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________________ ५६४ २ एक पसवाडे के बल सोना ( मध्यम ) ३ सीधा सोना ( जघन्य ) | (ख) अनिष्पन्न ( बैठे हुए की) आतापना के तीन भेद हैं१ गोदोहासन की आतापना ( उत्कृष्ट ) जैन धर्म में तप २ उत्कटुकासन की आतापना (मध्यम) ३ पर्यकासन की आतापना ( जघन्य ) ( ग ) ऊध्वंस्थित ( खड़े हुए की) आतापना तीन प्रकार की हैं१ हस्तिशुण्डिकासन की आतापना ( उत्कृष्ट ) २ एक पैर पर खड़े रहकर (वगुलासन) की आतापना ( मध्यम ). ३ सामान्य रूप से खड़े रहकर ली गई आतापना ( जघन्य ) ५. प्रायश्चित्त तप के प्रकरण में पृष्ठ ३६३ पर प्रतिसेवना का वर्णन किया गया है । उस सन्दर्भ में कुछ तथ्य और प्राप्त हुआ है । दशवैकालिक हारिभद्रीय (१1१ ) में तथा स्थानांग ४|१| २६३ में प्रायश्चित्त चार प्रकार का बताया है। - प्रायश्चित के चार भेद ये हैं - १. प्रतिसेवनाप्रायश्चित, २. संयोजनाप्रायश्चित्त, ३. आरोपणाप्रायश्चित्त, ४ परिकुञ्चनाप्रायश्चित्त । (१) प्रतिषिद्ध अर्थात् नहीं करने योग्य कार्य का सेवन करना प्रतिसेवना है । उसकी शुद्धि के लिये जो आलोचना-प्रतिक्रमण आदि किये जाते हैं, उन्हें प्रतिसेवनाप्रायश्चित्त कहते हैं । इसके दस भेद हैं । (२) एकजातीय अतिचारों-दोपों का मिल जाना संयोजना है । जैसे- कोई साधु शय्यातर पिण्ड लाया, वह भी गीले हाथों से, वह भी सामने लाया हुआ और वह भी आधाकर्मी - इस प्रकार के संयुक्त दोपों का जो प्रायश्चित्त होता है, उसे संयोजनाप्रायश्चित्त कहते हैं । (३) एक अपराध का प्रायश्चित करने पर वारवार उतो अपराध का सेवन करने से विजातीय-प्रायश्चित का आरोपण करना आरोपणाप्रायश्चित्त है । जैसे - एक अपराध के लिए पांच दिन के तप का प्रायश्वित दिया | फिर उसी का सेवन करने पर दस दिन का. फिर सेवन करने
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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