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जैन धर्म में तप .
५ सुहुयं (सूक्ष्म)-छोटे-छोटे दोपों की आलोचना करना । __ ४-५ वें दोप में शायद यही दिखाने की मनोवृत्ति रहती है कि "जो बड़े बड़े दोपों की आलोचना करता भी नहीं शया या नहीं उरा, वह छोटे-छोटे दोषों को क्यों छुपायेगा ? तथा जो छोटे-छोटे दोषों को
आलोचना कर लेता है वह बड़े दोप को कैसे छिपा राराता है" दूसरों के मन पर इस प्रकार प्रभाव डालने के लिए यह दोनों प्रकार की
धूर्तता की जाती है। ६ छन (प्रच्छन)-लज्जालुता का प्रदर्शन करते हुए गुप्तस्मान में
जाकर आलोचना करे और इतना धीरे व अस्पष्ट बोले कि आलोचना देने वाला पूरा सुन भी न सके । ७ सद्दाउलयं (शब्दाकुल)-दूसरों को सुनाने के लिए कि देखो मैं
आलोचना कर रहा हूं--जोर-जोर से बोलगार आलोचना करना। ८ बहुजण (बहुजन)लोगों में अपनी पाप-भोगता का प्रदर्णन कर प्रशंसा प्राप्त करने के लिए एक ही दोप यी अनेक व्यक्तियों के पास
जाफर आलोचना करना। ६ अन्वत्त (भव्यक्त.)---ोरो अगीताचं साधु के पास जाकर आलोचना करना.-~-जिसे यह भी मात न हो शिरिर अतिकार गारमा
प्रायश्चित दिया जाता है। १० तरसेयो (तसवी)-जिस दोप नी मालोचना करनी हो, मी दोर
का सेवन करने वाले आचावं आदि पास जागर म माना में आलोगना करना कि स्वयं भी इन योर मनी होने के कारण गुछ अधिक न पहनगगे तथा प्रायशिगत भी नाम देगे। सालोचना मारने मानेको इन दोषों में बनकर निकम से मालोचना गारनी माहिए ! लोहि जय दोपको नदि पाने का कर निधाही नोरिया या लोग माग गद
१ मायनो मारमा सामना
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