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जैन धर्म में सप पलेश, केशलोच आदि कठोर कष्ट सहन की सब क्रियाएं बेकार हो जायेगी, परलोक में न केवल मैं साधना की दृष्टि से दरिद्र ही रहूंगा, किन्तु पुरुष वेद को खोकर स्त्री वेद का भी बन्धन कर लूंगा। इस प्रकार का विवेगमय चिंतन कर साधक आलोचना के लिए मन को तैयार कर लेता है।
आलोचना करने वाले की मनोवैज्ञानिक स्थिति का चित्रण करते हुए शास्त्र में बताया है कि निम्न दस गुणों से सम्पन्न व्यक्ति कृत पाप की आलो चना करने में कभी पीछे नहीं हटता ।' वे दस गुण ये हैं---
१ जातिसम्पन्न - उत्तम जाति वाला-वह व्यक्ति प्रथम तो ऐगा बुरा काम करता नहीं, जिससे लोक निंदा और आत्मा दूषित हो, यदि भूल से कर लेता है तो शुद्ध मन से उसकी आलोचना के लिए भी प्रस्तुत रहता है। २ फुलसम्पन्न--उत्तम कुल वाला-वह व्यक्ति जो भी प्रायश्चित्त लेता है उसे पूरा पालता है, तथा पुनः दोप सेवन नहीं करने का सकल्प
भी कर लेता है। ३ विनयसम्पन्न --- विनयशील व्यक्ति भूल करने पर बड़ों की बात मान ।
कर उसका प्रायश्चित्त कर लेता है। ४ ज्ञानसम्पन्न-जिसके हृदय में ज्ञान होगा यह जानता है कि मोक्षमार्ग की आराधना के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं !
अकार्य कर लेने पर तुरन्त उसकी शुद्धि कर लेनी चाहिए। . ५ दर्शनसम्पन्न प्रद्धासम्पन्न व्यक्ति भगवान की वाणी पर विश्वास राता है, यह समानता है कि गास्त्रों में दोष के लिए जो
प्रायश्चित की विधि बताई है वही हदय यो भुद्धि करने में समय है। ६ चारित्रसम्पन्न-उत्तम पारित वाला टाक्ति अपने मानिसको निर्मल
गगने मे लिए दोनों की आलोचना करता है। ७ क्षान्त क्षमाशील व्यक्ति में इतना होता है कि दो कारण
में गुरमों को पटवार, विहार व भागना आदि मिलने पर भी
१. मग
म २३ नया मांग