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जैन धर्म में तप
आवश्यक मानते थे । अज्ञान तप के विरोध में उन्होंने स्थान-स्थान पर प्रवचन भी दिये, उसकी असारता भी लोगों को समझाई। इस बाल तप की तुच्छता बताते हुए कहा है
मासे मासे उ जो बाला कुसग्गेण तु भुजए । न सो सुक्खायधम्मस्त फलं अग्धेइ सोलसि 12
-जो अज्ञानी साधक एक-एक मास का कठोर उपवास करता है और पारणे में सिर्फ घास की नोंक पर टिके उतना सा भोजन लेता है-इतना कठोर तप करने पर भी वह श्रेष्ठ धर्म की सोलहवीं कला की समानता भी नहीं कर सकता । क्योंकि वह देह को दण्ड तो दे रहा है, किन्तु उसके घट में अज्ञान भरा है, माया शल्य ( दंभ ) भरा है । और जब तक अज्ञान का, माया का शल्य मन में भरा है तब तक -
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जइ वि व णिगणे फिसेचरे जइ विय भुजे मासमंतसो । जे इह मायाइ मिज्जइ आगन्ता गन्भाय ऽणंतसो । भगवान महावीर ने इस प्रकार अज्ञान तप की कठोर आलोचना ही नहीं की, किन्तु उसे स्पष्ट रूप से 'वाल तप' कहकर व्यर्थ का देहदण्ड बताया !
केवल शरीर को कष्ट क्यों ?
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यह बात नहीं है कि जैनधर्म में कठोर तप का महत्व नहीं माना है । तप का महत्व तो बहुत ही अधिक है किन्तु अज्ञान तप का नहीं, ज्ञानपूर्वक तप का महत्व है | भगवान ऋषभदेव एक वर्ष तक निरन्तर कठोर तप करते रहे । भगवान महावीर ने अपने १२|| वर्ष के साधना काल में इतना उग्र तप किया था कि उसे सुनते ही रोमांच हो जाता । धन्ना अणगार जैसे अनेक उग्र तपस्वी भिक्षु भिक्षुणियां उनके संघ में थे । यह सब घटनाएँ बताती है कि जैन परम्परा में तप का महत्व कितना है । इसीलिए यहांदेह दुक्खं महाफलं - देह को कष्ट देना महान फलप्रद माना है । किन्तु सिर्फ
उत्तराध्ययन सूत्र ६६४४ सुकृतांग ११२ ११६
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