________________
प्रायश्चित्त तप
४०१
कभी ऐसा प्रसंग आये कि इनमें से कोई भी न मिले तो ग्राम या नगर में बाहर जाकर पूर्व-उत्तर दिशा में मुह कर, विनम्रभाव से हाथ जोड़कर अपने अपराधो व दोषों का स्पष्ट उच्चारण करना चाहिए और अरिहंत-सिल भगवंत को साक्षी मे अपने आप प्रायश्चित्त लेकर मुद्ध हो जाना चाहिए।"
यह तो हुई एक विशेष परिस्थिति की बात ! वैसे सामान्य नियम यह है कि आलोचना किसी बहुश्रुत गंभीर प्रमण के पास करनी चाहिए। जी न्यायाधीशपद के लिए अनेक प्रकार के अध्ययन, अनुभव आदि को श्रेणी रखी जाती है, जो अनुभवी हो, अनेक विषयों का विद्वान हो, गंभीर हो, अपरागी के साथ पक्षपात व रियत बादि का शिकार न होता हो. उसे हो ग्यानाधीश मे महान पद पर विधाया जाता है, वैसे ही धर्मसंघ में आलोचना देने वाला एक प्रकार का न्यायाधीश होता है। प्राचीन राज्य व्यवस्था में तो न्यायाधीश को 'धर्माध्यक्ष कहा जाता था । वास्तव में न्याय और धर्म में बहुत ही नगयों का सम्बना है, 'सत्य' दोनों की ही मूल कटी है । तो धर्मसंघों में भी आलोचना देने वाला, दोषी का अपराध सुनने चाना मुछ विशिष्ट होना नाए ! मान में आलोचना देने वारदे की आठ विशेषताएं बनाई
१ आसारमान्---भानार मेपर। २ माघारयान--( माता-को समूपिरो, सुनो वालोनहारे भीमर मोरमापूर्वक विचार करने
३ सयान आग, पुस, आधा पाऔर जीरकार पायों में TEENA मा प्रतिनिधि, TE
f: ༔ པ ས ས ས པ ཝཱནྟེ ཡཔ༧tt ༈ ,3 པ ཕ ས པ ས ས 3:ས་ ཨཱ༔ : ༑ ༔ ཙtg