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जैन धर्म में ताप छूमंतर है कि जिसे बोलते ही सब पाप साफ हो जाये, दोष दूर हो जाय? वास्तव में ऐसी कोई बात नहीं है कि मुह से 'मिच्ामि दुनकाउं' कहने से ही पार धुल जाते हों, पाप शब्द से नहीं, मन से धुलता है। "मिच्छामि दुश्काई' के साथ जो मन का पश्चात्ताप होता है, पाप के प्रति घृणा, और भविष्य में उसे पुनः न करने को दृढ़ संकल्प होता है उसी में यह शक्ति है लिं वह शब्द उच्चारण करने पर पापों का सफाया कर डालती है ! मंत्र में भी शक्ति तभी जागृत होती है जब उसके पीछे मनोबल रहता है, मंत्र मुंह से बोलते जाये
और मन कहीं रमता रहे तो क्या केवल मंत्रोच्चार से सिद्धि मिल जागेगी? . नहीं ! इसी तरह 'मिच्छामि दुक्कड' शब्द के पीछे अन्तरमन का पश्चात्ताप रहता है, उसी महाशक्ति के कारण पाप का प्रक्षालन हो सकता है !
यदि मुह से 'मिच्छामि दुक्क हे बोलते जाय और बार-बार यही आगरण करते जाय तो इससे कोई शुद्धि नहीं होती । यह तो उलटा धर्म का उपहास है, साधना का मजाक है । पुराने आचार्यों ने एक उदाहरण देकर बताया है कि केवल शान्दिक मिच्छामि दुराडे कसा निरर्थक है----
एक बार एक विद्वान नाचार्य किसी गांव में पधारे । उपाश्रय के पास में ही एक कुम्हार रहता था, वह मिट्टी को गोंद कर चार पर पढ़ाता और जरा घटे बना-बनाकर एक भोर रस रहा था । आचार्य के साथ एक छोटा साध था जो कुछ चंचल प्रकृति का कोटा प्रिय था । मुम्हार उपाही चार पर मेघड़ा उतार कर नीचे रखता त्योंही वह बाल साध कर का निशाना मा. गार उसे तोड़ देता । युम्हार ने माहा ... महाराज ! यह मग कर रहे
यान माय बोला--ओह ! भूस हो गई-मिच्छामि दुशा ! किन कुछ दावाद फिर यह पोकर पं.कपर मनन फोरने लगा । म्हार बार बार टोरा गया और माधु मिठामि दुर लेता गया । आरिहार, हो भी शेष
और ओर आ गया, यह उसा, और एक संकर र माधु ३. मान पर भ. बोराणा, बानमा पहा बिनमिताने नगा और शेला--"बरें मामा कर रहे हमाको मार रहे हो?" महार बोला-regift