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प्रायश्चित्त तप
४१६ प्रकार दोनों वानरण करने के बाद फिर नई दीक्षा लेनी होती है । उक्त विधि से जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह अनवत्याप्याहं प्रायश्चित्त है।
पाराश्चिमाहजिम महादोष को शुद्धि पाराधिन अर्थात् पंप और क्षेत्र का त्याग कर महातप करने से होती है उसके लिए यंसा आचरण करना पाराञ्चिफाहं-प्रायश्चित है। यह सयां तथा अन्तिम प्रायश्चित है । साधु जीवन में सबसे गुरुतर महादोष के लिए यह मायस्चित दिया जाता है।
पाराभिचक-प्रायश्चित पांच कारणों से दिया जाता है- कारण
१ गम में फट अलना। २ फूट डालने की योजना बनाना, उसके लिए तत्पर रहना। ३ साधु आदि को मारने की भावना रसना ४ मारने के लिए योजना बनाना, छिद्र बाराकीतनाग
करते रहना ५ धारधार असंयम स्थान ग सावध अनुमान को पुक्षता करत
हमा अपात अगुष्ठान शादियों का प्रयोग करना। इन प्रश्नों ने दोबार का अग में या बागामा
नारों के निजामाको नानी का नंगा भीमा पान fear है। इसकी शुदिन महीने में कर नर,
नाम से कोहीका काममा को बटोर र intIT कोपितो. होना नई मोसा कर HIR में मिras
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