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जैन धर्म में जप ... और सामान्य साधु के लिए आठवें प्रायश्चित तक का हो विधान है । वर्तमान समय में अधिक से अधिक आठवे प्रायश्चित तक देने की विधि है।
उपसंहार प्रायश्चित के इन विभिन्न स्वरूपों पर विचार करने से कई बातें स्पष्ट होती हैं। पहली बात प्रायश्चित वही लेगा जिसका मन सरल होगा। जिसे पाप का भय होगा और आत्मा को निर्दोष बनाने की चिंता । मन में जरा भी कपट या धूर्तता रही तो प्रायश्चित नहीं लिया जाता, यदि कपट पूर्वक प्रायश्चित किया भी जाय तव भी उससे शुद्धि नहीं होती। आचार्य आदि को यदि ज्ञात हो जाय कि अमुक व्यक्ति कपट पूर्वक आलोचना कर रहा है तो उसे दुगुना प्रायश्चित दिया जाता है। पहला सेवन किए हुए दोष का,
और दूसरा कपट करने का। अर्थात् जब तक कपट की भी आलोचना नहीं हो जाती तब तक दोप को शुद्धि नहीं हो सकती इसलिए प्रायश्चित लेने वाले को सर्वप्रथम सरल हृदय, विनत्र एवं सद्भावनायुक्त होना आवश्यक है।
दुसरो वास- दोग छोटा हो चाहे बड़ा; उसको शुद्धि हो सकती है। यह नहीं कि बड़ा दोष रोधन कर लेने के बाद व्यक्ति सभा सदा के लिए ही पतित हो गया हो। जैनधनं आत्मा की शुद्धि में विश्वास रखता है। बड़े बड़ा दोषी और अपराधी भी शुद्ध हो सकता है, पवित्र हो सकता है। क्योंकि भारमा मूलतः दोषी नहीं है, दोष तो प्रमाद एवं या भाव है। कयाम आदि हो उत्पत्ति होती है तो उसको शुद्धि भी हो जाती है। मन में जब विक मागत हो जाम,
प ति ग्लानि, परमाता और भागनेमाका जग रहे तो गिरत, नियभिमान होकर बने यो दोर की नीति कर लेता है। पर्या, निम एवं ध्यान के द्वारा वह आगे IT I प्रक्षालन कर भुर हो सकता है। प्राEिAT
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