________________
तप और लब्धियां
७१ (१) आमोसहि आमीषधि""इस लब्धि के धारक तपस्वी किसी रोगी, ग्लान आदि को, स्वयं को अथवा जिस किसी को भी स्वस्थ करना चाहें तो वे पहले मन में संकल्प कर लेते हैं-मेरे स्पर्श से यह नीरोग हों, और फिर उसे स्पर्श करते हैं, तो उनके स्पर्शमात्र से ही रोग शांत हो जाता है, काया कंचन जैसी उज्ज्वल हो जाती है।
एक प्रश्न उठता है कि इस लब्धि के धारक तपस्वी के हाथ आदि का स्पर्श क्या किसी भी समय किसी भी स्थिति में होने से रोगी का रोग शांत हो जाता है या कोई विशेष स्थिति में ? इसका उत्तर हमें आवश्यक चूर्णि के इस शब्द-तिगिच्छामिति 'संचितेऊण'' में प्राप्त होता है, लधिधारी जव मन में यह संकल्प या चिंतन करता है कि 'मैं इसे स्वस्थ करू, नीरोग बनाऊं, ऐसा संकल्प करके जव रोगी का स्पर्श करता है तभी उसका स्पर्श औपधि रूप में कार्य करता है, अन्यथा नहीं, अन्य लब्धियों के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिए। चूकि लब्धिधारी बहुत बार स्वयं गी असाता वेदनीय के उदय से रोगाक्रांत हो जाते हैं, वे अपने असातावेदनीय को भोगते हैं, किंतु लब्धि के द्वारा सहज में रोग मिटाने का प्रयत्न नहीं करते। जैसा कि सनत्कुमार चक्रवर्ती के विषय में प्रसिद्ध है कि उनका शरीर जव सोलह महारोगों से आक्रांत हो गया तो शरीर की नश्वरता का बोध कर वैराग्य प्राप्त कर वे दीक्षित हो गए और घोरतपश्चर्या करने लगे। उस तपोवल से उन्हें खेलोसहि आदि लब्धियां प्राप्त हो गई। एक बार कोई देवता उनकी सहनशीलता और निस्पृहता की परीक्षा करने वैद्य का रूप वनाकर आया और बोला-"महाराज ! आपका शरीर कुष्ट रोग से गल रहा है, मुझे सेवा का अवसर दीजिये, मैं आपका रोग मिटा दूं।"
मुनि ने सहज शांति के साथ कहा-"भाई ! द्रव्य रोग मिटाता है या
भाव रोग ?"
१ आमोसहि पत्ताणं रोगाभिभूतं अत्ताणं परं वा जवि तिगिच्छामिति संचित्तेऊण आसुर ति ते तक्खणा चेव ववगयरोगातंकं करोति सा।
-आवश्यकचूणि