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प्रतिसंलीनता तप
यद्यपि उत्तराध्ययन' में प्रतिसंलीनता के स्वरूप में सिर्फ विविक्तशयनासन को ही लिया गया है । वहां पर मुख्य दृष्टि साधक को ध्यान व समाधि के उपयुक्त एकांत स्थान की गवेषणा करने की रही है, ध्यान से संयम की वृद्धि होती है, इस कारण ध्यान व समाधि में साधन रूप विविक्तशयनासन को वहां प्रतिसंलीनता बताकर वाकी भेदों के प्रति सहज उपेक्षा बतादी गई है । किन्तु भगवती सूत्र आदि में विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है, वहां उसके सभी रूपों पर विचार किया गया है ।
इन्द्रियों का स्वरूप
सर्वप्रथम इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के पांच भेद बताये गये हैं ! इन्द्रिय शरीर की एक अद्भुत शक्ति है । विषयों को ग्रहण करने की यह एक अपूर्व शक्ति है - जिसके अभाव में शरीर सर्वथा निरुपयोगी रहता है, मुख्य वात तो यह है कि संसारी प्राणी का इन्द्रिय के अभाव में शरीर धारण करना सम्भव ही नहीं है |
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प्रज्ञापना सूत्र के १५ वें पद में इन्द्रिय के सम्बन्ध में बड़ा ही वैज्ञानिक विवेचन किया गया है । मुख्य रूप से इन्द्रियां दो प्रकार की हैं- द्रव्य इन्द्रिय और भावइन्द्रिय |
द्रव्य इन्द्रियां पांच हैं-श्रोत्र, नेत्र, घ्राण, जिह्वा, और शरीर ! द्रव्य इन्द्रिय के भी दो भेद हैं- निर्वृत्ति इन्द्रिय एवं उपकरण इन्द्रिय । सभी इन्द्रियों के अलग-अलग आकार होते हैं । इन इन्द्रियों के आभ्यन्तर आकार तो— प्रत्येक प्राणी में प्राय: समान होते हैं, जैसे कान का भीतरी आकार कदंब के फूल के आकार का मांस पिंड सभी जातियों में समान होता है, वैसे ही अन्य इन्द्रियों के भीतरी (आभ्यन्तर ) आकार में एक रूपता होती है, किन्तु वाह्य आकार सभी जाति के प्राणियों में भिन्न-भिन्न होते है । मनुष्य का कान साधारण रूप में उसके शरीर से बहुत छोटा होता है, जब कि खरगोश के कान का नाकार उसके लघु शरीर की दृष्टि से बड़ा होता है । हाथी के
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उत्तराध्ययन ३०१२८
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