उपमनों को, काष्टों को सम्मान नीति से सहमा परीपह है। माय में कहा है -
पहें पिया दसिज्ज सी-उन्हं अरई भयं ।
अहिपाने अध्यहिओ देदुपा महाफलं । ... भूख, प्यास, दुःशया, सर्दी-गर्मी आदि और भय आदि काटी को मापा अर्थाित् अमन मन में मान गरें, गोंकि देश का मास्ट सहन करना महापागा--- गाय गर्म निजामा
---. दु महासन'TTri , ... मी दुगना मालाकार में मा, अन टिम बोट कार पर काट माना और थामनी
gो को काटना, मोर का मन करते हैं. हम
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पायांना
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काटोलग मे निा संचार हो जाता है। यह रप्ट, कारट नहीं किन्तु आनंद ओर मुख प्रतीत होता है । प्रसिद्ध अध्यात्मवादी निलक गमोविजयजी में समोष्टक में गह-~
दृष्टा चेष्टायंसिद्धी फायपोटा हादरपदा,
रत्नादिवपिनादीनां तद यत्रापि माध्यताम् ॥७॥ जना गो मिलि लिए गरी कामाटी दुरामानी नाही लगना, पन आदिको प्रापित लिए पापानी लोग समुत्रों में, पाने में जंगलों में रहा । अगा पीटाएँ मन पारने हैं, फिर भी उन गावाबों में मुगानुमति ही होती है।
ना प्राधा भी आमा भर पोपित सक्षमुशि नि ! वन मान ! आदि को प्राविजिए जो विभिन्न प्रकार का अग, CID आदिमा गरे उसे काट एनी माटानुनहीं, मन मानानुभोली दिपना में पाटाभूमा बह rant में नहीं होगी। रो-नोरमटाना हो फार है, uTER दिमाग मारटों में जाति मालीमा
कांटों की मेजबानी Excam म
लिए मानामा मंदनी मानी grear: गाना माटी
faffarn कामो राजा
!
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जैन धर्म में प
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वचन कहने से, यथा योग्य भोजन वस्त्र आदि देने से वह प्रसन्न रहता है, और स्वामी की सेवा करने में जी जान लगा देता है । स्वामी के लिए अपने प्राण और सर्वस्व न्योछावर कर देता है । जो सेवक सब कुछ पाकर भी मंदि स्वामी की सेवा में हिनकिचाहट करे, काम से मुँह पुराए तो यह सेव बेइमान कहलाता है |
शरीर भी आत्मा का सेवक है, आत्मा को धर्म की साधना करने में उपयोगी है- "यह देह धर्म का साधन है" और 'मोक्य साहन हेरम साहूदेहस्स धारणा - मोक्ष की साधना करने के लिए ही साधक देह को धारण करता है । अत: बात्मा मोक्ष साधना के लिए शरीर का उपयोग करता है. शरीर का पोषण भी करता है, किन्तु उसे निलले बैठाए रखने के लिए नहीं, किन्तु अधिक श्रम, त्याग, तप, जप ध्यान कायोत्सर्ग आदि करने के लिए हो उसे भोजन देता है । शरीर से यह जो आध्यात्मिक सेवा तो जाती है. उसे ही हम बोलचाल की भाषा में कायक्लेश और कष्ट एवं परोप कहते हैं. वास्तव में यह कष्ट एवं क्लेश नहीं, किन्तु शरीर का सदुपयोग है । सच्चा सेवक सेवा करने में सिन अवशय होता है, किन्तु फिर भी यह निता अनुभव नहीं करके प्रसन्नता का ही अनुभव करता है। सेवा की कष्ट नहीं, कर्तव्य है। इसी प्रकार आत्मसाधना के मार्ग में शरीर को दिया जाने
चाला राष्ट वास्तव में कष्ट नहीं, किन्तु शरीर का उपयोग है ।
उपयोग नही दिया जाता है तो शरीर बैठा ठाया और कुछ उत्पात कर है। विकारों की उप करेगा।
पर
学
सिया करे। अतः शरीर को तय श्रम में, तप जप आदि में लगाए को एक पति है। इसमें जैन धर्म में शरीर को यात गरी का नाश करने के लिए नही कही है,
बरने के लिए ही कहाँ है।
के महान
प
दुगने बाह--मनुष्य
की
साम को बार मामले दाई देती है, पर मन देता है, अपनों को मार हा दावा है तो स्वयं भी यह
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तम
या मोक्ष के लिए
के ती रानी नही देने
1
कभी नहीं देखा।
यह है--शरीर ! बस इस सरीर को साफ
भी है में कभी फूल
fae! m led!
!
जो
गुम किसी पीली और बाद करो (Bat. drink and be merry) वन यही गुणवाद जीवन का सार है।
श्रमिक वाक्य है-
कि जैसे किसी ने
नहीं
नए संसार में की कुछ त
नहि भीद ! तं निवर्तते
हायपदेश करी है
बना है- नेगा आज
*
*
याति ! से
1
बाव में भी
पार्याक विस्कुट से स्वा
करते है, किनकि
। एष्ट्रको नमुन
装
!!और साथ !
कभी खाता नहीं, इसलिए जीना नहीं है
के वर्तमान में
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हैदर
यही
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काम
हिम्
वनमा लय है। हिन्दु
सामवादी प्रतिती मुनी है।
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ही गोध
माग
मोट कर माप अपना
का समुदाय
जीवन
सेना के हर मा
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पनि
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ल
कोकीला चना भाग है के को
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२८८
जैन-धर्म में वर को तपाना चाहते हैं किन्तु घी का आधार पात्र है, इसलिए घी को तपाने के साथ ही पान स्वयं तपता है। कोई आपसे पूछे-भाई ! बाप का कर रहे हैं ? तो आप झटसे कहेंगे, घी तपा रहा हूं। न कि पान तपा रहा हूँ ऐसा कहेंगे ? पाय को तगाना लक्ष्य नहीं है, वह तो स्वयं तप जाता । उगी प्रकार आत्मा से विचारों को दूर करने के लिए, इन्द्रिय निराह, आसन, उप.. वाना आदि के द्वारा तपाना तो बात्मा को ही है, किन्तु न कि आत्मा पा आधार नवीर है-इसलिए आत्मा जब तपाचरण करता है तो शरीर गो कष्ट होता है, शरीर अवश्य ही तप्त होता है, किन्तु शरीर की उस वेदना में .. गायक को वेदना को अनुभूति नहीं होती। नप के कप्ट को साधक कष्ट रूप में अनुभव नहीं करता, जैसे माता अपने बालक की सेवा करती हुई भी उन सेवा में कष्ट या पीला का अनुभव नहीं करती, उसी प्रकार तप में शरीर को पीड़ा होते हुए भी साधक पीड़ा की अनुभूति नहीं करता, क्योंकि उसका लक्ष्य आत्मानंद को प्राप्ति का है।
कायपलेश को दार्शनिक पृष्ठभूमि काया को कष्ट देना, देह का दमन करना, इन्द्रियों का निप्रद मारना --- इम पदावली गे पीछे एक माध्यामिमा निन्तन है, भारतीय अध्यात्म दमन नी पप्ठभूमि है।
मंगार में प्रारम्भ से ही दो प्रकार में दर्शन गले आये हैं .. एक अहवादी दर्शन, दूसरा आत्मवादी दर्शन ! जयादी दगंग गरीर को ही सब कुछ माता है। गरीर में किन्न मारमा गाम मे सत्त्य की पल्पना ही उस दिनार नहीं भाती। हर परलोग, पूर्वजन्म, पुनम तो यहां से मानेगा ! राम! अगिर गुम
एतापानेष मोकोयं पायानिप्रियगोपरः । भरें ! गग, पर पाय गद यानि माय ताः।' wirinाता है, या गा गंगार है ।
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कायपलेरा तप
यह मानवादी यगंन ही कायरोग तप का आध्यामिका माधार है। इस चितन से भरीर के प्रति अनामतिअनमत्व प्राटा भरीर को धनभंगुर माना और उगानंगुर सत्य से जितना सामोकार हो सके उतना फार लेना चाहिए-म भायना ने फापरलेस इन्द्रिवदना आदि सर को महत्व दिया । जिन माघर ने मारमा और देह का पृषफल महो मा में सा लिया, उसके ना में बहानाति, देहायाम कम हो जाता, फिर देशो लए भी गा, गिट अवस्या को प्राप्त हो जाता है. श्रीमद् राजा के ब्दों में--
ह सा मेहनी बसा घरते देहातीत ! रोप भी देहाती पला प्राप्त करने की कला नो हारमार मे मिला। कानावंही घटना हमारे सामने हैं. नि. पार गो मियों को पार कर पानी में पीस दिगा गया, fort पौधे की तरह ! किन्तु जन गानों में नाम नहीं किया। पों? लाहिर देश को पीटा तो होगी ? ए गुई नमन से ही शरीर में मिला ना तो वहां बरीर को पानी में . सागर सोमनाया पोटा नहोलो ? भामंही परी सारी ntीर को छोड़ दिया गया जो पावर का शाहीको छोरो ? किर भी
परा--- स्यारी पारी भनि- म्हारी हो, रहा मेरो सार मह मोमा परोपहा ।
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महो रहामा गत मुन मियो' पारा। EIR में होने चोरी का rikar गई और महान Tifrre
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को माग ram rana Kera Tesent E-ma.
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२६०
जैन धर्म में तर
भारमा से भिन्न चिन्मयशक्ति मानना ज्ञान । कहा है
बेहोऽहमिति या बुद्धिः अविद्या सा प्रकोतिता।
नाहं वहश्चिदात्मेति बुद्धि विद्येति भण्यते ।। 'मैं (आत्मा) देह हूं'-इस बुद्धि का नाम अविधा, अमान है, और मैं देह से भिन्न चेतन आत्मा हूं'-इन बुद्धि का नाम विद्या या भाग है। यही यात नाचायं भद्रवाह ने कही है
अन्नं इमं शरीरं जन्लो जीव त्ति एव फययद्धी ।
दुक्सपरिफिलेसफरं दि ममत्त सरोराओ। "यह शरीर अन्य है, भात्मा अन्य है"-साधक इस प्रकार की तत्व बुद्धि के द्वारा दुख एवं क्लेश देने वाली शरीर की ममता का त्याग करें। ___ आत्मवादी साधक यह मोगता है-"जो दुस है, कप्ट हैं, ये सय पारीर को है, आत्मा को नहीं । कष्ट से शरीर को ही पीला हो सकती है, यध आदि से गरीर का ही नाश हो सकता है. आत्मा का नहीं-त्यि जीवरस नासुत्ति'मात्मा का ज्ञान दर्शनमय निमयरूप है, जो की कोई शापित नष्ट नहीं कर सकती, उसका पाभी नाश नहीं हो सकता, नहीं मेरा स्वरूप है । दारीर तो भौतिक है, नाममान है,
- पच्छा पुरा या पायव्यं फेणुमुम्बप सन्निभं--- पहले गा पीछे-म जन युदबुदे से गमान नाममान भरीको रा त्यागना ही है। फिर कष्ट आदि से भयभीत गयों होना ? गोष्ट है. यह शरीर गो, मात्मा को नहीं---
योगिरे सरवसो फाय नम देहे परीसहा जो पीपा कष्ट, वे मुझ में नहीं, देश में मार मेना , इस प्रकार दिनार कर रही ममता को, राग भाव को को देना चाहिए।
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कायरलेश तप
२६३ तन से दैत्य का अर्थ-विकराल शरीर से नहीं, किन्तु सहिष्णु और कठोर शरीर से है। शरीर से इतना सहिष्णु हो, कि धूप, वर्षा, सर्दी आदि के भयानक कष्टों से भी विचलित न हो, और मन इतना सुन्दर, सुकुमार हो कि देवता तुल्य रहे। इसी भाव को संस्कृत की प्रसिद्ध सूक्ति में यों कहा गया है
वज्ञादपि फोराणि मृदुनि कुसुमादपि वन से भी कठोर और फूल से भी कोमल-अर्थात् कष्ट सहने में वन जैसे और दया करुणा में फूल जैसे।
तो साधक को कष्टसहिष्णु होना चाहिए। और यह सहिष्णुता का अभ्यास कायक्लेश ने बड़ता है। काय क्लेश से तितिक्षा का भाव प्रसर बनता है । शास्त्र में कहा है-तितिखपरमं पच्चा:
तितिक्षा साधक का परम धर्म है । साधक हो तर तितिक्षु नहीं है, सहिष्णु नहीं है, कष्टों में धैर्य नहीं रख सकता तो वह साधना नहीं कर सकता। तप का मूल ही धृति है-तवत्स मूल घितिर धैर्य, साहस और सहिष्णुता यही तप की जड़ है। इसलिए शास्त्रों में स्थान-स्थान पर सहिष्णुता का उपदेश दिया गया है
सहिओ दुक्खमत्ताए पुट्ठो नो संज्ञाए दुःख आने पर, दुःखों से घिर जाने पर भी साधक विचलित न हो ।
दुक्षेण पुळे धुवमायएज्जा शरीर को दुःखों का स्पर्श होने पर ध्रुवता-ध्रुव के जैनो स्थिरता धारण करें।
ये सब उपदेश, शिक्षाएं और शास्त्र बचन यही बात सिद्ध करते हैं कि साधक को कष्टों के लिए स्वयं को साधना पड़ता है सोने की भांति कप्तों की
१ सूत्र कृतांग शा२६ २ निशीय चूगि ८४ ३ भानासंग १३ ४ सुबहतांग ११७२६
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जैन धर्म में तप .
सुकुमारता का त्याग कायपलेश तप का व्यावहारिक जीवन में भी बहुत बड़ा महत्व है। मनुष्य को कोई भी महान कार्य सिद्ध करने के लिए कष्ट तो उठाना पड़ता ही है। शुभ कार्य में अनेक विघ्न बाधाएं आती है-यांसि बहयिनानि ! किन्तु उन विघ्नों को नदी पार करने के लिए साहस और महिष्णुताय नाव की .. नावश्यकता होती है । आत्म बल और मनोबल की जरूरत होती है । सुकुमारता और कोमलता से साधना नहीं हो सकती है-एक आचार्य ने महा है--
अम्मा भव ! परमंव ! जद माटों के तूफान मचलने लगे तो तुम अश्मा- अर्थात् पत्थरचट्टान बनमार खड़े हो जाओ! जय नम और आशंका ही बड़ी तुम्हारे पापोंगो बांधने लगे तो कुल्हाड (प) बनकर गाट डालो। तभी तुम अपने सर । की प्राप्ति कर समांगे। भगवान महावीर तने बड़े राजमार थे, किती कोमल और सुपुमार ? किन्तु जब साधना के पथ पर तो मुकुमारसा यहां गायब हो गई? तो मेन से भी अधिक कठोर होकर काष्टों को मन लगे । शालिभद्र कितने गुरुमार थे? नामा प्रेमिका को गोदी में बैठने पर हो पानी र यी गर्मी से उन्हें पसीना आने लगा। किन्तु साधना में य पर यो यो मितने पठोर तपनी बन गये ? गमा अर्थ है माधना में गुरुमाता, मुग... जीना नहीं चल सकती। नमारता राजमारों का भी है । किन्तु माधक जीवन के लिए यह बात अक्षा दुगुन है । इमाम स्पष्ट कहा है--
आपायपाहि अप सोमन गुजुमानता नागरको माना !
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कायवलेश तप
२६३ तन से दैत्य का अर्थ-विकराल शरीर से नहीं, किन्तु सहिष्णु और कठोर शरीर से है । शरीर से इतना सहिष्णु हो, कि धूप, वर्षा, सर्दी आदि के भयानक कष्टों से भी विचलित न हो, और मन इतना सुन्दर, सुकुमार हो कि देवता तुल्य रहे । इसी भाव को संस्कृत की प्रसिद्ध सूक्ति में यों कहा गया है
वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि वन से भी कठोर और फूल से भी कोमल-अर्थात् कष्ट सहने में वज्र जैसे और दया करुणा में फूल जैसे ।
तो साधक को कष्टसहिष्णु होना चाहिए। और यह सहिष्णुता का अभ्यास कायक्लेश से बढ़ता है । काय क्लेश से तितिक्षा का भाव प्रखर बनता है। शास्त्र में कहा है-तितिखंपरमं णच्चा-- ____ तितिक्षा साधक का परम धर्म है । साधक होकर तितिक्षु नहीं है, सहिष्णु नहीं है, कष्टों में धैर्य नहीं रख सकता तो वह साधना नहीं कर सकता। तप का मूल ही धृति है-तवस्स मूलं घितिर धैर्य, साहस और सहिष्णुता यही तप की जड़ है। इसलिए शास्त्रों में स्थान-स्थान पर सहिष्णुता का उपदेश दिया गया है
सहिओ दुक्खमत्ताए पुट्ठो नो संझाए' दुःख आने पर, दुःखों से घिर जाने पर भी साधक विचलित न हो।
दुखेण पुढें धुवमायएज्जा शरीर को दुःखों का स्पर्श होने पर ध्रुवता-ध्रुव के जैसी स्थिरता धारण करें।
ये सब उपदेश, शिक्षाएं और शास्त्र वचन यही बात सिद्ध करते हैं कि साधक को कष्टों के लिए स्वयं को साधना पड़ता है,सोने की भांति कष्टों की
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१ सूत्र कृतांग शा२६ २ निशीय चूणि ८४ ३ आचारांग ११३१३ ४ सूमकृतांग २७२६
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जैन धर्म में
नुकुमारता का त्याग " कायक्लेश तप का व्यावहारिक जीवन में भी यहुत चदा महत्त्व है। मनुष्य को कोई भी महान कार्य सिद्ध करने के लिए कप्ट तो उठाना पड़ता ही है । शुभ कार्य में अनेक विघ्न बाधाएं आती है-श्रेयांसि बहुविघ्नानि ! लिन्तु उन विघ्नों की नदी पार करने के लिए साहस और सहिष्णुतारूप गार को आवश्यकता होती है । आत्म बल और मनोबल की जरूरत होती है । सुकुमारता और कोमलता से साधना नहीं हो सकती है-एक आचार्य ने कहा है--
अश्मा भव ! परशुभंव !! जब कष्टों के तूफान मचलने लगे तो तुम अश्मा---अर्थात् पत्थर-गट्टान बनकर खड़े हो जाओ ! जब भय और आशंका की बेटी तुम्हारे गांवों को। बांधने लगे तो कुल्हाद (परशु) बनकर काट डालो। तभी तुम अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सबोंगे। भगवान महावीर इतने बड़े नाजमार, कितने कोमल और सुगुमान थे ? किन्तु जब नाधना पथ पर बड़े तो गुयुमारता . कहां गायब हो गई? तो मेक से भी अधिक कठोर होकर मस्टों को गाने लगे । शालिभद्र कितने गुकुमार थे ? अामा श्रमिक की गोली में बैठने पर शरीर की गर्मी से उन्हें पसीना आने लगा । गिन्तु माधना पथ पर बम कितने पठोर तपस्यो वन गरे ? या अर्थ है साधना में गमारता, , शोलता नहीं चल सकती । मुगुमाता लाजकुमारों या म अमीरों का है. किन्तु नाशक जीवन में लिए यह बहुत मजा दुगुणं है। लिए कारों में पष्ट पाहा - .
.. आपायहि अप गोगमल्ल गुनमाता का मार मार को आना में माओ!
साहिता या frm मे पुत्र
माना fri
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कायक्लेश तप
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ठाणाइए, उक्कुडुयासणिए, पडिमठाइ, वीरासहिए
णेसणिज्जे, दंडाइए लगंडसाई।' कायक्लेश सात प्रकार का बताया है.-कायोत्सर्ग करना, उत्कटुक आसन से ध्यान करना, प्रतिमा धारण करना, वीरासन करना, निषद्यास्वाध्याय आदि के लिए पालथी मार कर बैठना, दंडायत-होकर खड़े रहना लगड-लकड़ी की भांति खड़े रहकर ध्यान करना ।
उववाई सूत्र में इन्हीं भेदों को विस्तार के साथ बताकर चौदह भेद कर दिये गये हैं जो इस प्रकार है
१ ठाणठ्ठिइए- कायोत्सर्ग करे । २ ठाणाइए-एक स्थान पर स्थित रहे । ३ उक्कुडु आतणिए-उत्कुटुक आसन से रहे । ४ पडिमट्ठाई-प्रतिमा धारण करें। ५ वीरासहिए--वीरासन करें। ६ नेसिज्जे-पालथी लगाकर स्थिर बैठे। ७ दंडायए-दंडे की भांति सीधा सोया या बैठा रहे। ८ लगंडसाई-(लगण्डशायी) लक्कड (वक्रकाष्ठ) की तरह सोता रहे । ६ आयावए-आतापना लेवे १० अवाउडए-वस्त्र आदि का त्याग करे । ११ अफंडुयाए-शरीर पर खुजली न करे । १२ अणिठ्ठहए-थूक भी नहीं थूके १३ सव्वगायपरिफम्मे--सर्व शरीर की देखभाल (परिकम) से
रहित रहे, १४ विभूसाविप्पमुपके-विभूपा से रहित रहे ।
कायक्लेश तप में सर्वप्रथम कायोत्सर्ग की साधना पर बल दिया है इसे व्युत्सर्ग (बारहवें तप) में भी गिना गया है,वहां शरीर,कपाय आदि के व्युत्सर्ग
.
१ स्थानांग ७। सूत्र ५५४ २ उवयाई समवसरण अधिकार तप वर्णन
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magg
२६४
जैन धर्म में तम
अग्नि में स्वयं को तपाना पड़ता है । तभी उसका साधुत्व स्वर्ण की भांति चमकता है । आप जानते हैं-सोना तपे बिना निखर नहीं सकता, दीप जले बिना प्रकाण नहीं फैला सकता, चन्दन घिसे बिना सुगंधि नहीं पतासकता । कहते हैं चन्दन के वृक्ष के पास जाकर सड़े हो जालो तो भी उसकी सुगंधि का पता नहीं चलेगा, सुगंधि तो तब महकेगी जब वह घिसा जायेगा ! मंदी का रंग कब खिलेगा, जब वह बारीक पीसी जायेगी । कहा है
रंग लाती है हिना पत्थर पे घिस जाने के बाद आदमी पाता है शोहरत ठोकरें खाने के याव !
पत्थर भगवान की मूर्ति कव बनेगा ? जब हथोड़े और हनी की चोदें सायेगा | विष पान करने के कारण हो शिव जी 'महादेव' कहलाये । ये व्यावहारिक बातें बताती है कि साधक कष्ट सहे विना सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता ? एक राजस्थानी कहावत है
बातां साटे हर मिले तो म्हांने हो फहज्यो । माया साटे हर मिले तो छाना-माना रहयो !
यदि बातें बनाने से ही भगवान मिल जाये तो हमें भी बुला सेना, वि यदि माया देना- रिहाना पड़े तो बस घुप चाप रहना । किन्तु यह निश्चित है कि भगवान यातां किये से नहीं, माया दिये से ही मिलते है। इसीलिए जैन धर्म में पवन बल दिया गया है कि रूपको सपना से साधक में सहित की ज्योति जलती है। ये मध मगरभाष व आतक्ति कम होती है। और यखा, पीरता, साह और महिमा यो पक्ति हो उठती है।
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कनोजी काकी ने की भांति विना
हैरों में खाये है।
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efeat crपते शं नही
स्पाणि गुण
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कायक्लेश तप
२६७
नेती-धौति आदि पट्कर्मों के द्वारा शरीर का शोधन किया जाता है, फिर आसन साधना से शरीर को सुदृढ़ बनाना, मुद्राओं द्वारा स्थिरता का अभ्यास करना, प्रत्याहार द्वारा इन्द्रिय निग्रह करना प्राणायाम द्वारा श्वास प्रक्रिया पर अधिकार कर शरीर को हलका बनाना, इसके पश्चात् ध्यान और समाधि का अभ्यास किया जाता है । जैन योग साधना में इतना लम्बा कम नहीं है । वहां पर आसन भी बहुत कम बताये हैं और जो हैं वह सिर्फ साधना के उपयोग में आने वाले। .
आसनों के भेद योग दर्शनकार आचार्य पंतजलि ने आसन की व्याख्या करते हुए कहा है-स्थिरसुखमासनम् जिसमें सुखपूर्वक शरीर की स्थिरता रह सके वह आसन है । यह योग का तीसरा अंग है, तथा हठयोग का दूसरा । वैदिक ग्रन्थों में बताया है विश्व में जितनी जीवयोनियां हैं उतने ही प्रकार के आसन हैं । इस दृष्टि से आसनों की संख्या भी ८४ लाख हो जाती है। संक्षेप में वे ८४ हैं । उनमें भी ३२ आसन पुरुप के लिए उपयोगी बताये हैं । ३२ में भी साधना की दृष्टि से दो आसन विशेष उपयोगी है—पद्मासन और सिद्धासन ।"
जैन आचार्यों ने यद्यपि आसन को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया है फिर भी ध्यान में स्थिरता एवं एकाग्रता लाने के लिए उसकी उपयोगिता को स्वीकार किया है । वहां बासन के दो भेद किये हैं...
१ शरीरासन
२ ध्यानातन शरीरासन वे हैं-जो शरीर को सुदृढ़ व स्थिर बनाने में अधिक लाभप्रद हैं। ऐसे आसनों की साधना में कोई महत्व नहीं है। दूसरे प्रकार के थासन है-ध्यानासन ! जिन आसनों में ध्यान किया जा सके। ये आसन
..
१ आसनानि च तावन्ति यावन्ति जीव जातयः-ध्यानबिन्दूपनिषद् ४१ २ ध्यान और मनोवल पृ० ४३८ (डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री) ३ जैन परम्परा में योग (मुनि नथमल जी)
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... नर्म में सर .
पर बल दिया गया है। कायोलागं का विस्तृत वर्णन भी यहीं पर किया जायेगा । सामान्यतः कायोत्सर्ग का अर्थ है-काय-शरीर, उत्तान--सांग, मीरा त्याग । शीर त्याग का अर्थ-शरीर से मुक्त होना नहीं कि शरीर की गमता से मुक्त होना है। शरीर की ममता ही गयो बहा गया है। मायोत्सर्ग में साधक---- रागद्वेप से रहित होकर अन्तर्मुसको जाता है। आदचितन में गहरा डूब जाता है । तब उसे शरीर की मुधि भी नहीं रहती। परीर को मच्छर काटते , या कोई नन्दन आदि का शीतल ला गारवा हैगिसी भी स्थिति में यह गरीर की निता रो नलित नहीं होगा । कोरसगं प्राय: जिन मुद्रा (दोनों पैरों के बीच बार अंगुल का अंगर सार गोधे गम अवस्था में पड़े रहना-जिन मुद्रा है) में ही किया जाता है। इसका उद्देश्य है शरीरको ममता, एवं मंगलता यो गास कार ने स्थिरता - . पूर्वक आत्मलीन होना योगदर्शन के अनुसार इसमें आया और शान होनों साधनाएं एक माद चलती हैं।
मनाइए---का अयं हे स्थानायत । मिरा लान पर बैठा तो टा . रहे, मला है, तो मला आयात जिस अवस्था में गाया, उसी परमा में सिर महर र पोगों को संचलता कम करें। इसका एक मात्र आमज म्यागायत) लार (ट) की तरह गिर पकाको । योगों में भावनगलता को दोरना ही।
मामा को माता .
.....ासना नगी माया
र मानगोशित गरि sairat
artी . गामिनीraTime
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Maratha तप
आचार्य हेमचन्द्र ने इसका वर्णन यों किया है
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पुतपाणि- समायोगे प्राहरुत्कटिकासनम् । १
जमीन से लगी हुई एड़ियों के साथ जब दोनों नितम्ब मिलते हैं तब
उत्कटिकासन होता है ।
४ पद्मासन -- बायीं जांघ पर दायां पैर और दायीं जांघ पर वायां पैर
रखकर हथेलियों को एक दूसरे पर रखकर नाभि के नीचे रखना । ५ वीरासन - वीरासन के कई प्रकार मिलते हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने दो प्रकार बताये हैं
बायां पैर दाहिनी जांघ पर और दाहिना पैर बांयी जांघपर रखकर बैठना वीरासन है । अथवा कोई पुरुष जमीन पर पैर रखकर सिंहासन पर बैठा हो, और पीछे से उसका आसन हटा लिया जाय-तब उस बैठक की जो आकृति बनती है वह - 'वीरासन' है । '
६ दंडासन - दंड की आकृति से जमीन पर इस प्रकार लेटना कि अंगुलियां, गुल्फ (घुटने) और जांघें जमीन के साथ लगी रहें ।
७ गौवोहिकासन —- गाय को दुहने जैसी स्थिति में बैठाना । इस आसन से ध्यान करते हुए भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था ।
८ पर्यासन -पलंग का आकार बनाकर बैठना ।
इनके अतिरिक्त वज्रासन, (लगंडशायी - केवल सिर और एडियों का पृथ्वी पर स्पर्श हो - इस प्रकार पीठ के बल लेटना) भद्रासन आदि का भी उल्लेख कहीं-कहीं मिलता है । इनमें वीरासन आदि कठोर आसनों से मन में धैर्य आदि को जागृति होती है, तथा पद्मासन आदि सुखासन से चित्त की स्थिरता !
१ योगशास्त्र ४।१३४
२ योगशास्त्र ४।१२६-१२६
जैन योग साधना में किसी भी एक आसन पर अधिक भार नहीं दिया गया है । क्योंकि आसन तो मात्र शरीर को स्थिर करने का एक अभ्यास है, वह ध्येय तो नहीं है । इसलिए मुख्य बात यह है कि जिस आसन में मन
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२९८
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जग धर्म में तर
ध्यान साधना में उपयोगी होते हैं। शरीर को स्थिर व निश्चेष्ट बनाकर ध्यान में एकाग्रता प्राप्त करने के लिए जैन साधना में इन आसनों का. महत्व है। इन आसनों को भी दो भेदों में बांटा गया है-गुखासन और .. पठोर आगन ! पद्मासन आदि सुसासन है, बीरासन आदि मठोर आगन है।
आगमों में जिन आसनों की अधिक चर्ना नाती है. ये आसन इस प्रकार
१ स्थानस्थिति-(कायोत्सर्ग) दोनों भुजाओं को फैला कर पर गो . दोनों एत्रियों को परस्पर मिलाना या उनमें चार अंगुल का अंतर .
समगार पढ़ा रहना । आचार्य हेमचन्द्र ने इसे कायोत्सर्गासन याहा है, इसका ला इस प्रकार बताया है
प्रलम्बित भुजहन्नमवस्यस्यासितस्प या।। .
स्थानं फायानपेक्षं यत्मायोत्सर्ग: सोतितः ॥ सगीर के समय का त्याग करके दोनों गुजायों को नोने नटला कर । गरीर और मन को स्थिर मारना 'कायोत्सर्गासन' है। यह भागन गाहे होकर .. मेवार मा कमजोरी यो हालत में लेट गार भी किया जा सकता है। .. शासन की मुहर विभपता नहीं है रिमन-वचन एवं काय के गोग अपिल सिर हो जाने ।
मान () ािर होकर शांश बैठना। इसमें मिशागती ...
. उरुटिपारान दोनों पर और निम्न भूमि संग बटना।
मा नादिरामन। मेन में ही सो मोnिfen की ओर
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कायक्लेश तप यदि कायक्लेश की विशेष साधना करना चाहे तो साधक मन को इतना मजबूत करलें कि खाज आये तब भी खाज नहीं करें। इसी प्रकार थूके भी नहीं।
परिकर्म और विभूषा कायक्लेश का तेरहवां भेद है-गात्र परिकर्म का त्याग-परिकर्म का अर्थ है--शरीर की साज सज्जा आदि । परिकर्म और विभूपा में वैसे तो कोई विशेष अन्तर नहीं है, किन्तु फिर भी दो शब्द हैं, और दोनों की भावना में अन्तर भी है । परिकर्म से शरीर की साज सज्जा के ये रूप लिये जाते हैं -- जैसे शरीर को पुष्ट बनाने के लिए विरेचन आदि लेना, वमन करना, नख केश आदि काटना, आँखों का मैल निकालना, दतौन करना आदि। और विभूपा से स्नान करना, कपड़ों को ज्यादा उजला धोना, रंगना, आँखों में अंजन (काजल) लगाना आदि । ब्रह्मचारी साधक के लिए ये सभी कर्म अहितकारी हैं । जैसा कि पीछे भी बताया गया है-- • विभूपा, स्त्री संसर्ग, और प्रणीतरस भोजन-ये तीनों आत्म-गवेषक के लिए तालपुट जहर के समान है। विभूपा करने वाला साधक संयम से भ्रष्ट होकर बड़े चिकने कर्म बांधता है
विभूसा वत्तियं भिक्खु फम्मं बंधइ चिक्कणं' संयम से भ्रष्ट होने के अठारह कारणों में स्नान एवं विभूपा को भी दो मुख्य कारण माने हैं, अतः परिकर्म और विभूपा-सामान्य साधु जीवन के लिए भी वर्जनीय है। क्योंकि बताया गया है, साधु शरीर को नहीं, आत्मा को संवारता है, आत्मा का सौन्दर्य निखारने में ही वह जीवन भर जुटा रहता है । वही उसका अपना है । शरीर तो जड़ है, यदि शरीर की सुन्दरता पर ध्यान देना होता तो फिर संसार क्यों छोड़ता । शरीर की शोभा विभूषा करने का अर्थ है - भोगविलास की कामना करना । यह तो साधु के पतन का मागं है।
१ दशवकालिक ६१६६ २ दशवकालिक ६८
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- जैन धर्म में तप .. अधिक स्थिर हो सकता हो, साधक उसी आसन का अधिक उपयोग करें। . . आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है
जायते येन-येनेह विहितेन स्थिरं मनः । ..
तत्तदेव विधातव्यं आसनं ध्यान-साधनम् ।' ध्यान साधना के लिए किसी भी विशेप आसन का आग्रह नहीं है। . जिस आसन के प्रयोग से मन स्थिर होता हो, उसी आसन का ध्यान के . लिए प्रयोग किया जा सकता है। ___ तो यह सब आसन कायक्लेश तप हैं, क्योंकि इन आसनों की साधना से... शरीर को कष्ट होता है और साथ ही उसकी चंचलता का निरोध भी ! . .
प्रतिमा धारण करना यद्यपि अनशन तप में बताया गया है, किन्तु काय- ... कष्ट की दृष्टि से इस तप में भी उसे माना जा सकता है । चूकि प्रतिमा में उपवास आदि के साथ उत्कटिकासन, लगण्डशायी, दंडायत आदि का विधान ... है अतः कायक्लेश तप में भी उसका समावेश हो सकता है। ___ कायक्लेश में आतापना और वस्त्र त्याग का भी महत्व बताया गया है। सूर्य की प्रचंड किरणों के सामने शरीर को तपाना-ताप लेना-आतापना है। और शीत ऋतु में कड़कड़ाती सर्दी में वस्त्रों का त्याग करना-अपावृता(उवाउडए) है । सूत्र में कहा है
मायावयंति गिम्हेतु हेमंतेत्तु अवाउडा ।
वासासु पडिसंलोणा संजया सु समाहिना ।। ग्रीमातु में सूर्य के सामने आतापना लेना, शीत ऋतु में वस्त्र त्याग कर खुले शरीर से रहना और वर्षा में एक स्थान पर स्थिर रहना-दंश मगर .. आदि के परीपहों को सहन करना-यह संयत सुमाहित साधु का आचार है। . .
शरीर पर खुजली आये तो खुजलाए नहीं -यूके भी नहीं---यह भी . कायपलेश की विशेष साधना है । सामान्यत: यह शारीरिक आवश्यकता है . और साधारण दशा में नाधर घुजली भी करता है, भूकता भी है । किन्तु
. १ . योगशास्त्र ४११३४
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प्रतिसंलीनता तप
जैन आचार्यों ने आत्मा के तीन प्रकार बताये हैं
तिपयारो सो अप्पा परमंतर बाहिरो दु हेऊणं ।' परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा ।
इन्द्रिय एवं विषयों में आसक्त आत्मा-बहिरात्मा है। उसका केन्द्र .. वाह्य पदार्थ होते हैं।
अन्तरंग में आत्म संकल्प-अर्थात् अपने भीतर में ही लीन, अन्तर में स्थित होना अन्तरात्मा है। अन्तरात्मा का केन्द्र-ज्ञान दर्शन रूप आत्म शक्ति है।
कर्म मल से सर्वथा मुक्त आत्मा-परमात्मा है ।
बहिरात्मा--संसारमुखी रहता है। भोग विलास, भादि विषय तथा क्रोध, मान आदि कपायों में सदा लीन रहने वाला आत्मा असंयमी तथा संसारासक्त कहलाता है । संसारासक्त आत्मा सदा पतन एवं विनाश की ओर ही बढ़ता रहता है। उस संसारोन्मुखी आत्मा को बाहर से मोड़कर अन्तर
१ आचार्य कुन्दकुन्द-मोक्ष प्राभृत ६५
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जैन धर्म में तप __परिकर्म व विभूपा वर्जन का यह अर्थनहीं है कि साधु शरीर की शुद्धि . भी न रखें। शरीर व वस्त्रों को साफ स्वच्छ तथा शुद्ध रखना एक अलग बात है और उनकी विभूषा करना अलग बात है। शुद्धि व स्य... च्छता के लिए तो यहां तक बताया है कि साधु मल, मूत्र, खेल, खंखार व .. पसीने के गीले हाथ भी खाने पीने की वस्तु को न लगाए। यह तो एक प्रकार की स्वच्छता है। स्वच्छता, सफाई रखने वाला अपने आप बहुत से रोगों से बच जाता है। लोगों में घृणा जुगुप्सा पैदा हो ऐसा वस्त्र,पात्र,शरीर आदि रखना साधु के लिए निषेध हैं । किन्तु साधु का शरीर व वस्त्र पाय के प्रति इतना ही लक्ष्य रहता है कि वे स्वच्छ रहे, गंदे न रहे,न कि सुन्दर दीखे, लोगों को आकर्षक लगे। शरीर को सुन्दर व आकर्षक बनाने की इच्छा ही ।। वास्तव में विभूषा है, गाय परिकर्म है-और इन दोनों दोपों से बचना कायक्लेश तप है।
उपसंहार यह तप साधु को लक्ष्य करके भले ही बताये गये हैं, किन्तु गृहस्य भी इनकी साधना कर सकता है। आसन आदि के द्वारा ध्यान करना, ग्यारह . उपासक प्रतिमा धारण करना, शरीर की, शिष्यों की ममता कम करना, स्नान, विलेपन अंगराग आदि की मर्यादा करना जैसा कि श्रावक के चौदह नियमों में भी बताया गया है, यह सव साधना करने पर गृहस्य भी कायस्लेश तप की आराधना कर सकता है। वास्तव में कायक्लेश तप का उद्देश्य एर. हो है-शरीर के प्रति ममत्व कम करना, शरीर का मोह छोड़ना-इस उद्देश्य की पूर्ति में जो भी साधन काम में आये ये सभी तप हो सकते हैं।
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प्रतिसंलीनता तपं
तो, वाहर से भीतर की ओर मुड़ना ही अतलीनता है, स्वलीनता है, और संलीनता है। ___ जो स्वलीन होगा, वह बाहर से अपने आप को हटा लेगा, भोजन के प्रति, वस्त्र के प्रति, गृह एवं परिवार के प्रति, धन संपत्ति के प्रति उसकी आसक्ति कम हो जायेगी। भोग्य विषयों से वह मन को हटा लेगा, अपने आप में सिमट जायेगा, बाहर से संकुचित हो जायेगा । शास्त्र में बताया हैकुछ द्वीपों में एक पक्षी होता है। उसकी काया बड़ी विशाल व पंख बड़े लम्बे-चौड़े होते हैं । जब कहीं बैठता है तो पंखों को इतना फैला देता है कि लगता है, कोई विशाल वृक्ष टूट कर गिरा है । यदि किसी घर की छत पर बैठ जाये तो पूरे घर पर ही चंदरोवा जैसा तन जाता है। इतने विशाल उसके पंख होते हैं। किंतु जब वह उड़ता है, तो तुरन्त अपने पैरों को ऐसे सिमट लेता है जैसे कपड़ा सिमट लिया हो । जब कहीं कोई उस पर आक्रमण करने आता है,तो वह तेज आंखों से उसे दूर ही से देख लेता है और क्षणों में ही अपने विशाल परों को सिमट कर उड़ जाता है या फिर उस पर टूट पड़ता है। विस्तार और संकोच की इस अद्भुत क्षमता वाले पक्षी का नाम है-- भारंडपक्षी ! अपने आपको संकोच व संयम करने की कला में निपुण होने के कारण शास्त्र में भारंड पक्षी का कई स्थानों पर उल्लेख आता है, और उसकी कला को आध्यात्मिक जीवन के लिए आदर्श बताते हुए कहा हैभारंडपक्खी व चरेऽप्पमत्तो'-भारंड पक्षी की तरह साधक सदा अप्रमत्तसावधान रहे, अपना मंकोच करने में दक्ष रहे। इन्द्रियों को बाहर से सिमटाकर गुप्त रखे।
इन्द्रियों को, कपायों को, मन वचन आदि योगों को, बाहर से हटाकर भीतर में गुप्त करना-छुपाना इसी का नाम संलीनता है। शास्त्र में इसे 'संयम' भी कहा गया है । गुप्ति भी कहा गया है।
१ उत्तराध्ययन सूत्र .. (ख) भारंड पक्षी व अप्पमत्ता -औपपातिक सूत्र
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जैन धर्म में तप .. की ओर उन्मुख करना विपय कपाय की वृत्तियों से हटाकर तप संयम की ओर बढ़ाना आत्मा को अन्तर्मुखी बनाना है। आत्मा की अन्तर्मुखता का . यह प्रयत्न ही तप की भापा में 'प्रतिसंलीनता' कहा जाता है।
स्व-लीनता, संलोनता प्रतिसंलीनता-बाह्य तप का अन्तिम तथा छठा भेद है। इसका अर्थ है-आत्मा के प्रति लीनता। पर-भाव में लीन आत्मा को स्वभाव में लीन । बनाने की प्रक्रिया ही-वास्तव में प्रति संलीनता है। इसलिए संलीनता को .. स्व-लीनता-अपने आप में लीनता भी कह सकते हैं । .
योगीराज आनन्दघन जी एकबार किसी सुरम्य पर्वत कन्दरा में ध्यान । कर रहे थे । कुछ भक्त जन उनके दर्शन करने के लिए उस जंगल में पहुंचे। जंगल का वातावरण बड़ा ही मनोहर लग रहा था, सुन्दर रम्य वृक्षावलियां चारों तर्फ हरियाली, विविध पक्षियों का मधुर कूजन और एक तर्फ शांत हरी भरी पर्वतमाला ! उससे कल-कल कर झरते-निझर! दूसरी ओर लहरों से मवेलियां करती हुई नदी ! इस मन मोहक वातावरण को देखकर भक्तजन मंत्र मुग्ध से होगए, कुछ देर वे वही शांत वातावरण का आनन्द लेते रहे । फिर पर्वत की गुफा में पहुंचे, जहां योगीराज ध्यान मग्न थे। योगी राज का ध्यान पूरा हुआ । भक्तों ने प्रार्थना की-महागज ! भीतर अंधकार में कहां बैठे हैं ? बाहर चलिए और देखिए कितना सुहावना वातावरण है ? .
योगीराज स्मित-हास्य के साथ कुछ गम्भीर होकर बोले --भाई ! बाहर ही देखना या तो यहां क्यों आये ?
भत्तजन योगीराज की गम्भीर मुनमुद्रा को एक टक देखने लगे, कुछ · समझे नहीं, योगीराज क्या कह रहे हैं । योगीगज ने आगे कहा-~~-बाहर देखते-देखते तो अनन्त जीवन बीत गये ! कुछ कल्याण नहीं हुआ। अब तो . बाहर दृष्टि हटाकर भीतर की ओर देखो, भीतर में बाहर से भी अधिर गौन्दर्य, अधिक शांति और अधिक मन मोहकाना भरी पड़ी है ! जरा मुह गार नीतर देतो तोही !"
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प्रतिसंलौनता तप एक मतंग द्रह था, उसमें अनेक मच्छ-कच्छ रहते थे। उस द्रह के पास में ही एक मालुका कच्छ नाम का जंगल था। उसमें अनेक हिंसक पशु छुपे रहते थे। एक दिन दो दुष्ट सियार शिकार की टोह में इधर-उधर घूमते हुए उस द्रह के पास पहुंच गये । द्रह के किनारे पर कछुए आजादी से दौड़ रहे थे। सियारों ने उन मांसल कछुओं को देखा तो मुंह में पानी छूट आया। वे धीरे-धीरे द्रह के पास आये, उनके पैरों की आहट पाकर दोनों कछुए वहीं अपने हाथ-पैरों को सिमट कर गुपचुप बैठ गए। पापी सियार वहां आये, देखा तो दोनों कछुए एकदम निर्जीव निश्चेष्ट से पड़े थे । हाथ-पांव सब भीतर में सिमटे हुए, अब पकड़े भी तो कैसे ?
सियार भी तो सचमुच रंगे सियार थे । वे झाड़ियों की ओट में जाकर छुप गये और कछुए के हाथ पांव फेलाने की बाट देखने लगे। थोड़ी देर बाद एक कछुए ने आंखें खोलकर इधर-उधर देखा, कोई दिखाई नहीं दिया तो सोचा-खतरा टल गया है, सियार कहीं चले गये हैं । उसने धीरे से अपना एक पांव बाहर निकाला । तभी ताक लगाए बैठे दोनों सियार उस पर झपट पड़े। सियारों ने उसके पांव को पकड़कर नखों से उसे छील डाला, दांतों से काट डाला, धीरे-धीरे उसके चारों पांव बाहर निकले तो वे उन्हें काट-फाड़ कर खागए, उसकी गर्दन भी नोंच डाली । कछुए को खत्म कर डाला।
अब वे दूसरे कछुए की तरफ बढ़े, लेकिन वह तो पहले की भांति-चुपचाप पड़ा रहा, न हिला-डुला, न हाथ पांव बाहर निकाले । दुष्ट सियारों ने उसे भी नोंचने की जी-तोड़ कोशिश की, मगर उसने अपने हाथ-पैर छुपाए रखे, इसलिए उसका वाल भी वांका नहीं हुआ। पापी सियार हार खाकर चले गये । फिर खतरा दूर हुमा समलकर उसने आंखें खोलकर चारों तरफ देखा, फिर धीरे से गर्दन बाहर निकाली, और एक साथ चारों पर फैलाकर तेजगति से दौड़ा, झटपट वह अपने मतंगद्रह में जाकर छप गया । स्वजन-मित्रों से अपने साथी की दुर्दशा सुनाई, उसकी मृत्यु पर दो आंसू बहाकर चुप हो, गए । नौर वह कछुना आनन्द से अपने घर में जीवन बिताता रहा ।
पहले कछुए की मांति जो साधक इन्द्रियों पर संयम नहीं रख सकत ।
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. जैन धर्म में तप. सं-यम-शब्द का भी अर्थ है-सम्यक् प्रकार से नियंत्रण अति आत्मनिग्रह ! और गुप्ति का भी अर्थ है-इन्द्रिय आदि का गोपन करनाछुपाना, उन्हें अपने वश में रखना। आगमों में जहां साधु का वर्णन आता - है, वहां उसके लिए एक शब्द खासतौर से आता है--गुत्तिदिये गुप्तेन्द्रिय ! अर्थात् इन्द्रियों पर संयम रखने वाला ! इन्द्रियों को गुप्त कैसे करता हैइसका उदहारण देकर बताया है-कुम्मो इव गुत्तिदिया --कूर्म-कछुए की भांति इन्द्रियों को गुप्त रखने वाला। भारंड पक्षी की तरह कछुए को भी .. साधक के लिए आदर्श बताकर उसकी गोपन-कुशलता, शरीर को छुपाने, सिमेटने की कला सीखने का उपदेश किया गया है। कछुआ संयम-साप्रकों के लिए आदर्श रहा है, जैन, बौद्ध एवं वैदिक तीनों धर्मों में उसके उदाहरण मिलते हैं । गीता में कहा है
यथा संहरते चायं फूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य स्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। -जैसे कछुआ सब ओर से अपने अंगों को समेट कर शांत-गुप्त होकर बैठता है, वैसे ही साधक सांसारिक विषयों से अपनी इन्द्रियों को सब प्रकार से समेट लेता है, तब उसकी प्रज्ञा-धर्मबुद्धि स्थिर हो जाती है।
दो कहए भगवती सूत्र एवं उबवाई सूत्र में भी कहा है-फुमो इव गृत्तिदिए सध्यं गाय पडिसंलोणे चिठ्ठ-कछुए की तरह समस्त इन्द्रियों एवं संगोपांग । का गोपन करके रहे-यह सावक का इन्द्रिय संयम, काययोग तप है। भातासूत्र में दो कछुओं का दृष्टान्त दिया गया है-गंगा नदी के तट पर
१ औपपातिक सूत्र
(ब) कुम्मोव अल्लीप पल्ली गुते उत्तराध्ययन
(ग) जहा से कुम्मए गुत्तिदिए -भातागून ४ २ गीता ५८ ३ भगवती २५ • ४ शातानुम४
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प्रतिसंलीनता तप
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शीघ्र साकार न हो जायें । आज मनुष्य कहता है-वह स्वतंत्र है, किन्तु वास्तव में इन्द्रियों का गुलाम हो रहा है ।
___ इन्द्रियों की दासता में हा ! जवानी जा रही,
आज इन्सानी दिलों पर हा ! दिवानी छा रही। इन्द्रियों की दासता में वह इधर-उधर हाथ पांव मारता है और चारों ओर से संकट,बैचेनी व अतृप्ति का तीव्र अनुभव कर रहा है। पिछले जमाने से आज सुख सुविधाएं अधिक उपलब्ध होते हुए भी मनुष्य आज बहुत अधिक दुखी है, वैचेन है और आकुल-व्याकुल हो रहा है । इन्द्रियों के विषय भोग से तब तक उसे तृप्ति नहीं मिल सकती, जव तक वह संयम और संतोप का पाठ नहीं पढ़ेगा। उस कुछुए की भांति मनुष्य सुख व आजादी की सांस लेने के लिए अपनी इन्द्रियों को खुली छोड़ना चाहता है, किन्तु दु:ख व मृत्यु रूप पापी सियार उसे झट अपने शिकंजे में दवाकर चवा जाने को तैयार खड़े हैं । अत: जीवन में यदि शांति, निर्भयता और सुखमय दीर्घ जीवन की कामना है तो इन्द्रियनिग्रह, अर्थात् संयम व प्रतिसंलीनता का अभ्यास करना अत्यन्त । आवश्यक है।
प्रतिसंलीनता के भेद प्रतिसंलीनता का भावार्थ-स्पष्ट किया गया है, इन्द्रिय, कपाय व योग आदि का संयम-संकोच एवं निग्रह करना प्रति संलीनता है । इस दृष्टि से प्रति संलीनता को संयम भी कह सकते हैं ।
संयम का सामान्यतः एक ही रूप है-अशुभ से निवृत्ति व शुभ में प्रवृत्ति। आवश्यक सूत्र में संयम के विरोधी असंमय को संग्रह नय की दृष्टि से एक प्रकार का असंयम-एग विहे असंयमे- कहा है। मन की अविरति, सीधी । भाषा में मन का मोकलापन-खुली छूट यह असंयम है । असंयम का विरोधी संयम है । आगे चलकर असंयम के व संघम के भी १७-१७ भेद बताये हैं । समवायांग सूत्र में १७ प्रकार का संयम इस प्रकार बताया है
१ समवायांग ५७ मूग ।
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जैन धर्म में तप
धीरे-धीरे विषयों की ओर इन्द्रियों को खुली छोड़ देता है-- वह अकान में हो .. मृत्यु या विनाश को प्राप्त हो जाता है, किन्तु जो दृढ़ संयम, इन्द्रिय निग्रह .. और विपयों से विमुखता रख सकता है, वह कष्टों से, संकटों से बचकर .. अपना जीवन सुखपूर्वक दिता सकता है।
इस कथानक के माध्यम से साधक को इन्द्रिय-निग्रह का उपदेश किया। गया है और इन्द्रिय-विपयों में फंस जाने पर कैसी दुर्दशा होती है यह भी समझाया गया है।
इन्द्रियों की यह दासता आज का मानव पहले कछुए की भांति इन्द्रियों की दासता में फंस रहा । है । वह सोचता है, संसार में आये हैं, सब सुख सुविधाएं मिली हैं तो खूब खाओ पियो मौज करो, (Eat Drink And be Merry) धन संपत्ति जो कुछ मिली है, वह खाने-पीने और मौज करने के लिए है । अश्लील गाने और काव्वालियां सुनना, चटपटे मसालेदार उत्तेजक पदार्थ खाना, मांस-मदिरा का सेवन करना उन्मुक्त भोग-भोगना- मर्यादाहीनता व निर्लज्जता के साथ स्त्री-पुरुषों का संसर्ग रखना-यह सब आज के भौतिकवादी युग की देन है। आज का मानव इन्द्रियवादी बन गया है । संयम को, इन्द्रिय निग्रह को . अप्राकृतिक बताता है, और उ.मुक्त भोग को प्राकृतिक । आज के नीतिशास्त्रकारों का कथन है कि अब वह समय आ रहा है जब मनुष्य पशु से भी . अधिक मर्यादाहीन और इन्द्रिय भोगी बन जायेगा । तब गंसार में प्रेग नाम .. की कोई वस्तु नहीं रहेगी-प्रेम का अर्थ सिर्फ-भोग ! उन्मुक्त भोग ! क्षणिक आनन्द होगा ! और विवाह का बंधन भी टूट जायेगा, विवाह सिर्फ कुछ घंटों मा एक समझौता भर होगा । स्त्री नित-नये पुरुप को चाहेगी और पुरुष नित... नयी सुन्दरियों को शोज में भटकता रहेगा--जैसे गली का कुत्ता या जंगल . का मस्त बंदर ! दूध और फल-नों के स्थान पर शराब, होस्पी हो युगमा पेय होगा, अधनंगी वेशभूषा और पागलों के जैसा व्यवहार-वधि यह आने बाले इन्द्रियादी युग का हाल होगा । आज मनुष्य जिन राजी ने दिया लोना बन रहा है, उसे देखते हुए लगता है विचारकों को ये कामगार नहीं
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प्रतिसंलीनता तप
यद्यपि उत्तराध्ययन' में प्रतिसंलीनता के स्वरूप में सिर्फ विविक्तशयनासन को ही लिया गया है । वहां पर मुख्य दृष्टि साधक को ध्यान व समाधि के उपयुक्त एकांत स्थान की गवेषणा करने की रही है, ध्यान से संयम की वृद्धि होती है, इस कारण ध्यान व समाधि में साधन रूप विविक्तशयनासन को वहां प्रतिसंलीनता बताकर वाकी भेदों के प्रति सहज उपेक्षा बतादी गई है । किन्तु भगवती सूत्र आदि में विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है, वहां उसके सभी रूपों पर विचार किया गया है ।
इन्द्रियों का स्वरूप
सर्वप्रथम इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के पांच भेद बताये गये हैं ! इन्द्रिय शरीर की एक अद्भुत शक्ति है । विषयों को ग्रहण करने की यह एक अपूर्व शक्ति है - जिसके अभाव में शरीर सर्वथा निरुपयोगी रहता है, मुख्य वात तो यह है कि संसारी प्राणी का इन्द्रिय के अभाव में शरीर धारण करना सम्भव ही नहीं है |
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३११
प्रज्ञापना सूत्र के १५ वें पद में इन्द्रिय के सम्बन्ध में बड़ा ही वैज्ञानिक विवेचन किया गया है । मुख्य रूप से इन्द्रियां दो प्रकार की हैं- द्रव्य इन्द्रिय और भावइन्द्रिय |
द्रव्य इन्द्रियां पांच हैं-श्रोत्र, नेत्र, घ्राण, जिह्वा, और शरीर ! द्रव्य इन्द्रिय के भी दो भेद हैं- निर्वृत्ति इन्द्रिय एवं उपकरण इन्द्रिय । सभी इन्द्रियों के अलग-अलग आकार होते हैं । इन इन्द्रियों के आभ्यन्तर आकार तो— प्रत्येक प्राणी में प्राय: समान होते हैं, जैसे कान का भीतरी आकार कदंब के फूल के आकार का मांस पिंड सभी जातियों में समान होता है, वैसे ही अन्य इन्द्रियों के भीतरी (आभ्यन्तर ) आकार में एक रूपता होती है, किन्तु वाह्य आकार सभी जाति के प्राणियों में भिन्न-भिन्न होते है । मनुष्य का कान साधारण रूप में उसके शरीर से बहुत छोटा होता है, जब कि खरगोश के कान का नाकार उसके लघु शरीर की दृष्टि से बड़ा होता है । हाथी के
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उत्तराध्ययन ३०१२८
ور
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जैन धर्म में तप
१-५ पृथ्वीफाय आदि पांच कायों का संयम (एकेन्द्रियादि संयम) ६-६-द्वीन्द्रीय, त्रीन्द्रिय, चतुरीन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा : .
का संयम । १० अजीव संयम-वस्त्र पात्र आदि अचितवस्तु का संयम ।. ११ प्रेक्षा संयम - शुद्ध स्थान में उठना बैठना--प्रेक्षा संयम है। १२ उपेक्षा संयम-पाप कार्यों का अनुमोदन न करना। १३ अपहत्य संयम-विधि पूर्वक परठना । .. १४ प्रमार्जना संयम-वस्त्र पात्र आदि की ठीक प्रमार्जना करना । . १५ मन संयम-मन का निग्रह । १६ वचन संयम-वचन का निग्रह । १७ फाय संयम-काया का निग्रह ।
प्रकारान्तर से संयम के १७ अन्य भेद भी बताये गये हैं जैसे हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचार्य एवं परिग्रह का संयम, पांच इन्द्रियों की अशुभ प्रवृत्ति . का संयम । चार कपाय एवं तीन योगों की अशुभ प्रवृत्ति का संयम-यह १७ प्रकार का संयम है । संयम के आखिरी बारह भेद और प्रतिसंलीनता के प्रारम्भ के बारह भेद - एक ही गिने गये हैं-जो १२ भेद संयग के हैं, ये ही वारह भेद प्रतिसंलीनता के हैं--- इससे संयम और प्रतिसंलीनता में कितनी एकरूपता है यह स्पष्ट हो जाता है । इसी आधार पर हम प्रति लीनता का अर्थ संयम भी कर सकते हैं । अब आगम में वर्णित प्रतिसंलीनता के भेदों पर गहराई से विचार करना है। प्रतिनलीनता चार प्रकार की है ...
पडिसंलोणया चव्यिहा पप्यता, तंजहादंदियपष्टिसंतीणया, फसापपटिसंलोणया,
जोगपडिसंलोगया, वियित्तसयपासपसेयणया ।' इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, पाय-प्रतिमंलीनता, योग-प्रनिमंतीनता तमा विवित्तानयनासन सेवना ।
१ भगवती मूत्र २५
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प्रतिसंलीनता तप
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क्या कोई स्त्री का रूप सामने आ जाये तो आँखों पर पर्दा डालकर या आँखें बन्द कर उससे बचना चाहिए ? या सूरदास की भांति आँखें फोड़ डालनी चाहिए। आँखें खुली रहेगी तो इन्द्रियों को विषय ग्रहण से कैसे रोका जा सकता है ? फिर इन्द्रिय प्रतिसंलीनता कैसे हो सकती है ?
इन्द्रियों के सम्बन्ध में यहाँ जैन धर्म बहुत ही महत्व पूर्ण तथा विवेक युक्त दृष्टि देता है। जैन धर्म का कहना है -- इन्द्रिय का कार्य सिर्फ विषय को ग्रहण करना है। यह तो एक प्रकार का कैमरा है, जैसा दृश्य सामने होगा उसमें प्रतिविम्ब –फोटू वैसा ही आ जायेगा। उस विषय में राग-द्वेष करना, आसक्त होना या उससे घृणा करना - यह इन्द्रिय का काम नहीं । इन्द्रिय विपय की ग्राहक है---चोर नहीं । विपयों का चोर है मन !
मन पापी मन दुष्ट है, मन विषयों का चोर ।
मन के मते न चालिए पलक-पलक मन ओर ॥ ___ मन ही विषयों को पकड़ता है, अच्छे रूप को देखकर उस पर मोह करता है, वुरे रूप को देखकर घृणा करता है। इन्द्रियों के साथ विषय का भले-बुरे रूप में जो सम्बन्ध बनता है वह मन के कारण बनता है, इसलिए इन्द्रियों को नहीं, किन्तु मन को उन विपयों से रोकना चाहिए। शास्त्र में कहा है
न सक्का न सोऊं सदा सोतविसयमागया।
राग दोसा उजे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए। ... यह कभी सम्भव नहीं है कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने ही न जाए। शब्द तो कानों में अवश्य ही प्रवेश करेंगे। किन्तु उन शब्दों को नहीं, किन्तु शब्दों के प्रति होने वाले राग द्वेप रूप मनके विकल्प को रोकना चाहिए । इसी प्रकार आँखों के समक्ष आये हुए मनोज्ञ या अमनोज रूप को नहीं देखा जाय यह सम्भव नहीं है, किन्तु उस रूप के प्रति राग-द्वेप नहीं करना चाहिए। क्योंकि रूप तो चक्षु का विषय है ही
१ आचारांग २३१५१३२ से १३५ तक
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. जैन धर्म में तप कान का आकार-सूप जैसा लंबा चौड़ा होता है-इन्द्रियों के आकार की यह भिन्नता निर्वृत्ति इन्द्रिय के कारण होती है ! .
उपकरण इन्द्रिय का अर्थ है इन्द्रिय की शक्ति । श्रोत्र इन्द्रिय में सुनने । की शक्ति, घ्राण इन्द्रिय में सूघने की शक्ति । इस प्रकार इन्द्रियों की शक्ति उपकरण-इन्द्रिय कहलाती है।
भाव इन्द्रिय-आत्मशक्ति रूप है, उसके भी दो भेद हैं--कमों के क्षयोपशम से इन्द्रियों की प्राप्ति होती है । जिस प्राणी के जितने रूप में जिस कर्म का क्षयोपशम होगा-उसे उतनी ही इन्द्रियों की प्राप्ति होगी। उन्हीं .. कर्मों के कारण एकेन्द्रियत्व-पंचेन्द्रियत्व आदि की प्राप्ति होती है। अतः .. कार्यावरण के क्षयोपशम को-लवि-भावइन्द्रिय कहा जाता है। उसके पश्चात् इन्द्रिय के उपयोग-व्यापार रूप जो आत्मशक्ति की प्राप्ति होती है-वह उपयोग भाव इन्द्रिय कही जाती है। आंखों आदि से देखने की . आत्मिक शक्ति-यही उपयोग इन्द्रिय है।
थोत्र इन्द्रिय से शब्द आदि सुने जाते हैं चक्षु इन्द्रिय से रूप आदि देते जाते हैं। प्राण-नाक से गंध मादि का ग्रहण । जिह्वा-जीभ से रस (मधुरकटु) आदि का अनुभव होता है ! स्पर्श का अर्थ यहां शरीर है । शीत-.. उष्णं आदि स्परां का वेदन शरीर से होता है-इस प्रकार पांच इन्द्रियों के द्वारा २६ प्रकार के विभिन्न विषयों का ग्रहण होता है जिन्हें इन्द्रिय रे । २३ विपय कहे गये हैं।
इन्द्रिय विषयों में आसक्ति वर्जन नहीं प्रश्न होता है-न्द्रिय का कार्य ही है-विषय का अनुभव करना। . शुन्दर मसुन्दर आदि कोई भी रूप सामने आयेगा तो आंमें तुरन्त उम रूप को देनेगी । भला बुग, कोई शब्द आयेगा जो काम गट में उनकी हर गाने । सुगन्ध-दुर्गन्ध आदि कोई पदार्थ पान में आयेगा तो नाक तुरन काका अनुभाव पारेगा ! गट्टा मीठा आदि रम जीन में कार्य होगा को उगमा मावान भी जीम गरेगी, उंटा आदि का होगा तो खीर मात अनुभव करेगा ही, फिर इन्द्रिय नंगम व प्रतिमलीनता मामा !
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प्रतिसंलीनता तप .
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भोगवादी बन जाता है । स्वादिष्ट वस्तुएं खाता है, आलीशान विल्डिगों में डनलप के गद्दों पर पर सोता है, मोटरों में दौड़ता है और कहता है-"वस यह तो सब अनासक्त भाव से परमार्थ के लिए कर रहा हूँ।" सचमुच में अनासक्ति के साथ यह वंचना है, प्रवंचना है । यदि आसक्ति नहीं है तो शरीर को आराम देने वाली वस्तुओं की खोज क्यों करते हो ? उन साधनों का उपयोग क्यों करते हो ? सुख के समस्त साधनों का उपयोग करना और अनासक्ति का ढोंग करना। प्रभु को समर्पण करके परमार्थ के लिए भोगनायह सब नाटकीय शब्दावली है, जो भोगवादी प्रवृत्ति से पैदा हुई है। इसलिए जैन धर्म में प्रतिसंलीनता के दो अर्थ किये हैं—पहला यह है कि इन्द्रियों को संयत रखना । विषयों की और दौड़ाना नहीं।
पहले विपयों का उपयोग करो, फिर अनासक्ति का ढोंग रचो इससे तो अच्छा है,पहले उनका उपयोग करो ही मत ! वस्त्र को पानी में डालकर सुखाने की बात करने से अच्छा है,गीला करो ही मत ! क्योंकि इन्द्रियां इतनी बलवान हैं, इतनी सूक्ष्म रस ग्राहिणी हैं कि एक बार जिस विषय का आनंद ले लेती है, उस विषय से जल्दी से हटती नहीं, विषय सामने से हट गया फिर भी उसकी स्मृति मन से नहीं निकलती । आचार्यों ने कहा है
इदिय धुत्ताण अहो, तिल तुस मित्तं पि देसु मा पसरं ।
अह दिनो तो नीओ जत्थ खणो वरिस फोडिसमो !' इन्द्रिय (विषय) रूपी धूर्तों को तिल भर भी प्रश्रय मत दो, क्योंकि तिल भर प्रश्रय पाकर वे मेरु जितनी जगह बना लेते हैं और क्षण भर का अवकाश पाकर क्रोड वर्ष तक पल्ला नहीं छोड़ते । इसलिए प्रारंभ में इनको प्रश्रय दो ही मत ! .
संग त्यागो! ___ एक किसान का बालक पहाड़ की तलहटी में भेड़ें चरा रहा था, प्रातः काल का समय था। रात को बहुत वर्फ पड़ी थी, चारों ओर वर्फ जम रही
१ उपदेशप्रासाद भाग ५।१४२
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३१४
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जैन धर्म में तप
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चक्षुस्स एवं गहणं वयंति .... .
तं राग हे तु मणुनमाहु । . तं दोस हे अमणुन्नमाहु
समो य जो तेसु स वीयरागो। चक्षु रूप का ग्रहण करता है । वह रूप यदि सुन्दर है तो राग का हेतु है : और असुन्दर है तो द्वेप का हेतु । जो उस रूप में राग और द्वेप नहीं करके समभाव रखता है-वही वीतराग है । इन्द्रिय प्रतिसंलीनता का यही अयं . शास्त्रों में बताया है -
सोइदिय विसयप्पयार निरोहो, वा सोइदिय विसयपत्ते सु वा अत्येसु . रागदोस विणिग्गहो ।
-श्रोत्र इन्द्रिय को विपयों की ओर दौड़ने से रोकना, तथा श्रोत्र गत ... ... विपयों में राग-द्वेष नहीं करना-यह है श्रोत्र इन्द्रिय प्रतिसंलीनता ! ..
इन्द्रिय प्रतिसंलीनता : दो रुप इसमें दो बातें बताई गई हैं-(१) इन्द्रियों को विपयों की ओर दौड़ाना नहीं । विपयों की ओर उन्मुख नहीं होना।
(२) तथा सहज रूप में जो विषय इन्द्रियों के साथ जुड गये हैं उन विपयों में राग-द्वेप रूप विकल्प न करना ।
कुछ विद्वानों का कथन है-जीवन में कुछ भी करो, खाओ, पीओ, रा आदि का उपभोग करो, सुखपूर्वक जीवन जीओ -बस, उनमें आसक्त मत बनो-गीता में कहा है --असक्तो ह्याचरन् फर्म परमाप्नोति पूरुषः -- अनासक्त भाव से काम करने वाला परमपद को प्राप्त हो जाता है, अतः बग जीवन में समस्त कर्मों का एक ही शास्त्र है-"कर्म करो, किन्तु आसरत .. मत बनो!"
माजकल इस दृष्टि का गलत उपयोग होता है, व्यक्ति सुखवादी या
१ उत्तराध्ययन मूम ३२२२ २ भगवती मम २५ ३ गीता ३१६
An'..
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प्रतिसंलीनता तप
३१५ भोगवादी बन जाता है । स्वादिष्ट वस्तुएं खाता है, आलीशान विल्डिगों में डनलप के गद्दों पर पर सोता है, मोटरों में दौड़ता है और कहता है-"वस यह तो सब अनासक्त भाव से परमार्थ के लिए कर रहा हूँ।" सचमुच में अनासक्ति के साथ यह वंचना है, प्रवंचना है । यदि आसक्ति नहीं है तो शरीर को आराम देने वाली वस्तुओं की खोज क्यों करते हो ? उन साधनों का उपयोग क्यों करते हो ? सुख के समस्त साधनों का उपयोग करना और अनासक्ति का ढोंग करना। प्रभु को समर्पण करके परमार्थ के लिए भोगनायह सब नाटकीय शब्दावली है, जो भोगवादी प्रवृत्ति से पैदा हुई है। इसलिए जैन धर्म में प्रतिसंलीनता के दो अर्थ किये हैं—पहला यह है कि इन्द्रियों को संयत रखना । विषयों की और दौड़ाना नहीं।
पहले विषयों का उपयोग करो, फिर अनासक्ति का ढोंग रचो इससे तो अच्छा है,पहले उनका उपयोग करो ही मत ! वस्त्र को पानी में डालकर सुखाने की बात करने से अच्छा है,गीला करो ही मत ! क्योंकि इन्द्रियां इतनी वलवान हैं, इतनी सूक्ष्म रस ग्राहिणी हैं कि एक बार जिस विषय का आनंद ले लेती है, उस विषय से जल्दी से हटती नहीं, विषय सामने से हट गया फिर भी उसकी स्मृति मन से नहीं निकलती । आचार्यों ने कहा है
इंदिय धुत्ताण अहो, तिल तुस मित्त पि देसु मा पसरं ।
अह दिनो तो नीओ जत्थ खणो वरिस फोडिसमो !' इन्द्रिय (विपय) रूपी धूर्ती को तिल भर भी प्रश्रय मत दो, क्योंकि तिल भर प्रश्रय पाकर वे मेरु जितनी जगह बना लेते हैं और क्षण भर का अवकाश पाकर मोड वर्ष तक पल्ला नहीं छोड़ते । इसलिए प्रारंभ में इनको प्रश्रय दो ही मत ! ।
संग त्यागो! एक किसान का वालक पहाड़ की तलहटी में भेड़ें चरा रहा था, प्रातः काल का समय था। रात को बहुत बर्फ पड़ी थी, चारों ओर वर्फ जम रही
१ उपदेशप्रासाद भाग ५११४२
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जैन धर्म में तप
चक्खुस्स एवं गहणं वयंति
___ तं राग हे तु मणुन्नमाहु । तं दोस हे अमणुन्नमाहु. .
समो य जो तेसु स वीयरागो । चक्षु रूप का ग्रहण करता है । वह रूप यदि सुन्दर है तो राग का हेतु है . और असुन्दर है तो द्वेप का हेतु । जो उस रूप में राग और द्वेप नहीं करले समभाव रखता है-वही वीतराग है। इन्द्रिय प्रतिसंलीनता का यही अर्थ शास्त्रों में बताया है --
सोइ दिय विसयप्पयार निरोहो, वा सोई दिय विसयपत्ते सु वा आत्येसु . रागदोस विणिग्गहो ।
-श्रोत्र इन्द्रिय को विपयों की ओर दौड़ने से रोकना, तथा श्रोत्र गत विषयों में राग-द्वेप नहीं करना-यह है श्रोत्र इन्द्रिय प्रतिसंलीनता!
इन्द्रिय प्रतिसंलीनता : दो रूप इसमें दो बातें बताई गई हैं-(१) इन्द्रियों को विषयों की ओर दौड़ाना .. नहीं । विपयों की ओर उन्मुख नहीं होना ।
(२) तथा सहज रूप में जो विषय इन्द्रियों के साथ जुड़ गये हैं उन विषयों में राग-द्वेष रूप विकल्प न करना।
कुछ विद्वानों का कथन है-जीवन में कुछ भी करो, खाओ, पीओ, रा आदि का उपभोग करो, सुखपूर्वक जीवन जीओ --वस, उनमें आसक्त मत बनो-गीता में कहा है- असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः ...अना. सक्त भाव से कर्म करने वाला परमपद को प्राप्त हो जाता है, अत: वरा जीवन में समस्त कर्मों का एक ही शास्त्र है- "कर्म करो, किन्तु भासमत मत बनो"
आजकल इस दृष्टि का गलत उपयोग होता है, व्यक्ति सुखवादी गा ...
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१ उत्तराध्ययन गुन २ मगपतो मूग २ ३ गीता १६
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प्रतिसंलीनता तंप
. इसलिए इन्द्रिय प्रतिसंलीनता की पहली साधना है-इन्द्रियों को विपयों की ओर जाने से रोके । उन इन्द्रियों को अन्य विषयों में जोड़े। जैसे आँखों को शास्त्र पढ़ने में, कानों को शिक्षा, तत्त्व ज्ञान के उपदेश सुनने में, जीभ को सद्गुणों का कीर्तन करने में, प्रभु भजन गाने में । आधुनिक मनोविज्ञान का भी यह सिद्धान्त है कि मन को रोका नहीं जा सकता, किन्तु उसकी गति वदली जा सकती है । अशुभ से शुभ की ओर विषयांतर किया जा सकता है । फ्रायड जैसे काम-विज्ञानवेत्ताओं का भी यह अनुभव है कि मन को, काम शक्ति को ऊर्ध्व मुखी बनाकर उसका अच्छा उपयोग भी किया जा सकता है। विषयों की भूख, सेवा, स्वाध्याय, लेखन आदि कार्यों से दूसरी ओर मुड़ जाती है और उसका प्रवाह ऊर्ध्वमुखी, जीवन विकासकारी बन जाता है। साधना की प्रथम भूमिका पर यही क्रम अपनाया जा सकता है।
विपय-प्रति संलीनता को प्रथम साधना होने के बाद दूसरी साधना है--इन्द्रियों के समक्ष आये हुए प्रस्तुत विषयों में राग-द्वेप का संकल्प नहीं करना । यह साधना अभ्यास जन्य है, कुछ कठिन है। इसमें मन को विवेक एवं वैराग्य से स्थिर रखना पड़ता है। जैसे गीत आदि मधुर शब्द कानों में आ रहे हों तो साधक सोचता है
सध्वं विलंबियं गोयं-ये सब गीत विलाप मात्र हैं, सव्वं नट्टविडम्बनाये सब नाटक, सिनेमा केवल विडम्बना मात्र है। इसीप्रकार विषयों के दुष्परिणामों की भी विचारणा की जाती है-सव्वे फामा दुहावहा–सभी विपय, काम दुखदायी हैं !
वीतरागता के तीन सोपान विषयों में मध्यस्थता रखने के तीन साधन है-इन्हें वीतरागता के तीन सोपान भी कह सकते हैं
१ विषयों की क्षणभंगुरता का ज्ञान .२ विषयों के दुष्परिणामों का चितन ३ आत्म-स्वरूप में रमण की वृत्ति संसार के समस्त विपय-भोग्य पदार्थ क्षणभंगुर है, अभी जो सुन्दरी
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जैन धर्म में तप
थी । उस ठंडक में एक सांप भी ठिठुर कर वेसुध पड़ा था। किसान के बच्चे ने सांप को देखा, कुतूहल वश पास में आया । सांप तो विल्कुल सिकुड़ा हुआ पड़ा था, उसने लकड़ी से हिलाया फिर भी सांप हिला डुला नहीं। बच्चे ने सोचा-सांप मरा हुआ है । चलो इसे घर ले चलें, बच्चों को डरायेगें, खेलेंगे उसने सांप को उठाकर अपनी थैली में डाल लिया।
वह सांप वास्तव में मरा नहीं था, ठंडक के मारे सिकुड गया था, मूटित हो गया था। बालक घूमता-घूमता वहां पहुंचा जहां दस-पांच अन्य चरवाहे भी बैठे आग ताप रहे थे।
वालक ने थेली गोदी में रख ली और आग तापने लगा। भीतर में सांप ठंड से ठिठुरा हुआ था, कुछ आग की गर्मी पहुंची, कुछ बालक के शरीर . की गर्मी, वह पुनः होश में आया, चैतन्य हुआ और थेली में हिलने लगा। बालक ने देखा, थेली में हिल क्या रहा है ? उसने खोलकर जैसे ही देखा, सांप ने उछल कर डंक मारा ! वस विचारा वालक वहीं ढेर हो गया। ___ तो यह मन मूच्छित हुआ सांप है । जब तक विषय विकार की गर्मी नहीं . पहुंचती वह मरा हुआ सा शांत प्रतीत होता है, किन्तु जैसे ही विषयों की . . संगति होती है विषयों के आनन्द को रसानुभूति होती है, बस विकारों का सांप फुकारने लग जाता है । रसानुभूति करके फिर अनासक्त रहना-~-बहुत कठिन है, साधारण साधकों के वश की बात नहीं, इसलिए पहली बात यह है कि उस रसानुभूति से मन को दूर ही रखना चाहिए । गीता में कहा है
बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्पति । ... इन्द्रियों का समूह इतना बलवान है. कि विद्वान को भो, विचारशील पुरुष को भी चंचल बना देता है। विषयों की हलकी सी स्मृति भी मन में आसक्ति (संग) पैदा कर देती है, आसक्ति से काम, शोध, गम्मोहम्मृतिमा और अंत में सर्वनाम के कगार पर अत्मा पढेच जाता है।''
१ नीता ६० (स) मासन दशा में भी विषयों को स्मृति, मुग व स्वयम्पमा मनायोमेतित कर देती है लिए
देनाका .. मावीको माता- निमीनमालागा २३५२
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प्रतिसंलीनता तप
३१६ नारकीय यातना ! घोर कष्ट ! वेदना ! बस यही है विषय भोग का फल !
ये भोग क्षण भर सुख देने वाले हैं, और फिर दीर्घकाल तक कष्टों की कुभी में पचाने वाले । ये अनर्थ की खान है
खणमेत्त सुक्खा बहुफाल दुक्खा
खाणी अणत्याण उ फाम भोगा। ये काम भोग-ताल पुट जहर के समान हैं --
काम भोगा विसं तालउडं जहा। इस प्रकार विपयों की असारता एवं उनके कटु परिणामों का चिन्तन करने से विषयों के प्रति राग-द्वेष नहीं आता, तथा मध्यस्थ भाव रखा जा सकता है। इन्द्रियों की आसक्ति से प्राणी किस प्रकार कष्ट पाता है, इसके उदाहरण रोजमर्रा के जीवन में हमारे सामने आते ही हैं । हम देखते हैंदीपक की लौ पर मुग्ध हुए पंतगें किस प्रकार आ-आकर प्राण लुटा देते हैं ! परवाने जलकर खाक हो जाते हैं---यह रूप की आसक्ति का परिणाम है । वैसे ही स्वरों की मधुरता, वीणा नाद की आसक्ति में फंसा हरिण शिकारी के रूप में अपने पीछे दौड़ती मौत को कहाँ देख पाता है ? इसीलिए कहा है
सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं
अफालियं पावइ से विणासं। रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे
___ सद्दे अतित्त समुवेई मच्च ।' शब्दों के विषय में अत्यंत मूच्छित होने वाला प्राणी अकाल में अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है। जैसे मृग-भोलाभाला हरिण, शब्दों में गृद्ध होकर अतृप्ति के साथ मृत्यु के मुह में चला जाता है !
इसी प्रकार रस के वश हुमा मत्स्य-मछली, कांटे में लगे मांस को खाने दौड़ती है और वही कांटा उसके गले गी कटार बन जाती है। गंध लोलुप
१ उत्तराध्ययन १४११३ २ उत्तराध्ययन १६६३ ३ उत्तराध्ययन ३२२३७
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३१८
- जैन धर्म में तप हजारों लाखों तरुणों का मन मोह रही है, कामी पुरुप जिसपर अपना सर्वस्त्र निछावर कर रहे हैं-वही सुन्दरी जवानी ढलने के बाद, लोगों को घृणा पात्र हो जावेगी । कोई उसकी तर्फ देखेगा भी नहीं। नगर सुन्दरी वासवदत्ता, . जिस पर किसी समय अंग मगध के राजकुमार निछावर हो रहे थे; बड़े-बड़े : .. सामंत जिसकी एक कृपा कटाक्ष के लिए तरसते थे, वहीं जब कुष्ठ रोग से . पीड़ित हुई तो नगर के बाहर उकरड़ी पर कूड़े की तरह फेंक दी गई और लाखों मक्खियाँ और कीड़े उस पर भिनभिनाने लगे ! यह है शरीर की सुन्दरता का अन्तिम परिणाम ! इसी प्रकार जो मधुर स्वादिष्ट भोजन किया जाता है, जिसके रसास्वादन के लिए मनुष्य अपने प्राण भी दे देता है, पेट में जाकर उसका क्या परिणाम होता है ? मल-मूत्र के रूप में कैसी दुर्गन्ध मय उसकी परिणति होती है ? तीर्थकर मल्लिनाथ ने गृहस्थ जीवन में अपने रूप पर आसक्त छहों राजाओं को जव एक मोहन गृह में बिठाया और उस कुंभी का ढक्कन खोला-जिसमें रोज एका-एक ग्रास भोजन डालती थी। तो उसकी .. दुर्गध से राजाओं का दम घुटने लग गया । मल्लीनाथ ने समझाया-"यह तो वही सुगंधित भोजन है, जो मैं प्रति दिन करती थी। किन्तु पेट में जाने के बाद वह कितना घिनौना और दुगंध मय बन जाता है कि उसकी दुगंध से ही सिर फटने लग जाता है।"
इस प्रकार भोग्य वस्तुओं की क्षणभंगुरता का विचार करने से मन उनसे विरक्त हो जाता है। वे विषय सामने आने पर भी साधक का मन वित्तल संचल नही होता!
दूसरा साधन है-भोगों के दुप्परिणामों का चिन्तन ! संसार के भोगशिम्पात फल के समान है, साने में मयुर ! परिणाम में प्राणघातक !
जहा फिम्पाग फलाणं परिणामो न सुन्दरो।' जो किपाक फल जाने में मोटा लगता है किन्तु उसका फाल होता है-.. मृत्यु । उसी प्रकार वियों, भोगों का परिणाम सदा अहितकर होता है।
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प्रतिसंलीनता नपं
३२१
पांच भेद इस तरह इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के यह पांच भेद बताये गये हैं१ श्रोत्र इन्द्रिय के विषयों के प्रति मन को जाने से रोके, तथा विषय
समक्ष आने पर उनमें राग-द्वेप न करें। २ इसीप्रकार चक्ष इन्द्रिय को भी विषयासक्ति एवं राग-द्वेष
से रोकें। ३ घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय एवं स्पर्शनइन्द्रियों के विषयों के प्रति भी मन
का निरोध करें एवं इन्द्रियों सम्बन्धी विषय सामने अपने पर उनमें
राग-द्वेप न करें। इसका सार यही है कि इन्द्रियों के जो विषय हैं, वे संसार में सदा से रहे हैं, रहेंगे, कोई उन विषयों को मिटाना चाहे तो यह बिल्कुल असंभव बात है। वे विषय समाप्त भी नहीं हो सकते, और इन्द्रियों के समक्ष आये बिना भी नहीं रह सकते--इसलिए साधक यही कर सकता है कि स्वयं विषयों की
ओर दौड़े नहीं, और प्राप्त विषयों में आसक्त होकर राग-द्वेष न करें। जैसे स्वयं की प्रशंसा सुनने, कोई मधुर संगीत सुनने के लिए वह उत्सुक न हों,
और यदि ऐसे शब्द कहीं से कानों में आते हों तो उनमें राग द्वेष न करें। मधुर रस का भोजन प्राप्त करने की स्वयं लालसा न करे, यदि सहज भाव में सरस भोजन मिल गया हो तो उसे राग-द्वप रहित होकर उपयोग में ले लें । यही इन्द्रिय-प्रति संलीनता है ।
कषाय प्रतिसंलीनता
फषाय की परिभाषा और सम्प प्रतिसंलीनता के चार भेदों में प्रथम इन्द्रिय प्रतिसंलीनता का वर्णन करके फिर कपाय-प्रतिसंलीनता का विवेचन किया गया है। कपाय-शब्द जैन परिभापा का शब्द है-इसका अर्थ है-अन्तर की कलुपित वृत्तियां । जैन आचार्यों ने कहा है
फलुसति जं च जीयं तेण फसाय त्ति वुचंति'
-
-
१ प्रज्ञापना पद १३ की टीका
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३२०
...... . जैन धर्म में तर भ्रमर की कहानी भी संसार जानता है। जो फूलों की मधुर सौरभ के पीछे .. पागल होकर अन्य कुछ भी विचार नहीं करता, फूलों की कलियों में जाकर छुप जाता है, और संध्या समय कली मुर्भाकर वन्द हो जाती है, भोला भंवरा भीतर ही कैद हो जाता है, कोई उस फूल को तोड़ डालता है, भौरा कुचला जाता है, वींधा जाता है मर जाता है । स्पर्श विषयासक्त हाथी का भी यही हाल होता है - वह हथिनी के स्पर्श हेतु उसके पीछे-पीछे दौड़ता है, बीच में .. कहीं खाड़ में (जो उसे पकड़ने के लिए ही बनाई जाती है) गिर पड़ता है, भूख प्यास से व्याकुल हुआ वह निर्बल-क्षीण हो जाता है और मस्त हम्ती सांकलों से वांध लिया जाता है । कवि ने कहा है
कुरंग मातंग पतंग मुंग-मीना हता पंचभिरेव पंच ।
एक प्रमादो स कथं न हन्याद् यः सेवते पंचभिरेव पंच। मृग, हाथी, पतंगा, भ्रमर और मछली ये बिचारे सभी-अपनी-एक-एक इन्द्रिय के कारण काष्ट पाते हैं । एक ही इन्द्रिय की आसक्ति उन्हें जीवन भर कप्टदायिनी सिद्ध होती है तो जो पांचों इन्द्रियों के विषय में आसक्त हो जाता है उसका क्या हाल होगा? वह कितने कष्ट पायेगा ? कितनी वेदनाएं सेलेगा ? इसका कोई अता-पता भी नहीं !
तो इस तरह भोगों के दुष्परिणामों का चिंतन कर उनके प्रति मन की। लालसा, मन का आकर्षण कम करें। भोगों से मन को हटायें ! यह भोग , विरक्ति की दूसरी साधना है।
वीतराग भाव की प्राप्ति की तीसरी साधना है.---आत्म-स्वरूप रमण। .
साधक परभाव से पराइ मुग रहकार सदा निज स्वरूप में ही रमण करता । रहता है, आत्मा के शिवाय उसका अन्य कोई केन्द्र ही नहीं रहता अतः अष किसी विषय में उसे कोई आकर्षण भी नहीं रहता अप्पा अप्पम्मिरमओ-भाना आत्मा में ही रमती रहती है, जड़ वस्तु पर होती है, इसलिए वह 'र' में कोई मानन्द य रस का अनुभव करे भी कसे? इस दशा में मेराय, विषय चिमुरता महज में आती है, हां इनकी भूमिका में उरत टोनो सारा रहतजिन्नु जोगनी दशा प्राप्त होने के बाद पूर्व वस्तुओं का नि.मर..
जगाने की जरूरत नहीं रहती । यह सहन राम होता है।
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प्रतिसंलीनता तप
३२३ को रागात्मक माना है, क्रोध एवं अहंकार को द्वेषात्मक !१ इस प्रकार राग और द्वेष मिलकर सम्पूर्ण कषाय कहलाते हैं । तो यह कषाय ही कर्म रूप वृक्ष की जड़ है, बीज है । कपाय ही जन्म मरण की जड़ को सींचता है--सिंचंति मूलाई पुणम्भवस्स ।२ कषाय जीवन में सद्गुणरूपी, विवेकरूपी लता को जला डालने वाली अग्नि है-फसाया अग्गिणो वुत्ता' मनुष्य को उन्मत्त बनाने वाली मदिरा है, मादकता है, प्राचीन आचार्यों की भाषा में-पिशाचा इव रागाद्याश्छलयन्ति मुहुर्मुहुः४- पिशाच की तरह, भूत-प्रेत की तरह ये कपाय प्राणी को बार-बार छलते रहते हैं,भ्रम में डालते हैं, विवेक भ्रष्ट बनाते हैं। जैन धर्म के महान तत्त्वज्ञानी भाष्यकार आचार्य जिनभद्र गणी ने तो कपायों के कटु परिणाम बताते हुए यहां तक कह दिया है
जं अज्जियं चरित्त देसुण्णए वि पुव्व कोडीए ।
तं पि फसायमेत्तो नासेइ नरो मुहुत्तेणं।" देशोनकोटि पूर्व तक कठोर साधना के द्वारा जो शुद्ध चारित्र पाला है, उसका महान फल अन्तर्मुहु त भर के कपाय से नष्ट हो जाता है । जैसे हजार मन दूध को खटाई की एक बूंद फाड़ डालती है, लाखों मन भोजन को जहर का एक कण भी विपाक्त बना डालता है, वैसे ही जीवन के अनन्त-अनन्त सद्गुणों को कपाय-नष्ट भ्रष्ट कर डालता है ।
कपाय एक प्रकार का तीन विप है, इसके संस्पर्श से, हलके से आसेवन से भी आत्मा पतित हो जाता है, अन्तर वृत्तियां कलुपित हो जाती हैं, इसलिए शास्त्र में बताया है कि आत्म गुणों का विकास चाहने वाले साधक को सर्वप्रथम कपाय को नष्ट करना चाहिए। कपाय को जीतने वाला सब को जीत लेता है
१ प्रज्ञापना पद २३॥१--- दोसे दुविहे-कोहे य माणे य ।
रागे दुविहे~-माया य लोभे य । २ दशकालिक ८१४० ३ उत्तराध्ययन २३१५३ ४ योग शास्त्र ५ निशोषमाप्य २७६३
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जैन धर्म में तप
३२२
जो आत्मा को कलुपित मलिन करता है, वह मानसिकभाव और वृत्ति कपाय कहलाती है |
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अन्तर वृत्तियां जव मलिन होती हैं, तो जीव कर्म करता है । कर्म से जीव दुखी होता है, और फिर संसार में परिभ्रमण करता है इसलिए जीव के दुःखों का एवं संसार भ्रमण का निमित्त होने के कारण कपाय की इस आशय की अन्य व्युत्पत्तियां भी की गई हैं । दिगम्बर आचार्य वीरसेन ने बताया है
दुःख शस्यं कर्मक्षेत्र कृपन्ति फलवत्कुर्वन्ति इति कषायाः
जो दुःख रूप धान्य को पैदा करने वाले कर्मरूपी खेत को कर्पण करते हैं, उन्हें फलवान बनाते हैं—वे क्रोध, मान माया आदि भाव कपाय कहलाते. हैं | आचार्य भद्रबाहु ने कहा है
संसारस्य उ मूलं धम्मं तस्स वि हुति य फसाया ।
संसार का मूल कर्म है, और कर्म का मूल है कपाय भगवान महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन में मुनियों को संबोधन करके स्पष्ट कहा था, 'मनुष्य दुखों से घबराता है. पर यह नहीं सोचता कि इन दुखों का मूल क्या है ? इस दुःख रोग की जड़ कहां है ? दुःखों का कारण है— जन्म-मरण । जन्म मरण क्यों होता है ? कर्म के कारण ! यदि कर्म मुक्त होगए, तो फिर जन्ममरण नहीं होगा ? वीज जल गया तो वृक्ष हरा-भरा नहीं हो सकेगा ! जन्ममरण का, मृत्यु चक्र का मूल कारण है कर्म - फम्मं च जाई मरणस्स मूलं तो तब दीप कर्म पर आगया, अब यह देखिए कि यह कर्म जो सब रोगों की जड़ है, जन्म-मृत्यु का चक्र चलाता है, वह कर्म कहां से पैदा होता है ! कर्म तो द चोर है, इस चोर को जन्म देने वाली मां कौन है ? जरा गहरा विचार करेगे तो तुरन्त आपके ध्यान में जायेगा - रागो दोनो वियफम्म बोयं-- इस कर्म का बीज है राग और द्वेष ! कपाय ! चार कपायों में माया और लोन
१देशिए धवला टीका, (श्रमण सूत्र . २५० )
आचारोग निर्मुकः १८६
उतराध्ययम ३२१७
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प्रतिसंलीनता तप
३२५
हुई रहती हैं जैसे मदिरा का नशा चढ़ा हो। दुर्वासा ऋषि की भांति जव देखो तभी क्रोध में लाल !
२. कुछ मनुष्य राख से ढँकी अग्नि की भांति ऊपर से शांत दीखते हैं, किन्तु जैसे ही कटुवचन, अपमान आदि की हवा का एक झोंका लगा कि शांति की राख उड़ जाती है और उनका जाज्वल्यमान रूप सामने आ जाता है । ऊपर से शांत, शीतल दीखते हैं, किन्तु क्रोध का प्रसंग आते ही अपने को रोक नहीं सकते, बस, दूध की भांति ऊफन जाते हैं, सोड़ावाटर की बोतल की तरह ऊफान खा जाते हैं। पं० वनारसीदास जी, जो आगरा के निवासी थे, और जैन धर्म के बहुत गहरे विद्वान थे उनके जीवन का एक संस्मरण है । एकवार एक महात्माजी उनके गांव में आये । लोगों ने बनारसीदास जी के पास महात्मा जी की बहुत प्रशंसा की, कहा- बड़े ही शांत स्वभावी है । बनारसीदास जो उनके के पास गये । उनका नाम पूछा, महाराज ! आपका शुभ नाम क्या है ?
महात्मा जी ने गंभीरता के साथ कहा - " इस आत्मा का तो कुछ भी नाम रूप नहीं, यह तो नामातीत है, देह को लोग शीतलदास कहते हैं ।"
कुछ देर बातचीत करने के बाद वनारसीदास जी ने कहा- महाराज ! आपने नाम तो बताया था, लेकिन मैं भूल गया एक बार फिर कृपा कीजिए ।
इस बार महात्माजी थोड़े तेज हो गए और बोले- बताया था न, शीतल दास !
हां ! हां ! महाराज ! याद आगया ! वनारसीदास जी वोले । बातचीत करके उठने लगे तो फिर नाम पूछ बैठे। इस बार महात्मा जी की आंखें लाल हो गई, बोले- " दिमाग में क्या गोवर भरा है ? दो वार बता दिया फिर भी याद नहीं रहा ! सुनले मेरा नाम है शीतलदास !"
क्षमा मांगकर बनारसीदास जी जीना से नीचे उतरे, कुछ देर इधर उधर टहलकर फिर महात्मा जी के पास बाये । बोले-"महाराज ! में तो फिर नाम भूल गया, एकबार फिर बता दीजिए ।"
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जैन धर्म में तपः जे एगं नामे से बहुं नामे' जो एक कपाय रूप शत्रु को अपने समक्ष झुका लेता है, वह बहुत से . आत्मशत्रु ओं को झुका लेता है, उन्हें जीत लेता है । इसलिए साधक कपायों : के निरोध का सतत प्रयत्न करता रहे, कपायों से आत्मा को बचाता रहेयही सच्ची कपाय प्रतिसंलीनता है।
. अन्तरंग वोष कपाय के चार भेद बताये हैं-~-क्रोध, मान, माया और लोभ । ये चारों प्राणी के हृदय में उत्पन्न होते हैं । इनका निवास कहीं बाहर नहीं, भीतर हो है । साधारण भाषा में हम कहते हैं - क्रोध आ गया, लोभ आ गया ! पर वास्तव में आया कहां ? कौन से रास्ते से, किधर से आया ? यह तो भीतर ही बैठा था, यह दानव मन के भीतर छुपा था, थोड़ा सा प्रसंग मिला कि वा. हुँकारने लग गया-जैसे पानी में गंदगी नीचे दबी रहती है, पत्थर फैका कि . उठकर ऊपर आ गई । इसी प्रकार क्रोध भी मन में छिपा रहता है, कोई... भी प्रसंग पाकर जागृत हो उठता है ।
इसलिए शास्त्र में इन्हें आध्यात्म दोप' कहा है। अर्थात् आत्मा में पैदा । होने वाले ये चार अन्तरंग दोप है । इनमें क्रोध सबसे पहला है
तीन श्रेणी : कुख, शांत, प्रशांत क्रोध-अन्तरंग की उप्मा है, गर्मी है। वैसे यह गर्मी हर एक मनुष्य में थोड़ी-बहुत माया में रहती ही है, किन्तु फिर भी कुछ लोग बहुत श्रोधी होते हैं, कुछ शांत ! तीन तरह के मनुष्य बताये गये हैं
वृद्ध, दांत और प्रशांत !
१ कुछ मनुप्य अंगारों की भांति हमेसा मोघ से जलते रहते है, किमी भी ममय देगलो, कुछ भी यात पर लो बग, शोध में मांगे लाद
१ आनाग ४ २ पानांग ४२ नपा दशवकालिग १४० ३ कोई म मा चल गाय लोहं गाउ परययोगा।
-नाग १
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स्वामीजी-'ठीक कह रहा हूँ ! मैं इस संसार में मनुष्यों को बन्धन में डालने के लिए नहीं, किन्तु मुक्त कराने के लिए आया हूं।"
तो यह तीसरी श्रेष्ठ श्रेणी है। क्रोध के हजारों प्रसंग आने पर भी वे शांत प्रशांत रहते हैं।
क्रोधोत्पत्ति के कारण क्रोध प्रतिसंलीनता में दो बातें कही गई है
फोहोदय निरोहो वा उदयप्पत्तस्स वा फोहस्स विफलीकरणं १ क्रोध के उदय को रोकना २ उदय में आये हुए क्रोध को विफल-फलहीन बना देना।
क्रोध का उदय रोकने के लिए यह भी समझना जरूरी है कि क्रोध का उदय क्यों होता है और उसके कटुफल कितने घातक होते हैं ।
फर्म सिद्धान्त की दृष्टि में जैन दर्शन कार्य-कारणवादी दर्शन है, उसका कथन है-- प्रत्येक कार्य का कुछ कारण भी अवश्य होता है। यह कार्य कारणवाद ही कर्म सिद्धान्त की आधार भूमि है। कार्य हमें स्पष्ट दिखाई देता है, कारण उसके पीछे छुपा रहता है । इस दृष्टि से आत्मा में क्रोध का उदय होने रूप जो कार्य होता है, उसका कारण है-कर्म ! आठ कर्मों में मोहनीय कर्म सबसे मुख्य व सवका नेता माना गया है। मोहनीय कर्म की प्रकृतियों में चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं-जिसमें कपाय मोहनीय के १६ भेद बताये हैं और नौ कपाय मोहनीय के है। नौकषाय मोहनीय कपाय भाव का उत्तेजक होता है। हां तो १६ कपाय मोहनीय के भेदों में प्रत्येक कपाय के-चार-चार भेद करके १६ भेद वताये गये हैं। क्रोध कपायमोहनीय के उदय से आत्मा में कपाय भाव का उदय होता है । जिस आत्मा में कपाय मोहनीय का जितना उदय होगा उसी के अनुसार उसके क्रोधोदय में भी तरतमता रहती है । यह क्रोधोत्पत्ति का दार्शनिक कारण है।
व्यावहारिक दृष्टि में स्थानांग सूत्र में सामान्यतः फोघोत्पत्ति के चार कारण बताये हैं१ क्षेत्र--स्थान आदि के कारण क्रोध को उत्पत्ति हो सकती है।
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वस, इसबार महात्माजी का पारा खूब तेज हो गया। पास ही में हाथ में लेने की छड़ी पड़ी भी, उठाकर बोले-वेवकूफ ! तीन-तीन वार नाम बताया फिर भी याद नहीं रखा ! सिर में पत्थर भरे हैं ? ठहर अभी बताता हूं ! छड़ी पटक कर बोले-सुनले ! मेरा नाम है शीतलदास ! शीतलदास !
धनारसीदास जी हंसकर बोले-महाराज | बस अब नहीं भूलूंगा ! अब पता चल गया-तुम्हारा असली नाम शीतलदास नहीं, क्रोधीदार है।
तो यह दूसरी श्रेणी के मनुष्य होते हैं, जो पहले शांत दीखते हैं और बाद में फ्रोध में भाभड़ाभूत हो जाते हैं ।
३. तीसरी श्रेणी के प्रशांत मनुष्य होते हैं जो हमेशा महासागर की तरह प्रशांत रहते हैं । उन्हें कितने ही दुर्वचन कहो, अपमान करो, ठेले मारी, पत्थर मारो फिर भी कभी क्रोध नहीं करते। भगवान महावीर की तरह, मैतार्य, गजसुकुमाल और हरिकेशीवल मुनि की तरह लोग उन्हें मरणात कप्ट भी देते हैं फिर भी उनकी दृष्टि में वही शांति का अमृत छलकता रहता है, मन में शीतल लहरें उठती रहती हैं- इन्हीं के लिए शास्त्र में कहा है-- .
महापसाया इसिणो हवंति, .
न हु मुणी फोबपरा हवंति । ऋपिणन महान प्रसाद वाले होते हैं,वे कभी भी गुद्ध नहीं होते ! महासागर में जब भी पत्थर पोको तब भी वह शीतल लहरें उछाल कर आपको शांत करने का प्रयत्न करेगा, भाग नहीं उगलेगा। इसी प्रकार प्रापिजन, महापुरुष प्रोध करने वाले पर भी शांति की वर्षा करते हैं, प्रेम का उपदेश देते है। स्वामी दयानन्द जी को मुछ दुष्ट लोगों ने घायल कर दिया था, तब नमो मे थानेदार ने बदमाशों को पकड़कर स्वामी जी के सामने हाजिर हिा----स्वामी जी ! हग बदमागों को आप जो कहें नही नमागा! '
नोट की मोटा अनुभव को भी स्वामी तिने माग सोद--- "गेकार माहब ! मांगों को छायो।" आश्चमार यानेदार में पा---.' स्सामीनी पार पा रहे हैं ?" .
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होकर क्रोधोन्मत्त हो उठे और मन-ही-मन शत्रु संहार में जुट गये । गौशालक के कटुवचनों से ( मजाक से ) वैश्यायन वाल तपस्वी क्रुद्ध हो उठा था और उस पर तेजोलेश्या छोड़कर भस्म कर डालने को तत्पर हो गया ।
समझ कर हटा देने
--
२ स्वार्थपूर्ति में वाघा पड़ने से - मनुष्य स्वार्थ- प्रिय होता है, अपना स्वार्थ साधने के लिए गधे को भी बाप बना लेता है, और जब कोई उसके स्वार्थ में वाधा पहुंचाता है तो वह उसे पथ का रोड़ा को क्रोधाकुल हो उठता है— रावण को विभीषण ने बहुत समझाया था, सीता को लौटा दे। वह उसकी दुश्चेष्टा को पूरी नहीं होने देना चाहता था, तव रावण विभीषण जैसे भाई पर भी क्रुद्ध होकर उसे राज्य से निकाल देता है । सोमिल ब्राह्मण ने गजसुकुमाल को साधु बने देखा तो सोचा - मेरी पुत्री का जन्म इसने विगाड़ दिया, बस, इस क्षुद्र स्वार्थ ने उसे क्रुद्ध कर दिया और महा तपस्वी के सर पर अंगारे भर दिये !
३ अनुचित व्यवहार के कारण - मनुष्य सदा ही सम्मान और योग्य व्यवहार की अभिलापा रखता हैं, वह न अपना अपमान सह सकता है, और न अपने परिवार, देश और धर्म का । जव उसकी आँखों के सामने अपनी इज्जत, अपनी मां बहनों की इज्जत, देश व धर्म का गौरव मिट्टी में मिलता दीखता है तो वह क्रुद्ध सिंह की तरह हुंकार उठता है । यादव कुमारों ने द्वैपायन ऋषि का अपमान किया, तो ऋषि ने क्रुद्ध होकर द्वारिका को भस्म कर डालने का संकल्प कर डाला | औरंगजेव की सभा में जब उसके सेनापति ने राठोड अमरसिंह को कहा कि ये राजपूत लोग 'गवार' हैं तो 'ग' तो कहा, और 'वार' कहने ही नहीं पाया कि चमनमाती कटार निकल पड़ी और सेनापति की गर्दन उड़ा गई। यह क्रोध अनुचित व्यवहार व अपमान के कारण उत्पन्न हुआ ।
४ वहम के कारण - कभी-कभी मनुष्य वहम का शिकार हो जाता है । कुछ ऐसी बातें सुनता है, दृश्य देखता है जो वास्तव में सही नहीं होते, कान और अंस उसे धोखा दे जाते हैं, नम से बुद्धि विपरीत हो जाती है और वह क्रोध में आकर अनर्थ कर डालता है । भ्रम में भी अनुचित व्यवहार, भय,
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२ वस्तु — घर अथवा उपयोग में आने वाली सचित्त-अनित्त आदि वस्तु के कारण क्रोध उत्पन्न हो सकता है ।
३ शरीर-- शरीर के कारण- कुरूप शरीर, शरीरगत रोग आदि के कारण क्रोध की उत्पत्ति होनी संभव है ।
४ उपधि - उपकरण, वस्त्र, पात्र आदि के कारण क्रोध आ सकता है । इसी के साथ क्रोध के चार निमित्त और बताये है-जैसे
१ आत्म-प्रतिष्ठित —कभी कभी अपनी भूल के कारण ही क्रोध आ जाता है ।
२ पर प्रतिष्ठित - कभी दूसरे की भूल, दुर्वनन आदि के कारण क्रोध आ जाता है ।
३ तदुभय-प्रतिष्ठित -- अपनी भूल भी रहे और दूसरे का निमित्त भी । दोनों मिलने से क्रोध आ जाता है ।
४ अप्रतिष्ठित ' - बिना किसी निमित्त के ही क्रोध की उत्पत्ति हो जाती है ।
वास्तव में इन शास्त्रीय कारणों के साथ कुछ व्यावहारिक कारण भी है जिनके कारण मनुष्य क्रोध करता है, मन में क्रोध को उत्पत्ति होती है । पांच कारण ऐसे हैं, जिन्हें हम क्रोधोत्पत्ति में निमित्त पाते हैं
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१ दुर्वचन के कारण कटुवचन कहने से क्रोध या जाता है। शास्त्र में बताया है— कटुवचन वैर का कारण होता है-"वाया तुस्तानि येराणु बंधीणी "" - दुरुक्त वचन से वैर बंधता है | कटुक कठोर वचन कानों में ती शूल से सुनते हैं, उनसे मन उद्विग्न हो उठता है- "फन्नं गया दुम्मणियं जगति 3 ऐसे कटुक, कठोर घातक, व्यंग्य वचन सुनने से क्रोध क उठता है, जैसे दुर्योधन के दुर्वचनों से श्री कृष्ण को क्रोध आ गया था। दुग दूत के दुर्वचन सुनकर प्रसमचन्द्र राजपि जैसे ध्यानयोगी भी व्यान
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१ स्थानांग सूत्र ४१२४६
२ दशकालिक ३७
३
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- प्रिय-अप्रिय व्यवहार को, वचन को सहन करके क्रोध को असत्य करना चाहिए । अर्थात् क्रोध आ जाये तो उसे फलहीन कर डालना चाहिए। क्रोध का फल है - हिंसा ! क्रोधी व्यक्ति दूसरे की भी हिंसा करता है और अपनी भी। जितनी हत्याएं, व आत्महत्याएं होती हैं उनमें मुख्य कारण क्रोध ही रहता है।
क्रोध को विफल कैसे करें ? मनोविज्ञान की दृष्टि से क्रुद्ध मनुष्य एक दम हत्याएं करने पर उतारू नहीं होता । क्रोध का वेग जैसे-जैसे प्रवल होता है वैसे-वैसे मनुष्य आगे उत्तेजना पूर्ण अवस्था में पहुंचता रहता है। उत्तेजना का आखिरी रूप है हत्या । हत्या, क्रोध की चौथी व अंतिम श्रेणी (परिणति) है। क्रोध की चार परिणतियां ये हैं
१ सर्वप्रथम क्रोध आने पर मनुष्य का शरीर कांपने लग जाता है, हाथ पर फूल जाते हैं, सांस तेज हो जाती है, आंखें लाल-लाल अंगारों सी जलने लगती है, वाणी लड़खड़ाने लगती है।
२ क्रोध की दूसरी अवस्था में मनुष्य हाथ पैर पीटने लगता है, अपना सिर फोड़ लेता है, कपड़े फाड़ लेता है, शरीर को नोंच डालता है। बकवास व गाली गलौज करने लगता है।
३ तीसरी अवस्था में मारपीट करने लगता है, तोड़-फोड़ करने पर उतार हो जाता है, आग लगा देता है, दूसरों का नुकसान करने लगता है।
४ क्रोध की चौथी दशा है-हत्या ! जिस पर क्रोध माता है उसकी हत्या करने पर उतारू हो जाता है, वह नहीं मिले तो उसके सम्बन्धी जनों की हत्या कर डालता है, कभी-कभी हत्या करने पर भी उसका क्रोध शांत नहीं होता तो वह आत्महत्या भी कर लेता है। बहुत से व्यक्ति प्रोधोन्मत्त होकर साधनों के अभाव में, भय आदि के कारण दूसरों की हत्या नहीं करते किन्तु वे क्रोधोन्मत्त हुए अपनी ही हत्या (आत्म हत्या) कर लेते हैं ।
क्रोध को अफल-- करने का अर्थ है-यदि शोध का उदय होगया है, प्रथम दणा में शोध पहुंच गया है तो अब उसे दूसरी नवत्या में पहुँचने से
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मादि कारण होते हैं । सांप सिंह आदि कभी-कभी भय व वहम - कि यह मुझे । मारेगा । इसी कारण क्रुद्ध होकर मनुष्य पर झपटते हैं। मेतायं मुनि पर सुनार ने वहम कर लिया कि मेरे स्वर्ण यव इसी ने चुराये हैं जबकि उन्हें तो कोई मुर्गी जो समझकर खा गई थी। इसी वहम के कारण वह मुनि पर क्रुद्ध हो उठा और उनकी मृत्यु का कारण बना। पुरुपसिंह नाम के राजा के मन में मंत्री पालक ने यह वहम पैदा कर दिया था कि यह राजकुमार राज्य हड़पने के लिए आया है । इसी वहम ने राजा को कि कर्तव्य-विमूढ बना दिया, क्रोध में आकर उसने मुनियों को पापी मानक के हाथ सौंप दिगाइन्हें जैसी राजा देना चाहो दो । यह चौथा कारण है।
५ विचार भेद के कारण प्रत्येक मनुष्य के विचार गुछ न कुछ भिन्न होते हैं । जब एक दूसरे पर अपने विचार थोपने का प्रयत्न होता है तो संघर्ष खड़ा होता है, संघर्ष द्वन्द्व का रूप धारण कर लेता है, विचार भेद के कारण क्रुद्ध होकर आपस में हाथा पाई मारते हैं, मारपीट और हत्या तक कर डालते हैं । ग्यत मांति का मूल कारण भी विचार भेद ही है । नपसलबाद का तांडव, जगणित निरपराधों के सून से जिसका इतिहास लिखा गया है मूलत: विचार भेदजन्य संघर्ष ही है। इन कारणों के अलावा अन्य भी अनेक कारण हो सकते हैं जिनके कारण मनुष्य का खून गर्म हो उठता है, बुद्धि में असंतुलन आ जाता है, कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक भूल जाता है और यह बड़े-बड़े अनर्थ कर डालता है।
जिन कारणों से शोध का उदय होता हो, उन कारणों को बनना चाहिए, उन कारणों का निवारण करते रहना चाहिए, और काके मूल में रही हुई भूल को पकड़ना चाहिए । इसी क्रोध का उदय काम होता है, शोध पतला पड़ जाता है। यदि श्रोध आ भी गया तो उसे विफल गारने में गहायता मिलती है। शास्त्र में कहा है-मनुष्य को अपनी प्रतिभा को, संकल्प को सदा यात्म करना चाहिए बोर कौय को व अहंकार पो असता ! फोहं असतं फुयिजा धारेजा पियमप्पियं--
।
उनमायमन ।।१४
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प्रतिसंलीनता तप रोक लेता है, कुशल वैद्य देह में फैलते हुए सर्प विप को औषधि के द्वारा शांत कर देता है वैसे ही भिक्षु चढ़े हुए क्रोध को (फल परिणति से रोककर) शांत कर देता है।
जैसे दौड़ती हुई गाड़ी के सामने यदि कोई मनुष्य, या गाय-भैंस आदि आ जाते हैं तो ड्राइवर तुरन्त गाड़ी को ब्रेक लगाकर रोकने की चेष्टा करता है, यदि उस समय गाड़ी को न रोका जाय तो तुरन्त दुर्घटना हो जाती है । इसी प्रकार चढ़ते हुए क्रोध को रोकना चाहिए, वर्ना वह भी कोई दुर्घटना कर डालेगा। क्रोध को विफल करने के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने अनेक उपाय बताये हैं
भगवान महावीर ने कहा है-उवसमेण हणे फोहर --क्रोध को शांति (उपशम) से जीतना चाहिए।
चीनी संत कन्फ्यूसियस का कथन है-क्रोध उठे तब उसके नतीजों पर विचार करो!
वाईविल में लिखा है-क्रोध करने में विलम्ब करना विवेक है, और शीघ्रता करना मूर्खता।
___इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद साहब का कहना है-'गुस्सा आने के समय बैठ जाओ ! फिर भी शांत न हो तो लेट जाओ।'
सैनेका नामक विदेशी विचारक ने लिखा है-क्रोध का एक ही इलाज है-विलम्ब !
कहते हैं-अमेरिका में एक प्रोफेसर को क्रोध बहुत आता था । वह स्वयं अपनी इस आदत पर बहुत दुःखी था, पर कोशिश करके भी वह क्रोध के समय अपने पर काबू नहीं रख पाता था। एक बार प्रोफेसर ने अपने किसी मनोचिकित्सक मित्र से कहा-मेरी यह आदत कैसे छूटे । मित्र ने एक सलाह
१ यो उत्पतितं विनेति कोधं विसठं सप्प विसंऽव ओसधेहिं ।
-सुत्तनिपात १०१११-२ २ दशवकालिक ३६
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जैन धर्म में तप रोके, क्रोध ज्यों-ज्यों बढ़ता है उसके फल लगते हैं । अत: उसे आगे की दशा में पहुंचने से रोकना, यही वास्तव में क्रोध को विफल-फलहीन करने का अर्थ है।
जैन सूत्रों की टीका में एक कुल पुत्र (क्षत्रिय पुर) की कथा आती है । किसी क्षत्रिय पुत्र को उसके दुश्मन ने मार डाला था। क्षत्रिय पुत्र का भाई अपने भाई की हत्या सुनकर आग बबूला हो उठा। उसका खून खोलने लग गया। वह हाथ में तलवार लेकर अपने भाई की हत्या का बदला लेने चल पड़ा । उसने प्रतिज्ञा की-'जब तक भाई के हत्यारे को पकड़ नन-जन से दम नहीं लूगा । छह महीने तक वह जंगल, पहाड़, नदी-नाले-सर्वत्र भटकता रहा । आखिर में हत्यारा पकड़ा गया। गुलपुर ने अपनी लपलपाती तलवार उठाकर उसे मार डालना चाहा, किन्तु हत्यारे ने--मुह में पारा का तिनका लेकर उसके चरण पकड़ लिए ! दीनतापूर्वक बोला--"गुझे जीवित छोड़ दो ! मैं तुम्हारी काली गाय हूं। मुझे शरण दो।"
कुलपुत्र की तलवार रुक गई। वह असमंजस में पड़ गण । गया करें। मारे तो शरणागत की हत्या हो, न मारे तो वधु-घात का बदला कसे में? वह समस्या में उलझ गया । हत्यारे को मां के समक्षा ले जाकर सहा कियाऔर पूछा-- मां ! मैं क्या कहें ? इसे मार कर अपनी प्रतिज्ञा को पूरी कर या शरणागत की रक्षा कर क्षत्रिय धर्म को निवाई ?
मां ने कहा--"बेटा ! अपने शोध को असफल करो । श्रोध को फमहीन करना ही मनुष्य का धर्म है। इसी में तुम्हारे क्षत्रियधर्म की शोना है।" गां की शिक्षा से पुलपुत्र ने बधुधातक को अभय दान देकर छोड़ दिया । वह अपने छह महीने के उन कोष को पी गया । तो यह है, शोध को विफल करने का एक उदाहरण! शोध को पी जाना---उठते हुए प्रोपगो उसी प्रकार दवा ऐना जैसे तीन होते रोग को दवा देनर क्या दिया जाता है, उस हुए दूध को जल का छोटा देकर मात गार दिया जाता है। समागत बुद्ध ने
जगे कुभल मारमि दौड़ीप भारद को नमाम मीनार
में जात
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• ३३५ तो यह और भी विडम्बना की बात है कि त्यागी वैरागी व ज्ञानी कहलाने वाले अज्ञानी लोगों से ज्यादा क्रोध करें। क्रोध की तो शुरूआत ही अज्ञान व मूर्खता से होती है । इसलिए साधक को, तप की आराधना करने वाले को तो क्रोध का सर्वज्ञा ही परित्याग करना चाहिए। नीतिकारों ने कहा है--
हरत्येक दिनेनैव ज्वरं पाण्मासिकं बलम् ।
क्रोधेन तु क्षणेनैव कोटिपूर्वाजितं तपः ॥ एक दिन का ज्वर (बुखार) छ महीने में प्राप्त की हुई शक्ति को नष्ट कर देता है, और एक क्षण भर का क्रोध-कोड़ पूर्व की तपस्या को भी मिट्टी में मिला देता है। क्रोध से कितने अनर्थ उत्पन्न होते हैं इस सम्बन्ध में कहा गया है -
गती खोटी पावे भव भ्रमण आगे बढ़त है, अहो सिंहादि को प्रफट पशु योनि मिलत है। तपस्या को बाले, सफल गुण व्हाके खिसकते ।
अच्चुकारी भट्टा सरिस बन छोड़ो, प्रियवरो! क्रोध से मनुष्य की गति—यह जन्म और पर जन्म बिगड़ जाते हैं --अहो वयइ फोहेण-क्रोधी हमेशा नीची-से नीची गति प्राप्त होता है, तपस्या का फल जलकर भस्म हो जाता है, गुण समूह नष्ट हो जाता है। इस लिए क्रोध के कुफल को समझकर अच्चंकारी भट्टा की तरह अपने क्रोध को जीतो। ___शरीरशास्त्री लोगों ने अनुमान लगाया है कि एक स्वस्थ मनुष्य दिन में साढ़े नौ घन्टा तक कठोर श्रम करने पर जितनी थकावट अनुभव करता है, साढ़े नौ घन्टा के श्रम में उसकी जितनी शक्ति क्षीण होती है, उतनी शक्ति पन्द्रह मिनट के मोघ में क्षीण हो जाती है ।
एफ तौर : तीन शिफार क्रोध शरीर को भी नष्ट करता है, मन को भी दुर्वल बनाता है और मात्मा को तो पालुपित करता ही है।
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जैन धर्म में तप दी, सलाह के अनुसार प्रोफेसर ने अपने नौकर को कहा "मुझे जब कभी . गर्म देतो, तब खाली लिफाफा दिखा दिया करो।" .
बस, जब कभी प्रोफेसर को क्रोध आता नौकर खाली लिफाफा दिया देता–प्रोफेसर लिफाफे को देखते ही सोचने लग जाता-~ोधी का दिमाग इस खाली लिफाफे की तरह होता है, बस, इस विचार से धीरे-धीरे उसकी आदत छूट गई।
चीन में आज भी एक लोकोक्ति प्रसिद्ध है, क्रोध आने पर एक गिलास पानी पीलो । तथा ऋद्ध अवस्था में किसी के पत्र का उत्तर मत दो।
यह सब विचार व साधन अनुभव से देखे जा सकते है और जिस साधन से क्रोध की कमी हो, वह अपनाना चाहिए। कुल मिलाकर सारांश रूप में क्रोध को विफल करने के दो उपाग हमारे सामने आये हैं। (१) मोध के दुष्परिणामों पर विचार करना और (२) आत्मचिंतन करना । मात्मा वितन से मतलब है---मनुष्य एक और क्रोध की निकृष्टता समझे ग्रोध को चांडाल, राक्षस, अमेय, मूर्यता आदि विशेष दिये गये हैं, इनका अभी, शोध सबको दृष्टि में एक परम अपवित्र वस्तु है। दूसरी और अपने स्वरूप का-विचार करे कि यह मात्मा एक परम पवित्र वस्तु है, इसका और ईश्वर का स्वरूा एक समान है, तो फिर पवित्र मात्मा को शोध रूप अपवित्रता से, गंदगी से दुफ्ति क्यों कर ? इस प्रकार के वात्मचितन से प्रोध का नशा दूर हो जाता है।
ऐसा भी नहीं है कि कोष निफ अमानी व संसारी मनुष्य ही करते, किन्तु बड़े-बड़े जानी व सायक भी इस रोग से ग्रस्त पाये जाते हैं । देगा तो जावा है कि ग्राम्य में भी अधिक साधु सन्मामी व तपस्वीजनों में क्रोध अधिरः सोया से महकता है। इसीलिए तो संत तुलसीदास जी ने पहा ---
'तुलसी' इस संसार में गाड़ा सताईरा रोस ।
सात गाहा संसार में पैराग्यां में बीस ! मंगार में बताई गादा लोश है. जिम सारा गाडा ओर मुंभारी मनुष्यों में और बीजगाला यशानी या मामी नाम प्रगाने वालों में है। .
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प्रतिसंलीनता तप
३३७ है कि-खाली थैली में ही हवा भरती है, खाली-गुणहीन व्यक्ति अपने को गुणवान दिखाने के लिए अभिमान करता है, स्वयं को बड़ा प्रदर्शित करने की चेष्टा करता है। बिच्छू तिल भर जहर के कारण पूछ ऊँची रखकर . चलता है
मणिधर विष अणमाव, धारे पण नाण मगज ।
विच्छू पूछ बणाव, राखे सिर पर राजिया। किन्तु सांप भयंकर विप रखते हुए भी कभी अपने विष का प्रदर्शन नहीं करता । इसका अर्थ यही है कि अहंकारी के जीवन में सद्गुणों का विकास नहीं हो सकता। क्योंकि ज्ञान तभी आता है जब मनुष्य किसी का विनय करके सीखता है । कहा है
न हंस के सीखा है, न रोके सीखा है
जो कुछ भी सीखा है, किसी का होके सीखा है अभिमानी किसी का हो नहीं सकता, क्योंकि वह अपने को ही सबसे वड़ा समझता है। अंग्रेजी में एक कहावत है जिसका भाव है-अहंकारी का फोई ईश्वर नहीं होता, ईर्ष्यालु फा कोई पड़ौसी नहीं होता और क्रोधी का फोई अपना नहीं होता। अभिमानी राह चलते वैर-विरोध खड़ा कर लेता हैकहा है
बनालेते वैरी चलत-मग मारी सटक से, मरेंगे फुत्तों से, रिप जन पछाड़े पटफ से । तजे वो सयुक्ति विनय गुरु भक्ति चल बसी,
नमे कैसे सूखा तरुवर विचारो हृदय से। युक्ति और न्याय की बात मानता नहीं, अपनी ही बात को सत्य सिद्ध करने की चेष्टा करता है, 'मेरो मुर्गी की तीन टांग' वाली कहावत चरितार्थ करता है। गुरुजनों का विनय व सम्मान से भूल ही जाता है । मकोदे की तरह अकड़ में 'टूटे पण झुके नहीं टूट जाता है,नष्ट हो जाता है किन्तु विनय और नग्नता नहीं सीस सकता।
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जैन धर्म में तप 'मिश्री' देख विचार फर एक तीर, अय फट ।
तन फो, मन को, ज्ञान को, क्रोध करत है नष्ट। लोग कहते हैं 'एक तीर से दो शिकार' लेकिन क्रोध तो ऐसा दुष्ट है कि .. एक तीर से तीन शिकार करता है, वह तन को, मन को और ज्ञान (मात्मा) . को-तीनों को ही नष्ट कर डालता है। तो, ऐसे दुष्ट क्रोध के उदय का निरोध करना, और उदय में आये हुए क्रोध को फलहीन कर देना-यह है क्रोध प्रतिसंलीनता तप ।
- मान से हानि क्रोध जिस प्रकार प्रीति का, प्रेम एवं स्नेह का नाश करता है उसी प्रकार मान-विनय का नाश करता है-माणो विणय नासणो नग्नता-जीवन का सबसे बड़ा सद्गुण ही नहीं, किन्तु समस्त सद्गुणों की जननी भी है। यदि जीवन में नम्रता नहीं रही तो फिर कहना चाहिए-सद्गुणों के विकास की वहां कोई सम्भावना भी नहीं रहीं । इसलिए कहा है -
अभिमानी के हृदय में क्या सद्गुण फा काम ।
फटी जेब में क्या कभी टिक सकते हैं दाम ! फटी जेब में पैसे नहीं टिक सकते, दिवाले पड़े में पानी नहीं टिका, सकता, उसी प्रकार अभिमानी के हृदय में गद्गुण नहीं टिक सकते । भगयान महावीर ने तीन व्यक्तियों को मान पाने के अयोग्य (अपाय) बताया है। उनमें सबसे पहला नंबर है-अभिमानी । अहंकार करने वाला चाहे कितना बड़ा शास्यान्यासी हो, वास्तव में तो उसे अशानी ही माहा गया है। भगवान ने कहा है -- बाल जपो पगम-अभिमान यही हारता है, ओ मशानी है। जो विद्वान है, कुलीन है, भास्त्रों का रहस्य समझता है, यह पाभी महंगार नहीं करता--विद्वान् कुलीनो न करोति गयं-दिनारकों गा गह गायन गाय
१ दशवकालिक ८३ २ सीन यो शान नहीं देना ... अहंताग, मदानही कोर रगतीनुप को।
३ सूत्रकृयाग १११११२
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प्रतिसंलीनता तप
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अभिमान की चौथी बुराई है - मनुष्य अहंकार में अपने को बड़ा समझता है और दूसरों को छोटा - तुच्छ ! स्वयं बलहीन, रूपहीन, गुणहीन होने पर भी मानता है कि मैं तो वल में बाहुबली हूं, रूप में सनत्कुमार हूं, और सब गुणों का खजाना मैं ही हूं। दूसरा बलवान है, वह भी तुच्छ है, कमजोर है, दूसरा रूप में देव कुमार हैं, अप्सरा है फिर भी अभिमानी की नजर में वह रूप होन है । अहंकारी हमेशा-अन्नं जणं पस्सति विवम्यं' दूसरों को परछाई मात्र ( प्रतिविम्ब) समझता है, वलिष्ठ पुरुष को भी गोवर- गणेश समझता है । अभिमानी सोचता है
संसार में बुद्धिमान कौन ? जो मेरी तरह सोचे
संसार में मूर्ख कौन ? जिसके विचार मुझ से न मिलें । आदर्श क्या है ? जिस पर मैं चलू ं !
जगत में श्रेष्ठ कौन ? 'मैं'
उसके हृदय में "मैं के सिवाय और कोई ध्वनि ही नहीं उठती । जितनी श्रेष्ठता है, सब उसमें हैं बाकी सब संसार तुच्छ है, गुणहीन है । वह सोचता हे "दुनियां में डेढ़ अक्कल है— एक मेरे पास, आधी बाकी दुनिया के पास ।" राजस्थानी में कहावत है, अभिमानीनि स्त्री सोचती है- "म्हांसू गोरी जिकै ने पीलिये रो रोग" इस प्रकार अभिमानी व्यक्ति दो भूलें एक साथ करता है, स्वयं को अधिक बुद्धिमान समझ कर और दूसरे बुद्धिमानों को मूर्ख समझ कर । वह घमण्ड में दूसरों का अपमान करता है, उन्हें तुच्छ शब्द कहता है। आप जानते हैं, अपमान का कड़वा घूंट कोई व्यक्ति पी नहीं सकता । अंग्रेजी कहावत है - इनसल्ट इज मोर देन आप्रेशन - ( Insult is more then operation) अपमान का नस्तर आप्रेशन के नस्तर से भी अधिक दुःखदायी व पीड़ा कारक है । अपमानित व्यक्ति फिर बदला लेने की चेष्टा करता है, इस प्रकार वैर विरोध व दुश्मनी की लम्बी श्रृंखला चालू हो जाती है ।
अभिमान को इन चारों बुराइयों का विचार करके मनुष्य को अभिमान का त्याग करना चाहिए और अभिमान के कारणों से बचना चाहिए ।
१ सुत्रकृतांग १११३८
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जैन धर्म में तप
अहंकार - मान का सबसे पहला दुष्परिणाम है कि अहंकारी कभी ज्ञानं प्राप्त नहीं कर सकता । सद्गुणों का विकास नहीं कर सकता | बाहुबली एक वर्षं तक खड़े तपस्या करते रहे, किन्तु केवल ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके।
दूसरी बुराई है अहंकारी मनुष्य अपना आपा भूल जाता है । अपनी तुच्छ शक्ति को भी विश्व की महान शक्ति मानने लगता है. अंग्रेजी के हास्य रस के प्रसिद्ध लेखक मार्केट्वेन ने एक जगह लिखा है- " अवसर मुर्गी, जिसने सिर्फ अण्डे को जन्म दिया है, ऐसे ककड़ाती है जैसे किसी नक्षम को जन्म दिया हो ।" राजस्थानी भाषा में कहा गया है- "कुत्तो जाणे म्हारे ही पाण गाडो चाले है" - अहंकारी मनुष्य अपनी औकात को नहीं समझ सकता। कहावत है -- " मिजाज बादशाह का, ओकात भटभूजे की " - अहंकार के नो वह अपनी शक्ति का अधिक मूल्यांकन करता है, इसी कारण उसका पतन व विनाश हो जाता है |
में
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अहंकार की तीसरी बुराई है - अपनी शक्ति का ज्ञान का अभिमान करने से मनुष्य उस शक्ति को भी यो बैठता है। ज्ञान का अभिमान करने से ज्ञान नष्ट हो जाता है, बल का अभिमान करने से बल | अभिमान करने से सद्गुणों का नाश हो जाता है। महाभारत में पांडव जय संन्यास लेकर हिमालय पर चढ़े तो कुछ दूर जाने पर से नीचे गिरते गये। नकुल के मन में अपने
इस कारण
1
यह हिमालय की ऊपरी नोटी पर चढ़ नहीं था । देव को अपने ज्योतिष ज्ञान था, अर्जुन को बाप-विद्या का भीम की मुजका अभिमानास कारण कोई भी हिमालय पर नहीं सके न ही में धर्मपुत्र निरभिमान इस और उनका कुत्ता (धर्म रूपी) दोनों स्व में पहुंचे। इनका यह है कि गुण का अभिमान करने से भी मनुष्य अपने गुणों की है। जैfra यही यात हैमभिमान करता है, यह अगले जन्म में विष में गन करना है। उनका अभिमान मारने के तीन गोपकरणों में भरे पड़े है।
सद्गुणों का
लेख है -
हिमाल
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प्रतिसंलीनता तप
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श्रुत मद-ज्ञान का, शास्त्रअभ्यास का अर्थात् विद्वत्ता का अभिमान ! लाभ मद-इच्छित वस्तु के मिल जाने पर अपने लाभ का अभिमान ऐश्वर्य मद- ऐश्वर्य अर्थात् प्रभुत्व,वैभव तथा सत्ता का अभिमान ।
अभिमान को कैसे जीते ? अभिमान के इन आठ कारणों पर तथा इसी प्रकार के अन्य कारणों पर विचार करके यह देखना चाहिए कि मनुष्य जिन बातों का अभिमान कर रहा है वह कितनी असार व तथ्यहीन है ! ऊंचा कुल व गोत्र जाति, प्राप्त कर मनुष्य अहंकार करता है कि मैं इतने बड़े खानदान का हूं। इतने ऊंचे कुल का हूं ! पर क्या उसका यह सोचना सही है ? यह कुल व जाति किसका है ? आत्मा का या शरीर का ? शरीर तो जड़ है, सवका एक समान है । और आत्मा का कोई कुल नहीं, जाति नहीं ! फिर तू जो ऊंच गोत्र का अभिमान कर रहा है वह कितनी बार नीच गोत्र में जाकर उत्पन्न हुआ कुछ पता है ? शास्त्र में कहा हैअसई उच्चागोए असईनीयागोए
णो होणे णो अइरित। यह जीव अनंतबार उच्चगोत्र में जन्म ले चुका है, अनन्तवार नीच गोत्र में उत्पन्न हो चुका है, अतः फिर कौन तो हीन है ? और कौन उच्च ! अर्थात् हर आत्मा नीच कुल में उत्पन्न हो चुका है-फिर ऊंच कुल का अभिमान किस बात का ?
मनुष्य इस शरीर का अभिमान करता है, धन का, वल का अभिमान करता है ; पर वह अहंकार कितने दिन चलेगा ? शरीर तो आखिर सभी का जलकर राख हो जायेगा। सभी की हड्डियां मरघट में इधर-उधर पैरों से रुलती हैं, चाहे राजा हो या रंक ! एक कवि ने कहा है
एक दिन हम जा रहे थे सैर फो इधर था शमसान उधर फनिस्तान था।
१
आचारांग २०६१
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जैन धर्म में तप
मदस्यान वैसे तो कोई भी वस्तु अभिमान का कारण बन सकती है, तुच्छ से तुच्छ. मनुष्य के पास भी ऐसे कारण हो सकते हैं जिन पर वह अभिमान करें, नकद . . जायें । विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ने लिखा है---"धूआं आसमान से और राख पृथ्वी से शेखी वधारते हैं कि हम भी अग्निवंश के हैं ।" यदि अभिमान का और कुछ कारण न मिले तो व्यक्ति यही सोचकर अभिमान करने लगता है कि यह संसार तो मेरे ही आधार पर चलता है, मैं न होता तो दुनियां टिका ही नहीं सकती । गुजराती कहावत है--"टोंटोड़ी पग ऊंचा करने सुवै, ते आम धारे के आकाश मारा पग पर ज अद्धर रहलु छ" तो इस तरह कोई भी कारण, निमित्त, हेतु ऐसा मिल सकता है जिस पर अहंकारी व्यक्ति फूल उठे । गिन्तु मुख्यतः आठ कारण ऐसे बताये गये हैं जिनमें प्रायः सभी अहंकार के कारण खोजे जा सकते हैं। वे ये हैं
अट्ठमपटाणे पणते तंजहाजातिमए फुतमए अलमए स्वमए
तवमए मुपमए लाभमए इस्सरियमए ।' मद के आठ स्थान बताये गये हैं । स्थान का अर्थ-निमित है ! अथवा भाश्रय भी कह सकते हैं। आचार्य नरदेन ने स्थान माम मागही किया है, अर्थात् ये माठ बातें मनुष्य के अहंकार का मात्रय-आधार हो सकती हैं। ये आठ मदस्थान ये है-.
जाति मदनी और श्रेष्ठ जाति (मानवंश) का अभिमान । फुल मद मुल (शिवयंश) का अभिमान । बस मदतना अभिमान। रप मद-प-सौन्दर्य का अभिमान । तर मद-उसस्वी होने का अभिमान ।
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प्रतिसंलीनता तप
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राजा को उसकी तटस्थवृत्ति पर बड़ा आश्चर्य हुआ । राजा ने उससे पूछा तो भूतपूर्व प्रधानमंत्री ने बताया - "कुर्सी के आने जाने में प्रसन्नता और दीनता कैसी ? सन्मान तो गुणों से होता है, यदि गुण मुझ में होंगे तो आप
और जनता कुर्सी छूटने पर भी मेरा सम्मान करेंगे, गुण नहीं है तो कुर्सी मिलने पर भी अधिक दिन टिकेगी नहीं ? फिर प्रधानमंत्री बनने का अभिमान कसा ? और पद से हटने का दुःख कैसा।" ।
वास्तव में विनम्र व्यक्ति तो अधिकार प्राप्त कर और अधिक विनम्र होता है। उसका स्वभाव सदा ही विनयशील रहता है ? गौतम गणधर इतने ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित होकर भी कितने विनम्र ! और कितने मधुर स्वभाव के थे ? क्योंकि उनके स्वभाव में, हृदय के कण-कण में विनम्रता रमी हुई थी !
तो उक्त तीन प्रकार से हम अभिमान को विजय कर सकते हैं और मान-प्रतिसंलीनता तप की आराधना कर सकते हैं। क्रोध की भांति मान प्रतिसंलीनता में भी दो बातें बताई गई हैं-~मान के उदय का निरोध करें व उदय प्राप्त मान को विफल बना दें।
माया से दूर रहो माया-तीसरा कपाय है। मायामोहनीय कर्म के उदय से मनुष्य माया में प्रवृत्त होता है ।
साधारणतः माया का अर्थ है दुरंगा व्यवहार-मन में और तथा वचन में और-बाहर-भीतर का दुरंगापन-यह माया को पहचान है । राजस्थानी भाषा में माया का स्वरूप बताते हुए कहा है--
तन उजला, मन सांवला बगुला फपटी भेष ।
यां सू तो फागा भला बाहर भीतर एफ। अपर से उजलापन दिखाना और मन में कलुप भाव - पाप छिपाए रखना---यही माया है- पापट है. धोखा है तथा छल है !
क्रोध य अभिमान में भी माया को अधिक खतरनाक बताया गया हैमषोंकि ये दोनों प्रकट दोप हैं-फोध व गान सट दियाई देते हैं- मनुष्य
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जैन धर्म में तप एफ हड्डी ने पांव से लिपट फर यूं कहा
अरे देख के चल ! हम भी कभी इन्सान थे। तो शरीर, धन,मादि की अंतिम दशा यह होती है ! फिर किस बात का अहंकार ! प्रभुता में रावण जैसे भी समाप्त हो गए। सनत्कुमार जैनों का रूप भी क्षण भर में विकृत हो गया तो फिर तेरी क्या विसात है ? इस प्रकार धन-यौवन वल-वैभव आदि की असारता का अनुभव पर मनुष्य को चाहिए कि वह हृदय को निरभिमान, विनयशील बनाए ।
अभिमान को जीतने का पहला उपाय है, जिन कारणों से मन में अभिमान जगे उन कारणों की असारता एवं क्षणभंगुरता का विचार करें।
अभिमान के समय अपने से ऊंचे व्यक्ति को देरो, जो यंगर य शाग आदि में अपने से अधिक हुए हैं उनका विचार करे । यदि ज्ञान का अहंकार माता है तो सोचिए क्या आप गौतमस्वामी से भी अधिक बड़े शानी ? बुद्धि व नातुर्य का महंगार जगता है तो सोनिए-~या आप अभागार व चाणक्य से भी अधिक बुद्धिमान व चतुर है ? तप का अभिमान उमरता है तो विचार करिए---नागा धन्य अणगार से भी अधिक उा नपस्वी आप है ? क्या शालिभद्र से अधिक वैभवशाली, बाहयालि से भी अधिरः बलशाली, नंदीपेण से भी अधिक सेवाभावी है ? यदि नहीं, तो फिर बापका अभिमान कार्य है, झूठा है ! इस अभिमान के समय हमेशा अपर---अपने से बड़ों को देगना चाहिए। इस नितन से अभिमान नेले ही गल जाना है जैसे हवा लगने से पानी की व गल जाती है। अभिमान को दिया मारने का मार
नीलगाउपाय खगाय में गम ! निनस होगा। विनमशीन गति संगति आदि मिलने पर भी मार नहीं पता किन्तु ओ.. freनिस
का है। चीन कायम में बताया गया की को सीन बार प्रधानमंत्री बनाया और लोग भारी पदमti किन भयो प्रधानमंत्री बनाया गयाको गीत बहरे पर मोदी
नेगा नही नगी और हटाया हो की भीगा मानो।
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प्रतिसंलीनता तप
३४५
फट जाता है, वैसे ही कपटाई से मन फट जाते हैं। कपटी मनुष्य किसी का मित्र हो ही नहीं सकता। यहां तक कि भगवान भी कपटी से मित्रता नहीं रख सकते । और न उसका विश्वास भी कर सकते हैं ?
___ माया के दुष्फल शास्त्रों में माया को शल्य कहा है, जैसे तीखा कांटा, भाला व तीर शरीर में चुभ जाता है तो उसकी पीड़ा समूचे शरीर में कसकती रहती है,दर्द सालता रहता है, वैसे ही कपट करने वाले की आत्मा में-किया हुआ कपट कांटे की तरह सालता रहता है । न केवल इस जन्म में ही, किन्तु-जन्म-जन्म में । सूत्र में यहां तक बताया है कि मास-मास खमण की तपस्या करने वाला भी यदि माया कपट करता है तो उसे तपस्या का सुफल मिलना तो दूर रहा, किन्तु उलटा अनन्त-अनन्त जन्मों तक वह संसार में दुःखों को भोगता है
जे इह मायाई मिज्जइ आगंता गन्भाय गंतसो ।' माया के तीन दुष्परिणाम बताये गये हैं
१ मित्रता का नाश - २ विश्वास का नाश
३ परलोक में दुर्गति माया कपट करने वाले की गति-परलोक विगड़ जाता है । शास्त्र में कहा है-माया गई पडिग्घामोरे--माया से सद्गति का नाम होता है । आचार्य उमास्वाति ने कहा है माया तैयंग योनस्य-माया तिर्यच गति को देने वाली है, पशु वांके होकर तिरछे चलते हैं इसका कारण है, माया का दुप्फल ! 'तिर्यच गति के चार कारणों में प्रथम दो कारण माया के ही बताये हैं-माइल्लयाए नियडिल्लयाए-माया कपट करने से, धूर्तता पूर्ण व्यवहार करने से प्राणी मरकर तिर्यच योनि में जन्म लेता है।
१ सूमकृतांग ।। .२ उत्तराध्ययन ६।५४ ३ तत्त्वार्य नूम ६।२७ ४ स्थानांग ४१४ . .
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जैन धर्म में तप तुरन्त पहचान लेता है, किन्तु माया को पहचानना बड़ा कठिन है। यदि पहचान लिया तो फिर माया ही कैसी ? अत: माया को गूढ़ दोग बताया है । मायावी अपने भावों को छिपाकर ऊपर से बड़ा सीधा सादा, मधुर भाव प्रदर्शित करता है, उसके लिए कहा है
मुख ऊपर मिठास, घट मांहि खोटा घड़े . इसलिए माया को समझ पाना कठिन है, यह जितनी गढ़ है, उतनी ही अधिक पापानुवन्धी है। गांधी जी कहते थे-'दंभ (माया) झूठ की उजली पोशाक है ।' असत्य स्वयं नंगा होता है, माया की उजली पोशाक पहन कर वह सभ्य समाज के वीच बैठने लायक हो जाता है। धर्म ग्रन्थों में गाया को अत्यन्त निकृष्ट व धर्म को नष्ट करने वाली बताई गई है
माया फरण्डी नरफस्य हण्डी ।
तपो विखण्डो सुरतस्य भण्डी । माया नरक की पिटारी है, तप को गापित करने वाली और धर्म को बदनाम करने वाली है।
स्वार्थ साधने के लिए, विपण वासना की पूर्ति के लिए, दूसरों से सत्ता अधिकार मादि हड़पने के लिए आज माया का पुलम-पला प्रयोग हो रहा है। आज की राजनीति-माया कपट, छन-छदम, धोरा और फरेय को एक जीती जागती तस्वीर है। मनुष्य कितना गूढ़ प कितना दंभी हो रहा है। क्षण-क्षण में कितने ब, कितने चेहरे बदलता है और निरानी बोलियां बोलता है-महानती गाजनीति को गंदी नीति में देगा जाता । मी दंग व पूर्तता कारण आज कोई मिली का पियार नहीं करता। कोई किगी मा मित्र नहीं मा । मामा-मी सेजनी है, जिसकी पहली भार में मिता के मन को जात, धीर सरी पार में मिलायनि-निपहें होकर वितार । नीलिए भगवान महावीर भामाm पितानि नामे - निता मा ना भारती पाटा
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प्रतिसंलीनता तप
प्रकार माया रूप विप वृक्ष को फलवान वनने से पहले, अर्थात् माया आचरण में आने से पहले ही उसे रोक दें । यह माया प्रतिसंलीनता तप है !
लोभ सर्व नाशक है
जैन धर्मके प्राचीन ग्रंथ उपदेश माला में कहा गया हैलोभ मूलानि पापानि रसमूलानि व्याधयः स्नेह मूलानि शोकानि त्रीणि त्यक्वा सुखी भवेत् ॥
सव पापों की जड़-लोभ है ।
सब रोगों की जड़-स्वाद है ।
सव शोकों की जड़ - स्नेह है ।
इन तीनों को त्याग करने वाला सुखी होता है ।
इसीलिए संसार में 'लोभ पाप का बाप' कहा जाता है। पुराने संत कहा
करते हैं
अठारे पापों का परम पितु लोभी लचक है, गई शुद्धी बुद्धि अगणित दुःखों में गचक है ।
करे हत्या चोरी वनकर अघोरी फिरत है, महा मिथ्या भाषी विषय-अभिलापी गरत में !
अठारह पापों का वाप लोभ है - लोभी की शुद्धि-बुद्धि भ्रप्ट हो जाती है, लोभ के वश हुआ मनुष्य हत्या, चोरी जैसे घृणित और क्रूर कर्म करने को तत्पर हो जाता है, झूठ बोलना उसके लिए साधारण बात है । वास्तव में मनुष्य कितना ही चतुर हो, वक्ता हो, राजनीतिज्ञ हो, किन्तु यदि लोभ को मात्रा अधिक होती है तो वह लोगों की दृष्टि में हीन हो जाता है, उसके सब गुण ढंक जाते | जैसे लहसुन में समस्त गुण हैं, वह रसायन है, किन्तु एक उग्रगंध के कारण उसके समस्त गुण दब जाते हैं और लोग उसे हे मानते हैं । बहुत से धर्मो में आज भी लहसुन खाना मना है । तो कहने का अर्थ है कि - निखिल रसायनमहितो दोष णकेन निन्दितो भवति - नमस्त रसायन का मूल लहसुन जैसे उग्र गंध के कारण निन्दित होता है, बने हो समस्त गुण विभूषित पुरुष भी एक लोभ के कारण लोगों को दृष्टि में होन
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जैन धर्म में तप कपट-अगले जन्म में तो पशुत्व देता ही है, किन्तु इस जन्म में भी उसे विवेक होन, क्रूर एवं वक्राचारी बना देता है। इसलिए विवेकवान मनुप्प को माया का सर्वथा त्याग करना चाहिए। यहां तक कि धर्म और पुष करने के लिए भी कपट सेवन नहीं करना चाहिए। ज्ञातासूत्र में मल्लिप्रभु का उदाहरण देकर बताया गया है--धम्म विसए वि सुहुमा माया होइअणत्याय :-धर्म के विषय में की हुई थोड़ी सी माया भी महान अनर्थ करने वाली होती है।
माया विजय ऐसी दुर्जय एवं अनर्थकारी माया को जीतने का एक ही साधन हैसरलता ! जब तक हृदय सरल नहीं होगा,गपट को जीता नहीं जा सकता। सरल हृदय पाप नहीं करता, यदि करता है तो तुरन्त उसे स्वीकार गार उसका प्रायश्चित्त कर लेता है। सरलता छाना नहीं जानती। वह बाहरभीतर एक जैसा व्यवहार करती है, इसलिए जहां सरलता होती है, वहां माया ठहर ही नहीं सकती। जहां सरलता होगी, वही गाय होगा, जहां रात्य होगा वहीं प्रमाण होगा, आनन्द होगा और मोक्ष होगा ! इसलिए एक शब्द में कहा जा सकता है मोक्ष का मूल-सरलता है, धर्म का आधार मरलना है--सोही उपजभूयस्स धम्मो सुतस्स चिट्ठई सरन गो आत्मा शुद्ध होती है, और शुद्ध हृदय में ही शमं टिक सकता है। इसीलिए मास्ट में कहा है-माया मज्जय भायेग... माया लो, मापट को सरलता से जीतो।
मागा मिलीगता में भी दो गाते ली गईमामा के उदय का निरोज मारना, मा माया नहीं करना और मामा माम मन में भामा हो तो उसे गायन में परिणा न करना, किन्तु विनय शाम बिगार गानीमाया -विमला गो फलोन या मेना। दो दिन में और हो यार में पाने गाद जाना
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प्रतिसंलीनता तपं
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संतोष से लोभ को जीतो __ लोभ को जीतने का एक ही मार्ग है और वह है-संतोप ! लोहं संतोसओ जिणे-लोभ को संतोप से जीतो। आग को शांत करने के लिए पानी की आवश्यकता है, भूख मिटाने के लिए रोटी की और रोग मिटाने के लिए औषधि की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार लोभ को जीतने के लिए संतोप ही एक मार्ग है।
संतोप से मन की लाससाए, आशाएं कम होती हैं । वासना पर काबू पाया जाता है । विपयों से विरक्ति होती है, और जो वस्तु प्राप्त है उसी में आनंद का अनुभव किया जाता है । इस प्रकार संतोष के तीन फल सिद्ध हुए
१ लालसाओं की कमी २ विषयों से विरक्ति ३ प्राप्त सामग्री में आनन्द हम अनुभव करते हैं और शास्त्र में भी बताया है कि मन की लालसाएं, आकाश के समान अनन्त हैं. असीम है ,सागर तल की भांति अपार है, कोई उन्हें भरना चाहे तो वैसा ही असंभव काम है जैसे सागर जैसे गड्ढे को मिट्टी से भरना । इच्छा वस्तु से नहीं भरी जा सकती है। रोटी खाने से पेट भर सकता है, लेकिन मन नहीं भर सकता, मन तो तभी भरेगा-जव अन्य वस्तुमिष्टान आदि की इच्छा नहीं रहेगी, और जो रूखी-सूखी रोटी मिले, उसी में आनन्द अनुभव होगा । योगदर्शनकार पतंजलि ऋपि ने कहा हैसंतोषादनुत्तमः सुखलामः जो सुख, धन, संपत्ति, अधिकार और प्रभुत्व से प्राप्त नहीं हो सकता वह सुख-"सर्वोत्तम सुख संतोप से प्राप्त होता है। संतोपी को सामने समस्त वैभव तुच्छ होते हैं-मुत्तीएणं अफिचणं जणयइ-निर्लोभता से हृदय में अकिंचन भाव - अर्थात् भोग्य वस्तु को तुच्छ व मारहीन समझने की बुझि जग जाती है, इससे भौतिक वस्तुनों का आकर्षण कम हो जाता है ।
१ इच्छा हुमागास समा अणंतिया-उत्तराध्ययन २ योग दर्शन २०१२ ३ उत्तराध्यपन २९४७
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जैन धर्म में तप
एवं निन्दित समझा जाता है । इसीलिए भगवान महावीर ने कहा हैलोहो सव्वविणासणी - लोभ सब गुणों का विनाश करने वाला - विध्वंसक है | यह वह चूहा है, जो रात-दिन सद्गुणरूपी वस्त्रों को कुतर-कुतर काटता रहता है । लकड़ी में दीमक लग जाती है तो लकड़ी को भीतर-ही-भीतर से खोखला कर डालती है. वैसे ही लोभ को दीमक जिस-जिस जीवन में लग गई उसे भीतर-ही-भीतर घुनती जायेगी और जीवन सद्गुणों से हीन, सूना और खोखला हो जायेगा । लोभी मनुष्य लोभ में इतना बहरा हो जाता है कि धर्म, पुण्य, सेवा, कर्तव्य और स्नेह की कोई पुकार उसके कानो में नहीं पहुंच पाती। इसलिए लोभ को सद्गुणों का संहारक कहा है ।
लोभ प्रतिसंलीनता का साधक लोभ के दुर्गणों को समझ कर उसे दूर से ही छोड़ने का प्रयत्न करता है। जब कभी उसके मन में लोग की लहर उठती है तो वह सोचता है- में गलत रास्ते पर चल रहा है। यह कांटों का रास्ता है, इस पर चलने से मुझे कष्ट होगा, गीड़ा होगी और आखिर महाविनाश के खड्डे में जा गिरूंगा | इतिहास के अनेक उदाहरण उसके सामने नित्रपट की भांति आकर बोलने लगते हैं अमुक ने लोन किया तो उनका नाम हुआ, अमुक लोभ के कारण अकाल में ही मृत्यु के मुंह में चला गया, अणुक सोभी ने जीवन भर इतने कष्ट से ।
ज्ञानी तापस सूर कवि कोविद गुन अनगार ।
केहि को सोभ विना फोन्ह न एहि संसार ।
फिर लोभ से इस लोक में ही नहीं, किन्तु
उठाने - लोहान कुलो भोग से दीनों जन्म में भय और माना बेनी पड़ती है |
इस प्रकार यह नोम के को रोकता है, से रोग की भावना मनको लिभ, संत बनाता है।
रामरित मानस,
उपराष्यगन ext
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प्रति संलीनता तप
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अर्थ क्या है—इसे समझने के लिए जैन एवं वैदिक ग्रन्थों का सूक्ष्म अवलोकन करना चाहिए ।
योगदर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने कहा है – योगश्चित्तवृत्ति निरोधः १ चित्त वृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं । गीता में समता को योग कहा है - समत्वं योग उच्यते । बौद्ध आचार्यों ने - कुशल प्रवृत्ति अर्थात् सत्प्रवृत्ति को - कुशल प्रवृत्तिर्योगः योग कहा है । जबकि जैन परिभाषा में योग का अर्थ इनसे प्रायः भिन्न ही है । यद्यपि भगवान महावीर के पश्चाद्वर्ती वाचार्यों ने योग के अर्थ को कुछ संशोधित कर वैदिक परिभाषा के निकट लाने का प्रयत्न किया है, जैसा कि आचार्य हरिभद्र सूरि ने कहा है
मोक्खेण जोयणाओ, जोगो सव्वोपिधम्म ववहारो 13 - जो आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ता है वह सभी धार्मिक व्यवहार योग है | आचार्य हेमचन्द्र ने भी योग को इसी परिभाषा में विठाया हैमोक्षोपायो योग: ४- मोक्ष का जो उपाय है, वही योग है । किन्तु प्राचीन आगमों में योग' शब्द का अर्थ कुछ दूसरा ही है । वहां — योग को परिभाषा तो नहीं मिलती, किन्तु योग के तीन भेद मिलते हैं- मनोयोग, वचन योग तथा काययोग | इनसे यह स्पष्ट होता है कि कायवाङ्मनो व्यापारो योग: " -- शरीर, वचन एवं मन का व्यापार-.: -- इनको हलन चलन रूप प्रवृत्ति को योग कहा गया है । मन की प्रवृत्ति को मनोयोग, वचन की प्रवृत्ति को वचनयोग तथा काया की प्रवृत्ति को काययोग कहा गया है । इन योगों की प्रवृत्ति शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार को हो सकती है, लतः योग शुभ भी होता है तथा अशुभ भी ! अन्य परिभाषाओं में तथा आगम की इस परिभाषा
१ पातंजल योग दर्शन ११२
२ गीता २४८
३ योगविधिका
४ अभिधान चितामणि ११७७
५ जंगसिद्धान्त दीपिका ४२६
(स) देखिए- तत्वार्थ सूत्र ६११ से ४ तक
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जैन धर्म में तर __ कहते हैं संवत् १३१३ में पंढरपुर में एकदंपती रहते थे जो बड़े हो संतोषी थे। पति, पत्नी से अधिक संतोपी था तो पत्नी पति से भी बढ़कर ! . एक बार दोनों कहीं जा रहे थे । पति (रांका) आगे-आगे चल रहा गा। रास्ते में एक रुपयों की थैली पड़ी दिखाई दी। उसने सोचा--"शायद किसी की गिर पड़ी होगी। इसे देखकर कहीं पत्नी (बांका) का मन न चले" अतः .. उसने थैली पर धूल ढाल दी ! पीछे-पीछे आती यांका ने देखा तो बोलीक्या कर रहे हो ? सकुचाते हुए रांका ने कहा-थैली पड़ी थी,किती का मन विगड़े नहीं अतः धूल डाल रहा हूँ । वांका (पत्नी) ने गम्भीर होकर कहा-~"मिट्टी पर मिट्टी डालने की जरूरत क्या है ? आप इसे धन समझते ही नगों हैं ? यह तो मिट्टी है !"
तो यह संतोष की चरम स्थिति है, लोभ विजय गो पराकाष्ठा हैजब सोने में और मिट्टी में, तृण में और मणि में समान बुद्धि बन जाती है ---- सम लेट्ठ फंधणा मिट्टी में ठेले में और सोने मे टुकड़े में श्रमण समान यति रखते हैं। यह वृत्ति संतोप से आती है, लोम को जीतने स बाती है । और लोभ को जीतने का तरीका है-भोग्य वस्तु को असार एवं महत्त्य हीन अकिंचन-तुच्छ समझना ! ___ संतुष्ट व्यक्ति के हृदय में यदि कभी कभार लोग की लहर उठ भाती है तो वह तुरन्त उसका निग्रह भी कर लेता है। नीम के पीछे खोदता नहीं, शिन्तु मन को मोर लेता है। न्योंकि उसे अनुभव सुना वस्तु में नहीं, आत्मा में है ! लोन करने में अधिक बुरा होगा, जैसे गुजली को जलाने से अधिक जलन होती है, अतः पराओं को गुजली मिटाने का तरीका यही है कि उन्हें छेदा ही न जाय । यही परम गंतोष का मार्ग है। लोग प्रतिगसीनता को माधना है।
योग प्रतिसलीनता
योग की परिभाषा frieीनता तर या सीमा में योग गितीनता। गोगमा १ औतार पुन
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• प्रति संलीनता तप
- मनोयोग प्रति संलीनता तीन प्रकार की है— जैसे
अकुशल मन का निरोध,
कुशल (शुभ) मन की प्रवृत्ति, मन को एकाग्र करना
३५३
मन के रूप
मन का अर्थ है -- चिन्तन-मनन करने की शक्ति । दार्शनिकों ने मन की सैकड़ों प्रकार की परिभाषाएं की हैं, उनके भंवरजाल में उलझने से कुछ पल्ले पड़ने वाला नहीं है । मुख्य बात यह है कि कान, नाक, जीभ, आदि इन्द्रियों के विषयों का ज्ञान, तथा अनुभव मनन करने की जो चिद्शक्ति है वह मन है । मन एक प्रकार से इन्द्रिय- एवं आत्मा के बीच की कड़ी है ।
मन के अनेक रूप हैं, किसी समय मन चंचल रहता है, किसी समय स्थिर । कभी वह क्रूर एवं अशुभ विचारों की गंदी नाली में वहता रहता है, कभी शुभ संकल्पों की पवित्र धारा में । मन कभी साधु बन जाता है, कभी शैतान ! कभी भगवान में लीन हो जाता है और कभी विषय-वासना के कीचड़ में । इस तरह मन के अनेक रूप हमारे सामने आते हैं । वैसे साधारणतः मन चार प्रकार के बताये गये हैं- अर्थात् मन की ये चार अवस्थाएं होती हैं ।
१ चंचल मन - कामी, लोभी, विषय वासना में फंसे हुए मनुष्यों का । सत्ता, धन आदि की प्राप्ति के लिए तोड़-फोड़ आदि में संलग्न मन चंचल मन' हे |
८
२ मुर्दा मन आलसी निष्क्रिय व्यक्तियों का मन मुर्दामन होता है । उसमें न सांसारिक विषयों की प्राप्ति की उमंग होती है और न प्रभु भजन, सच्चितन की लीनता । एक प्रकार से वह शांति तो चाहता है किन्तु सचेतन शांति नहीं, उद्यान को रमणीय शांति नहीं, किन्तु श्मशान की बीभत्स शांति हो उसको प्रिय लगती है । इसलिए मुर्दान्न कहा है ।
देशांत मन-मन सच्चितन में, प्रभु भजन स्तवन बादि में तमा २३
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३५२
जैन धर्म में तप में यही बहुत बड़ा अन्तर है, अन्य सब परिभाषा योग को शुभ एवं मोक्षमा साधक ही मानती है. जवकि आगम की परिभाषा के अनुसार योग-शुभअशुभ दोनों प्रकार का होता है, शुभ योग पुण्य का कारण है, अशुभ योग पाप का।' __प्रश्न हो सकता है-योग की परिभाषा में इतने बड़े अन्तर का कारण क्या है ? उत्तर है - जैन आगम योग को मात्र एक प्रवृत्ति रूप मानते हैं,प्रवृत्ति के अर्थ में ही वहां योग शब्द का व्यवहार हुआ है जबकि अन्य विद्वानों ने योग को आध्यात्मिक साधना के रूप में माना है । जैन आगमों में इसीलिए 'योग-निरोध' को संवर व मोक्ष माना है, क्योंकि शुभ-अशुभ योगों का सयंया निरोध होने पर ही आत्मा पूर्ण रूप में स्वरूप दशा में स्थिर होती है, और स्वरूप दशा में स्थिर होना ही मोक्ष है । इस दृष्टि से जैन परिमापा का यह अन्तर स्पष्ट हो जाता है कि योग-एक प्रवृत्ति है, चंचलता है, व्यापार है। इसीलिए यहां योगों की प्रवृत्ति को अशुभ से हटाकार शुभ (कुशल) व्यापार में लगाना और शुभ-अशुभ दोनों व्यापारों का निरोध करना-रो दो प्रतिमलीनता तप कहा गया है।
तीन भव योग प्रति संलीनता तप तीन प्रकार का है-- १ मन योग प्रतिसंलीनता २ यचन योग प्रतिरोलीनता ३ नाय योगप्रति मलीनता
मन आदि प्रत्येक योग के तीन-तीन भेद बताये गये है, जो इस प्रकार हैमगजोग परिसंतीया तियिहा---
पता तंजहाअकमलमण निरोहो या माससमग उदोर वा मनतामा गतीमावार
--
भः पुनान, अमः पापा।
शायं
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प्रतिसंलीनता तपं
३५५ जैसे नदी की धारा सदा बहती है वैसे ही मन सदा गतिशील रहता है । हां, नदी की धारा हमेशा ही नीचे की ओर बहती है, जबकि चित्त नदी की घारा कभी नीचे और कभी ऊपर-दोनों ओर ही बहती है । इसलिए महपिपतंजलि ने चित्त रूप नदी को 'उभय-वाहिनी' बताया है--चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय, वहति पापाय च । चित्त नाम की नदी कभी ऊपर की ओर-पुण्य के लिए, शुभ कर्म के लिए वहती है तो कभी नीचे की ओर पाप की तर्फ बहती है । दोनों ओर इसका मुंह है इससिए यह द्विमुखी धारा है । आरण्यक में कहा है
मनोहि द्विविधं प्रोक्तं शुद्ध चाऽशुखमेव च ।
अशुद्ध कामसपंर्फाच्छुछ फाम विवर्जितम् ।' मन दो प्रकार का है-शुद्ध और अशुद्ध । कामनाओं से सहित मन अशुद्ध है और कामनाओं से रहित मन शुद्ध है।
पानी का प्रवाह जिस प्रकार सहजतया नीचे की ओर ही बहता है उसी प्रकार मन भी सहजतया अणुभ विचारों की ओर अधिक वहता है। बुरे संकल्प, अशुद्ध विचार अनायास ही मन में आ जाते हैं, जैसे वृक्ष पर पक्षी विना बुलाये ही आकर बैठ जाते हैं, उसी प्रकार मन में अशुभ विचार भी विना बुलाये, विना किसी प्रयत्न के अपने आप आ जाते हैं। यह तो प्रकट सत्य है कि मन कभी विचारशून्य नहीं रहता। मन को विचारों से खाली करने की बात-सहज रूप में अनुभव गम्य नहीं है । साधारण साधक के लिए वह संभव भी नहीं हैं, अतः जैन दर्शन में तथा योगदर्शन में भी सर्वप्रथम मन का परिष्कार करने की विधि पर हो बल दिया है। अशुभ विचारों से मन को हटाना, मन को कलुपता का प्रक्षालन करना और शुभ विचारों की मोर उसे मोट देना-मनोनिग्रह की प्रथम भूमिका रही है । इसे ही मन का संयम
१ मंत्रायणी नारयणा ३४-६ २ . मगजमो पाम सकुसलमणपिरोहो मुत्तालमाउदीरणं वा।
~-आचार्य जिनदास, दार्वकालिक पूणि १
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. जैन धर्म में तप सत्कर्म में लगा रहता है । इस मन में सक्रियता भी होती है और शांति भी! मानन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ यह मन सदा शांत रहता है।
४ स्थिर मन-समाधि ध्यान आदि में शांति के साथ स्थिर हुमा गोगि . जनों आदि का मन स्थिर मन या एकाग्र मन कहलाता है।
कुछ भेद के साथ आचार्य हेमचन्द्र ने भी मन की चार अवस्थाओं का । वर्णन किया है
इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिप्टं तया सुलीनं च।
चेतश्चतुःप्रकारं तज्ज :चमत्कारकारि भयेत् ।' १ विक्षिप्तमन-चंचल, विषयों में भटकता हुमा मन ! २ यातायातमन-इधर-उधर दौड़ता हुआ मन । कभी भीतर में जाकर स्थिर होता है और कभी फिर बाहर आगर विषयों में भटकने
लगता है। इस चित्त में कुछ-कुछ आनंद की भी अनुभूति होने लगती है। ३ रिलष्टमन-भीतर में स्थिर हुआ। आत्मानुभव के कारण आनन्द
एवं प्रसन्नता में लगा हुआ यह चित्त प्राय: आध्यात्मिक विषयों में स्थिर हुभा रहता है। ४ सुलीनमन-धात्मानुभय में अत्यन्त लीन गमाधिस्य गित ! ये अवस्थाए निन के कमिस विकास को गणित करती है, साथ ही मन उत्तरोत्तर स्वस्थ, आत्मनिष्ठ एवं शुभ होता हुआ जय चतुषं दशा में पहुंचता है तो परम योगी या पद प्राप्त कर लेता है।
पहले शुद्धीकरण; फिर स्थिरीकरण यह निषित बाल कि मन पवन से भी अमिर नचला है। इसमा निगह कारनामे साना यानु को पाने में भी अमित दुकर हैयापोरिग सुजुकरम् -मी लिए नहीं में बन्दर मा मनन, नही जो मा गुस्साहनी, रोज दोन मादा, ही समुद्रमा मार- अगिरवतीमामी
JHARMAmase
RAHMomenawina
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. प्रतिसंलीनता तप
३५७ धड़ाम से गिर पड़ा, राजकुमार के प्राण तो बच गये, लेकिन इस जंगल में वह अब अकेला बे-सहारा हो गया, वापस जाये तो कैसे ? और लंगड़े घोड़े को, सिर पर उठाकर कैसे ले जाय ? जो घोड़ा वाहन था, वह अब वाह्य बन गया, राजकुमार सिर पर हाथ धरे बैठा सोच रहा था। . दूसरे राजकुमार ने भी घोड़े को रोकने की बहुत चेष्टा थी, किन्तु जब वह कैसे भी नहीं रुका तो वह स्वयं ही घोड़े से कूद पड़ा । कूदते ही उसकी टांग टूट गई, घोड़ा भी वहां ठहर गया ।
तीसरे राजकुमार ने भी घोड़े को रोकने की चेष्टा की, ज्यों-ज्यों रोकने की चेष्टा की, घोड़ा तेज से तेज दौड़ता गया । आखिर उसने घोड़े की रास(लगाम) ढीली छोड़ दी, जैसे ही लगाम ढीली छोड़ी, घोड़ा वहीं रुक गया, राजकुमार नीचे उतर कर छाया में विश्राम करने लगा। कुछ देर बाद उसने अपने भाइयों की खोज की, तो एक भाई अपनी टांग तोड़े बैठा मिला तो दूसरा घोड़े की टांग तोड़कर बैठा मिला। ___ जो साधक इन्द्रिय एवं मन को वश में करने के लिए उन्हें नष्ट करने, बेहोश करने तथा नशे-पते के द्वारा मूर्छा देने की बात करते हैं वे घोड़े की टांग तोड़ते हैं। यदि घोड़े को अपंग कर दिया तो फिर वह घोड़ा आपको कहीं भी नहीं ले जा सकेगा, जहां भयंकर जंगल में ले जाकर डाल दिया बस वहीं पड़े रहोगे। दूसरे सवार की भांति कुछ साधक मन व इन्द्रियों को विल्कुल खुला छोड़ देने की बात कहते हैं। उन्हें यह घोड़ा कहां लेजाकर पटकेगा और कितना नुक्सान करेगा कुछ पता नहीं ? उन्हें जीवन यात्रा के सर्वथा-अयोग्य ही बना देगा ! इसलिए तीसरे घुड़सवार की भांति मन को ढीला छोड़कर उसे दौड़ने से रोकना चाहिए। मन को वहां पर रोकना, कसना और कहां पर ढीला छोड़ना-जो साधक इस कला में निपुण होगा वही मन को प्रशान्त बनाकर समाधिस्थ कर सकता है ।
__ मन को कैसे मोड़े ? __मन फे दुस्साहसिक उत्पथगामी पोहे को सुपच पर लाने के लिए गया फरना चाहिए? यह प्रश्न साधक जीवन के लिए यहत ही महत्व पूर्ण है।
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३५६
जैन धर्म में तप
कुछ साधक सबसे पहले मन को एकाग्र करने की बात करते हैं, किन्तु यदि मन शुद्ध नहीं हुआ तो एकाग्रता से क्या लाभ होगा ? मछली को पकड़ने के लिए बगुला भी एकाग्र होता है, चूहे पर ताक लगाकर बिल्ली भी एक चित्त होकर बैठी रहती है- क्या यह एकाग्रता नहीं है ? किन्तु यह एकापता भी घातक अशुद्ध एवं पाप मय है । इसलिए जैन दर्शन पहले मन के परिवार की बात कहता है । फिर एकाग्रता की ! शुद्ध मन ही एकाग्रता रूप ध्यान -- चितन कर सकता है | तीन घुड़सवार
भारतीय साधकों में कुछ हठयोगी सायक मन को मारने की बात भी कहते हैं | नशा करके, भांग, गांजा चरा आदि के द्वारा मन को विवाद शून्य करने के प्रयत्न करते हैं ! मन को मूच्छित कर के तल्लीनता का आनन्द अनुभव करना चाहते हैं । किन्तु यह साधना का गलत तरीका है। मन को मूच्छित करने से, इन्द्रग आदि को काट देने से मन स्थिर नहीं हो सकता, वह तो एक प्रकार का मुर्दा मन हो जायेगा । मन अपंग हो गया, मूि हो गया तो फिर शुभ कार्यों में भी यह गतिशील नहीं होगा ? अच्छा पुराबार वह नहीं है जो घोड़ा में नहीं जाये तो उसकी टांग वोडकर संगा
से घोड़े को में करे
ही कर दे, घुड़सवार तो यह है जो अपनी अपने
काव् में रमे ।
किसी राजा के तीन पुत्र थे । तीनों ही के बहुत एकबार राजदरबार में बहुत से विदेशी पो आये। राजा ने तीनों
कुमारों के लिए एस-एक सुपर मोटारी कर दिया। राजकुमार बहुत प्रसन्न हुए । कोनों ही अपने-अपने पोड़ी। दोनो ही में हमें देते
।
रोकने के लिए श्रीराम योग मे घोड़े और मेज ! और किन दौड़ने गये। राजगारीका नेपा
गाईको पानी पर जमी इत
जैसे भी
कमोथेर
उसने अपनी और कीट पोहा यही
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प्रतिसंलीनता तप से मन और अधिक दौड़ने लगता है और न रोकने से शांत हो जाता है।
जैसे मदोन्मत्त हाथी को रोका जाए तो वह उस ओर ज्यादा तेजी से दौड़ना चाहता है, और उसे न रोका जाय, तो वह अपने इस विषय को प्राप्त कर सहज रूप में शांत हो जाता है । यही स्थिति मन की है ।
धारा बदल दो मन को विपयों से रोकने से अधिक विषयोन्मुख बनता है, और खाली छोड़ने पर भी विषयों का चिंतन करता है ! इसलिए उसे शुद्ध बनाने का यही एक उपाय है कि उसे शिथिल कर दिया जाय,अर्थात् उसे रोकने के बजाय उसका मार्ग बदल दिया जाय । नदी का प्रवाह रोकने पर बाढ़ का भयंकर रूप धारण कर अधिक विनाशकारी हो सकता है, यदि खेतों की ओर, तथा शुष्क भूमि की ओर उसका प्रवाह बदल दिया जाय तो वही विनाश निर्माण में बदल सकता है । अवारितं शान्तिमुपयाति से आचार्य का यह अभिप्राय नहीं है कि मन को विषय भोगों की खुली छूट दे दी जाय ! खूब भोग भोगे ! यदि ऐसी ही बात होती तो फिर स्वयं आचार्य क्यों मन का संयम करते ? क्यों साधना, भक्ति और ध्यान योग में प्रवृत्ति करते ? मन तो विषयों को भोग कर स्वयं ही शांत हो जाता ? किन्तु ऐसा मानना स्पष्ट ही मूर्खता होगी। मन को रोकना नहीं का अर्थ यह है कि मन की गति में आगे चट्टान मत लगाओ, किन्तु उस की धारा को बदल दो ! अधोगामी धारा को ऊर्ध्वगामी बना दो, अशुभ संकल्पों को शुभ संकल्लों में बदल दो ! जिस मन में मिट्टी. कंकर भरे हैं, उसमें हीरे-जवाहरात भर दो। __ मन की शुद्धि के लिए जैन धर्म में अनेक प्रकार की साधनाएं बताई गई हैं। ध्यान व एकाग्रता की साधना से पहले अनित्य, अगरण आदि बारह भावनाएं बताई है, मैत्री, प्रमोद, करणा, व माध्यस्य भाव की साधना बताई गई है, यह भावना तो शुद्ध व उदात्त बनाने की ही प्रकिया है। इन भावनाओं में संसार के विषयों के प्रति वैराग्य मग तिन होता है, दूसरों को गुण, पतंव्य पालन आदि पर प्रसन्नता अनुभव की जाती है-इन प्रकार मन में गुम बिनानों का उपय होता है, अशुभ विचार दब जाने हैं।
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जैन धर्म में तप माज से ढाई हजार वर्ष पूर्व इसी प्रकार का एक प्रश्न केशीकुमार श्रमण में गणधर इन्द्रभूति गौतम से किया था
अयं साहसिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधाव ।
जंसि गोयम आरढो फहं तेण न होरसि ? हे गौतम ! यह घोड़ा बड़ा दुस्साहसिक और दुष्ट स्वभाव वाला है, तुम उस पर आरूढ--सवार हो, तो क्या तुम्हें बह घोड़ा कोई कष्ट नहीं देता ? गौतम ने उत्तर दिया
मणो साहसिओ भीमो दुस्सो परिघावइ ।
तं सम्मं तु निगिहामि धम्म सिक्लाइ कंचगं !' मन का यह साहसिक-दुष्ट घोड़ा है, बड़ा ही जनल व रोज ! मैं धर्म शिक्षा रूप लगाम से उसे अपने वश में किये गता। इसलिए वह मुझे कोई परेशान नहीं करता, जिधर भी उसे दौड़ाना चाहता है यह धरती दौड़ता है ! घोड़ा अपने गन से नहीं, किन्तु बार के मन से नले,बा-गी में सवारी दक्षता है । वही सच्चा अपमानही है ! ___ गौतम स्वामी ने मन के गोड़े को मोड़ने गा, पश में गरमा मह तरीका बताया है .. घमं शिक्षा ! धर्म शिक्षा का अर्थ है--विवेक ! गपिनार, उच्चगंकल्प ! मन को सुबिधानों ने रोकने का नही एका तानीका - मद बिनार! - आचार्य हेमाद्र ने गन गोमन वनाने का मन बनाए :
तो:पि यत्र गज प्रपाते नो ततस्ततो माम् ! अश्किीमति . याश्मिरतं गांतिमुपयाति ! मतो हलो पटनानियामागोषिषो मति पदबद ।
নিয়াস্তি দাগা গয়া গায়ন সংস্থ। -~नजिन में प्रो . या ri मा प्रान पाना नाशिक : मा
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प्रतिसंलीनता तप
३६१ की प्राप्ति बताई गई है। अत: पहले मन का शुद्धीकरण करके फिर स्थिरीकरण किया जाता है, यही मन प्रतिसंलीनता के तीन भेदों में स्पष्ट किया गया है कि सर्वप्रथम मन को अशुभ विचारों में जाने से रोको, फिर उसे शुभ विचारों से पवित्र वनाओं, शुभ भावना के द्वारा निर्मल वनाओ और उसके बाद किसी एक शुभ ध्येय पर उसे एकाग्र करो। एकाग्रता का विशेष सम्बन्ध ध्यान से है अतः इस विषय की चर्चा अधिक विस्तार के साथ ध्यान प्रकरण में ही की गई है ।
मन शुद्ध, तो वचन शुद्ध वचनयोग प्रतिसंलीनता के भी तीन प्रकार बताये गये हैं१ नकुशल वचन का निरोध । २ कुशल वचन का प्रवर्तन । ३ वचन का एकत्रीभाव–अर्थात् मौन का आलंबन !
मन की तरह वचन भी एक अद्भुत शक्ति है। इन दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । मन यदि राजा है तो वाणी उसका दूत है । मन यदि ध्वजा है तो वाणी उसका दंड है । वैदिक ग्रन्थों में कहा गया है
मनसा हि सर्वान् कामान् घ्यायति
वाचा हि सर्वान् कामान् वदति ' सर्वप्रथम मन से ही अभीष्ट पदार्थों का ध्यान किया जाता है, फिर वाणी उस ध्यान व संकल्प को बाहर में व्यक्त करती है। मनुष्य पहले सोचता है, चिंतन संकल्प करता है, फिर उसे वाणी द्वारा प्रकट करता है, बोलता है, इस लिए हमारे जीवन व्यवहार में मन और वाणी का पूर्वापर सम्बन्ध है।
मन एव पूर्व रूपं वागुत्तररूपम्। . मन पूर्व रूप है, वाणी उत्तर न है । मन में जो बात होगी, वही वाणी द्वारा प्रकट होगी। मन के कुएं में विचारों का जैसा पानी होगा, वाणी के
१ ऐतरेय लारप्पक १३२ २ शांच्यायन मारणाम २
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जैन धर्म में तप
कुशलीकरण
अनेक ग्रन्थों में विचार प्रवाह को शुभ बनाने के लिए ज्ञान, भक्ति एवं कर्म - तीन साधन मुख्य रूप से बताये गये हैं । ज्ञान से वस्तु की असारता का चितन करने पर मन विषयों से स्वयं हट जाता है, भक्ति मार्ग में इन्द्रियों के विषयों को सात्विक तृप्ति होती है-जैसे संगीत सुनने का शौक है तो प्रभु भक्ति के गीत सुनना, प्रभु के रम्य रूप का अन्तरर्वक्षुओं द्वारा दर्शन करना इत्यादि । कर्म मार्ग के द्वारा - मन को सतत कर्मशील -- कार्य में जुटाए
1
३६०
रखना, सेवा, सहयोग परोपकार आदि के कार्यों में लगे रहने से मन भी उसी प्रकार के विचारों में रमता है । इस तरह उक्त. सोलह भावनाएं तथा ज्ञान योग, भक्ति योग एवं कर्म योग को साधना के द्वारा-- -मन योग प्रतिसंगीनता की जा सकती है । इन्हीं उपायों से, अकुन मन का निरोध अर्थात् अशुभ विचारों की रुकावट और कुशल मन की प्रवृति शुभ विचार प्रवाह की वृद्धि की जा सकती है । संक्षेप में गन को प्रशिक्षित करना शुभ भावना करने की आदत डालना यही मन का कुशल
है ।
एफप्रता
ww
मन प्रतिसंीनता का तीसरा रूप है मन को एक करना । कह स्मरण रखने की बात है कि कुन मन अशुभ विचार प्रवाह में दोवा हुआ मन यदि अशुभ वारंवन पर हिपर भी हो जाना है अभी यह स्थिरता, एकाग्रता कोई लाभ नहीं होती, पका स्पर्य में गाय नहीं, माकान है ना तो केस प्राप्त हो याना आनन्द ! समाधि ! इसलिए कहा गया है समोपति
तो
सुका (का)
से
होता है। धर्म के है-किता
काही माहि । काणा पत्र
और गमादि
समाधिरेत्
विषमें
समापित है, जिनके
१ पनि पर २ विगि
२
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प्रतिसंलीनता तप
३६१
की प्राप्ति बताई गई है। अत: पहले मन का शुद्धीकरण करके फिर स्थिरीकरण किया जाता है, यही मन प्रतिसंलीनता के तीन भेदों में स्पष्ट किया गया है कि सर्वप्रथम मन को अशुभ विचारों में जाने से रोको, फिर उसे शुभ विचारों से पवित्र वनाओं, शुभ भावना के द्वारा निर्मल बनाओ और उसके बाद किसी एक शुभ ध्येय पर उसे एकाग्र करो। एकाग्रता का विशेष सम्बन्ध ध्यान से है अतः इस विषय की चर्चा अधिक विस्तार के साथ ध्यान प्रकरण में ही की गई है।
मन शुद्ध, तो वचन शुद्ध वचनयोग प्रतिसंलीनता के भी तीन प्रकार वताये गये हैं१ अकुशल वचन का निरोध । २ कुशल वचन का प्रवर्तन । ३ वचन का एकत्रीभाव–अर्थात् मौन का आलंबन !
मन की तरह वचन भी एक अद्भुत शक्ति है। इन दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । मन यदि राजा है तो वाणी उसका दूत है । मन यदि ध्वजा है तो वाणी उसका दंड है । वैदिक ग्रन्थों में कहा गया है-.
मनसा हि सर्वान् फामान् ध्यायति
वाचा हि सर्वान् कामान् वदति ' सर्वप्रथम मन से ही अभीष्ट पदाथों का ध्यान दिया जाता है, फिर वाणी उस ध्यान व संकल्प को बाहर में व्यक्त करती है। मनुप्य पहले सोनता है, चिंतन संकल्प करता है, फिर उसे वाणी हारा प्रकट करता है, बोलता है, इसलिए हमारे जीवन व्यवहार में मन और वाणी का पूर्वापर नन्बन्ध है।
मन एव पूर्व रूपं वागुत्तररूपम्। मन पूर्व रूप है, वापी उत्तर रूप है । मन में जो बात होगी, वही वाणी द्वारा प्रकट होगी। मन के कुएं में विचारों का सा पानी होगा, यानी ने
.
६ ऐतरेय मारण्यक १२ २ नांवारन भारतमः ४२
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जैन धर्म में तप
कुदालीकरण
अनेक ग्रन्थों में विचार प्रवाह को शुभ बनाने के लिए ज्ञान, भक्ति एवं कर्म - तीन साधन मुख्य रूप से बताये गये है। ज्ञान से वस्तु को असारता का चितन करने पर मन विषयों से स्वयं हट जाता है, भक्ति मार्ग में इन्द्रियों के विषयों की सात्विक तृप्ति होती है - जैसे संगीत सुनने का शौक है तो प्रभु भक्ति के गीत सुनना, प्रभु के रम्य रूप का अन्तरर्नक्षुओं द्वारा दर्शन करना इत्यादि । कर्म मागं के द्वारा -मन को सतत कर्मशील - फार्य में जुटाए रखना, सेवा, सहयोग परोपकार आदि के कार्यों में लगे रहने से मन भी उसी प्रकार के विचारों में रमता है। इस तरह उक्त, सोलह भावनाएं तथा ज्ञान योग, भक्ति योग एवं कर्म योग की साधना के द्वारा--मन गोग प्रतिसंगीनता की जा सकती है। इन्हीं उपायों से, अकुत मन का निरोध अर्थात् अशुभ विचारों की रुकावट और कुशल मन की प्रवृति शुभ विचार प्रवा को वृद्धि की जा सकती है। संक्षेप में मन को प्रशिक्षित करना, शुभ भावना करने की आदत डालना यही मन का कुशलीकरण है।
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एकापता
मन प्रतिसंलीनता का तीसरा रूप है- मन की एक करना । यह स्मरण रखने की बात है कि अन मन-अशुभ विचार प्रवाह में दौड़ता हुआ मन यदि उस अशुभ आलंबन पर स्थिर भी हो जाता है तब भी ह स्थिरता, एकाला कोई लाभजनक नहीं होती, क्योंकि स्वयं में गाय नहीं, गाय एवं धन है तो
के द्वारा प्राप्त होने
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वाला अनन्य ! गमाथि !
लिए रहा है -
समाधीपति है। दो गर्म है---मम पिता
है
सुका (वा) नही प्रत्यव
योग
समादि कुर्यात्
मध्यममाधि प्राप्त कर
१ पनिका ॥२
२२
套
में नही
क
लिए और समापि
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प्रतिसंलीनता तप
३६३ कारी सत्य भी असत्य का ही बंधु माना गया है । असत्य के चार भेद बताये
गये हैं.
१ सद्भाव प्रतिषेध-आत्मा-पुण्य-पाप आदि तत्वों की सत्ता का निषेध
करना, इन्हें नकारना। २ असद्भावोद्भावन--जो तत्त्व नहीं है, उसे तत्त्व बताना-जैसे - हिंसा में धर्म बताना। ३ अर्थान्तर-अपने गौरव के लिए, सम्प्रदाय आदि के मोह से तथा
अपनी गलत विचारधारा को पुष्ट करने के लिए शास्त्र का अर्थ बदलना। ४ गर्हा-दूसरों की निन्दा एवं अपमान युक्त वचन बोलना । . ये चार भेद आचार्य हरिभद्र ने सूचित किये हैं -- इनमें नास्तिकता,हिंसा, पर-निन्दा, अहंकार युक्त वाणी एवं साम्प्रदायिक अभिनिवेश को स्पष्ट रूप से असत्य घोपित किया है । इस प्रकार की भावना से जो वाणी बोली जाती है वह सब असत्य की कोटि में आती है । मूल आगमों में असत्य के दस भेद और कहे गये है । जैसे
दस विहे मोसे पण्णते- तं जहा फोहे माणे माया लोहे पिज्जे तहेव दोसे य ।
हास भये अक्खाइय उवघातनिस्सिए दसमे । - असत्य दस प्रकार का है-क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेप एवं हास्य तया भय के वश होकर कथन करना, कहानी आदि के मिप तथा हिंसा के निमित्त कथन करना-इन दस कारणों में सभी कारण ऐसे हैं जिनके वश होकर व्यक्ति सत्य बात कहे तव भी वह असत्य ही है । क्रोध, लोभ नादि के का हुमा व्यक्ति जो वाणी बोलता है, उसके पीछे उसका विवेक नहीं रहता, शान नहीं रहता कि वह क्या बोल रहा है तथा उसके बोलने का क्या परिजाम होगा ? यह विवेकहीन वचन बोलता है, और विवेकहीन, ज्ञानरहित
mam
. १ दशवकालिकाअध्ययन ४. टीका
२ स्थानांग सूत्र १०। प्रजापना, भापापद ११
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जैन धर्म में तम डोल द्वारा वही पानी बाहर आयेगा। मन में यदि शुभ मिनार होंगे, तो वाणी द्वारा शुभ शब्द, मधुर बोल बाहर में आयेंगे जिन्हें सुनकर श्रोता पराम होंग, यदि मन में अशुभ विचार होंगे तो वाणी में भी अभद्र शब्द, गटुप. बसन ही बाहर आयेंगे जिन्हें सुनने वाले का मन दुःखी और संतप्त हो जायेगा। इसलिए पहले मन प्रतिसं लीनता बताई गई है, फिर वचन प्रति संलीनता।
अशुभ यवन योग वचन प्रतिसलीनता में सर्वप्रथम अशुभ बचन विकल्प का निरोध मारना होता है। शास्त्र में भापा के चार भेद बताये हैं सत्य, असा, मिथ और व्यवहार । इन में असत्य और मिश्र दो प्रकार की भाषा अशुभ है । असत्य भापा एक प्रकार का जहर है। किन्तु मिश्र गापा भी राय और अगत्य का गेल होने को जहर ही है । दूध शक्ति और पुष्टि देने वाला होता है, किन्तु यदि जसमें जहर मिल गया हो तो वही दूध प्राण नाशक भी हो जाता। इसीप्रकार गित सत्य भाषा में असत्य मा योटा सा मिश्रण हो गया हो, या गला भाषा भी जहर मिले दूध की तरह लाग्यो । प्रमिद अंग्रे विद्वान मकालिन का मन है --"आधा सत्य अपसर महान होता है।" पूर्ण झूठ से भी मिश्रित अधिक पतरनाक होती है । इसलिए अगस्य एवं मित्र माया आम नाथा मानी गई।
जराम पचन पलक्षण सत्य की नरम मास की परिमाया भी बनीमा पार: या गो माग बोरगा नया को RE THE बालीको नाम सर में गाना गा होग-TE जोमा दुध --- अनं मामाद अपने ति मुसाया' भनी मारतो मा नदीमामा माना frga मन को मार Prinam नहाना Trir
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प्रतिसंलीनता तप
३६५ युक्तचन व, दूसरे के दिल पर चोट लगाने वाला वचन, किसी का मजाक व निंदा करने वाला वचन, भ्रम फैलाने वाला वचन - यह सब असत्य व अशुभ वचन है, सत्य के साधक के लिए त्याज्य है । इसके अतिरिक्त अधिक वोलना निरर्थक बकवास करना, तथा मर्मघातक बोलना तू-तू जैसे अभद्र शब्दों का प्रयोग करना, तुच्छ तथा अशिष्ट भोपा बोलना" कलह व झगड़ा बढ़ाने वाला वचन (भले ही सत्य क्यों न हों) ये सब प्रकार के वचनअसत्य एवं अकुशल वचन हैं । तथागत बुद्ध ने भी असत्य वचन के चार रूप बताते हुए कहा है- झूठ, चुगली, कठोर वचन और बकवास ये-चारों प्रकार के वचन मिथ्या वचन है।"
अकुशल वचन निरोध में इन सब प्रकार के वचनों का त्याग करना चाहिए, तथा विवेक पूर्वक, विचार कर सत्य वचन बोलना चाहिए। जैन आचार्यों ने तो यहां तक कहा है कि-जिस भापा को बोलने पर चारित्र की शुद्धि होती हो, वह भापा सत्य है, इसके अतिरिक्त जिस भापा के प्रयोग से चारित्र दूपित होता हो, वह भापा चाहे सत्य ही क्यों न हो, असत्य ही मानी जायेगी।" भाषा-प्रयोग में शब्दों का महत्व नहीं, भावना और विवेक का महत्व है । हां शब्दों का प्रयोग करते समय भी उसकी सुन्दरता, श्रेष्ठता और उपयोगिता पर ध्यान देना चाहिए । शास्त्र में कहा है
दिट्ठमियं असंदिद्ध पडिपुन्न विअंजियं अयंपिर मणुविरगं मासं निसिरअत्तवं ।'
१ दशवकालिक ७.५४ २ सूत्रकृतांग १३१४१२३ ३. उत्तराध्ययन ११२५ ४ सूपकृतांग ११६२७ ५ सम्मृतांग ११२४१२१ ६ दशवकालिक १०१७ ७ मन्तिमनिकाय ३१७११ ८ दशकालिक जूणि ७ (जिनदारा) ६. दलिया १४६
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जैन धर्म में तप वाणी याभी सत्य नहीं हो सकती ! यथार्थ होते हुए भी उसे सत्य का राज. मुकुट नहीं पहनाया जा सकता ! इन भेदों से स्पष्ट होता है कि असल्य फा . परिवार रावण के परिवार (कुनवे) को भांति कितना लम्बा नोड़ा है।
सत्य की परिभाषा यद्यपि आनार्य पतंजलि' ने सत्य की परिभाषा बहुत सीमित करती है"सत्यं ययाय वा मनसे ययादृष्ट ययानुमितं यया श्रुतं तथा वामनश्चेति जगा देखा --- सुना, समझा हो, दूसरों को कहते समय मन वचन का वैसा हो प्रयोग करना सत्य है ।" किन्तु सत्य की परिभाषा इस छोटी परिधि में नहीं बन्ध सकती । वास्तव में इन सब से ऊपर सत्य वह है जो सब जगन् के लिए हितकारी हो । जैसा महर्षि व्यास जी ने कहा है
यद् भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं वचो मम ।। जो समस्त प्राणियो के लिए अत्यंत हितकारी हो, वही सत्य है। जैन धर्म में भी वही सत्य, मत्य माना गया है जो समस्त जगत का कल्याण करने ... वाला हो, मिरा में मन की, वाणी की, शरीर की और आगरण की सरलता एवं पवित्रता हो उसे ही सत्य रती सीमा में प्रवेश करने का अधिकार दिया है । इसलिए यह निश्चित तध्य है कि जो कयन क्रोध आदि मनुपित विचारों से दूषित हो. वह सत्य देवता मन्दिर में नहीं चल सकता, जैसे कि दुषित अन्न न ग गत पुरल फल आदि देव मन्दिर में नहीं बढ़ सकते। ..
जंग नमों में मान-स्थान पर अगत्य एवं अकुशल बना के लक्षण या हुए मा गगा है अपनी प्रमा, और दूसरों की निंदा करना ना भी गाय का ही एक म। श्रोध आदिको आधुलता गुच करना भी अगाय .
१
ज
म ग सापना पर३, माण
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प्रतिसंलीनता तप
इस प्रश्न का सीधा समाधान यही है कि मुनि-सावध वचन अर्थात्पापकारी वचन का त्याग करता है, अशुभ वचन का परिहार करता है, इसलिए अशुभ एवं सावध वचन का त्यागी, सावद्य वचन के लिए मौन रखने के कारण उसे 'मुनि' कहा जाता है। यह मौन जीवन भर के लिए होता है मत: 'मुनिपद' भी जीवन भर के लिए सार्थक होता है ।
मौन का दूसरा अर्थ है-वचन योग का निरोध । वचन योग का सर्वथा निरोध छयस्थ दशा में संभव नहीं है, वहां तो सिर्फ भाषा-प्रयोग अर्थात् शब्द प्रयोग का ही निरोध हो सकता है । शब्दों का उच्चारण मुख से न किया जाये, यह प्रचलित मौन का अर्थ है । इसमें भी कई प्रकार के मौन होते हैंकुछ मौन व्रत में शब्द प्रयोग का तो त्याग किया जाता है, किन्तु आंख, हाथ आदि के संकेत, करके भावों को प्रकट करना, लिखकर जताना आदि चालू रहते हैं और कुछ मौनव्रत में संकेत आदि का भी सर्वथा त्याग कर दिया जाता है।
वचन प्रतिसंलीनता के तीसरे भेद में मान का दूसरा अर्थ ही ग्राम है। क्योंकि सावधवचन का त्याग रूप मौन तो अकूशलवचन निरोध में ही आ जाता है, उसको बार-बार कहने की कोई जरूरत नहीं रहो, अतः यहां पर अकुशल वचन, एवं कुशलवचन दोनों का निरोध रूप ही मोन अभिप्रेत हैऐसा हमारा अनुमान है !
फाय-सपोच वचन प्रतिसंलीनता के बाद काय प्रतिसंलीनता तप का वर्णन आता है। फाय प्रतिसंलीनता का अर्थ है- काया का संकोच-अर्थात् गायसंयम ! हाथ, पैर, नाक, आंख, कान आदि शरीर के प्रत्येक अंग का संयम रखना, इन्हें विषयों की तरफ जाने से रोकना तथा मेवा, भक्ति, परोपकार आदि कागों में लगाना यह काय-संयम है । पान में कहा है
हत्यसंजए, पायसंजए वापसंजए संजए इन्दियास । सभाप रए सुसमाहियप्पा सुत्तत्पं । वियागइ ने समिप ।'
१ दाकातियः १०१५
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जैन धर्म में तप
आत्मवान साधक जो भाषा बोले- वह हृष्ट (अनुभव की हुई देखी हुई) हो, संक्षिप्त हो, सन्देह रहित हो, परिपूर्ण (अधूरी, तोड़ मरोड़ को हुई न) हो, और स्पष्ट हो । किन्तु साथ में यह भी ध्यान में रखे कि वह बात, यह भाषा वाचालता से रहित हो, तथा उसे सुनने पर किसी का मन उद्विग्न होता हो सीन हो ! यह भाषा सत्र को हितकारी तथा सब को वृद्ध हियमाणुलोमियं ऐसी भाषा का प्रयोग करना यह उदीरणा है।
प्रिय हो - चइज्ज
कुशल वचन की
૬
मौन का अर्थ
वचन प्रतिसंलीनता का तीसरा भेद है--वचन योग को एक करना । जैसे मन को स्थिर करना तथा मन का निरोध करना - एकाग्रता कहलाती है वैसे ही वचन की स्थिरता एवं वचन योग का निरोध करना मौन कहलाता है । कुदाल वचन बोलना वचन ( भाषा) समिति है, तथा अकुशल वचन का निरोध करना एवं मोन करना वचनगुप्ति । कहीं-कहीं पर आगा कुशल वचन-निरद्य वचन को दोनों ही रूप दिये है । जैसा कि नाचार्य संपदासगण ने कहा है
कुसल वह उदीरंतो जं यगुत्तो वि समिओवि । ' कुशल वचन (निरवद्य वचन) बोलने वाला बचन समिति का भी पालन करता है और वचन नृप्ति का भी !
पवन गुप्ति एक प्रकार
मन है ! फिर प्रश्न होता है सना जानेमन के लिए है
भी मोन हो सकता है ?
१ मा च न बोलना-मोन है
२
निरोध करना-नौन है।
मुनि शब्द की व्याख्या करते हुए कहा जाता है--नामुनिः पाने में मुहिम कभी नहीं और यमुना ? अममा मोन दिना उही पत्रक ?
-2 मनाया एयर
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प्रतिसंलीनता तप
३६६
यह पूजा भी है ___शरीर अवयवों का संकोच करने वाला प्रसंगानुसार चार बातों में निपुण हो सकता है।
१ सभा आदि में शिष्टता सभ्यता के रूप में
२ गुरुजनों के समक्ष विनय-भक्ति के रूप में .. ३ प्रभु के समक्ष पूजा के रूप में
४ अपने आप के समक्ष संयम साधना के रूप मे
सभ्यता का प्रसंग ऊपर बताया जा चुका है। विनय के सम्बन्ध में आगमों में स्थान-स्थान पर बताया गया है-गुरुजनों के सामने पैर फैलाना, हाथ फैलाना, बार-बार उठना-बैठना, आंखें मटकाना, बीच में बोलना, यह सब अविनीत शिप्य के लक्षण हैं । विनीत शिष्य शरीर की इन चंचल वृत्तियों को त्याग कर,गम्भीरता के साथ-सायपेही-गुरुजनों की प्रसन्नता का ध्यान रखता है। . शरीर आदि का संकोच करने से ही प्रभु पूजा या प्रभु भक्ति रूप उपासना की जा सकती है। हाथ, पैर, सिर आदि का संकोच करके उन्हें विधिपूर्वक प्रभुचरणों में झुकाना-यह वन्दना की विधि है, इसे भक्ति एवं पूजा कहा गया है । आवश्यक सूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य नमि ने कहा है-करशिरः पादादि सन्यासो द्रव्य संकोचः (द्रव्यपूजा) भाव संकोचस्तु विशुद्ध मनसो नियोगः ।" हाथ पैर सिर आदि को स्थिर करना द्रव्य संकोच अर्थात् द्रव्य पूजा है और मन को विशुद्ध कर प्रभु भक्ति में लीन करना-नाव संकोच-अर्यात भाप पूजा है । यही बात नाचार्य अमितगति ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्ध श्रावकानार में कही है
बचोविग्रह-संकोचो द्रव्य पूजा निगद्यते ! तत्र मानस संफोघो भायपूना पुरातनः ।
है उत्तराध्ययन १६१८-१६-२०,
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जैन धर्म में सप ___ भिक्षु कौन है ? भिक्षु को पहचान क्या है ? इसके उत्तर में बताया है जो हायों को संयत रखता हो, परों को संयत रखता हो, वचन को और इन्द्रियों को संयत रखता हो, अध्यात्मभाव में लीन रहता हो, और शास्त्रों के ज्ञानाभ्यास में जिसकी आत्मा सदा प्रसन्न रहती हो यह भिक्षु है ! ___यहां हाय-पैर बचन व इन्द्रिय का संयम साधु को पहनान बताई गई है। हाथ-पैर इन्द्रिय आदि का संयम सभ्यता के लिए भी वहृत आवश्यक है। मनुष्य किसी सभा में या गुरुजनों आदि के समक्ष बैठता है, यहां भी यदि वह बार-बार हाथ-पैर हिलाता है, कभी पालथी मार गार, कभी पैर फैलाकार . . भोर कभी पांव दवाकर अलग-अलग आसन बदल कर बैठता है तो यह असभ्यता समाती जाती है। आसन की स्थिरता, ठीक आराम से बैठना या सभ्यता का नियम है । इसी प्रकार इधर-उधर आंग फाड़ना, बार-बार सार मीना-सोलना भी असभ्यता की निशानी है । आंगों को शांत व स्थिर रसकर सभा आदि में बैठने से व्यक्ति की गम्भीरता व संयमशीलता मी नमः मिलती है। बैठने उठने-चलने देखने में जितना संगम होता है, व्यक्ति उसना .. ही गम्भीर और महत्त्वपूर्ण माना जाता है । इसके विपरीत अंगों को पंचलता
म. विलेपन, वनकाने स्वभाव तथा मानसिक अस्थिरता की घोराक होती है। पिर बासन, शिष्ट आसन और मिष्ट भाषण - गाम भान साले काक्ति हो भी अधियः मानी प्रशित कर सकते हैं। अत: शरीर के अवपयों का संयम नगना सभ्यता की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। दशवरानिक मूर में मतावा है
हत्य पायं सायं घ पनिहाय जिइंथिए।
अल्ती गुतो निलिए सगामे गुरुणो पुजी। गुरुजनों में समीर बैठने वालों को किस समय में माना चाहिए? इसका टमा मनोमनाहामको, पर ओशाको मुमin. rafe को भी इन्द्रिको को गु मर rein उन लोग गे गाकर मार पटना पालिसानी Frzrtी प्रति मदन बिना भी
मंजगीमाना मीही
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प्रतिसंलीनता तप
काय पर संयम करने से । शरीर एवं मन को अपने अनुशासन में रखने से तथा उन्हें सदा परम विशुद्ध भाव में जोड़े रखने से।
काय प्रतिसंलीनता में शरीर के बाह्य संकोच पर ही अधिक बल दिया गया है, इसलिए कछुए का उदाहरण देकर बताया है-कछुआ जैसे अपने अंगों का गोपन करके, संकोच करके सदा निराबाघ रहता है, वैसे ही साधक विषय वासनाओं के बीच अपने शरीर का गोपन करके रहे ताकि उनके चंगुल में न फसे । जैसे कपड़ा खुला होने से शीघ्र ही पानी में पड़ने से भीग जाता है, किन्तु वही खूब कसकर गेंद जैसा बना दिया गया हो और फिर पानी में गिरे तो जल्दी से भीग नहीं सकता। इसी प्रकार काय प्रतिसंलीनता में रहा हुआ साधक आसानी से विषयों के वासना रूप पानी में नहीं भींग
सकता।
विविक्त शय्यासन प्रतिसंलीनता
अनगार फोन ? प्रतिसंलीनता तप का चौथा भेद है--विविक्त शयनासन सेवना। इस तप का सम्बन्ध साधक के आवास-निवास से हैं। साधक संसार में रहता है, शरीर धारण करता है, शरीर के लिए बाहार पानी भी ग्रहण करता है, वस्त्र पात्र आदि भी रसता है, और रहने के लिए आश्रय-आवास आदि की भी गवेषणा करता है । चूकि जैन साधु का रूप अनगार का है। बनगार का अर्थ है-न विद्यते भगारं-गहं यस्य सः अनगार: जिसके पास अपना कोई पर (जगार) नहीं, वह बनगार है । मनगार के पास न अपना कोई पर, मठ, आप्रम व विहार होता है और न वह अपने लिये काहीं घर, मायम आदि बनवाता है । न किती आश्रम आदि के साय अपना सम्बन्ध जोड़ता है। हम तरह यह प्रत्येक दृष्टि से अनगार-गृह मुक्त होता है।
माधम और प्रासाव भारतीय भूपिनों की परमरा में दिलः और श्रमण सपियों की हो परपरा नली मानी है । वैविध मावि नमागम बाग में निवास करने । प्रदेश प्रमुग पि भरमा यसलाम, विशाल मान योरा रसो,
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जैन धर्म में तप
वचन एवं शरीर का संकोच करना द्रव्य पूजा है, तथा मन का संकोच करना भाव पूजा है।
काय-मंकोच में संयम की साधना तो स्पष्ट है ही। क्योंकि इन्द्रियों का निग्रह संयम है, शरीर को सात्विक दृष्टि से कष्ट देना, तपाना यह तप है। शब्द, रूप, रस आदि मनोमुन्धकारी विषयों का आकपंण सामने आने पर उनको तर्फ देखना नहीं, मन नहीं करना,आकृष्ट नहीं होना यह अनासक्ति भाव है । स्वर्ग की अप्सराए अपना अदभुत सौन्दयं विशेरती हुई स्वर्ण-सी यमपानी अर्धनग्न देह लेकर सामने खड़ी हो जाए, मन को मुग्ध कर देने वाले हायभाव, हास्य,लास्य और गीत नृत्य करती रहे फिर भी उनकी तर्फ आंच उठा कर देखना नहीं, मधुर गीतों की धुन पर कानों को तनिक भी उस और जाने .. न देना कितना बड़ा आत्म-संयम है ? कहा जाता है-- एमा तपस्वी नदी के तट पर शांत वातावरण में भमण कर रहा था। तभी एक सुन्दर रमणी शृंगार सजी मुपुर का संचार करती हुई उधर से आई। तपस्वी को देखकर यह कामागपत हो गई, हाय भाव करके वह खूब जोरों से हंसी । उसग दूषिमा दांत तपस्वी की नजर में पड़ गए। उसने वहां से अपनी दृष्टिगोचली जैसे सूर्य . की किरण पड़ने से आग बंदकर ली जाती है । रमणी बागे गली गई । कुछ देर . याद रमणीका पति उसकी खोज करता हुआ उधर आया । सपाली को यहाँ मार्ग पर बेटा देखकर उसने पूछा, महाराज ! पर मनोहर पर भाषण पहनी हुई कोई एक सुन्दरी निकाली समा ? उसके सर में यह तपस्वी साधनः
नाभिनानामि इत्यो या पुरिसो या तो गतो।
यपि र अट्टिसंघाटो गच्छतेस महापय । मुझे नहीं मानमरमात्री या पुरम मौन गया मेरो काममुह को अपना निमा (सग बस
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प्रतिसंलीनता तप
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काय पर संयम करने से । शरीर एवं मन को अपने अनुशासन में रखने से तथा उन्हें सदा परम विशुद्ध भाव में जोड़े रखने से ।
काय प्रतिसंलीनता में शरीर के वाह्य संकोच पर ही अधिक बल दिया गया है, इसलिए कछुए का उदाहरण देकर बताया है - कछुआ जैसे अपने अंगों का गोपन करके, संकोच करके सदा निराबाध रहता है, वैसे ही साधक विषय वासनाओं के बीच अपने शरीर का गोपन करके रहे ताकि उनके चंगुल में न फंसे । जैसे कपड़ा खुला होने से शीघ्र ही पानी में पड़ने से भीग जाता है, किन्तु वही खूब कसकर गेंद जैसा बना दिया गया हो और फिर पानी में गिरे तो जल्दी से भीग नहीं सकता । इसी प्रकार काय प्रतिसंलीनता में रहा हुना साधक आसानी से विषयों के वासना रूप पानी में नहीं भींग
सकता ।
विविक्त शय्यासन प्रतिसंलीनता अनगार कौन ?
प्रतिसंलीनता तप का
चौथा भेद है—विविक्त शयनासन सेवना । इस तप का सम्बन्ध साधक के आवास निवास से हैं । साधक संसार में रहता है, शरीर धारण करता है, शरीर के लिए आहार पानी भी ग्रहण करता है, वस्त्र पात्र आदि भी रखता है, और रहने के लिए आश्रय आवास आदि की भोगवेषणा करता है । चूंकि जैन साधु का रूप बनगार का है । लनगार का अर्थ है न विद्यते अगारं गृहं यस्य सः अनगारः जिसके पास अपना कोई पर (बगार ) नहीं, वह अनगार है । अनगार के पास न अपना कोई घर, मठ, आश्रम व विहार होता है, और न वह अपने लिये कहीं घर, वाश्रम आदि बनवाता है। न किसी नाश्रम वादि के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है। इस तरह हष्टि से अनगार-गृह मुक्त होता है ।
आयम और प्रासाय
भारतीय शुषियों को परम्परा में वैदिक और ऋषियों की यो परम्परा चली आ रही है। ऋषि हत्याकाश्रम में निर कपि अपना स्वतन्त्र आश्रम, विकास उनके
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जैन धर्म में सप बचन एवं शरीर का संकोच करना द्रव्य पूजा है, तथा मन का संकोच .. करना भाव पूजा है।
काय-गंकोच में संयम की साधना तो स्पष्ट है ही। क्योंकि इन्द्रियों का .. निसह संयम है, शरीर को सात्विक दृष्टि से कष्ट देना, तपाना यह तप है। शब्द, रूप, रस नादि मनोमुग्धकारी विषयों का नाकर्षण सामने आने पर . उनको तर्फ देखना नहीं मन नहीं करना,आकृष्ट नहीं होना यह अनासगित भाव है। स्वर्ग की अप्सराएं अपना अद्भुत सौन्दयं बिखेरती हुई स्वर्ण-सी दमरतो. अर्धनग्न देह लेकर सामने खड़ी हो जाए, मन को मुग्ध कर देने वाले हाय. भाव, हास्य,लास्य और गीत-नृत्य करती रहे फिर भी उनको तर आंघ का. कर देशना नहीं, मधुर गीतों की धुन पर कानों को तनिक भी उस मोर जाने - न देना कितना बड़ा आत्म-संयम है ? कहा जाता है-- एक तपस्यो नदी के तट पर शांत वातावरण में भमण कर रहा था। तभी एक सुन्दर रमणी श्रृंगार राशी गुपुर का सकार करती हुई उधर से आई। तपस्वी को देशकर यह कामासपत हो गई, हाय भाव करफे यह पूब जोरों से हंसी । उसमें यूधिया - दांत तपस्वी की नजर में पड़ गए। उसने वहां से अपनी दृष्टि खींचली जैसे सूर्य की किरण पड़ने से आ बंटकर ली जाती है । रमणी मागे गली गई। पुछ देर बाद रमनी का पति उसकी खोज करता हुआ उधर आया । तपस्वी को यहाँ मान पर बैठा कर उसने पूछा, महाराज ! घर में मनोहर यमाभूषण पानीमोई सुन्दरी निकाली का ? उसके उत्तर में वह तपस्वी सापर बोला
नाभिनानामि इत्यो या पुरिसो या इतो गतो।
अपि । अट्टिसंघाटो गच्छतेस महापये ।। मुर नही मान में कोई सीमा पुरय मौन गया, हम मार्ग । हामी भासतो EिRE (उसाई . . .
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प्रतिसंलीनता तप की शालाओं में ठहरते थे, वहीं ध्यान समाधि लगाकर साधना करते थे और फिर तीर्थकरत्व प्राप्त करने के बाद प्रायः नगर के बाहर स्थित उद्यानों या किसी विशेष परिस्थिति में आपणशाला एवं खाली सभागृहों में ही ठहरते थे। यही परम्परा समस्त तीर्थकरों की रही है ।
आवास क्यों नहीं? जैन गृहस्थ साधकों ने अपनी अध्यात्म साधना के लिए उपाश्रय, पोषध शाला एवं मन्दिर आदि का निर्माण अवश्य किया है, मन्दिर में अपने मुक्त भगवान को भी विठाया है, किन्तु अपने जीवित भगवान के लिए, अथवा जीवित श्रमण के लिए उसने कभी किसी आवास का निर्माण नहीं किया--- यह जैन धर्म का एक सैद्धान्तिक सत्य है ।
जैन श्रमण अपने लिए आवास आदि का निर्माण क्यों नहीं करवातेइसके उत्तर में सिद्धान्त-सम्मत दो तथ्य हैं.. १ गृह निर्माण आदि में होने वाली हिंसा ।
२ गृह आदि के साथ जुड़ने वाला ममत्व बन्धन ।
यदि साधु अपने लिए गृहनिर्माण आदि करवाता है, उद्यान, विहार व प्रासाद आदि बनवाता है तो उस निर्माण में होने वाली जीवहिंसा आदि का प्रेरक कारण एवं निमित्त श्रमण होता है, अत: वह भी हिंसा का भागी होता है, जो कि उसके महिमा महाव्रत के सर्वथा प्रतिकूल है।
दूसरा कारण है, जो श्रमण अपने लिए आश्रम, मठ आदि बनवायेगा उसका मन भी उसमें अवश आतक्त होगा। उनके साथ ममत्व मात्र हंगा, ममत्व भाय परिग्रह है, जो कि अपरिग्रही अमण धर्म मे विपरीत है।
इन दो शान्तिका कारणों से प्रारम्साले आननक जैन अमन अरने लिए आराम आदि के निर्माण का त्यागी रहा है।
भगवान महावीर के जीवन का एक प्रसग Cr जब ये माधना काल मे प्रारम वर्ष में दूरसक पापी आश्रम में आने और यहां से गुमान कार में उस काम को पच्युटी चाल free गातुमांग में गुर ही दिन बीत , बरसात नहीं हो रही थी, भूगो गाने काम को पानी
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..
. जन धर्म में तप
यहां अनेक पि, शिष्य व गौ-मूग आदि जाश्रय पाते थे । प्राचीन भारत में भने बड़े-बड़े पापियों के भाश्रम व तपोवनों का वर्णन महाभारत, भागवत एवं उत्तरवर्ती भागों में मिलता है । आधर्मों का वातावरण बड़ा प्राङ्गासिक ... सुपमा युक्त, मनोहर, शांत एवं साधना मे अनुगूल रहता था । किन्तु पियों - ता भावात्मक (रागात्मक) सम्बन्ध भी उन आश्रमों के साथ उतना ही गारा जुशमा बा जितना मिली राणा का अपने राजमहल या श्रेणी का अपने
म्यं के साथ । गृहत्याग कर आश्रमवाम स्वीकार किया और यहां भी गदि । ममत्व जुट गया तो फिर एक छोटा पर छोड़ बड़ा घर बसाने जैसी बात हो गई। फिर घर और आश्रम में अन्तर क्या रहा ?
वैविक नियों की भांति बोर श्रमणों ने भी आश्रम परंगरा को अपनाया। . बुद्ध के युग में स्थान स्थान पर बड़े-बड़े आराम और विहागे का निर्माण
या। गृहपति अनापियका जेतवन और विशामा मृगारमाता द्वारा राताईस कोई व मुद्रा मन गारो बनवाया हुआ महामासाद बौद्ध इतिहास में बाजी प्रसिद्ध । बौद्ध ग्रन्थों अनुसार अनापिटया ने मोहरें विधायर भूमिगोपनीदी थी. अर्थात् आगम बनाने के लिए श्रावस्ती में राजगार
पोर में भूमि परीदी और हिर , करो कपये निर्माण में प्रा fam' बोल पारा में श्रमणों के लिए बिहार एवं प्रासाद का निर्माण एक बीमार पूर्ण पुनौका गुम समझा जाता रहा है।
अनिकेत जेन मन जन E पर शेनों परगनाओं से मांगा मिल रही है। हिनी भी कराया इस ने अपने जीयकारों का मानों में आure infor 4, fir या मासा या fruirrfant tोना
for free! भगवान महावीर अबको नगर मग मीrria, frai पर भी उनमे निशी मागाद वामदार पाfiniम रे अपने माMAT TETTE ...
नाम, दामार , नारा
mumtaramrement
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प्रतिसंलीनता तप
निफेयमिच्छेज्ज विवेकजोगं
समाहिफामे समणे तवस्ती। समाधि की कामना रखने वाला श्रमण तपस्वी ध्यान बादि साधना के लिए ऐसे निकेत-आवास की खोज करे जो कि सर्वथा विवेक योग्य हों।
विवेक योग्य भावास का अर्थ काफी गहा है । टीकाकार आचार्यों ने बताया है, जहां स्त्री-पशु-नपुंसक आदि का वास न हो, जहां गृहस्थ की घर सम्बन्धी बातें, कोलाहल आदि सुनाई न दें तवा स्त्री-पुरुप के पिलन आदि की क्रियाएं जहां से दृष्टिगोचर नहों, तथा जिस स्थान पर रहने से किसी को ढेप, मप्रीति एवं अविश्वास न हो, तथा जो स्यान साधु के लिए न बनाया गया हो वह स्थान विवेकयोग्य माना जाता है। ऐसे स्थान को विविक्त शयनासन कहा गया है। विविक्त शयनासन की व्याख्या करते हुए शास्त्र में बताया गया है
एगंतमणावाए इत्यो पसु वियज्जिए।
सपणासणसेवणया विवित्त सयणासणं । --एकांत और अनापात-जहां अधिक लोगों का आना जाना न हों, स्त्रियों, पशुओं, तथा नपुंसक आदि से रहित हो, ऐसे स्वन्छ, मांत स्थान में शयन. आतन करना-- विक्षिप्त शयनासन है।
विविक्त शयनासन को दो दृष्टियां विविक्त शयनासन के पीछे दो दृष्टियां मुख्य रूप से नही है- पहली मुख दृष्टि है ब्रह्मचर्य की साधना ! दूसरी दधि-साधक को गुरुगीनता ..से बचागार स्वावलम्बन, गटसहिता एव निभंग तमा निमंगर नाव को सोर अग्रवार माना।
ग्रहाचर्य हो माधना में लिए ऐसे एक मानी नितांत आवमा रहती है, जहां गा यातायात सहो, जो निशिकार!
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जैन धर्म में ना खोपड़ियों का पास खाने उपटती ! आश्रमवासी परियाजक दंछ सेकर गायों को भगाते, मारते और अपनी-अपनी शॉपड़ी की रक्षा करते । किन्तु भगवान महावीर तो अपनी जोपड़ी में ध्यान लगाए सटे रहे। गायें उनकी झोपड़ी को माफ करने लगी तो परियाजकों ने कुलपति से शिकायत की--"यह मा तपस्वी कोन है, वैसा है ? गायें इसकी झोंपड़ी को पा रही है और यह उन्हें जगाता तक भी नहीं ? कंसा है यह तपस्वी।"
पुलपति ने महावीर से कहा-'कुमार बर ! यह उदानीनता शिरा काम पी? एक पक्षी भी अपने घोंसले की रक्षा करता है, आप नियमार होनर भी अपनी झोपड़ी की रक्षा नहीं कर सकते ?" .
गगवान महावीर गौन रहगार सब सुनते रहे। सोचने लगे---"नि राज महल को भी अपना नहीं समझा, उसकी भी रक्षा का मोह नहीं मा सो अद इस झोपड़ी को रक्षा का मोह गोगा ? क्या इस शॉपही की रक्षा के लिए मैं अपनी ध्यान समाधि का त्याग करटू ? भगवान महावीर माधम को छोहार अन्य पिहार पार गये।
ऐसी पटनाओं से भगवान महावीर ने मानों की बालम व बिहार के प्रति कितनी ममत्व भावना होती है, यह स्पष्ट अनुगम किया होगा। न अपनी सोपड़ी के लिए गाधना को मिसना कर गायों को भगाना जाता है। घोर से ही अपना पग माग बैठता है।
मोम प्रसार माय भावना पारमा सानी नाना में घाट मोमीनियमशन मावीर ने गायोगाराम रहने की शिक्षा वो अपने निजी का निर्माः परमाने मार दिया !
योre Aror
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प्रतिसंलीनता तप
३७७
हो जाता है ? शीतल जल अग्नि का स्पर्श पाने पर क्या गर्म नहीं हो जाता • है ? फिर मनुष्य ही ऐसा कौन सा अजीव पदार्थ है, जिस पर संसर्ग का,
वातावरण का, असर न पड़े ! मन भी तो आखिर चंचल स्वभाव वाला है हो सकता है वातावरण को पाकर वह चंचल हो उठे ! वस्य कीचड़ में गंदा होने के बाद सफाई करने से तो यही अच्छा है कि पहले ही कीचड़ से बचा जाय ? प्रक्षालनाद् हि पंफस्य श्रेयो दूराद विवर्जनम् ।
मन भटकने के बाद उसे स्थिर करने का प्रयत्न करना पड़े, इससे तो यहीं अच्छा है कि मन को पहले ही उस मलिन व विकारपूर्ण वातावरण से दूर रखा जाये। इसीलिए मानव मन के रहस्यवेत्ता पुरुषो ने साधक को विविक्त शयनारान का उपदेश किया है । कहा है
विवित्त सेज्जासणजंतियाणं,
___ ओमासणाणं दमि दिआणं । न राग सत्त धरिसे। चित्तं,
पराइओ वाहिरियोसहेहि । जैसे अच्छी व उपयुक्त औषधि के द्वारा यदि रोग की जड़ ही काट दी . जाय तो वह रोग पुनः शरीर पर आक्रमण नहीं कर सकता इसी प्रकार मल्ल
आहार करने वाले, इन्द्रियों पर संयम रखने वाले और विविक्त शयनासन का सेवन-अर्थात् शुद्ध वसति में रहने वाले साधक को राग रूप आत्रांत नहीं गार साता। __ यदि कोई महंगार पारे नि में बहुत बड़ा तपस्वी हैं, ज्ञानी हूं, मैं नहीं भी न तो जल में कमलती तरह निलेप कह सकता है। स्थियों के रंगरारा के बीच में भी में अपने प्रसनयं को असं अलिस र समतात) हो सकता है कि उसका अहंकार नत्य हो, किन्तु यदि मन पचन हो उठा तो
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१ मा माग मानललं नागरम निलं नामेण संपरा पागेर गोषमा मनोमानविन ।
-~-भागा नयाद आयग्यकारि० ११२७-२८ २ सारा मन ३२३२
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៤។
जैन धर्म में सप आदि का आवागमन काम हो । विषय वासना को जगाने वाले निम, आदि ... उत्तेजक कारण यहां न हों। __यहां प्रश्न सटा हो सकता है कि जैन धर्म तो भायवादी धर्म है, उसमें भावों पर ही अधिक महत्व दिया गया है, वस्तु, स्थान आदि गोण होते हैं। फिर यहां ग्रहाचयं के लिए स्थान बोत्र में क्यों अटक गया ! यदि साधक मा. मन निविकार है तो स्थलिभद्र जैसे गणिया तो नियशाला में चौमासे में रहकर भी निर्विकार रह गये, और मन कच्चा है, तो मिह गुफा में नार मास बिताने वाला साधक गणिका की चित्रशाला में एक दिन में ही विधस गया। नि बत्त रागस्य गृहं तपोयनं . बीत राग के लिए तो घर ही तमोयन है, "गन चंगा तो कटौती में गंगा", फिर स्थान को इतना महत्त्य गयीं दिया गया ? या समाधान करते हुए जैन आचायों ने कहा है-...
याएण . विणा पोओ
न घएइ महगयं तरि ! अच्छी अरसा जलयान (नाय) भी गया मा के बिना कभी महासागर में तैर गगता है ? नहीं ! वैसे ही शानी और अलग मोह वाला सापक भी . बिना योगर साधनों के गंगार सागर को नहीं करता --
निउणो वि जीय. पोओ
तय संजम मार विहणी मानुशल नाविक भी मान दिया है. . विन गम मार हो तर सो ? मा at माएको, गान की जानना मानने वाला मा मापनों के अभागिनी . गद
, निट पानपान भी पटाने पर मिली दूर दो गया : माना में
REET, infi
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प्रतिसंलीनता तप
३७६
स्त्रियों के बीच में ब्रह्मचारी कितने दिन अपना ब्रह्मचर्य अस्खलित रख सकता है ? इसीलिए ब्रह्मचर्य व्रत की पांच भावनाओं में पांचवी भावना में कहा है - ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ स्त्री-पशु-नपुंसक आदि से रहित शुद्ध स्थान में रहे, क्योंकि केवली - भगवान ने कहा है- वहां रहने से हो सकता है कभी उसके मन में चंचलता, उन्माद, मोह या उत्तेजना आदि के रूप में शांति भंग करने वाला भेद उत्पन्न हो जाय, अतः पहले ही उसे उस स्थान का त्याग कर देना चाहिए ।' कहा तो यहां तक गया है कि
कामं तु देवोहि विभूसियाहि
न चाइया खोयइउ तिगुत्ता ।
तहा वि एगंतहियं ति नच्चा विवित्तवासो मुणिणं पसत्यो । २
यदि वह ब्रह्मचारी परम संयमी हों, देवांगनाएं भी उसके चित्त को क्षुब्ध न कर सकती हों, फिर भी साधु ब्रह्मनारी को स्त्रियों आदि से रहित एकांत स्थान में ही रहना उचित है ।
अभय साधना के योग्य आयास
विविक्त शय्या में दूसरी दृष्टि है-साधक को निर्भयता एवं साहसिकता का अभ्यास करना । भ. महावीर के युग में विशाल प्रासादों में, विहारों में सुख-सुविधा के साधनों को भी होड़ लग गई थी। बौद्ध ग्रन्थों में विशाखा के प्रासाद निर्माण की घटना बड़े गौरवपूर्ण शब्दों में गाई गई है। जब प्रसाद निर्माण संपन्न हो गया तो विशाखा की एक महली ने बुद्ध के आराम कक्ष वाने के लिए एक बहुमूल्य (एक सहस्र मुद्रा का ) नागदा और विधा को दिखाते हुए कहा-सुन्दर मुलायम गलीचा में एक नाराम गृह (एक नामरे) में विधानाचाहती है। दिशाया कुछ नही बो महंत को प्रदा के लिये से गई और
य
गाली
१. धानानि सूत्र २
उतराध्ययन-३२९१६
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३७%
जैन धर्म में
उस वातावरण में उसकी गया दशा होगी? जो दशा बिल्ली के सामने चहे. की होती है, यया वह दशा उस साधक की उन सुंदरियों के हाट के यौन नहीं होगी ? भगवान महावीर जैसे मानव मन के गहरे अनुभवियों ने गहा . .
जहा विरासावतहस्स मूले
न मूसगाणं वसही पसत्या। . एमेव इत्यो निलयस्स मज्जे
___ न बमयारिस्स समो निवासी। जरो बिल्लियों के घर के पास गृहों का रहना पतरे से गाली नहीं है. उसी प्रकार मित्रों के बीच में ब्रहानारी का रहना एतरे से भरा हुआ है।.
बिल्ली नाहे नहे को मिलना ही अभयदान दें, गौर नहा मी मा में . गितना हो और बना रहे किन्तु गादि वह बिल्ली गोसाय मिलता है तो पता . नहीं मिलमय उसके गिर गतरे की घंटी बज उठे। राजस्थानी में एRT चता है भूगी दिल्ली ने बिल में छो चहे गो देशकर कहा -
इस बिल फेरा ऊंदरा उस बिल में भा जाय ! ...
ला) दमा घोषा बैठो ठो पाय ! भागना ! गुप एम बिल में निकालकर उस दिन में गाने आओ ! इतनी भी दूर में तुम्हें मार रागी , नीयन पर बैठे-बैठे गाना ! चिली की बात सुन नहा योना-~
घोटी, मा पनो जोवर जोपा मां !
विध मांही गटकोय यही मासो ! कुणाय ! मोमीनी मी मोरीगाना सभा माना जाप तुम्हारा कोई नही मिलेगा ? सभी न परमती कदम
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३८१
प्रति संलौनता तप
....."वे भिक्षु आरामों में, उद्यानों में, देवमन्दिरों में, सभाओं में, पानी की प्याऊ में, मुसाफिरखानों में और ऐसे ही स्त्री पशु नपुंसक रहित स्थानों में रहकर प्रासुक एपणीय पीठ, फलक, शय्या-संस्तारव आदि की याचना करके रहते ।' और भी इस प्रकार के स्थान देखिए- .
.: . सुसाणे सुन्नागारे वा रक्खमूले वा एगओ। ' पइरियके परफडे वासं तत्याभिरोयए।' ___ - साधु ऐसे स्थानों में रहना पसन्द करें जो सूने हों, श्मशान में, वृक्ष के नीचे, जंगल में और बहुत एकांत में हो, तथा जो साधु के निमित्त से नहीं बनाया गया हो। .. आचारांग सूत्र में बताया गया है "भगवान महावीर कभी श्मशान में, कभी सूने घरों में, कभी वृक्ष के नीचे, कभी प्याऊ में, कभी घास के ढेर को छाया में, कभी लुहार की शाला में इस प्रकार के भयजनक, कष्टदायी और उपसर्गकारी स्थानों में रहते थे।"3
ऐसे स्थानों में रहने का स्पष्ट कारण यही है कि साधक का मन भय से मुक्त हो जाए । जो स्वयं अभय होगा, वही अभय की साधना कर सकेगा। बताया गया है- शून्य गृह आदि स्थानों में रहने से साधु को अनेक भय, उपसर्ग आदि उत्पन्न होते हैं, वहां पर वह अपनी साधना में भयभ्रान्त, चंचल एवं उद्विग्न न हो
उवणीयतरस्स ताइणो भयमाणस्त विविपफमासणं ।
सामाइयमाह तस्त जं जो बप्पाण भए त सए । . जो विविक्त आसन आदि गो सेवना करता है, ऐसे माधु को जब शियंच, ... मनुष्य एवं देव सम्बन्धी उपसर्ग आते हैं तब वह उनमें लिपर रहे। जो
अपने आपको भयभीत नहीं करता, वही सामायिक-समाधि को साधना पर मलता है।
१ उबदाईम तप यांन २ राधापन ३५०६
लामासंग हार
'
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+
जैन धर्म में
मिले वही विष्ठा दे । सहेली देखकर चक्ति हो गई कि पूरे आराम में उसके गलीचे से भी बहुत कीमती और मुलायम गलीचे विछे है। आखिर उसके आग्रह पर एक पैर पोंछने का स्थान खाली कर वहां का गोवा
वाया गया |
ܘ ܚ ܕ
उक्त प्रसंग से हमें पता चलता है भिक्षुओं के बिहार उस समय राजप्रासादों से होड़ लेने लग गये थे। सुस-सुविधा के आराम के अनेक साधन यहां जुटाये जाते होंगे और फलस्वरूप भिक्षुओं में सुरागोलता भी बढ़त गई होगी, इसके विपरीत भगवान महावीर ने ऐसे स्थानों पर रहने का स्पष्ट निषेध किया है
मनोहरं चित्तहरं मल्लवणवासियं । सवाई पंडतोयं मणसा दिन पत्याए । '
-मुनि ऐसे आवास की मन में भी इच्छा न गरे, जो मनोहर ही. चित्र आदि से सज्जित हो, माना और धूप से सुगन्धित हो, तथा क सहित एवं श्वेत चंदवा हो। क्योकि ऐसे स्थानों परहने से यह आराम हो सकता है तक ध्यान और समाधि से दूर जायेगा। इसमें भोग की भावना भी जग सकती है। अतः भगवान महावीर ने
1
गापना की और असर करने के लिए
रोका त्याग कर
है यहां आराम से रहने के बाद कोई साधन उपलब्ध नहीं होते थे। निश्चित ही मथुराष्ट महिष् करी और उनमें वो भावना बढती जाती। माधु + साने गोगा दिन सपानका नाम निर्देशों से आता है उनमें क श्री जो मिरपर
यह
होने वा पराशर मुना मनतात एat है
पता है कि
पण गोड वार पर से
firm होता की विदिषनाग के
और
की
के ऐसे स्थानों का निवेश किया
यह गोभी
और
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आभ्यन्तर तप का स्वरूप :
१ प्रायश्चित्त तप
बढ़ते जाओ: भूल करने की आदत प्रायश्चित्त की परिभाषा दण्ड और प्रायश्चित प्रतिसेवना बनाम दोपसेवन पेः कारण प्रायश्चित्त के भेद आलोचना बनाम दोष स्वीकृति बालोचना से लाभ कानोगना कौन कर सकता है? प्रायश्चित किसके पास? बालोचनामदीप
সমিন যা তারা
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जैन धर्म में तप
३८२
इस प्रकार विविक्ताशयनासन साधना की दो मुख्य दृष्टियां आगम में
मिलती है
१ महाचर्य की सुरक्षा
२ अभय भाव की साधना
इन्हीं दोनों दृष्टियों को बाराधना करता हुआ साधक विविक्त शयनासन प्रतिसंलीनता तप की उपासना कर सकता है। इसमें मन, वचन एवं शरीर तीनों हो योगों की, इन्द्रियों को प्रतिसंलीनता समाहित हो जाती है ।
इस प्रकार अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी ( वृतिसंक्षेप) रसपरित्याग, कामवलेश और प्रतिसंलीनता - यह छह वाह्य तप का वर्णन समाप्त होता है ।
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जप का स्वरूप धर्मकथा भी स्वाध्याय है चार प्रकार की धर्मकथा
५ ध्यान तप
चंचल मन मानसिक एकाग्रता का साधन : ध्यान ध्यान की परिभाषा ध्यान की दो धाराएं आतंध्यान का स्वरूप व लक्षण का रता प्रधान रोद्रध्यान धर्मध्यान का स्वरूप धर्मध्यान के लक्षण व आलंबन चार अनुप्रेक्षाएं धमंध्यान के अन्य प्रकार पिण्डस्थध्यान व धारणाएं धारणाओं के चित्र पदस्पध्यान का स्वरूप बद्ध्यायति तद्भवति सिसुवमा नक्षरध्यान बीजाक्षर शब्द पसंफेत
मपातीतध्यान गुस्नध्यान का स्वाम अमलामान मार लिग वामम्बर
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सच्चे मन से लो : गिच्छामिदुमा' 'मिच्छामि दुक्क' : गब्द और माय प्रायश्चित : आगे का नाम
उपसंहार . . . . २ विनय तप
विनय को तप गयों कहा? .. विनय के तीन अर्थ अनुशासन मात्मसंयम व शील सभ्यता व सद्व्यवहार विनय का फला बिनय यी महिमा विनय को सात प्रकार .. दर्शन विनग और अनागातका विनय और चापलूमी
उगाहार ३ पयापरय सप
पंचायत का महत्व और माम सेवा नही पा भक्ति ? . . . सवा गा उद्देश्य गायत्त में दस प्रकार मात्य की विधि
४ स्वाध्याप ramकोमा
पाप प्रा.
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प्रायश्चित्त तप
बढ़ते जाओ ! एक कठियारा था, जंगल से लकड़ियां काटकर लाता, पेट पालता । कई पीढ़ियों से यही धंधा चल रहा था और यही हाल भी ! रोज लकड़ियों काटना, दो चार जाना कमाना और रूसी-सूखी साकर सो जाना । विचारा दरिद्रता में जन्मा था और दरिद्रता की चक्की में हो पिसा जा रहा था।
एक दिन उसे एक सत्पुरुष मिला । कटियारे का हाल-बेहाल देखकर उसे दगा आई । उसने पूछा-तुम क्या काम करते हो ?
दोनता पूर्वक काठियारा बोला-"रोज सकादियां काटना, बेचना और सी-यूसी सागर दिन गुजारना ! बस वही काम करता में।" मरपुरा ने पूछा-करिता शिम जंगल में कहा माटते हो?"
मधिगारे में बताया-"वहीं, पास में जंगल है, यकी र चाप में समाहित साटो पो, ही में काटता।"
पुरको महा---'TR गुछ भागे हो ! भाग में संगन में मापार मोटो।"
का दिन आ गया, उसे अपनी नौ महिनी
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चार अनुप्रेक्षाएं
उपसंहार .. ६ व्युत्सर्ग तप
निर्ममत्व को साधना- व्युत्सगं व्युत्सर्ग का स्वरूप गण-व्युत्सर्ग के सात हेतु कायोत्सर्ग देहबुद्धि का विसर्जन कायोत्सर्ग में ध्यान कायोत्सर्ग के चार प्रकार व्युत्सग के अन्य भेद भावव्युत्सग के तीन रूप उपसंहार
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प्रायश्चित्त तप
बढ़ते जाओ! एक कठियारा था, जंगल से लकड़ियां फाटकार लाता, पेट पालता। कई पीढ़ियों से यही धंधा चल रहा था और यही हाल भी ! रोज लकड़ियां काटना, दो चार आना कमाना और रूसी-जुखी साफर नो जाना । विनारा दरिद्रता में जन्मा था और दरिद्रता की चक्की में ही पिसा जा रहा था।
एक दिन उसे एक सत्पुरुष मिला । कठियारे का हाल-बेहाल देखकर उसे धमा आई । उसने पूछा-तुम पना काम करते हो?
दीनता पूर्वक कटियारा बोला--"रोग लपादियां काटना, चना और मसी-गली पाकर दिन गुजारना ! बस यही काम करता है।"
गरण ने पूछा--"तकारियां गिरा जंगल में पारा काटने हो?"
पाहिमारे ने माया--"वहीं, पास में अंगन है, यही मरे यार में निकालियो काही मो, ही में नाट " . .. परपुल में सहा--म युज आने यही ! आगे जंगलमा
दिन छा गया, सेठी मी हि मिली।
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चार अनुप्रेक्षाएं
उपसंहार
६ पुत्सर्ग तप
निर्ममत्व की साधना- व्युत्सर्ग
व्युत्सगं का स्वरूप
गण-व्युत्सगं के सात हेतु
कायोत्सर्ग
देहबुद्धि का विसर्जन
कायोत्सर्ग में ध्यान
कायोत्सर्ग के चार प्रकार
व्युत्सगं के अन्य भेद
भावयुग के तीन रूप उपसंहार
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प्रायश्चित्त तप
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. . जो आगे बढ़ता है, वह चन्दन को लकड़ियां प्राप्त कर लेता है, जो गहरा उतरता है वह मोतियों से झोली भर लेता है।
तप का मार्ग, साधना का पथ किनारे बैठे रहने का नहीं है, जो किनारेकिनारे घूमता है, जंगल के बाहर-बाहर शोधता है उसे कुछ नहीं मिलता, किन्तु जो इस तपोमार्ग पर आगे से भागे बढ़ता रहता है, और आगे ! खूब गहरा उतरता जाता है, वह आत्मदर्शन रूप चन्दन, स्वरूपदर्शन रूप मोती प्राप्त कर लेता है। इसीलिए जैन धर्म में तप को विधि-बाहर से भीतर की ओर बढ़ती है । अन्तर्मुखी होती है। तप का क्रम इसी प्रकार बताया गया है कि साधक निरन्तर आगे से आगे एक तप से दूसरे, दूसरे से तीसरे सप की ओर सतत बढ़ता ही जाता है और चन्दन एवं मोती प्राप्त कर लेता है।
बाह्य तप का वर्णन हमने पिछले प्रकरण में किया है। साधक वाह्य तप तक आकर ही नहीं रुक जाता, वह बाह्य से आभ्यंतर की ओर गतिशील होता है । सद्गुरुदेव उसे प्रेरणा देते हैं- माधक | और आगे बढ़ ! आभगन्तर में गहरा उतरता जा ! यह तुले यह मिलेगा, जो आज तक नहीं मिला। अनन्त अनन्त जन्मों में जो नहीं मिला,वह सजाना मिल जायेगा । जरा आगे याता जा । तप की गहराई में उतरता जा ! देश !
धाभ्यन्तर तप में मन को विशुद्धि, सरलता और एकाग्रता की विशेष साधना होती है। बाप तप की साधना से माधक अपने रान गो, मग को साब लेता है, सहिष्णु बना लेता है और उसका नंशोधन पार लेता है । विगुन मग मीही तिर हो सकता है, विनय हो सकता है, ध्येग में लीन हो समता है, बोर सय ममत्व से मुक्त भी हो सकता है इसीलिए गाहा मप से मार को ओर पाने गो से छह सीवियां जनधर्म में गाई गई। ETATAR Tो गति सामना की भी गोदिया बताई गई है, जिनमें पानी गीली - मायनित।
भूल करने की मा TIME मारमा पसभामा समान म
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जैन धर्म में राम रोज की अपेक्षा आज उसकी लकड़ी दुगुने भावों में विकी। दूसरे दिन यही सत्पुरुष मिला । उसने फिर यही बात माही-"कुछ आगे बढ़ो !" माहि.. यारा और मागे गया, आज और अच्छी लकड़ी मिली। बों रोज-रोज बा आगे बढ़ता नपा, अब उसे बढ़िया इमारती लगाड़ियां मिलने लगीं। ... भारी में ही उसे महीने भर की कमाई होने लगी। सत्पुरुष ने फिर से एक दिन प्रेरणा दी । रुको मत ! और आगे बढ़ो ! कठियारा जंगल में राय दूर चला गया । आज उसे नन्दन के वृक्ष मिले । उसने जगोही वृक्ष को गाटा, मारा जंगल चयन की मार से महक उठा । कटियारा बहुग प्रान्न भा। . एक भारी बांधकर यह ले गया और बाजार में देना तो बस उसके जन्मभरः । को दरिद्रता दूर हो गई !
एक आदमी समुद्र के किनारे बैठा सोपं और मंतिए बीनता रहता। बाजार में उसे थेचमा नार-: आने मामा लेता और नने नयाभर अपना पेट भर लेता । एक दिन गिलो सत्पुरष ने उसे पूछा-समुद्र मे किनारे. मंठे । जया करते हो?
उसने महा-- मी और पतिए बटोरता है ? गाय से? या तो मेरा पुस्तौनी घंशा है ! पानी मात्र में गहरे नही जार?
मकाने -- म उनी ! देगा तो हो !
मनट में पानी उगा। उसे काही मुलायान मार मारे गियों !
भिगो । म फिर भी मरने . ETAIL ना गया । समुह है गर्भपान मारे दिम नमः Itant
म और ईमरम गों को बीमा ! ----
freifer पाया गहरे पानी पंछ। में ओपो हो सारे .
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प्रायश्चित्त तप
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. प्राय: पापं विनिदिष्टं चित्तं तस्य यिशोधनम् । -प्राय: का अर्थ है पाप और चिस का अर्थ है उस पाप का विशोधन करना । अर्थात् पाप को शुद्ध करने की क्रिया का नाम है-प्रायश्चित्त !
एक अन्य आचार्य के मतानुसार --'प्रायः' नाम अपराध का है । उनका पाथन है --
अपराधो वा प्राय: चित्तं-शतिः। प्रायस चित्त-प्रायश्चित्त-अपराधविशतिः ।
- अपराध का नाम प्राय: है और चित्त का अर्थ है-शोधन ! जिरा क्रिया से अपराध को शुद्धि हो वह प्रायश्चित्त है।
प्राकृत भाषा में प्रायश्चित्त को पायच्छित कहा जाता है । 'पायच्छित्त' शब्द को व्युत्पत्ति करते हुए आचार्य कहते हैं
पावं छिदइ जम्हा पायच्छितं ति भण्णइ तेण ।' - - 'पाय' नाम है 'पाप', जो पाप का छेदन करता है अर्थात् पाप को दूर कर देता है, उसे कहते हैं-पायच्छित्त ।
दण्ड और प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त सी एन शब्द-परिभाषाओं में यही स्पष्ट होता है कि पाप की विशुद्धि के लिए, दोगको विगुद्धि के लिए जो क्रिया-(पन्नात्ताप एवं तपरगा) की जाती है उने प्रायश्चित्त कहा है। मनुष्ण प्रमादवश अनुनित कार्य कर लेता है, दोगसेवन कर लेता है, अपराध कर लेता है। किन्तु जिनकी आत्मा जागरूक होती है, पर्म-अप का विवेक रपती है, परलोकगुगार की भावना जिसमें होती है, यह उस अनुनिल आपरा के प्रति मन में पनाताप करने लगता है, यह दोष माटे यो मांति उसरे हदय में गटगाने लगता, और जोन में मौत पर माफी मुदि करने का प्रयत्न करता गरनो ने गमा अपना दोरन्ट करता है, जो उसने FE प्रालित की प्रार्थना करता है. और गुरन में से प्रायग्निरोग्य
..
RIT १५३
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. .
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अवस्ता में बैठे हैं,असावधानी और विस्मृति का दोष दूर नहीं हुआ है,तबार कोई दोष लगे ही नहीं, कोई भूल न हो - यह कैसे कहा जा सकता है ? और कहने पर मानेगा भी कौन ? गोंधि मन-वचन एवं शरीर का योग गरिदार है, जनल है, उसमें कहीं भी कगाय भाव का मिश्रण हुआ कि फिर यो भने बिना नहीं रहेगा। कोई यह कहे कि मैं दिन रात धर्ममय विकारों में हो मागाई, गुलमे कोई दोष नहीं हो सकता, कोई भूल नहीं हो सगती, तो इस छदमस्थ का यह दावा बैसा ही है कि अंधा कहे- मैं कभी ठोकार नहीं माना .
जैन धर्म और भारत का, विश्व का प्रत्येक धर्म , यिनारगः गा मानता है . कि मनुष्य मे भूल होती है, दोष होते हैं, किन्तु साथ ही उस भूल को सुधारा भी जा सकता है दोष को विशुद्धि भी की जा सकती है। यम पर मनमा गब्बा लग सकता है,मीर में रोग हो सकता है, किन्तु समझदारी इस पच्चा तुरन्त माफ कर दिया जाय । गोग की चिकित्सा करणे शरीर को रमक बना लिया जाय । इसीलिए कहा जातामल करना समान है, भून सो स्वीकार करना, पटिन है. भून का गुबार करना और भी कठिन है। वा आदमी यही , मत्पुरुष या माघर यही है जो बहस दिन कार्य कर गा । जैन धर्म में इस भान सुधार को, दीप-विमुदिगो बारा मात्र दिया यहां तमः शिगे बाध्यतः मान लिया है। योग-मिति , लिए मामिल करने वाले को महान परवी माना गया, मोम गाय भी माटो जाती है । अानों को मारह प्रायशिनासा के लिए में भी काम में माना नितन हिना।
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प्रायश्चित्त तप उसका कर्ज चुकाने के लिए गांधी जी ने घर से एक तोला सोना सुराया और दुकानदार. का कर्ज चुका दिया। फर्ज तो चुक गया, किन्तु चोरी के पाप से हृदय भीतर ही भीतर झुलसने लगा। पश्चात्ताप से हृदय वैचेन हो उठा, जैसे भीतर में भयंकर आग जल रही हो। वे अपनी इस पीड़ा को सह नहीं सके । मन हुआ अभी जाकर पिताजी के चरण पढ़ लें और अपराध स्वीकार कर क्षमा मांग लें। किन्तु पिता के सामने जाने में शर्म भी बाती थी, आखिर एक पत्र लिखकर उन्होंने अपनी चोरी की घटना बताई। स्वयं को धिक्कारा और भविष्य में कभी भी ऐसा अपराध न करने का दृढ़ संकल्प किया । समतदार पिता ने भी उन्हें प्रेमपूर्वक माफी देदी । इस पश्चात्ताप के बाद गांधीजी ने कभी भी पुनः चोरी नहीं की। यह है पश्चात्ताप रूप प्रायश्चित्त का परिणाम ! दंड में ऐसा हृदय परिवर्तन नहीं हो सकता। इसलिए शास्त्रों ने साधक को अपने दोगना स्वयं माय शिनत करने के लिए प्रेरित किया है। अन्त:प्रेरणा से प्रेरित साधन जय गुरुजनों के समक्ष प्राता है तभी गुगजन उसे प्रायश्चित ही है।
प्रतिसेवना धनाम शेष-रोयन पार पनि भून मरना, अपराध करना, दोष गेवन करना मनुष्य को मामाला मनावति है। जैन मनोविज्ञान के अनुसार हर सामान्य प्राणी हम मनोवधि
ना होता है, कोई भी संसारी मनुष्य कभी भी अपराध पर मरता, पिनी गोमोई गारंटी नाही यमोंकि किस समय ग. मन में प्रमाद व कलाम नासा प्रवन होछे, कोरवा दोषीपनगरमा मदन नही पियेगी, जानी मनुष्य उगम आयेग र ध नियंत्रण घ.म. गामा , विली जग प्रकार में साक्षी को लेकर या जाता है । आपुfor waifeोगी का Rritr
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नीति में अपराधी को दिया जाता है, यहाँ अपराधी स्वयं मोमोमारी नहीं करता, यदि स्वीकार भी है तो उसके प्रति
मानि नहीं की ग्लानि भी हो तब भी यह उसके लिए मांग की । देर मिल भी जाता है तो प्रसन्नता और इमानदारी सारा पागही करता । जयति मातम नीति में दोनो स्म free मा है. पाप से प्रति उसके हृदय में तीन ग्लानि होती है, और निमार या अपने आप को हलका, प्रसाद और पवित्र अनुमान मा प्रायलित और यंट में गाद का बड़ा अन्तर है। ती . पर भारत के समस्त पापों में मा. मे लिए प्रायश्चित मा . प्रयो मिसान पार में अटक गर रह जाता है,
मी मनी पर ममता । अपरागो में मन को शारी
प्राचिन मोमोवी में आपको दिगदगार देता । में हाला को और METर भाभा बढ़ाया जाता मनि
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प्रायश्चित्त तप
३६५ - साधक-जीवन में जब ये चार प्रकार की आपत्तियां आती हैं तो न चाहते हुए भी विवश होकर उसे अपने कल्प के विपरीत आचरण करना पड़ता है। ऐसे समय में हिंसा, जलतरण, विद्या प्रयोग, आदि करके स्वयं की, संघ की एवं राष्ट्र की रक्षा करनी पड़ती है। उसमें दोपसेवन से आनन्द व सुस प्राप्ति की भावना नहीं, किन्तु संयम व संघ रक्षा की भावना रहती है। इसीलिए बहलल्प भाप्य के कर्ता आचार्य संघदास गणी ने 'प्रतिसेवना के दो मूल भेद कर दिये हैं
रागद्दोसाणुगता तु दम्पिया फप्पिया तु तदभावा ।
आरापतो तु फापे, विराधतो होति दप्पेणं ॥१ रागत पपूर्वक की जाने वाली प्रतिसेवना दपिका है और रागढ़ प से रहित (आपत्ति काल में परिस्थितिवश निषिद्ध आचरण करने पर) प्रतिसेवना कल्पिका है। नाल्लिका प्रतिरोवना में संयम को विगधना नहीं है, किन्तु चपिगता में निश्चित ही संयम की विराधना है।
भापत्प्रतिमेयना में आनायं में उक्त कथन को आधार मानारही भार ग्रन्गों में गिर ना बनारमा आदि अनेम पवाद मागा गा उल्लंग निगा है।
शान्ति प्रतिरोपना- करंगे योग्य आहार आदि में मंहार मंदिर हो जाने पर भी जो महण मारना ।
७ सहमापार प्रतिसेयनामा अकस्मात भोई माय जाति हो नाममा निमा चोगे-समझो निलम विगार देगा। मा अतिसेवनाने अभिप्राय
मानिया सपा बम, मा भारतमा का प्रदेश प्रतिमेवनी - मी मशिग आदि
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प्रायश्चित्त तंप है, इसमें दोप सेवन कर साधक वापस उसकी बालोचना कर अपने विधि मार्ग में लौट जाता है। ___ उक्त कारणों से जो दोप सेवन होता है, साधक उसके लिए मन में पश्चा त्ताप आदि भी करता है, और जहां, जब, जिसप्रकार के प्रायश्चित्त की विधि होती है, वह पूर्ण कर आत्मा को शुद्ध बनाता है ।
प्रायश्चित्त के भेद यद्यपि दोष विशुद्धि रूप प्रायश्चित्त मूलत: हृदय का परिवर्तन ही है । किन्तु दोष व अपराध को गुरुता, तथा स्तर को ध्यान में रखकर उसको अनेक भेद भी किये गये हैं । कभी-कभी साधक से बहुत सामान्य अपराध होता है, और यह सुरन्त उसके लिए पश्चात्ताप करने लग जाता है। उस पश्चाताप से ही उसकी शुद्धि हो जाती है, अन्य किसी प्रकार के तपश्चरण की आव. श्यकता नहीं रहती। किन्तु कभी-कभी अपराध बहुत भारी होता है. माधक उसके लिए पश्चात्ताप तो जरूर करता है, किन्तु उस दोष की शुद्धि के लिए कुछ तपश्चरण आदि पी भी आवश्यकता होती है। यदि अपराध पर पनाताप न हो, उसको स्वीकार न करे तो उस स्थिति में अपराधी को प्रायश्चित्त नहीं दिया जा सकता कि जो दोष स्वीकार करने को भी पार नहीं, . उसका हृदय गुट कहां है? साल पहा है? जब हुदम सरल नहीं तो प्रायहिवस उसकी यया प्रियुद्धि पार समेगा? प्रायश्चित कोई जल शो नहीं जो पर बगरा अपने आप का द. अग्नि तो नहीं है, जो अपन-जाप
म छ अलासी जाए. हा जब भी है, मन भी है. किन्तु भरा बंधा मादल है, पन्ह गो बंधी शनि जय र महामो सभी मपाई मोमो, अनि नमाओ
और सर ही सालो सभी नरम होगी मी, सारा मानार, राधी को मनायना की प्रातिनिशिप जागा , if
भार भर
में
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जनगम में प्रतिभा ना किसी पर झूठा मालक आदि नगाना । काय आदि कारागा की विवाधना नीनो के अन्तर्गत मानी जाती है।
१० विमर्श प्रतिमेवना - जान-बूझकार, शिनारपूर्वक शेष सेवन करना-- मेला आदि गती परीक्षा में लिए गले प्रश्न पूछना, दोष स्वीकार कराने .. कनिए धमााना, झूठा आरोप लगाना आदि ।
मानामों ने बताया है कि इन दस कारणों से तित हो मापक अपने पादित में दोष लगाता है, या दोष लग जाता है। इन दो कारणों को भी कार कारणों में अन्नहित कर दिया गया है.-----. था, २ मिया , अमान और ४ गावी दान ।
द, प्रमाद बार देष में मारपयो दोष लग जाते हैं, उनमें प्राप .. विग, मदाय की परिणति हो मुटन रहती है और उसकारण रायम प्रति सोया या पिता रहता है।
ना, आपत्ति और दिल में, गरि नारित्र पनि उशा का भाय तो नही रहना frन्तु विकट परिस्थिति मापने पर उसको विमगर . या को पार कर लिया fति में पहंगोमा प्रपन - भारत पोपी लिया जानाति से हार
दमामा मेवन गरकाश हममें माना जल माभिमानने की रही।
Hोग और सामान में FREE . अशा
मा बाम या विमार - रोल नगा दिन frex नदिने पर भी .
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कार्य नहीं है । पर निन्दा तो हर कोई कर सकता है, दूसरों के दोष देखना सरल है, किन्तु अपना दीप देखना और अपनी निन्दा करना बहुत कठिन हैदोष पराए देखकर चले हसते हसंत । अपने याद न आवह जाफा आदि न अंत !
पाप का भय होता है, दोष
अपना दोष तभी नजर आता है जब मन में के प्रति पश्चात्ताप एवं ग्लानि होती है तथा मन सरल होता है। इसलिए आलोचना में सर्वप्रथम बात हृदय को सरलता है । वालक जैसा सरल हृदय करके अपने दोषों को गुरु के समक्ष प्रकट कर देना चाहिए। बहुत से पाप ऐसे होते हैं, जिनका और कोई प्रायश्चित्त नहीं होता, सरलतापूर्वक प्रकट करने से ही उनका प्रायश्चित हो जाता है, उन दोष की शुद्धि हो जाती है । वाचार्य ने बताया है
जह वालो जयंतो पज्जमज्जं च उज्जयं भई । तं तह मातोएज्जा माया मय-विष्यको उ
बालक- जो भी उचित या अनुचित कार्य कर लेता है यह सब सरल नाव से कर देता है । उनके मन में कोई दुराव-हिरा या नहीं होता । एक प्रतिक है का सेोजन मिलने को बाया | भीतर बैठे में, बच्चे को कहा --- जाओ !
बाहर से आवाज लगाई। माह कह दो,
हां नहीं है।
बच्चे में आकर
ने कहा है- पिताजी कां नहीं है!
नाप देवि-पिता ने वोट बसपा पर तो झूठ बोलने में भी कहा--उनका पिताजी यहां नहीं है।”
"वाजी ने कहा
साधना मे लाम
श्री हृदय की इतनी होती है भी नहीं कुए से कराया नम
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जैन धर्म में १ आलोपारिहे आलोचना २ पहिरफमणारिहे-प्रतिक्रममाह ३ सदुमयारिहरादुनयाई ४ थियेगारिहे---विवेकाह ५ बिगारिहयुत्महिं ६ तयारि तपाहं
दारिद-~-छेदाई ८ मूलारिहे ---मूलाई ९ अगयापारिह-अनयस्याप्या १. पारंरिपारिह-नागचिकाई
आसोसना मनाम बोप-स्वीकृति ग प्रायश्चित्त में सबसे पहला प्राय नित-आनोचना है। आतीनगा शब्द आज गुग में बहुत व्यापम और प्रतिसाद है। किसी भी nिe में मुनामीनी मारना, टीका-टिप्पणो अथवा किसी को कोई गुम-- बोरमबन्धी गर्ग करना आलोचना कहा जाता है। निधा में प्राचीन या में आलोचना का पुछ दूसराही अमिता है। यहां दूसरों में गुम गोप को समीक्षा तो कोई प्रयोगही नहीं, पासा सवामी पर है, काम को देगना और स्यमा सुधार करना
होता है। इसलिए भोगना मा भी यहां यही किया है REAT दार मसल रनों के समक्ष प्रकट मार देना भीनमा।" आमाओं ने
referपिता सतोषानां लोचना---गुटरमाकानाभालोपना - Iो को माहो. ही रोग? Irrier
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प्रायश्चित्त तप
अपनी तबियत का ध्यान रखना चाहिए, रोग हो जाने के बाद यदि कोई सोचे कि अब डाफ्टर या वैद्य के पास जावूगा और लोगों को पता चलेगा तो लोग मुझे 'लोगो' 'चीमार' समझेंगे यदि ऐसा सोचकर कोई अपना रोग छिपा गार बैठा रहे, तो क्या वह स्वस्य व प्रसन्न रह सकता है ? स्वस्थता तभी रहेगी जब रोग दूर हट जायेगा, उसका उपचार किया जायेगा, इसी प्रकार जीवन में निर्दोपता और प्रसन्नता भी तभी जायेगी जय दोष को प्रकट कर उसका प्रायश्चित किया जाये ! जीवन में उल्लास, गन में हलकापन और हृदय में निमलता तभी प्राप्त होती है जब व्यक्ति का अन्तरजीवन निदोष हो । गौतम स्वामी के प्रश्न पर भगवान महावीर ने बताया है कि मालोचना करने से साधक माया, निदान एवं मियादर्शन रूप तीन शल्यों को निकालकर दूर कर देता है, कांटा निकालने गे जैसे गुण - अनुभव होता है, वैसे ही ये शल्य दूर हो जाने से हवा में अपूर्व मुखानुभूति होती है, सरलता और निदोपता लाती है तथा अन्तर-आत्मासिले हुए पागल की शांति प्रसन्नता एवं उल्लास से गमका उठती है।'
आलोचना करने वाले के मन में पहले यह नगला जगता है कि गदि में मत पापों की आलोचना नही करगा तो मेरा इहलोग भी निन्दिता होगा, पर-लोया भी निदित होगा तथा मेरे भान-दर्शन-पादिर भी दूषित हो जायेगे-मलिए मुझे अपने पाप की आलोचना पर जीवन को पागस्वी गया शान दशंग आदि को नियों बनाना चाहिए।
___ आलोचना फोन कर सकता है? आलोचना मारने वाले माय शोम , माना और मिनार at areोक परलोक में मदद में या विमान
मा सो मैंने भी सानोरना नही की. पोटामोतोको नमी ममता maam, काम
: . .
२॥
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जनम में और नमका ! यस सोधा सरल होकर अपना दोष स्वीकार कर मेगा! मामालीनना । कृप्त पापों को आलोचना जब तक नहीं की जाती सादर में पागल्प (कोटा) हता है । उस अवस्था में पिना आलोगना Freो यदि मृत्यु हो जाय तो यह साधक धर्म का निराधना को जाता है। पनि आलोचना की भावना जग गई, मन मारन हो गया और आलोचना - नहीं कर पाया तो उस स्थिति ः लिए-आमा भद्रया ने गो गहा रार .
रिसरल मन में बालोचना करने की भावना जगने पर भी माना की विधि हो जाती है। यदि कोई पापों की आलोचना करने में लिए गुरु के समक्ष जाता हो, बीर रास्ते में किसी आग.स्मिक धारण मत्यु हो जाये तो यह बानोननोन्मुग्म सायः (आलोचना मान लिय शिना भी) बाराक ही होता है क्योंकि उसको भावना सरम और पार में प्रति परनाना की थी। आयुष क्षय हो जाने के कारण यह आलोचना करनी पाना, किन्तु इदर समा गरल हो गया था, सरलता के मामलो अपने भारही हो नुको दो।
भगवान महावीर ने बताया है कि मनुष्य पाप गरम शामा में पाप के प्रति आपति, राता है, उसे पाप नहीं बना पापा भी मोनायि चिनारा सास नही मलेगा रापन बारे मन में
पाया पदा नहीं होता और मह पाय ME भी को बर मयादि कोई गोचे कि दोष को स्वरमा सौगों में भी पी, , प्रतिक मान-सम्मान पट जायेगा, गोर मुर शेती
: नागारम भरमा माहिए, मा
र सामान पाया।
....... ......
....
...
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४०३
प्रायश्चित्त तपं
वह मोध नहीं करता, किन्तु अपनं दोप को हर स्थिति में शुद्धि करना
चाहता है। ८ दान्त--इन्द्रियों का दमन करने वाला --प्रायश्चित्त रूप में कठोर
तपश्चरण आदि मिलने पर भी उसफा पालन करने को तैयार रहता है, इन्द्रिय-विपयों की अनासक्ति के कारण वह प्रायश्चित्त रो न तो करता है और न अन्य प्रकार की लोलुपता रहती है अतः ऐसा
व्यक्ति आलोचना कर सकता है। ६ अमायो-सरल हृदय वाला व्यक्ति कभी अपने पापों को छिपाता नहीं। वह खुले दिल से हर समय अपना दोष स्वीकार करने को तैयार
रहता है १० अपश्चात्तापी-अपना दोष स्वीकार कर लेने पर जिसपो मन में
कमी पश्चात्ताप नहीं होता कि मैंने ऐसा क्यों स्वीकार कर लिया ? यदि छुपाया सता तो सपा हो जाता ? इस प्रकार आलोचना के बाद में अनुताप न करने वाला आलोचना कर सकता है, और
बालोचना करके वह हृदय में हुलापन अनुभव करता। नहारणों पर सूक्ष्म पिचार पिया जाय तो अनुभव होगा कि प्रत्येक कारण सा है जो व्यक्ति के जगाई दर को गुरेदता राना है। इनमें में कोई भी गुप यदि किसी में होगा तो पहले तो यह पाप को भोर पड़ने में ही संकोच एरेगा, भूल, अमान का परिस्थिति मग पाप कर लिया हो या फिर गुपचाप नहीं पर सका, उमा हुदा मीनर-सी-भीतर मेरिस शरमा गोगा जिन! गुरजनों में नमक्ष ! अपना पाप प्ररट कर और उIT वाले ! ना
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या
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४०२
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जैन धर्म में सप पलेश, केशलोच आदि कठोर कष्ट सहन की सब क्रियाएं बेकार हो जायेगी, परलोक में न केवल मैं साधना की दृष्टि से दरिद्र ही रहूंगा, किन्तु पुरुष वेद को खोकर स्त्री वेद का भी बन्धन कर लूंगा। इस प्रकार का विवेगमय चिंतन कर साधक आलोचना के लिए मन को तैयार कर लेता है।
आलोचना करने वाले की मनोवैज्ञानिक स्थिति का चित्रण करते हुए शास्त्र में बताया है कि निम्न दस गुणों से सम्पन्न व्यक्ति कृत पाप की आलो चना करने में कभी पीछे नहीं हटता ।' वे दस गुण ये हैं---
१ जातिसम्पन्न - उत्तम जाति वाला-वह व्यक्ति प्रथम तो ऐगा बुरा काम करता नहीं, जिससे लोक निंदा और आत्मा दूषित हो, यदि भूल से कर लेता है तो शुद्ध मन से उसकी आलोचना के लिए भी प्रस्तुत रहता है। २ फुलसम्पन्न--उत्तम कुल वाला-वह व्यक्ति जो भी प्रायश्चित्त लेता है उसे पूरा पालता है, तथा पुनः दोप सेवन नहीं करने का सकल्प
भी कर लेता है। ३ विनयसम्पन्न --- विनयशील व्यक्ति भूल करने पर बड़ों की बात मान ।
कर उसका प्रायश्चित्त कर लेता है। ४ ज्ञानसम्पन्न-जिसके हृदय में ज्ञान होगा यह जानता है कि मोक्षमार्ग की आराधना के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं !
अकार्य कर लेने पर तुरन्त उसकी शुद्धि कर लेनी चाहिए। . ५ दर्शनसम्पन्न प्रद्धासम्पन्न व्यक्ति भगवान की वाणी पर विश्वास राता है, यह समानता है कि गास्त्रों में दोष के लिए जो
प्रायश्चित की विधि बताई है वही हदय यो भुद्धि करने में समय है। ६ चारित्रसम्पन्न-उत्तम पारित वाला टाक्ति अपने मानिसको निर्मल
गगने मे लिए दोनों की आलोचना करता है। ७ क्षान्त क्षमाशील व्यक्ति में इतना होता है कि दो कारण
में गुरमों को पटवार, विहार व भागना आदि मिलने पर भी
१. मग
म २३ नया मांग
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प्रायश्चित्त तप
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कभी ऐसा प्रसंग आये कि इनमें से कोई भी न मिले तो ग्राम या नगर में बाहर जाकर पूर्व-उत्तर दिशा में मुह कर, विनम्रभाव से हाथ जोड़कर अपने अपराधो व दोषों का स्पष्ट उच्चारण करना चाहिए और अरिहंत-सिल भगवंत को साक्षी मे अपने आप प्रायश्चित्त लेकर मुद्ध हो जाना चाहिए।"
यह तो हुई एक विशेष परिस्थिति की बात ! वैसे सामान्य नियम यह है कि आलोचना किसी बहुश्रुत गंभीर प्रमण के पास करनी चाहिए। जी न्यायाधीशपद के लिए अनेक प्रकार के अध्ययन, अनुभव आदि को श्रेणी रखी जाती है, जो अनुभवी हो, अनेक विषयों का विद्वान हो, गंभीर हो, अपरागी के साथ पक्षपात व रियत बादि का शिकार न होता हो. उसे हो ग्यानाधीश मे महान पद पर विधाया जाता है, वैसे ही धर्मसंघ में आलोचना देने वाला एक प्रकार का न्यायाधीश होता है। प्राचीन राज्य व्यवस्था में तो न्यायाधीश को 'धर्माध्यक्ष कहा जाता था । वास्तव में न्याय और धर्म में बहुत ही नगयों का सम्बना है, 'सत्य' दोनों की ही मूल कटी है । तो धर्मसंघों में भी आलोचना देने वाला, दोषी का अपराध सुनने चाना मुछ विशिष्ट होना नाए ! मान में आलोचना देने वारदे की आठ विशेषताएं बनाई
१ आसारमान्---भानार मेपर। २ माघारयान--( माता-को समूपिरो, सुनो वालोनहारे भीमर मोरमापूर्वक विचार करने
३ सयान आग, पुस, आधा पाऔर जीरकार पायों में TEENA मा प्रतिनिधि, TE
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४०४
जैन धर्म में तप क्रमण ! किन्तु वाकी कुछ प्रायश्चित्त जो हैं, वे गुरुजनों आदि को साक्षी से ही किये जाते हैं। प्रायश्चित्त कर्ता चाहे अल्पज्ञानी हो, अथवा शास्त्रों का घुरंघर, किन्तु जो प्रायश्चित्त गुरु साक्षी से करना हो उसे तो वैसे ही. उनके समक्ष जाकर करना चाहिए । यह नहीं कि “मुझे तो सब शास्त्रों का ज्ञान है, मुझे किसी के पास जाने की क्या जरूरत है ?" यदि ज्ञानी के मन में ऐसा विचार माता है तो इसका कारण है - उसे दूसरों के समक्ष दीप प्रकट करने में लज्जा या अपमान का अनुभव होता है, यदि ऐसी भावना है तो फिर सरलता कहाँ ? बिना सरलता के प्रायश्चित्त कसा ? दूसरी बात यह है कि अच्छे से अच्छा वैद्य भी अपना इलाज स्वयं नहीं करता । कहा है-- .
जह सुकसलो वि विज्जो अन्नस्स फइ अत्तणो बाहि । विज्जुबएसं सुच्चा पच्छा सो फम्ममापरइ ।
छत्तीसगुण समन्नागएण, सुट्ट वि यवहारफुसलेण। ..
पर सक्खिया विसोहि तेण वि अवस्स फायच्या!' जैरो परम निपुण वैद्य भी अपनी बीमारी दूसरे वैद्य से कहता है और उससे ही चिकित्सा करवाता है, उस वैद्य के कहे अनुसार कार्य करता है, वैसे ही भाचार्य के छत्तीस गुणों से युक्त एवं जान क्रिया --- व्यवहार आदि में विशेष निपुण होने पर भी पाप को विशुद्धि दूसरों की साक्षी से ही करनी चाहिए। क्यों कि ऐसा करने से हृदय को सरलता का परिचय मिलता है, तथा दूसरों को भी सरल एवं विशुद्ध होने की प्रेरणा मिलती है ।।
जैन नाबारशास्त्र के प्रमुरा नूय व्यवहार सूत्र में इस विषय कास्पाट उल्लेरा किया है कि बालोचना किसके पास गारनी चाहिए? बताया गया है - "rs. प्रथम आलोचना अपने आनाय, उपाध्याय के पास करनी चाहिए। में न हो तो सांभोगिमः वश्रुत साधु के पास, उन अभाव में समान वाले या भुत मा के पास, उनके अभाय में परमाला (जो मापन या बार श्रादः प्रत पाल रहा हो किन्तु पूर्व पान में मम पालने में प्रायश्चित विधि मामशे, गि, को) श्रायर में पास, उसका भी अभार हो को नि पर आदिनों में पान अपने बोषों को आनाचना गरी पा सार १ वार मो माया १.१३.
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प्रायदिवस तप
बालोचना के दोष
भगवतीमून में लालोचना के सभी पहलुओं पर काफी गंभीरता के साथ विचार किया गया है। जहां आलोचना न करने के प रिणाम दिखाये गये हैं, वहां आलोचना कर लेने के सुखद फल का भी वर्णन किया है । आलोचना लेने वाले और देने वाले की मानसिक गंभीरता विवेकशीलता और सरलता का वर्णन है, यहां यह भी बताया है कि बहुत से व्यक्ति मन सरल न होने पर भी लोगों में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए, विश्वास पैदा करने के लिए और गुरुजनों को प्रसन्न रखने के लिए आलोचना करने का अभिनय किया करते हैं । इसलिए वे लालोचना करने में भी कपट र मानक से काम लेते हैं। शास्त्रकार ने उनका
आलोचना का दोष बताया है | भगवती में बताया है कि यदि मन में सरलता न हो तो वालोचना करने में भी प्रकार के दोष नग
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जाते है
१ आपत्ति-वालोचना लेने वाला यह सोने कि जिनके पास आयोनाकर का है पहले उनकी सेवा आदि क
ताकि वे
होकर पानगे ।
का एक
को
जैने पहले रिश्वत देकर अपने पक्ष में
सेना आदि करके
देने जैसी मनोवृति है।
को
ही की जाती है वैसे ही मनोवृति को
प्रक्षेप
माना है।
२ घुमा-पते छोटे दीप की अनुमान अपने को वेष्टा करता कि आम
है
है
है,
अनुमान कालिका
ना।
● को
आजीवन अपना नवीन ।
* समरे (इन-निको
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जैन धर्म में तप
५ प्रफुफ-आलोचित अपराध का तत्काल प्रायश्चित देकर अपराध
की शुद्धि कराने में समर्थ हो । क्योंकि जव दोपी अपने दोप व अप. राध का प्रायश्चित मांगता हो तो फिर उसमें विलंब नहीं करना
चाहिए । शीघ्र ही प्रायश्चित देकर शुद्ध करें। ६ अपरित्रायो आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे के सामने
प्रकट नहीं करने वाला हों। क्योंकि आलोचना करने वाला अपने गुप्त रहस्य प्रकट कर उनका प्रायश्चित लेता है, यदि आतोनना देने वाला गंभीर न होकर छिछला हो, तो वह उसके दोषों को दूसरो के समक्ष प्रकट कर देगा। जिससे लोगों में उसकी हीलना हो सकती है । और फिर उसके समक्ष कोई अपना गुप्त दोष प्रकट करना नहीं चाहेगा । इसीलिए शास्त्र में विधान है कि आलोचना दाता आलोचना । करने वाले के दोषों को दूसरे के समक्ष प्रकट करदें तो उसे भी उतना ही प्रायश्चित आयेगा जितना कि दोष मी नालोचना करने वाले को। इसका स्पष्ट अर्थ है--किसी के दोष का उदाह करना भी
बहत बड़ा दोष है। ७ निर्यापा-यदि किसी ने दोष गुगत र किया हो, किन्तु शरीर से
अशक्त हो, बीमार हो, उसकी शुद्धि हेतु जो प्रायनित का जश्नरण वादि दिया जाय उसे यह पूरा निर्वाह न कर सकें तो उसे योहा-धोड़ा
पारके प्रायग्नित देवे और उनकी शुद्धि काना ८ अपायदा-यदि कोई दोष कारसे उसकी मालोचना करने में संकोच .
करता हो, तो जगेदो छिपाने एवं आलोचना करने के भारतयमित परिणाम समझा कर बालोचना करने के लिए पारमको ।
में निधन हो । हम समभालानना देने वालों में भी ये विपनानी माग गादिः आनीनमा पालो पाना ममता एवं विस्तार गरी पाम भोगना हार गरे और
स्व षो गुम हो गया।
१ मममी
२५ तमाशानन मूष ८ .
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प्रायश्चित्त तप
४०१
विकल्प छोड़ देने चाहिए। कहावत है-"असल में सिर दे दिया तो फिर मूसल से क्या डरना ?' तो जब मन को, मात्मा को दृढ़ बना कर दोप मिटाने की तैयारी कर ही ली तो फिर जो भी दंड मिले उसने क्या उरना?
इस प्रकार प्रायश्चित को दस भेदों में यह प्रथम भेद हुआ आलोचना । मालोचना के सम्बन्ध में जैन धर्म ने बहुत सूक्ष्मरीति से विनार किया है, सिर्फ विनार ही नहीं, किन्तु इसे जीवन-व्यवहार पा प्रमुख अंग माना है। प्रत्येकः जैन नाहे वह श्रावक हो, या श्रमण, जीवन में पद-पद पर अपनी आलोचना----अर्थात् मात्मालोनन-आत्मनिरीक्षण करता रहता है । सामाविगा लेते हुए सबसे पहले वह अपने पूर्वकृत पापों की मालोचना, निंदा, और नहीं करता है। पापों के प्रति घृणा (गही) गारना---यही तो जैन धर्म का मूल तत्व है। उसका कहना है, 'पापी में नहीं पाप से घृणा गारो । पापी मी नहीं, पाप की आलोचना गगे। इस प्रगग में भगवती गागा एमः निम्न प्रशारण बदामी प्रेरणाप्रद है।
एमचा पायंसंतानोन गालागवे सिमपुत्र नामात अणगार में भगवान महानोर ग स्पवित्रों ने पूछा- आप सामाणिको जानते है ? सामाणि हा भागको ? यदि गली जानी है तो फिर को गिरा ?
पनि .. ! fer
RT हान है। मानामगि If At ? सामाजिक
आदि पदार पिर
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जैन धर्म में तप .
५ सुहुयं (सूक्ष्म)-छोटे-छोटे दोपों की आलोचना करना । __ ४-५ वें दोप में शायद यही दिखाने की मनोवृत्ति रहती है कि "जो बड़े बड़े दोपों की आलोचना करता भी नहीं शया या नहीं उरा, वह छोटे-छोटे दोषों को क्यों छुपायेगा ? तथा जो छोटे-छोटे दोषों को
आलोचना कर लेता है वह बड़े दोप को कैसे छिपा राराता है" दूसरों के मन पर इस प्रकार प्रभाव डालने के लिए यह दोनों प्रकार की
धूर्तता की जाती है। ६ छन (प्रच्छन)-लज्जालुता का प्रदर्शन करते हुए गुप्तस्मान में
जाकर आलोचना करे और इतना धीरे व अस्पष्ट बोले कि आलोचना देने वाला पूरा सुन भी न सके । ७ सद्दाउलयं (शब्दाकुल)-दूसरों को सुनाने के लिए कि देखो मैं
आलोचना कर रहा हूं--जोर-जोर से बोलगार आलोचना करना। ८ बहुजण (बहुजन)लोगों में अपनी पाप-भोगता का प्रदर्णन कर प्रशंसा प्राप्त करने के लिए एक ही दोप यी अनेक व्यक्तियों के पास
जाफर आलोचना करना। ६ अन्वत्त (भव्यक्त.)---ोरो अगीताचं साधु के पास जाकर आलोचना करना.-~-जिसे यह भी मात न हो शिरिर अतिकार गारमा
प्रायश्चित दिया जाता है। १० तरसेयो (तसवी)-जिस दोप नी मालोचना करनी हो, मी दोर
का सेवन करने वाले आचावं आदि पास जागर म माना में आलोगना करना कि स्वयं भी इन योर मनी होने के कारण गुछ अधिक न पहनगगे तथा प्रायशिगत भी नाम देगे। सालोचना मारने मानेको इन दोषों में बनकर निकम से मालोचना गारनी माहिए ! लोहि जय दोपको नदि पाने का कर निधाही नोरिया या लोग माग गद
१ मायनो मारमा सामना
।
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प्रायश्चित्त तप अपवित्र दुनियां से निकलकर पुन: अपने पवित्र भाव लोक में आगमन किया जाता है-उसे जैन परिभाषा में प्रतिक्रमण माहते हैं । आचार्य हरिभद्र सूरि ने प्रतिक्रमण की भावात्मक परिभाणा करते हुए लिखा है--
स्वस्थानान् यत्परंत्यानं प्रमावस्य वसंगतः !
तघ फ्रमणं भूयः प्रतिप्रमणमुच्यते । -आत्मा प्रमाद के पश होकर अपने शुभयोग से गिर जाता है, और अशुभ योगों में चला जाता है । तब फिर से अशुभयोग को छोड़कर शुभ योग में आना--पर-पान मे पुनः स्वस्थान में लोट आना-मी का नाम है-प्रति प्रमाण । ___ आना हेमचन्द्र ने भी प्रतिप्रमण की ऐसी ही व्याख्या की है। उनका गमन , -- प्रती फाण-प्रतिफमगं । शुभ योगेभ्योऽशुभयोगान्तरं शान्तस्य शुभेप एव फमपात् प्रतीपं नमः-- अर्थात् शुभ योगों से अशुभ योगों में गये हुए अपने आपको पुनः शुभ गोगों में लोटा लाना---प्रति प्रमाण है।
मक्षेप में प्रतिमा का अर्थ है--मिथ्यात्य, अविरति, प्रमाद, माय, अशुभ योग-ए पर-गाय में गाय कामी आत्मा चला जाता है, तो उसे तुरन्त अपने समाय में सम्पदय, संगम, अप्रमाद, रमा आदि पगं ए शुभ योग में ने आना-..-अशुभ में शुभ की ओर मोट लेना, परभार से माय आमा... मा नाम प्रति ।
में मान अपने पापोंगा मिनी ला है, MEE air में
xnो परिमागरम पिर 2. निमको
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४१०
.... जैन धर्म में सप संजमे" गरहा यि यं पं सव्वं दोसं पविणेति, सव्यं बालियं परिगाए --- नहीं (आत्म-निरीक्षण और पापों के प्रति घृणा) यही संयम है, इसी गे सब दोगों का प्रक्षालन होता है तथा सब बालभाव (मूखंता-अज्ञान) दूर हो जाते हैं।" स्याविरों के इस उत्तर से अणगार कालास वेसिय पुत्र को पूर्ण समाधान हो गया।
तो आपने देखा कि पापों के प्रति गहाँ, निदा और मालोचना-गही संयम का मुख्य-प्रयोजन है, और उसकी यही उपलब्धि भी है । आलोचना गे . द्वारा-गर्दा का~पापों के प्रति घृणा का गुरुजनों के समक्ष उसको स्वीकार करने का मार्ग प्रशस्त होता है।
प्रतिक्रमण : पापों का प्रक्षालन आलोचना के बाद दूसरा प्रायश्चित्त है--प्रतिक्रमण । प्रतिप्रमाण-जन जीवन नर्या का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण और अति आवश्यक अंग है । इसीलिए जीवन में अवश्य करने योग्य कार्यों में इसकी गणना कर इसको 'आवश्यक' . कहा गया है । अनुयोग द्वार मूत्र में साधु एवं धावक को लिए छह आवश्यों का विधान किया गया है, वहां चोया नावश्यक कृत्य है-प्रतिक्रमण । प्रतिजमण-एक प्रायश्चित्त भी है, आवश्यक कृत्य भी है। यह एक प्रकारमा स्नान है, दोगों का प्रक्षालन है। नाधर जिस गिया के द्वारा आत्मनिरीक्षण, मात्म-परीक्षण एवं पनालाप के द्वारा अपने किये हा दोषों, अपराधों एवं पापों का प्रक्षालन पर शुद्ध हो सकता है उसका एम.ही मार्ग है प्रतिमा!
प्रतिमा का अर्थ जीवन में जो पाप स्वयं रिये जाते. मगों में गरमागे जागे हैं, तथा भूगलो में सारा किए पापों का अनुमोदन किया जाता है व पामों गो नि तिजो मानलिए पानासार किया जाता है, तो भी
२ ममामा
पापा ममहानुET.
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प्रायश्चित्त तप
बाले के जीवन में नहीं टिक सकता। क्योंकि वह किसी दूसरे घर से, लालच या दवाव से प्रतिक्रमण नहीं करता, किन्तु आत्मा को शुद्ध पारने में लिए ही करता है, जो मूल होती है उसे सच्चे दिल से स्वीकार करता है
और उसे दूर करने का भी प्रयत्न करता है । यह एक बार नहीं, किन्तु दिन में दो यार इस एकरूपता की साधना करता है। दिन में होने वाली समस्त मूलों को सायंकालीन प्रतिक्रमण के समय दूर हटागार जीवन तो पवित्र व सम-रूप बनाया जाता है और रात में होने वाली भूलों को प्रातःकालीन प्रतिक्रमण के समय दूर कर जीवन की विविधता व अनेराता पिटाई जाती है । मन-वचन-गम की एकरूपता प्राप्त की जाती है। जीवन में जहां-जहां उसे दोष, अनेकता मे याग दिखाई देते हैं उन्हें आत्मालोचन मे जल म घो-धोकार सम्पूर्ण वस्त्र को एकदम स्वच्छ व निर्मल बना लेता है।
प्रतिरमण को जीवन की शायनी कहा जा सकता है। जीवन का बही. साना पहा मा समता है। जैसे लोग अपनी पारी में मानवारी साय रोज-मर्ग को पटनाएं नियते है,फिर उन पर चितन करते है जो भूल प्रतीत होती है, गलतिया लगता है, उन्हें सुधारने का प्रबल करते हैं । यही-गाते में नाम और हानि का हिमायलिना जाता है, पिन हानि होने के नाम पर विधार गार बार रशिया जाता है, और लाभ कमाने का प्रयत्न भी प्रति
गो गुपारी को मोटा मारता मारा भ न करने का मंगल्प करा པ +ན? ; , : f ༈ ::་༑ རྒྱུ }
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४१३
जैन धर्म में तप द्वारा पाप रूप जल आत्मा में आ रहा था उन छिद्रों को पुनः रोक देता है । जैसे नाव के छिद्र रोक देने से नाव में पुनः पानी नहीं भरता, घर की छत मादि वर्धा में चने लग जाती है तो उस पर सीमेंट आदि का प्लास्टर . करने से उनका टपका (चूना) बन्द हो जाता है। इसी तरह कृत पापों का प्रतिक्रमण कर लेने से व्रतों के सब छिद्र रुक जाते हैं और भात्म-भवन सुरक्षित हो जाता है। भगवान महावीर से गौतम स्वामी ने जब पूछा कि भगवन् ! प्रतिक्रमण करने से आत्मा को किस फल की प्राप्ति होती है, बागा को इससे क्या लाभ होता है ? तो भगवान महावीर ने बताया पष्टिरकरणे वर्याच्दाई पिहेइ-प्रतिक्रमण करने से व्रतों के दोष (अतिकम व्यतिगामअतिचार आदि) रूप जो छिद्र हो गये हों, वे पुनः बंद हो जाते हैं, उन छिद्रों का निरोध हो जाता है । छिद्रों का निरोध होने मे आश्रव का भी निरोप हो . जाता है। कर्म आने का रास्ता भी रुक जाता है।
तो प्रतिक्रमण का यह फल है कि इससे प्रतों की शुद्धि हो जाती है, कर्म माने के द्वार बन्द कर दिये जाते हैं, पाम द्वार (आश्रय) निरोध होने में फिर मुक्ति कितनी दूर रहती है ? अर्थात् धीरे-धीरे जीव मुक्ति गी और बदला जाता है।
दूसरी बात यह है ---प्रतिकमण करने से मनुष्य में आत्मनिरीक्षण की आदत पड़ती है, वात्मनिरीक्षण करने से साधक आत्म-दर्शन की ओर बहना है, वह अपनी भूलों को, दुर्बलताओं को दूर कर आत्मा को शुद्ध, गुरु गोर स्वः दना कमता है।
प्रतिमा मारने वाले के मन-वचन और राम में गिभेद-अन्तर, नहीं रहता। वन में एकरूपता आती है। जो बात मन में होगी की गई पान आगो, और यही बात उसले गम में मातारी ----पानी -
मन मेला, सन कजला कपटी घुगता भेर' ~ लाट, मा चुगला पति, थाहर भीतर पर कार्य प्रतिमा
है सालाना
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प्रायश्चित्त तप
युवक । और वह बारम्बार दबाता जाता, साधु चीखता तो कुम्हार फिर कह देता मिच्छामि दुक्कटं ।
बाल साधु बोला- यह क्या ! मारते जाते हो और 'मिच्छामि दुक्क' लेते जाते हो ! कुम्हार ने भी हंसकर कहा ! महाराज - जैसा तुम्हारा मिच्छामि दुक्क' वैसा ही मेरा 'मिच्छामि दुक्क !' तो ऐसा मिच्छामि दुक्कडं लेने से क्या लाभ है ! यह तो उलटा धर्म का उपहास है । जिस 'मिच्छामि दुगकट' के साथ मन में पश्चाताप की तहर न उटे वह मिच्छामि दुई आत्मा को बुद्ध नहीं, किन्तु और अधिक असुद्ध बना देता है | इसलिए प्रतिक्रमण रूपमिच्छामि दुकट घोलते समय सच्चे मन से बोलना चाहिए, वाणी के साथ हृदय भी बोलना चाहिए तभी यह सना प्रायवित होता है ।
मिच्छामि दुकट : शब्द और भाव "मिच्छामि दुक्कई" बोलकर पाप का प्रायश्चित कर दी दक्षेप का सेवन किया जाता है तो वह एक प्रकार का झूठ औरम्भ हो जाता है । सापा भद्रबाहु ने कहा
1
तिमिच्छतं
पुणेोपायें ।
निशेष परचय मुसाबाई माया नियड़ो पसंगो छ ।
जो एक बार विक्रि भी यदि फिर उस पाप कावमानगता है तो कही रुतता है का जात्र वाता है। एक ओर दूसरी ओर फिर मोदी ! यही पीड़ा यही मैदान ! एन आनाये धर्मम आप वन कर्म याद को
हीट में दि-
जो शामि
1 आवश्यक यदि आप नियम गवी) Saree Fughr. (८४ देशनामा ३८६
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४१४
जैन धर्म में ताप छूमंतर है कि जिसे बोलते ही सब पाप साफ हो जाये, दोष दूर हो जाय? वास्तव में ऐसी कोई बात नहीं है कि मुह से 'मिच्ामि दुनकाउं' कहने से ही पार धुल जाते हों, पाप शब्द से नहीं, मन से धुलता है। "मिच्छामि दुश्काई' के साथ जो मन का पश्चात्ताप होता है, पाप के प्रति घृणा, और भविष्य में उसे पुनः न करने को दृढ़ संकल्प होता है उसी में यह शक्ति है लिं वह शब्द उच्चारण करने पर पापों का सफाया कर डालती है ! मंत्र में भी शक्ति तभी जागृत होती है जब उसके पीछे मनोबल रहता है, मंत्र मुंह से बोलते जाये
और मन कहीं रमता रहे तो क्या केवल मंत्रोच्चार से सिद्धि मिल जागेगी? . नहीं ! इसी तरह 'मिच्छामि दुक्कड' शब्द के पीछे अन्तरमन का पश्चात्ताप रहता है, उसी महाशक्ति के कारण पाप का प्रक्षालन हो सकता है !
यदि मुह से 'मिच्छामि दुक्क हे बोलते जाय और बार-बार यही आगरण करते जाय तो इससे कोई शुद्धि नहीं होती । यह तो उलटा धर्म का उपहास है, साधना का मजाक है । पुराने आचार्यों ने एक उदाहरण देकर बताया है कि केवल शान्दिक मिच्छामि दुराडे कसा निरर्थक है----
एक बार एक विद्वान नाचार्य किसी गांव में पधारे । उपाश्रय के पास में ही एक कुम्हार रहता था, वह मिट्टी को गोंद कर चार पर पढ़ाता और जरा घटे बना-बनाकर एक भोर रस रहा था । आचार्य के साथ एक छोटा साध था जो कुछ चंचल प्रकृति का कोटा प्रिय था । मुम्हार उपाही चार पर मेघड़ा उतार कर नीचे रखता त्योंही वह बाल साध कर का निशाना मा. गार उसे तोड़ देता । युम्हार ने माहा ... महाराज ! यह मग कर रहे
यान माय बोला--ओह ! भूस हो गई-मिच्छामि दुशा ! किन कुछ दावाद फिर यह पोकर पं.कपर मनन फोरने लगा । म्हार बार बार टोरा गया और माधु मिठामि दुर लेता गया । आरिहार, हो भी शेष
और ओर आ गया, यह उसा, और एक संकर र माधु ३. मान पर भ. बोराणा, बानमा पहा बिनमिताने नगा और शेला--"बरें मामा कर रहे हमाको मार रहे हो?" महार बोला-regift
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जैन धर्म में तप
४१६
जो व्यक्ति जैसा बोलता है, यदि वैसा करता नहीं तो उससे बढ़कर और मिथ्यादृष्टि कोन होगा ?
अगर हम 'मिच्छामि दुक्कटं' शब्द बोलते समय इसके शब्दार्थ एवं भावार्थ पर ध्यान देते रहे तो उच्चारण के साथ-साथ सहज ही भावना में एक स्पन्दन उठता रहेगा जो मन को शुद्ध बनाता रहेगा | आचार्य भद्रबाहू ने उसके एक-एक शब्द का अर्थ करते हुए बताया है
'मि'
मिउमद्दवत्ते,
'मि'
त्ति
'छ' त्ति य दोसाण छायणे होइ । त्ति य मेराए ठिओ,
'दु' त्ति दुर्गांछामि अप्पाणं ॥
'क' त्ति कडं मे पावं,
एसो
'ड' त्ति य उवेमि तं उवसमेणं ।
मिच्छादुक्कड -
taraरत्यो
'मि' -- अर्थात् मृदुता और मार्दवता ।
'छ'- अर्थात् दोषों का छादन- बँकना । 'मि'- अर्थात् चारिवा मर्यादा में रहना ।
'दु' अर्थात् दुष्कृत को विदा करना ।
'क' अर्थात् कृत-पाप कर्म को स्वीकार करना
'' अर्थात् उपशम भाय के द्वारा पाप का प्रतिक्रमण करना ।
समासेणं ॥
सम्पूर्ण पद का अर्थ हुआ में मन को नम्र और सरन बनाकर की मर्यादा में रहता हुआ अपने
दोषों करता हूँ ।
करता है और उनसे दूर मार के साथ मन में यह
ही वह राष्ट्र है, जो पायका प्रति में समितिबुद्धि में दोष
अपने पापों को रोकता है।
उनकी तो इस प्रकार
सत्य जगना चाहिए ! करके भगा देता है।
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४१०
जैन धर्म में जिस दोष को शुद्धि के लिए दीक्षा पर्याय का छेदन किया जाता हो उसे वेदाह-प्रायश्चित्त कहा जाता है। इसमें भी दोष की गुरुता के हिसाब से मालिक, चातुर्मालिक आदि अनेक भेद हैं । वेद सुत्रों में मुख्यतः इसी कोटि के प्रायश्चित्त का वर्णन है। तप रूप प्रायश्चित्त से इस प्रायश्चित्त की साधना कठिन है। क्योंकि तप में तो अधिकतर शरीर पर ही भार पड़ता है, किन्तु इस प्रायश्चित्त में मनुष्य के अहंकार पर सीधी चोट पड़ती है। यह प्रायश्चित देने पर दीक्षा में छोटे साधु बड़े बन जाते हैं। छोटे साधुओं का विनय करना उपचास आदि से भी अधिक कठिन कार्य है। इसी विनय के अभाव में तो बाहुबली एक वर्ष तक वन में खड़े रहे कि भगवान के पास जाऊंगा तो यहां छोटे साधुओं को वदना करनी पड़ेगी। जब यह अहंकार दुर हुआ और .. एक कदम बढ़ाया तो बस केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। इस प्रायश्चित्त में जितने दिन का छंद दिया जाता है उतने दिनों में कोई दीक्षित हुआ हो तो . वह उससे दीक्षा में बड़ा मान लिया जाता है। अर्थात् इसमें उतने दीक्षा के . दिन काट दिये जाते है।
मूलाह-(नई दीक्षा) यह आठयां प्रायश्चित्त है। OER सामु कमीकमी इतने गुरुतर दोषों का सेवन कर लेता है कि मालोचना और तप आदि से भी उसकी शुद्धि नहीं हो सकती। उन दोषों के सेवन से यह मारिस से सयंमा प्रष्ट हो जाता है। वैसे ममुर, गाय, भेन आदि को ना, याला हो ऐसा कर भूत, निप्य आदिती गोरी, ब्रह्मान गन का भंग आदि। ये मुन दोर माने जाते हैं। इनमें सेना में नारियलट हो जाता है, उन पर को शुद्धि के लिए नारित पकाया न कर नई दीसा ली गली .
मा पुन: भारोपण करना होता है। इसलिग मूलाई प्रापरित
मनापाप्याहा मारिन Pan t , it
पुग्दर दर को बुद्धि के isxi
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प्रायश्चित तप लग जाते हैं उनकी विशुद्धि की जाती है। यह प्रायश्चित्त लेने के बाद गुरु के पास आलोचना करने की आवश्यकता नहीं रहती।
प्रापिश्चत्त : आगे क प्रायश्चित्त के तीसरे भेद में उक्त दोनों का समन्वय किया गया अतः उसका नाम है-'तनुभयाह' । जिस दोप में आलोचना एवं प्रति दोनों करने से शुद्धि होती हो उसके लिए इन दोनों का विधान है। एकन्द्रियादि जीवों का गंधट्टा हो जाने पर उक्त प्रायश्चित्त लिगा जा अर्थात् पहले मिच्छामि दुपकर बोला जाता है, और फिर गुरु के पास - आलोचना भी की जाती है।
यियेकाह-प्रायश्चित्त का चोपा भेद है। विवेक का अर्थ हैछोड़ना ! किसी वस्तु का त्याग कर देने से ही जिस दोष की शिशुद्धि हो उसे वियफाहं प्रायश्चित्त कहते हैं। जैसे आधार आदि आहार मा है तो उसको अवश्य ही पठना पड़ता है ऐसा करने से ही उस यो विशुद्धि होती है।
पुरसहि-पांचा प्रायश्चित्त है । चुनाग का अर्थ हैवार को रोककर स्थिर होकर रेप पस्तु में उपयोग लगाना । नदी fe
सो में, मागं चलने में यदि असावधानी कार कोई दोष ना हो तो उसका प्रायश्चित करने के लिए ध्यानकायोता किया जाता सानोमन करने से उस दोष को पिबुद्धि हो जाता है। पान fruit पुरागाई-मापनिता कहा जाता
सपाहपहप्रालि RETimकरने में जिनको शुधिो . कनिए आगमी fafrir करना माई-बापति
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जैन धर्म में जप ... और सामान्य साधु के लिए आठवें प्रायश्चित तक का हो विधान है । वर्तमान समय में अधिक से अधिक आठवे प्रायश्चित तक देने की विधि है।
उपसंहार प्रायश्चित के इन विभिन्न स्वरूपों पर विचार करने से कई बातें स्पष्ट होती हैं। पहली बात प्रायश्चित वही लेगा जिसका मन सरल होगा। जिसे पाप का भय होगा और आत्मा को निर्दोष बनाने की चिंता । मन में जरा भी कपट या धूर्तता रही तो प्रायश्चित नहीं लिया जाता, यदि कपट पूर्वक प्रायश्चित किया भी जाय तव भी उससे शुद्धि नहीं होती। आचार्य आदि को यदि ज्ञात हो जाय कि अमुक व्यक्ति कपट पूर्वक आलोचना कर रहा है तो उसे दुगुना प्रायश्चित दिया जाता है। पहला सेवन किए हुए दोष का,
और दूसरा कपट करने का। अर्थात् जब तक कपट की भी आलोचना नहीं हो जाती तब तक दोप को शुद्धि नहीं हो सकती इसलिए प्रायश्चित लेने वाले को सर्वप्रथम सरल हृदय, विनत्र एवं सद्भावनायुक्त होना आवश्यक है।
दुसरो वास- दोग छोटा हो चाहे बड़ा; उसको शुद्धि हो सकती है। यह नहीं कि बड़ा दोष रोधन कर लेने के बाद व्यक्ति सभा सदा के लिए ही पतित हो गया हो। जैनधनं आत्मा की शुद्धि में विश्वास रखता है। बड़े बड़ा दोषी और अपराधी भी शुद्ध हो सकता है, पवित्र हो सकता है। क्योंकि भारमा मूलतः दोषी नहीं है, दोष तो प्रमाद एवं या भाव है। कयाम आदि हो उत्पत्ति होती है तो उसको शुद्धि भी हो जाती है। मन में जब विक मागत हो जाम,
प ति ग्लानि, परमाता और भागनेमाका जग रहे तो गिरत, नियभिमान होकर बने यो दोर की नीति कर लेता है। पर्या, निम एवं ध्यान के द्वारा वह आगे IT I प्रक्षालन कर भुर हो सकता है। प्राEिAT
का काममा मान RTE मा लिए होडा Rai tी ,
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प्रायश्चित्त तप
४१६ प्रकार दोनों वानरण करने के बाद फिर नई दीक्षा लेनी होती है । उक्त विधि से जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह अनवत्याप्याहं प्रायश्चित्त है।
पाराश्चिमाहजिम महादोष को शुद्धि पाराधिन अर्थात् पंप और क्षेत्र का त्याग कर महातप करने से होती है उसके लिए यंसा आचरण करना पाराञ्चिफाहं-प्रायश्चित है। यह सयां तथा अन्तिम प्रायश्चित है । साधु जीवन में सबसे गुरुतर महादोष के लिए यह मायस्चित दिया जाता है।
पाराभिचक-प्रायश्चित पांच कारणों से दिया जाता है- कारण
१ गम में फट अलना। २ फूट डालने की योजना बनाना, उसके लिए तत्पर रहना। ३ साधु आदि को मारने की भावना रसना ४ मारने के लिए योजना बनाना, छिद्र बाराकीतनाग
करते रहना ५ धारधार असंयम स्थान ग सावध अनुमान को पुक्षता करत
हमा अपात अगुष्ठान शादियों का प्रयोग करना। इन प्रश्नों ने दोबार का अग में या बागामा
नारों के निजामाको नानी का नंगा भीमा पान fear है। इसकी शुदिन महीने में कर नर,
नाम से कोहीका काममा को बटोर र intIT कोपितो. होना नई मोसा कर HIR में मिras
womansfeatuaryanaleonmameap-pital
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२
विनय तप
आभ्यन्तर तप का दूसरा भेद 'विनय तप है। विनय का सम्बन्ध हृदय से रहता है। जिसका हृदय सरल और कोमल होता है वही गुरुजनों का विनय कर सकता है। इससे अहंकार का नाम होता है, अहंकार को 'स्वधता' कहा गया है जिसका अर्थ है-पत्र के जैनी कठोरता जाता है पर
सोना ? नाहे जितना
उसमें
ता होती है
होता है।
बुळता नहीं, क्योंकि उसमें कोमलता नहीं होती। घुमा चाहे जिस आकार में बाल तो मुलायम होती है इसीलिए उसका मुल्य भी शक्ति काम भी कोमल होता है उसकी वाणी भी कोमल होती है, और वरीर भीनम, एवं सभ्यता के नियमों के अनुकूलता है। उसके में, उ बैठने से से नवयवन तीनो में जी मृदुता, कोमलता और सरलता को नपुर गुफा महीती है।
नहीं होती
विनय को य कहा
एक समय हो सकता है
वारसदार है मे
ऐसी होन की पट्टी बाव है जिसे तब को देवी में या जाति वी वगैर मन ही पता है
नानी के
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प्रायश्चित्त तप
बस हृदय को मांजने को ही जरूरत रहती है। वैदिक ग्रन्थों में पाप-मुक्ति के लिए जहां ईश्वर की शरण में जाकर सब कुछ अर्पण कर देने का विधान है वहां जैन धर्म में हृदय को अत्यंत सरल बनाकर गुरुजनों के समक्ष पाप प्रकट कर उसके लिए तप:साधना करने की विधि है। क्योंकि कुछ दोष सिर्फ पश्चाताप से ही दूर हो जाते हैं और कुछ दोष तप, सेवा एवं विनय आदि के द्वारा। इसी दृष्टि से प्रायश्चित को तप मान कर उसका यह विस्तृत वर्णन सूत्रों में किया गया है और पाप मुक्ति का मार्ग दिवाया गया है ।
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૫ર્
जैन धर्म में प
व्युत्पत्ति तो नहीं बताई गई है, किन्तु विनय का फल, विनय का स्वरूप और विनय की विधि व नियम जरूर बताये गये हैं । उन सब पर एक विहंगम दृष्टि डालने से पता चलता है यहां 'विनय' शब्द अधिकतर तीन अर्थो में प्रयुक्त हुआ है
१ विनय -- अनुशासन
२ विनय - आत्मसंयम --- शील (सदाचार)
३ विनय-नम्रता एवं सद्व्यवहार
अनुशासन
उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्ययन में जो विनय का स्वरूप बताया गया है वह प्राय: अनुशासनात्मक है । गुरुजनों को आज्ञाव इच्छा का ध्यान रखना, और तदनुसार वर्तन करना, यह एक प्रकार का अनुशासन है । गुरुजन शिक्षा के हित के लिए कभी मधुर वचन व कभी कठोर वचन से उसे हित शिक्षा देते रहते हैं तब शिष्य को सोचना चाहिए
जं मे बुद्धानुसासति सोएण फरसेण वा ।
मम लाभो ति पेहाए पयओ तं पडिसुणे ।
गुरुजनों का मधुर व कठोर अनुशासन मेरे लाभ के लिए ही है इसलिए मुझे उस पर खूब ध्यान रखना चाहिए, सावधानी के साथ उसे सुनना चाहिए ।
आधाराधना- एक प्रकार का अनुशासन है, इसलिए उत्तराध्ययने में गुरु आशा को अनुशासन कहकर बताया है---फर पिअनुसार अनुशासन चाहूँ कठोर ही क्यों न हो, किन्तु शिष्य गुरुजनों के द्वारा अनुज्ञानित किया जाने पर उनके द्वारा आत्मति के कार्य में आदेश देने पर अनुसासन कुप्पेरजा अनुशासित होने पर क्रोध नहीं करें से ए बारी गावकर श्रद्धा पूर्व
में नये ।
उतरायन २७
१२६
६
21
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विनय तप
१४२३
विनय में तो ऐसी कोई बात नहीं दोसती । गुम्जनों के साथ नत्रतापूर्ण व्यवहार करना- यह तो बहुत साधारण सो बात है ! इसका उत्तर है-- विनय सिर्फ एक सद्व्यवहार का ही नाम नहीं है। विनय को सीमा यात लम्बी-चौड़ी है, इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। सद्व्यवहार तो विनय का एक प्रत्यक्ष फल हैं. वास्तव में तो विनय का अर्थ बहुत गहरा है। यश-प्रतिष्ठा की भावना पर संगम करना, अहंकार पर विजय करना, स्पेच्छाचारिता का दमन गार, मन को निरंकुशता को समाप्त करना एवं गुरुजनों को साक्षा- व इंगित के अनुसार वर्मन करना- यह राव विनाम है, पिन की परिभाषा में इन सब ना समावेश हो जाता है ! इस प्रकार विनय ए कठोर मनीनुशागत अर्थात् आत्मानुशासन है। आत्म-संगम पा अगास किये बिना विनर को आराधना नहीं हो सकती। जगे कि आगमों में विनय के भेद-प्रभेद या हैं उनको समान में यह बात स्पष्ट हो जायेगी, हिदिनम माग गद् पाहार का नाम नहीं है, किन्तु वह एक दुलंग आरिमत गुण, नि . प्राप्ति के लिए गंयम, अनुशासन एवं सरलता सी मापना हारनी रहती है मीष्टि में बिना को ताक यान दिया गया और ओर पानी माना गया है।
दिनयतीन तर
'free , TRA की सारी, मासा आदि
न
.
4 . निकासा है।
नुमोको कारा
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जैन धर्म में तर.. विनय के माध्यम से शील-सदाचार को भी शिक्षा दी गई है। कहा है
तम्हा विणयमेसिज्जा सोलं पडिलभेज्जओ।' दुःशोल, असदाचारी व्यक्ति सड़े कानों की कुतियां की भांति दर-दर ठोकरें खाता है, अपमानित होता है, लोग उससे घृणा करते हैं, इसलिए : . दुःशील का बुरा परिणाम समझकर शील का आचरण करना चाहिए, विनम की उपासना करनी चाहिए । गुरुजनों के समक्ष स्थिर आसन से सभ्यतापूर्वक बैठना, उनकी शिक्षाओं पर क्रोध न करना,कम बोलना,बिना पूछेन योजना, . उन्हें प्रसन्न कर विद्याभ्यास में लीन रहना~यह सब शील एवं सदानार, जो कि विनय का ही परिवार है।
नम्रता व सद्व्यवहार विनय का नम्रतासूचक अर्थ तो काफी प्रसिद्ध है हो । आगमों में भी इस . का कई जगह वर्णन मिलता है। नोयायित्ती अवयले नीजी वृत्ति राना, चंचल नहीं होना-~~-यह विनीत का लक्षण बताया गया है। नौनी पति से आगय है-~-गुरुजनों के समक्ष नत्र होर रहना, मिनीत भाव में बन करना । दशवकालिक में रहा है--
नौयं सिज्ज गई ठाणं नीयं च आसणाणिय।
नीयं च पाए वंदिता नीयं कुम्जा प अंजलि ।' गुरुजनों के समक्ष गया (सोने का विस्तार) स्थान और आसन उनले कुछ नीता रमना चाहिए । नमस्कार करते समय शाकर उनका सगं, वंदना करनी चाहिए। और दादनी जोहे तो नो ने शहर अनिषद हो। मतलब मोमोभवहार
और Amit नही होना चाहिए। किस्म के प्रयक आहार में TEST
मेरामाने पर आमनर का
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विनय तप
. . ४२५
आत्मसंयम व शोल इसी अध्ययन में विनय के नाम से आत्मसंयम एवं शील सदाचार की भी शिक्षा दी गई है जैसे--
अप्पा वेव दयेमव्यो...........1
वरं मे अप्पा दंतो संजमेण तवेग यो जारमा का दमन करना चाहिए पोंकि आत्मा पर कम करने वाला योनों लोक में सुती होता है। इसलिए अच्छा है कि मैं स्वयं की विधक बुद्धि से अपना नियंत्रण, संयम एवं तप केद्वारा स्वयं ही करता र मनापासार लोग बध-बंधन द्वारा मुझे मारने नियंत्रण में रखेंगे।
यह आत्मानुभागन-आमसंयम की शिक्षा नी विनय को नि ... स्पोजिपिनो आत्मा ही आत्मसंयम कर मरता है । गुगजनों का अनुमापन कभी माना जा सकता है, जब पहले मन पर अनुशासन हो, क्योंकि जानी कभी मन के, अपनी इच्छा व गति के प्रतिकून बाद को स्वीकार महिना होती है. हो मनको साधता जाए व जाटिन गोबरली जाती है।
नियतील शक्ति पाने, गद प्रापरतों में साकार . भी ना करता है, इसलिए उने नाममा गया है। यदि मामा करने की बात कही गई है-हिरिमं पदिलो मुधिोए ति
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जैन धर्म में
•
जिससे आठ कर्म का वि+नम (विशेष दूर होना) होता है उसे नि कहते हैं, अर्थात् विनय आठ कर्मों को दूर करता है, और उसने चार का अन्त करने वाले मोक्ष की प्राप्ति होती है, अत: सर्वज्ञ भगवान ने 'विनय' कहा है | इसका अभिप्राय यह है कि कर्म का नाश (विनयन) करने के कारण ही इसे विनय कहा जाता है। इसी प्रकार की व्याख्या नवन मारोद्वार की वृत्ति में भी उपलब्ध होती है-विनयति क्लेशकारकमध्टप्रकारं कर्म इति विनयः क्लेश पैदा करने वाले आठ कर्मों को जोर करे वह 'विनय' है|
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विनय-शब्द से नम्रता का भी अर्थ निकलता है, जो अहंकार स्वयता आदि को दूर करे- वह 'विनय' ।
इस प्रकार भाव और शब्द दोनों ही दृष्टि से विनयका रूपमारे सामने जाता है कि नत्रता, सेवा, आत्मसंयम, गुरु अनुशासन सब विनय है । विनय का फल तो मोक्ष है ही । यह बात स्वयं बागमकारों ने भी उद्घोषित की है - जैसे वृक्ष का मूल है जड़ और अंतिम फल ! उसी प्रकार एवं धम्मस्त विषओं मूलं परमो से मुक्यो । धर्म रूप वृक्ष का मूल विनय है, और उसका अन्तिम फल- हे मोक्ष है।
विनय को महिमा
जैन धर्म में विनय को धर्म का बना कर एक बहुत से महपूर्ण वष्य की ओर संकेत किया है। वह यह है हिन परिकर की मूठभूमि है। छोटे से छोटा र
हर बड़े से बड़ा आवश्यक होना चाहिए। सो का, विनय सहित धर्म भी न मे धर्म नहीं के
यह घोषणा कर दी
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कालिक असर
महर
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जैन एक पग के महान विज्ञान जावादिनी महिमा में और भी पार नाका -
है।
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विनय तप
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होकर हाथ जोड़कर पुच्छिज्जा पंजलीउडो'-अंजलि जोड़कर उस आसन अर्थात् बंदना की मुद्रा बनाकर पूछे -- “गुरुदेव ! क्या आज्ञा है ? किस लिए मुझे याद करने की कृपा की ?" बैठते समय उनके आसन से बहुत दूर नी न बैठे, और बिल्कुल सटकर भी न बैठे किन्तु उचित रीति से बैठे, पर आदि फलाकर न बैठे, पापालथी लगाकर, बड़प्पन का आसन लगाकर न बैठे, जनके आगे-आगे न चले, अड़कर भी न चले, वे बोले तो बोच में न बोलेइस प्रकार प्रत्येक व्यवहार में नमता और सद्व्यवहार तो जलया मिले, शिष्टता, राम्गता और सुशीलता का परिचय मिलता हो ऐसा व्यवहार गरे, यह विनय का तीसरा रूप है । इसी रूप में गुरुजनों की अशातना-अधमानना, हीलना न करना, उनका स्वागत, सत्कार और बहुमान आदर आदि करना आता है। बड़ों का विनय करने की शिक्षा देते हुए कहा गया है-रायगिएनु विषयं प ... अपने से बड़े पुरषों के प्रति विनय रखना चाहिए। समयाग एवं दशा रुप में जो ३३ अशातनाएं बताई गई, वे भी एक
मार ने सयवहार को हो निधियां है। उन गयो अवलोकन हो सप्टमा सोनाता, बहादर मारदार मिय
तर चिना के बाप को याद में माना बिन होताना परिमापा हमारे साम -१ गजनों कान र अनुशासन,
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countrwainendrenioram
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जैन धर्म में कोई भी शेष विनय ने अछूता नहीं रहा है। सम्पूर्ण जीवन को नानी सुवाम में महका दिया गया है जैसे पूजा के समय मन्दिर का कोना कोना नुगंधित धूप से महका दिया जाता है। साधना एवं गवहारसमस को विनय से प्राप्लावित करते हुए उसके विभिन्न भेद किये गये हैं। भगवती आदि नुनों में विनय के सात भेद बताये गए हैं
सत्तविहे विशए पगते, तं जहा--- णाणविणए, वंसविणए, चरित्तविणए, मगविणए
वइविगए, फायविणए लोगोवयारविणाए।' विनय सात प्रकार का है
१. भान विनय, २. दर्शन विनय, ३. चारिमविनय, ४. मानसिना, ५. वचन विनग, ६. कायविनय, ७. लोकोपचार विनय ।
भान विनय का अर्थ है-ज्ञान के धारक का मिना करना । मोति भान एवं शानी मूलतः एक ही है। शान आत्मा का लक्षण है, स्वल, गुम है । गुण गुणों में ही रहता है, इसलिए ज्ञान विनय कहने से अयं होता
मानवान का विनय करता। ___शानी ar विनय करने में दो मुग्न दृष्टिया है एक तो i (म भानी आदि पाचों ही मान धारक समाने चाहिए) का आदर करना नाyि . निरनमाजम, निस संघ एवं गम में, किसानों का आदर होगा, art at शानियों की पूजा होगी और उनकी बात सुनी जायेगी यह मंध, समान उमति करता रहेगा, यह कभी रुट में नही सेगा, भागवश :
भी माता भनी विधानसभा उमटने का . aar
आनी विद्वान ममामाकोस नानक
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विनय तप
विणओ जिणसासणे मूतं विणीओ संजनो भवे । विणयाओ विप्यमुक्कस्स कओ धम्मो को तवो । विनय जिनशासन का मूल है, विनीत ही संयम की आराधना कर सकता है। जिसमें विनय का गुण नहीं है, वह क्या तो धर्म की आराधना कर सकेगा और क्या तप की ? अर्थात् धर्म, तप एवं संयम की आराधना यही कर सकता है जो विनयी होगा, नत्र होगा और श्रद्धा एवं सद्भावना ते युक्त होगा ।
विनय गुणों का आधार माना गया है, जैसे सब वनस्पतियों को उत्पन्न करने वाली पृथ्वी है, समस्त जीवों का आधार है, वैसे ही विनय विश्व के समस्त सद्गुणों का आश्रय स्थान है, केन्द्र है। विनीत व्यक्ति गुणों को प्राप्त करता है, उससे संसार में उसकी कीर्ति, यश एवं प्रतिष्ठा बढ़ती है
नरचा नमइ मेहावी तोए कित्तो से जापइ । हव किच्चाणं सरणं भूयानं जगह जहा
विनय को महिमा में इससे बड़कर और या कहा जा सकता है ! विनय को विश्व के समस्त गुण समस्त विद्याएं और सभी सम्पत्तिया स्वयं आकर प्राप्त करती है। विधा स्वयं विनीत को पारू अपने को
ही अकृत है सुशील का
कारण कर दोलिए
मास्त्र में कहा है
वित्तीय
अनिमेष से सब विपक्ष
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विनय के ग्रात कार
जैन धर्म में विनय की इव्य है कि वेदना
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संपत्ती विपत्ता प
परेत है और किनी की
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जैन धर्म में बात थी शानी का सम्मान करने की, जानी का उत्साह बढ़ाने की ! जानी, ... विद्वान यदि समाज में आदर पायेगा तो वह अपनी बुद्धि को अधिक से अधिक समाज एवं राष्ट्र के के कल्याण में लगायेगा। तो ज्ञान बिनय का अब हमें सम्पूर्ण राष्ट्रीय जीवन के साथ देखना चाहिए कि हमारे प्रत्येक गावहार से ज्ञानी जनों का आदर व्यक्त हो। __आज शिक्षा क्षेत्र में घोर अनुशासनहीनता, उदंडता छाई हुई है। शिक्षक विद्यार्थी से डरते हैं जैसे यह तो गुरु हो और गुरु शिष्य हो। इसका कारण पया है ? यही कि छात्रों में विनर के संस्कार नहीं है ? ये जागते नहीं कि विनय किस चिड़िया का नाम है ? जबकि भारतीय नीति का भूम है कि शिक्षा के साथ विनय अत्यन्त आवश्यक है। विनय के पिना शिक्षा, विद्याभ्यास सम्पुर्ण ही नहीं हो सकता तो सफलता तो दूर की बात है। इस संदा में जैन युगों का एक प्रसंग बहुत ही मननीय है। ___ एरबार गौतम स्वामी के पास उदकपडाल पुत्र नामक एक अपना कुछ निकासा लेकर आया। यह पारवंसंतानीय श्रमण या, असायन तो उसने लिया होगा पर परिपाक नहीं हुआ था, और परिपक्क होता से, पति विनय आदि की सम्पूर्ण शिक्षा उसकी अधूरी हो रही थी। तो गौतमस्तानी से आने कुछ न किये। गौतम स्वामी ने बड़े ही नर एवं लोहार साथ उनाला इतर दिया। उत्तर पाकर उदारपेडाल पुरसलोना पर पर . गोभी बिना किसी प्रकार की शामता प्रदकिइने जगा । गीतम मामी . में देखा पर तो निरा अभिनय पूर्ण मार रहा है। जो गोदाम
हामी ने उसे मार परतों का सहा ... आयुष्मन् ! किसी के पास railer RTE भी पान सुनने को मिला ही वो उसके सा
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४३१
विनय तप
है । कहा जाता है कि यूनान का दार्शनिक एवं यूनानी राजनीति का गुरु अरस्तु इस सिद्धान्त का कट्टर समर्थक था कि समाज एवं राष्ट्र का नेतृत्व शानी जनों के हाथ में रहना चाहिए। उसका यह कथन आज भी प्रसिद्ध है कि "शासक को दार्शनिक ( विद्वान ) होना चाहिए और विद्वान दार्शनिक को ही शासन सूत्र संभालना चाहिए ।"
ज्ञानी का विनय होने से संध में ज्ञान की महिमा बढ़ती है, ज्ञान का आदर होता है एवं ज्ञानाभ्यास के प्रति सर्व साधारण का आकर्षण बढ़ता है । जो संघ राष्ट्र ज्ञानी का आदर करता है, वहां अपने आप हो ज्ञान का विस्तार होता रहता है ! आज के युग में तो यह बात और भी स्पष्ट हो रही है।
प्राचीन काल में पहूदी जाति में ज्ञानी लोगों का बड़ा सम्मान होता था, उन्हें अनेक सुखसुविधाएं दी जाती, उनका पूरे देश में सम्मान किया जाता। यही कारण है कि आईस्टीन जैसा विश्वविख्यात वैज्ञानिक उस जाति मे पैदा हुआ, और भी अनेक वैज्ञानिक लेखक, विद्वान बहूदी जाति में पेश हुए है। इजरायल छोटासा देव भी कितना अग्रगामी और शक्ति है ?
और
दाका कारण है वहां आज भी विद्वानों का सम्मान होता है।
हम में विज्ञान ना
ठीक देनिकी
रहा है कि
उनकी गौरव प्रदान दिया है।
भी मुख्य रन नही साहित्यकारों का बार किया है
भारत के प्राचीन कवियों की पानी में आप कते है कि जमु आणि
पुरस्कर में दे दिये
मुख
नेतोक कहा और राजा ने गाव कचोन कर दिए। कारावास इतने
में किए
पर
वासी ए बुध की सिर्फ एक पद
की
श्री
गया विकास के नाक के उसने एक ब्लीक पर कड़ी ट्रक, पीछे बारावी व उनके क्षेत्र
छ विवा
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- जैन धर्म में गुरुजनों के आने की सुचना मिलने पर अगवानी कारने सामने जाना, ददरे .... तब तक सेवा करना, जाएं तब कुछ दूर तक उनके साथ जाना पह सुधा. विनय का स्वरूप है।"
इसी विनय का दूसरा रूप हैअनाशातना ! अनागातना नन्द कसा सीधा अर्थ इतना ही है कि-देव. गुरु, धर्म आदि रत्नमय की अवहेलना अपमान हो ऐसा व्यवहार न करना। वैसे शब्द की व्युत्पत्ति की दृष्टि से आशातना का अर्थ है-ज्ञान आदि सद्गुणों की आय-प्राप्ति का मार्ग रोकना, राति पारना-'आसातणा पामं न णादि आयस सातगा।" भाव नहीं कि पूज्यजनों की अवहेलना हो ऐसा काय न करना, जिम महार से शिणी प्रकार की अशिष्टता व असभ्यता झलके वैसा व्यवहार न करना । भागातना : के कहीं-कहीं ४५ भेद और कहीं नहीं ३३ भेद बताये गये हैं। अरिहंत, भरि... हतप्रापित धर्म, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, सावंत, सभोगी एवं गति आदि पांच मान के धारणा - इस प्रकार इन पन्द्रह से आगात ना न मारना उनकी भक्ति करना और उनकी स्तुति करना प्रसार १५+३ अनाशातना रे ये ४५ भेद होते हैं।
रामवामान एवं सातपंध मे आयातमा के ३३ भद बताये हैं। में भेट वास्तव में गुरूजनों आदि साय रात दिन के व्यवहार की एक मुम्बर परिपाटी बताते हैं। जैसे-जनों में आम न मानना, के बराबरन . शाना, बो ही पंटो माप, बाहार करते समय बोलते समय .. या निक जीरे प्रकार में उनकी नाग-नादियान
की पा, अष्टता अडिया का सन्मान करतानम्मान-fire
बार करना, जो भा में काम राnि a माँ की है
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विनय तप
श्रमण माहन के पास एक भी आयं सुवचन यदि सुनने को मिलता है, तो वह सुनकर (हित शिक्षा का एक भी बोल पाकर) उसे पूज्य बुद्धि के साथ नमस्कार करना चाहिए, उसका सत्कार सन्मान करना चाहिए।"
तो यह है गुरु के प्रति, हितशिक्षक के प्रति कर्तव्य का निदेश ! विनय की विधि ! शास्त्र में यहाँ तक कहा है
जस्ततिए धम्मपयाई सिरसे तस्संतिए वेगइयं पउजे जिससे धर्म का एक पद भी सीखने को मिले तो उसका विनय, सत्कार करना चाहिए । शिर झुगा कर, हाथ जोड़कर आदर सूचक वचनों से उसका अभिवादन करना चाहिए।
भान विनय के, जानी पी अपेक्षा से पांच भेद किये गये हैं-जैसे मति शानी का विनय, श्रत बानी का विनय, अवधिज्ञानी का विनय, मनःपय शानी का विनय एवं कवलनानी का विनय !
दर्शन विनय और अनाशातना दन विना का अर्थ है, सम्यक विचार रूप-रावा नादर, सम्यष्टि गुरुजनों का सम्मान, सेवा आदि करना । इसके भी दो भेद है -~-१, गुध मा दिनय नया २ अनागातना पिनय।
मन विनय ए.6 प्रकार शिष्टता, सभ्यता एवं सपहार की कुशी है। इसके अनुमोदन गनुमा गुरुजनों का दिन एवं स्नेह नाम सा नाही है, मामी एक अज्ञात व्यावहारिक एवं मोदप्रियानी भी बन सरता। पातिक भूध में प्रकार बताये है-'मलबा आदिबाने पर Emmननिए मामा REET देना, न पारि
मुत्रो का मान करना, नरेश ला. ना. को ना बोहरला
.
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जैन धर्म में त
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में ही एक प्रकार का विनय है और इसका सीधा सम्बन्ध शरीर है इसलिए इन सब प्रवृत्तियों को काय विनय के अन्तर्गत माना गया है ।
विनय का सातवां भेद है-लोकोपचार विनय । इसे एक प्रकारका लोक व्यवहार भी कह सकते हैं। इसके सात भेद बताये गए हैं जो इस प्रकार हैं- १. गुरु आदि के निकट रहना, २. उनकी इच्छानुसार वर्तन करना, ३. उनके किसी कार्य को पूरा करने के लिए साधन आदि जुटाना ४. गुरुजनों:
जो उपकार किये है उनका स्मरण कर उनके प्रति कृतज्ञ रहते हुए उन उपकार का बदला चुकाने का प्रयत्न करना, ५. रोगी आदि की सेवा के लिए तैयार रहना ६. जिस समय जैसा व्यवहार और जैसा संभाषण उपयुक्त हो, वा करना अर्थात् समयोचित व्यवहार करना ७ ओर किसी के ि
आचरण न करना ।
इस साल बालों में लोकव्यवहार की कला बताई गई है। संसार के जितने भी लोकप्रिय नेता हुए है उनके जीवन को देखने से पता चलेगा कि प्राप इन बातों पर उनका विशेष ध्यान रहा है। एक प्रकार से से प्रियता के नुसते है । हो, यह जरूर है कि लोकप्रियता के नाम पर गंगा गंगादास जगता गये जमनादास' वाली बात न हो, व्यक्ति का कुछ अपना अवि सिद्वान्त और विचार भी होता है किन्तु विद्वानवादिता के नाम पर अव्यावहारिक होना और अभिभाषण करता उचित नहीं है। नव कसे भी मधुर व प्रिय भाषा के बाद रखना और किसी के उपमुलक आकार व करना-यही बात तोकोपचार बिन में बताई गई है।
कि पापा
विनय और
के
गवारे केही बताया है। यह महार
आदिदुर्भाव को
का
है। कनके जीवन में मी वादों में टिएस वर्ष वरपर भएक
बीटामा महान कुक
की नको" इतने में महूकार ने केकतान के महान को रोक
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विनय तप
कि आज से हजारों वर्ष पूर्व भी जैन मनोपियों ने मानय के व्यवहार को इतना ऊंचा, इतना मधुर एवं विवेकपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया है जिसे आज देख सुनकर भी आश्चर्य होता है ।
तीसरा चारिमविनय है । इसयो पांच भेद हैं । पाँच प्रकार के चारित्र का अर्थात् उन धारिम सम्पन आत्माओं का विनय करना चारिम विनय है।
भान विनय से ज्ञानी का सम्मान करने की शिक्षा दी गई है। दर्शन विनय से सम्पर प्रसासम्पर गुरुजनों आदि के प्रति व्यवहार को एवं चारित्र चिनम में बच्चारिसमा सदाचारी पुरुषों का बहुमान मारना, उनको सेवा, भक्ति, स्तुति एवं परिचर्या करना । दस प्रकार विनायक न तीन रूपों के द्वारा जीवन में सम्पूर्ण सदाचार एवं विनर को निक्षा की
मन बिनम से तात्पर्य है-मा पर अनुमान रखना । के दो भेद हैं--प्रशस्त मनविनय, अप्रात मनभिनय । न में पवित्र सीमा निशॉप, अत्रि (दुष्ट किया से रहित) भूगरों को बगनी करने वाले, दुगन को परिवार नही देने वाले, दूतों का नाव नही करने वाले और दुसरी हिमा नहीं करने बारे विचारों ने मन की भाति ना--प्रगतमा निम है। 3 सालो बात का विधान सभा मन दिलाई निराका स्याग करना। पास में प्रास न किस महीना है कि हमारा मन मा पनि निशे ए नारों से परिपूर्भ मन
1 । सो कार नान का मुन्, गोमन नए नितीन की मात्रा में। इन विमा .. RATE । कामदिन --ना
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गोसा ५-
2 में
ना- से भी 314
1 दिने, भूमी
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जैन धर्म में तर विनय कई प्रकार की भावना से किया जाता है। एक प्राचीन भावार्य ने इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है
लोगोवयारविणो अत्यनिमित्तं च कामहे ।।
भयविषय-मुरविणो बिगो सलु पंचहा होई ।' विनय करने के पांच उद्देश्य हैं.---१. लोकोपचार अर्थात् लोक आवहार निभाने के लिये माता-पिता, अध्यापक आदि का विनय करना २. वर्ष विनय-धन आदि के लालन से सेठ, मैनेजर या बड़े आदमी की सेना, पुजा करना । ३. काम विनय-कामवासना की पूर्ति हेतु स्त्री आदि की आजीजी करना, उनकी प्रशंसा करना। ४. भय विनय-अपराध होने पर मजिस्ट्रेट, कोतवाल, शिक्षक आदि का विनय करना। ५. गोक्ष विनाआत्म कल्याण एवं ज्ञान प्राप्ति के लिये गुरु आदि का विनय करना।
इनमें प्रथम चार प्रकार का विनय-रान्यता की सीमा तक तो उनित है किन्तु सीमा के बाहर हो चापलूसी बन जाते हैं। मोक्ष के लिये सिया जाने वाला विनय वास्तव में विनय ता है, चमि. उसमें प्रवेश गविस रहता है और वृत्तियां शुद्ध !
उपसंहार इस प्रकार विनय का सोनोग-विवेचन जनधर्म में प्रस्तुत किया है। आगनों में लान-स्थान पर इसके आवरण का उपदेन ही नहीं, बलि मुन्दर विधि भी बनाई गई है। पिनयगील को समस्त योगसाओं का पार
और पूर्व wिerint अधिकारी माना गया है। स्थानामनु में जल in अली को अधिकारी और तीनको मनकारी सार है पहार निदिनtratना भी .
मी मानिने मामले से जहा... दिनो, गदिमा दिस्मिता।
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विनय तप
दिया, किन्तु जैसे ही यह अहंकार मिटा, मन में विनता आई, विनय एवं भक्ति की भावना जगी तो बस कदम उठते ही केवलज्ञान प्राप्त होगा। इससे स्पष्ट होता है कि आत्मिक शक्तियों के विकास में विनय का जितना महत्वपूर्ण योगदान है। अहंकार को दुर्भय बट्टानों को तोड़ने का एकमात्र साधन विनय ही है । इसीलिए---माणं मध्यया जिणे---मान को मृदुता से जीतो का उपदेश दिया गया है। गांधी जी का धन है - नसता का अर्थ है अहंगाय का-आत्यंतिक क्षय । विनय से अहंकार हटता है, अहंकार हटने सेनान प्राप्त होता है। अहंकार और शान, अहंकार और बिना एक साथ नहीं रह सकते।
जैन धर्म में गिनय का उपदेश आत्म-विकास के लिग, शानप्राप्ति के लिए और गुरुजनों की सेवा द्वारा मंगिरा करने के लिये ही दिगा गया है।
कुछ लोग बिना को चापसी को रूप में भी प्रयोग करते है, किन्तु यह गलत है। चापलूसी दोप, मन की रपट पूर्ण किया जाना गुण है. यह मन को सरल सट ति है। नमों की प्राप्ति के लिए, एक गुनीजनों के सम्मान के रिला । अपने स . AL अपना मनीषा करने लिए बना, दूसरी मी उगने लिए मना चापलाती है। इस सहा मना है.
नमननमार सत्र को बहे नमन-ममा में फार।
समान जो नर्म धोतो चोर हयान । MERfor tी। मी निय के ता है और किसी का वार भी . !
रमाको मन , र म
मोहिन महिने inो PAK काम दोला नि
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मनुष्य सामाजिक प्राणी है, वह समाज में रहता है। एक-दूसरे के सहयोग की अपेक्षा रखता है। स्वयं दूसरों के काम आता है और समय पर दूसरे भी उसके काम में आते हैं । सुप-दुख में एक-दूसरे के लिए प्रायता और संवेदना प्रकट करते हैं। एक यदि संकटों के दलदल में फंसता है तो दूसरा जोने का प्रयत्न करता है। एक यदि रोगग्रस्त होता है तो दूसरा जाकी सेवा करता है और सहयोग देता है। एक के दुख से पीड़ा से दू का हृदय कवि ही उठता है बहू उसके प्रति सहानुभूति दिखाता है। पह परस्पर सहयोग से भावना के उपकार की भावना है और सेवा की भावना केसे कहा गया है। मानावना आधार है।
नामक की उसति और पका
कार से अपना रहती जा है-परोष
नानू ...
देवों में परस्पर एक इशारों की वृधि दही।
DALA P
को को बानी में ही नेतोजी का ही
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वैयावृत्य तप
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विनय तप
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तीन व्यक्ति विद्या के अयोग्य हैं-- अधिनीत, सलोनुनी और बार-बार फतह करने वाला। इसका अपं यह है कि अविनीत जीवन में सद्गुण प्राप्त नहीं कर सकता । सद्गुण एवं समान प्राप्त करने के लिये मनुष्य को विनयशील बनना ही होगा। समस्त गुण विनय के अधीन रहते हैं--- पिनयापत्ताश्व गुणाः सयें और इसने भी बड़ी बात है--समस्त गुणों का श्रृंगार विनय ही है-- सकलगुणभूपा च विनयः विनीत की विद्याएं सुशोभित होती हैं। पर प्राचीन आचार्य ने विनय का जीवनयापी प्रभाव बताते हुए कहा
बिगएण गरो गधेण चंदणं सोमयाद रपनियरो।
महरररोण अमयं जपपिपत्त सहइ भयणे।' जैसे सुगन्ध के कारण चन्दन की महिमा है, सौम्यता के कारण चन्द्रमा का गौरव है, मधुरता के लिये अमृत जनप्रिय है वो ही विनर कारमा ही मनुष्य समस्त जगत में प्रिय एवं आदर योग्य होता है। ___ इस दृष्टि से विनय पत्रीका उगा लोक लाभकारी। से सोमप्रियता एवंदादर भी रहता है और आत्मारन, नद्र एवं निगम
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४४२
परस्परं भावयन्तः भ यः परमवाप्स्यम !
निःस्वार्थ वृत्ति से परस्पर में एक दूसरे का सहयोग करते हुए एक दूसरे की उन्नति में हाथ बंटाते हुए परम कल्याण को प्राप्त होंगे। बालय में दिया जाय तो मनुष्य को पशुता से हटाकर मानवता में प्रतिष्ठित करने वाला यही आदर्श है। वह एक-दूसरे की जीवन-उन्नति में सहायक बने । द समूची मानवजाति को एक दूसरे के प्रति समर्पण की भावना का उपदेश देते हुए कहा है-- त्वमस्माकं तव स्मति - तुम हमारे हो, हम तुम्हारे है । हम एक-दूसरे के लिए तैयार है, एक दूसरे के सुख-दुख में सहयोगी है । पावृत्य का महत्व और ताम
जैन धर्म में इस परस्परोपग्रह की भावना पर बहुत ही बल दिया गया. है। यहां से वैयावृत्य, सेवा, शुश्रूषा, पर्युपासना, साधर्मिक बाल आदि अनेक नामों से अनेक रूपों में बताया गया है और जीवन के साथ इ घनिष्ठ सम्बन्ध जोड़ा गया है। वैयावृत्य का अर्थ बताते हुए कहा है-वैयावृत्यं - नक्तादिभिः धर्मोपग्रहकारित्व वस्तुभिरुपग्रह-करणे- धर्म साधना में सहयोग करने वाली आहार आदि वस्तुओं के द्वारा सहयोग करनासहायता करना- इस अर्थ में वैयावृत्यब्द आता है। इसका भाव है एक दूसरे के जीवन में धर्म से साधना में विकास में, तथा जीवन-विरा में योग करना वै-सेवा है।
बताया गया है कि जानव-संसार में दी पद कार
जैन धर्म में त
हे भगवतीवा २४
अगर बाट
भवि वेगव
ऐन की दृष्टि
एवं ऐल की दृष्टि से
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विकास
एवं ऐसे
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पालिक
सम्यय छत्वग्य का सम्राट होता है, उसके काना एवं में कोइ नहीं करता और बेसन की दृष्टि से किसके है। वे होते है भामा की सतवतिकेाजवत
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वैयावृत्य तप
४४१ एक-दूसरे के सहयोग के बिना कोई जीवित भी नहीं रह सकता । परस्परोपकार को यह वृत्ति छोटे से छोटे जीव में भी रहती है । आप देखते हैं चीटियां कसे समूह य दल बनाकर चलती हैं, वे एक-दूसरे को रक्षा में भी सहयोग करती हैं। मधु मक्खियों का समूह और संगठन तो विश्वप्रसिद्ध है। उनमें राजा और रानी भी होती है, सेवक सेविकाएं, संनिक और आरक्षक भी! मधुम गिरायो का पालन करने वालों का कथन है कि मानय की भांति ही उन में पूरी राजव्यवस्था होती है। पशुओं के इंड और यूध तो आप देखते सुनते ही हैं। उनमे सुधपति गी होता है जो पुरे यूथ की सुरक्षा और पालनपोषण की किस करता है। मातागुन में वर्णन आता है कि मेपकुमार अपने पिछले भाव में मर-प्रन नामका एक बड़ा सुधपति हस्ती बना था जिसके पल में एक हजार हावी-दृधिनियां थी। उन सब के सुसन्दुा की मिन्ता मूषपति मेरु प्रभु रचताना। मृगों, गायों और अन्य पगुजों की लापी को बड़े समुह और होते हैं और सभी एक दूसरे के सहयोग य जयकार
pretail में समूह तो सोत है, दूसरे योग भी को s, feng उनमें सामाजिक भावना का विकास योनिमारकाना है। योग का भी जिन्तुको मह ाद और ना
सिनी, म भावना iPart 4 नो, रानी गरी मनोनाले rp ना . आ
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१ . और ना पी मारना है
। राम का है। ..
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४४
जैन धर्म में ने सोलह कारण भावनाएं मानी हैं और उसमें भी वैवात्ग, बिना एवं वत्सलता का महत्वपूर्ण स्थान है।
इसी प्रसंग में एक बात और बता देना चाहता हूं किस से सारा भी अन्य अनेक विभूतियां भी वैयावृल करने वाले को प्राप्त होती है । मावान ऋषभदेव के दो सुपुर-भरत चक्रवर्ती और बाहुबली का नाम भी आपने सुना होगा-ये दोनों ही महान पिता से महान पुत्र थे। भरत नरूपता थे, अपनुन वैभव एवं ऐश्वयं के स्वामी थे ही, किन्तु बाहुबली भी कम नहीं है। मंमार में नहीं का एक उदाहरण है कि अपार सैन्य बलधारी महापती जमवती को गी एक शस्परहित बाहुबली ने आने बाहुवल र सारास दिया । भरत जसे चक्रवर्ती के दिन शल्य और बाहुबल नी याहुबली के समक्ष मात ला गये । याहुबली को यह अपूर्व अदभुत बल मिस साधना से प्राप्त हुना था? पूर्व जन्म की सेवा के बल पर ! उनके पूर्व भव की साधना का अध्ययन करने पर पता चलेगा-पूर्व भर में भगवान पभदेव का और नाम मुनि धे। उन्होंने बीस स्थानों की आराधना कर तीर्थकर गोला आग किया था। बाहुनाशाह मुनि इन्हीं वजनाभ मुनि के लोटे भाई थे। दोना सशसेवा-बंगाल में होनीन रहीं। बाद मुनि- ए, प्रांत मुनिना सो विधाममा जग अवययों का मन उनको
बालों सेवा हो और सुबालु नुनि काल-मातार आदि द्वारा की साता नाना, रोगी आदिती परिमार्ग दरमा रादि कार्य का ३३ गारगों मुनि जीवन भर नाद नाय और माता के को। म हारा इन दोनों मुनियों को गन प्रसंगा और होने
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वैवावृत्य तप
४४३ आध्यात्मिकः ऐश्वयं, अपार विभूतियां उनसे चरणों में लोटती रहती है। नम्वती, देवता और देवेन्द्र, एक नहीं, लाखो-करोड़ों-इन्द्र उनकी गरम-गया करते रहते है । तो यह दोनों चयापर्ती एवं तीर्थकर का महान पद प्राप्त होने के जो कारण हैं, जिस तपोबल से इन पदों की प्राप्ति हो सकती है उसमें एक मुख्य ता है सेवा, अंगावृत्त ! सेवा-मावृत्य के द्वारा आत्मा नमवर्ती का पद भी प्राप्त करता है, और उससे भी उत्कृष्ट तीर्थकर पद भी।
भगवान महावीर से एक बार गणधर गौतम ने प्रत्न किया-प्रभो ! आपने सेवा-वेगात्य का मतना महत्व तो बताया है, और धावृत्य करने का पूर्व उपदेश भी दिया है, किन्तु यह भी बताइये कि इस बचावल के द्वारा आमा को किस फल की प्राप्ति होती है ? उत्तर में धान ने कहा-.--.
वेवायच्चेणं तियपर नाम गोपं काम नियंपेइ मातृत्व करने से आमा तीकर नाम गोदाका गान करता। पर बातम का मान ! भिक मागरम से आरमा निक
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नाराला
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. जैन धर्म में आप तो क्या उसका यह चितन उचित है ? नहीं ! वास्तव में जितना माय यह ध्यान एवं नक्ति को देता है उतना ही महत्व सेवा का भी है। दूसरों की सेवा करना-दूसरों का काम नहीं, अपना ही काम है। सेना कराने . बाले को तो सिर्फ दाणिक लाभ है, फि तत्काल उसे साता पहुँन जाती है, . किन्तु वास्तविक लाभ तो सेवा करनेवाले को ही मिलता है, हमों को महान निर्जरा तो सेवा करने वाले को ही होती है। सोचिएसेमा से जित तीर्थकर पद की प्राप्ति वतलाई है क्या वह सेवा करानेवाले को होती है या सेवा करनेवाले को ? तीयंकर पद, मुक्ति और अनन्त ऐकाय सेवा करने वाले को मिलता है तो सेवा करना दूसरों का काम करो हुमा ? यह तो अपना ही काम है, जिस काम से स्वयं को लाभ मिलता है यह काम स्वयं का ही होगा । इसलिए सत्य तो यह है कि जो दुसरों की सेवा करता है, यह वास्तव में अपनी ही सेवा करता है । अपना ही लान करता है।
एक प्राचीन आचार्य ने बताया है कि एक बार गणधर गौतम ने गगन महावीर से पुछा--"भगवन् ! एक साधक आपकी सेवा करता है, त-दिना द्वाप जोड़ें आपके चरणों में पड़ा रहता है, और एरनाक रोगी, धान, तुज आदि साधुओं को सेवा करता है, तो इन दोनों में श्रेष्ठ कोन ! भाग . किसे धन्यवाद देंगे?
उत्तर में भगवान महावीर ने महा-जे पिताण पडिपरद से प्राने ! गोजाग ! जो रोगों की सेवा करता है, वही वास्तव में पवाद ना ___ गौतमकान का हिना ना ! ए और अमानी fm कोनहानिमहान जो काम पुरा मगान की सेना, ना ! और गरी और मानना की परिनमा ! दोनों में महान अन्तर .
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रापना ... प्रातारा ntी उनकी
जिनाम--... बहो
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यावृत्य तप इस सेवा, एवं विधामगा के फलस्वरूप वाहमुनि ने चमावर्ती के विराट सुसों के योग्य कर्म उगाजित किये एवं सुबाहु मुनि ने विधानमा के द्वारा अपार दिव्य चाहुबल प्राप्त करने योग्य फर्म उपार्जन किये ! तो तीफार पद, नवी पद एवं लोकोत्तर बल, वैभव आदि की प्राप्ति का मुख्य कारण सेवा, बंगावृत्य आदि है-यह इन प्राचीन घटनाओं से भी जाना जा सका है।
सेवा बड़ी या रक्ति ? जैन धर्म में नया को कितना महत्व दिया है यह उक्त घटनाओं से तथा उस्लमों से स्पष्ट हो जाता है। जो सेवा करता है, उसमें चाहे अन्य कोई विशेषता हो या न हो किन्तु एक इसी विशेष गुण के कारण वह अपनी
आत्मा को महान बना सकता है, और तो या भगवान बना सकता है। भक्त सेवा करके भगवान बन सकता है मह कितनी बड़ी बात है कि जितनी आत्मशुद्धि पचास, भान आदि से होती है उतनी मुद्धि यह सपा द्वारा भी कर देता है। भारत में कहा है-रोगी, नवदीक्षित आचार्य आदि को मेवा करना हमा साधक महानिरा और महापर्यवसान (परम शि)ोराया कार ता। इसका अर्थ है या मुक्तिदायिनी ।
साधनाम जब सेवा का प्रसंग प्रामसार उप-उधर मही देना चाहिये। यदि कोई ध्यान कर रहा है, कोई माध्यान कर रहा २ मा र म मा अनुमति हो रहा है, उस HERE THREE , रानी का
आगाज
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मामा
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जैन धर्म में त
है और उनके पीछे कुछ महान उद्देश्य है । अन्य धमों में भी और प्राणिनाथ की सेवा का उपदेश है-उसके कुछ दार्शनिक कारण भी है मनुष्य की और व्यावहारिक कारण भी ! अद्वैतवादी कहते हैं- प्राणिमान में एक ही आत्मा अनेक रूपों में विराजमान है, इसलिए किसी भी प्राणी की सेवा करना वास्तव में उस एक ही आत्मा की सेवा है, ईश्वर को हो सेवा है । ईश्वर को घट-घट व्यापी मानने वाले भी - शुनि चैव श्वपाके च सभी में एक ही ईवर का प्रतिबिम्ब देखते है इसलिए प्राणी मात्र और खासकर मनुष्य की सेवा का महत्व मानते है । गांधी जी भी नर सेवा को ही नारायण की सेवा मानते है। किन्तु जैन धर्म न तो अद्वैतवादी है, न ईश्वर को घट-घटव्यापी मानता है, हां, आत्मा को परमात्मा जरूर मानता है, आत्मा में ही परमात्मा बनने की सत्ता छिपी है यह उसका अटल सिद्धान्त है किन्तु इस सिद्धान्त कारण भी यहा सेवा का उपदेश नहीं दिया गया है। मनुष्य के रूप में ईसर की सेवा करना या ईश्वर के रूप में ही ईश्वर की सेवा करना-आतिर ल दोनों का भी तो कोई लक्ष्य होना चाहिए, उद्देश्य होना चाहिए! इसलिए जहाँ तक मेरा अनुभव है जैन दर्शन की भावना को समझ पाया हुसेवा में पांच उस जैन धर्म में मुख्य है
संचेतन प्राणी में एक जागृत आत्मा है, यह अनुभव करता है संवेदनशील है और सुख एवं साता उसे प्रिय है। जैसे पैसेही
के
नाव को ही सुप्रिय है। जो वास्तव में अपनी
कोला ही का
देवा के समाधि पहुंचाता है
सावा एवं समाधि पहुंचाने का है-यह गान महावीर का फेंकन - समाहिकारएवं तमेवमाहपहुंचना संधि को प्राप्त होता है। वहीं निष्ठ भूमि है-सेवा माना
की शांति
मा
से ! मे करने से दूसरी की भी शांति का अनुभव होगी। नके दूसरे को पाटी के स्वन से आयमा में भी ऑन एवं मैदा की अनुभव होना है
) की दूर अ
४४६
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चयापत्य तप
४४७ इस प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि प्रभु को भक्ति से भी यही है सेवा !
ज्ञान ध्यान पूजा तथा सामायिक भव दान ।
'मिश्रो' इनसे भी बड़ा है सेवा का स्थान । सेवा का इतना महत्व है इसीलिए तो यह कहा गया है कि कोई नापु, साध्वी बीमार हो गये हों, तब जो दूसरे स्वस्थ साधु-साध्वी निकट हों, उन्हें उनकी सेवा में साल लग जाना चाहिए और हर प्रकार ही सावधानी के साथ उनकी सेवा तथा सार-भाल करनी चाहिए। यदि किसी को पता लग जाये कि अमुक साधु बीमार है, और फिर भी यह उनकी पा नहीं करें, भागवू कार सेवा के प्रति लापरवाही बरते--तो नात्य में रहा है, . सेवा के प्रति लापरवाही बरतने वाले साधु को बहुत कड़ा देना चाहिए, उसे चार मासा गुरु प्रामलित देना चाहिए, और मांगों के बीच में उसकी सीलना करनी चाहिए कि आने कम साधु की नमावि उपेक्षा बरती। जो सेवा की उपेक्षा करता है यह वास्तव में मं को पंक्षा करना है, समाकी उपेक्षा करता है।
मग महामारी माय भावकों के लिए प्रासदार सिार दी
मानामा भी विमान में मारामार सेवा fuyari
निहाय परिक्षा निहाय यादपाय - . -~-~ो मनाना है, हाय का साई माया नही की।
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रमाए भामदेव भट।
मंशा का रस
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.
४५०
जैन धर्म में ... है तो दूसरे बन्धु को उसका दुःख दूर करना ही चाहिए, उसकी सहा
करना बन्यु का कर्तव्य है । मानवता है। ५ मेवा करने में भावना शुद्ध होती है, मन में पवित्र विचार आते हैं और गरीर को कष्ट व संयम की साधना भी करनी होती है, इस कारण
वा स्वयं में ताश्चर्या भी है, इससे रुम तिरा होता है, कामे निजरा होने से आत्मा की विशुद्धि होती है, विमुख भागा कति करता है, वह मोक्ष पद भी प्राप्त कर सकता है। इसलिए मुक्ति को.... प्राप्ति के लिए भी नया करनी चाहिए।
के कुछ मुख्य तत्व है, विचार मुम हैं जिन पर जैन धर्म की सेवा माता टिकी हुई है। इस सेवा से दोनों लाभ हैदह लोक में भी गम, नीir प्रतिष्ठा, सम्मान एवं प्रसिद्धि मिलती है। सेवा करने वाला जनता का प्रिय रानता नीयन ताता है और परलोक में अपार डि, बस, बार एका
का तोचकर मुक्ति मिल जाती है- र... एका किया पफरी प्रसिद्धा ही किया दो काम सिद्ध करने वाली होती है।
दा, एक यात IIT में रखनी चाहिए-सेवा, सेवा की भाना होगा बारिए, पाहा की नामे नही। लोग कहते है-रो सेवा, पायो .. मेधा ! मह उक्ति आय कम काफी बदनाम हो गई है। मेवा कर पल पष्ट उलाने पर लोग तो नहीं कर च ।। । बोल मोर देते हैं। शी और भारत आस्तियों में पीना . और मोट
मिला नया करने आये है, . कोटमा म नु ने बड़ी की, पर बात हो nिt
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बंगायत्य तप
यंसे ही दूसरों को सुख देने से स्वयं की बास्मा में एक महत प्रदुल्लता
और प्रसन्नता की अनुभूति होगी। यह आत्म-प्रफुल्लता ही साधक के लिए सर्योपरि वस्तु है, ने ही प्राप्त करना है और यह सेवा के द्वारा प्राप्त होती है इसलिए सेवा पारना, दूसरों को सुन पहुंचाना वास्तव में
अपनी आत्मा को हो मुख पहुंचाना है। २. जैन दर्शन प्रायो माय में समता का भाव रखता है, अभी अपनी मारना
के समान ही दसरों को समानता है। अपने मुरादुर के समान दूसरों के सुस-दुतको समझता है। इसी के साथ यह प्रत्येक प्राणी को अपना मित्र भी मानता है, मिति मे सम्म भूएन मेरी समस्त प्राणिजगत में साप मंत्री है। मित्रता का नियम है--निम के दुरा-दुख में अयोगी ओर सहभागी बनना। मिा का दुधपुर मारना, कष्ट में उसकी सेवा कारमा निध का धर्म है। अत: मित्रता के नाती भी हमें प्रत्येक प्रामीको
पा-थपाकरनी चाहिए। ३. रा अब में, मंकट की दवा में मनुष्य न होन स
भापित शुध और व्याकुल हो उठता है। नी मा में मी, म ष्ट भी हो सकता है। अपनी मांदार सुनसार अमरम
नवाचार प्रसा -पिता रामान है। मायको, मन्ट बनामार में दि कोई पाला . RETRIE 'ना है, जो साधारा और 4 जजो firrit, RAM या
पाप
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४.५२
जैन धर्म में ता ६ सेह येयावच्चे-नय दीक्षित मुनि की सेवा ७ कुल येयावच्चे-कुल की सेवा ८ गण पावच्चे-गण की सेवा ६ संघ यावच्चे-संघ की सेवा १७ साहम्मिय वेयावच्चे-सावमिक की सेवा
धन दस भेदों में साधु जीवन का समस्त सम्बन्धित समूह आ गया है। आचार्य का अयं बहुत व्यापक होता है-दीक्षा देने वाले, धर्म का गदैन, सन्मार्ग का ज्ञान और कर्तव्य को बोध देने वाले आनागं होते हैं। आचार नान दाता है, शिक्षस हैं। अपने से आयु में बड़े, ज्ञान एवं अनुभव में बड़े दोमा मादि में जोष्ठ जो है उन्हें स्थविर कहा जाता है । तपस्या करने वाले, . तथा क्षम, वीमार, अस्वस्थ साधक भी मेवा के अधिकारी हैं। क्ष का है-नवदीक्षित! उसे आधार पति का अभी पूरा ज्ञान नहीं मिला हो के कारण तथा साधुचर्या की दोरता का अभ्यास न होने के कारण उसे भी दुसरो की सेवा की अपेक्षा रहती है। लो तरह मामि गुरु भाई, साली साधक, नंध आदि की भी सया---ए हल int है-मानसोही सेवा करता, उनकी परिमारना समानार समाधि एकता प्राप्त हो यता आवरमा करना है।
यावल को fair area से तो बसा. मिकोटमा Friratष्ट बार लिया नायो
।
..
में
: परम
नो धोगितामध्य:-
4
trememurmamerion or merry....
।
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परावृत्य तप
४३१ उनके लिए जो महारता नेगी वह सुनने में आया कि गत नो या काम पहुंची,बहुत से स्वार्थी और सेवा की आड़ में पाप करने वाले लोग धीच ही में उन गरीबों और दुनियों की सहायता सामग्री से गादी बनाने लगे और अपने पर भरने में जुट गये। ऐसे जघन्य कल्प ननुम करता, भुरोको रोटी धीनकर अपनी नांदी बनाना चाहता है। दीन का पट काटकर अपनी पेटी भरने वाला---जितना बड़ा पार करता है, कितना जोन नाचरा करता है के लिए भागद कोई उपयुक्त नन्द नहीं होंगे।
तो सेवा करने में लोग रतिया व प्रसिद्धि की कामना नहीं होनी चाहिए । संधा-या गा, मंत्री वसलमा और विनय र बन्दुत्ल भावना से प्रेरित होकर होनी चाहिए।
पंचायत्य के इस प्रकार संधा-
यात सन्माध में न धर्म का मुना देवया या सर स्पष्ट कर दिया गया है। जो प्रानिमार को वा करना, प्रक जीर को नमामि गाना हमारा सिल किया लका भी मनमा पारेहम पापन निदान प्रतिमा व गाया मरेंगे । जो पहोगी हो बीमार छोइसर विचवा ....
रंगाबा का भारी
योगिनी
हि चाय
पम्प
अहा
.
PIPAAdrraj..vpwnlaMg+Amriwarta
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४५४
... जैन धर्म में सर . सेवा के विषय में जन ग्रन्थों में महामुनि नंदीगेषा का परिण अना आपलं माना गया है जिन्होंने जीवन भर सेवावत : को अन्जानमार में निनाया। गोगी, तपस्वी- वृद्ध आदि की सेवा करने में न कभी उन मन में ग्लानि आई, और न समय असमय देखा। सेवा में ऐसी ही लीनता और सन्मयता होनी चाहिए। तनी बावृत्त का बो महान् फल बताया गया।
को प्राप्ति हो सकती है और सेवा गरम धर्म, सर्वोत्तम तप और मोन तो परम गाधना सिद्ध हो सकती है।
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पंपावृत्य तप
४५३ गहन है, इससी बारीकियों को योगी लोग भी नहीं समझ पाते । सेवा में सयंप्रथम आवश्यकता है। विवेक की ! रिस पनि को, किस ममय किर प्रकार की सेवा की जरूरत है यह ध्यान में रखना चाहिय। गह नहीं कि प्रसंग की आवश्यकता कुछ और ही हो, और सेवा कुछ अन्य प्रकार में हो रही जाग ! प्राचीन भाचायों में समय अनुसार सेवा के अनेक मारी को व्याख्या की है । अने कहा है----
भत्ते पाणे सपणासणे य, पहिलह पायमिछमबा।
राया तेणे दंड गाहे गेसन्नमते थ।' आवश्यकता होने पर भोजन (नाहार) देना, पानी देना, सोने के लिए, विस्तर (11) आदि देना, आसन देना, गुगजनों आदि का प्रतिशत हार देना, पासपोधना, रोगी हो तो (नमका रोगी) उनके लिये दमा आदिमा प्रवनमा यदि रावलले गमगाते होंगो सहारा देना, राजा आदि के होने पर यं, आदि को मा, मोर आदि गाना। पहिली मोर संचन सर लिया हो, अपराध निया हो तो सो उनी रिद्धि कराना, सोई गंगी हो तो कर लिया आदि
को समायोज इमारीfur
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४५६
जैन धर्म में 4
स्वाध्याय गब्द को दगुल्गत्ति करते हुए कुछ विद्वानों ने यह भी पताना .. है--स्व स्य स्यस्मिन् अध्याय :-अध्ययनं-स्याध्यायः अपना अपने ही भीतर अध्ययन, अर्थात् आत्मचिन्तन, मनन, स्वाध्याय है।
जित प्रकार शरीर के विकास के लिए व्यायाम और भोजन की भाव. : क्यकता है उसी प्रकार मस्तिष्क-अर्थात् बुद्धि र विकास के लिए सम्मान (स्वाध्याय) की आवश्यकता है। अध्ययन से बुद्धि का भावान भी होता है मन की करारत भी होती है और नगे विचार, चिन्तन, गान आदिन में अच्छी गुराम भी मिलती है। इस प्रकार अघायन बुद्धिक विकास में माया
यहां पर स्मरण राना चाहिए कि सभी प्रकार का अध्ययन- जाय को कोटि में नहीं आता है। जैसे गलत तरीके से लिया गया आयाम शरीर को लाभ की जगह हानि पहुंना देता है, और अहितकार भोजन गरीर में गक्ति की जगह रोग पैदा करता है, उसी प्रकार गलत पुस्तक का विकारानेजक पुस्तकों का पालन बुद्धि की लिसित करने को बना र हुति एई कमजोर बना देता है । अग्लील साहित्य पाने वाले अपने मस्ति की तिजोरी में कामाला जमा हो है । उसले मन दुफ्ति are जोबन बिग आ है। इसलिए पुस्तकों के मान में बहुत ही विथ बनानाहिए। मा कामको पार को पलो वा सुन्दर, सदविचारों को जगार मला माहित rzो निसानाही परिभाषा में सामानों के मान को दी . FRE
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स्वाध्याय तप
पहले बताया जा चुका है कि तप का उद्देश्य केवल शरीर को क्षीण करने का ही नहीं है, किन्तु इसका मूल उद्देश्य है-अन्तर विकारों को क्षीण कर मन को निर्मल एवं स्थिर बनाना, आत्मा को स्वरूप दशा में प्रकट करना । मानसिक शुद्धि के लिए तप के विविध स्वरूपों का वर्णन जैन सूत्रों में किया गया है, उनमें स्वाध्याय और ध्यान-ये दो प्रमुख हैं। स्वाध्याय मन को . शुद्ध बनाने की प्रक्रिया है और ध्यान मन को स्थिर करने की । शुद्ध मन ही स्थिर हो सकता है, इसलिए पहले मन की शुद्धि पर विचार करना चाहिए कि किन-किन साधनों से, किन प्रक्रियाओं से मन को निर्मल एवं निर्दोप बनाया जाय ! इसलिए आभ्यन्तर तप के चौथे क्रम में 'स्वाध्याय तप' रखा गया है । यहां हम स्वाध्याय तप पर विचार कर रहे हैं।
स्वाध्याय को परिभाषा स्वाध्याय की परिभाषा करते हुए बताया गया है- सुष्ठ आ-मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः'-सत् शास्त्रों को मर्यादा पूर्वक पढ़ना, विधि सहित अच्छी पुस्तकों का अध्ययन करना स्वाध्याय है ।
१ आचार्य अभयदेव- स्वानांग टोका ५।३।४६५
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४५८
उनमें अनेस भवों में संनित दुष्कर्म को स्वाध्याय द्वारा क्षण भर में रागावर जा सकता है।
स्वाध्याय का फल बताते हुए भगवान ने कहा है---स्वाध्याग- प्रकार से ज्ञान की उपासना है, इस कारण स्वाध्याय करने से शान सम्बन्धी ज्ञानावरण कमों का दाय हो जाता है । समाए नामावनिर फम्म सवेई।
स्वाध्याय स्वयं में एक बहुत बड़ी तपश्नया है। इने सबसे बड़ा मानते हुए भागायों ने कहा है
न वि अस्थि न वि अ होही सन्माय समं तपोकम्मर बाध्याग एक अभूतपूर्व तग। इसकी बराबरी का तप तीन कभी हुआ है, वर्तमान न कही है और न भविष्य में भी होगा। मार देखिए कितनी बड़ी बात कही गई है-स्वाध्याय के विषय में । सामान के समान विश्व में दूसरा कोई ता नहीं- इसका अ साध्याम अपनी दृष्टि से एकही अनामत तग है।
वैदिक सन्धों में भी जन पमं की भांति स्वाध्याय को माना गया . कला-तपोहि स्वाध्याय:'--स्वाध्यायलय में एकता
. भागना में भी भी प्रमाद नहीं करना चाहिए- स्वाप्यागान मा प्रमः। सामान में उतर गावा, अर्धा जो दवार को पारचार घटाई को मिली हो जाती है और मामले को भी दिन माता है की उसमें जानने का दावा, मी मारमा
माना frier पारो ना frat TRA
मनाभी
वाल्यापापिष्टता संप्रयोगः ... Maiy
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स्वाध्याय तप
४५७ है, और प्रत्येक क्षण वह अभिन्न मित्र की भांति सद्परामर्श व सद्विचार दे सकते हैं । अंग्ने जी के प्रसिद्ध विद्वान टपर की उक्ति है- बुक्स आर अवर वेस्ट फ्रेन्डस-पुस्तकें हमारे सर्वश्रेष्ठ मित्र हैं। एक विचारक ने कहा है"पुस्तकें ज्ञानियों की जीवित समाधि है । किसी पुस्तक में-ऋषभदेव, अरिष्ट नेमि एवं महावीर हैं तो किसी में राम, कृष्ण और युधिष्ठिर । किसी में वाल्मीकि, सूरदास, तुलसीदास एवं कबीर हैं तो किसी में ईसा, मूसा, और हजरत मुहम्मद ! जब पुस्तक को खोलते हैं तो वे महा पुरुष जैसे उठकर हम से बोलने लग जाते हैं और हमारा मार्गदर्शन करने लगते हैं।"
रोटी मनुष्य की सर्वप्रथम आवश्यकता है, वह जीवन देती है, किन्तु सत् शास्त्र उससे भी बड़ी आवश्यकता है । वह जीवन की कला सिखाता है। इसीलिए महात्मा तिलक ने एक वार कहा था- "मैं नरक में भी उन सत् शास्त्रों का स्वागत करूंगा, क्योंकि उनमें वह अद्भुतशक्ति है कि वे जहां भी होगे वहां अपने-आप स्वर्ग बन जायेगा।" इसलिए सत् शास्त्र का अध्ययन जीवन में अत्यन्त आवश्यक है। इसी कारण उसे शास्त्रं तृतीयं लोचनं:तीसरी आंख कही है। अपनी ही नहीं, किन्तु समस्त जगत की -सर्वस्य लोचनं शास्त्र--आंख है-- शास्त्र ! व्यावहारिक जीवन में सत्शास्त्र के अध्ययन का यह महत्त्व है । आध्यात्मिक दृष्टि से शास्त्र-स्वाध्याय का इससे भी अधिक महत्व है। भगवान महावीर ने अपने अन्तिम उपदेश में कहा है--
सज्शाएवा निउत्तण सव्वदुक्खविमोक्खणो' स्वाध्याय करते रहने से समस्त दु:खों से मुक्ति मिलती है। जन्म . जन्मान्तरों में संचित किये हुए अनेक प्रकार के कर्म स्वाध्याय करने से क्षीण हो जाते हैं
बहुभवे संचियं खलु सज्झाएण खणे खवइ'
१ नीतिवाक्यामृत ५।३५ २ उत्तराध्ययन २६।१० ३ चन्द्रप्रज्ञप्ति ६१
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. जैन धर्म में तप जाते थे । और कण्ठस्थ शास्त्र तभी याद रह सकते थे जब उनका बार-बार स्वाध्याय-चिन्तन मनन, परावर्तन आदि किया जाता हो । जो प्राचीन विशाल साहित्य आज लुप्तप्रायः हो गया है उसका भी मुख्य कारण है-स्वाध्याय . का अभाव । और आज जो कुछ विद्यमान है वह भी स्वाध्याय के बल पर ही। वर्तमान के आगम स्वाध्याय की ही देन है ! ज्ञान को स्थिर, सुरक्षित एवं. जनोपयोगी बनाने की दृष्टि से जैन आगमों में स्वाध्याय के पांच भेद बताये गये हैं। वहां सिर्फ शास्त्र पढ़ना ही स्वाध्याय नहीं, किन्तु उस पर विचार करना, पढ़े हुए का स्मरण करना, और यहां तक कि प्रवचन आदि के रूप ... में ज्ञान का कथन करना भी स्वाध्याय की कोटि में माना गया है।
स्वाध्याय के पांच प्रकार यो वताये गये हैं___ समाए पंचविहे पण्णत्ते तं जहा
वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्टणा, अणु पेहा, धम्मकहा।' स्वाध्याय पाँच प्रकार के हैं- १ वाचना, २ पृच्छना, ३ परिवर्तना ४ अनुप्रेक्षा, ५ धर्मकथा। . १ वाचना-सद्ग्रन्थों को पढ़ना, उनका वाचन करना ! यदि स्वयं पढ़ने में असमर्थ हों तो दूसरों से सुनना, अथवा दूसरों को सुनाना यह सब वाचना . में आ जाता है । नियमपूर्वक प्रतिदिन कुछ-न-कुछ वाचन करना चाहिए। जो व्यक्ति पढ़ने का शौकीन होता है, जिसे पढ़ने में आनन्द आता है वह बिना अधिक श्रम के ही अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लेता है । नियमित १५ मिनट पढ़ते रहने से कितना पढ़ सकते हैं यह अभी बताया ही जा चुका है अतः स्वाध्याय के प्रथम अभ्यास में वाचन करने की आदत बढ़ानी चाहिए, नियमित रूप से धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन करते रहना चाहिए। .
वाचना स्वाध्याय क्रमका वर्णन करते हुए प्राचीन आचार्यों ने कहा . है-साधक को पहले अपने आचार मूलक प्रत्यों को पढ़ना चाहिए, जिनसे फि आचार विधि या सदाचार की प्रेरणा मिले, उसका ज्ञान हो। उस बाद स्वदर्शन विषयक ग्रन्यों को पढ़ना चाहिए ताकि शुद्ध आचार के साथ ..
१ भगवती मूग २५७ तथा स्थानांग एवं उववाई आदि में भी
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देव का साक्षात्कार होने लगता है। यहां स्वाध्याय को जप के रूप में लिया गया है, क्योंकि जप, माला, आदि भी स्वाध्याय के अन्तर्गत आते हैं जिसका वर्णन भी आगे किया जा रहा है ।
स्वाध्याय के लाभ शास्त्रों में स्वाध्याय का यह जो महत्व बताया गया है, व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से उसका जो गुण-गौरव गाया गया है उसका विचार करने से हमारे सामने चार बातें आती हैं
१. स्वाध्याय से जीवन में सद्विचार आते हैं, मन में सद् संस्कार जागृत होते हैं ।
२. स्वाध्याय से प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धि होती है । हजारों वर्षों के अनुभवों की थाती स्वाध्याय के द्वारा हमें प्राप्त होती है। और जिन महापुरुपो ने दीर्घकालीन साधनाएं करके जो ज्ञान प्राप्त किया उस ज्ञान का लाभ बहुत ही सहज में मिल जाता है।
३. स्वाध्याय से मनोरंजन तो होता ही है, आनन्द भी आता है और योग्यता भी प्राप्त होती है ।
४. स्वाध्याय करते रहने से मन एकाग्र एवं स्थिर होता है। जीवन में नियमितता आती है और निर्विकारता भी । जैसे अग्नि से सोने-चांदी का मल दूर होता है वैसे ही स्वाध्याय से मन का मैल दूर हो जाता है।
सतत स्वाध्याय करते रहने से ज्ञान का विस्तार होता है। यदि नियम पूर्वक हम १५ मिनट भी प्रति दिन पढ़ते रहें तो कितनी पुस्तकें पढ़ सकते हैं इसका अनुमान है कुछ आपको? कल्पना करिए यदि एक मिनट में ३०० शब्द भी पढ़े जाय और पन्द्रह मिनट रोज पढ़े तो एक मास में १ लाख ३५ हजार शब्दों की एक पुस्तक पढ़ी जा सकती है। अर्थात् २२० से २२५ पेज तक को एक पुस्तक प्रतिमास पढ़ी जा सकती है सिर्फ १५ मिनट नियमित पड़ने से । इस प्रकार देखिए कि सतत स्वाध्याय करने वाला कितना विस्तृत अध्ययन कर सकता है।
स्वाध्याय के पांच भेद प्राचीन समय में वेद एवं आगम जितने भी शान थे वे प्रायः कंठस्य रसे
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. जैन धर्म में तप .. आगमों का जो रूप है वह इस रूप में मिलता और हमें इतनी तत्व की बातें जानने को मिलती ? तो पृच्छना, ज्ञान को सत्योन्मुखी बनाती है,स्थिर बनाती है। पश्चिम के प्रसिद्ध दार्शनिक डेकार्ट, कांट, हेंगल आदि ने तो संशय को ही दर्शन का आदि सूत्र माना है। मनुष्य में जितनी मात्रा में इन्टेलेक्चुअल क्युरियासिटी-बौद्धिक कुतूहल होता है, वह उतना ही अधिक ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति करता है।
पृत्छना में दो बातों का विशेष ध्यान रखा जाता है-पूछना-जिज्ञासा पूर्वक होना चाहिए। सिर्फ दिमाग चाटने को ऊट-पटांग प्रश्न करना, ऐसे प्रश्न जिनका कोई तर्क युक्त समाधान न हो, या जिन से द्वेष व विवाद खड़ा होता हो इस प्रकार के प्रश्न नहीं करने चाहिए । प्रश्न में शुद्ध जिज्ञासा,ज्ञान .. प्राप्ति का निर्दोप उद्देश्य होना चाहिए।
दूसरी बात-जिससे पूछा जाय-उसका विनय व सत्कार करना चाहिए। प्रश्न की विधि है-प्रश्न करने से पूर्व हाथ जोड़कर उनसे पूछे कि"मैं आपसे अमुक वात पूछना चाहता हूं आप कृपा कर इसका उत्तर देंगे तो बहुत ही आभारी होऊंगा।" यह पूछने पर गुल्जन आदि उत्तरदाता जब प्रसन्न होके स्वीकृति दें तभी प्रश्न को ठीक ढंग से उनके सामने रखना चाहिए। समाधान पाकर फिर उनका आभार प्रकट करना चाहिए और विनय पूर्वक उठना चाहिए-प्रश्नोत्तर में विनय की शैली हमें गणधर गौतम के व्यवहार से सीखनी चाहिए। वे प्रश्न करने से पूर्व प्रभु की वन्दना कर अनुमति लेते हैं, स्वीकृति प्राप्त कर अपना प्रश्न रखते हैं और समाधान पाकर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहते हैं. - तहमेयं भंते ! प्रभु आपका कयन सत्य है, में इस पर श्रद्धा-विश्वास करता हूं। और फिर विनय पूर्वक बन्दना करके उठते हैं। प्रश्नोत्तर की यह बहुत ही सुन्दर शैली है, इसी शैली का . अनुसरण कर हमें अपनी जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त करना चाहिए। वास्तव में तो जिज्ञासा पूर्वक एवं विनय पूर्वक पूघ्ना-बही पृच्छना स्वाध्याय है। अविनय पुर्वा, या ऊट-पटाग प्रश्न करना स्वाध्याय नहीं है। . ३ परिवर्तना-पढ़े हए शान का, कंठस्थ किये हुए तत्व, पलोक आदि
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शुद्ध विचार का ज्ञान प्राप्त हो, और आचार दृढ़ हो । स्व-दर्शन के बाद अन्य दर्शनों के ग्रन्थों का भी अवलोकन करना चाहिए, इससे दर्शनों व धर्मों का तुलनात्मक ज्ञान होगा, सत्य-असत्य की सूक्ष्म पहचान भी होगी और स्व- . दर्शन की आस्था अधिक दृढ़ होगी। इसी क्रम से ग्रन्थों को पढ़ने का चुनाव करना चाहिए । एक विद्वान ने भी इस विषय में कहा है
पहले वह पढ़ो, जो आवश्यक हों, फिर वह पढ़ो, जो उपयोगी हों,
उसके बाद वह पढ़ो, जिससे ज्ञान बढ़ता हो, २. पृच्छना- पढ़ते समय बहुत से प्रकरण, बहुत सी बातें ऐसी भी आती है जो पाठक की समझ में नहीं आए। अथवा उसमें कई प्रकार की शंकाएं उठने लगे- तब अपने गुरु जनों के पास, अथवा जो अधिक ज्ञानी हैं उनके पास विनयपूर्वक पूछना और उनसे समाधान प्राप्त करना यह पृच्छना स्वाध्याय है।
पृच्छना-पूछना स्वाध्याय व ज्ञानप्राप्ति का एक महत्त्व पूर्ण अंग है। क्योंकि शंका व जिज्ञासा होना तो मनुष्य मात्र का सहज स्वभाव है। जव तक केवलज्ञान प्राप्त न होगा शंका एवं जिज्ञात तो उठती ही रहेगी और उठनी ही चाहिए । शका दो को ही नहीं होती-या तो सर्वज्ञ को, या सर्वथा जड़बुद्धि को। जिसमें थोड़ा भी ज्ञान का स्फुरण होगा-विचारों की हलचल होगी उसे संशय, शंका, जिज्ञासा अवश्य होगी। संशय कोई बुरा नहीं है। आगमों में स्थान-स्थान पर आता है-गौतम स्वामी ने अमुक वात सुनी, अमुक वात देखी- वस मन संशय से, जिज्ञासा से आन्दोलित हो उठाजाय संसए, जायसड्डे जाय फोउहल्ले-ये शब्द जैन सूत्रों में सैकड़ों वारं . आये हैं, और यह सूचित करते हैं कि संशय, जिज्ञासा-जीवित मस्तिष्क का . चिह्न है, प्रबुद्ध ज्ञान चेतना का लक्षण है । गीता में इसीलिए तो कहा है
न संशय मनारुह्म नरो भद्राणि पश्यति संपाय किये बिना-मनुष्य अनेक अच्छी-अच्छी बातें देख नहीं पाता । यदि गौतम स्वामी जिज्ञासा करके भगवान से प्रश्न नहीं पूछते तो क्या आज जन
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जैन धर्म में तप. द्वारा पढ़ा जाता है और उनकी स्तुति-प्रार्थना में तन्मय होकर साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है।
मन को स्थिर व तन्मय बनाने के लिए, अशुभ विचारों से हटाकर शुभ .. विचारों में लीन होने के लिए जो जप किया जाता है-वह वीतराग साधना है, निष्काम जप है । और किसी कामना व सिद्धि के लिए इप्टदेव का जप करना सराग-साधना है, सफाम जप है ।
जप करने की विधि के अनुसार उसके तीन भेद और भी है
१ मानस जप-मंत्र, पाठ,स्तोत्र आदि का चिन्तन करते समय मन-हीमन अक्षरों व पदों की आवृत्ति करना- मानस जप है । मानस जप में शब्द .. होठों पर नहीं आने चाहिए, सिर्फ मन के भीतर ही उसकी ध्वनि उठे और . वहीं विलीन हो जाय-मन उसी में रमता चला जाय-उस दशा को मानस जप कहा जाता है । यह सबसे श्रेष्ठ जप विधि है । ___ २. उपांशुजप- मंत्र आदि की ध्वनि भीतर से उठकर होठों तक आकर टकराती है, जीभ भी स्पंदित होती है, हिलती है, किन्तु शब्द होठों से बाहर निकल कर किसी दूसरे को सुनाई नहीं देते, सिर्फ उस मंत्र की ध्वनि अपने .. कानों तक ही पहुंच पाय-इतनी धीमी आवाज से पाठ करना --उपांशु जप .. है । यह जप की द्वितीय विधि है। .
३. भाष्य जप-शब्दों व मंत्र-श्लोक आदि का खूब जोर-जोर से . उच्चारण किया जाता है । यह एक प्रकार का सामूहिक रूप ले लेता है, जैसे प्रार्थना आदि सब लोग मिलकर गाते हैं, स्तोम आदि उच्च स्वर से सुनाये जाते हैं । जप के विशेष अभ्यासी आचायो का कथन है-माप्य जग साधारण श्रेणी का जप है। उपांशु जप में इससे सौगुना फल मिलता है तया । मानस जप में हजार गुना !
जप में द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव का भी बहुत विचार किया जाता है । जप करते समय सादे व स्वच्छ वेश में रहना चाहिए, सूत की या लकड़ी की
गाला रसना चाहिए, स्वच्छ और शांत स्थान में बैठना चाहिए । प्रात:कात ... का या संध्याकाल का उपयुक्त समय होना चाहिए, शरीर चिन्ताओं से निवृत्त
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को स्मृति में स्थिर रखने के लिए बार-बार दुहराना, पुनरावर्तन करनापरिवर्तना है।
याद करके, उसे पुनः दुहराया नहीं जाय, सीखा हुआ पाठ यदि बारवार पलटा नहीं जाय-तो धीरे-धीरे वह स्मृति से मिट जाता है, धुंधला होकर विस्मृत-सा हो जाता है। रटा हुआ ज्ञान यदि दुहराया न जाय तो भूला जाता है । एक कहावत है
पान सड़े, घोड़ा अडं विद्या वीसर जाय । तवे पर रोटी जलै कहो चला किण न्याय !
गुरु जी ! फेरया नांय ! पान को रखकर यदि पलटा नहीं जाय तो वह पड़ा-पड़ा सड़ जाता है । घोड़े को यदि घुमाया नहीं जाय तो वह खड़ा-खड़ा अड़ जाता है, विना घूमे घोड़ा अकड़ जाता है। तवे पर रोटी सेकने को डाल दी लेकिन डालकर . . फिर पलटी नहीं, तो एक तरफ पड़ी-पड़ी रोटी जल कर कोयला बन जायेगी, वैसे ही विद्या रटकर याद तो कर ली, लेकिन फिर कभी चितारा नहीं, उसको पुनरावर्तन नहीं किया तो वह भी भूली जाती है । इसलिए इन सबको 'फेरना , पड़ता है, यह फेरना ही परिवर्तना है ।
परिवर्तना से ज्ञान स्थिर होता है, सीखी हुई विद्या अधिक मजबूत होती है। ज्ञान को जितना अधिक दुहराया जायेगा वह उतना ही अधिक स्थिर होगा एवं सुतीक्ष्ण भी होगा।
जप का स्वरूप मंत्र का जप करना, पाठ करना, स्तोत्र आदि पढ़ना-यह सब भी .. . परिवर्तना स्वाध्याय के अन्तर्गत आते हैं। क्योंकि जप आदि में मंत्र-पाठ आदि का बार-बार चिन्तन करना होता है, स्मरण होता है, अतः यह भी परिवर्तना ही है।
जप के दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं-१. मन को स्थिर करने के लिए तथा ... २. इप्ट कार्य की सिद्धि के लिए। दोनों ही लक्ष्यों के लिए जप में इप्टदेव . का स्मरण किया जाता है । उनके नामाक्षरों को विशिष्ट मंत्रों द्वारा, स्तोत्रों
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जैन धर्म में तप . जेट्ठो न परियाएण तो वन्दे--' शास्त्र का प्रवचन करने वाला बड़ा है, दीक्षा पर्याय मात्र से कोई बड़ा नहीं होता है । अतः पर्याय ज्येष्ठ भी अपने कनिष्ठ किन्तु शास्त्र के व्याख्याता को नमस्कार करें-यह आचार्य भद्रवाहु का कथन है, जिसमें धर्म कथा करने वाले की ज्येष्ठता बताई गई हैं।
. चार प्रकार की धर्मकया धर्म कथा के चार भेद बताये गये हैं
आक्षेपणी-स्याद्वाद-ध्वनि से युक्त अपने सिद्धान्तों का मंडन करने वाली तथा उपदेश आदि आक्षेपणी कथा कहलाते हैं।
विक्षेपणी-अपने सिद्धान्त के मंडन के साथ दूसरे सिद्धान्त में रहे हुए दोपों का वर्णन कर स्व-सिद्धान्त में दृढ़निष्ठा पैदा कराने वाली विक्षेपणी . कथा है । स्व-सिद्धान्त का ज्ञाता होना सरल है, पर-सिद्धान्त का ज्ञाता होना कठिन है, उसमें भी पर सिद्धान्त का खण्डन करना और भी कठिन है । क्यों कि दूसरे मत के खण्डन करने से परस्पर द्वेप, ईर्ष्या आदि बढ़ने की संभावना रहती है, साधारण सी बात पर भी लोग वक्ता को उलटे 'निंदक' कहने लग जाते हैं, इस कथा का प्रवचन करते समय वक्ता को बहुत ही कुशलता, दक्षता एवं विवेकशीलता रखनी होती है ताकि श्रोताओं पर प्रवचन का सुन्दर प्रभाव पड़े ! और दूसरों में भी द्वेप न फैले ।
संवेगनी-कर्मों के विपाक फलों की विरसता बताकर संसार से वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा संवेगनी है।
निर्वेदनो-हिंसा-असत्य आदि के कटुफल बताकर अहिंसा सत्य, ब्रह्मचर्य . . का उपदेश देकर व्यक्ति को त्याग मार्ग की ओर मोड़ने वाली कथा निवेदनो
इस प्रकार स्वाध्याय के ये पांच भेद बताये हैं। इनके आधार पर साधक अपना जीवन अधिक से अधिक स्वाध्याय तप में लगाकर श्रत को आराधना करता है, ज्ञान की उपासना करता है, इससे ज्ञान का दिव्य प्रकार प्राप्त करता हुआ जीवन को सफल बनाता है ।
१ आवश्यक नियुक्ति ७.४
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स्वाध्याय तप
होकर स्थिर आसन से बैठना चाहिए तथा मन को अपने इष्ट देव में लगा देना चाहिए। मंत्र उच्चारण करते समय उसके अर्थ का चिन्तन करने से, इष्टदेव के स्वरूप का ध्यान करने से मन स्थिर हो जाता है। जिसका विस्तृत वर्णन ध्यान प्रकरण में किया गया है । इन सब बातों का विचार करः जप करना चाहिए । जप में माला, स्तोत्र पाठ, लोगस्स का ध्यान, नवकार मंत्र का स्मरण तथा अन्य इष्ट मंत्रों का स्मरण किया जाता है। यह सब परिवर्तना-स्वाध्याय है । ध्यान के भेदों में भी इसे धर्म ध्यान के स्वरूप में बताया गया है।
४ अनुप्रेक्षा-तत्व के अर्थ व रहस्य पर विस्तार के साथ गम्भीर चिंतन करना । अनुप्रेक्षा में एक प्रकार का चिंतन प्रारम्भ किया जाता है, फिर उसी सुत्र को पकड़कर धीरे-धीरे आगे बढ़ा जाता है और उससे सम्बन्धित विषयों पर चिंतन चलता जाता है। अनुप्रेक्षा-एक प्रकार की सीढ़ियां है जो तन्मयता के महल पर चढ़ने के लिए एक से दूसरी सीढ़ी, दूसरी से . तीसरी सीढ़ी पर चढ़ते हुए आगे से आगे ऊंचाई पर पहुंचा जाता है। .. इसका विशेप वर्णन ध्यान के संदर्भ में किया गया है। क्योंकि अनुप्रेक्षा में एक प्रकार की ध्यान की स्थिति ही आ जाती है ।
धर्मकथा भी स्वाध्याय है ५ धर्मकथा- स्वाध्याय का यह पांचवा भेद है। पढ़ा हुआ, चिंतन मनन किया हुमा तथा अनुभव से प्राप्त किया हुआ श्रुत जब लोककल्याण. .. की भावना से शब्दों द्वारा प्रकट कर दूसरों को समझाया जाता है तब वह तत्त्व कथन--धर्म फया कहलाता है । इसे ही प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान आदि कहा जाता है।
धर्म कथा को पांचवे स्थान पर रखने का एक कारण यह भी है कि साधारण ज्ञानी कभी प्रवक्ता व उपदेशक नहीं बन सकता। इसके लिए बहुत अध्ययन, अनुभव और स्व-मत तथा पर-मत का प्रामाणिक ज्ञान होना चाहिए। मन निर्भीक होना चाहिए, तथा वाणी में शिष्टता, मधुरता आदि गुण होने चाहिए। प्रवचन करने वाला धर्म में ज्येष्ठ माना जाता है-भासंतो होइ
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जैन धर्म में तप ... सकता है, धूए को भी वाँधा जा सकता है । देवता और इन्द्र आदि को भी. अपने अधीन किया जा सकता है किंतु मन को काबू में करना बहुत कठिन है । वहुत ही मुश्किल है । गणधर गौतम ने इसे दुस्साहसिक दुष्ट अश्व कहा है जो अनियंत्रित दौड़ लगा रहा है और श्रीकृष्ण ने इसके निग्रह को वायु को पकड़ने से भी अधिक कठिन बताया है । संसार के बड़े-बड़े योद्धा मन से हार गये हैं और मन को वश में करने का मार्ग खोजते आये हैं। आज भी लोग.. पूछते हैं-"महाराज ! इस मन को वश में कैसे करें ? सामायिक करते हैं, स्वाध्याय करते हैं, पूजा करते हैं किन्तु मन तो दुनियां भर में भटकता रहता है। इसको एकाग्र करने का क्या उपाय है ?"
__ मानसिक एकाग्रता का साधन वास्तव में साधना में जब तक मन एकाग्र नहीं होता तब तक आनन्द नहीं आता । क्योंकि बाहर में जब मन की दौड़धूप रुकेगी तभी भीतर में शांति की, आनन्द की हिलोर उठेगी। तो आज हमें इसी बात पर विचार करना है कि तपस्या के विविध अंगों की साधना-आराधना में मन को वश में करने की क्या विधि है ! मन को वश में करने की विधि पर विचार करते हैं तो गीता का यह सूत्र हमारे सामने आ जाता है
अभ्यासेन तु कौन्तेय ! वैराग्येण च गृह्यते ।" हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह मन दो प्रकार से वश में किया जा सकता है अभ्यास के द्वारा और वैराग्य के द्वारा। अभ्यास का अर्थ है एकाग्रता की साधना और वैराग्य का अर्थ है--विपयों के प्रति विरक्ति । एकाग्रता के अभ्यास व विषय-विरक्ति के द्वारा मन को काबू में किया जा सकता है । ___ भगवान महावीर से भी जब मन को स्थिर करने का उपाय पूछा गया तो उन्होंने दो उपाय बताये हैं--सज्झाय झाण संजते स्वाध्याय और व्यान से युक्त मुनि अपने मन को स्थिर रख सकते हैं। स्वाध्याय और ध्यान-ये
१ नगवद् गीता ६३५ २ उत्तराध्ययन
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ध्यान-तप
चंचल मन योगीराज आनन्दघनजी ने भगवान की स्तुति करते हुए कहा हैप्रभो ! मैं आपके चरणों में मन को लगाना चाहता हूं जैसे भंवरा फूलों के रस में लीन हो जाता है वैसे ही मैं मन को आपके चरणों में लीन कर देना चाहता हूं किन्तु यह मन बड़ा चंचल है, आपके चरणों में क्षण भर ठहरता है और फिर भाग जाता है । वश में आता ही नहीं। मैंने तो समझा
में जाण्यु ए लिंग नपुंसफ सकल मरवने ठेले । बोजी घाते समरथ वे नर एह न कोई न झेले।
कुंथ जिनवर रे ! मन किम हो न बुझे । यह मन नपुंसक है । (संस्कृत में मनस् शब्द को नपुंसक लिंगी माना है।) और मैं मदं हूं, समर्थ पुरुष हूं इसको शीघ्र ही हराकर अपने अधीन कर लूंगा! पर यह नपुंसक तो ऐसा जबर्दस्त निकला कि बड़े-बड़े समर्थ मनुष्यों को भी धूल चटा देता है । वीरों को भी भटका देता है और कैसे भी वश में नहीं आता।
वास्तव में मन की ऐसी ही स्थिति है। पवन को पकड़ कर रखा जा .
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. जैन धर्म में तप ध्यान और वैराग्य रूप लाठी यदि हाथ में रहेगी तो दुर्विचार दूर से हो हट जायेंगे पास में नहीं फटक सकेंगे और वे हृदय को अपवित्र व चंचल नहीं बना सकेंगे ! ___तो स्वाध्याय और ध्यान की लट्ठी से दुर्विचार व विकल्प दूर भग जाते हैं और मन स्थिर व पवित्र बना रहता है । स्वाध्याय के विषय में पिछले प्रकरण में काफी प्रकाश डाला जा चुका है यहां ध्यान के सम्बन्ध में ही विशेष विचार करना है।
ध्यान की परिभाषा मन की एकाग्र अवस्था का नाम ध्यान है। विचारकों ने मन के कई भेद बताये हैं- कोई मन पागल के जैसे इधर-उधर भटकता रहता है-वह विक्षिप्त मन कहलाता है । कोई मन विषयों की भाग दौड़ में कभी स्थिर होता है कभी चंचल होता है-उसे पातायात मन कहते हैं । विषयों से हटकर मन कभी-कभी थोड़ा सा स्थिर भी हो जाता है किन्तु उसमें शांति नहीं रहती वह श्लिष्ट मन कहलाता है तथा जो मन प्रभु भक्ति में, आत्मचिंतन में एवं सद् शास्त्रों के स्वाध्याय मनन में निर्मल एवं स्थिर बन जाता है उसे सुलीन मन कहा गया है । सुलीन मन ही वास्तव में ध्यान का अधिकारी बन सकता है।
ध्यान का सीधा सा अर्थ है- मन की एकाग्रता ! आचार्य हेमचन्द्र ने बताया है- घ्यानं तु विषये तस्मिन्लेफप्रत्ययसंतति:१ अपने विषय में (ध्येय में) मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है। आचार्य भद्रबाहु ने भी यही बात कही है-चित्तस्सेगग्गया हवा झागं.-२ चित्त को किसी भी विषय पर स्विर करना, एकाग्र करना ध्यान हैं । साधारण वोलचाल की भाषा में भी हम कहते हैं-~'इस पर ध्यान दो। आपका ध्यान किधर है ?" इन शब्दों से यही भाव प्रकट किया जाता है कि आपके मन का झुकाव, मन का लगाव . किधर है ! मन जहां भी, जिस विषय में लग गया वहां वह जब तक स्थिर
१ अभिधाननितामणि कोप २४ २ आवश्यक नियुक्ति १४५६
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दोनों ही मन को एकाग्र करने के अमोघ साधन हैं । मन में जब-जव दुर्विचार और विकल्प आयें तब-तव स्वाध्याय में जुट जाय, ध्यान करने का अभ्यास करें तो मन उन दुर्विचारों से हटकर सद्विचारों में स्थिर हो सकता है । पुराने संत एक कहानी सुनाया करते हैं।
एक वेदान्ती ब्राह्मण था । छूआछूत का बहुत ही विचार रखता था । खास कर भोजन के समय यदि कोई उसके चौके को छू देता तो वह समूचा भोजन फैंक देता और या तो दिन भर भूखा रहता या फिर दूसरा भोजन बनाकर खाता । उसके कुछ मित्र थे जिनको वह कभी चोका छूने नहीं देता । उनकी छाया भी चौके में नहीं पड़ने देता । एक बार उन मित्रों ने ब्राह्मण की यह छूआछूत छुड़ाने के लिए उसे परेशान करना शुरू किया । जैसे ही वह खाना पकाकर हाथ मुंह धोकर खाना खाने बैठता, उनमें से एक मित्र आकर पूछता - पंडितजी आज क्या बनाया है ? देखें जरा हमें भी चखाओ और चह जवर्दस्ती चोके में घुसकर चौका भ्रष्ट कर देता । पंडितजी मन-ही-मन बड़बड़ाते रहते और विचारे दिन भर भूखे मरते । कई दिनों तक ऐसा ही होता रहा । पंडितजी परेशान हो गये । आखिर एक दिन उन्होंने किसी अनु भवी व्यक्ति से अपनी परेशानी बताई तो उसने एक उपाय बताया ।
दूसरे दिन पंडित जी ने खाना पकाकर हाथ मुंह धोये । एक बड़ी मोटी लट्ठी लेकर चौके में खाना खाने बैठे । रोज के अनुसार वह मित्र चौका छूने आने लगा तो पंडित जी ने लाठी हिलानी शुरू की— दूर रहो ! खाना खा रहा हूँ । लाठी देखकर मित्र वहीं रुक गया । वस, पंडित जी एक हाथ से लाठी हिलाते गये और एक हाथ से खाना खाते गये । दोस्तों ने आज चोका 'भ्रष्ट करने की हिम्मत नहीं की । पंडित जी ने खूब आनन्द के साथ भोजन कर लिया !
कहानी का सार यह है कि ब्राह्मण की तरह वह आत्मा है । पुराने दोस्तों की तरह काम, क्रोध, लोभ आदि दुविचार हैं। जब यह आत्मा भजन स्मरण रूप भोजन करने बैठता है तो दुविनार आकर उसके हृदय रूप चौके को अशुद्ध कर देते हैं, फलस्वरूप भोजन रुक जाता है । अब यदि ज्ञान, विवेक
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जैन धर्म में तप कारण ध्यान के भी दो भेद किये गये हैं शुभ-प्रशस्त ध्यान और अशुभ---. अप्रशस्त ध्यान ! अशुभ ध्यान दो प्रकार का है और शुभ ध्यान भी दो प्रकार का है-इस तरह घ्यान के कुल चार भेद हो गए । शास्त्र में बताया है
चत्तारि झाणा पणत्ता तं जहा
अट्टे झाणे, रोद्दे झाणे, धम्मे झाणे सुक्के झाणे ।' ध्यान के चार प्रकार कहे हैं--आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान ! ___ यद्यपि मूल आगमों में और प्राचीन आचार्यों ने इन अशुभ व्यानों को भी 'ध्यान' की संज्ञा दी है, और वह इसीलिए कि वह भी मन की एकार .. दशा तो है ही। बिल्ली चूहे पर, बगुला मछली पर और छिपकली कीड़ों मच्छरों पर कितनी दत्तचित्त होकर घात लगाए बैठती है, मन में पाप है, करता है, किन्तु एकाग्रता तो होती ही है-इस कारण वह भी 'ध्यान' माना है, हां, वह अशुभ ध्यान है। किन्तु बाद के कुछ आचायों ने तो अशुभ ध्यानों को 'ध्यान' के पद से ही हटा दिया है। उनका कहना है, 'ध्यान' जैसे पवित्र शब्द को इन अशुभविचारों के लिए प्रयोग ही क्यों किया जाय ? इसलिए . आचार्य सिद्धसेन ने ध्यान की परिभाषा भी यही कर दी-शुभंकप्रत्ययो ध्यानम् शुभ और पवित्र आलम्बन पर एकान होना ध्यान है। ..
कुछ लोग कहते हैं-ध्यान में मन को रोक दिया जाता है, किन्तु साधारण साधक के लिए मन को रोक पाना बहुत कठिन है। मन गतिशील हैं, वह .. कभी वहिर्मुखी होकर दौड़ता है और कभी अन्र्तमुखी हो जाता है । उसकी गति का कुछ न कुछ आलम्बन होता है । जब किसी बुरी वस्तु को देखता है तो उसी के आधार पर वह अशुभ विचार करने लगता है, विचारों में जब गहरा लीन हो जाता है तो वह अशुभ ध्यान करने लगता है. यदि आलम्बन अच्छा व गुभ मिल जाय, कोई भव्य व श्रेष्ठ वस्तु पर मन टिक जाय तो विचार भी शुभ हो जाते हैं, विचारों की लीनता बढ़ती है तो शुभ ध्यान हो
१ स्थानांग म४ २ द्वानिगद् द्वामितिका १८१११
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रहता है तब तक उस विषय का 'ध्यान' होता है । इसलिए 'ध्यान' का प्रथम अर्थ है-मन का एक विषय में स्थिर होना ।
ध्यान तप
ध्यान की दो धाराएँ
प्रश्न हो सकता है— मन का किसी विषय में स्थिर होना ही यदि ध्यान है तो फिर तो कोई कामी पुरुष यदि किसी स्त्री के रूप पर आसक्त होकर उसी का चिंतन करता हो, लोभी धन कमाने की योजना में ही मशगूल बना हो और कोई हत्यारा, चोर, पड्यन्त्र कारी अपनी स्कीम जमाने में यदि गहरा चिंतन करता हो तो वह भी एक विचार में लीन होता है क्या उसे भी ध्यान कहा जायेगा ?
पर दोनों में अन्तर
इसका उत्तर 'हां' में ही मिलेगा । वह पापात्मक चिंतन भी 'ध्यान' तो है ही । और इसीलिए आचार्यों ने 'ध्यान' के दो भेद किये हैं- शुभ ध्यान और अशुभ ध्यान ! जैसे एक गाय का दूध, और एक थूहर का ! दूध तो दोनों ही सफेद है और दोनों को ही दूध कहा जाता है, कितना है— एक जहर है एक अमृत ! एक ( थूहर का ) दूध मार डालता है - एक ( गाय का ) दूध जीवनी शक्ति देता है । इसी प्रकार ध्यान-ध्यान में अन्तर है। एक ध्यान शुभ होता है एक ध्यान अशुभ ! शुभ ध्यान मोक्ष का हेतु है, और अशुभ ध्यान नरक का ।
मन की गति जब बहिर्मुखी होती है-विषयों में, धन, परिवार आदि की चिन्ता में, मोह और लोभ में तथा क्रूरता विषयक हिंसा प्रधान विचारों में जब वह खोया रहता है तो उसकी धारा नीचे की ओर वहती है, अशुभ की ओर चलती है । और जब मन पवित्र विचारों से भरा होता है, दया, करुणा, कोमलता, भक्ति, विनय एवं आत्मस्वरूप का चिंतन करता हुआ अन्तर्मुखी होता है, तो उसकी धारा भी ऊर्ध्वमुखी होती है, वह शुभ की और गति करता रहता है ।
चित्त रूप नदी की दो धाराएं हैं-चित्तनाम नदी उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय पापाय च चित्त नाम की नदी दोनों ओर बहती है, कभी कल्याण की ओर और कभी पाप की ओर ! चित्त की उभयमुखी गति के
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जैन धर्म में तप कारणों का वर्गीकरण करते हुए आर्तध्यान के चार कारण एवं चार लक्षण बताये गये हैं । चार कारण ये हैं
१ अमणुन संपओग-अमनोज्ञ संप्रयोग-अप्रिय, अनचाही वस्तु का संयोग होने पर उससे पिंड छुड़ाने की चिंता करना कि कब यह वस्तु दूर हटे । जैसे भयंकर गर्मी हो, कड़कड़ाती सर्दी हो तब उससे छुटकारा पाने के . लिए तड़पना । किसी दुष्ट या अप्रिय आदमी का साथ हो जाये तो यह चाहना कि कैसे यह मेरा पल्ला छोड़े-इन विषयों की चिन्ता जब गहरी हो जाती है वह मन को कचोटने लगती है, और मनुष्य भीतर में बहुत ही दुस, और क्षोभ एवं व्याकुलता अनुभव करने लगता है । यही गहरी व्याकुलता अमनोज्ञ संप्रयोग-जनित है, अर्थात् अनिष्ट के संयोग से यह चिंता उत्पन्न होती है तथा अमनोज्ञ-वियोग-चिन्ता अर्थात् अनिष्ट संयोगं को दूर करने की तीव्र लालसा रूप आर्त ध्यान का प्रथम कारण है।
२ मणुन्न संपओग-मनोज्ञ संप्रयोग- मन चाही वस्तु मिलने पर, जो , प्रसन्नता व आनन्द आता है, वह उस वस्तु का वियोग होने पर विलीन हो जाता है, और आनन्द से अधिक दुःख व पीड़ा अनुभव होने लगती है । प्रिय का वियोग होने पर मन में जो शोक की गहरी घटा उमड़ती है वह मनुष्य को बहुत बड़ा सदमा पहुंचाती है, उससे दिल को गहरी चोट लगती है और आदमी पागल जैसा हो जाता है। अप्रिय वस्तु के संयोग से जितनी चिन्ता होती है प्रिय के वियोग में उससे भी अधिक चिन्ता व शोक की कसक उटती है। आतं ध्यान का यह दूसरा कारण है - मनोज्ञ वस्तु के वियोग को चिंता ।
३ आयंक सम्पओग-आतंकसंप्रयोग-आतंक नाम है रोग का, बीमारी का । रोग हो जाने पर मनुष्य उसकी पीड़ा से व्यथित हो जाता है और उसे दूर करने के विविध उपाय सोचने लगता है। रोगी कभी-कभी पीड़ा से व्यथित होकर आत्महत्या तक भी कर लेता है। रोग मिटाने के लिए भी वह बड़े वड़ा पाप व हिंसा आदि करने की भी सोचने लग जाता है-यह रोगचिता--. आत ध्यान का तीसरा कारण है।
४ परिजसिय काम-भोग संपओग-प्राप्त काम-भोग संप्रयोग-अथात् कान, नोग आदि की जो सामग्री, जो साधन उपलब्ध हए हैं, उनको स्थिर
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ध्यान तप
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जाता है। इसलिए यह बताया गया है कि शुभ व पवित्र आलम्बन पर मन जब स्थिर होता है, तो वह ध्यान या शुभध्यान ध्याने लगता है। वास्तव में ध्यान का अर्थ यही है कि अशुभ विचार प्रवाह को रोक कर शुभ की ओर मोड़ देना और शुभ में ही बढ़ते जाना। मन की अतमुखता, अन्तरलीनता यह शुभ ध्यान है । मन अधिक समय तक न अशुभ में स्थिर रहता है और न शुभ में। उसमें प्रवाह की भांति चंचलता होती है, वह चंचलता कुछ समय के लिए रुक सकती है। जैन आचार्यों ने बताया है - मुहुर्तान्तर्मनः स्थर्य ध्यानं छद्मस्य योगिनाम् --छद्मस्थ साधक का मन अधिक से अधिक अन्तमुर्हत भर (४७ मिनट) तक एक विषय में एक आलम्बन पर स्थिर रह सकता है। इससे अधिक समय स्थिर रहने की शक्ति उसमें नहीं होती है, और यदि इससे अधिक समय भी मन एक आलम्बन पर स्थिर रह जाय तो समझ लो फिर वीतराग दशा प्राप्त हो गई, फिर मन की चंचलता समाप्त है, एक रूप से मन ही वहां समाप्त हो जाता है, अर्थात् मन को पूर्ण रूप से जीत लिया जाता हैं, किन्तु छद्मस्थ साधक जब तक मन पर पूर्ण विजय नहीं कर पाता वह एक मुहुर्त से कम ही अपने मन को एक विषय पर स्थिर रख सकता है, उसके बाद विपय व आलम्बन बदल जाते हैं, हां शुभ ध्यान का प्रवाह तो जरूर चलता रहता है, किन्तु मन की निष्पंदता टूट जाती है ।
__ आतध्यान का स्वरूप व लक्षण चार ध्यानों में दो ध्यान अशुभ माने गये हैं-आर्तध्यान एवं रोद्रध्यान ! आर्त का अर्थ है-दुःख, पीड़ा, चिन्ता शोक आदि से सम्बन्धित भावना । जब भावना में दीनता, मन में उदासीनता, निराशा एवं रोग आदि से व्याकुलता, अप्रिय वस्तु के वियोग से क्षोभ तथा प्रिय वस्तु के वियोग से शोक आदि के संकल्प मन में उठते हैं तब मन की स्थिति बड़ी दयनीय एवं अशुभ हो जाती है । इस प्रकार के विनार जब मन में गहरे जम जाते हैं और मन उनमें सो जाता है, चिन्ता-शोक के समुद्र में डूब जाता है तब वह आर्तध्यान की कोटि में पहुंच जाता है। ये विचार कई कारणों से जन्म लेते हैं उन
१ योग शास्त्र ४।११५
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जैन धर्म में तप
है | दुखी व्यक्ति जब अपना दुःख दूर होता नहीं देखता है, दूसरों की सहानुभूति और सहयोग की जगह अपमान एवं प्रताड़ना पाता है तो वह प्रायः आक्रामक हो जाता है । हिन्दी में कहावत है - भीगी बिल्ली खम्भा नोंचेअर्थात् असहाय व्यक्ति, हारा हुआ आदमी किसी अन्य रूप में अपना रोप प्रकट करता है, उस रोष व जोश में दीनता की जगह क्रूरता व हिंसक आक्र मण की भावनाएं भड़क उठती हैं—यही आक्रामक भावना जब तक भावना में रहती है, चिन्तन में रहती है तब तक वह रौद्र व्यान होता है, और जब आचरण में आ जाती है तो व्यक्ति को रोद्र आचरण वाला बना देती है । रौद्र ध्यान की उत्पत्ति जिन चार कारणों से होती है उनका वर्णन करते हुए शास्त्र में कहा गया है
१ हिसाणुबंधी - हिसानुबंधी - किसी को मारने करने के सम्बन्ध में चिन्तन करना, गुप्त योजनाएं विचारलीन होना - हिसानुबंधी रौद्र ध्यान है ।
धोखा देने छल प्रपंच
२ मोसाणुबंधी - मृपानुबंधी - दूसरों को ठगने, करने सम्बन्धी चितन करना तथा सत्य तथ्यों का अर्थ बदलकर लोगों को गुमराह करने सम्बन्धी चितन - अर्थात् झूठ फरेब का चिन्तन मृपानुबंधी रौद्र ध्यान है ।
पीटने या हत्या आदि बनाने के लिए गहरा
३ तेयाणुबंधी - स्तेनानुबंधी चोरी, लूट खसोट आदि के उपायों व उनके साधनों पर विचार करना चोरी के नये-नये रास्ते सोचते रहना । कैसे उसको छिपाना आदि ये सब चिन्तन करना स्तेनानुबंधी रोद्र ध्यान है । ४] सारक्खणाणुबंधी - संरक्षणानुबंधी — जो धन, वैभव, पद, अधिकार प्रतिष्ठा आदि साधन एवं भोग विलास की सामग्री प्राप्त हुई है- उसके संरक्षण की चिन्ता करना - कैसे हमारा धन आदि सुरक्षित रहे, कैसे यह कुर्सी तथा अधिकार मिले तथा बने रहे इस प्रकार संरक्षण संबंधी चिन्तन करना तथा उसके मुरा-भोग में जो कोई बाधा पहुंचाए उसकी हत्या आदि करके अपने सुख व नांगों का रास्ता निष्कंटक करने सम्बन्धी जितने विचार व चिन्तन है वे इस संरक्षणानुबंधी रोव ध्यान में आ जाते है ।
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ध्यान तप
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रखने की चिंता, कि कहीं ये छूट न जाय और भविष्य में उन्हें बनाये रखने को चिन्ता, तथा अगले जन्म में भी वे काम-भोग कैसे प्राप्त हों ताकि मैं वहां भी सुख व आनन्द लूट सकू- इस प्रकार का चिन्तन, चिन्ता और भविष्य की आकुलता, आर्त ध्यान का चौथा कारण है । इस आर्त ध्यान में भविष्य चिंता की प्रमुखता रहती है अतः इसे निदान भी माना गया हैं, जिसके सम्बन्ध में प्रथम खण्ड के "तप का पलिमंथु-निदान" शीर्षक से विचार किया गया है ।
- जो आत्मा आर्त ध्यान करता है-उसकी आकृति बड़ी दीन-हीन, मुईि हुई, शोकसंतप्त तो रहती ही है, किन्तु कभी-कभी तो यह चिन्ता एवं व्याकुलता सीमा भी लांघ जाती है। रोना, छाती व सिर पीटना आदि तक पहुंच जाती है । आर्त ध्यान वाले की स्थिति का दिग्दर्शन कराने के लिए उसके चार लक्षण बताये गये हैं
अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा
. कंदणया, सोयणयाः तिप्पणया, परिदेवणया।' १ क्रन्दनता-रोना, विलाप करना, चिल्लाना । २ शोचनता-शोक करना, चिन्ता करना। ३ तिप्पणता--आंसू बहाना,
४ परिदेवना-हृदय को आघात पहुंचाए ऐसा शोक करना, गहरी उदासी, विलखना, तथा दुख-विह्वल होकर सिर छाती आदि पीटना । ये चारों ही लक्षण मन की दुःखित एवं व्यथित दशा के सूचक हैं।
इन लक्षणों से पहचाना जा सकता है कि यह व्यक्ति दुखी, आतं एवं . चिन्ता ग्रस्त है।
फरता प्रधान-रौद्र ध्यान आतं ध्यान में जहां दीनता-हीनता एवं शोक की प्रबलता रहती हैं वहां रोद्र ध्यान में क्रूरता, एवं हिंसक भावों की प्रधानता होती है । आत घ्यान प्रायः ... आत्मघाती ही होता है, रौद्र ध्यान आत्मघात के साथ पराघात भी करता
१ भगवती नुत्र २५१७ तथा स्थानांग ४१ एवं उपवाई सूत्र
.
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जैन धर्म में तप अशुभ की और बढ़ने वाली होती है, उससे आत्मा का पतन होता है । और जो चिंतन, जो एकाग्रता निम्न गति की ओर ले जाए वह कभी भी ग्राह्य नहीं । इसलिए भगवान महावीर ने कहा है
अट्ट रुद्दा णि वज्जित्ता झाएज्जा सुसमाहिए।
धम्म सुक्काई शाणाई झाणं तं तु बुहा वए।' समाधि एवं शांति की कामना रखनेवाला आर्त एवं रौद्र ध्यान का त्याग करके धर्म एवं शुक्ल ध्यान का चिंतन करें। वास्तव में ये दो ध्यान ही ध्यान-तप कहे गये हैं।
इसका अभिप्राय है-ध्यान भले ही चार प्रकार के हों, किन्तु चारों ध्यान तप नहीं है, घ्यान तप की कोटि में तो सिर्फ दो ही ध्यान है-धर्म ध्यान एवं शुक्ल ध्यान ।
धर्म का अर्थ है-आत्मा को पवित्र बनाने वाला तत्व । जिस आचरण से आत्मा की विशुद्धि होती है-उसे धर्म कहते हैं । उन धार्मिक विचारों मेंआत्मशुद्धि के साधनों में मन को एकाग्र करना-अर्थात् पवित्र विचारों में मन को स्थिर करना धर्म ध्यान है । वास्तविक दृष्टि से यह धर्म-एवं शुक्ल ध्यान ही आत्म-ध्यान है। आचार्यों ने बताया है कि आत्मा का. आत्मा के द्वारा, आत्मा के विषय में सोचना, चिंतन करना-यही ध्यान दे, यही आत्म ध्यान है । इन व्यानों में आत्मा पर-वस्तु से हटकर स्व-लीन हो जाता है, अपने विषय में ही चिंतन करने लगता है और चिंतन करतेकरते आत्मस्वरूप का दर्शन कर लेता है। इसी ध्यान रूप अग्नि के द्वारा आत्मा कर्म रूप काष्ठ को जलाकर भस्म करता है और अपना शुद्ध-बुद्ध सिद्ध-निरंजन स्वरूप प्राप्त कर लेता है-ध्यानाग्नि दग्ध कर्मातु सिवारमा स्थानिरञ्जनः ।
१ दशवकालिक अ. १ वृत्ति २ तत्वानुगासन ७४ ३ योगशास्त्र (आचार्य हेमचन्द्र) .
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ध्यान तपः
४.७७.
रौद्रः ध्यान के भी धार लक्षण हैं, जिनसे व्यक्ति के रौद्रभावों की पहचान होती है।
१ ओसन्नदोसे-हिंसा, झूठ आदि. किसी एक पाप कर्म में अत्यन्त आसक्त होकर सोचना।
२ बहुलदोसे- अनेक प्रकार के पापकारी दुष्ट विचारों में आसक्त हुए रहना।
३ अण्णाणदोसे-हिंसा आदि अधर्म कार्यों में धर्म बुद्धि रखकर उनमें (अज्ञान वश) आसक्त हुए रहना।
४ आमरणांतदोसे-~-मृत्यु तक मन में द्वेप और क्रूरता से भरे रहना। आखिरी समय में भी अपने पापों के प्रति पश्चात्ताप न करना किन्तु उनमें वैसा ही रौद्र एवं आसक्त हुए रहना ।
रौद्र ध्यान वाला प्रायः दूसरों को कष्ट देने, उन्हें पीड़ा पहुंचाने तथा उनकी हिंसा करने की चिंता में घिरा रहता है। आर्तध्यान वाला अपनी आग से अपना ही घर जलाता है, किन्तु रौद्र ध्यान वाला अपना घर तो जलाता ही है, किंतु दूसरों के घरों में भी आग लगा कर प्रसन्न होता है। दूसरों को रोते देख कर या रुलाकर अपने आंसू पोंछना चाहता है। ___ आर्त एवं रौद्र- दोनों ही ध्यान छठे गुणस्थान तक रहते हैंपुलाक लब्धि वाले मुनि जव क्रोघांध होकर चक्रवर्ती की विशाल सेना को मृतप्रायः कर डालते हैं, तथा तेजोलब्धि पर श्रमण सोलह देशों को अपने तेज से भस्मीभूत कर डालने को उतावले हो जाते हैं उस समय उनका चितन भी अत्यंत रुद्र होता है अतः उस वक्त उनमें भी रोद्र ध्यान आ जाता है। इन दोनों ध्यानों में मृत्यु होने से नरक व तिर्यच गति में ही उत्पत्ति होती है।
धर्मध्यान का स्वरूप आर्त एवं रौद्र ध्यान को-सिर्फ इसलिये 'ध्यान' माना गया है कि . उनमें भी चिंतन की एकाग्रता होती है, यद्यपि वह एकाग्रता अशुभमुखी
.
-
१ कुछ आचायों ने रोद्र ध्यान पाचवें गुण स्थान तक माना है, देखें ध्यान
सतक २५, भानार्णव २६॥३६ ।
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जैन धर्म में तप मार्ग पर तथा साथ ही उनके द्वारा निपिद्ध कायों पर चिंतन-मनन करना यह धर्म ध्यान का प्रथम भेद है-आज्ञाविचयः । ___ २ अपाय विचय--अपाय का अर्थ है-दोप या दुर्गुण ! आत्मा में अना दिकाल से पांच दोष छुपे हुए हैं-मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद. कपाय एवं योग . . (अशुभ योग) इन दोपों के कारण ही आत्मा जन्म मरण के चक्र में भटकता... है, दुःख, वेदना एव पीड़ा प्राप्त करता है। इन दोषों के स्वरूप पर विचार करना, उनसे छुटकारा कैसे मिले, कैसे उनको कम किया जाय तथा किन-किस . ' साधनों से उन दोपों की शुद्धि हो सकती है, इस विषय पर चिंतन करना अपाय वित्रय है। चिंतन करने से ही चिंता दूर होती है, विचार करने से ही विचार शुद्ध होता है-अतः दोपों के विषय में विचार करने का फल होगा दोपों से विमुक्ति ! तो यह धर्म ध्यान का दूसरा स्वरूप है।
३ विपाक विचय-ऊपर जो पांच दोष बताये हैं वे ही कर्म बंधन के कारण हैं । क्योंकि वह पाँचों प्रमाद है और प्रमाद ही वास्तव में कर्मबंध का हेतु होने से स्वयं भी कर्मरूप है~पमायं कम्म माहंसु । कर्म बांधते समय मधुर भी लगते हैं, तथा उनके परिणाम की सही कल्पना भी नहीं होती किंतु ऐसा अज्ञानी एवं मोहग्रस्त आत्मा को ही होता है । ज्ञानी आत्मा तो कमों के. विपाक को समझता है । वह मानता है
___ सयमेव फडेहिं गाहइ नो सस्स मुच्चेज्जऽपयर आत्मा अपने स्वयं किये हुए कर्मों से ही बंधन में पड़ता है और जब तक उन कामों को भोगा नहीं जायेगा, उनसे मुक्ति नहीं होगी। आसक्ति, अज्ञान एवं मोहबदा बांधे हुए कर्म जव फल में, विपाक में आते हैं तो उनका भोग बहुत ही दुखदायी एवं ग्रासजन्य होता है-जं से पुणो होइ दुहं विवागे' वे कर्म विपाक के समय बहुत ही दुःखदायी होते हैं। भगवान ने शुभागुन कमों के विपाक-परिणामों को बताने वाले अनेक ऐतिहासिक पृष्टांत भी दिए
१ सुमतांग १३ २ मुमतांग १४ ३ उत्तराध्ययन ३२१४६
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ध्यान तपं
इन दो ध्यानों को ही परम तप कहा गया है - षट्खण्डागम' में कहा है - " धर्म एवं शुक्ल ध्यान परम तप है, वाकी जितने तप हैं वे सब इस ( ध्यान ) के साधन मात्र हैं ।" तो इस परम तप रूप ध्यान में प्रथम हैधर्म ध्यान ! धर्म ध्यान के स्वरूप, लक्षण, आलम्बन आदि पर संक्षेप में हम यहां विचार करेंगे ।
आगमों में धर्म ध्यान के चार प्रकार बताये हैं
--
धम्मे झाणे चउव्विहे - पंपण ते तं जहा
आणा विजए, अवाय विजए, विवागविजए, संठाण विजए |
धर्म ध्यान के चार प्रकार है
१ आज्ञा विचय-विचय' का अर्थ है निर्णय या विचार करना । आज्ञा के सम्बन्ध में चिंतन करना आज्ञा विचय' है । प्रश्न है - आज्ञा किसकी ? उत्तर है- -- आज्ञा उसी की मान्य होती है जो हमारा श्रद्वय एवं परम पूज्य हो, स्वामी हो और वीतराग हो । उनकी आज्ञा ही वास्तव में धर्म हैंआणाए मामगं धम्मं —जो धर्म है, वही उनकी आज्ञा है, और जो आज्ञा है वही उनका धर्म है । आणा तवो आणाइ संजमो -- आज्ञा में तप है, आज्ञा में संयम है । इसलिए आज्ञा का अर्थ है- वीतराग भगवान द्वारा कथित धर्म ! प्रभु का वैराग्य एवं निवृत्ति मय उपदेश । तो उस भगवद् कथित धर्म का, प्रभु के उपदेश का चिंतन करना । उनके द्वारा उपदिष्ट तत्व पर अटल श्रद्धा रखना ——क्योंकि विना श्रद्धा के किसी वस्तु पर चिंतन नहीं किया जा सकता । विश्वास के विना लीनता नहीं आती, अतः पहले उस तत्त्व पर यह विश्वास रखे कि - तमेव सच्चं नीसकं जं जिणेहि पवेइयं जिनेश्वर देव ने जो तत्व बताया है, वही सत्य है, उसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं । इस प्रकार की अटल आस्था रखकर उस तत्व के स्वरूप पर, प्रभु द्वारा उपदिष्ट
१
पट्खण्डागम ५, पु० १३, पृ० ६४
२
भगवती २५७॥ स्थानांग ४।१ तथा उबवाई आदि ।
३ आचारांग ६।२
४
सम्बोधरि ३२
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.. जैन धर्म में तो मार्ग पर तथा साथ ही उनके द्वारा निषिद्ध कार्यों पर चिंतन-मनन करना यह . धर्म ध्यान का प्रथम भेद है-आज्ञाविचयः।
२ अपाय विचय---अपाय का अर्थ है-दोप या दुर्गुण ! आत्मा में अना दिकाल से पांच दोष छुपे हुए हैं-मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद. कपाय एवं योग (अशुभ योग) इन दोपों के कारण ही मात्मा जन्म मरण के चक्र में भटकता. है, दुःख, वेदना एव पीड़ा प्राप्त करता है। इन दोपों के स्वरूप पर विचार करना, उनसे छुटकारा कैसे मिले, कैसे उनको कम किया जाय तथा किन-किस साधनों से उन दोपों की शुद्धि हो सकती है, इस विषय पर चिंतन करना अपाय विचय है । चिंतन करने से ही चिंता दूर होती है, विचार करने से ही विचार शुद्ध होता है-अतः दोपों के विषय में विचार करने का फल होगा दोपों से विमुक्ति ! तो यह धर्म ध्यान का दूसरा स्वरूप है।
३ विपाक विचय-ऊपर जो पांच दोप बताये हैं वे ही कर्म बंधन के कारण हैं। क्योंकि वह पांचों प्रमाद है और प्रमाद ही वास्तव में कर्मबंध का हेतु होने से स्वयं भी कर्मल्प है-पमायं कम्म मासु । कर्म बांधते समय मधुर भी लगते हैं, तथा उनके परिणाम की सही कल्पना भी नहीं होती किन्तु ऐसा अज्ञानी एवं मोहग्रस्त आत्मा को ही होता है । ज्ञानी आत्मा तो कमाँ के विपाक को समझता है । वह मानता है
सयमेव फडेहि गाहइ नो सस्स मुच्चेज्जऽपुठ्ठयं' आत्मा अपने स्वयं किये हुए कमों से ही बंधन में पड़ता है और जब तक उन कमों को भोगा नहीं जायेगा, उनसे मुक्ति नहीं होगी। आराक्ति, अज्ञान एवं मोहवश बांधे हुए कर्म जव फल में, विपाक में आते हैं तो उनका भोग बहुत ही दुखदायी एवं श्रासजन्य होता है-जं से पुणो होइ दुहं विवागे' थे कर्म विपाक के समय बहुत ही दुःखदायी होते हैं। भगवान ने शुभाशुभ . कों के विपाक-परिणामों को बताने वाले अनेक ऐतिहासिक दृष्टांत भी दिए
१ मुमतांग १८३ २ मुभतांग २४ ३ उत्तराध्ययन ३२०४६
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ध्यान त
४८१ हैं जो मुख्यरूप से 'सुख विपाक' एवं 'दुख विपाक' में दिखाये गए हैं। सुख के हृदयाल्हादक एवं दुःख के रोमांचक विपाकों-परिणामों पर चिंतन करते रहने से पाप के प्रति भय, घृणा एवं लगाव कम हो जाता है, जिससे आत्मा में पाप से बचने का संकल्प जागृत होता है । तो इस तरह पाप के कटु परिणामों और पुण्य के शुभ फलों पर जो चिन्तन किया जाता है वह धर्म ध्यान के तीसरे भेद-विपाकविचय के अन्तर्गत आता है।
४ संस्थान विषय-संस्थान का अर्थ है आकार । लोक के आकार एवं स्वरूप के विषय में चिंतन करना कि लोक का स्वरूप क्या है ? नरकस्वर्ग कहाँ है ? आत्मा किस कारण भटकता है ? किस-किस योनि में क्यादुख व वेदनाएं हैं ? आदि विश्व सम्बन्धी विषयों के साथ आत्म-सम्बन्ध जोड़कर उनका आत्माभिमुखी चिंतन करना संस्थान विचय है ।
धर्मध्यान के लक्षण व आलम्बन धर्मध्यान वाले आत्मा की पहचान जिन कारणों से होती है उसे लक्षण कहते हैं । ये लक्षण चार हैं :
१ आज्ञाचि-रुचि का अर्थ है विश्वास, मानसिक लगाव और दिलचस्पी । जिनेश्वर देव को आजा में, सद्गुरुजनों की मात्रा में विश्वास रखना . व उस पर आचरण करना यह धर्मध्यान का प्रथम लक्षण है। यदि आज्ञा आदि में रुचि न होगी तो वह आगे धर्मध्यान भी कैसे कर सकेगा। इसलिए रुचि उस कार्य की सफलता का चिह्न है । जिस मनुष्य को जिस विषय में रुचि होगी, वह उस विषय में अवश्य ही आगे बढ़ेगा। अतः यहाँ अपेक्षा की गई है कि सर्वप्रथम जिनासा में हमारी रुचि हो। र २ निसर्गचि-धर्म पर, सर्वभाषित तत्वों पर और सत्य-दर्शन पर यदि हमारे हृदय में सहज श्रद्धा होती है, जिसका कारण कोई बाहरी न होकर दर्शनमोहनीय कर्म का क्षयोपशम होता है, तो वह श्रद्धा, वह रुचि निसर्गरुचि कहलाती है।
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· जैन धर्म में तप : ३ सूत्ररुचि-सूत्र से यहां अभिप्राय है-भगवद्वाणी रूप आगमअंग उपांग रूप सूत्र से है। उन्हें सुनने से धर्म में जो रुचि होती है वह सूत्ररुचि है।
४ अवगाढ़रुचि-अवगाहन का अर्थ है-गहरा उतरना। नदी, सरोवर . मादि किसी गहराई के भीतर डुबकी लगाकर नीचे उस की तह में जाना अवगाहन कहलाता है। मनुष्य शास्त्रों का अध्ययन तो करता है, लेकिन जब . . . तक उनका भाव हृदयंगम नहीं कर पाता जब तक शास्त्र का ज्ञान प्रकाश नहीं ... दे सकता । ज्ञान शब्दों का पाठ करने से नहीं, किन्तु उस के अर्थ पर चिंतनमनन करने से मिलता है। अतः यह चिंतन-मननरूप अवगाहन करने की जिस की रुचि हो, अर्थात् जो शास्त्रों के वचनों पर गहरा मनन चिंतन करने .. को उत्सुक हों, वह उत्सुकता-अवगाढ़रुचि कही जाती है। .. . ___इन चार लक्षणों से धर्मध्यानी आत्मा पहचाना जाता है। धर्म ध्यान . . को स्थिर रखने के लिये, उस चिंतन प्रवाह को अधिक स्थायी बनाने के लिये धर्म ध्यान के चार आलम्बन बताये गए हैं
१ वाचना- विचारों को पवित्र व शुद्ध बनाने वाला धार्मिक साहित्य .. स्वयं पढ़ना तथा दूसरों को पढ़ाना । __ २ पृच्छना-पढ़ते हुए यदि मन में कहीं कोई शंका होगई, कोई बात समझ में न आई तो उसे गुरुजनों से, बहुश्रुतों से विनयपूर्वक पूछकर अपने ज्ञान की गति को आगे बढ़ाना-पृच्छना है। पृच्छना-जिज्ञासा है, और जिज्ञासा ही ज्ञान की कुंजी कहलाती है।
३ परिवर्तना-जो ज्ञान सीखा हुआ है, पड़ा हुआ है उसको बार-बार रटना । मंठस्य ज्ञान को चितारना। इससे ज्ञान में स्थिरता आती है और धारणा दृढ़ बनती है।
४ धमकया-धोपदेश सुनना एवं दुमरों को धर्म का उपदेश करता। इन चारों का वर्णन स्वाध्याय प्रकरण में विस्तार के साथ किया गया है। वास्तव में ये स्वाध्याय ता में ही आते हैं, किन्तु धर्म ध्यान के आलम्बनमहामार होने से इन्हें धनमान के अन्तर्गत भी बताया गया है।
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४८१
ध्यान तप हैं जो मुख्यरूप से 'सुख विपाक' एवं 'दुख विपाक' में दिखाये गए हैं। सुख के हृदयाल्हादक एवं दुःख के रोमांचक विपाकों-परिणामों पर चिंतन करते रहने से पाप के प्रति भय, घृणा एवं लगाव कम हो जाता है, जिससे आत्मा में पाप से बचने का संकल्प जागृत होता है। तो इस तरह पाप के कटु परिणामों और पुण्य के शुभ फलों पर जो चिन्तन किया जाता है वह धर्म ध्यान के तीसरे भेद-विपाकविचय के अन्तर्गत आता है ।
४ संस्थान विचय-संस्थान का अर्थ है आकार । लोक के आकार एवं स्वरूप के विषय में चिंतन करना कि लोक का स्वरूप क्या है ? नरकस्वर्ग कहाँ है ? आत्मा किस कारण भटकता है ? किस-किस योनि में क्यादुख व वेदनाएं हैं ? आदि विश्व सम्बन्धी विषयों के साथ आत्म-सम्बन्ध जोड़कर उनका आत्माभिमुखी चिंतन करना संस्थान विचय है।
धर्मध्यान के लक्षण व मालम्बन धर्मध्यान वाले आत्मा की पहचान जिन कारणों से होती है उसे लक्षण कहते हैं । ये लक्षण चार हैं :
१ आज्ञारुचि-रुचि का अर्थ है विश्वास, मानसिक लगाव और दिलचस्पी । जिनेश्वर देव की आज्ञा में, सद्गुरुजनों की आज्ञा में विश्वास रखना व उस पर आचरण करना यह धर्मध्यान का प्रयम लक्षण है। यदि आज्ञा
आदि में रुचि न होगी तो वह आगे धर्मध्यान भी कैसे कर सकेगा। इसलिए रुचि उस कार्य की सफलता का चिह्न है । जिस मनुष्य को जिस विषय में रुचि होगी, वह उस विषय में अवश्य ही आगे बढ़ेगा। अतः यहाँ अपेक्षा की गई है कि सर्वप्रथम जिनाजा में हमारी रुचि हो।
२ निसर्गचि-धर्म पर, सवंशभाषित तत्वों पर और सत्य-दर्शन पर यदि हमारे हृदय में सहज धद्धा होती है, जिसका कारण कोई बाहरी न होकर दर्शनमोनीय कर्म का आयोपशम होता है, तो वह धद्धा, वह रुचि निसर्गतनि कहलाती है।
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४५४
... जैन धर्म में तप : एक दिन नष्ट होगया। बलदेव, वासुदेव और तीर्थकरों का शरीर भी आखिर एक दिन नष्ट होता है। जैसे पानी का बुख़ुदा क्षण भर में विलीन हो जाता है वही दशा इस शरीर की है- “पानी का पतासा तैसे तन का तमाशा है।"
यह जो धन, वैभव, साम्राज्य आदि प्राप्त हुए हैं वह भी सब नश्वर । है। बादलों की चंचल छाया है। इस प्रकार नश्वरता का, अनित्यता का चिंतन करना । भन्त चक्रवर्ती राजमहलों में बैठे हुए भी जब अपने शरीर की, अपने धन-वैभव की अनित्यता का चिंतन करने लगे-कि "अरे ! जिस शरीर का इतना सौन्दर्य था, एक अंगूठी निकल जाने से भी वह सौन्दर्य घट गया तो बस, यह सौन्दर्य तो क्षणिक है, यह सब वस्तुएं अनित्य है"--इसी . अनित्य भावना में लीन हुए वहीं बैठे-बैठे केवली बन गए ! . . .
३ अशरणानुप्रेक्षा-संसार में कोई किसी का शरण-रक्षक नहीं है । तर, धन, परिवार आदि सब सुख के साथी हैं-जव दुख आता है, रोग उत्पन्न होता है तो कोई किसी की पीड़ा को टा नहीं सकता। बड़े-बड़े चक्रवर्ती भी इस धन वैभव से अपनी रक्षा नहीं कर सके। आत्मा की रक्षा करने वाला एक धर्म ही है । धर्म अर्थात् अपना सत्कर्म ! वही आत्मा का रक्षक है, वहीं शरण है, अन्य कोई शरणभूत नहीं है ! अनाथी मुनि की तरह संसार की प्रत्येक वस्तु को असार एवं अशरणभूत समझना-अशरणानुप्रेक्षा है।
४ संसारानुप्रेक्षा-संसार के स्वरूप का चिंतन करना-यह संसार दुःख मय है, कष्टमय है। आत्मा कभी नरक में जाता है तो यहां भयंकर कष्ट व पीड़ाएं शेलता है। वैसे ही, तिथंच योनि तथा अन्य योनियों के कष्टों का स्मरण कर आत्मा को जन्म मरण से मुक्त करने के उपायों पर विचार करना । संसार की शोकाकुल दशा से मन को निराकुल भावना को और लाना-यही संसारानुप्रेक्षा है।
इन चारों भावनाओं से मन में वैराग्य की लहर उठती है, सांसारिक वस्तुओं के प्रति आकर्षण कम होता है और आत्मा निराकुल, गांश मानन्दमय स्वरूप की ओर बड़ने लगता है। इसलिए आत्मशांति के लिए, मग को .. निमोह बनाने के लिए इन भावनाओं का बहुत बड़ा महत्व है।
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ध्यान तप
४८३
चार अनुप्रेक्षाएं मन को धर्म ध्यान में लीन बनाने के लिए जो चितन किया जाता हैउसे अनुप्रेक्षा कहते हैं । ईक्षा-नाम है दृष्टि का, देखने का । इसके साथ जब प्र उपसर्ग लगा दिया तो उसका अर्थ हुआ-खूब गहराई से देखना,वारीको से
और तल्लीनता के साथ देखना-'प्रेक्षा' है । वह तल्लीनता किसी अन्य विषय में न होकर अपनी आत्मा के विषय में ही होनी चाहिए। आत्मा
और परमात्मा से सम्बन्धित जो सूक्ष्मचिंतन, जो विचारों की तल्लीनता है, उसे ही 'अनुप्रेक्षा' कहा गया है । अनुप्रेक्षा-को ‘भावना' भी कहते हैं । मन में इस प्रकार की भावनाएं करना, चिंतन मनन करके विचारों को विशुद्ध तथा मोह-मुक्त बनाने का प्रयत्न करना-भावना का फल है । इसलिए अनुप्रेक्षा के द्वारा आत्मा वैराग्य प्रधान विचारों में लीन हो जाता है, कुछ समय के लिए, जब तक कि लीनता बनी रहती है वह वीतरागभाव जैसा आनन्द लेने लगता है और संसार की मोह-ममता को भूल जाता है । धर्म ध्यान के इच्छुक साधक को इन भावनाओं-अनुप्रेक्षाओं का निरंतर अभ्यास करना चाहिए । यहां धर्मध्यान की चार भावनाएं बताई जा रही हैं
१ एकत्वानुप्रेक्षा-आत्मा के एकाकीपन का चिंतन करना । जैसेमेरा आत्मा अकेला जन्मा है, अकेला मरेगा, अकेला कर्म करता है और अकेला ही भोगेगा। इसलिए संसार के किसी भी अन्य के साथ-परिवार, पुन, धन, आदि के साथ अपनापन जोड़ना, उन्हें अपना समझना अज्ञान है । मोह है, इसी मोह के कारण सब दुख उठाने पड़ते हैं। नमिराजपि ने जब यह सूब समझा--कि "आत्मा एकाकी है, कोई किसी का नहीं। एकत्व में आनन्द है, दो में दुल है"---तो इसी चिंतन में लीन होकर उन्होंने अपने दुःख का किनारा पा लिया और परम शांति प्राप्त कर ली। यह. एकत्वानुप्रेक्षा की धारा है।
२ अनित्यानुप्रेक्षा-वस्तु की अनित्यता का चितन करना । शरीर, धन .. आदि सब नागमान है, कोई भी वस्तु स्थिर नहीं, सब क्षणिक है, क्षण-क्षणनाश हो रही है। यह शरीर जो कभी वालमा था, युवा हुआ, और बुद्ध होकर
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४६६
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जैन धर्म में तप
नाक के अग्र भाग पर दृष्टि को स्थिर कर सुखासन से बैठा है वही मान करने का अधिकारी है।
तो ऐसा योग्य ध्याता -ध्यान करने वाला जब अपने व्येय पर----लक्ष्य व इप्टदेव पर मन को स्थिर करता है तभी ध्यान में लीनता व एकाग्रता आती है। ____ ध्येय के विषय में भी तीन प्रकार की कल्पनाएं है- परालम्बन, स्वल्पा लम्बन और निरवलम्बन ।
१ परालम्बन--में दूसरी वस्तुओं का आलम्बन लेकर मन को स्थिर करने का प्रयत्न किया जाता है । जैसे कोई प्राटक (काला गोला बनाकर) . पर दृष्टि को स्थिर रखकर मन को उस पर टिकाने का अभ्यास करता है। आगमों में भगवान महावीर की साधना का वर्णन करते हुए बताया हैएगपोग्गलनिविट्ठ विठिए'-एक पुद्गल पर दृष्टि को स्थिर करके घ्यान मुद्रा में खड़े रहे । यह एक पुद्गल पर दृष्टि टिकाना भी प्राटक जैसी ही कोई विधि हो सकती है, जिसमें किसी वस्तु पर दृष्टि को स्थिर कर .. लिया जाता है। इसी तरह वृक्ष के पत्तों पर, शून्य आकाश पर आदि . विविध वाह्य मालम्बन लेकर उन पर मन को स्थिर रखने का प्रयत्न किया जाता है।
२ स्वरूपालम्बन--यह ध्यान का दूसरा प्रकार है, पर वस्तु अर्थात् बाहर से दृष्टि को हटाकर मुंद लेना और कल्पना की आंखों द्वारा अपने स्वल्प का दर्शन करना यह इस ध्यान की विशेषता है । इस ध्यान में अनेक प्रकार की रचनाएं व गल्पना की जाती हैं। योग शास्त्र, ज्ञानार्णव आदि घों में पिंडल्य, पदस्य आदि चार भेद बताए हैं उनमें तीन ध्यान इसी श्रेणी के हैं। . पातीत ध्यान निरवलम्बन की श्रेणी में जाता है।
३ निरवलम्बन-यह ध्यान का तीसरा तथा उत्कृष्ट तम प्रकार है। इसमें कोई आलम्बन रहता है और न बिचार । मन विचारों एवं निकली।
१ नगवती गुम ३२
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ध्यान तप
४८५
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धर्म ध्यान के अन्य प्रकार. अभी जो धर्मध्यान का स्वरूप उसके लक्षण, आलंबन और अनुप्रेक्षाएं बताई हैं-वह सभी आगमों में व प्राचीन ग्रन्थों में विस्तार के साथ प्राप्त होता है। भगवान महावीर के पश्चात्वर्ती युग में ध्यान के विषय में और भी गहरा चिंतन चला, उसके अनेक साधनों पर योगियों ने, ध्यानी मुनियों ने विचार किया और कई नए आलम्बन, नये स्वरूपों व साधनों का भी समावेश . ध्यान परम्परा में किया है। ध्यान की विधि को सरल और सहज साध्य वनाने के लिए कई प्रकार की साधनाए आचार्यों ने बताई है। यहां हम उन पर भी संक्षेप में विचार कर लेंगे।
ध्यान में मुख्य तीन वस्तुएं हैं, ध्याता, ध्यान और ध्येय । ध्याता का अर्थ है ध्यान करने वाला, ध्यान का अधिकारी ! ध्यान का अर्थ है-तल्ली नता, एकाग्रता और ध्येय का अर्थ है-इष्टदेव ! जिसका ध्यान किया जाय वह ! इन तीनों की पवित्र भूमिका है। ध्याता को सर्वप्रथम अपने हृदय को शांत, पवित्र एवं स्थिर बनाना होता है । क्योंकि चंचल चित्त वाला ध्यान का अधिकारी नहीं हो सकता। आंखें मूंद कर बैठ गया, आसन जमा लिया, किन्तु मन स्थिर नहीं हुआ, वह कहीं का कहीं भटकता रहा तो ध्यान कैसे होगा ? वास्तव में आसन स्थिर करने में ही नहीं, मन स्थिर करने से न्यान होता है । कहा है
यत्य चित्तं स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते । जिसका चित्त स्थिर हो गया हो वही वास्तव में ध्यान का अधिकारी होता है । ध्यान की पवित्रता के विषय में बताया है-- .
जितेन्द्रियस्य घोरस्य प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः ।
सुखानस्य नासाग्रत्यत्तनेयस्य योगिनः ॥२ जो योगी जितेन्द्रिय हैं, घोर है, शांत है, स्थिर आत्मा वाला है,नासाग्र--
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१ ज्ञानार्णव पृ० २४, २ ध्यानाप्टक,
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४८८
.. जैन धर्म में तप
अपने शरीर व नात्मा को पच्ची की पीत वर्ण कल्पना के साथ बांधना पार्थिवी धारणा है। इस धारणा में मध्यलोक को क्षीर समुंद्र के समान निर्मल जल से परिपूर्ण होने की कल्पना करें। उसके मध्यभाग में जम्बूद्वीप के तुल्य सुवर्ण के समान चमकते हुए हजार पत्तोंवाले (सहस्रदल) कमल की कल्पना करें । उस कमल के बीच में जहाँ कणिका होती है उस पर स्वर्णमय मेरुपर्वत की आकृति का चिंतन करें और फिर सोचें उस मेल्पर्वत के शिखर पर पाण्डुक वन में पाण्डुक शिला के ऊपर स्फटिकरत्न का उज्ज्वल सिंहासन बिछा है और मैं (आत्मा) उस सिंहासन पर योगीराज के रूप में बैठा हूँ। साधक जब इस प्रकार के दृश्य की कल्पना करता है तो उसका मन बड़ा ही शांत व सौम्य बन जात है, बड़ी पीतलता का अनुभव होता है। इस कल्पना में मन रम जाने से स्थिरता आती है । याज्ञवल्क्य के कथनानुसार पृथ्वीधारणा सिद्ध होने पर शरीर में किसी प्रकार का रोग नहीं होता।' स्पष्टता के लिए चिय संख्या १ देखें।
२ आग्नेयो धारणा-पाथिवी धारणा से आगे बढ़कर साधक आग्नेयी धारणा में प्रवेश करता है। आत्मा सिंहासन पर विराजमान होकर नाभि के भीतर हृदय की ओर जार मुख किए हुए सोलह पंखुड़ियों वाले रक्त कमल की कल्पना करता है । (कहीं-कहीं श्वेत कामल भी बताया है, पर अग्नि का वर्ण रक्त होने से कुछ आचार्यों ने रक्त कमल को ही मुख्य माना है) उन पंचुड़ियों पर अ आ इ ई उ ऊ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः इन मोलह स्वरों को स्थापना की जाती है, तथा कमल के मध्य में है' अदार की। कमल के टीक जार हृदय स्थान में नीचे की ओर मुल किए हुए आँधा आठ पत्तों वाला एक मदिया रंग मा कमल बनाना चाहिए। उसके प्रत्येस पते पर लाले रंग के लिये हुए नाटकों का चिंतन करना चाहिए ।
इस चिंतन में नाभि में स्थित कमल के बीच में लिए ' अक्षर के जारी सिरे रेक' में गे निकलाप धुएं की कल्पना की जाती है और
१ मोगवाशिद--निर्माण प्रारम (प्रकरण ८८.६२)
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ध्यान तप
४८७ से सर्वथा शून्य हो जाता है, और किसी भी प्रकार के आलम्बन के विना स्थिर व विकल्प रहित हो जाता है। उक्त दोनों भेदों को समझने के लिए यहां चार प्रकार के ध्यान का स्वल्प समझना जरूरी है। ये सव धर्मध्यान के अन्तर्गत ही है । वास्तव में ये ध्यान के आलम्बन भूत - ध्येय हैं।
पिण्डस्थध्यान व धारणाएं १ पिण्डस्थ ध्यान-'पिण्ड' का अर्थ है शरीर । शांत, एकांत, स्वच्छ स्थान में वीरासन, सुखासन, सिद्धासन आदि किसी योग्य आसन पर स्थिर बैठकर शरीर (पिण्ड) में स्थित आत्म देवता का ध्यान करना पिण्डस्य ध्यान है। इसमें शुद्ध निर्मल भात्मा को लक्ष्य करके चिंतन किया जाता है । इस ध्यान में जो मुद्रा बनाई जाती है उसे 'ध्यान मुद्रा' कहा है । ध्यान मुद्रा का अर्थ है चित्त अन्तर्मुखी हो, आँखें नीचे झुकी हों तथा नासाग्न पर स्थिर हों शरीर सीधा सुखासन पर स्थित हो ।'
अन्तश्चतो बहिश्चक्षुरधःस्थाप्य सुखासनम् ।
समत्वं च शरीरस्य ध्यानमुद्रेति फथ्यते । तो इस प्रकार 'ध्यान मुद्रा' लगाकर शरीरस्थ आत्मा के स्वरूप का चिंतन करना पिण्डस्य ध्यान है । आत्मा की कल्पना इस प्रकार करनी चाहिए कि मेरा यह आत्मा सर्वज्ञ भगवान की आत्मा के तुल्य,पूर्णचन्द्र वत् निर्मल है, कांतिमान् है । शरीर के अन्दर पुरुष आकृतिवाला होकर स्फटिक सिंहासन पर विराजमान है। इस प्रकार कल्पना की आँखों से आत्मा का स्वरूप दर्शन करना चाहिए। पिण्डस्य ध्यान की पांच धारणाएं बताई गई हैं। जैसे१ पार्थिवी, २ आग्नेयी, ३ वायवी, ४ वारुणी, ५ तत्त्वरूपवती।
१ पापियी-धारणा-धारणा का अर्थ है-यांधना ! ध्येय में चित्त को स्थिर करना धारणा है-धारणा तु पयधिद् ध्येये चित्तस्य त्पिरबंधनन् ।'
१ योगमाप 10 २ गोरक्षारातफ ५ ३ योगशाल्म ७४ ४ अभिधानचिन्तामणि (आचार्य हेमचन्द्र) ११८४
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आग्नेयी धारणा में रमण करते हुए मुनिराज
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जैन धर्म में तप
उमड़ रहा है बिजली चमक रही है, और धीरे-धीरे खूब जोर की वर्षा भी शुरु हो गई है । मैं बीच में बैठा हूँ, मेरे शरीर पर पानी बरस रहा है जल के बीजाक्षरों में प-प-प-प लिखा हुआ है । इस जल वृष्टि से आत्मा पर लगी समस्त कर्म रज धुल कर साफ हो गई है, आत्मा पवित्र व निर्मल बनती जा रही है । जल धारणा सिद्ध योगी जल में डूबता नहीं, अगाध जल में भी जीवित रह सकता है और मन व शरीर के समस्त ताप शांत हो जाते हैंऐसा वैदिक आचार्यों का मत है ।" अधिक स्पष्टता संलग्न चित्र संख्या ४ से प्राप्त कीजिए ।
४२०
५ तत्वरूपवती धारणा - इसे 'तत्व भू' धारणा भी कहा गया है । योग वाशिष्ठ आदि वैदिक ग्रंथों में इसे 'आकाशधारणा' कहा गया है । वारुणी वारणा के पश्चात् यह अन्तिम धारणा तथा सर्वश्रेष्ठ धारणा है । इसमें आत्मा के निराकार निर्मल रूप का चिंतन करते हुए योगी सोचता है- "मैं अनन्त पक्तियों का पुंज हूँ। में आकाश से भी विराट् व व्यापक है। जिस प्रकार आकाश पर कोई लेप नहीं है, वैसे ही मुझ पर भी किसी वाह्य वस्तु का लेपआवरण नहीं है। इस धारणा में आत्मा स्वरूप दशा की उत्कृष्ट अनुभूति कर सकता है ।
इस प्रकार पिण्डस्य ध्यान की ये पांच धारणाएं हैं जिनके आधार पर मन को अपने ध्येय के निकट लाया जा सकता है, और व्येय के साथ बांधा जा सकता है | यह धारणाएं सिद्ध हो जाने पर साधक की आत्मशक्तियां बहुत ही विकसित व प्रचंड बन जाती है | उस पर किसी प्रकार की मलिन विद्याओं का प्रभाव नहीं पड़ सकता । भूत-पिशाच आदि उस के दिव्य तेज से भयभीत रहते हैं ।
पवस्वध्यान का स्वरूप
वस्य व्यानका वयं है किन्हीं पद-दारों पर मन को स्थिर करना। इसकी परिभाषा को की गई है
१. योगवाविष्य निर्वाण प्रकरण
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ध्यान तप.
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साथ रक्त वर्ण की ज्वाला को भी कल्पना से देखना चाहिए और वह ज्वाला प्रचंड होती हुई ऊपर लिखे हुए आठ कर्मों को जलाने लगे और कमल के मध्य को छेदकर ऊपर मस्तक तक पहुंच जाए ऐसी कल्पना करें। फिर सोचेज्वाला की एक रेखा वायीं और तथा दूसरी दाहिनी और निकल रही है, दोनों रेखाए नीचे आकर मिल जाती है और एक अग्निमय रेखा बनती - उस आकृति से शरीर के बाहर तीन कोष वाला अग्नि मंडल बन रहा है- ऐसी कल्पना करते जाए । उस अग्निमंडल में तीव्र ज्वालाए उठती हुई देखें, उनमें आठों कर्म भस्म हो रहे हैं, तथा वे जलकर राख बन गये हैं आत्मा तेज रूप में दमक रहा है, इस प्रकार की कल्पना करें।
अग्नि धारणा में सर्वत्र जो प्रकाश फैला है, उसमें स्वयं का ही प्रतिविम्ब देखा जाता है । उपनिपदों के अनुसार अग्नि धारणा सिद्ध होने पर योगी का शरीर यदि धधकती ज्वाला में भी डाल दिया जाय तो वह जलता नहीं है ।' विशेष कल्पना के लिए चित्र संख्या २ पर ध्यान देवें ।
३ वायवीधारणा-अग्नि धारणा में कर्मों को भस्म कर राख बने हुए देखने के बाद पवन धारणा की कल्पना की जाती है । पवन की कल्पना के साथ मन को जोड़ा जाता है-योगी सोचता है,खूब जोर की हवाएं चल रही हैं, उसमें आठ कर्मों की राख उड़ रही है, नीचे हृदय कमल सफेद सा उज्ज्वल हो गया है और आत्मा पर लगी राख सब हवा के झोंके से साफ हो रही है। वैदिक आचार्यों के अनुसार इस धारण में समस्त ब्रह्मांड को वायु से प्रकम्पित होता हुआ देखा जाता है और प्रभंजन का प्रेरक मैं ही हूं इस प्रकार पवन धारणा में आत्मा को बांध दिया जाता है। वायवी धारणा सिद्ध होने पर योगी आकाश में उड़ सकता है। वायु रहित स्थान में भी जीवित रह सकता है । उमे बुढ़ापा नहीं आता । स्पष्ट जानकारी के लिए देखिए चिम संख्या ३ ।
४ वारुणी धारणा- अर्थात् जल की कल्पना के साथ मन को जोड़ना। वायवी धारणा से आगे बढ़कर योगी सोचता है, आकान में मेयों का समूह .
१ ध्यान और मनोबल (डा० इन्द्र चन्द्र) पृ० १४१
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... जैन धर्म में तप : तद् भवति ।....रुद्रस्य चिन्तनाद् रुद्रो विष्णुः स्याद् विष्णु-चिन्तनाद्-जो जिसको . ध्याता है, वह उसी रूप बन जाता है। रुद्र की चिन्तना से रुद्र तथा विष्णु . के चिंतन से विष्णु । मैं सीता-सीता रटता हुआ यदि कहीं सीता बन गया तो? फिर मेरा दाम्पत्य सुख तो चला जायेगा, पुरुष से नारी भी बन जादूंगा!" ...
आशुप्रज्ञ हनुमान ने तभी हंसते हुए कहा-"महाराज ! इसमें आपको चितित होने की क्या बात है ? यदि ऐसा हो भी गया तो कोई चिंता की । बात नहीं । जैसे आप रात-दिन सीता को रटन लगा रहे हैं, आपके मन में . सीता बसी हुई है, उसी प्रकार माता सीता के हृदय के कण-कण में 'राम'' : बसे हुए हैं । वह क्षण-क्षण 'राम-राम' रटती रहती है। तो यदि राम 'सीता' सीता' रटते हुए राम बन गये तो सीता भी 'राम-राम' रटती हुई 'रामस्वरूप' बन जायेगी। फिर चिन्ता की क्या बात है ?
यह एक रूपक हैं, कवि की कल्पना भी हो सकती है, किन्तु इसमें सचाई है, एक तथ्य है कि मनुष्य जिस स्वरूप का, जिस रूप का और जिन अक्षरों . का एकाग्रता के साथ, तन्मय होकर चिंतन करता है वह तस्वरूप भी बन सकता है। तन्मय का अर्थ ही है-तद्+मय = (उसी के अनुरूप) तन्मय । ' तो पदस्थ व स्पस्थ ध्यान में यही तस्वरूप का नितन किया जाता है और . भगवदमय बनने की ओर गति भी होती है।
| মিষ पदस्य ध्यान को स्थिर करने के लिए आचार्यों ने सिद्ध चक्र की स्थापना की कल्पना दी है। इस सिद्ध चका में-आठ पंखुड़ियों वाले सफेद कमल की कल्पना की जाती है। और उसके भीतर कणिका पर (बीज-कोप) में नमो अरिहंताणं की स्थापना की जाती है। फिर पूर्व-पश्चिम आदि बारी दिवाओं की पंगुदियों पर णमो सिद्धाणं आदि चार पद की स्थापना होती है। पार विदिशा की पंगुड़ियों पर शान, दर्शन, गारिय और तप का ध्यान frut जाता है इस प्रकार नौ पदों की स्थापना कर इस सिद्धवस पर मान किया जाता है। आचार्य चन्द्र ने शान दर्शन के स्थान पर एसो पंच नमुक्कारा' आदिवार पदों की स्थापना को विधि बताई है। अन्यास की दृष्टि में इन
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४६१
ध्यान तप
. ४६१ यत्पदानि पवित्राणि समालम्व्य विधीयते ।
तत्पदस्य समाख्यातं ध्यानं सिद्धान्तपारगः ।। किन्हीं पवित्र पदों का आलम्वन लेकर उनके आधार पर चित्त को स्थिर कर देना-इसे पदस्थ ध्यान कहा गया है।
इस ध्यान में अपने इष्टपदों का जैसे भगवद्नाम, नवकार महामंत्र, तथा अन्य शास्त्रीय वाक्यों का, स्मरण करते हुए साधक उनमें तदाकार होने का प्रयत्न करता है । इष्ट का स्मरण करते-करते साधक उन मंत्र-पदों के अक्षरों को अपनी कल्पना से लिखता है,फिर उन्हीं अक्षरों को मनसे देखने का प्रयत्न करता है, मन उन मंत्राक्षरों में एकात्मकता की अनुभूति करने लगता है । ध्यान के अभ्यासी आचार्यों का मत है कि साधक जव ध्येय में लीन होने लगता है, अर्थात् स्वयं भगवद्स्वरूप की अनुभूति करने लगता है तो वह वास्तव में ही भगवद्स्वरूप बनने की ओर कदम बढाता है और उसमें क्रमिक सफलता भी मिलती जाती है ।
यद्ध्यायति तद्भवति ध्यान-ग्रन्थों में एक उदाहरण देकर बताया है - जैसे कीट (लट) भौरे की मिट्टी के साथ मिलकर स्वयं को भ्रमरी अनुभव करते हुए धीरे-धीरे वह भ्रमरी ही बन जाती है, उसी प्रकार साधक ध्येय स्वरूप का अनुभव-स्मरण करते-करते वह ध्येय रूप बन सकता है। काव्य ग्रन्यो में इस पर एक लघु रूप दिया गया है कि महाराज रामचन्द्र जी सीता के विरह से व्यथित हुए मन-ही-मन 'सीता-सीता' पुकारते रहते थे। सोते-उठते-बैठते उनके मुंह से बस एक ही अक्षर शब्द निकलता ... "सीता-सीता !"
एक बार बैठे-बैठे रामचन्द्रजी के मन में विचार आया और वे चिन्तित से हो गए। पास में बैठे नक्त हनुमान ने स्वामी की निता देखी तो इसका कारण पूछा । रामचन्द्रजी ने पहले तो कुछ संकोच किया, फिर कुछ चिंता के साथ बोले-पवनपुर ! मेरे मन में एक शंका हो उठी है। कहा जाता है कि-फीट स्वयं को गरी अनुभव करती हुई श्रमरी बन जाती है,पों कि यद् ध्यामति
₹ बोगशाम
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जैन धर्म में तप अविनाशी आत्मतत्व, अथवा परमात्मतत्व की कल्पना के आधार पर मन की धुरी को स्थिर रखना ही अक्षर-ध्यान का उद्देश्य है। इसकी कल्पना निम्न चित्र के अनुसार समझनी चाहिए।
अक्षर ध्यान उक्त चित्रानुसार नाभि कमल, हृदय कमल और मुरा कमल पर अदारों की स्थापना करके प्रत्येक अक्षर के आधार पर क्रमशः चितन करते जाना चाहिए । उदाहरणार्य-नाभि कमल के मध्य में 'अहं' लिखा है। पहले अहे के भावार्थ पर, उसके स्वरूप पर चिंतन प्रारम्भ करना चाहिए । फिर अमा-- आदि नारों से वितन धारा को बढ़ाना चाहिए । जंग____-रिहंत ! अरिहंत प्रनुका सारून, अरिहत पद प्राप्त करने साधन । अरिहंत माद पर निदन करने के बाद सी ' र 'सार', 'अमर'
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चार पदों की अपेक्षा ज्ञान, दर्शन आदि पदों की स्थापना से ध्यान में आलम्बन अधिक सुदृढ़ बनता है। इसकी स्पष्ट कल्पना के लिए मंलग्न चित्र देखिए
ध्यान तप
THIS
णमो
तवस्स
महात
णमो सिद्धाणं
णमो अरिहंताणं
ܩܢ
सिद्धचक्र
णमो
णाणस्स
आयरियाणं
णमो
दसणरस णमो
इसी प्रकार अन्य मंत्राक्षरों पर किसी आकृति की कल्पना बनाकर उनका ध्यान भी किया जाता है । इसमें आगम के किसी पद पर भी ध्यान टिकाया जा सकता है । चत्तारि मंगलं, ऊं, हों आदि मंत्रों पर भी ! इनका स्मरण व जप करना स्वाध्याय में गिना जाता है, किन्तु उन पर चितन करना विचार प्रवाह को एक धारा में ही प्रवाहित किये रखना ध्यान है ।
अक्षर ध्यान
सिद्ध चक्र की नोति अक्षर ध्यान में भी कल्पना के आधार पर अक्षरों की स्थापना की जाती है । उन अक्षरों पर नगद स्वरूप की कल्पना करके चितन किया जाता है। अक्षर का अर्थ है कभी नष्ट नहीं होने वाला अविनाशी ! अविनानी तत्व एक ही है-आमा ! बुद्ध स्वरूप स्थित
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जैन धर्म में तप बीजाक्षरों में भी देवताओं के, इष्ट देव के संकेत छिपे रहते हैं । जैसे'ॐ शब्द में ईश्वर का व पंचपरमेष्ठी का संकेत है। वैदिक मन्यों के अनुसार 'ॐ' ईश्वर का वाचक है । कुछ आचार्यों ने इसे ब्रह्मा-विष्णु-महेश का द्योतक बताया हैं । जैसे
अकारो वासुदेवः स्याद् उफारस्तु महेश्वरः ।
मफारः प्रजापतिः स्यात् प्रिदेवो में प्रयुज्यते । इसी प्रकार जैन आचायों ने भी इसे पंच परमेष्ठी का वाचक माना है। जैसे-.
अरिहंता असरीरा आयरिय उवज्झाय मुणिणो ।
पढमक्खर निष्फनो ॐकारो पंच परमिद्री।' . अरिहंतसिद्ध (अशरीरी)-अ आचार्य-आ उपाध्याय-उ - ओ मुनि-म
म् = ओमतो इस प्रकार पांचों परमेष्ठी पदों का प्रथम अक्षर मिल कर 'ॐ' शब्द . बनता है । 'ॐ' के ऊपर चन्द्र विन्दु है, इसके भी दो अर्थ हैं-वैदिक आचार्यो की दृष्टि में प्रत्येक वीजाक्षर के ऊपर जो अनुस्वार या चन्द्रबिन्दु लगता है वह 'नाद' है, और वह अक्षर के शक्तितत्व को प्रकट करता है। शब्द फी. ध्वनि में भी वह ओज भरता है इसलिए प्रत्येक बीज मंग के ऊपर चन्द्रविन्दु लगाना अनिवार्य होता है। जैन आचार्यों की दृष्टि में मधं चन्द्र के माहार में सिद्ध शिला की कल्पना की गई है ! तंत्र शास्त्र के अनुसार अलग-अलग शक्तियों प बीज मंत्रों के अलग-अलग संकेत होते हैं जो उसके शक्ति तत्व के प्रतीक माने गये हैं। उदाहरणस्वरूप
हो-नाया योग है। धों-नामी बीज है।
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१ वह दम्प गंह, टीका पृष्ठ १८२
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ध्यान तप .
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आदि वाक्यों का भी चिंतन किया जा सकता है तथा 'आ' पर सीधा आकर आ- आत्मा, आत्मस्वरूप, आत्मदर्शन आदि की कल्पना के रंग में मन को गहरा रंग देना चाहिए । इस प्रकार की कल्पना में मन को आनन्द भी आने लगेगा। आनन्द आने पर मन स्वतः ही स्थिर हो जायेगा।
नाभिकमल से आगे बढ़कर फिर हृदयकमल पर आना चाहिए। उसकी पंखुड़ियों पर 'क' से प्रारंभ कर 'म' तक अक्षर लिखे गये हैं। पूर्वानुसार इन्हीं प्रत्येक अक्षर से अपना चिंतन प्रारम्भ करना चाहिए। जैसे क - कर्म, कर्ता, ख- खंति, खामी (गलती) आदि। अक्षरों पर बंधना नहीं चाहिए कि अमुवः अक्षर के अनुसार ही लघु शब्द ही प्रारम्भ में आये, यह कोई आग्रह नहीं है, जो भी शब्द पहले कल्पना में स्फुरित हो जाये उसी पर प्रारम्भ किया जा सकता है।
हृदय कमल के पश्चात् मुख कमल पर ध्यान को केन्द्रित करना चाहिए। इस अक्षर ध्यान में यदि शांत वातावरण रहे तो मन प्रायः एक मुहुर्त या १ घंटा तक बड़ी आसानी से स्थिर किया जा सकता है।
वीजाक्षर : शब्द और संकेत वैदिक ग्रन्थों में जिसे 'शब्द-ब्रह' कहा गया है, जैन दर्शन में वह पदस्थ ध्यान ही है । शब्द में अपार शक्ति है, चित्त के साथ एकाकार होने से शब्द की वह शक्ति प्रकट होकर अपना चमत्कार दिखाने लगती है। कुछ लोगों की शंका है कि जिन शब्दों का, संकेतों का या बीजाक्षरों का-जैसे में, ह्री, अहं आदि का हम अर्थ नहीं समझते, उनके ध्यान से क्या लाभ हो सकता है ? इसका उत्तर है--फि शब्द में एक विराट शक्ति छिपी रहती है, वह अपने संफेत में संपूर्ण अर्थ को, भाव को समेटे हुए होता है, हम अगर उसका अर्थ नहीं जानते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि शब्द शक्तिहीन है। यह ।। हमारा अज्ञान है कि हम उस शब्द शक्ति से अनभिज्ञ हैं। जैसे तार में संफेतलिपि का प्रयोग होता है, उनमें लकीरों ओर बिन्दुओं के अतिरिक्त ओर यया दीखने में आता है ? किन्तु जानने वाले उसने पुरी भाषा और संदेश निकाल लेते है। शोरलिपि (शार्ट हैन्ड) में भी तो संकेतों का ही प्रयोग होता है ! जो उनकेतों को समझने में उनके लिए यह सब कुछ है !
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. .. जैन धर्म में तप ... चाहिए । इसी ध्यान का आलम्बन सरल बनाने के लिए आगे चलकर प्रतिमामूर्ति का आधार लिया गया है। किन्तु यह ध्यान रखना चाहिए-मूर्ति सिर्फ प्रेरक हो सकती है, किन्तु मूर्ति को ही भगवान मानकर उसकी पूजा करना, उसके समक्ष फल-फूल चढ़ाना, दीपक जलाना और यह मानना कि मैं तो भगवान की ही साक्षात् अर्चना कर रहा हूँ--यह एक प्रकार की अघंश्रद्धा व अज्ञान की श्रेणी में चला जाता है !
रूपातीत ध्यान . .. धर्म ध्यान का यह चौथा प्रकार है- इस में रूप से अतीत निराकार- . . ... निरंजन सिद्ध भगवान परमात्मा का चिंतन करते हुए आत्मा उसी में तन्मय . हो जाता है । आचार्यों ने बताया है
... निरंजनस्य सिद्धस्य ध्यानं स्याद् रूप वजितम् । निरंजन सिद्ध स्वरूप का ध्यान करते हुए आत्मा स्वयं को कम मल मुक्त सिद्ध स्वरूप में ही अनुभव करता है। इस ध्यान में पूर्व वर्णित ध्यानों को तरह कोई साकार कल्पना नहीं होती, न कोई मंत्र व पद होता है, न दृश्य आदि की कल्पना । किन्तु मन इतना सध जाता है कि बिना दृश्य के ही वह एक विचार में स्थिर हो जाता है। रूपातीत शब्द से यहां दो अर्थ लिये जा . समाते हैं-एक-किसी आलम्बन के विना अरूप कल्पना में ही मन स्थिर .. हो जाना । दूसरा - रूप रहित आत्म तत्त्व या सिद्ध स्वरूप की कल्पना करते हुए आत्म चिंतन करना कि-मैं अरूपी हूं, अभौतिक हूं। मेरा आत्मा अन्य . . है, इन्द्रियां अन्य है । जो दीखता है वह मैं नहीं, इस प्रकार स्वयं को अका . मानकर चिंतन करना और अल्गी-सिद्ध भगवान के गुणों आदि का चिंतन कारना-ये दोनों ही अर्थ मातीत ध्यान के साथ जुड़े हुए हैं। .
भाजाल जिस भावातीत, विचारशून्य ध्यान कहते हैं यह मातीत . ध्यान की ही एक परिकलाना है। किन्तु कोई साधक सीधा ही इस धान की बेनी में पहुंचना चाहे तो यह प्राय: असंभव है । स्थल से शुभम की ओर धीरे और बड़ा आता है। मो . अन्ना की और बढ़ने में काफी अभ्यास और १ योग शान ११
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ध्यान तप
की-काली वीज है। ऐं-सरस्वती वीज है। : .. फट---अस्त्र बीज है। क्लीं-काम वीज है।
ई-योनि वीज है। कुछ वीज ईप्टदेव के प्रयम अक्षरों के आधार पर भी बनाये जाते हैं । जैसे-अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और साधु-इन पंच परमेष्ठी के प्रथमाक्षरों को लेकर 'असिआउसा' वीजाक्षर बन गया है। वैदिक ग्रन्यों में भी इस प्रकार के उदाहरण मिलते हैं-यथा गणेश के लिए 'ग' दुर्गा के लिए. 'दु' आदि । ___इन बीजाक्षरों के आधार पर अपने इष्ट देव (ध्यान रहे-ध्येय-इप्ट : . हमेशा ही वीतराग होना चाहिए, और ध्यान निष्काम भाव से करना चाहिए) . के स्वरूप का चिंतन करना पदस्य ध्यान है।
रूपस्य ध्यान रूपयुक्त-इप्टदेव तीर्थकर आदि का चितन करना-रूपस्य ध्यान है -अहंतो रूपमालम्ब्य ध्यानं स्पस्यमुच्यते । इस ध्यान में फल्पना बड़ी सुरम्य और रंग-बिरंगी होती है। साधक एकांत शांत वातावरण में बैठा हुआ आयें मुदकर हृदय की आंखें खोल लेता है । आमाश को चित्रपट-पर्दा . बना लेता है, मन को कुंची। भगवान के दिव्य रूप, उनके समवसरण आदि । की रंग-बिरंगी कल्पनाओं में इतना लीन हो जाता है कि उसे जैसे लगता है, वह साक्षात् वहां बैठा प्रभु के पावन दर्शन कर रहा है, कानों से प्रवचनपीरूप धारा पो रहा है, और समवसरण का रम्य दृश्य देख रहा है । इष्टदेव के रूम सम्बन्धी विभिन्न इस्य बनाने चाहिए और उनमें गन को रमाना
१ देखें--प्यान और मनोवल (डा० इन्द्रचन्द्र) १० . २ योगनास
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. जैन धर्म में तपः भगवान महावीर ने दीक्षा लेते समय शरीर पर चन्दन आदि सुगंधित वस्तुओं का लेप किया था। दीक्षा के बाद जब जंगल में ध्यान करने सड़े . हुए तो उस सुगंध के कारण भौंरे आदि कीट पतंग-आ-आकर उनके शरीर पर बैठने लगे और उनकी चमड़ी को छेद कर मांस तक भी नोंचने लग .. गये । किन्तु प्रभु तो उस स्थिति में अपने ध्यान में ऐसे खड़े रहे जैसे कुछ अनुभव ही नहीं हो रहा हो । उनके जीवन में ध्यानावस्था में अनेक उपसर्ग हुए,
पर कभी भी उनका ध्यान भंग नहीं हो सका, वे कभी जी चंचल नहीं ... वन-यही शुक्लध्यान की स्थिति है। गजसुकुमाल मुनि के मस्तक पर . - अंगारे भर देने पर भी वे उस मरणांतक पीड़ा से अकम्पित और अचंचल बने रहकर शुक्ल ध्यान में लीन बने रहे। चित्त की इस प्रकार की निर्मलता एवं स्थिरता जिस अवस्था में प्राप्त हो जाती है वही अवस्था जैन परिभाषा में शुक्ल ध्यान है, वैदिक परिभाषा में समाधि' है। .
शुक्ल ध्यान के दो भेद किए गये हैं---शुक्ल और परम शुक्ल ! चतुदर्श पूर्वधर तक का शुक्ल ध्यान है, केवली भगवान का ध्यान परम शुक्लध्यान . है। यह भेद ध्यान की विशुद्धता एवं अधिकतम स्थिरता की दृष्टि से किये . गए है।
स्वरूप की दृष्टि से शुक्लध्यान के चार भेद बताये गये हैं.- ..
१ पुषत्व वितर्फ सविचार-पृथक्त्व-का अर्थ है भेद ! बितक का अर्थ है-तर्फ प्रधान चितन । इस ध्यान में भूत ज्ञान का सहारा लेकर वस्तु के विविध भेदों पर मूक्ष्मातितुक्ष्म चिंतन किया जाता है। जैसे कभी ... जड़ वस्तु को अपने ध्येय का विषय बनकर उसी के स्वरूप पर चिंतन करो .. चले गए। द्रव्य-गुण-पर्याय आदि पर विचार करते हुए द्रव्य से पर्यावर, पुनः गांग से द्रव्य पर... इस प्रकार ध्येय का विषय भेदप्रधान बनाकर मुथन चितग करते जाना।
२ बानाग १० नमवाराम
नगवती २५
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ध्यान तप .
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साधना चाहिए । पूर्व के भेदों में याता, ध्यान और ध्येय का भेद रहता है, किन्तु रूपातीत ध्यान सिद्ध होने पर यह भेद रेखा समाप्त हो जाती है, ध्याता ध्येय और ध्यान तीनों एकाकार हो जाते हैं जैसे समुद्र में समस्त नदियां अपना-अपना स्वल्प विलीन कर समुद्राकार हो जाती है, उसी प्रकार इस ध्यान में ध्याता-ध्येय रूप में एकाकार हो जाता है। ............
श्वेताम्बर मान्यतानुसार छठे गुणस्थान में धर्मध्यान होता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा सातवें गुणस्थान से ही धर्मध्यान मानती है-: धर्ममप्रमत्तसंयतस्य'-धर्म ध्यान अप्रमत्त संयत को ही होता है तथा जिसके कपाय उपशांत एवं क्षीण हो गए हों वही धर्मध्यान का अधिकारी हो सकता है।
शुक्लध्यान का स्वरूप ध्यान की यह परम उज्ज्वल निर्मल दशा है। मन से जब विषय-कपाय दूर हो जाते हैं, तो उसकी मलिनता अपने आप घट जाती है। मन उज्ज्वल होते-होते-जव शुभ्र वस्त्र की भांति सर्वथा मल रहित हो जाता है तो वह मन शुगलता को-अर्थात् निर्मलता को प्राप्त कर लेता है । उस निर्मल मन . को एकाग्रता एवं अत्यन्त स्थिरता ही शुक्लध्यान कहलाती है। आचार्यों ने शुक्लध्यान की दशा का वर्णन करते हुए बताया है-जिस ध्यान में. बाघ विषयों का सम्बन्ध होने पर भी मन उनकी ओर नहीं जाता तथा पूर्ण वैराग्य दशा में रमता रहता है। इस ध्यान की स्थिति में यदि कोई साधक के शरीर पर प्रहार करे, इंदन भेदन करे तब भी उनके नित्त में संस्लेश पैदा नहीं होता, शरीर को पीड़ा होते हुए भी उन पीड़ा की अनुभूति मन को स्पर्ग नहीं कर सस्तो। भयंकर से भयंकर वेदना व उपसर्ग भी मन को चंचल नहीं बना सरने । साधा का चितन बाहर से भीतर की ओर चला जाता है, देह होते हुए नो वह स्वयं को विदेह बा देहमुक्त ना अनुमा . करने लगता है।
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१ तथा मुत्र ३१३३.३८
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जैन धर्म में तप
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की श्रेणी में आरूढ़ होकर अयोगी केवली वन जाता है । यह परम निष्कम्प व समस्त क्रिया योग से मुक्त ध्यान दशा है इस दशा को प्राप्त होने पर पुनः उस ध्यान से निवृत्ति हटना नहीं होता इसी कारण इसे समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति शुक्ल ध्यान कहा है। इसी ध्यान के प्रभाव से आत्मा के साथ रहे.. हुए शेष चार कर्म शीघ्र ही क्षीण हो जाते हैं और अरिहंत भगवान -- -वीतराग आत्मा- सिद्ध दशा को प्राप्त कर लेते हैं ।
प्रथम दो भेद सातवें से बारहवें गुणस्थान तक माने गए हैं। तीसरा रूप तेरहवें गुणस्थान में रहता है । तथा चोथे ध्यान में आत्मा चौदहवें गुण स्थान में प्रवेश कर जाती है । प्रथम दो ध्यान सालम्बन है- उनमें श्रुत ज्ञान का आलम्वन रहता है किन्तु शेष दो ध्यान - निरवलम्ब ध्यान है, उनमें किसी भी सहारे व आलम्बन की अपेक्षा नहीं रहती ।
शुक्लध्यान के चार लिंग व आलम्बन शुक्लध्यानी आत्मा के चार चिह्न हैं । वह इन चिह्नों (लिंगों) से पहचाना
जाता है
vid
१ अन्यच - भयंकर से भयंकर उपसगों में व्यक्ति चलित नहीं होता । २ सम्मोह - सूक्ष्म तात्विक विषयों में, अथवा देवादिकृत माया से सम्मोहित नहीं होता । उसकी श्रद्धा अचल रहती है।
३ विवेक - आत्मा और देह के पृथक्त्व का वास्तविक ज्ञान उसे होता है । कर्तव्य अकर्तव्य का सम्पूर्ण विवेक उसमें जागृत होता है ।
४ व्युत्सर्ग- समस्त आसक्तियों से, भोजन, वस्त्र तथा देह की आसक्ति से भी सर्वथा मुक्त रहता है। उनका मन परम वीतराग भाव की ओर बढ़त गतिशील रहता है |
इन चार लक्षणों से पहचाना जा सकता है कि अमुक आमा ध्यान की योग्यता रखता है |
गुलध्यान रूप महल पर बढ़ने के लिए चार आतंकन भी शास्त्रों में बताये गये हैं । म्बन से मतलब यही है कि प्रारम्भिक में बिना आलम्ब के मन स्थिर नहीं होता । मन लापस्यकता होती है में यह बताये गये हैं।
के लिए जिन सपनों की
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ध्यान तप .
२ एकत्ववितर्कसविचार-जब भेद प्रधान चिंतन में मन स्थिरता प्राप्त कर लेता है तो फिर अभेद प्रधान चिंतन में स्वतः ही स्थिरता आ जाती है। इस ध्यान में वस्तु के एक रूप को ही ध्येय बनाया जाता है। यदि किसी एक पर्यायल्प अर्थ पर चिंतन चलता है तो उती पर वह चिंतन चलता रहेगा। साधक जिस योग (मन वचन व काया) में स्थिर है उसी योग पर अटल रहेगा। विपय व योग का परिवर्तन इस ध्यान में नहीं होता। जैसे निति- हवा रहित स्थान में दीपक स्थिरता के साथ जलता है, वैसे ही . विचार-पवन से मन अकंप रहता हुआ ध्यान की लौ लगाए रहता है । यद्यपि निर्वात गृह में भी दीपक को सूक्ष्म हवा मिलती रहती है, वैसे ही इस ध्यान में भी साधक सूक्ष्म विचारों पर चलता है, यह ध्यान सर्वधा निर्विचार ध्यान . नहीं है किन्तु विचार स्थिर हो जाते हैं-किसी एक ही वस्तु तत्व पर । ___३ सूक्ष्मझिया 5 प्रतिपाति-यह ध्यान अत्यन्त सुक्ष्म निया पर चलता है । इस ध्यान की स्थिति प्राप्त होने के बाद योगी पुनः अपने ध्यान से गिर .. नहीं सकता अतः इसे सुक्ष्म किया अप्रतिपाती कहा है । जैन आगमों में बताया गया है कि यह ध्यान केवलो-वीतराग आत्मा को ही होता है। जब आयुष्य का बहुत कम समय (अन्तर्मुहूर्त) शेष रह जाता है उस समय वीतराग बात्मा में योगनिरोप की प्रक्रिया चालू हो जाती है। स्थल काययोग के सहारे से स्थूल मन पोग को नुक्ष्म बनाया जाता है, फिर सुक्ष्म मन के सहारे स्यूलकाय योग को नुक्ष्म रूप देते हैं। फिर सूक्ष्म काययोग के अवलंबन से सूक्षम मन-वचन का निरोध करते हैं उस अवस्था में सिर्फ सुक्ष्म कार योगमात्र वासोच्छ्वास की प्रक्रिया ही शेप रह जाती है उस स्थिति का ध्यान ही यह ध्यान है । बस इनको अन्तर्मुहुंत हो जात्मा अपोगी सिद्ध मन जाता है।
४ समुच्छिन्नफियाऽनियत्ति-शुक्लध्यान की सीमारी दशा-अयोगी मा को प्रपन भूमिका है, उत्त ध्यान में सालोच्छवाम को मिला लेप ली है, मनु कान में प्रविष्ट होते वह दना भी समाप्त हो जाती है। आत्मा . सपंपा गोगों का निरोध कर देती है। भात्म प्रदेश तथा निन्न जनजारे . . . है। समस्त योग बनता समाप्त हो जाती है। माना गोर गुग स्थान
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जैन धर्म में तप
उपसंहार ध्यान के विषय में यह गहरा व विस्तृत चिंतन जैन दर्शन में किया गया है। इनमें प्रथम दो ध्यान तो त्याज्य ही है। धर्म ध्यान एवं शुक्ल ध्यान आत्मा के लिए हितकारी है, और उनके द्वारा ही आत्मा कर्म मुक्त हो .. . सकता है।
ध्यान साधना में मुख्य तत्त्व है-समता ! मन को समभाव का जितना ... ही अभ्यास होगा वह उतना ही अधिक स्थिर बनेगा। आचार्य हेमचन्द्र ने इसीलिए कहा है
न साम्येन विना ध्यानं न ध्याने न विना च तत् समभाव के अभ्यास के विना, समत्व की साधना किये बिना ध्यान नहीं हो सकता, मन स्थिर नहीं हो सकता और विना मन स्थिर हुए समाधि शांति प्राप्त नहीं हो सकती । अनासक्ति, वीतरागता, निर्ममत्व इनकी उपलब्धि तभी हो सकती है जब मन 'सम' हो गया हो, विषमता दूर हो ... गई हो। और जिसकी विषमता दूर हो गई वह किसी भी विक्षेप बाधा पर विजय प्राप्त कर मन को ध्यानस्य, समाधिस्थ कर सकता है। वास्तव में मन की स्थिरता, समाधि यही सच्चा तप है।
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ध्यान तप
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१ क्षमा- उदय में आये हुए क्रोध को शांत करना।
२ मार्दव-उदय में आये हुए मान को शांत करना--अर्थात् किसी भी प्रकार का मान नहीं करना।
३ मार्जव--माया का त्याग कर हृदय को सरल बनाना। ४ मुक्ति-लोभ को सर्वथा जीत लेना।'
चार अनुप्रेक्षाएं शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं.---विशेप चिंतन की धारा भी बताई गई है
१ अनन्त पतितानुप्रेक्षा-अनन्त भव-परम्परा के सम्बन्ध में विचार करना। आत्मा किस प्रकार जन्म मरण करती है इस विषय में चिंतन करना।
२ विपरिणामानुप्रेक्षा-वस्तु परिवर्तनशील है। देह से लेकर सूक्ष्म से सुक्ष्म और पोद्गलिक वस्तु सतत बदलती रहती है, शुभ बस्तु अशुभ रूप में अशुभ शुभ रूप में। उनकी परिवर्तनशीलता-विपरिणामों पर विचार करने से वस्तु की आसक्ति व राग-द्वेष कम हो जाता है।
३ अशभानुप्रेक्षा-संसार के अशुभ स्वरूप पर विचार करना । इसमें भोग्य पदार्थों के प्रति मन में ग्लानि उत्पन्न हो जाती है जिसे निर्वेद कहते हैं । ___४ अपापानुप्रेक्षा--पापाचरण के कारण अशुभ कर्मों का बन्ध होता है और उससे आत्मा को विविध गतियों में कष्ट व दुःख झेलने पड़ते हैं। उन अपायों-फ्रोधादि दोपा तथा उनके कटुफलों का विनार करना।
वास्तव में ये चार अनुप्रेक्षएं प्रारम्भिक अवस्था की है, जब तक मन में स्थिरता की कमी होती है तब तक हो इन भावनाओं से मन को बाहर में दौड़ते हए रोर.फार भीतर की ओर मोड़ा जाता है, जब धीरे-धीरे वह स्थिर होने लगता है तो मन इन विचारों में स्वतः ही रम जाता है और उसाती चापोन्मुलता कम हो जाती है।
१ स्थानांग खुब ४१॥ तथा भगवतीमुध २५१७
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.. . जैन धर्म में तप . जिसने ममत्ववृति का त्याग कर दिया है उसने समस्त संसार का त्याग कर दिया । वास्तव में उसी ने मोक्ष का मार्ग देखा है, जिसके मन में किसी . भी भौतिक वस्तु के प्रति, शरीर के प्रति भी मेरापन-ममत्व नहीं है। विश्व में सबसे बड़ा बन्धन एक ही है-ममत्व ! परिग्रह ।
नस्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्यि सव्व जीवाणं' . . जीव के लिए ऐसा पाश-बंधन और प्रतिबंध संसार में दूसरा नहीं है जैसा यह परिग्रह अर्थात् ममत्व है ! इस ममत्व-बुद्धि का त्याग कर देने .... वाला ही सच्चा साधक व सच्चा तपस्वी हो सकता है । ___ ममत्व वुद्धि का परिहार करने के लिए अनेक साधन व उपाय बताये गये हैं उनमें ही एक मुख्य साधन है-व्युत्सर्ग !
व्युत्सर्ग-आभ्यन्तर तपों की श्रेणी में छठा व अन्तिम तप हैं। इस ता . की साधना जीवन में निर्ममत्व की, निस्पृहता की और अनासक्ति एवं निर्भयता की ज्योति प्रज्ज्वलित करती है। साधक में आत्मसाधना के लिए अपूर्व साहस और बलिदान की भावना जगाती है।
व्युत्सगं को परिभाषा व्युत्सर्ग-~में दो शब्द हैं वि-उत्सर्ग । वि का अर्थ है विशिष्ट और उत्सर्ग . का अर्थ है-त्याग । विशिष्ट त्याग, अर्थात् त्याग करने की विशिष्ट विधि-. व्युत्सर्ग है।
माशा और ममत्व जीवन का सबसे बड़ा बंधन है। यह आशा, ममत्ल नाहे धन का हो, परिवार का हो, शिष्यों का हो, भोजन आदि रसों का हो, .. पा अपने शरीर कता ही हो, बंधन है, मोह है और जब तक वह नहीं घुटनामुक्ति नहीं मिल सकती । व्युत्सर्ग में इन सब पदायों के मोह का लाग लिया जाता है, उनके प्रति, यहां तक कि शरीर व प्राण के प्रति भी मोह त्याग .. दिया जाता है, सर्वर सर्वदा-निममत्व भाव की पवित्र भावना से मामा हो बलिदान के लिए तैयार किया जाता है। दिगम्बर आचार्य अल .. . बरस की परिभाग करते हुए लिखा है-..
२ प्रनम्माकरण
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निर्ममत्व की साधना च्युत्सगं
जैन धर्म के उपदेशों का सार यदि एक वाक्य में बताना हो तो कहा जा सकता है-निगंमत्व ! वीतरागता ! ममत्व का त्याग करके वीतराग भाव प्राप्त करना, बस यही समस्त जैन दर्शन का सार है । किसी विद्वान से पूछा जाय कि समस्त भारतीय दर्शन का सार क्या है ? तो वह इसके तिवा और क्या बतायेगा ? उपनिषदों का सार गीता है । और गोता का सार है-. अनासक्ति योग ! युद्ध के समस्त उपदेशों में जो तत्त्व मुख्य है, वह है- उपेक्षा वृत्ति ! और जैन धर्म के समस्त नागमों में जिस शब्द की प्रतिध्वनि ज रही है, वह है वीतरागता । नारि समस्त दर्शनों की मूल भावना एक ही है--शरीर, भोग, यश प्रतिष्ठा आदि समस्त वाह्य तत्वों के प्रति उदासीनता रखना, उनके प्रति उपेक्षा भाव रखना, उनसे बनावत रहना और उनके प्रति नमत्व भाव का त्याग कर देना | भगवान महावीर ने कहा है-
१
६ व्युत्सर्ग तप
मनाइयन हाइ से बाइ समादयं । सेहूदिहे मुनी बस्स पत्निमाइ
आधारका श६
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जैन धर्म में तप
जिनकी चर्चा भगवती, स्थामांग आदि सूत्रों में की गई है। यहां व्युत्सगं के उन समस्त भेदों पर विचार करना है ।
विउस्सग्गे दुविहे पण्णत्ते तं जहा
दव्वविउस्सग्गे य भावविउस्सग्गे य ।
व्युत्सगं तप दो प्रकार का है, द्रव्य व्युत्सगं और भाव व्युत्सगं । द्रव्य व्युत्सर्ग के चार प्रकार हैं
१. गण व्युत्सर्ग,
३. उपधि व्युत्सर्ग, ४. भक्तपान व्युत्सगं ।
१. गणव्युत्सगं - 'गण' नाम समूह का है। भारतीय परम्परा में गण शब्द बहुत ही विश्रुत है । प्राचीन समय में 'गण' का बहुत महत्व था । मनुष्यों के विविध प्रकार के समूह, दल या कुटुम्ब होते थे जो गण कहलाते थे। यहां गण से – एक या अनेक गुरुत्रों के शिष्यों का समूह - पह अर्थ अभिप्रेत है । गण में अनेक प्रकार के साधु रहते हैं जो अपनी-अपनी रुचि व सामर्थ्य के अनुसार साधना वश्रुत अव्ययन करते रहते हैं । साधना करने के लिए 'गण' का आलंबन - सहारा आवश्यक होता है । जैसे शरीर, गृहस्थ आदि साधना में उपकारी होते हैं, वैसे ही 'गण' भी साधना में सहयोगी व उपकारी होता है । गण के आश्रय से साधु अपनी चर्या निर्दोष एवं समाधिपूर्वक चला सकता है। भगवान महावीर के शासन में तथा अन्य तीर्थकरों के शासन में गणव्यवस्था थी, एक-एक गण में सैकड़ों हजारों साधु रहते थे, सबकी समाचारों तथा प्रषणा एक जैसी होती थी । उस गण के नायक 'गणधर कहलाते थे ।
यहां प्रश्न होता है जब 'गण' साधना में अति आवश्यक है तो फिर उसका व्युत्सगं-त्याग क्यों किया जाय ? उत्तर है- गण से भी अधिक उपकारी मनुष्य का अपना 'शरीर' है, किन्तु साधना को अधिक तेजस्वी व प्रतर बनाने के लिए बरी काही त्याग दिया जाता है तो 'ग' की बात तो बहुत ही साधारण हो गई। अतः तक की यह अनुभव हो
६ भगवती २५७
२. शरीर व्युत्सर्गं ( कायोत्सर्ग)
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व्युत्सर्ग तप
निःसंग-निर्भयत्व जीविताशा व्युवासाद्यर्थो व्युत्तर्ग:१ निःसंगता-अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग, बस इसी आधार पर टिका है-व्युत्सर्ग ! धर्म के लिए, आत्म साधना के लिए, अपने आपको उत्सर्ग करने की विधि ही व्युत्सर्ग है । यही व्युत्सर्ग की संक्षिप्त परिभाषा जैन धर्म में की गई है । आचार्य भद्रबाहु ने कहा है
अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीवृत्ति फय वुद्धी। व्युत्सर्ग तप की साधना करने वाले में यह दृढ़ बुद्धि होती है कि- गह शरीर अन्य है, और मेरा आत्मा अन्य है । शरीर को त्यागना है,नाशमान है, आत्मा को अपनाना है, वह शाश्वत है, चिरकाल का साथी है। बस इसी धारणा पर चलता हुआ साधक शरीर जो कि 'पर' है-उसकी ममता से दूर हटता है, और आत्मा जो कि 'स्व' है उसके निकट आता है । आत्मा के लिए सब कुछ त्याग देने को तत्पर हो जाता है ।
व्युत्सर्ग फा स्वरूप गुत्सर्ग को छठा आभ्यन्तर तप माना है और इसका वर्णन अनेक सूत्रों में मिलता है । उत्तराध्ययन में बहुत संक्षेप में ही इस विण्य में बताया है, और सिर्फ कागोत्सर्ग को ही वहां न्युनगं का पर्यायवाची बताया
सपणासणठाणे वा जेउ मिपा न वावरे ।
फायत्स विउस्तम्गो हो सो परिफित्तिओ।' जो निक्ष-सोना-बैठना-उठना आदि समस्त कारिक क्रियाओं का त्याग कर शरीर को स्थिर पारफे उसकी ममता का, उसकी सार संभाल का त्याग कर देता है-यह कायोत्नगं छठा तप है।
महा मुलगं का स्वरूर बहुत ही संक्षेप में बताया है । कापोल भी .. गुमाग है, किन्तु इसके साथ अन्य भी कई प्रकार के व्यसन मंदन .
weennerme........
३. सत्यारानयासिर २६६१० २ जाति १५५२
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५१०
... . जैन धर्म में तपः
..
आराधना के लिए गण का त्याग कर अन्य गण में जाना अथवा एकाकी रहना।
कायोत्सा २. शरीर व्युत्सर्ग-इसी का दूसरा नाम कायोत्सर्ग है । कायोत्सर्ग का ... मुख्य उद्देश्य है-- दोपों की विशुद्धि करना । धर्माराधना करते हुए कभी-कभी उसमें प्रमाद भी हो जाता है, उस प्रमाद के कारण अशुभ कमों का बन्धन भी होता है । चारित्र में कुछ दोष लग जाने से मलिनता भी आ जाती है । उस मलिनता को दूर कर चारित्र रूप शरीर को पुनः उज्ज्वल व निर्मल बनाने के लिए कायोत्सर्ग एक प्रकार का स्नान है। इससे चारिय शरीर पर लगा मल, उसके कण-कण से दूर होकर पुनः निर्मलता और कांति प्राप्त होती है। विशुद्धि का यह उद्देश्य स्पष्ट करते हुए आवश्यक सूत्र में बताया है
तस्स उत्तरीकरणणं पायच्छित फरणेणं, विसोही करणेणं, विसल्ली करणेणं पावाणं फम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि काउत्सगं। .
-उस संयम जीवन को विशेष रूप से परिप्त करने के लिए, लगे हुए . दोपों का प्रायश्चित्त करने के लिए, आत्मा को विशुद्ध करने के लिए, शल्य रहित करने के लिए पाप कर्मों का निर्धात-उन्हें नष्ट करने के लिए मैं . कायोत्सर्ग करता हूँ।
कायोत्सर्ग में साधक अपने बवान-प्रमाद वश हुई भूलों के लिए.- . प्रायश्चित्त करता है, मन में पश्चात्ताप करता है और शरीर की ममता को त्याग कर उन दोषों को दूर करने के लिए कृतसंकल्प होता है। उस संकल्प से, पश्चात्ताप से किये हुए कर्मों का भार हलका हो जाता है, मामा पर से जैसे कोई योश उटजाता है, वैसी लघुरा अनुभव होने लगती है। भगवान महावीर
मा मत मिला है ? उत्तर में बताया है.
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व्युत्सर्ग तप कि मेरी साधना, ज्ञानाभ्यास आदि में गण को छोड़ देने से अधिक लाभ हो सकता है तो उन कारणों को ध्यान में रखकर वह 'गण' को छोड़ भी सकता है । स्थानांग सूत्र में बताया है, साधक सात कारणों से गण का व्युत्सर्ग, गण का त्याग कर सकता है ।
-गण छोड़ने के सात कारण ये हैं
१. मैं सब धर्मों (ज्ञान, दर्शन और चारित्र को साधनाओं) को प्राप्त करना (साधना) चाहता हूँ और उन धमों (साधनाओं) को मैं अन्य गण में जाकर ही प्राप्त कर (साध) सकूगा अतः मैं गण छोड़कर अन्य गण में जाना चाहता हूं।'
२. मुझे अमुक धर्म (साधना) प्रिय है और अमुक धर्म (साधना) प्रिय नहीं है। अत: मैं गण छोड़कर अन्य गण में जाना चाहता हूं।
३. सभी धर्मों (ज्ञान, दर्शन और चारित्र) में मुझे सन्देह है अतः संशय निवारणार्थ में अन्य गण में जाना चाहता हूं।
४. कुछ धमों (साधनाओं) में मुझे संशय है और कुछ धो (साधनाओं) में संशय नहीं है। अतः मैं संशय निवारणार्थ अन्य गण में जाना चाहता हूं।
५. सभी धर्मों (शान, दर्शन और चारित्र सम्बन्धी) को विशिष्ट धारणाओं को मैं देना (तिताना) चाहता हूं। इस गण में ऐसा कोई योग्य पात्र नहीं है अतः मैं अन्य गण में जाना चाहता हूं।
६. युध धनों (पूर्वोक्त धारणाओं) को देना चाहता हूं और कुछ धमा (पूर्वोक्त धारणाओं) को नहीं देना चाहता हूं अतः मैं अन्य गण में जाना . चाहता हूं।
१. एकल विहार की प्रतिमा धारण करके विचरना चाहता है। अतः . में गण छोड़कर जाना चाहता हूँ।)
ग ल' का मुख्य प्रपोजन ई-यूत भान पवारिष का विशेष . .
१ पर्माचार को मोड़ने का कारण यहाकर मन को जमा प्राप्त ..
कर लेनी चाहिए। आमा तिन दिना नाम नहीं छोड़ना चाहिए।
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. जैन धर्म में तप परिग्रह है-~-उनकी ममता । ममता छूट गई तो फिर यह शरीर तो उपकारी हो जायेगा । तो इसलिए शरीर की ममता, मोह, सार संभाल-इतका त्याग करना-अर्थात् ममता कम करते जाना—यही कायोत्सर्ग का अर्थ है । देह का नहीं, किन्तु देह-बुद्धि का विसर्जन करना-कायोत्सर्ग का उद्देश्य है। इसमें साधक कुछ समय के लिए शरीर को स्थिर कर, जिनमुद्रा धारण करके . खड़ा हो जाता है, मन में संकल्प करता है-अप्पाणं वोसिरामि में कुछ समय के लिए अपने शरीर का त्याग कर रहा हूं, अर्थात दंश, मंस आदि कार्ट, खाज खुजली आये, सर्दी लगे, गर्मी लगे-शरीर को कुछ भी कष्ट हो, पर मैं उस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दूंगा- यह सोचूंगा अभी मैं शरीर से . दूर हूं, आत्मा में विचरण कर रहा हूँ। और यही भावन करूंगा- ....
शरीरतः कर्तुमनन्तशक्ति .
विभिन्नमात्मानमपास्त दोपं । जिनेन्द्र ! कोपादिय खङ्गाष्टि
तव प्रसादेन ममास्तु शक्तिः ! हे प्रभो ! आप की कृपा से मेरी आत्मा में ऐसी शक्ति प्रकट हो ! ऐसा आध्यात्मिक वल जागृत हो कि मैं अपनी अनन्त शक्ति सम्पन्न दोप. रहित निर्मल आत्मा को शरीर से सवंया अलग समश सपू. ते म्यान से तलवार अलग रहती है।
शारीर म्यान है, आत्मा तलवार है-कायोत्सर्ग में इन दोनों को अलगअलग समाने की भावना जागृत होती है, इन दोनों का निमत्व भी अनुमा होता है। शरीर पर चाहे जितनी वेदना का प्रभाव हो, उपसर्ग हो, कोई प्रहार करे किन्तु उस समय साधक शरीर की पीड़ा में अति पोहा की. अनुभूति से जो सर्वधा दूर चला जाता है, उसी पारीर के गुरद कोई सम्बन्ध भी नहीं रहता, परा, वह तो अपने आत्मध्यान में स्पिर बड़ा रहता - है। और देह में होते हुए भी देह बुद्धि से, देह भाय से सर्वथा मुE-Trai
.
13
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व्युत्सगं तप . .
५११ जीवे निव्वुहियए ओहरिय भरव्व भारवहे पसत्य साणोवगए सुहं सुहेणं विहरई । ____ संयम जीवन में प्रमाद वश साधक कभी जो इधर-उधर भटक जाता है, और दोप सेवन कर लेता है-जाने अन जाने जो भूलें कर बैठता हैकायोत्सर्ग करने से उन सब भूलों और दोपों की शुद्धि कर लेता है । आत्मा को निर्मल एवं निप्पाप बना लेता है। निर्मल आत्मा अपने आपको बहुत हलका और प्रसन्न अनुभव करता है। कल्पना करिए-~जेठ का महीना हो, मंजिल दूर हो, ऊँचा-नीचा ऊबड़-खाबड़ रास्ता हो, और सिर पर मन भर की गठरी लिए कोई मजदूर चल रहा हो। बोझ से सिर की नसें टूट रही हों, पसीने से तर-बतर हो रहा हो, दम फूल रहा हो। उस समय में कोई आदमी उस मजदूर का बोझ उतार कर अलग रखवा दे, उसे शीतल छाया में विश्राम करने देवे-तो उसे कितना आनन्द होगा और कितनी प्रसन्नता तथा हलकापन उसे अनुभव होगी। मजदूर की भांति पापों के भार से दबी मात्मा की स्थिति है। वह पापों के भार से इतनी सेदखिल हो रही है कि यदि उसे क्षणभर भी कहीं हलकापन अनुभव हों, विधान्ति मिले तो वह बड़ी प्रसन्नता अनुभव करेगी ! कायोत्सर्ग द्वारा पापों का वह भार दूर हटा दिया जाता है । आत्मा हलका हो जाता है। उसके भीतर प्रशस्त ध्यान की शीतल धारा वहने लगती है और प्रसन्नता की उनियां उठने लगती हैंआत्मा स्वयं को बड़ा हो सुखमय एवं आनन्द मय अनुभव करने लगता है।
देह-बुद्धि का विसर्जन कायोत्सर्ग पर दो शब्दों के योग से बना है-इसमें गाय और उत्सर्गये दो शब्द हैं। दोनों सा मिलकर अचं होता है काया का त्याग । प्रश्न होता है काया का याग तब तक की हो सकता है जब तक प्राण है ! प्रागधारण . के लिए तो शरीर आवश्यक है। यहां समाधान मह कि काया का त्याग करने का अपं है. काया की ममता का त्याग । योकि यह को कई बार स्पष्ट किया जा सका हैदारीर, अधि आदि बंधन नहीं है, बंधन
-
१
खराध्ययन २६।१२
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जैन धर्म में तप
राजा चन्द्रावतंस राज्य करते हुए भी बड़ा साधनामय जीवन जीता था । एक बार उसने किसी पर्व तिथि पर उपवास किया। रात्रि में कायोत्सगं करने का विचार कर महलों में ही एकांत स्थान पर जाकर खड़ा हो गया ।सामने एक दीपक जल रहा था, धीमे-धीमे टिमटिमा रहा था। राजा ने कायोत्सर्ग करने के साथ ही मन में संकल्प किया- "जब तक यह दीपक जलता रहेगा में कायोत्सर्ग में खड़ा अपना आत्मध्यान करता रहूंगा ।" कुछ समय बीता । राजा की परिचारिका दासी उधर आई। उसने सोचा- महाराज साधना कर रहे हैं, दीपक टिमटिमा रहा है, कहीं तेल खत्म न हो जाय, अंधेरा हो जायेगा, तो महाराज को कष्ट होगा । दासी ने तुरन्त दीपक को लबालब भर दिया, उसकी लो और तेज जल उठी ! दीपक जलता रहा तो
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५१४
राजा भी अपने संकल्प के अनुसार कायोत्सर्ग किये स्थिर खड़ा रहा । मध्य रात्रि का समय हो गया । दासीने सोचा - महाराज अभी तक सड़े हैं ! आज
--
तक कभी इतनी देर खड़े नहीं रहे, जरूर आज कोई विशेष साधना कर रहे हैं, कहीं ऐसा न हो कि दीया गुल हो जाय, अंधेरा हो जाय ! दाती ने फिर दीये को छलाछल भर दिया। राजा अपने संकल्प के अनुसार खड़ा रहा उसके पैरों में भयंकर वेदना होने लगी, नसें फटने लगी, पर राजा इढ़ता के साथ अपने कायोत्सगं ध्यान में बड़ा रहा । बाहर वह तेल का दीपक जलता रहा, भीतर में उसके निर्मल भावों का दीपक जलता रहा, जैसे-जैसे तेल कम होता, दासी तेल भरती गई, राजा का संकल्प भी हु-हतर होता गया । उसने शरीर की असह्य वेदना से मन को हटा लिया । प्रातः पौ फटते-फटते दीपक का तेल सरम होने आया इधर राजा के शरीर का तेल (शक्ति) नी प्रायः समाप्त हो चुका था, पैर सूज गये थे, यह घड़ान से भूमि पर गिर पड़ा और परम पवित्र ध्यान में देकर उच्च गति को प्राप्त कर लिया । के बल पर अपनी देह को, करने की स्थिति में भी पहुंच जाता है। जब तक शरीर के प्रति गत्वा नाक कोई भी साधना हर
तो इस प्रकार आप को
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व्युत्सगं तप
५१३ हमारे इतिहास के प्राचीन ग्रंथों में ऐसे सैकड़ों-हजारों उदाहरण मिलते हैं, जहां साधु संत, साधक जंगल में, श्मशान में, कहीं शून्य एकांत स्थान में कायोत्सर्ग करके खड़े होते हैं, देह भाव से निकलकर आत्मा की परम ज्योति में लीन हो जाते हैं और उस समय उन्हें भयंकर उपसर्ग होते हैं, कोई प्रहार करता है, कोई मारता है, शरीर का छेदन भेदन करता है, किन्तु साधक ऐसे स्थिर खड़ा रहता है जैसे यह शरीर का उसका है ही नहीं ! आचार्य भद्रबाहु ने साधक की उस स्थिति का चित्रण किया है--
वासो - चंदणकप्पो
जो मरणे जोविए य समसप्यो। देहे य अप्पडिबद्धो
फाउसगो हवइ तस्स ११५४८॥ चाहे कोई भक्ति भावपूर्वक चंदन का लेप करे या कोई द्वेप पूर्वक यसोले से छोले । चाहे जीवित रहे या मृत्यु आ जाय, किन्तु उन सभी स्थितियों में साधक देह में आसक्ति नहीं रखता है, समभाव पूर्वक स्थिर रहता है, वस्तुतः ऐसा साधफ ही कायोत्सर्ग कर सकता है।
तिविहाणवसगाणं
दिव्याणं माणसाण तिरियाण। सम्ममहियासणाए
काउस्सागो हवा सुडो ।१५४६॥ कायोत्सर्ग की साधना करते समय देवता, मनुष्य तथा नियंच सम्बन्धी उपसर्ग भी हो सकते हैं, माघर उन उपागों को सम्यक प्रकार से सहन करें तभी उसता कायोलागं शुरु हो सकता है।
इतनी निस्पृहता, पोतरागता और महिष्मता का प्रत्यक्ष गंन कालोसगे में होता है । सा हो नहीं, गृहस्प भी इस कापोलग तप को नापना करता है, वह भी विदेह भार में रमण करने को नदारी कर सकता है। इतिहान में एक उपाहरन माता राना इन्द्रावतसकता। जो इन महार:---
।
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जैन धर्म में तप
सो पुण काउस्सग्गो दव्वतो भावतो य भवति । दव्यतो कायचेट्ठा निरोहो, भावतो काउस्सग्गो माणं ।' वह कायोत्सर्ग भी द्रव्य एवं भाव से दो प्रकार का होता है । द्रव्य-काय चेष्टा का निरोध और भाव - धर्म एवं शुक्ल ध्यान में रमण करना प्रथम शरीर की चंचलता एवं ममता का त्याग कर जिनमुद्रा में स्थिर खड़ा होना चाहिए, यह कायचेष्टा निरोध है । उसके आगे धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान रमण करना चाहिए। मन को जब पवित्र विचारों में, उच्च संकल्पों में बांधा जायेगा तभी वह शरीर पर होने वाले प्रहार व वेदना के कप्ट से अनुभव : शुन्य रह सकता है | अतः कायोत्सर्ग में मुख्य बात ध्यान की है। ध्यान की. भूमिका तैयार करने के लिए ही प्रथम द्रव्य कायोत्सर्ग किया जाता है फिर द्रव्य से भाव में प्रवेश करना होता है । यही भाव कायोत्सर्ग का प्राण है कायोत्सर्ग को चमत्कारी बनाने वाला तत्त्व ध्यान ही है । इसी ध्यान युक्त कायोत्सर्ग को सब दुखों से मुक्ति दिलानेवाला कहा है- काउस्सगं तओ कुज्जा सम्यदुक्खविमोक्खणो - यह सब दुःख विमोचक कायोत्सर्ग कौन सा है ? भाव कायोत्सर्ग ! ध्यान कायोत्सर्ग !
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कायोत्सर्ग के चार प्रकार
कायोत्सर्ग के द्रव्य भाव भेद का स्वरूप समझाने के लिए आचायों ने उसके चार प्रकार बताये हैं
१ उत्यित - उत्थित कायोत्सर्ग के लिए खड़ा होने वाला सापक जब शरीर से सड़ा हो जाता है तो उसके साथ उसका मन अन्तरचेतना भी सड़ीजागृत रहती है। अशुभ ध्यान का त्याग कर वह शुभ प्रशस्त ध्यान में तीन होता है। इस प्रकार प्रथम श्रेणी का साधक तन एवं मन- द्रव्य एवं नाव दोनों दृष्टियों से उति होता है ।
२ उत्थित निषिष्ट - कुछ बकरीर से बड़े जोकर द
आवश्यक यूनि
સ્થાપન ३ देखिएम
કર
० १०२ (उपाध्याय श्री अमरमुनि)
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व्युत्सर्ग तप
५१५ नहीं सकता। शरीर की ममता घटाने के लिए उसे प्रतिक्षण यह भावना फरनी चाहिए-कि शरीर मेरा नहीं है, मुझे इस शरीर से कुछ आध्यात्मिक लाभ उठाना है । कायोत्सर्ग की साधना साधक के जीवन की प्रतिदिन की साधना है। प्रतिक्रमण में बार-बार जो यह पाठ बोला जाता है-अप्पाणं वोसि रामि ठाएमि फाउस्सगं उसका भाव यही है कि देह के प्रति अममत्व का भाव बार-बार मन में जगता रहना चाहिए । सिर्फ प्रतिक्रमण के समय में ही नहीं, किन्तु रात-दिन साधना के समय मन में इस प्रकार के संकल्प जगते रहने चाहिए और क्षण-क्षण कायोत्सर्ग की भावना करनी चाहिए। भगवान ने कहा है-~-अभिक्खणं फाउस्सग्गफारी' अभीक्षण-प्रतिक्षण कायोत्सर्ग करता रहे, अर्थात् हर समय देह की ममता से दूर रहने का अभ्यास करता रहे । साधक के प्रत्येक चिंतन में, प्रत्येक सांस में यह भाव गूंजता रहे
अन्न इमं सरीरं मन्नो जीव त्ति शरीर अन्य है, जीव-आत्मा अन्य है, और इसी भाव की अनुभूति हृदय में प्रतिक्षण करता रहे।
फायोत्सर्ग में ध्यान - कायोत्सर्ग का अधं सिर्फ यह नहीं है फिशरीर की चंचलता का त्याग कर, वृक्ष की भांति,पर्वत की तरह पा काट की भांति निप्पंद सड़े हो जाना। . माम इतने से कार्य के लिए कायोत्सर्ग नहीं किया जाता। मूल बात तो यह है कि शरीर की निष्पंदता तो एकेन्द्रिय आदि प्राणियों में भी हो सकती है, पर्वत पर चाहे जितने प्रहार करो, यह कय मंचन होता है और कर किसी पर रोप करता है ? किन्तु बत् निष्पंदता और स्थिरता तो जड़ (अविसित. प्रापी) ली स्थिरता है । सतन स्थिरता नहीं। इसीलिए वेन आचामों में कामोत्सननी यो प्रसार बताए है-म कायोत्सर्ग और भाप कायो. सर्ग आधा जिनदास गनी ने बताया ई
३.
शालिक लिहा fruit .
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५१८
जन धम मतप.
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है-संयम साधना में आवश्यक मर्यादानुसार रखे गये वस्त्र, पात्र आदि, साधनों का । साधक को वस्य की आवश्यकता रहती है,पान आदि अन्य वस्तुगों. की भी। उनके रखने की मर्यादा शास्त्र में बताई गई है । उस मर्यादा से उपरांत तो रखना ही नहीं चाहिए, किन्तु यह भी जरूरी नहीं है कि जितनी मर्यादा है उतने वस्त्र-पान रखना ही चाहिए। उनमें से भी कमी करते जाना, कम से कम पात्र तथा अन्य वस्तुएं रखकर शरीर का संकोन करना चाहिए, सुविधा का संकोच करना चाहिए। साधु के सामने आदर्श है-अप्पोयहि उयगरणजाए अल्पउपधि और अल्पउपकरण रखकर अपनी जीवन चर्या चलाए।. साधक के लिए भगवती सूत्र में कहा है-लाघवियं पसत्यं लघुता, हल्कापन, प्रशस्त है । अल्प उपकरण, अल्प उपघि रखना-द्रव्य लघुता है, वास हल्का पन है और यह संयमी साधक के लिए आवश्यक है। उपधि व्युत्सर्ग में साधा तीन वस्त्रों में से एक वस्त्र का परित्याग करे, फिर दो वस्त्र का परित्याग कर सिर्फ एक ही बस्न में सर्दी गर्मी विताए तथा समय आने पर उस पर वस्य का भी परित्याग कर अचेल अवस्था प्राप्त करे-इसी प्रकार अन्य उपकरणों का भी त्याग करते हुए स्वयं को संयम की कसोटी पर कसता जाए, परीपहीं से जूझता रहे।
४ मतपान व्युत्सर्ग-योजन पानी का परित्याग करना । इसमें अनगन और अनोदरी दोनों तपों की साधना समाविष्ट है। क्रमशः आहार का माग करते हुए समय पर संपूर्ण आहार का त्याग कर देना---यह भक्तपान पारस की साधना है। इनका विस्तृत वर्णन अनशन एवं अनोदरी तप में fiml गया है पाठक यहा देखें। ..
माय पुस भाव गुरसग समान भेद बताये गए हैं- . ..
१ कपापम्युसर्गार काय .. पोष, मान, माया और लोग इन शीरना, धीरे-धीरे उन को छोड़ने का प्राल करता या न है। मा पार पाना बोलने UR-Mai ....
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व्युत्सर्ग तप .
५१७ लेते हैं किन्तु उनका मन वास्तव में सुप्त रहता है. वे भाव से गिरे रहते हैं। मन विविध विकल्पों में, अशुभ ध्यानों में उलझा रहता है। इसमें शरीर खड़ा, मन-आत्मा बैठा रहता है।
३ उपविष्ट-उत्थित-कभी-कभी शरीर की अस्वस्थता, अशक्ति तथा वृद्ध अवस्था आदि के कारण साधक कायोत्सर्ग के लिए खड़ा नहीं हो सकता, किंतु उसके हृदय में शुभ भावों का तीव्र वेग उमड़ता रहता है। उसका मन खड़ा रहता है, किंतु अशक्ति के कारण तन बैठा रहता है।
४ उपविष्ट-निविष्ट--यह चौथी श्रेणी कायोत्सर्ग की एफ विडम्बना मात्र है। आलस्य एवं कर्तव्यशून्यता के कारण साधन शरीर से भी बैठा . रहता है तथा उसका मन, विषय भोगों में, सांसारिक नितन में फैला रहता : है । उसका तन, मन दोनों ही गिरे होते हैं।
इन चारों कायोत्सगों में पहला एवं तीसरा कायोत्सर्ग वास्तव में ही कायोत्सग है, वह तप है और उनके द्वारा साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर समाता है। ___ यद्यपि शरीर व्युत्लग को द्रव्य व्युत्सर्ग में गिना गया है किंतु वास्तव में वह द्रव्य से भाव की ओर महाप्रयाण है। शरीर द्रा है. स्थून है, अत: इन दृष्टि से द्रव्य के साथ इसे लिया है किंतु वास्तव में यह भूल से नुक्म की और बढ़ने की सर्वोत्कृष्ट प्रक्रिया है। उत्तराध्ययन में पायोत्सर्ग को ही म्युरसगं ता बताया है इसके पीछे भी वही दृष्टि प्रतीत होती है कि सब में मुल तत्व शरीर ही है, शरीर है तभी गणा, उपधि, आहार, कर्म आदि उनके साथ संलग्न है और उनका अस्तित्व है। शरीर में जब ममाप हट गया वो उपधि, आहार आदि से फिर ममत्व करने का कोई काम ही नहीं रहा। ... इस विचार कायोत्सत्य होसमात अलग मा प्रतिनिधि रूप. माना जा सकता है, जैसे कि उत्तराध्यान में भी है--
फापस बिस्सगो दो सौ परिहितिभो। कार का गुस्साहना. या गुरमर है।
ध्यासन के अन्य भर ३ उपधि समं मह म ब्युलन का तीराम धि नाम
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५२०
जैन धर्म में तप संलीनता आदि के अन्तर्गत कई वार आ हो चुका है। अत: यहां संसार से चार गति रूप संसार ही अभिप्रेत है- ऐसा अनुमान है। .. . .
आगमों में स्थान-स्थान पर चाउरंत ससारफतारे शब्द आता है, जिसका अयं है चार गतिरूप, चार अंत--किनारे हैं जिस संसार अरण्य में, यह संसार कतार ! स्थानांग में आगे चार प्रकार के संसार में, नरक संसार तिर्यञ्च संसार, मनुष्य संसार एवं देव संसार बताया गया है।
प्रश्न होता है चार गति का व्युत्सर्ग कैसे किया जाय और उसका क्या . . प्रयोजन है ? समाधान है-चार गति आत्मा के परिभ्रमण की चार स्थितियां है । आत्मा जैसा शुभाशुभ कर्म करता है, तदनुसार ही शुभ अशुभ गति में जन्म लेता है । उस गति को प्राप्त होने का कारण तदर्थ कर्म है, अत: गति का त्याग तभी हो सकता है जब उस गति के योग्य व हेतुभूत कर्मों का - कारणों का त्याग किया जाय । आगमों में चार गति को योग्य कर्म बंधन के चार-चार कारण बताये हैं। जैसे
नरक गति के योग्य कर्म बंधन के चार कारण हैं१ महारंभ, २ महापरिग्रह ३ पञ्नेन्द्रिय प्राणि का वध ४ मांसाहार । तियंच गति के हेतु भूत चार कार्ग है --. १ मायाचरण, २ माटता, ३ असत्य वचन ४ गुटतोल फट माप । मनुष्य गति के हेतु भूत चार कम है-- १ प्रति भद्रता,२ प्रकृति की विनीतता,३ दयालुता ? अन ईनार । देवगति के हेतु भत नार कारण है१ साग रायम, २ संयमागरम ३ बालसा ४ अाम निरा.
इन कारणों में कुछ --- सुनने में अच्छे लगते हैं, जो मनुज गति के चार सारण हैं। में नान गुगता है दिनमा मन, लिया भी मदन मोकिमया रोको माला
साना
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५१६
व्युत्सर्ग तप
उसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे
माय मज्जवभावेण लोहं संतोसओ जिणे ।' क्रोध को क्षमा से, मान को मृदुता-विनय से, माया को ऋजुता-सरलता से तथा लोभ को संतोष से जीतना। इन चार धर्मों की साधना के द्वारा चार कपायों को क्षीण करते रहना कपाय व्युत्सर्ग की साधना है। इसका विस्तृत वर्णन कपाय प्रति संलीनता तप में किया गया है ।
२ संसार व्युत्सर्ग-संसार का अर्थ हैं नाक, तियंच, मनुष्य एवं देव रूप चार गतियां । स्थानांग सूत्र में संसार चार प्रकार का बताया है
चउयिहे संसारे पणते तं जहा
दव्यसंसारे, सेत्तसंसारे, फालसंसारे, भावसंसारे। द्रव्य संसार-चार गति कम। क्षेत्र संसार-लोकाकाश रूप । अधः,अध्यं एवं मध्यलोक रूप । फाल संसार-एक समय से लेकर पुद्गल परावतं तक काल रूप। भाव संसार-संसार परिभ्रमण के हेतु रूप क.पाय, प्रमाद आदि ।
यहां संसार से नार गति रूप द्रव्य संगार हो समझना चाहिए। गोंकि क्षेम व काल संसार का युसर्ग होता नहीं और वह साधक के लिए आवश्यक भी नहीं। भाव संगार वास्तव में मंसार है। संसार परिभ्रमण का मूल हेतु पही है. इसे हो वास्तविक संसार कह सकते हैं। कहा है-~
जे गुणं से आवटे । जो गुण है, इन्द्रियों के विषय है वे हो वास्तव में आवतं-मसार है, क्योंकि उन्ही में आपका हुआ आमा गुगार में परिजमण करना है। गुनाin (इन्दिर विश्व मुक्त) आत्मा भी मंगार में काम नहीं करना । श्रा, तो इस मार मारदरित्याग दिलाना, पाप-प्रति
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२ स्थानांग
॥२६१
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१२२
. जैन धर्म में तप ... होता। विनय-वन्दना आदि से नीच गोत्र कर्म का क्षय होता है ।२. इत्यादि आठ कमों को नष्ट करने के अनेक-उपाय शास्त्र में बताये हैं उन उपायों . को आचरण में लाते रहने से कम व्युत्सर्ग की साधना होती है। . ...
उपसंहार इस प्रकार द्रव्य एवं भाव व्युत्सर्ग के स्वरूपों पर यह विचार किया गया . है । साधक पहले द्रव्य व्युत्सर्ग की साधना करता है, आहार, वस्य-पात्र आदि से ममत्व घटाता है, उनका उपयोग कम करता है, फिर शरीर पर का ममत्व बंधन ढीला करता है। ध्यान समाधि आदि में लीन होकर-~~ वोसटकाए काया को वोसराने का अभ्यास करता है। अप्पाणं वोसिरामिजो पाठ बोला जाता है, वह सिर्फ शब्दों तक नहीं रहता, किन्तु उसकी भावना हृदय के कण-कण में रम जाती है। आत्मा का प्रत्येक प्रदेश यह अनुभव. संवेदन करने लगता है.---कि मैं इस देह से भिन्न चिदात्म स्वरूप हूं। शरीर का नाश होने पर भी मेरी आत्मा का नाश नहीं हो सकता। शरीर तो मरणधर्मा है, विनाशशील है ही--इस पर ममत्व करना - बंधन का कारण है, दुख का कारण है और शरीर को धर्म साधना के लिए उत्सर्ग कर देनामुक्ति का मार्ग है। दारीर को ममता, प्राणों का मोह जब मिट जाता है तो साधक देहातीत दशा में विचरण करने लगता है। फिर भय, उपसर्ग, कष्ट उसको जरा भी विचलित नहीं कर सकते। सुकौशल अणगार का उदाहरण. हमारे प्राचीन ग्रन्थों में आता है, विकराल मिहिनी को सामने आते देशकर निष्काम भाव से वहीं स्थिर हो गए। शरीर को बोसरा कर आत्मा के भौतर रमण करने लग गये। विकराल भात्री ने परीर के टुकड़े टुकी कर गोंग लिए पर वे अपने कायोत्सर्ग से हिले भी नहीं। माही एक राती(रोगराजि) नो नचात नहीं हुई। कापोरसगं में स्थित गुमाल, मेवा, कन्धा आर्य संकली उशाहरण हमारे मानते हैं जिन्होंने समान में ही
१ उत्तनम्मान २६
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व्युत्सगं तप
५२१ मनुष्य गति ही क्या, वे तो परम गति-मुक्ति के कारण बन सकते हैं। इन गुणों में राग एवं अज्ञान आदि क योग होने के कारण इन गुणों की फल-शक्ति भी कम हो जाती है, अतः दयालुता आदि का त्याग नहीं, किन्तु उनके साथ रहे हुए अज्ञान व राग भाव का त्याग ही उस गति के कारण का त्याग सम. झना चाहिए। __ तो इन सोलह कारणों का त्याग करना, और इनमें भी मूल पांच ही हैमिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कपाय और अशुभ योग, और इन पांचों का भी समावेश राग-द्वे प-दो कारणों में हो जाता है । ये राग-द्वेप ही चार गति में परिभ्रमण के कारण हैं, अतः उनका त्याग करना संसार व्युत्सर्ग है।
३. कर्म ध्युस्सग-कर्मों का त्याग करना । कर्म आठ हैं-१ शानावरण, २ दर्शनावरण, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयुष्य, ६ नाम, ७ गोत्र, ८ अन्तराय।
जैन कर्म शास्त्र में इन आठ कर्मों के बंधन में अलग-अलग कारण बताये है-जैसे ज्ञान की निंदा करना, शानी को अवहेलना करना, आदि ज्ञानावरण काम पो बंधन के कारण होते हैं। इसी प्रकार देव-गुरु-धर्म की निंदा, अवर्ग बाद बोलना, गुरु आदि की पूजा करना दर्शनावरण के बंधन के कारण है। अन्य कारण भी जैन आगों व ग्रंथों में विस्तार के साथ बताये गये हैं जिन्हें प्रशापना मुम-(कम पद) व मध आदि में जानना चाहिए ।
अलग-अलग कर्म बंधन में जो अलग-अलग कारण है उन्हें समझकर उनका परित्याग करना चाहिए तपासाय ही इन कमी के सोने के नि भिन्न उपाय भी नाम में बताये है, उगता आचरण करना चाहिए । जरें बताया है-स्वाध्याय करने में मानापरम कर्म की निरा होती है। मनुविनातिस्तव दर को विद्धि होता , अनावरण हरका
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है मापा जान मादलीय . मोहनीरामनाम गोतमाः।।
२
रायरन २११८
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५२४
. जैन धर्म में तप
एक बात यह भी ध्यान देने की है कि जैन तपःसाधना का मार्ग हठयोग का मार्ग नहीं है। तन-मन के साथ किसी प्रकार का बलात्कार यहां नहीं किया जाता। किन्तु मन को धीरे-धीरे प्रवुद्ध किया जाता है, जागृत किया जाता है और तन को साधा जाता है। पहले मन को, फिर तन को साधने का मतलब है-मन की प्रसन्नता बनाए रखकर ही साधक तन को तपस्या .. में झोंकता है और तन, तप करते हुए भी मन प्रसन्न और आनन्दमग्न बना रहता है । इसी क्रम से साधक अपनी तपःसाधना करके शरीर की ममता से सर्वथा दूर हट कर तवेण परिसुज्सइ-तप के द्वारा संपूर्ण शुद्धता, निर्मलता एवं उज्ज्वलता प्राप्त कर लेता है।
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व्युत्सगं तप :
५२३ काया का उत्सर्ग करके जीवन के मोह पर विजय प्राप्त की थी। भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर के जीवन प्रसंग तो आज भी हमारे सामने जैसे बोल रहे हैं। विकराल दैत्यों के अट्टहास, उपसर्ग एवं प्राणांतक पीड़ा देने पर भी वे प्रसन्न और आनन्द मग्न बने रहे। इस का रहस्य और कुछ नहीं, यही कायोत्सर्ग की साधना थी! काया को धारण करते हुए भी काया की अनुभूति, काया की ममता से वे मुक्त हो गये थे। इसीलिए वोसट् ठकाए, योसठ्ठचत्तदेहे-जैसे विशेषणों द्वारा उनको ध्यान स्थिति का चित्रण किया गया है । बस, काया की ममता छूट गई, प्राणों का मोह छूट गया तो साधक प्राण-विजेता, अर्थात् मृत्यु-विजेता बन गया ।
व्युत्सर्ग तप में सबसे प्रमुख कायोत्सर्ग ही है, यही कारण है कि आगमों में कहीं-कहीं फाउस्सग्ग को ही पूर्ण व्युत्सर्ग तप बता दिया है। अर्थात् कायोत्सर्ग में जो साधक सिद्ध हो गया, वह सम्पूर्ण व्युत्सर्ग तप में ही सिद्ध हो गया।
अनशन से प्रारम्भ करके व्युत्सगं तक यह बारह तपां का एक अस्सालित कम है, तपधारा का असण्ड निमंल प्रवाह है जो उद्गम से लेकर विलय तक निरंतर विकास-विस्तार पाता हुआ मुक्ति-महासागर के अनन्त नुन-गर्भ में विलीन होता है।
जैनधर्म की इस तपःसाधना में एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सुन से दुर्वल, और महानमात्तिनानी पुरुष--- अपनी शक्ति के अनुसार, या और पुस्पा के अनुसार इस तपोमानको आराधना कर सकता। छोटे से छोटा प्रत-त्याग-पास पोल्पी (सिर्फ वाई-तीन घंटा का आहारयाग). करके भी माप की आराधना प्रारम्भ की जा सकती है, और फिर गोरी तो रोगी-भोगी-गोगी - हर कोई कर सकता है भोजन के पिय में विविध प्रकार ने नहर भी किया जा सकता है। इस तरह की सलाम साधना भी बनाई गई है, और धीरे-धीरे सन-पान-उप पाने पर कठोर भोपान, मन और बाघोसन की सपना के द्वारा माल की उनी नाटी पर पहुंच सकता है। ..
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परिशिष्ट
तप-चित्र
संकलन--श्री सुकनमुनि
संकलन-धी 'रजतमुनि'
पुस्तक में प्रयुक्त ग्रन्य सूची
प्रकाशन समिति के सहयोगी-परिचय एवं सदस्यों को शुभ नामावली
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गुणरत्न संवत्सर तप
जैन धर्म में तप
सम्पूर्ण तपमें १३मात १७दिन लगते हैं। @
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निष्क्रीनि
तप.
एक परिपाटी में मात दिन । (3) सम्पूर्ण तयर चाग परिपाटी) में २ वर्ग,२८दिन का समय लगता
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तप-चित्र
यव मध्य चन्द्र प्रतिमा
अमावस्या
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सम्पूर्वी तपदिन १ मा
पजमायन्द्र प्रतिमा
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धाम
सम्पूर्ण दिन
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शा परिविष्ट में माना विमो के विमा शिरानका मानना .... ११ मा १६ र १६५ र दो।
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५३०
जैन धर्म में तर
तावलो तप
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एक परिपाटी में ११ मास ,१५ दिन । सम्पूर्ण (चारों परिपाटी ) तप में वर्ष, २ मास २८.
दिन का समय लगता है।
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परिशिष्ट १
३४
निष्क्रीडित
महा सिंह
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एक परिपाटी में १ वर्ष, ६ मास और १८ दिन | सम्पूर्ण तप चारों परिपाटी । में ६ वर्ष, २मास और १२ दिन का समय लगता है ।
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५३२
जैन धर्म में तप
कावलीत
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ॐ एक परिपाटी में १वर्ष, २माप्त और दिनार (६) सम्पूर्ण तप(चारों परिपाटी) में ४वर्ष, ८मास (डू और दिन का समय लगता है।
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परिशिष्ट १
५३१
हनावलीत
एक परिपाटी में १ वर्ष, ३मास और २२ दिन। सम्पूर्ण तप(चारों परिपाटी) में वर्ष २ मास और २८ दिन का
समय लगता है।
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1(2)(2
(2)
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तप-सक्त
जैन वाङमय में 'तप'
परिभाषा: तापयति अप्टप्रकारं कर्म इति तपः ।
-आवश्यक मलयगिरि राण्ड २ अ० १ जो आठ प्रकार के कमों को तपाता है, उसका नाम तप है। तणते अणेण पावं कम्ममिति तयो।
-~-निशीषणि ४६ जिस साधना से पाप कर्म तप्त होता है, वह सार है। इच्छा निरोपस्तपः ।
-~-उमाम्यालि, नवा गुग . अपनी इच्छाओं को नियत्रण में लाना तप है।
देहदुक्तं महाफल।
दहका दमन करना है, का महान फल ।
नव कोटिय संचियं काम सपना मिरिन । - TET Ek
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परिशिष्ट १
कनकावली
ली तप
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.
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Y) एक परिपाटी में १ वर्ष,५ मास और
१२ दिन । सम्पूर्ण तप (चारों परिपाटी) में १५वर्ष, मास और १दिन का समय लगता है
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परिभाषा :
१
२
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४
जैन वाङमय में 'तप'
तापयति अप्टप्रकारं कर्म इति तपः ।
-आवश्यक मलयगिरि ० २ ० १
जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता है, उसका नाम तप है।
तप्पते अणेण पावं कम्ममिति तयो ।
जिस साधना से पाप कर्म तप्त होता है वहुत है ।
इच्छा
निरोधस्तपः ।
.२
तप-सूक्त
अपनी इच्छाओं को नियंत्रण में लाना तप है ।
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महाफलं ।
-उपस्वाति, तदायं सूत्र
कान करना है वह महान है।
नव कोटिय संचियं
वयसा
जिरिज |
-नियणि ४६
वैकासिक =
- उत्तराध्ययम २०१६
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परिशिष्ट २
५३५ कोटि-कोटि भवों के मंचित कर्म तास्या की अग्नि में भस्म हो जाते हैं। नो पूयणं तवसा आवहेजा।
-सूमकृतांग ७२७ तप के द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए। नन्नत्य निज्जरट्ठयाए तवमहिठेजा।
-~~~दशवकालिक ६४ फेवल कर्म-निर्जरा के लिए तपस्या करना चाहिए इहलोक परलोक में यशःफीति के लिए नहीं।
सउणी जह पंसुगुडिया, विहुणिय धंसयइ सियं रयं । एवं दविओवहाणवं कम्म खवइ तवस्मि माणे ।।।
- सूत्रकृतांग २११११५ जिस प्रकार पक्षी अपने परों को फड़फड़ा कर उन पर लगी धूल को शाड़ देता है उसी प्रकार तपस्या के द्वारा मुमुक्ष अपने त कर्मों का चहा शीघ्र ही अपनगन कर देता है। न हु बालतवेग मुल्युति ।
-~-आधारांग नियुक्ति २४ अज्ञान तप से कभी मुक्ति नहीं मिलती है।
जह खलु मइलं दत्वं मुम्भार उदगाइएहिं दबेहिं । एवं भावुयहाणेशं सुभए कम्गविह ॥
--- बालारांग नि० २८२ विस प्रकार दाल आदि गोधरा दो मनिन ना मोनु होला है, उसी प्रकार
आ जमाना द्वारा भारमा भानावरमादि अष्टविध का मन में माना।
तनपा उत्तम भने ।
ant. १२
याम
। निधारामन , पानं चरित तो।
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५३६
१३
१४
१६
जैन धर्म में तप
अर्थात् - तप का आचरण तलवार की धार पर चलने के समान
दुष्कर है।
एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरंगं ।
- आचारांग ११४१३
आत्मा को शरीर से पृथक् जानकर भोगलिप्त शरीर को तपस्या के
द्वारा धुन डालो ।
छन्दं निरोहेण उवेइ मोक्खं
१५
इच्छा निरोध-तप से मोक्ष प्राप्त होता है । सक्ख खुदीसह तवो विसेसो, न दीसई जाइविसेस कोई
तप की विशेषता तो प्रत्यक्ष दिखलाई देती है, किन्तु जाति की तो कोई - उत्तराध्ययन १२।३७ विशेषता नजर नहीं आती ।
तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजमजोग सत्ती, होमं गुणामि इसिणं पसत्यं ॥
-उत्तराध्ययन ४/५
- उत्तराध्ययन ११
तप ज्योति अर्थात् अग्नि है जीव ज्योति स्थान है, मन, वचन, काया योगति देने की कड़ी है, शरीर कारीयां प्रस लित करने का साधन है, कर्म बताये जाने वाला हैन योग शांतिपाठ है। इस प्रकार का पक्ष करता है जिसे ऋषियों ने ठ बताया है।
૨૭
जहा तवल्ली घुणते तवेणं, कम्पं तहा जाण तवोऽणुमंता ।
नित प्रार नाही तय के द्वारा अपने कमी की सुनता है क महलमा ४०१ उप अनुमोदन कहते
भी।
-
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परिशिष्ट २
५३५ 'कोटि-कोटि भवों के संचित कर्म तस्या की अग्नि में भस्म हो जाते हैं। ___ नो पूयणं तवसा आवहेजा।
--सूत्रकृतांग ७४२७ तप के द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए। नन्नत्य निजरट्ठयाए तवमहिछेजा।
-दशवकालिक ६४ केवल कर्म-निर्जरा के लिए तपस्या करना चाहिए इहलोक परलोक व यशःकीति के लिए नहीं।
सउणी जह पंसुगुडिया, विहुणिय धंसयइ सियं रयं । एवं दविओवहाणवं कम्मं खवइ तवस्सि माहणे ।।
- सूत्रकृतांग २।१११५ जिस प्रकार पक्षी अपने परों को फड़फड़ा कर उन पर लगी धूल को झाड़ देता है उसी प्रकार तपस्या के द्वारा मुमुक्ष अपने कृतकों का बहुत शीघ्र ही अपनयन कर देता है । न. हु वालतवेण मुक्खुति ।
--आचारांग नियुक्ति २।४ ___अज्ञान तप से कभी मुक्ति नहीं मिलती है। १० जह खलु मइलं वत्यं सुज्झइ उदगाइएहिं दवहिं । एवं भावुवहाणणं सुझए कम्मट्ठविह ॥
_ --आचारांग नि० २०२ जिस प्रकार जल आदि शोधक द्रव्यों से मलिन वस्य भी शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार आध्यास्मिक तप:साधना द्वारा आत्मा ज्ञानावरणादि
अविध कर्म मन से मुक्त हो जाता है। . . ११ . तनु वा उत्तम वंभचेरं। . . . . ..
. नुकतांग ६२३ ___ अचात्त यों में सर्वोत्तम तप -- ब्रह्मचर्य। १२. अनिधाराममा चेक, दुक्करं चरितवो।
--उत्तराध्ययन १३:
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५३८
२५
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२७
बलं थामं च पेहाए, सद्धामारोग्गमप्पणी | वित्त कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजु जए ॥
दशवेकालिक ८३५
अपना बल, हड़ता, श्रद्धा आरोग्य तथा क्षेत्रकाल को देखकर आत्मा को
तपश्चर्या में लगाना चाहिये ।
तवस्स मुलं घिती ।
पीवर्ग ।
जैन धर्म मे तप
-
तप का मूल धृति अर्थात् धेयं है । यत्र तपः तत्र नियमात्संयमः ।
यत्र संयमः तत्रापि नियमात् तपः ।
-निशीय चूर्णि ३३३२ जहाँ तप है वहां नियम से संयम है, और जहां संयम है वहाँ नियम से
तप है ।
तप के प्रकार :
२८
-
-निशीथ चूति ४
सो तो दुविहो बुत्तो, बाहिरभिंतरी तहा । बाहिरो छव्विहो वुत्तो, एव मग्भितं तवो ॥
- उत्तराध्ययन सुम ३०१६
आदि
।
२६
तो प्रकार का है- बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य तप छः प्रकार का है एवं अन्यन्तर तप के प्रायश्चित्त आदि छ: अणनण मूणोयरिया, भिक्वायरिया य रसपरिच्चाओ । कायकिलेसी, संवीणया य को तवो होई ॥ पायन्ति विणओ, वैयावच्च तहेच सभाओ । **rvi घ विस एस अभिंतरी तवो ॥
-उत्तरायन देश-१
बाल व के मेदवारी एस ५६ और प्रतिमा के मे १-१३६
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परिशिष्ट २
१८
१६
२०
२१
२२
२३
निउणो वि जीव पोओ, तव संजम मारु विहूणो ।
शास्त्रज्ञान में कुशल साधक भी तप, संयम रूप पवन के बिना संसार
सागर से तैर नहीं सकता ।
कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं ।
- आवश्यक नियुक्ति ६६
-आचारांग १४५३
तप के द्वारा अपने को कृश करो, तन-मन को हल्का करो। अपने को जीर्ण करो, भोगवृत्ति को जर्जर करो ।
अप्पपिण्डाति पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुव्वए ।
सुव्रती साधक कम खाए, कम पीये और कम बोले ।
૫૩૭
- सूत्रकृतांग १८१२५
णी पाणभोयणस्स अतिमत्तं आहारए सया भवई ।
- स्थानांगसूत्र ब्रह्मचारी को कभी भी अधिक मात्रा में भोजन नहीं करना चाहिए । अहये तवे चैव ।
भनीकन
भीतर की नहीं दिया
तप से पूर्व कर्मों का नाश होता है। जं मे तव नियम -संजन-सभाय-काणाध्वस्तव मादीएमु जोगेसु जयना, सेत्तं जत्ता ।
को घना
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भगवतीसून १८१५
तप, नियम, म, स्वाध्याय, प्यान, आवस्यक आदि योगों में जो ना विवेकयुक्त प्रवृति के यह मेरी
विकास
है।
भोती तब संजमुना ।
भीतो
भरं न नित्यया ।
- भगवती २२६
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बेटा है। मी
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.
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३७
... जैन धर्म में तप जो मनुष्य हिताहारी (शरीर को हितकारी) मिताहारी (नियमित आहारो) और अल्पाहारी (नित्यप्रति के आहार से कम भोजन करने बाते) है, उन्हें किसी वैद्य ते चिकित्सा करवाने की आवश्यकता नही, वे स्वयं ही अपने वैद्य हैं, चिकित्सक हैं। . ऊणोरिया सुहमाणइ।
-मरणसमाधि १३६ नोदरी जप करने वाले सुर पाते हैं । ये कभी अस्वस्थ नहीं होते। अतिरेगं अहिगरणं।
-ओघनिमुक्ति ७४१ आयरपरता से अधिक एवं अनुपयोगी उपकरण आदि रमना वास्तव में
अधिारण (दोगमा एवं क्लेशद) है। रस-परित्याग :
रसापगामा न निसेवियब्बा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं। .. दित न कामा समभिवंति, दुर्ग जहा साउफलं व पक्खी ।।।
- उत्तराध्ययन मुब ३२।१० मनुष्य को भी दूर आदि रनों का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए, नयोति र प्रापित होने हैं। उसका पुरुष के निकट काम भागनरेननी माती से सादिष्ट न पाले के पास पी
.
३६
गरगट्टाप जिन्ना, जवटाए महामुणी।
___ उसमन मुत्र ३५१
भनिन पिसता उति ।
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परिशिष्ट २
अनशन: ३० आहार पच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वोन्टिंदा ।
-उत्तराध्ययन २६३५ आहार का प्रत्याख्यान (त्याग) अनशन कहलाता है। इससे जीव आशा
का व्यवच्छेद करता है, अर्थात् लालसाओं से मुक्त हो जाता है । ३१ जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा। अण्णं भिक्खमणेसण मघते समणा अणाहारा।।
-प्रवचनसार ३२६ पर वस्तु की आसक्ति से रहित होना ही वात्मा का निराहार रूप वास्त विक अनशन तप है । अस्तु, जो श्रमण भिक्षा में दोष रहित शुद्ध आहार
ग्रहण करता है, वह निश्चय दृष्टि से अनाहार तपस्वी ही है। ३२ तदेव हि तपः कार्य, दुर्व्यानं यत्र नो भवेत् । ये न योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च ।
-तपोप्टक (यशोविजयजी कृत) तप बता ही करना चाहिए, जिसमें दुध्यान न हो और इन्द्रियों क्षीग न
हो । योगों में हानि न हो! ३३ सो नाम अणसण तवो, जेण मगोमंगुलं न चिोद। जेण न दिव हाणी जेण व जोगा न हायंति ।
__मरणानाधिनमो १३४ यही अनाना जिससे कि मन अमंगल नसोचे, दन्द्रियों को
हानि नो, और नित्य प्रति की योग-धर्म रिमाओं में विश्न न आए। ३ गतुर्विधासन-त्याग बातो मतो जिनः ।
माम माना गया है। अनोदरी:
हिगाहारा, मिनाहारा, अमावाला पजना नमाविमा विजिन्नत अमानं निगिनिया
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५४२
जैन धर्म में तप ४६ उद्घरिय सबसल्लो, आलोइय-निदिओ गुरु सगासे। होइ अतिरेगलहुओ, ओहरियभारोब्ब भारवहो ।
-ओपनियुक्ति ८०३ जो साधक गुरुजनों के समक्ष नन के समस्त शल्यों (कांटों) को निकाल कर आलोचना, निन्दा (आत्मनिन्दा) करता है, उसकी बात्मा उसी प्रकार हल्की हो जाती हैं, जैसे-सिर का भार उतार देने पर भार
चाहा। ४७ जह वालो जंपंतो, कजमकज्जं च उज्जुयं भवइ । तं तह आलोएज्जा, माया • मयविप्पमुक्को उ ॥
. -ओपनियुक्ति ८०१ . बालक को जो भी उचित अनुचित कार्य कर लेता है, वह सब सरत भाप से कह देता है। इसी प्रकार साधक को भी गुरुजनों को समय देभ और अभिमान से रहित होकर यथार्थ आत्मालोचना करनी
चाहिये। ४८ आलोयणापरियाओ, सम्मं संपढिओ गुरुसगासं। जइ अंतरो उ कालं, करेज्ज आराहओं तह वि॥
___आवश्यक निति कत पापों की मालोचना करने की भावना से जाता हुआ व्यक्ति यदि
गौर में मर जाये तो भी वह आराधक है। विनय: रायणिपस विणयं पउंगे।
-दामा४ि१ को मे पड़ों (गनापिसमाप मानि पूर्वाधार
माग्गिामायानं मनसा जगणं करे। मिमा पराति मालगिना इव पापया ।।
शिरा
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५४१
परिशिष्ट २.
अति स्निग्ध आहार करने से विषय कामना उद्दीप्त हो उठती है। प्रायश्चित्त : ४१ .. पावं हिंदइ जम्हा पायच्छित्तंति भण्णइ तेणं ।
-पंचाराक सटीक विवरण १६।३ . जिसके द्वारा पाप का छेदन होता है, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं । . ४२ प्रायः पापं विनिर्दिष्टं, चित्तं तस्य विशोधनम् ।
-धर्मसंग्रह ३ अधिकार प्रायः शब्द का अर्थ 'पाप है, और चित्त का अर्थ है, उस पाप का शोधन करना । अर्थात् पाप को शुद्ध करने वाली क्रिया को प्रायश्चित्त कहते हैं।
अपराधो वा प्रायः, चित्त शुद्धिः प्रायस चित्त प्रायश्चित्तं- अपराध-विशुद्धिः ।।
-राजवातिक ६।२२।१ अपराध का नाम प्राय: है और चित्त का अर्थ गोधन है। प्रायश्चित्त अर्थात् अपराध की शुद्धि।
प्रायइत्युच्यते लोकस्तस्य चित्तं मनो भवेत् । तच्चित्त-ग्राहकं कर्म, प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ।
-प्रायश्चित्त समुच्चय प्राय: का अर्थ लोक-जाता है एवं चित्त का अर्ध-मन है । जिस किया
के द्वारा जनता के मन में आदर हो, उस क्रिया को प्रायश्चित्त कहते हैं। ४५ पायच्चित्त करणेणं पाव कम्म विसोहि जणयइ, निरक्ष्यारे यावि
भवइ । सम्मं च गं पायचित्तं पडिवजमाणे मगं च मग फलंच विसोहेश आयारं ग आयारपलं च आराहेछ ।
तरापन २६१६. प्रायश्चित करने से जीद पापों की नियुदि भारत निराधार निष ननामा पनि गीत रे सावन
न को निमं करता या परिसर- सोमासना
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जैन धर्म में सार
वैयावृत्य : ५७ वैयागुत्यम्-भक्कादिभिधोपग्रहकारि वस्तुभिरूपग्रह करणे ।
-स्थानांग टीका ५१ धर्म में सहारा देने वाली आहार आदि वस्तुओं द्वारा उपग्रह-सहायता करना "यावृत्त्य' कहलाता है। यावृत्त्य शब्द सेवा के अर्थ का
१८ दसविहे वेयावच्चे पण्णत्त तं जहा-आयरियवेयावले, उवाय वेगावच्चे, थेर वेवावच्चे, तवस्ति वेयावच्चे, गिलाण
यावच्चे, सेह वेयावच्चे, कुल वेयावच्चे, गण वेयावच्चे, संघ धेयावच्ने, साहम्मिय वेयावच्चे। -स्थानांगनुम १०१४४६ ___आचार्य को वैवावृत्त्य (सेवा) उपाध्याय की गावृत्य, स्थविर की मावृत्य, तपस्यों की वैयावृत्य, ग्लान की वैयावृत्य, नवदीक्षित की वैमावृत्य काकी बंगावृत्य, संघ की यावृत्य, सहधर्मी की वैयावृत्य । इन दलों .
सो गवायोग्य सेवा भक्ति करना यात्म तप कहा जाता है । ५६ यावच्चणं तित्थयरनाम गोयं कम्म निबंधे।
-उत्तराध्ययन २६॥३ आया मादि की बगावत्रा (मेवा) करने से जीव तीर्थकर नाम गोत्र का सामान करता है। आहार, पानी, शैया, आसन आदि लेकर औरभि शादि समयोचित सेवा संरक्षण आदि सत् क्रियाएं बगावतार
मैं भाती है। ६२ मंगिहीय परिनगम संगिम्हणवाए अन्मुठेपन्वं भव--
___
ARTHER
को मायय एवं सहयोग देने
का
६२ पिलाना मनावावयारागार मुदगल भवद ।
imater 'रना चा!ि . .
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परिशिष्ट २
५४३ . जो अपने आचार्य-उपाध्याय आदि की विनयपूर्वक शुश्रूपा सेवा तथा आज्ञाओं का पालन करता है, उनकी शिक्षाएं (विद्याएं) वैसे
ही बढ़ती हैं जैसे कि जल से सींचे जाने पर वृक्ष । ५१ विवत्ती अविणीयस्स, सम्पत्ती विणीयस्स य ।
-दशवकालिक ६।२२२ अविनीत विपत्ति (दुःख) का भागी होता है और विनीत सम्पत्ति
(सुख) का। ५२ जो छंदं आराहयई स पुज्जो।
-दशवकालिक ६३१ जो गुरुजनों की भावनाओं का आदर करता है वही शिष्य पूज्य होता है।
आणा निद्दे सकरे, गुरुणमुववाय कारए । इंगियागारसम्पन्न से विणीए त्ति वुच्चई ।।
-उत्तराध्यपन १२ जो गुरुजनों को आनाओं का पालन करता है, उनके निकट सम्पर्क में रहता है, एवं उनके हर संकेत व चेप्टा के प्रति सजग रहता है उसे विनीत कहा जाता है।
विणओ दि तपो, तयो पि धम्मो विणायकको
-~प्रत्नव्याकरण गुन २१३ विनय स्वयं एक तप है, और यह श्रेष्ठ धर्म है।
नज्या नमइ मेहायो।
बुद्धिमान् शान प्राप्त करना जाता है। ५६ विणओर येशन्स सह परलोगे वि विनाओं पर परच्छनि ।
धिनक विदामोर पोर हो
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___ जैन धर्म में ना साध्याय के समान दूसरा तप न अतीत में कभी हुआ है, ग वर्तमान में
नहीं है, और न भविष्य में कभी होगा। ६८ जो वि पगासो बहुमो गुणिओ पच्चक्खओ न उवलद्धो। जच्चस्म व चंदो फुडो वि संतो तहा स खलु ॥.
- यहलल्प भाष्य १२२४ मास्म का बार बार अध्ययन कर लेने पर भी यदि उससे अयं को साक्षात् अनुभूति न हुई हो तो वह अध्ययन वैसा ही अप्रत्यक्ष रहता है जगा कि जन्मांध के समक्ष चन्द्रमा प्रकाशमान होते हुए भी अप्रत्यक्षा
ही रहता है। ६६ गाणं पि काले अहिजमाणं णिजरा हेऊ भवति । अकाले पुण उवधायकर कम्म बंधाय भवति ।।
--निशीथ चुणि ११ शास्त्र का पान उचित समय पर किया हुआ ही निरा का हेतु
होता है, अपया यह हानिकर तथा कर्म बंध का कारण बन जाता है। ध्यान: चित्तस्रोगग्गया हवइ झाणं ।
-~-आवस्यकनिक्ति १४५६ । किसी एक विषय पर वित्त को एकाग्र स्थिर करना ध्यान कहलाता है। एकाचिन्ता योगनिरोधो वा ध्यानम्
-~नसिमान्तदीपिका ५२ माता मन, बनन-ताया की प्रवृत्ति का योगों को होना
मागभिलाणी माह परियागं कुगर तव्य दोनाणं । गन्ना भान यदि सन्मदिनासग परिकमणं ।।
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REATRE1 मान
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परिशिष्ट २ ६२ - जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा णच्चा न गवेसइ,
न गवसंतं वा साइज्जइ"........"आवज्जइ, चउम्मासियं परिहारठाणं अणुग्घाइयं ।
-निशीथं भाष्य १०।३७ · · यदि कोई समर्थ साधु किसी साधु को बीमार सुनकर एवं जानकर .. बेपरवाही से उसकी सार-सम्भाल न करे तथा न करने वाले की ____ अनुमोदना करे तो उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है।
दव्वेण भावेण वा जं अप्पणो परस्स वा। उवकारकरणं, तं सव्वं वेयावच्चं ।
___-निशीथचूणि ६६०५ भोजन, वस्त्र आदि द्रव्य रूप से और उपदेश एवं सत्प्रेरणा आदि भाव . . रूप से जो भी अपने को तथा अन्य को उपकृत किया जाता है, वह सब
वैयावृत्य है। स्वाध्याय : ६४ सझाए वा निउत्तण सव्वदुक्खविमोक्खणो ।
-उत्तराध्ययन २६।१० शास्त्रों का स्वाध्याय करते रहने से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है। ६५ सज्झायं च तओ कुज्जा सव्वभावविभावणं ।
-उत्तराध्ययन २६।३७ स्वाध्याय सव भावों (विषयों) का प्रकाश करने वाला है । सज्जाए णं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ ।
--उत्तराध्ययन २६१८ स्वाध्याय करने से ज्ञानावरण (ज्ञान को डकने वाले) कर्म का क्षय
होता है । ६७ . नवि अत्यि, नवि अ होही, सज्झाय समं तवो कम्मं ।
-वृहत्कल्पभाष्य ११६६
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जैन धर्म में तप ..
राग्य, २-त्यविज्ञान, ३---निग्रंन्यता, ४-मनित्तता, ५--- परिग्रहलय.. ये मान के हेतु हैं। . . oe स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन, ध्याते स्वस्मै स्वतो यतः । पट्कारकमयस्तस्माद, व्यानमात्मैव निश्चयात् ।।
-तत्त्वानुगासन ७४ आमा का आमा में, आत्मा द्वारा, आत्मा के लिये, आत्मा से ही ध्यान करना चाहिये । निश्चयन में पट्कारकमग- यह आत्मा ही ध्यान है।
निश्चयाद् व्यवहाराच्च, ध्यानं द्विविधमागमे । स्वरूपालम्वनं पूर्व, परालम्बनमुत्तरम् ॥
-तत्यानुशासन ६६ निन प्टि में और अपहार दृष्टि से ध्यान दो प्रकार का है। प्रथम
में स्वरूप का आलम्बन है एवं दुसरे में पर वस्तु का मालम्बन है। 5? स्वाध्यायात् ध्यानमध्यास्तां, व्यानात् स्वाध्यायमामनेत् ।
ध्यान · स्वाध्यायनंपत्त्या, परमात्मा प्रकाशते ।। यथान्यासेन शास्त्राणि, स्थिराणि सुमहान्त्यपि । नयायानापिसुत्ययं लभतेऽभ्यासवर्तिनाम् ।।
तत्यानुशासन पाध्याय से ध्यान का अभ्यास करना चाहिये और ध्यान में स्वाध्यान को नरिहार्य करना चाहिये । स्वाध्याय एवं ध्यान की संप्राप्तिो परमात्मा साबित होगांत अपने अनुभव में लाया जाता है। अन्यारा । महान भासा दिर होगा, उसी प्रकार अभ्यास करने वालों
भान पिरामा है। ८ कालान्तो विन्द पानं, मानवन्तो विजपम् । बामा लानः पठेन स्तोत्र-मित्ोष मुनिः स्मृतम् ।।
सामयि. हलो ETTE IIM स्थान ना होने पर नारा ६ नोकर सोt rifigy ।
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परिशिष्ट २
५४७
७३ यस्य चित्तं स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते ।
-ज्ञानार्णव पृ० ८४ जिसका चित्त स्थिर हो, वही ध्यान करने वाला प्रशंसा के योग्य है। ७४ वीतरागो विमुच्यते, वीतरागं विचिन्तयन् ।
-योगशास्त्र ।१३ - वीतराग का ध्यान करता हुआ योगी स्वयं वीतराग होकर कर्मों से या
वासनाओं से मुक्त हो जाता है ! ७५ उपयोगे विजातीय - प्रत्ययाव्यवधानभाक् । शुभकप्रत्ययो ध्यानं, सूक्ष्माभोगसमन्वितम् ||
--द्वात्रिशद्वात्रिंशिका १८।११ स्थिर दीपक की लौ के समान मात्र शुभ लक्ष्य में लीन और विरोधी लक्ष्य के व्यवधान रहित ज्ञान, जो सूक्ष्म विषयों के आलोचन सहित हो,
उसे ध्यान कहते हैं। ७६ मोक्षः कर्मक्षयादेव स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तद्ध्यानं हितमात्मनः ॥ .
-योगशास्त्र ४१११३. कर्म के क्षय से मोक्ष होता है, आत्म ज्ञान से कर्म का क्षय होता है और ध्यान से आत्म ज्ञान प्राप्त होता है । अतः घ्यान आत्मा के लिये हितकारी माना गया है।
संगत्यागः कषायाणां, निग्नहो व्रतधारणम् । मनोऽक्षाणां जपश्चेति, सामग्री ध्यानजन्मनि ॥
-तत्त्वानुशासन ७५ परिग्रह का त्याग, कषाय का निग्रह, व्रत धारण करना तथा मन और इन्द्रियों को जीतना-ये सब कार्य ध्यान की उत्पत्ति में सहायता करने
वाली सामग्री है। ७८ वैराग्यं तत्वविज्ञानं, नम्रन्थ्यं समचित्तता। परिग्रहो जपश्चेति, पञ्चैते ध्यानहेतवः ॥ ..
~बृहद्रव्यसंगृह संस्कृत टीका, पृ० २८१
.
७७
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५५०
कायोत्सर्ग ( व्युत्सर्ग)
८६
काउसग्गेणं तीय पडुप्पन्न पायच्छित्तं विसोहेइ, विसुद्धपाय च्छित्ते य जीवे निव्वुयहियए ओहरियभारुव्वं भारवाहे पसत्थभाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ ।
८७
८८
जैन धर्म में तप
- उत्तराध्ययन २६।१२
कायोत्सर्ग (ध्यान) करने से जीव अतीत एवं वर्तमान के दोषों की विशुद्धि करता है और प्रायश्चित्त के द्वारा सिर पर से भार उतर जाने से भारवाहकवत् हल्का होकर सद्-ध्यान में रमण करता हुआ सदा सुखपूर्वक विचरण करता है ।
व्युत्सर्गार्हं यत्कायचेष्टा निरोधतः ।
- स्थानांग टीका ६
शरीर की चपलताजन्य चेष्टाओं का निरोध करना व्युत्सर्ग तप है । इन्द्रियमनसोर्नियमानुष्ठानं तपः ।
- नीतिवाक्यामृत १।२२
पांच इन्द्रिय (स्पर्शन, रसना घ्राण चक्षु श्रोत्र) और मन को वश में करना या बढ़ती हुई लालसाओं को रोकना तप है |
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५४६
परिशिष्ट २ ८३ मा मुज्झह ! मा रज्जह ! मा दुस्सह ! इट्ठ ! निट्ठअट्ठेसु । .
थिरमिच्छह जइ चित्तं, विचित्तं, विचित्तझाणापसिद्वीए। . . मा चिट्ठह ! मां जंपह ! मा चिंतह ! किं वि जेण होई थिरो। अप्पा अप्पंमिरओ, इणमेव परं हवे झाणं ।
-द्रव्य संग्रह हे साधक ! विचित्र ध्यान की सिद्धि से यदि चित्त को स्थिर करना चाहता है, तो इष्ट अनिष्ट पदार्थों में मोह. राग और द्वेप मत कर । किसी भी प्रकार की चेष्टा, जल्पन व चिन्तन मत कर, जिससे मन, स्थिर हो जाये । आत्मा का आत्मा में रक्त हो जाना ही उत्कृष्ट
ध्यान है। ८४ मितेन्द्रियस्य धीरस्य प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः । सुखासनस्य नासाग्र-न्यस्तनेत्रस्य योगिना ॥ ..
-तत्त्वानुशासन ३७ ध्यान के इच्छुक योगी को योग के आठ अंगों को अवश्य जानना चाहिए, यथा१-ध्याता-इन्द्रिय और मन का निग्रह करने वाला। २-ध्यान- इष्ट विपय में लीनता । ३-फल-संवर-निर्जरा रूप । ४--ध्येय-इष्ट देवादि । ५- यस्य-ध्यान का स्वामी। ६-यत्र-ध्यान का क्षेत्र । ७-यदा-ध्यान का समय । ८-ध्यान की विधि। झाण जोगं समाहटु कायं विउसेज्ज सव्वसो
--सूत्रकृतांग ८।२६ ध्यान योग का अवलम्बन कर देहभाव का सर्वतोभावेन विसर्जन करना चाहिए।
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५५२
जैन धर्म में तप
तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व। . .....
-तैत्तिरीय आरण्यक६२ तपके द्वारा ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप को जानिए ।
तपो ब्रह्मति ।
---तैत्तिरीय आरण्यक- २
तप ही ब्रह्म है। ६ ऋतंतपः, सत्यंतपः, धुं तंतपः, शान्तं तपो, दानंतपः ।
--तैत्तिरीयआरण्यक नारायणोपनिषद् १०१८ ऋत (मन का सत्य संकल्प) तप है । सत्य (वाणी से सत्य भाषण) तप है । श्रुत (शास्त्र श्रवण) तप है । शान्ति (ऐन्द्रियिक विपयों से विरक्ति) तप है । दान तप है।
तपो नानशनात् परम् । यद्वि परं तपस्तद् दुर्धर्षम् तद् दुराधर्षम् ।
-तैत्तिरीय आरण्यक १०१६२ अनशन से बढ़कर कोई तप नहीं है । साधारण साधक के लिए यह परम
तप दुर्धर्ष है, दुराधर्ष है, अर्थात् सहन करना बड़ा ही कठिन है । ११ नाऽतपस्कस्याऽत्मज्ञानेऽधिगमः कर्मशुद्धिर्वा ।
-मैत्रायणी आरण्यक ४।३ जो तपस्वी नहीं है, उसका ध्यान आत्मा में नहीं जमता और इसलिए
उसकी कर्म शुद्धि भी नहीं होती। १२ तपसा प्राप्यते सत्त्वं सत्त्वात् संप्राप्यते मनः । . मनसा प्राप्यते त्वात्मा ह्यात्मापत्त्या निवर्तते ।।
-यजुर्वेदीय मैत्रायणी आरण्यक ४१३ तप द्वारा सत्त्व (ज्ञान) प्राप्त होता है, सत्त्व से मन वश में आता है, मन वश में आने से आत्मा की प्राप्ति होती है,और आत्मा की प्राप्ति हो जाने पर संसार से छुटकारा मिल जाता है।
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१.
२
४
वैदिक वाङमय में 'तप'
तपो वाऽग्निस्तपो दीक्षा ।
तप एक अग्नि है, तप एक दीक्षा है । तपसा वै लोकं जयन्ति ।
- शतपथ ब्राह्मण ३१४/३/३
५
- शतपथ ब्राह्मण ३ | ४|४।२७
तप के द्वारा ही सच्ची विश्वविजय प्राप्त होती है । तपो मे प्रतिष्ठा ।
- तैत्तिरीय ब्राह्मण ३।७१७
तप मेरी प्रतिष्ठा है, मेरी स्थिरता का हेतु है ।
श्रेष्ठो ह वेदस्तपसोऽधिजातः ।
श्रेष्ठ ज्ञान तप के द्वारा ही प्रकट होता है ।
तपो हि स्वाध्यायः ।
—गोपथब्राह्मण १|१|E
— तैत्तिरीयआरण्यक २।१४
स्वाध्याय स्वयं एक तप है ।
स तपोऽतप्यत, स तपस्तप्त्वा इदं सर्वम् असृजत ।
— तैत्तिरीय आरण्यक—–८१६
उस (ब्रह्म) ने तप किया और तप करके इस सब की रचना की ।
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जैन धर्म में तप मन, वाणी और शरीर इन तीनों का तप. यदि फल की आकांक्षा. किए।
बिना परम श्रद्धापूर्वक किया जाए तो वह सात्त्विकतप कहलाता है। १६ सत्कार मान पूजार्थं तपो दम्भेन चैव तत् ।।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ॥१८॥. . जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए पाखण्ड भाव से किया जाता है, वह अनिश्चित तथा अस्थिर तप .
होता है, उसे 'राजस' तप कहते हैं । २० मूढ़ग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः । परस्योत्सादनार्थं वा तत् तामसमुदाहृतम् ।।१६।
-भगवद्गीता १७ जो तप मूढ़तापूर्वक, हठ से तथा मन, वचन, और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है,वह 'तामस' तप कहा जाता है। तपो मूलमिदं सर्वं दैव मानुपकं सुखम् ।
-मनुस्मृति ११।२३५ मनुष्यों और देवताओं के सभी सुखों का मूल तप है । २२ ब्राह्मणस्य तपो ज्ञानं तपः क्षत्रस्य रक्षणम् । ।
-मनुस्मृति ११।२३६ ब्राह्मण का तप ज्ञान है, और क्षत्रिय का तप दुर्बल की रक्षा करना है। २३ यद् दुस्तरं यद् दुरापं यत् दुर्ग यच्च दुष्करम् । सर्वतत् तपसा साध्यं तपोहि दुरतिक्रमम् ॥
- मनुस्मृति ११।२३६ जो दुस्तर है, दुष्प्राप्य है (कठिनता से प्राप्त होने जैसा है) दुर्गम है, और दुप्कर है, वह सब तप से साधा जाता है । साधना क्षेत्र में तप एक दुर्ल- . घन शक्ति है अर्थात् तप से सभी कठिनताओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
न विद्यया केवलया तपसा वाऽपि पात्रता । यत्र वृत्त मिमे चोभे तद्धि पात्र प्रकीर्तितम् ।।
-याज्ञवल्क्यस्मृति १६१२२
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:
परिशिष्ट २
१३
१४
विद्यया तपसा चिन्तया चोपलभते ब्रह्म ।
आध्यात्मिक विद्या से, तप से, और आत्मचिन्तन से ब्रह्म की उपलब्धि
होती है ।
१७
- य० मै० आ० ४|४
१८
1
अहिंसा सत्य वचनमानृशंस्यं दमो घृणा । एतत्तपो विदुर्धीरा न शरीरस्य शोषणम् ।
• महा० शान्तिपर्व १८६१८
किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, सत्य बोलना, क्रूरता को त्याग देना मन और इन्द्रियों को संयम में रखना, तथा सबके प्रति दया भाव रखना, इन्हीं को धीर ( ज्ञानी) पुरुषों ने तप माना है । केवल शरीर को सुखाना ही नहीं है ।
१५
देव द्विज गुरु प्राज्ञ-पूजनं शौचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ||१४|
देवता, ब्राह्मण, गुरु एवं ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा - ये शारीरिक तप हैं ।
१६
५५३
अनुद्व ेगकरं वाक्यं सत्यं प्रिय हितं च यत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव' वाङ्मयं तप उच्यते ।।१५।
उद्देग (अशान्ति ) न करने वाला, प्रिय, हितकारी यथार्थ सत्य भाषण और स्वाध्याय का अभ्यास- ये सब वाणी के तप कहे जाते हैं ।
मनः प्रसादः सौम्यत्त्वं मोनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत् तपो मानसमुच्यते || १६ |
-भगवद्गीता ११
मन की प्रसन्नता, सौम्यभाव, मौन, आत्म-निग्रह तथा शुद्ध भावना- ये सव मानस तप कहे जाते हैं ।
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः । अफलाकाङ्क्षिभियुक्तः सात्त्विकं परिचक्षते ॥ १७॥
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बौद्ध वाङमय में 'तप'
३
तपो च ब्रह्मचरियं च तं सिनानमनोदकं ।
-संयुक्तनिकाय १।११५८ तप और ब्रह्मचर्य विना पानी का स्नान है । खंति परमं तपो तितिक्खा।
-धम्मपद १४१६ क्षमा (सहिष्णुता) परम तप है। सद्धा वीजं तपो वुट्ठि ।
-सुत्तनिपात १।४।२ श्रद्धा मेरा वीज है, तप मेरी वर्षा है।
यस्सेते चतुरो धम्मा सद्धस्स घरमेसिनो । सच्चं चम्मो धिती चागो सवे पेच्च न सोचति ।।
-सुत्तनिपात १।१०।८ जिस श्रद्धाशील गृहस्य में सत्य, धर्म. धृति और त्याग (तप) ये चार धर्म हैं, उसे परलोक में पछताना नहीं पड़ता।
४
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1
परिशिष्ट २
५५५
न केवल विद्या से और न केवल तप से पवित्रता प्राप्त होती है । जिसमें
विद्या और तप दोनों ही हों, वही पात्र
कहलाता है ।
२५
२६
२७
२८
सम्मानात् तपसः क्षयः ।
३०
सम्मान से तप का क्षय हो जाता है ।
- आपस्तम्ब स्मृति १०६
वेदस्योपनिषत् सत्यं, सत्यस्योपनिषद् दमः । दानस्योपनिषत् तपः ।
दमस्योपनिषद् दानं,
- महाभारत शान्ति पर्व २५१।११ इन्द्रियों का संयम, संयम
वेद का सार है सत्य वचन, सत्य का सार है का सार है दान, और दान का सार है 'तपस्या' ।
तपो हि परमं श्र ेयः सम्मोहमितरत्सुखम् ।
- वाल्मीकि रामायण ७१८४/६ तप ही परम कल्याणकारी है । तप से भिन्न सुख तो मात्र बुद्धि के सम्मोह
को उत्पन्न करने वाला है ।
तपसैव महोग्रेण यद् दुरापं तदाप्यते ।
- योगवाशिष्ठ ३१६८१४
जो दुष्प्राप्य वस्तुएं हैं, वे उग्रतपस्या से ही प्राप्त होती हैं ।
२
ध्यानयोगरतो भिक्षुः प्राप्नोति परमां गतिम् ।
ध्यान योग में लीन मुनि मोक्षपद को प्राप्त करता
1
- शंखस्मृति
ओमित्येव ध्यायथ ! आत्मानं स्वस्ति वः ।
पाराय
तमसः
परास्तात ।
- मुण्डकोपनिषद् शशा
इस आत्मा का ध्यान ॐ के रूप में करो ! तुम्हारा कल्याण होगा अन्धकार दूर करने का यह एक ही साधन है ।
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पुस्तक में प्रयुक्त ग्रन्थ सूची
१ अगस्त्यसिंह चूणि (दशव०) । १६ उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति . २ अथर्ववेद
१७ उपदेशनासाद ३ अध्यात्मरामायण
१८ ऐतरेय ब्राह्मण ४ अनुत्तरोपपातिक सूत्र १६ ओपनियुक्ति . . ५ अनुयोगद्वार
२० औपपातिक सूत्र ६ अभिधान चिंतामणिकोप (हेमचंद्र)२१ कल्पसूत्र ७ अभिधान राजेन्द्र कोप २२ कल्पसूत्रवालावबोध ८ अप्टकप्रकरण (हरिभद्रसुरि) २३ कल्पसूत्र प्रबोधिनी ६ अन्तगड़ सुत्र
२४ कृष्ण यजुर्वेद १० आगम और त्रिपिटक : एक २५ केन उपनिषद्
अनुशीलन ११ आचारांग सूब
२६ गच्छाचार पइन्ना १२ आवश्यक नियुक्ति
२७ गोपथ ब्राह्मण १३ आश्वलायन गृह्यनम २८ चन्द्रप्रज्ञप्ति १४ इण्डियन फिलोसफी २६ चरक संहिता . . १५ उत्तराध्ययन सुत्र
३० चाणक्यनीति
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५५७
परिशिष्ट २ अप्पिच्छता सप्पुरिसेहि वण्णिता ।
-थेरगाथा १९६११२७ सत्पुरुषों ने अल्पेच्छता (कम इच्छा) की प्रशंसा की है। ६ विरियं हि किलेसानं आतापन परितापनछैन ।
-विसुद्धिमग्गो १७ वीर्य (शक्ति) ही क्लेशों को तपाने, एवं झुलसाने के कारण आताप (तप) कहा जाता है।
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५३ योगवाशिष्ठ ८४ योगशास्त्र ८५ रत्नकरण्ड श्रावकाचार
६ राजवार्तिक ८७ रामचरित मानस ८८ ललितविस्तर ८६ रामायण ६० व्यवहारभाष्य ६१ व्यवहारभाष्यपीठिका ६२ विदुरनीति ६३ विनयपिटक (महावग्ग) ६४ विनयपिटक (अट्ठकथा) ६५ विवेकचूडामणि ६६ विवेकविलास ६७ विसुद्धिमग्गो ६८ शतपथ ब्राह्मण ६६ शांत सुधारस भावना
जैन धर्म में तप १०० श्वेताश्वतर उपनिषद् १०१ पड्दर्शन समुच्चयः १०२ श्रमण सूत्र १०३ श्रावकाचार १०४ श्रीमद्भागवत १०५ समवायांग सूत्र वृत्ति १०६ सर्वार्थ सिद्धि १०७ स्थानांग सूत्र (व वृत्ति) १०८ सांख्यायन आरण्यक १०६ सामवेद पूर्वाचिक ११० सिद्धिविनिश्चय
१११ सुखविपाक · ११२ सुत्तनिपात ११३ सौदरानन्द ११४ संयुक्त निकाय महावग्ग ११५ Carus Gorpal - of
BUDDHA
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परिशिष्ट ३
३१ :
५७ पटिसम्भिदामग्गो
३२ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति
५८ पञ्चतन्त्र
३३ जैन परम्परा में योग (निबन्ध) ५६ प्रवचनसार
३४ जैन सिद्धांतदीपिका
६० प्रवचन सारोद्वार
३५ तत्त्वार्थ सूत्र
६१ प्रवचन सारोद्धार वृत्ति
३६ तिलोयपण्णत्ति
६२ प्रशमरतिप्रकरण
३७ तैत्तिरीय ब्राह्मण
३८ तैत्तिरीय आरण्यक
३६ तेत्तिरीय उपनिषद्
४० दशवैकालिक सूत्र
४१ दशवैकालिक चूर्णि (जिनदास ६७ बृहत्कल्पभाष्य
गणी)
४२ दशाश्रु तस्कन्ध
४३ द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका
४४ दीघनिकाय
छान्दोग्य उपनिषद्
४५ दीपवंश
४६ धर्मसंग्रह
४७ धर्मरत्न
४८ धवला
४६ ध्यान और मनोवल
५० व्यान बिन्दूपनिषद्
५१ नन्दी सूत्र
५२ निरयावलिया सूत्र
५३ निशीथभाष्य
५४ निशीथ चूर्णि
५५ नीतिवाक्यामृत
५६ नंपधीयचरित
६३ प्रश्नव्याकरण सूत्र
६४ प्रज्ञापना सूत्र
६५ पिण्डनिर्युक्ति
६६ पंचाशक सटीक
६८ बृहत् स्वयंभूस्तोत्र
६६ भगवद्गीता
७० भगवतीसूत्र
७१ भावपाहुड़
७२ मज्झिमनिकाय
७३ मनुस्मृति
७४ मरुधर केसरी ग्रन्थावली
७५ महावीर चरियं
७६ महाभारत
७७ महामंगल सुत्त
७८ महापुराण
७६ मुण्डक उपनिषद्
८० मुलाचार
-१ मैत्रायणी आरण्यक
८२ योगदर्शन
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५६२
जैन धर्म में तप (२) स्त्री अच्छे पुरुप को प्राप्त करने के लिए नियाणा करती है । ... (३) पुरुष अच्छी स्त्री को प्राप्त करने के लिये नियाणा करता है। (४) स्त्री किसी समृद्ध स्त्री को देखकर वैसी बनने का नियाणा करती है।.. (५) कोई व्यक्ति देवगति में उत्पन्न होकर अपनी तथा दूसरों की देवियों को ..
वैक्रिय शरीर द्वारा भोगने का नियाणा करता है। (६) कोई व्यक्ति देव भव में अपनी देवी को विना वैक्रिय करके भोगने का
नियाणा करता है। (७) कोई व्यक्ति देवभव में अपनी देवी को बिना वैक्रिय (मूल रूप से)
भोगने का नियाणा करता है। (८) कोई व्यक्ति अगले भव में श्रावक बनने का नियाणा करता है। (8) कोई व्यक्ति अगले भव में साधु होने का नियाणा करता है ।
इन नौ नियाणों में से पहले चार नियाणे करने वाला जीव केवलि प्ररू-. .. पित धर्म को सुन भी नहीं सकता। पांचवे नियाणे वाला धर्म को सुन तो लेता है किन्तु समझ नहीं सकता, अर्थात दुर्लभबोधि होता है और बहुत काल तक संसार में परिभ्रमण करता है। छठे नियाणे वाला जीव जिन धर्म को सुनकर-समझ कर भी दूसरे धर्म की तरफ रुचि रखने वाला होता है । सातवें नियाणे वाला सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है अर्थात उसे धर्म पर श्रद्धा . तो होती है लेकिन व्रत बिलकुल नहीं ले सकता । आठवें नियाणे वाला श्रावक व्रत ले सकता है लेकिन साधु नहीं बन सकता है । नौवें नियाणे वाला . साघु . बन सकता है लेकिन उसी भव में मोक्ष नहीं जा सकता।
२. भिक्षाचरी प्रकरण में पृष्ठ २५७ पर हमने अभिग्रह के ३० भेद बताए हैं। कहीं-कहीं बढ़ाकर ३२ भेद भी गिने गए हैं। वे अधिक दो भेद इस . . प्रकार है
(१)--३१ पुरिमार्घ चरक दिन के पूर्वार्ध में भिक्षाचर्या करने वाला . (२)-३२--भिन्नपिण्डपात चरक-टुकड़े किए हुए पिण्ड (भोजन) को
. . ग्रहण करने वाला।
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परिवर्धन
-
. प्रस्तुत ग्रंथ के आलेखन के समय कहीं-कहीं संक्षेप करना आवश्यक समझा गया, कहीं-कहीं पुस्तकाभाव से विस्तृत संदर्भ प्राप्त न हो पाये- इस प्रकार कई कारणों से कुछ स्थानों पर, कुछ महत्वपूर्ण संदर्भ जो कि तप के - विषय में विशेष ज्ञातव्य थे, रह गये। पुस्तक को सर्वांग बनाने की दृष्टि से कुछ ग्रथों का पुनः अवलोकन कर उन संदों को प्राप्त किया गया है जो यहां परिवर्धन शीर्षक से परिशिष्ट में दिये जा रहे है ।
-संपादक ]
१. तप (मोक्षमार्ग) का पलिमंथु : निदान इस प्रकरण में पृष्ठ ११२-११३ पर रानी चेलना का प्रसंग है । उसी संदर्भ में निदान के नौ भेद वताये गये हैं, जो विस्तार भय से प्रारंभ में छोड़ दिये गये थे, किन्तु वे विशेष मननीय होने से यहां ससन्दर्भ पढ़िए :
निवान के नौ भेद :(१) एक पुरुष दूसरे समृद्धिशाली पुरुष को देखकर वैसा बनने का नियाणा
करता है।
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५६४
२ एक पसवाडे के बल सोना ( मध्यम )
३ सीधा सोना ( जघन्य ) |
(ख) अनिष्पन्न ( बैठे हुए की) आतापना के तीन भेद हैं१ गोदोहासन की आतापना ( उत्कृष्ट )
जैन धर्म में तप
२ उत्कटुकासन की आतापना (मध्यम)
३ पर्यकासन की आतापना ( जघन्य )
( ग ) ऊध्वंस्थित ( खड़े हुए की) आतापना तीन प्रकार की हैं१ हस्तिशुण्डिकासन की आतापना ( उत्कृष्ट )
२ एक पैर पर खड़े रहकर (वगुलासन) की आतापना ( मध्यम ). ३ सामान्य रूप से खड़े रहकर ली गई आतापना ( जघन्य )
५. प्रायश्चित्त तप के प्रकरण में पृष्ठ ३६३ पर प्रतिसेवना का वर्णन किया गया है । उस सन्दर्भ में कुछ तथ्य और प्राप्त हुआ है । दशवैकालिक हारिभद्रीय (१1१ ) में तथा स्थानांग ४|१| २६३ में प्रायश्चित्त चार प्रकार का बताया है।
-
प्रायश्चित के चार भेद ये हैं - १. प्रतिसेवनाप्रायश्चित, २. संयोजनाप्रायश्चित्त, ३. आरोपणाप्रायश्चित्त, ४ परिकुञ्चनाप्रायश्चित्त ।
(१) प्रतिषिद्ध अर्थात् नहीं करने योग्य कार्य का सेवन करना प्रतिसेवना है । उसकी शुद्धि के लिये जो आलोचना-प्रतिक्रमण आदि किये जाते हैं, उन्हें प्रतिसेवनाप्रायश्चित्त कहते हैं । इसके दस भेद हैं ।
(२) एकजातीय अतिचारों-दोपों का मिल जाना संयोजना है । जैसे- कोई साधु शय्यातर पिण्ड लाया, वह भी गीले हाथों से, वह भी सामने लाया हुआ और वह भी आधाकर्मी - इस प्रकार के संयुक्त दोपों का जो प्रायश्चित्त होता है, उसे संयोजनाप्रायश्चित्त कहते हैं ।
(३) एक अपराध का प्रायश्चित करने पर वारवार उतो अपराध का सेवन करने से विजातीय-प्रायश्चित का आरोपण करना आरोपणाप्रायश्चित्त है । जैसे - एक अपराध के लिए पांच दिन के तप का प्रायश्वित दिया | फिर उसी का सेवन करने पर दस दिन का. फिर सेवन करने
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परिशिष्ट ४ .
३. कायक्लेश तप के वर्णन में पृष्ठ २६५ पर कायक्लेश के १४ भेद हमने बताए हैं । कुछ आचार्यों ने भेद संख्या १३-१४ को एक ही मानकर १३ भेद ही माने हैं !
कायक्लेश के छठे भेद निषद्या के पांच भेद स्थानांग सूत्र (२१।४००) में बताए गए हैं :
१. समपादपुता २. गोनिषधिका २. हस्तिशुण्डिका ४. पर्यङ्का ५. अर्धपर्यङ्का (क) जिसमें समान रूप से पैर और पुतों-कुल्हों से पृथ्वी या आसन
का स्पर्श करते हुये बैठा जाय, वह समपादपुतानिषद्या है। (ख) जिस आसन में गाय की तरह बैठा जाय, वह गोनिषधिका है। (ग) जिस आसन में कूल्हों के ऊपर बैठकर एक पैर ऊपर रखा जाय,
वह हस्तशुण्डिका है। .. (घ) पद्मासन से बैठना पर्यङ्कानिषद्या है।
(९) जंघा पर एक पैर चढ़ाकर बैठना अखं पर्यङ्कानिषद्या हैं ।
इनमें से किसी एक प्रकार की निपद्या से बैठकर कायोत्सर्ग करना कायक्लेश तप का छठा भेद है।
४. आतापना के भी कई प्रकार वताये गए हैं :१. निष्पन्न - सोते हुए आतापना लेना । . . . २ अनिष्पन्न-बैठे हुए आतापना लेना। .. . . ३ ऊर्ध्वस्थित-खड़े हुए आतापना लेना।
ये क्रमशः उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य मानी गई है । अर्थात् सोते हुए की आतापना उत्कृष्ट, बैठे हुए की मध्यम, खड़े हुए की जघन्य ! (क) निष्पन्न (सोते हुए) आतापना के तीन भेद हैं- .
१ नीचा मुख करके सोना (उत्कृष्ट) . . . . .
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जैन धर्म में तप
छेद या तप रूप मासिक प्रायश्चित्त के दो भेद हैं — उद्घातिक और अनुद्घातिक । उद्घातिक मासिकप्रायश्चित्त दो प्रकार का है --भिन्नमासिक एवं लघुमासिक | भिन्नमासिक के जघन्य रूप में एक दिन निर्विकृति अर्थात् विगय का त्याग करना पड़ता है तथा उत्कृष्ट रूप में २५ दिन का तप या छेद स्वीकार करना पड़ता है । लघु मासिक में जघन्य पुरिमड्ढ करना (आधे दिन तक भूखा रहना) पड़ता है एवं उत्कृष्ट २७ दिन का तप या छेद होता है ।
५६६
अनुद्घातिक का अर्थ गुरुमासिक है - इसमें जघन्य एकासन (दिन में एक ही बार खाकर रहना) और उत्कृष्ट ३० दिन का तप या छेद होता है ।
चातुर्मासिक एवं पाण्मासिक प्रायश्चित्त भी दो प्रकार के हैं— उद्घातिक एवं अनुद्घातिक अर्थात् लघु एवं गुरु । लघुचातुर्मासिक में जघन्य आयंम्बिल एवं उत्कृष्ट १०५ दिन का तप या छेद होता है तथा गुरुचातुर्मासिक में जघन्य एक उपवास व उत्कृष्ट १२० दिन का तप या छेद होता है । लघुपाण्मासिक में जघन्य बेला एवं उत्कृष्ट १६५ दिन का तप या छेद होता है । गुरुपाण्मासिक में जघन्य तेला एवं उत्कृष्ट १८० दिन का तप या छेद होता है ।
2
मासिकादि प्रायश्चित्तों की जघन्यता एवं उत्कृष्टता दोपों की मन्दतातीव्रता तथा दोपी को परिस्थिति के अनुसार होती है । किसको किस प्रकार का प्रायश्चित्त देना - यह निष्यक्ष प्रायश्चित्तदाता के विचारों पर निर्भर है ।
किन-किन दोषों का सेवन करने से मासिक चातुर्मासिक एवं पाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है, यह वर्णन निशीथ, बृहत्कल्प एवं व्यवहार सूत्र से जानने योग्य है ।
८. पृष्ठ ४२३ पर विनय के तीन अर्थ किये गए हैं। यहां इतना और श्री समझना चाहिए कि विनय के वाचक तीन शब्द काफी प्रचलित है -
१ यह विधि विशीय सुत्र के हस्तलिखित टत्वों के आधार पर दी गई है । देवें मोक्ष प्रकाश २५३.
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परिशिष्ट ४
५६५
पर पन्द्रह दिन का, इस प्रकार छः मास तक लगातार प्रायश्चित्त देना ।
छः मास से अधिक तप का प्रायश्चित्त नहीं होता ।
(४) द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से अपराध को छिपाना या दूसरा रूप देना परिकुञ्चना है । इसका जो प्रायश्चित्त है, वह परिकुञ्चनाप्रायश्चित्त कहलाता है ।
६. 'आलोचना के लाभ' शीर्षक पृष्ठ ३६६-४०० के सन्दर्भ में स्थानांग सूत्र का यह वर्णन भी काफी महत्त्व रखता है, जो विशेष मननीय है ।
स्थानांग ८१५६७ में कहा है कि जो व्यक्ति अपने दोषों की आलोचना कर लेता है, वह मरकर विशालसमृद्धि, लम्बी आयु तथा उच्चजाति का देवता बनता है (किल्विषिक, आभियोगिक, कान्दर्पिक आदि नहीं बनता ) वह वहां दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण, दिव्य तेज आदि से दशों दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ विविध नाटक, गीत, वादित्रों के साथ दिव्य भोगों का अनुभव करता है । वह देवताओं में विशेष सम्मानीय होता है तथा जव देवसभा में भाषण देने लगता है तब चार-पांच देवता खड़े होकर कहते हैं - हे देवानुप्रिय ! और कहिये और कहिये ! आपका भाषण बहुत प्रिय लगता है ।
इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने दोपों की आलोचना किये विना मरता है. वह नरकादि दुर्गतियों में जाता है । पहले कुछ त्याग तपस्या की हुई होने के कारण कदाचित् व्यन्तर:- किल्विपिक आदि देव बन जाता है तो उसकी आयु, ऋद्धि, तेज आदि अल्प होते हैं, उसे उच्चवासन एवं सम्मान नहीं मिलता । जब वह बोलने के लिए बड़ा होता है तो चार या पांच देवता उसे रोकते हुए कहते हैं-वस, रहने दीजिए ! अधिक मत बोलिये !
स्वर्ग से च्यवकर यदि वह मनुष्य लोक में आता है तो अन्त प्रान्त तुच्छ दरिद्र या भिक्षुकादि कुलों में उत्पन्न होता है एवं अमनोज्ञ वर्ण- गंन्धरसस्पर्श वाला तथा हीन दीन स्वर वाला होता है ।
७ इसी प्रकरण में छेदाहं प्रायश्चित्त के अन्तर्गत पृष्ठ ४१७ के सन्दर्भ में यह विशेष वर्णन और भी ज्ञातव्य हैं
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जैन धर्म में तप . (१०) परितापनाकारी-प्राणियों को संतापित किया जाए इत्यादि मन की
प्रवृत्ति । (११) उपद्रवफारी-अमुक पुरुष को ऐसी वेदना हो कि उसके प्राण छूट
जायें या अमुक पुरुष के धन को चोर चुरा ले जाएँ, इस प्रकार मन __ में चिन्तन करना। (१२) भूतोपघातफारी-जीवों का विनाश करने वाली मन की प्रवृत्ति। :
१०. वैयावृत्य तप के प्रकरण में पांचवा भेद है ग्लान (रोगी) की सेवा करना। ग्लान वैयावृत्य के सम्बन्ध में प्रवचन सारोद्धार द्वार ७१ गाथा २६ में काफी विस्तार से वर्णन मिलता है। ग्लान प्रतिचारी (रोगी की सेवा करने वाले) के बारह भेद बताये हैं, जो इस प्रकार हैं(१) उद्वर्तनप्रतिचारी-ये ग्लान मुनि को पासा बदलाना, उठाना, बैठाना,
बाहर ले जाना, भीतर लाना, उनकी पडिलेहणा करना इत्यादि रूप
सेवा करते हैं। (२) द्वारप्रतिचारी-ये ग्लान मुनि के पास अधिक भीड़ न हो जाये, इसलिए
कमरे के द्वार पर बैठे रहते हैं । (३) संस्तारप्रतिचारी- ये ग्लान मुनि के लिये साताकारी शय्यासंथारे की ।
व्यवस्था करते हैं। (४) कथकप्रतिचारी-ये ग्लानमुनि को धर्मोपदेश सुनाते हैं एवं धर्य बंधवाते
(५) बादिप्रतिचारी ये विशेष चर्चावादी होते हैं एवं प्रसंग आने पर ग्लान
मुनि के पास उत्पन्न विवाद को शान्त करते हैं । (६) अग्रद्वारप्रतिचारी- ये उपाश्रय के मुख्य द्वार पर बैठते हैं ताकि कोई
प्रत्यनीक ग्लानमुनि के पास आकर क्लेश आदि न कर सके । (3) मतपतिनारी-ये ग्लानमुनि के लिए आहार-पानी की बावस्था (८) पानप्रतिचारी-करते हैं। (B) पुरीपतिवारी- (ये ग्लान मुनि के मल-मूत्र परठने का काम करत (१०) प्रसवणप्रतिचारी-हैं।
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परिशिष्ट ४ .
५६७
१ भक्ति- हाथ जोड़ना, सिर झुकाना आदि वाह्य व्यवहार में नम्रता प्रदर्शित करना। '. २ बहुमान - गुरुजनों के प्रति हृदय में श्रद्धा एवं प्रीति रखना। तथा उनका आदर करना।
३ वर्णवाद-गुणों की प्रशंसा करना. उन्हें ग्रहण करने का प्रयत्न करना। ये तीनों शब्द विनय के अर्थ में प्रचलित है ।
६. अप्रशस्त मन विनय के अन्तर्गत पृष्ठ ४३५ पर सात भेद बताये गए हैं। इन्हीं भेदों में परिवर्धन कर औपपातिक सूत्र में बारह भेद कर दिये गए हैं, जो इस प्रकार हैं
अप्रशस्तमनोविनय-अप्रशस्तमन अर्थात् खराव मन । यह बारह प्रकार का होता है(१) सावद्य-गहित (निन्दित) कार्य से युक्त, अथवा हिंसादि कार्य से युक्त
मन की प्रवृत्ति । (२) सक्रिय-कायिकी आदि क्रियाओं से युक्त मन की प्रवृत्ति। (३) सकर्कश-कर्कश (कठोर) भावों से युक्त मन की प्रवृत्ति । (४) फटुक - अपनी आत्मा के लिये और दूसरे प्राणियों के लिए अनिष्ट- -
कारी मन की प्रवृत्ति। (५) निष्ठुर- मृदुता (कोमलता)-रहित मन की प्रवृत्ति। (६) परुष-कठोर अर्थात् स्नेहरहित मन की प्रवृत्ति। (७) आलवकारी-जिससे अशुभ कमों का आगमन हो, ऐसी मन की
प्रवृत्ति । () छेदकारी-अमुक पुरुष के हाथ-पैर आदि अवयवः काट दिये जाएं .
इत्यादि मन की प्रवृत्ति । (६) भेदकारी-अमुक पुरुष के नाक-कान आदि का भेदन कर दिया जाए,
ऐसी मन की प्रवृत्ति ।
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जैन धर्म में तप
५७०
( ३ ) तत्त्व विशेष का प्ररूपण करने के लिये व्याख्यानकर्ता एवं ग्रन्थकर्ता अपने आप प्रश्न उठाता है एवं फिर उसका समाधान करता है । इस प्रकार का प्रश्न अनुयोगी प्रश्न है । जैसे—-आगम में "कई किरियाओ पन्नताओ" यो प्रश्न उठाकर पांच क्रियाओं का स्वरूप समझाया गया है ।
( ४ ) सामनेवाले को अनुकूल करने के लिये - "आप कुशल तो हैं"... इत्यादि शिष्टाचार रूप जो प्रश्न पूछा जाता है, वह अनुलोम प्रश्न है । (५) प्रश्न का उत्तर जानते हुए भी गौतमआदिवत् जो प्रश्न पूछा जाता है, वह तथाज्ञान प्रश्न है । केशीस्वामी द्वारा किये गये प्रश्न भी इसी कोटि के हैं ।
( ६ ) प्रश्न का उत्तर न जानते हुए अज्ञानी व्यक्ति द्वारा यत्किचित् प्रश्न किया जाता है वह अतथाज्ञानप्रश्न है ।
१३. पृष्ठ ४६६ पर धर्म कथा के चार भेद बताये गये हैं । इन चारों के चार-चार अन्तर्भेद करके कुल १६ भेद भी किये गये हैं । इनका विस्तृत वर्णन स्थानांग ४४२/२८२ की टीका तथा दशवैकालिक अ० ३ की नियुक्ति गाया १६७-६८ की टीका में प्राप्त होता है । वह वर्णन विशेष ज्ञातव्य होने से यहां दिया जा रहा है
१. आक्षेपणीधर्मकथा - श्रोताओं को मोह से हटाकर धर्मतत्व की ओर आकर्षित करने वाली कथा आक्षेपणी कहलाती है । यह चार प्रकार की होती है- १. आचारआक्षेपणी, २. व्यवहारआक्षेपणी ३. प्रज्ञप्ति आक्षेपणी, (४) दृष्टिवाद आक्षेपणी
(क) केश- लोच अस्नान आदि साबुआचार के द्वारा अथवा ददावैकालिकआचारांग आदि आचार-प्रदर्शक सूत्रों के व्याख्यान द्वारा श्रोताओं को तत्व के प्रति आकपित करने वाली कथा आचार-आक्षेपणी हैं ।
(स) किसी तरह का दोष लगाने पर उसकी शुद्धि के लिये आलोचना आदि प्रायश्चित्त अथवा व्यवहार बृहत्कल्प वादि सूत्रों के व्याख्यान द्वारा
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परिशिष्ट ४
५६६ .(११) बहिःकथकप्रतिचारी-ये ग्लानमुनि के पास धर्म प्रभावना के लिए
. बाहर के लोगों को कथा सुनाते हैं। (१२) दिशासमर्थप्रतिचारी-ये ग्लानमुनि के पास छोटे बड़े आकस्मिक
उपद्रवों को शान्त करने का काम करते हैं (प्रत्येक कार्य पर ४-४ साधु नियुक्त होते हैं, अतः उत्कृष्ट स्थिति में ग्लानप्रतिचारियों की संख्या ४८ हो जाती है)।
११. पृष्ठ ४६१ पर स्वाध्याय के दूसरे भेद पृच्छना का वर्णन किया गया है। उत्तराध्ययन २६।२० में बताया है पृच्छना करने वाला अपनी शंकाओं को दूर कर ज्ञान को निर्मल बनाता है तथा कांक्षामोहनीय कर्म को खपाता है । पृच्छा- प्रश्न अनेक प्रकार के होते हैं । इस संदर्भ में स्थानांग ६।५३४ में प्रश्न छह प्रकार के बताए हैं जो विशेष ज्ञातव्य हैं
प्रश्न छः प्रकार के माने गये हैं - (१) संशयप्रश्न, (२) व्युद्ग्रहप्रश्न, (३) अनुयोगीप्रश्न (४) अनुलोमप्रश्न (५) तथाज्ञानप्रश्न, (६) अतथाज्ञान प्रश्न । (१) अर्थ विशेष में संदेह होने पर गुरु आदि से जो पूछा जाता है, वह संशय
प्रश्न है। संसार के सभी व्यक्ति संशय के पात्र हैं, केवल दो ही जीव ऐसे होते हैं, जिनके मन में शंका नहीं होती। उनमें एक तो सर्वज्ञ भगवान है, और दूसरे अभव्य जीव । संदेह होने पर अनेक देवों, मुनि-महपियों एव गृहस्थों ने भगवान् महावीर के पास जो जिज्ञासारूप प्रश्न पूछे थे, वे सव संशय प्रश्न समझने चाहिए । शंका का समाधान करने के लिए प्रश्न अवश्य पूछना चाहिए लेकिन उसके साथ द्रव्य-क्षेत्र काल भाव का ध्यान रखना
परम आवश्यक है। (२) दुराग्रह अथवा परपक्ष को दूपित करने के लिये जो प्रश्न किया जाता
है, वह व्युदग्रहप्रश्न है. । उसमें प्रश्नकर्ता की भावना प्रतिपक्षी को नीचा दिखाने की रहती है।
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५७२
जैन धर्म में तप
को यदि मिथ्याभिनिवेश हो तो वह पर सिद्धान्त के दोपों को न समझकर गुरु को पर-सिद्धान्त का निन्दक भी समझ सकता है। . .. __३ संवेगनीधर्मकथा-जिसके द्वारा विपाक की विरसता बताकर श्रोताजन में वैराग्य उत्पन्न किया जाये, वह संवेगनी धर्म कथा है । इसको संवेजनी तथा संवेदनी भी कहते हैं । इसके चार भेद हैं ? .
(१) इहलोकसंवेगनी, (२) परलोकसंवेगनी (३) स्वशरीरसंवेगनी, (४) परशरीरसंवेगनी। (क) मनुष्य शरीर एवं भोगों को असारता तथा अस्थिरता बताकर वैराग्य -
पैदा करना इहलोकसंवेगनीकथा है । (ख) देव भी पारस्परिक ईर्ष्या, भय और वियोग तथा तृष्णा आदि के दुःखों
से दुखी हैं। उन्हें भी मरकर मनुष्य तिर्यञ्च रूप दुर्गति में जाने की एवं गर्भ तथा जन्म सम्बन्धी घोर कष्ट उठाने की चिन्ता लगी रहती है-इस प्रकार परलोक का स्वरूप बताकर वैराग्य उत्पन्न करना
परलोकसंवेगनीकथा है। (ग) यह शरीर स्वयं अशुचिरूप है, अशुचि (रजवीर्य) से उत्पन्न हुआ है
और अशुचि का कारण है-- इस प्रकार मानव शरीर के स्वरूप को
वताकर वैराग्य उत्पन्न करना स्वशरीरसंवेगनीकथा है। (घ) किसी मृत शरीर (मुर्दा) के स्वरूप को समझ कर वैराग्य उत्पन्न . करना परशरीरसंवेगनीकथा है।
४. निवेदनोधर्मकथा-इहलोक-परलोक में प्राप्त होने वाले पुण्य-पाप के शुभाशुभ फलों को समझाकर संसार में उदासीनता पैदा करना निवेदनी घमंगाया है । इसके चार भेद हैं ? (क) इस भव में किये गये चोरी-जारी आदि दुष्कर्म एवं दानादि सत्कर्म
यहीं फल जाते हैं। जैसे-चोरी-जारी से बदनामी तथा अशान्ति मिलती है और तीर्थकरादि महामुनियों को दान देने से मन की प्रसन्नता एवं स्वर्णादि द्रव्य प्राप्त होते हैं। तपस्या से अनेक प्रकार को लब्धिया मिलती हैं। इस प्रकार का वर्णन करने वाली कथा प्रथमनिवेदनीराया है।
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परिशिष्ट ४
५७१ . श्रोताओं को आत्मशुद्धि की तरफ आकर्षित करने वाली कथा व्यवहार
आक्षेपणी है। (ग) श्रोताओं की शंकाओं का समाधान करने वाली, उनकी श्रद्धा को दृढ़
बनाने वाली अथवा प्रज्ञप्ति (भगवती) आदि सूत्रों के व्याख्यान द्वारा
तत्व के प्रति झुकाने वाली कथा प्रज्ञप्ति आक्षेपणी है। (घ) नय-निक्षेप आदि से जीवादि-सूक्ष्म तत्त्वों को समझाने वाली अथवा
श्रोताओं की दृष्टि को विशुद्ध करने वाली अथवा दृष्टिवादविषयक व्याख्यान द्वारा तत्त्व के प्रति आकर्षित करने वाली कथा दृष्टिवाद आक्षेपणी है।
२ विक्षेपणीधर्मकथा-श्रोता को कुमार्ग से हटाकर सुमार्ग पर लाने वाली धर्मकथा विक्षेपणी कहलाती है। इसमें कुश्रद्धा को हटा कर सुश्रद्धा स्थापित करने की दृष्टि रहती है। इसके चार भेद हैं :(क) स्व-सिद्धान्त के गुणों का प्रकाश करके पर-सिद्धान्तों के दोपों का .
दर्शन कराना प्रथमविक्षेपणीकथा है । (ख) पर-सिद्धान्त का कथन करते हुए स्वसिद्धान्त की स्थापना करना
द्वितीयविक्षेपणीकथा है। (ग) पर-सिद्धान्त में घुणाक्षर-न्याय से जितनी बातें जिनागम सदृश हैं ..
उन्हें कहकर जिनागम विपरीत वाद के दोष दिखाना अथवा आस्तिकवादी का अभिप्राय बताकर नास्तिकवाद का निराकरण
करना तृतीयविक्षेपणीकथा है। (घ) पर-सिद्धान्त में कही हुई मिथ्या वातों का वर्णन करके स्वसिद्धान्त
द्वारा उनका निराकरण करना अथवा नास्तिकवादी की दृष्टि का वर्णन करके आस्तिकवाद की स्थापना करना चतुर्थविक्षेपणीकथा है। सर्वप्रथम आक्षेपणीकथा कहनी चाहिये, उससे श्रोताओं को यदि सम्यक्त्व का लाभ हो जाये तो फिर उनके सामने विक्षपणी कथा का प्रयोग करना चाहिये । इस कथा से सम्यक्त्वलाभ हो या,नहीं भी हो । अनुकूल रीति से ग्रहण करने पर शिष्य की सम्यकत्व दृढ़ भी हो सकती है लेकिन शिष्य
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५७२
जैन धर्म में तप को यदि मिथ्याभिनिवेश हो तो वह पर सिद्धान्त के दोपों को न समझकर गुरु को पर-सिद्धान्त का निन्दक भी समझ सकता है। .
३ संवेगनीधर्मकथा-जिसके द्वारा विपाक की विरसता बताकर श्रोताजन में वैराग्य उत्पन्न किया जाये, वह संवेगनी धर्म कथा है । इसको संवेजनी तथा संवेदनी भी कहते हैं । इसके चार भेद हैं ? .
(१) इहलोकसंवेगनी, (२) परलोकसंवेगनी (३) स्वशरीरसंवेगनी, ... (४) परशरीरसंवेगनी। (क) मनुष्य शरीर एवं भोगों की असारता तथा अस्थिरता बताकर वैराग्य
पैदा करना इहलोकसंवेगनीकथा है। (ख) देव भी पारस्परिक ईर्ष्या, भय और वियोग तथा तृष्णा आदि के दुःखों
से दुखी हैं। उन्हें भी मरकर मनुष्य तिर्यञ्च रूप दुर्गति में जाने की एवं गर्भ तथा जन्म सम्बन्धी घोर कष्ट उठाने की चिन्ता लगी रहती है-इस प्रकार परलोक का स्वरूप बताकर वैराग्य उत्पन्न करना
परलोक संवेगनीकया है। (ग) यह शरीर स्वयं अशुचिरूप है, अशुचि (रजवीर्य) से उत्पन्न हुआ है
और अशुचि का कारण है- इस प्रकार मानव शरीर के स्वरूप को
बताकर वैराग्य उत्पन्न करना स्वशरीरसंवेगनीकथा है। (घ) किसी मृत शरीर (मुर्दा) के स्वरूप को समझ कर वैराग्य उत्पन्न
करना परशरीरसंवेगनीकथा है।
४. निवेदनीधर्मफया-इहलोक-परलोक में प्राप्त होने वाले पुण्य-पाप के शुभाशुभ फलों को समझाकर संसार में उदासीनता पैदा करना निदनी धर्मकया है । इसके चार भेद हैं ? (क) इस भव में किये गये चोरी-जारी आदि दुष्कर्म एवं दानादि सत्कर्म
यही फल जाते हैं। जैसे-चोरी-जारी से बदनामी तथा अशान्ति मिलती है और तीर्थकरादि महामुनियों को दान देने से मन की प्रसनता एवं स्वर्णादि द्रव्य प्राप्त होते हैं। तपस्या से अनेक प्रकार की लधिया मिलती हैं। इस प्रकार का वर्णन करने वाली कथा प्रथमनिवेदनीकथा है।
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परिशिष्ट ४.. (ख) यहां किए हुए दुष्कर्मों का फल नरकादि दुर्गति में तथा सत्कर्मों का
· फल स्वर्गादि सद्गति में मिलने का वर्णन करना द्वितीय निर्वेदनी ... कथा है। (ग). पूर्व भव में किये हुये पापों के उदय से यहाँ दुःख, दौर्भाग्य, रोग और . शोक मिलते हैं तथा पुण्यों के उदय से सुख-सौभाग्य-आरोग्य और
आनन्दादि मिलते हैं। इस प्रकार का वर्णन करना तृतीयनिवेदनीकथा है ।
(घ) पूर्व भव में किये हुये शुभ-अशुभ कर्मों का आगामीभव में फल मिलने
रूप वर्णन सुनाना। जैसे-पूर्व भव में किसी जीव ने नरक योग्य : कुछ कर्म करके बीच में काक-गीध एवं तन्दुलमच्छ आदि का जन्म ले
लिया एवं बँधे हुए अधूरे नरक योग्य कर्मों को पूर्ण करके नरक में उत्पन्न हो गया एवं पिछले तीसरे भव में बांधे हुये अधूरे अशुभ कर्मों को भोगने लगा। इसी प्रकार तीर्थंकरनाम कर्म बांधने के बाद भी जीव तीसरे भव में तीर्थकर होकर भोगता है। जिस कथा में इस प्रकार का वर्णन हो, वह चतुर्थनिर्वेदनीकथा है।
१४. पृष्ठ ४७० पर ध्यान का स्वरूप बताया गया है। उसी संदर्भ में ध्यान के आठ अंगों का स्वरूप भी समझने जैसा है। वहां विस्तारभय से नहीं दिया गया है जो यहाँ पर दिया जा रहा हैध्यान के आठ अंग(१) ध्याता, (२) ध्यान, (३) फल, (४) ध्येय, (५) ध्यान का स्वामी,
(६) ध्यान के योग्य क्षेत्र, (७) ध्यान के योग्य समय, (८) ध्यान के.
योग्य अवस्था। (१) ध्याता-वह व्यक्ति ध्यान के योग्य माना गया है, जो जितेन्द्रिय है,
धीर है, जिसके क्रोधादि कपाय शान्त हैं, जिसकी आत्मा स्थिर है, जो . सुखासन में स्थित है एवं नाशा के अग्र भाग पर नेम टिकाने वाला है।
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५७४
जैन धर्म में तप (२) ध्यान-अपने इष्ट विषय (ध्येय में लीन हो जाना अर्थात आज्ञाविच.
यादि रूप से स्वयं परिणित हो जाना-- रम जाना ध्यान है। .
आसक्ति का त्याग, कपायों का निग्रह, व्रत धारण तथा मन एवं इन्द्रियों । को जीतना- ये सब कार्य ध्यान की सामग्री है। (३) फल-ध्यान का फल संवर-निर्जरा है । अर्थात् आते हुये नये कर्मों को
रोकना एवं पुराने कर्मों को तोड़ना है। भौतिक सुख सुविधाओं को
प्राप्ति के लिये ध्यान करना निषिद्ध है। (४) ध्येय-जिस इष्ट का अवलम्बन लेकर ध्यान-चिन्तन किया जाता है,
उसे ध्येय कहते हैं । ध्येय के चार प्रकार है-(१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ,
(३) रूपस्थ, (४) रूपातीत। " (५) ध्यान का स्वामी-(१) वैराग्य, (२) तत्त्व ज्ञान, (३) निर्ग्रन्थता, (४).
समचित्तता, (५) परिग्रह जय-ये पाँच ध्यान के हेतु हैं । इनसे सम्पन्न
व्यक्ति ध्यान का स्वामी (अधिकारी) कहलाता है। (६) ध्यान का क्षेत्र -जहां ध्यान में विघ्न करने वाले उपद्रवों एवं विकारों
की सम्भावना न हो - ऐसा क्षेत्र ध्यान के योग्य माना जाता है। (७) ध्यान के योग्य काल-यद्यपि जव भी मन स्थिर हो उसी समय ध्यान
किया जा सकता है, फिर भी अनुभवियों ने प्रातः काल को सर्वोत्तम
माना है। . (a) ध्यान के योग्य अवस्या-शरीर को स्वस्थता एवं मन की शान्त अवस्था
ध्यान के लिये उपयुक्त कहलाती है। तभी तक ध्यान स्थिर रहता है, जब तक शरीर या मन में खिन्नता न हो---इसलिये कहा है कि जाप से धान्त होने पर ध्यान एवं ध्यान से प्रान्त होने पर जाप में लग जाना चाहिये तथा दोनों में मन न लगे तो स्तोत्र पढ़ना शुरु कर देना चाहिये।
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परिशिष्ट ४
મૂળ
(ख) यहां किए हुए दुष्कर्मों का फल नरकादि दुर्गति में तथा सत्कर्मों का फल स्वर्गादि सद्गति में मिलने का वर्णन करना द्वितीय निर्वेदनी कथा है ।
(ग) पूर्व भव में किये हुये पापों के उदय से यहाँ दुःख, दौर्भाग्य, रोग और . शोक मिलते हैं तथा पुण्यों के उदय से सुख-सौभाग्य - आरोग्य और आनन्दादि मिलते हैं । इस प्रकार का वर्णन करना तृतीय निर्वेदनीकथा है ।
(घ) पूर्व भव में किये हुये शुभ-अशुभ कर्मों का आगामीभव में फल मिलने रूप वर्णन सुनाना । जैसे— पूर्व भव में किसी जीव ने नरक योग्य कुछ कर्म करके बीच में काक - गीध एवं तन्दुलमच्छ आदि का जन्म ले लिया एवं बँधे हुए अधूरे नरक योग्य कर्मों को पूर्ण करके नरक में उत्पन्न हो गया एवं पिछले तीसरे भव में बांधे हुये अधूरे अशुभ कर्मों को भोगने लगा । इसी प्रकार तीर्थंकरनाम कर्म वांधने के बाद भी जीव तीसरे भव में तीर्थंकर होकर भोगता है । जिस कथा में इस प्रकार का वर्णन हो, वह चतुर्थनिर्वेदनीकथा है ।
१४. पृष्ठ ४७० पर ध्यान का स्वरूप बताया गया है । उसी संदर्भ में ध्यान के आठ अंगों का स्वरूप भी समझने जैसा है। वहां विस्तारभय से नहीं दिया गया है जो यहाँ पर दिया जा रहा है
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ध्यान के आठ अंग
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( १ ) ध्याता, (२) ध्यान, (३) फल, (४) ध्येय, (५) ध्यान का स्वामी, (६) ध्यान के योग्य क्षेत्र, (७) ध्यान के योग्य समय, (८) ध्यान के योग्य अवस्था |
(१) ध्याता - वह व्यक्ति ध्यान के योग्य माना गया है, जो जितेन्द्रिय है, धीर है, जिसके क्रोधादि कपाय शान्त हैं, जिसकी आत्मा स्थिर है, जो सुखासन में स्थित है एवं नाशा के अग्र भाग पर नेत्र टिकाने वाला है ।
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श्रीमान् स्वर्गीय सेठ हीराचंदजी.
नेमीचंदजी बांठिया .
आप मुल बगही नगर निवासी हैं । अभी मारकाट मद्राम में व्यापार है। बगड़ी नगर की उच्च माध्यमिक विद्यालय के लिए १५००० रु०, बगड़ी अस्पताल हा ५००० १०, जैन स्थानक सोजतरोड के लिए २५००० २० दिए हैं। आपने अपने जीवन में लगभग १००००० २० दान प्रदान किया है। आप बड़े मिलनमार, उदारमना, धर्म पर दृढ श्रादा रखते थे और पूज्य गुरुदेव । थी मचगनीजी के अनन्य भवत य। आपकी धर्मपत्नी श्रीमती मदनकांबर बाई इसीप्रकार से आज भी नमाज एवं जनता की सेवा के लिए युन हाथों से दान दे रही हैं। सा "जैन धर्म में तप" ग्रन्थ के प्रकाशन में भी १००० रु प्रदान किए हैं। आप छोटी उन में ही स्वर्गवासी हो गये।
स्व. श्री सोहनलालजी सेठिया
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श्रीमान् घोसुलालजी मोहनलालजी लेठिया
र भावी मारवार निवासी हैं और प्र सार मगर में बड़े गुन्दर चल रहा है। आप मायण, मन एवं अहामील
आ दानों नगर कमी को शामिक में लगातार
। अभी आपने न यर मोहन
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मनोर
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प्रस्तुत पुस्तक प्रकाशन में विशिष्ट सहयोगी
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शाह-बच्छराज जो सुराना - आप सोजत (मारवाड) के निवासी हैं । शाह-जयवंतराजजो होराचंदजी सुराना - सिंघियों की पोलवालों के सुपुत्र स्वर्गीय : बच्छ
राजजी सुराना, शांत स्वभावी, मिलनसार एवं सेवाभावी भद्रपुरुष थे । आपके भरे पूरे परिवार में विद्यमान जोधराजजी-संपतराजजी, मदनलाल जी, शुभराजजी, डूंगरचन्दजी आदि ५ पुत्र एवं दो पुत्रियां हैं-आपका व्यापार-सेलम (मद्रास) में है । सारे भाई उदारमना एवं गुरुदेव के । अनन्य भक्त हैं।
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श्री बलवन्तराजजी खाटेड ..
आप बगड़ी निवासी दिलेर, उत्साही और क्रान्तिकारी विचारों के नवयुवक हैं। आपकी धर्मपत्नी श्रीमती सज्जनकुंवर वाई भी वड़ा धर्मपरायणा एवं विवेकशील हैं। श्री खाटेडजी का व्यवसाय मद्रास में है। बगड़ी के हाईस्कूल तथा छात्रावास के लिए आपकी सहायता प्रशंसनीय रही है। आप भी गुरुदेव के परम
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भक्त हैं।
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श्रीमान रेखचंदजी रांका आप बगडीनिवासी शंका परिवार के तेजस्वी नक्षत्र है । वोरीदास छगनमल फर्म के मालिक है । मादगी, समृयता, विनम्रता एवं सेवा परायणता आपकी चिरसंगिनी है । मुस्काता नेहरा, मिलनसार स्वभाव और अतिथिसत्कार में अग्रणी गंभीर श्री रेवचंदजी बड़े ही शांत, एवं गुग्भवत सज्जन पुरुष हैं | समाज सेवा के कार्यों में आपने खुले दिल मे लक्ष्मी का सदुपयोग किया है । आप बगड़ी व. स्था. जैन श्रावक में संघ के मन्त्री एवं समाज सम्माननीय व्यक्ति है । मद्रास (चिताधरी पेठ) में डी. आर. रांका बदनाम ने आपकी सुप्रसिद्ध फर्म है ।
श्रीमान् किशनलालजी बोहरा
आपका जन्मभूमि अटपड़ा है। आपके पिताजी अनोपचंदजी बहुत ही धार्मिक प्रवृति एवं उदारमना सज्जन प्रकृति के प्रामाणिक श्रावक थे । गुरुदेव के प्रति अनन्य भक्ति
खते थे | आपके सुपुत्र श्री किशनतावनी भी अपने पिताजी के अनाकारी पुत्र है | अपने पिताजी की यादगार में आप द्रव्य का अच्छे कावों में उदारतापूर्वक उपयोग कर
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फोट अप्राप्त
श्रीमान् छगनराज जी केवलचंदजी कोठारी
(मद्रास)
श्री केवलचंदजी बड़े उत्साही उदारमना एवं सेवाभावी पूज्य गुरुदेव के परम भक्त हैं | आप निम्बोल के मूल निवासी हैं तथा अभी तिरवन्नामले ( मद्रास ) में आपका व्यापार चल रहा है।
फोटू प्राप्त नहीं
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श्रीमान् मिश्रीमलजी प्रेमराजजी लुंकड़
• आप वगड़ीनगर के निवासी हैं | आपका कारोवार मद्रास प्रांत में तीरवेलूर में है । आप तपस्वी और धर्म की अच्छी लगन वाले सरल एवं सेवाभावी हैं । गुरुदेव के परम भक्तों में हैं ।
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श्रीमती गजरावाई धर्मपत्नी स्व० सेठ लालचंदजी
कातरेला
बगड़ी ( मारवाड ) निवासी, हाल मुकाम मद्रास | आप बड़ो भद्रीक उदारचेता, धर्म परायणा है । आपके मातृभक्त दो सुपुत्र हैं— श्री माणकचंदजी तथा शीतललालजी कातरेला । दोनों युवक श्रद्धाशील सेवाभावी है ।
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श्रीमान रेखचंदजी रांका
आप बगडीनिवासी रांका परिबार के तेजस्वी नक्षम है । बोरीदाम . छगनमल फर्म के मालिक हैं । । मादगी, नयना, विनम्रता एवं सेवा परायणता आपकी चिरसंगिनी है। गन्माता नेहा, मिलनसार स्वभाव और अतिथि सत्कार में अग्रणी श्री रेवचंदजी बड़े ही शांत, गंभीर एवं गुम्भवत गज्जन पुरुप हैं । ममाज मेवा के कार्यों में आपने खुले दिल से लक्ष्मी का सदुपयोग किया है। आप बगड़ी व. स्था. जैन धावक गंध के मन्त्री एवं समाज में सम्माननीय व्यक्ति हैं । मद्रास (चिताधरी गेट) में डी. आर. रांका । यदर्म नाम में आपकी सुप्रसिद्ध
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श्रीमान् किशनलालजी बोहरा
आपकी जन्मभूमि अटपड़ा है। आरके पिताजी अनोपचंदजी बहुत ही धानिक प्रति एवं उदारमना नाग प्रकृति के प्रामाणिक धावक से । गुरुदेव के प्रति अनन्य भक्ति रखी थे। आपके मुगुम श्री किशनबालनी नी अपने पिताजी के
नाकामअपने पिताजी की गागार में आप द्रव्य का अच्छे हालों ने मारतारक उपयोग कर
श्रीमान छगनराज जो केवलचंदजी कोठारी
(मद्रास) श्रो केवलचंदजी बड़े उत्साही उदारमना एवं संवाभावी पूज्य गुरुदेव के परम भक्त हैं। आप निम्बोल के मूल निवासी हैं तथा अभी तिरवन्नामले (मद्रास ) में आपका व्यापार चल रहा है।
फोट अप्राप्त
फोटू प्राप्त नहीं
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श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति
(प्रवचन प्रकाशन विभाग) ... . सदस्यों की शुभ नामावली .
प्रथम श्रेणी
१ बी. सी. ओसवाल, जवाहर रोड रत्नागिरी (सिरीयारी) २ शा० इन्दरसिंह जी मुनोत, जालोरी गेट, जोधपुर ३ शा० लादूराम जी छाजेड़, व्यावर, (राजस्थान) ४ शा० चम्पालाल जी डुगरवाल, नागरथपेठ बेंगलोर सिटी (करमावास) ५ शा० कामदार प्रेमराज जी, जुमा मस्जिद रोड,बेंगलोर सिटी (चावंडिया) ६ शा० चांदमल जी मानमल जी पोकरना, पेरम्पर मद्रास ११ (चावंडिया) ७ जे. वस्तीमल जी जैन, जैनगर बेंगलोर ११ (पुजलू) ८ शा० पुखराज जी सीसोदीया, ब्यावर ६ शा. वालचंद जी रूपचंद जी बाफना,
११८/१२० जवेरीबाजार बम्बई-२ (सादड़ी) १० शा० बालावगस जी चम्पालाल जी वोहरा, राणीवाल. ११ शा० केवलचंद जी सोहनराज वोहरा, राणीवाल .. १२ शा० अमोलकचंदजी धर्मीचंदजी आछा,बड़ी कानचीपुर, मद्रास (सोजतरोड़). १३ शा० भुरमल जी मीठालाल जी वाफना, तिरकोयलुर मद्रास (आगेवा)
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५७६
जैन धर्म में तप . .
१४ शा० पारसमल जी कावेडिया, आरकाट मद्रास (सादड़ी) १५ शा० पुकराज जी अनराज जी कटारिया, आरकोनम् मद्रास (सेवाज) १६ शा० सिमरतमल जी मानमल जी संखलेचा, मद्रास (वीजाजी का गुड़ा) १७ शा० प्रेमसुख जी मोतीलाल जी नाहर, मद्रास (कालू) १८ शा० गूदडमल जी शांतिलाल जी तालेरा, एनावरम, मद्रास १६ शा० चम्पालाल जी नेमीचंद जी, जवलपुर (जैतारण) २० शा० रतनलाल जी पारसमल जी चतर, ब्यावर २१ शा० सम्पतराज जी कन्हैयालाल जी मूथा, कूपल (मारवाड़-मादलिया) २२ शा० हीराचन्द जी लालचन्द जी धोका, नक्साबाजार, मद्रास २३ शा० नेमीचन्द जी धर्मीचन्द जी आच्छा, चंगलपेट, मद्रास २४ शा० एच० घोसुलाल जी पोकरना एन्ड सन्स आरकाट-N.A.D.T.
(बगड़ी नगर) २५ शा० गीसुलाल जी पारसमल जी सिंघवी, चांगलपेट मद्रास २६ शा० अमोलकचन्द जी भंवरलाल जी विनायकिया, नक्शा बाजार, मद्रास २७ शा० पी० वींजराज नेमीचंद धारीवाल, तीरुवेलूर २८ शा० रूपचंद जी माणकचंद जी बोरा, वुशी २६ शा० जेठमल जी राणमल जी सर्राफ, वुशी
द्वितीय श्रेणी
१ थी लालचंद जी श्रीश्रीमाल, ब्यावर २ श्री सूरजमल जी इन्दरचंद जी संकलेचा, जोधपुर ३ श्री मुन्नालाल जी प्रकाशचंद जी नम्बरिया चौधरी चौक, कटक । ४ श्री घेवरचंद जी रातडिया, राबर्टसनपैठ ५ श्री वातावरमल जी अचलचंद जी खीवसरा ताम्बरम, मद्रास ६ श्री चौतमल जी सायवचंद जी खीवसरा, वौपारी ७ श्री गणेशमल जी मदनलाल जी भंडारी, नीमली ८ श्री माणकचंद जी मुलेघा, व्यावर
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श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति
(प्रवचन प्रकाशन विभाग) ....... सदस्यों की शुभ नामावली
प्रथम श्रेणी
१ बी. सी. ओसवाल, जवाहर रोड रत्नागिरी (सिरीयारी) २ शा० इन्दर सिंह जी मुनोत, जालोरी गेट, जोधपुर ३ शा० लादूराम जी छाजेड़, व्यावर, (राजस्थान)............ ४ शा० चम्पालाल जी डुगरवाल, नागरथपेठ वेंगलोर सिटी (करना) ५ शा० कामदार प्रेमराज जी, जुमा मस्जिद रोड,वेंगलोर सिटी (बाबांचा ६ शा० चांदमल जी मानमल जी पोकरना, पेरम्पर मद्रास ११ ( क) ७ जे. वस्तीमल जी जैन, जैनगर वेंगलोर ११ (पुजल) . ८ शा० पुखराज जी सीसोदीया, ब्यावर ६ शा० बालचंद जी रूपचंद जी बाफना,
११८/१२० जवेरीबाजार बम्बई-२ (सादड़ी) , १० शा० वालावगस जी चम्पालाल जी बोहरा, रानीका ११ शा० केवलचंद जी सोहनराज वोहरा, रागीवाल ... १२ शा० अमोलकचंदजी धर्मीचंदजी आछा,बड़ी कादरी का सम्बन्ध १३ शा० मुरमल जी मीठालाल जी बाफना, विकंदर न करता
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जैन धर्म में त
३१ श्री धनराज जी हस्तीमल जी संचेती-कावेरीचाक ३२ श्री सोहनराज जी शान्तिप्रकाश जी संचेती-जोधपुर ३३ श्री भंवरलाल भी चम्पालाल जी सुराना-कानावना .. ३४ श्री मांगीलालजी शंकरलालजी भंसाली ।
२७ लक्ष्मी अमन कोयल स्ट्रीट पैरम्बूर मद्रास-११ ३५ श्री हेमराज जी शान्तीलाल जी सिंघी,
११ वाजाररोड रायपेठ मद्रास-१४ ३६ शा० अम्बूलाल जी प्रेमराज जी जैन, गुडियातम ३७ शा० रामसिंह जी चौधरी, व्यावर ३८ शा० प्रतापमल जी मगराज जी मलकर-केसरीसिंह जी का गुड़ा ३६ शा० संपतराज जी चौरडीया, मद्रास ४० शा. पारसमल जी कोठारी, मद्रास ४१ शा० भीकमचन्द जी चौरड़ीया, मद्रास ४२ शा० शांतिलाल जी कोठारी, उतशेटे ४३ शा० जव्वरचन्द जी गोकलचन्द जी कोठारी, ब्यावर ४४ शा. जवरीलाल जो घरमीचन्द जी गादीया, लांविया
-
तृतीय श्रेणी .. १ श्री नेमीचंद जी कर्णावट, जोधपुर २ श्री गजराज जी भंडारी, जोधपुर ३ श्री मोतीलाल जी सोहनलाल जी बोहरा, ब्यावर ४ श्री लालचंद जी मोहनलाल जी कोठारी, गोठन ५ श्री सुमेरमल जी गांधी, सिरोयारी ६ श्री जवरचंद जी बम्ब, सिन्धनूर ७ श्री मोहनलाल जी चतर, व्यावर ८ श्री जगराज जी भंवरलाल जी रांका, च्यावर १. यो पारसमल जी जबरीलाल जी धोका, सोनत
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परिशिष्ट ४
५७७
६ श्री पुखराज जी बोहरा, राणीवाल वाला हालमुकाम पीपलिया कलाँ १० श्री धर्मीचंद जी बोहरा जुठावाला, हा० मु० पीपलिया कलाँ
११ श्री नथमल जी मोहनलाल जी लूणिया, चन्डावल
१२ श्री पारसमल जी शान्तीलाल जी ललवाणी, बिलाड़ा
१३ श्री जुगराज जी मुणोत, मारवाड़ जंक्शन
१४ श्री रतनचन्द जी शान्तीलाल जी मेहता -- सादड़ी (मारवाड़)
१५ श्री मोहनलाल जी पारसमल जी भंडारी, बिलाड़ा
१६ श्री चम्पालाल जी नेमीचन्द जी कटारिया, बिलाड़ा १७ श्री गुलाबचन्द जी गंभीरमल जी मेहता - गोलवड
[तालुका डेणु - जि० थाणा ( महाराष्ट्र ) ]
१८ श्री भंवरलाल जी गौतमचंद जी पगारिया, कुशालपुरा १६ श्री चनणमल जी भीकमचन्द जी रांका, कुशालपुरा २० श्री मोहनलाल जी भंवरलाल जी बोहरा, कुशालपुरा २१ श्री संतोकचन्द जी जवरीलाल जी जामड़
१४६ वाजार रोड़, मदरानगतम
२२ श्री कन्हैयालाल जी गादिया, आरकोनम् २३ श्री धरमीचन्द जी ज्ञानचन्द जी मूया, वगडीनगर
२४ श्री मिश्रीमल जी नगराज जी गोठी-बिलाड़ा
२५ श्री दुलराज जी इन्दरचन्द जी कोठारी
११४, तैयप्पा मुदलीस्ट्रीट, मद्रास - १
२६ श्री गुमानमल जी मांगीलाल जी चौरडिया चिन्ताघरी पैठ - मद्रास - १ २७ श्री सायरचन्द जी चौरडिया, ६० एलीफेन्ट गेट मद्रास - १
२८ श्री जीवराज जी जवरचन्द जी चोरडिया - मेड़ता सिटी
२६ श्री हजारीमल जी निहालचन्द जी गादिया १६२ कोयमतूर - १ ३० श्री केसरीमल जी झूमरलाल भी तालेसरा - पालो
३७
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५८०
जैन धर्म में तप. ३८ श्री मिश्रीमल जी साहिबचन्द जी गांधी, केसरसिंह जी का गुड़ा, ... .. ३६ श्री अनराजजी बादलचन्दजी कोठारी, खवासपुरा ४० श्री चम्पालालजी अमरचन्दजी कोठारी, खवासपुरा ४१ श्री पुखराजजी दीपचन्दजी कोठारी, खवासपुरा ४२ शा. सालमसींग जी ठावरिया, गुलावपुरा ४३ शा. मिट्ठालाल जी कातरेला, बगड़ीनगर ४४ शा. पारसमल जी लक्षमीचन्द जी कांठेड, व्यावर ४५ शा. धनराज जी महावीरचंद जी खींवसरा, वेंगलूर ४६ शा. गजराज जी भंडारी, एडवोकेट, पाली ४७ शा. धनराज जी महावीरचंद जी खीवसरा, बैंगलोर ३० ४८ शा. गजराज जी भंडारी, बाली ४६ शा. पी० एम० चौरडिया, मद्रास ५० शा. अमरचंद जी नेमीचंद जी पारसमल जी नागौरी, मद्रास
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परिशिष्ट ४ .. १० श्री छगनमल जी वस्तीमल जी बोहरा, व्यावर. ......: : : ११ श्री चनणमल जी थानचंद जी खीवसरा, सिरियारी ... १२ श्री पन्नालाल जी भवरलाल जी ललवाणी, विलाड़ा १३ श्री अनराज जी लिखमीचंद जी ललवाणी, आगेवा १४ श्री मनराज जी पुखराज जी गादिया, आगेवा १५ श्री पारसमल जी घरमीचंद जी जांगड़, बिलाड़ा १६ श्री चम्पालाल जी धरमीचंद जी खारीवाल, कुशालपुरा १७ श्री जवरचंद जी शान्तीलाल जी बोहरा, कुशालपुरा १८ श्री चम्पालाल जी हीराचंद जी गुन्देचा, सोजत रोड - १६ श्री हिम्मतलाल जी प्रेमचंद जी साकरिया, सांडेराव ... २० श्री पुखराज जी रिखबाजी साकरिया, सांडेराव ... २१ श्री बाबूलाल जी दलीचंद जी बरलोटा, फालना स्टेशन . . २२ श्री मांगीलाल जी सोहनराज जी राठोड़, सोजत रोड २३ श्री मोहनलाल जी गांधी, केसरसिंह जी का गुड़ा २४ श्री पन्नालाल जी नथमल जी भंसाली, जाजणवास २५ श्री शिवराज जी लालचंद जी बोकडिया, पाली २६ भी चान्दमल जी हीरालाल जी वोहरा-व्यावर २७ श्री जसराज जी मुन्नीलाल जी मूथा, पाली २८ श्री नेमीचन्द जी भंवरलाल जी डंक, सारण २६ श्री ओटरमल जी दीपा जी, साँडेराव ३० श्री निहालचन्द जी कपूरचन्द जी, सांडेराव ३१ श्री नेमीचन्दजी शान्तीलाल जी सीसोदिया, इन्द्रावड़ ३२ श्री विजयराज जी आणंदमल जी सीतोदिया, इन्द्रावड़ ३३ श्री लूणकरण जो पुखराज जी लूकड़ विग-बाजार, कोयमतुर । ३४ श्री किस्तुरचन्द जी सुराणा, कालेजरोड कटक (उड़ीसा) ३५ श्री मूलचन्द जी बुधमल जी कोठारी, बाजार स्ट्रीट मन्डिया ३६ श्री चम्पालाल जी गौतमचन्द जी कोठारी, गोठन स्टेशन ३७ श्री कन्हैयालाल जी गौतमचन्द जी कांकरिया, मद्रास (मड़तासिटी).
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श्रद्धा सुमन
सवैया
चातुरमास सुचंग भयो, तप-जाप अथाग कियो हुलसाई, . बोकड़ शाल विशाल वनी, पशु-पालन वित्त दियो दिलचाई। जन्म-जयन्तिय जोर रही, पथ संजम लीध विरागन बाई, ठाट अभूत रयो नित्त को, धन धन्य कहैं सब लोग लुगाई ||१ . साहित में रूचि खूब रही, अरु आनंद थैलिय हाथ बढ़ाई, मोद बढ़ाय कियो खरचो, मन में न करी कवहूं सकुचाई। कोहु न होड करें बगड़ीपुर की, सब शाह बसे रखते सुघड़ाई, सोहन चित्त उदार वस जित, तो फिर कौन कमी रह भाई ॥२॥
-~-सोहन लाल सूराना
कुम्भकणम्
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सन्माननीय नये सदस्य .
[श्री मरुधरकेसरी जी म. सा. का साहित्य वर्तमान में अत्यन्त लोकप्रिय हो रहा है। जो सज्जन इसे पढ़ते हैं, वे हृदय से इसकी सराहना करते हैं तथा प्रवचन प्रकाशन समिति के सदस्य बनने में स्वयं उत्साह प्रदर्शित करते हैं।
प्रवचन प्रकाशन विभाग के सदस्यों की शुभ नामावली छपते समय कुछ सन्मान्य सदस्यों के नाम विलम्ब से प्राप्त हुए । इसलिए उन्हें यथाक्रम नहीं दे सके, एतदर्थ क्षमा चाहते हैं। उन सदस्यों के शुभ नाम यहां पढ़िए।]
प्रथम श्रेणी
३० शा० पारसमल जी सोहनलाल जी सुराणा, कुभकोनम, मद्रास ३१ शा० हस्तीमल जी मुणोत, सिकंदरावाद (आन्ध्र) ३२ शा० चन्द्रभान जी रूपचंद जी बोरा, वाशरमेन पेठ, मद्रास ३.३ शा० जेठमल जी राणमल जी सर्राफ एण्ड सन्स, जलगांव ३४ शा० देवराज जी मोहनलाल जी चौधरी, तोरुकोईलूर मद्रास ३५ शा० बच्छराज जी जोधराज जी सुराणा, सोजत सिटी ३६ शा० गेवरचंद जी जसराज जी गोलेछा, बंगलोर सिटी ३७ शा० डी० छगनलाल जी नौरतमल जी वंव, बैंगलोर सिटी ३- शा० एम० मंगलचंद जी कटारीया, मद्रास
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निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा ! आत्मा को कर्म मुक्त बनाने के लिए सतत तप करना चाहिए।
तपो मूलमिदं सर्वं देव-मानुषकं सुखम् ।
देवता और मनुष्य सम्बन्धी सभी सुखों का मूल 'तप' है।
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हमारा महत्वपूर्ण साहित्य
१ श्रीमरुधर केसरी अभिनन्दन अन्य
मूल्य २४) २ श्री पाण्डव यशोरसायन (महाभारत पद्य) १०) ३ श्रीमरुधर केसरी ग्रन्थावली, प्रथम भाग
५)४० पैसा , द्वितीय भाग ५ संकल्प विजय ६ सप्त रत्न ७ मरुधरा के महान संत ८ हिम्मत विलास ६ सिंहनाद १० बुध विलास प्र० भाग ११ . द्वि० भाग १२ श्रमण सुरतरु चार्ट १३ मधुर पंचामृत १४ पतंगसिंह चरित्र
.५० पैसा १५ श्री वसंत माधुमंजूघोपा
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.. २० पसा १६ आपाढभूति
२५ पैसा १७ भविष्यदत्त
... . . . . . २५ पैसा १८ सच्ची माता के संपूत १६ तत्वज्ञान तरंगिणी २० लमलोटका लफंदर
२५ पैसा २१ भायलारो भिरु
२५ पैसा २१ टणकाइ रो तीर
२५ पैसा २३ सच्चा सपूत
२५ पैसा २४ पद्यमय पट्टावली २५ जिनागम संगीत
५० पैसा २६ जीवन ज्योति २७ साधना के पथ पर श्रीमरुधरकेसरी साहित्य-प्रकाशन समिति
पीपलिया बाजार, जैनस्थानक
व्यावर, राजस्थान
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