________________
प्रायश्चित्त तप
४०१
विकल्प छोड़ देने चाहिए। कहावत है-"असल में सिर दे दिया तो फिर मूसल से क्या डरना ?' तो जब मन को, मात्मा को दृढ़ बना कर दोप मिटाने की तैयारी कर ही ली तो फिर जो भी दंड मिले उसने क्या उरना?
इस प्रकार प्रायश्चित को दस भेदों में यह प्रथम भेद हुआ आलोचना । मालोचना के सम्बन्ध में जैन धर्म ने बहुत सूक्ष्मरीति से विनार किया है, सिर्फ विनार ही नहीं, किन्तु इसे जीवन-व्यवहार पा प्रमुख अंग माना है। प्रत्येकः जैन नाहे वह श्रावक हो, या श्रमण, जीवन में पद-पद पर अपनी आलोचना----अर्थात् मात्मालोनन-आत्मनिरीक्षण करता रहता है । सामाविगा लेते हुए सबसे पहले वह अपने पूर्वकृत पापों की मालोचना, निंदा, और नहीं करता है। पापों के प्रति घृणा (गही) गारना---यही तो जैन धर्म का मूल तत्व है। उसका कहना है, 'पापी में नहीं पाप से घृणा गारो । पापी मी नहीं, पाप की आलोचना गगे। इस प्रगग में भगवती गागा एमः निम्न प्रशारण बदामी प्रेरणाप्रद है।
एमचा पायंसंतानोन गालागवे सिमपुत्र नामात अणगार में भगवान महानोर ग स्पवित्रों ने पूछा- आप सामाणिको जानते है ? सामाणि हा भागको ? यदि गली जानी है तो फिर को गिरा ?
पनि .. ! fer
RT हान है। मानामगि If At ? सामाजिक
आदि पदार पिर
यो
'' སཱ བསྶ :: པis, ཀ པ ཨུ ༔ -- མྨཙཱ ཙོ༔ ས ་ པས པཎསཱ ཉྙོ ༣ ༤ – ༈ ༑ ༑ ༑}
: {
་ ; : 7: ས ༣, ཙ བསགས་