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प्रायश्चित्त तप अपवित्र दुनियां से निकलकर पुन: अपने पवित्र भाव लोक में आगमन किया जाता है-उसे जैन परिभाषा में प्रतिक्रमण माहते हैं । आचार्य हरिभद्र सूरि ने प्रतिक्रमण की भावात्मक परिभाणा करते हुए लिखा है--
स्वस्थानान् यत्परंत्यानं प्रमावस्य वसंगतः !
तघ फ्रमणं भूयः प्रतिप्रमणमुच्यते । -आत्मा प्रमाद के पश होकर अपने शुभयोग से गिर जाता है, और अशुभ योगों में चला जाता है । तब फिर से अशुभयोग को छोड़कर शुभ योग में आना--पर-पान मे पुनः स्वस्थान में लोट आना-मी का नाम है-प्रति प्रमाण । ___ आना हेमचन्द्र ने भी प्रतिप्रमण की ऐसी ही व्याख्या की है। उनका गमन , -- प्रती फाण-प्रतिफमगं । शुभ योगेभ्योऽशुभयोगान्तरं शान्तस्य शुभेप एव फमपात् प्रतीपं नमः-- अर्थात् शुभ योगों से अशुभ योगों में गये हुए अपने आपको पुनः शुभ गोगों में लोटा लाना---प्रति प्रमाण है।
मक्षेप में प्रतिमा का अर्थ है--मिथ्यात्य, अविरति, प्रमाद, माय, अशुभ योग-ए पर-गाय में गाय कामी आत्मा चला जाता है, तो उसे तुरन्त अपने समाय में सम्पदय, संगम, अप्रमाद, रमा आदि पगं ए शुभ योग में ने आना-..-अशुभ में शुभ की ओर मोट लेना, परभार से माय आमा... मा नाम प्रति ।
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