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________________ । अवस्ता में बैठे हैं,असावधानी और विस्मृति का दोष दूर नहीं हुआ है,तबार कोई दोष लगे ही नहीं, कोई भूल न हो - यह कैसे कहा जा सकता है ? और कहने पर मानेगा भी कौन ? गोंधि मन-वचन एवं शरीर का योग गरिदार है, जनल है, उसमें कहीं भी कगाय भाव का मिश्रण हुआ कि फिर यो भने बिना नहीं रहेगा। कोई यह कहे कि मैं दिन रात धर्ममय विकारों में हो मागाई, गुलमे कोई दोष नहीं हो सकता, कोई भूल नहीं हो सगती, तो इस छदमस्थ का यह दावा बैसा ही है कि अंधा कहे- मैं कभी ठोकार नहीं माना . जैन धर्म और भारत का, विश्व का प्रत्येक धर्म , यिनारगः गा मानता है . कि मनुष्य मे भूल होती है, दोष होते हैं, किन्तु साथ ही उस भूल को सुधारा भी जा सकता है दोष को विशुद्धि भी की जा सकती है। यम पर मनमा गब्बा लग सकता है,मीर में रोग हो सकता है, किन्तु समझदारी इस पच्चा तुरन्त माफ कर दिया जाय । गोग की चिकित्सा करणे शरीर को रमक बना लिया जाय । इसीलिए कहा जातामल करना समान है, भून सो स्वीकार करना, पटिन है. भून का गुबार करना और भी कठिन है। वा आदमी यही , मत्पुरुष या माघर यही है जो बहस दिन कार्य कर गा । जैन धर्म में इस भान सुधार को, दीप-विमुदिगो बारा मात्र दिया यहां तमः शिगे बाध्यतः मान लिया है। योग-मिति , लिए मामिल करने वाले को महान परवी माना गया, मोम गाय भी माटो जाती है । अानों को मारह प्रायशिनासा के लिए में भी काम में माना नितन हिना। प्रावित की परिभाषा Tari AE ला देताना मोति विमान RTE A fter कोही मिनि माग xxmaite भोजागी ।
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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