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नि-युक्त तप का फल
१२५ देह को तपाना नहीं, देह के साथ मन को तपाना भी आवश्यक है । अन्तर शुद्धि के विना केवल शरीर को दण्ड देना मान्य नहीं है। इसलिए यहां शरीर को कृश करने की जगह आत्मा को (कर्म दलों को) कषायों को कृश करने की बात कही गई है
फसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं आत्मा को, कपायों को कृश करो, उन्हें जीर्ण करो। सिर्फ तन को जीर्ण करने से क्या लाभ है यदि कपाय जीर्ण न हुई ?
एक कथा आती है कि एक आचार्य का शिष्य बड़ा उन तपस्वी था। साथ ही उसका स्वभाव भी बड़ा उग्र था । कपाय भी प्रवल थी । आचार्य ने उसे कपाय को क्षीण करने का उपदेश दिया। शिष्य ने आचार्य के उपदेश से लंबी तपस्या प्रारंभ करदी। एक मासखमण का तप कर एक दिन पारणा लाने के लिए आचार्य की आज्ञा मांगने आया । आचार्य ने शिष्य को संबोधित कर कहा-"पतली पाड़ !" शिष्य ने समझा-आचार्य शरीर को और पतलादुवला करने के लिए कह रहे हैं । उसने पारणे का विचार त्याग दिया और बोला-गुरुदेव ! दूसरा मासखमण पचखा दीजिए ! गुरु ने पचखा दिया। फिर दूसरा महीना पूरा हुआ ! पुनः पारणा लाने के लिए आज्ञा लेने आया तो आचार्य ने फिर वही बात कही, 'पतली पाड़ ! शिष्य ने फिर तीसरा मास खमण पचख लिया, और उसी प्रकार एक महीने बाद चौथा माससमण भी पचख लिया।
चार महीने की तपस्या से शिष्य का शरीर एक दम क्षीण हो गया था। हाथ-पांव की संगुलियां सूखी फली की जैसी हो गई । चौमासी तप का पारणा लाने की माशा लेने शिष्य पहुंचा तो नाचार्य ने पुनः वही बात कही, "वत्स ! पतली पाड़ !" यस अब तो तपस्वी का पारा चढ़ गया । वह बोलापतली करते करते देह को इतनी तो पतली कर डाली हैं, । (और अपनी संगुली तोड़कर नाचार्य की ओर फेंक डाली) अब क्या मुझे मारना ही चाहते हो तो संघारा पचला दो।"
आचार्य ने शांति के साथ पहा-चत्ल ! मैंने इस देह को पतली करने
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