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व्युत्सर्ग तप .
५१७ लेते हैं किन्तु उनका मन वास्तव में सुप्त रहता है. वे भाव से गिरे रहते हैं। मन विविध विकल्पों में, अशुभ ध्यानों में उलझा रहता है। इसमें शरीर खड़ा, मन-आत्मा बैठा रहता है।
३ उपविष्ट-उत्थित-कभी-कभी शरीर की अस्वस्थता, अशक्ति तथा वृद्ध अवस्था आदि के कारण साधक कायोत्सर्ग के लिए खड़ा नहीं हो सकता, किंतु उसके हृदय में शुभ भावों का तीव्र वेग उमड़ता रहता है। उसका मन खड़ा रहता है, किंतु अशक्ति के कारण तन बैठा रहता है।
४ उपविष्ट-निविष्ट--यह चौथी श्रेणी कायोत्सर्ग की एफ विडम्बना मात्र है। आलस्य एवं कर्तव्यशून्यता के कारण साधन शरीर से भी बैठा . रहता है तथा उसका मन, विषय भोगों में, सांसारिक नितन में फैला रहता : है । उसका तन, मन दोनों ही गिरे होते हैं।
इन चारों कायोत्सगों में पहला एवं तीसरा कायोत्सर्ग वास्तव में ही कायोत्सग है, वह तप है और उनके द्वारा साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर समाता है। ___ यद्यपि शरीर व्युत्लग को द्रव्य व्युत्सर्ग में गिना गया है किंतु वास्तव में वह द्रव्य से भाव की ओर महाप्रयाण है। शरीर द्रा है. स्थून है, अत: इन दृष्टि से द्रव्य के साथ इसे लिया है किंतु वास्तव में यह भूल से नुक्म की और बढ़ने की सर्वोत्कृष्ट प्रक्रिया है। उत्तराध्ययन में पायोत्सर्ग को ही म्युरसगं ता बताया है इसके पीछे भी वही दृष्टि प्रतीत होती है कि सब में मुल तत्व शरीर ही है, शरीर है तभी गणा, उपधि, आहार, कर्म आदि उनके साथ संलग्न है और उनका अस्तित्व है। शरीर में जब ममाप हट गया वो उपधि, आहार आदि से फिर ममत्व करने का कोई काम ही नहीं रहा। ... इस विचार कायोत्सत्य होसमात अलग मा प्रतिनिधि रूप. माना जा सकता है, जैसे कि उत्तराध्यान में भी है--
फापस बिस्सगो दो सौ परिहितिभो। कार का गुस्साहना. या गुरमर है।
ध्यासन के अन्य भर ३ उपधि समं मह म ब्युलन का तीराम धि नाम