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जैन धर्म में तप संलीनता आदि के अन्तर्गत कई वार आ हो चुका है। अत: यहां संसार से चार गति रूप संसार ही अभिप्रेत है- ऐसा अनुमान है। .. . .
आगमों में स्थान-स्थान पर चाउरंत ससारफतारे शब्द आता है, जिसका अयं है चार गतिरूप, चार अंत--किनारे हैं जिस संसार अरण्य में, यह संसार कतार ! स्थानांग में आगे चार प्रकार के संसार में, नरक संसार तिर्यञ्च संसार, मनुष्य संसार एवं देव संसार बताया गया है।
प्रश्न होता है चार गति का व्युत्सर्ग कैसे किया जाय और उसका क्या . . प्रयोजन है ? समाधान है-चार गति आत्मा के परिभ्रमण की चार स्थितियां है । आत्मा जैसा शुभाशुभ कर्म करता है, तदनुसार ही शुभ अशुभ गति में जन्म लेता है । उस गति को प्राप्त होने का कारण तदर्थ कर्म है, अत: गति का त्याग तभी हो सकता है जब उस गति के योग्य व हेतुभूत कर्मों का - कारणों का त्याग किया जाय । आगमों में चार गति को योग्य कर्म बंधन के चार-चार कारण बताये हैं। जैसे
नरक गति के योग्य कर्म बंधन के चार कारण हैं१ महारंभ, २ महापरिग्रह ३ पञ्नेन्द्रिय प्राणि का वध ४ मांसाहार । तियंच गति के हेतु भूत चार कार्ग है --. १ मायाचरण, २ माटता, ३ असत्य वचन ४ गुटतोल फट माप । मनुष्य गति के हेतु भूत चार कम है-- १ प्रति भद्रता,२ प्रकृति की विनीतता,३ दयालुता ? अन ईनार । देवगति के हेतु भत नार कारण है१ साग रायम, २ संयमागरम ३ बालसा ४ अाम निरा.
इन कारणों में कुछ --- सुनने में अच्छे लगते हैं, जो मनुज गति के चार सारण हैं। में नान गुगता है दिनमा मन, लिया भी मदन मोकिमया रोको माला
साना
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