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जैन धर्म में तप
१-५ पृथ्वीफाय आदि पांच कायों का संयम (एकेन्द्रियादि संयम) ६-६-द्वीन्द्रीय, त्रीन्द्रिय, चतुरीन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा : .
का संयम । १० अजीव संयम-वस्त्र पात्र आदि अचितवस्तु का संयम ।. ११ प्रेक्षा संयम - शुद्ध स्थान में उठना बैठना--प्रेक्षा संयम है। १२ उपेक्षा संयम-पाप कार्यों का अनुमोदन न करना। १३ अपहत्य संयम-विधि पूर्वक परठना । .. १४ प्रमार्जना संयम-वस्त्र पात्र आदि की ठीक प्रमार्जना करना । . १५ मन संयम-मन का निग्रह । १६ वचन संयम-वचन का निग्रह । १७ फाय संयम-काया का निग्रह ।
प्रकारान्तर से संयम के १७ अन्य भेद भी बताये गये हैं जैसे हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचार्य एवं परिग्रह का संयम, पांच इन्द्रियों की अशुभ प्रवृत्ति . का संयम । चार कपाय एवं तीन योगों की अशुभ प्रवृत्ति का संयम-यह १७ प्रकार का संयम है । संयम के आखिरी बारह भेद और प्रतिसंलीनता के प्रारम्भ के बारह भेद - एक ही गिने गये हैं-जो १२ भेद संयग के हैं, ये ही वारह भेद प्रतिसंलीनता के हैं--- इससे संयम और प्रतिसंलीनता में कितनी एकरूपता है यह स्पष्ट हो जाता है । इसी आधार पर हम प्रति लीनता का अर्थ संयम भी कर सकते हैं । अब आगम में वर्णित प्रतिसंलीनता के भेदों पर गहराई से विचार करना है। प्रतिनलीनता चार प्रकार की है ...
पडिसंलोणया चव्यिहा पप्यता, तंजहादंदियपष्टिसंतीणया, फसापपटिसंलोणया,
जोगपडिसंलोगया, वियित्तसयपासपसेयणया ।' इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, पाय-प्रतिमंलीनता, योग-प्रनिमंतीनता तमा विवित्तानयनासन सेवना ।
१ भगवती मूत्र २५