________________
हमारा लक्ष्य
१३
-~-~~
- परब्रह्म स्वरूप ईश्वरीय शक्ति मे आत्मा का लीन हो जाना मुक्ति है ।
वैसे वैदिक ग्रन्थो मे मुक्ति के कई रूप माने गये हैं । श्रीमद्भागवत मे मुक्ति के स्वरूप के विषय मे विवेचन करते हुए पांच प्रकार की मुक्ति बताई गई है'
१ सालोक्य भगवान के समान लोक की प्राप्ति । २ साष्टि - भगवान के समान ऐश्वर्य की प्राप्ति ।
३ सामीप्य - भगवान के समीप स्थान की प्राप्ति ।
४ सारूप्य - भगवान के समान स्वरूप की प्राप्ति ।
५ सायुज्य - भगवान मे लय हो जाना ।
इन पाँचो भेदो का, और उनके साधनो का वैदिक दर्शन मे काफी विस्तार से चिन्तन-मनन हुआ है, भक्ति, कर्म और ज्ञान-योग का विकास भी इन पाँचो स्वरूपो के आधार पर हुआ है । किन्तु जैनदर्शन इसमे चौथे रूप को ही स्वीकार करता है । उसका कहना है- भगवान के समान लोक मे तो आत्मा कई बार चला गया, सिद्ध क्षेत्र मे एकेन्द्रिय जीव भी चला जाता है, पर वहाँ जाने मात्र से मुक्ति थोडी हो सकती है ? जिस विशाल राजभवन मे राष्ट्रपति रहते हैं, उसी मे उनका चपरासी भी रहता है, पर कहाँ राष्ट्रपति और कहाँ चपरासी ? सेठ के घर मे रहने से नौकर सेठ नही होता । सिपाही की वर्दी पहनलेने से सभी सिपाही नही बनते । वैसे ही भगवान के समान ऐश्वर्य को भी हमने मुख्यता नही दी है। जैन धर्म मे वाह्य ऐश्वर्य की कोई कीमत नही है । आचार्य समन्तभद्र ने तो यहाँ तक कह दिया है- "प्रभो । आपके बाह्य अतिशयो को, विभूतियो को देखकर मैं आपकी स्तुति नही करता हूँ क्योकि यह ऐश्वर्य तो अन्य मायावी देवो मे भी दिखाई देता है- मायावीष्वपि दृश्यते - किन्तु आपकी जो विलक्षणता है वह तो वीतराग भाव है ।"
१ श्रीमद् भागवत ३।१६।१३
२ आचार्य समन्तभद्र ( समय वि. स. २-३ सदी) वृहत्स्वयभू स्तोत्र