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जैन धर्म में तप क्रमण ! किन्तु वाकी कुछ प्रायश्चित्त जो हैं, वे गुरुजनों आदि को साक्षी से ही किये जाते हैं। प्रायश्चित्त कर्ता चाहे अल्पज्ञानी हो, अथवा शास्त्रों का घुरंघर, किन्तु जो प्रायश्चित्त गुरु साक्षी से करना हो उसे तो वैसे ही. उनके समक्ष जाकर करना चाहिए । यह नहीं कि “मुझे तो सब शास्त्रों का ज्ञान है, मुझे किसी के पास जाने की क्या जरूरत है ?" यदि ज्ञानी के मन में ऐसा विचार माता है तो इसका कारण है - उसे दूसरों के समक्ष दीप प्रकट करने में लज्जा या अपमान का अनुभव होता है, यदि ऐसी भावना है तो फिर सरलता कहाँ ? बिना सरलता के प्रायश्चित्त कसा ? दूसरी बात यह है कि अच्छे से अच्छा वैद्य भी अपना इलाज स्वयं नहीं करता । कहा है-- .
जह सुकसलो वि विज्जो अन्नस्स फइ अत्तणो बाहि । विज्जुबएसं सुच्चा पच्छा सो फम्ममापरइ ।
छत्तीसगुण समन्नागएण, सुट्ट वि यवहारफुसलेण। ..
पर सक्खिया विसोहि तेण वि अवस्स फायच्या!' जैरो परम निपुण वैद्य भी अपनी बीमारी दूसरे वैद्य से कहता है और उससे ही चिकित्सा करवाता है, उस वैद्य के कहे अनुसार कार्य करता है, वैसे ही भाचार्य के छत्तीस गुणों से युक्त एवं जान क्रिया --- व्यवहार आदि में विशेष निपुण होने पर भी पाप को विशुद्धि दूसरों की साक्षी से ही करनी चाहिए। क्यों कि ऐसा करने से हृदय को सरलता का परिचय मिलता है, तथा दूसरों को भी सरल एवं विशुद्ध होने की प्रेरणा मिलती है ।।
जैन नाबारशास्त्र के प्रमुरा नूय व्यवहार सूत्र में इस विषय कास्पाट उल्लेरा किया है कि बालोचना किसके पास गारनी चाहिए? बताया गया है - "rs. प्रथम आलोचना अपने आनाय, उपाध्याय के पास करनी चाहिए। में न हो तो सांभोगिमः वश्रुत साधु के पास, उन अभाव में समान वाले या भुत मा के पास, उनके अभाय में परमाला (जो मापन या बार श्रादः प्रत पाल रहा हो किन्तु पूर्व पान में मम पालने में प्रायश्चित विधि मामशे, गि, को) श्रायर में पास, उसका भी अभार हो को नि पर आदिनों में पान अपने बोषों को आनाचना गरी पा सार १ वार मो माया १.१३.