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प्रतिसंलीनता तप
३६३ कारी सत्य भी असत्य का ही बंधु माना गया है । असत्य के चार भेद बताये
गये हैं.
१ सद्भाव प्रतिषेध-आत्मा-पुण्य-पाप आदि तत्वों की सत्ता का निषेध
करना, इन्हें नकारना। २ असद्भावोद्भावन--जो तत्त्व नहीं है, उसे तत्त्व बताना-जैसे - हिंसा में धर्म बताना। ३ अर्थान्तर-अपने गौरव के लिए, सम्प्रदाय आदि के मोह से तथा
अपनी गलत विचारधारा को पुष्ट करने के लिए शास्त्र का अर्थ बदलना। ४ गर्हा-दूसरों की निन्दा एवं अपमान युक्त वचन बोलना । . ये चार भेद आचार्य हरिभद्र ने सूचित किये हैं -- इनमें नास्तिकता,हिंसा, पर-निन्दा, अहंकार युक्त वाणी एवं साम्प्रदायिक अभिनिवेश को स्पष्ट रूप से असत्य घोपित किया है । इस प्रकार की भावना से जो वाणी बोली जाती है वह सब असत्य की कोटि में आती है । मूल आगमों में असत्य के दस भेद और कहे गये है । जैसे
दस विहे मोसे पण्णते- तं जहा फोहे माणे माया लोहे पिज्जे तहेव दोसे य ।
हास भये अक्खाइय उवघातनिस्सिए दसमे । - असत्य दस प्रकार का है-क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेप एवं हास्य तया भय के वश होकर कथन करना, कहानी आदि के मिप तथा हिंसा के निमित्त कथन करना-इन दस कारणों में सभी कारण ऐसे हैं जिनके वश होकर व्यक्ति सत्य बात कहे तव भी वह असत्य ही है । क्रोध, लोभ नादि के का हुमा व्यक्ति जो वाणी बोलता है, उसके पीछे उसका विवेक नहीं रहता, शान नहीं रहता कि वह क्या बोल रहा है तथा उसके बोलने का क्या परिजाम होगा ? यह विवेकहीन वचन बोलता है, और विवेकहीन, ज्ञानरहित
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. १ दशवकालिकाअध्ययन ४. टीका
२ स्थानांग सूत्र १०। प्रजापना, भापापद ११