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जैन धर्म में तप
कुदालीकरण
अनेक ग्रन्थों में विचार प्रवाह को शुभ बनाने के लिए ज्ञान, भक्ति एवं कर्म - तीन साधन मुख्य रूप से बताये गये है। ज्ञान से वस्तु को असारता का चितन करने पर मन विषयों से स्वयं हट जाता है, भक्ति मार्ग में इन्द्रियों के विषयों की सात्विक तृप्ति होती है - जैसे संगीत सुनने का शौक है तो प्रभु भक्ति के गीत सुनना, प्रभु के रम्य रूप का अन्तरर्नक्षुओं द्वारा दर्शन करना इत्यादि । कर्म मागं के द्वारा -मन को सतत कर्मशील - फार्य में जुटाए रखना, सेवा, सहयोग परोपकार आदि के कार्यों में लगे रहने से मन भी उसी प्रकार के विचारों में रमता है। इस तरह उक्त, सोलह भावनाएं तथा ज्ञान योग, भक्ति योग एवं कर्म योग की साधना के द्वारा--मन गोग प्रतिसंगीनता की जा सकती है। इन्हीं उपायों से, अकुत मन का निरोध अर्थात् अशुभ विचारों की रुकावट और कुशल मन की प्रवृति शुभ विचार प्रवा को वृद्धि की जा सकती है। संक्षेप में मन को प्रशिक्षित करना, शुभ भावना करने की आदत डालना यही मन का कुशलीकरण है।
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एकापता
मन प्रतिसंलीनता का तीसरा रूप है- मन की एक करना । यह स्मरण रखने की बात है कि अन मन-अशुभ विचार प्रवाह में दौड़ता हुआ मन यदि उस अशुभ आलंबन पर स्थिर भी हो जाता है तब भी ह स्थिरता, एकाला कोई लाभजनक नहीं होती, क्योंकि स्वयं में गाय नहीं, गाय एवं धन है तो
के द्वारा प्राप्त होने
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वाला अनन्य ! गमाथि !
लिए रहा है -
समाधीपति है। दो गर्म है---मम पिता
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समादि कुर्यात्
मध्यममाधि प्राप्त कर
१ पनिका ॥२
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