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________________ ४१५ प्रायश्चित्त तप युवक । और वह बारम्बार दबाता जाता, साधु चीखता तो कुम्हार फिर कह देता मिच्छामि दुक्कटं । बाल साधु बोला- यह क्या ! मारते जाते हो और 'मिच्छामि दुक्क' लेते जाते हो ! कुम्हार ने भी हंसकर कहा ! महाराज - जैसा तुम्हारा मिच्छामि दुक्क' वैसा ही मेरा 'मिच्छामि दुक्क !' तो ऐसा मिच्छामि दुक्कडं लेने से क्या लाभ है ! यह तो उलटा धर्म का उपहास है । जिस 'मिच्छामि दुगकट' के साथ मन में पश्चाताप की तहर न उटे वह मिच्छामि दुई आत्मा को बुद्ध नहीं, किन्तु और अधिक असुद्ध बना देता है | इसलिए प्रतिक्रमण रूपमिच्छामि दुकट घोलते समय सच्चे मन से बोलना चाहिए, वाणी के साथ हृदय भी बोलना चाहिए तभी यह सना प्रायवित होता है । मिच्छामि दुकट : शब्द और भाव "मिच्छामि दुक्कई" बोलकर पाप का प्रायश्चित कर दी दक्षेप का सेवन किया जाता है तो वह एक प्रकार का झूठ औरम्भ हो जाता है । सापा भद्रबाहु ने कहा 1 तिमिच्छतं पुणेोपायें । निशेष परचय मुसाबाई माया नियड़ो पसंगो छ । जो एक बार विक्रि भी यदि फिर उस पाप कावमानगता है तो कही रुतता है का जात्र वाता है। एक ओर दूसरी ओर फिर मोदी ! यही पीड़ा यही मैदान ! एन आनाये धर्मम आप वन कर्म याद को हीट में दि- जो शामि 1 आवश्यक यदि आप नियम गवी) Saree Fughr. (८४ देशनामा ३८६
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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