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परिशिष्ट २
५३५ 'कोटि-कोटि भवों के संचित कर्म तस्या की अग्नि में भस्म हो जाते हैं। ___ नो पूयणं तवसा आवहेजा।
--सूत्रकृतांग ७४२७ तप के द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए। नन्नत्य निजरट्ठयाए तवमहिछेजा।
-दशवकालिक ६४ केवल कर्म-निर्जरा के लिए तपस्या करना चाहिए इहलोक परलोक व यशःकीति के लिए नहीं।
सउणी जह पंसुगुडिया, विहुणिय धंसयइ सियं रयं । एवं दविओवहाणवं कम्मं खवइ तवस्सि माहणे ।।
- सूत्रकृतांग २।१११५ जिस प्रकार पक्षी अपने परों को फड़फड़ा कर उन पर लगी धूल को झाड़ देता है उसी प्रकार तपस्या के द्वारा मुमुक्ष अपने कृतकों का बहुत शीघ्र ही अपनयन कर देता है । न. हु वालतवेण मुक्खुति ।
--आचारांग नियुक्ति २।४ ___अज्ञान तप से कभी मुक्ति नहीं मिलती है। १० जह खलु मइलं वत्यं सुज्झइ उदगाइएहिं दवहिं । एवं भावुवहाणणं सुझए कम्मट्ठविह ॥
_ --आचारांग नि० २०२ जिस प्रकार जल आदि शोधक द्रव्यों से मलिन वस्य भी शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार आध्यास्मिक तप:साधना द्वारा आत्मा ज्ञानावरणादि
अविध कर्म मन से मुक्त हो जाता है। . . ११ . तनु वा उत्तम वंभचेरं। . . . . ..
. नुकतांग ६२३ ___ अचात्त यों में सर्वोत्तम तप -- ब्रह्मचर्य। १२. अनिधाराममा चेक, दुक्करं चरितवो।
--उत्तराध्ययन १३: