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व्युत्सगं तप
५२१ मनुष्य गति ही क्या, वे तो परम गति-मुक्ति के कारण बन सकते हैं। इन गुणों में राग एवं अज्ञान आदि क योग होने के कारण इन गुणों की फल-शक्ति भी कम हो जाती है, अतः दयालुता आदि का त्याग नहीं, किन्तु उनके साथ रहे हुए अज्ञान व राग भाव का त्याग ही उस गति के कारण का त्याग सम. झना चाहिए। __ तो इन सोलह कारणों का त्याग करना, और इनमें भी मूल पांच ही हैमिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कपाय और अशुभ योग, और इन पांचों का भी समावेश राग-द्वे प-दो कारणों में हो जाता है । ये राग-द्वेप ही चार गति में परिभ्रमण के कारण हैं, अतः उनका त्याग करना संसार व्युत्सर्ग है।
३. कर्म ध्युस्सग-कर्मों का त्याग करना । कर्म आठ हैं-१ शानावरण, २ दर्शनावरण, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयुष्य, ६ नाम, ७ गोत्र, ८ अन्तराय।
जैन कर्म शास्त्र में इन आठ कर्मों के बंधन में अलग-अलग कारण बताये है-जैसे ज्ञान की निंदा करना, शानी को अवहेलना करना, आदि ज्ञानावरण काम पो बंधन के कारण होते हैं। इसी प्रकार देव-गुरु-धर्म की निंदा, अवर्ग बाद बोलना, गुरु आदि की पूजा करना दर्शनावरण के बंधन के कारण है। अन्य कारण भी जैन आगों व ग्रंथों में विस्तार के साथ बताये गये हैं जिन्हें प्रशापना मुम-(कम पद) व मध आदि में जानना चाहिए ।
अलग-अलग कर्म बंधन में जो अलग-अलग कारण है उन्हें समझकर उनका परित्याग करना चाहिए तपासाय ही इन कमी के सोने के नि भिन्न उपाय भी नाम में बताये है, उगता आचरण करना चाहिए । जरें बताया है-स्वाध्याय करने में मानापरम कर्म की निरा होती है। मनुविनातिस्तव दर को विद्धि होता , अनावरण हरका
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है मापा जान मादलीय . मोहनीरामनाम गोतमाः।।
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रायरन २११८