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भिक्षाचरी तप
तप के बारह भेदों में 'भिक्षाचरी' तीसरा तप है । भिक्षाचरी का अर्थ है-विविध प्रकार के अभिग्रह, (नियम संकल्प आदि) करके आहार पी गवेपणा करना । .भिक्षा का सीधा अर्थ होता है-याचना, मांगना । किन्तु सिर्फ मांगना भात्र तप नहीं होता। अनेक भिखारी दर-दर हाथ फैलाते हैं, सोली पसारे घूमते हैं, "अम्मा ! दो पैसा दे दे, बाबू ! कुछ देते जाओ!" शहरों में चारों और इस प्रकार की गुहार-पुकार सुनाई देगी। सहनों पर, स्टेशनों पर, रेल में कहीं भी जामो भिखारियों की फोज मांगती-हुई, दीनता पूर्वर याचना करती हुई दिखाई देगी, क्या ये भीख मांगने वाले भी निशाना है ? इनकी भिक्षा वृत्ति क्या भिक्षाचरी तप है ! नहीं ! यह तो उल्टा पाप है, ! मास्त्र में कहा है आदीणवित्ति यि फरेइ गवं' जो दीनता पूर्वक भिक्षा मांगता है, वह भी पाप करता है। इसलिए दीनतापूर्वक, असंयम को और लिप पेट भरने की लानमा से जो भिक्षा मांगता है, उस निक्षा को वासव में 'मिसा' नहीं, 'भीम' गहना नाहिए ! यह तो अशान निम्नस्तर की है,
१ मून गतांग ११०१६