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प्रतिसंलीनता तप
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क्या कोई स्त्री का रूप सामने आ जाये तो आँखों पर पर्दा डालकर या आँखें बन्द कर उससे बचना चाहिए ? या सूरदास की भांति आँखें फोड़ डालनी चाहिए। आँखें खुली रहेगी तो इन्द्रियों को विषय ग्रहण से कैसे रोका जा सकता है ? फिर इन्द्रिय प्रतिसंलीनता कैसे हो सकती है ?
इन्द्रियों के सम्बन्ध में यहाँ जैन धर्म बहुत ही महत्व पूर्ण तथा विवेक युक्त दृष्टि देता है। जैन धर्म का कहना है -- इन्द्रिय का कार्य सिर्फ विषय को ग्रहण करना है। यह तो एक प्रकार का कैमरा है, जैसा दृश्य सामने होगा उसमें प्रतिविम्ब –फोटू वैसा ही आ जायेगा। उस विषय में राग-द्वेष करना, आसक्त होना या उससे घृणा करना - यह इन्द्रिय का काम नहीं । इन्द्रिय विपय की ग्राहक है---चोर नहीं । विपयों का चोर है मन !
मन पापी मन दुष्ट है, मन विषयों का चोर ।
मन के मते न चालिए पलक-पलक मन ओर ॥ ___ मन ही विषयों को पकड़ता है, अच्छे रूप को देखकर उस पर मोह करता है, वुरे रूप को देखकर घृणा करता है। इन्द्रियों के साथ विषय का भले-बुरे रूप में जो सम्बन्ध बनता है वह मन के कारण बनता है, इसलिए इन्द्रियों को नहीं, किन्तु मन को उन विपयों से रोकना चाहिए। शास्त्र में कहा है
न सक्का न सोऊं सदा सोतविसयमागया।
राग दोसा उजे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए। ... यह कभी सम्भव नहीं है कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने ही न जाए। शब्द तो कानों में अवश्य ही प्रवेश करेंगे। किन्तु उन शब्दों को नहीं, किन्तु शब्दों के प्रति होने वाले राग द्वेप रूप मनके विकल्प को रोकना चाहिए । इसी प्रकार आँखों के समक्ष आये हुए मनोज्ञ या अमनोज रूप को नहीं देखा जाय यह सम्भव नहीं है, किन्तु उस रूप के प्रति राग-द्वेप नहीं करना चाहिए। क्योंकि रूप तो चक्षु का विषय है ही
१ आचारांग २३१५१३२ से १३५ तक