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. जैन धर्म में तप कान का आकार-सूप जैसा लंबा चौड़ा होता है-इन्द्रियों के आकार की यह भिन्नता निर्वृत्ति इन्द्रिय के कारण होती है ! .
उपकरण इन्द्रिय का अर्थ है इन्द्रिय की शक्ति । श्रोत्र इन्द्रिय में सुनने । की शक्ति, घ्राण इन्द्रिय में सूघने की शक्ति । इस प्रकार इन्द्रियों की शक्ति उपकरण-इन्द्रिय कहलाती है।
भाव इन्द्रिय-आत्मशक्ति रूप है, उसके भी दो भेद हैं--कमों के क्षयोपशम से इन्द्रियों की प्राप्ति होती है । जिस प्राणी के जितने रूप में जिस कर्म का क्षयोपशम होगा-उसे उतनी ही इन्द्रियों की प्राप्ति होगी। उन्हीं .. कर्मों के कारण एकेन्द्रियत्व-पंचेन्द्रियत्व आदि की प्राप्ति होती है। अतः .. कार्यावरण के क्षयोपशम को-लवि-भावइन्द्रिय कहा जाता है। उसके पश्चात् इन्द्रिय के उपयोग-व्यापार रूप जो आत्मशक्ति की प्राप्ति होती है-वह उपयोग भाव इन्द्रिय कही जाती है। आंखों आदि से देखने की . आत्मिक शक्ति-यही उपयोग इन्द्रिय है।
थोत्र इन्द्रिय से शब्द आदि सुने जाते हैं चक्षु इन्द्रिय से रूप आदि देते जाते हैं। प्राण-नाक से गंध मादि का ग्रहण । जिह्वा-जीभ से रस (मधुरकटु) आदि का अनुभव होता है ! स्पर्श का अर्थ यहां शरीर है । शीत-.. उष्णं आदि स्परां का वेदन शरीर से होता है-इस प्रकार पांच इन्द्रियों के द्वारा २६ प्रकार के विभिन्न विषयों का ग्रहण होता है जिन्हें इन्द्रिय रे । २३ विपय कहे गये हैं।
इन्द्रिय विषयों में आसक्ति वर्जन नहीं प्रश्न होता है-न्द्रिय का कार्य ही है-विषय का अनुभव करना। . शुन्दर मसुन्दर आदि कोई भी रूप सामने आयेगा तो आंमें तुरन्त उम रूप को देनेगी । भला बुग, कोई शब्द आयेगा जो काम गट में उनकी हर गाने । सुगन्ध-दुर्गन्ध आदि कोई पदार्थ पान में आयेगा तो नाक तुरन काका अनुभाव पारेगा ! गट्टा मीठा आदि रम जीन में कार्य होगा को उगमा मावान भी जीम गरेगी, उंटा आदि का होगा तो खीर मात अनुभव करेगा ही, फिर इन्द्रिय नंगम व प्रतिमलीनता मामा !