________________
५३६
१३
१४
१६
जैन धर्म में तप
अर्थात् - तप का आचरण तलवार की धार पर चलने के समान
दुष्कर है।
एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरंगं ।
- आचारांग ११४१३
आत्मा को शरीर से पृथक् जानकर भोगलिप्त शरीर को तपस्या के
द्वारा धुन डालो ।
छन्दं निरोहेण उवेइ मोक्खं
१५
इच्छा निरोध-तप से मोक्ष प्राप्त होता है । सक्ख खुदीसह तवो विसेसो, न दीसई जाइविसेस कोई
तप की विशेषता तो प्रत्यक्ष दिखलाई देती है, किन्तु जाति की तो कोई - उत्तराध्ययन १२।३७ विशेषता नजर नहीं आती ।
तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजमजोग सत्ती, होमं गुणामि इसिणं पसत्यं ॥
-उत्तराध्ययन ४/५
- उत्तराध्ययन ११
तप ज्योति अर्थात् अग्नि है जीव ज्योति स्थान है, मन, वचन, काया योगति देने की कड़ी है, शरीर कारीयां प्रस लित करने का साधन है, कर्म बताये जाने वाला हैन योग शांतिपाठ है। इस प्रकार का पक्ष करता है जिसे ऋषियों ने ठ बताया है।
૨૭
जहा तवल्ली घुणते तवेणं, कम्पं तहा जाण तवोऽणुमंता ।
नित प्रार नाही तय के द्वारा अपने कमी की सुनता है क महलमा ४०१ उप अनुमोदन कहते
भी।
-